काकतीय वंश |1000 ई.-1326 ई.

हैदराबाद का पूर्वी भाग तेलंगाना, काकतीय वंश के राजाओं के शासनकाल का महत्वपूर्ण केंद्र (राजधानी) रहा है। उस समय इस भाग को वारंगल नाम से जाना जाता था। कल्याण के चालुक्य वंश के शासकों के उत्कर्ष के समय काकतीय राजा अपने राज्य का प्रशासन चालुक्यों के सामंत के रूप में किया करते थे।

काकतीय वंश के शासकों ने पश्चिमी चालुक्य वंश (कल्याण के चालुक्य) के अधीन सामंतों के रूप में लगभग 1000 ई. से 1163 ई. तक शासन किया। राजेन्द्र चोल के आक्रमण के कारण चालुक्य वंश कमजोर हो चुका था। इसका लाभ उठाते हुए रूद्रदेव प्रथम ने चालुक्य वंश के राज्यों पर अपना अधिकार करते हुए ‘काकतीय राजवंश’ का विस्तार किया। काकतीय वंश को एक आंध्र राजवंश के रूप में जाना जाता है। यह राजवंश 12 वीं शताब्दी में अपने शक्ति के चरमोत्कर्ष पर था। काकतीय राजवंश ने वारंगल (आज का तेलंगाना) को राजधानी बनाकर 1083 ई. से 1326 ई. तक शासन किया। 1083 ई. के पूर्व तक काकतीय वंश की राजधानी अंमकोण्ड थी।

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काकतीय वंश का संस्थापक

काकतीय वंश का शासन काल – 1000 ई.-1326 ई.

प्रारंभ में काकतीय वंश के लोग चालुक्य शासकों के सामंत थे। अर्थात काकतीय वंश के शासक कल्याण के चालुक्यों के सामंत के रूप में राज्य करते आ रहे थे। इसलिए काकतीय वंश के प्रारंभिक संस्थापक की जानकारी स्पष्ट रूप में नहीं मिलती है। काकतीय लोग राष्ट्रकूटों के ही वंशज थे। काकतीय वंश का प्रथम ज्ञात शासक बेतराज प्रथम था। इसलिए काकतीय वंश का संस्थापक बेतराज प्रथम को माना जाता है।

राजेन्द्र चोल ने अपने विजय अभियान के दौरान चालुक्य वंश पर आक्रमण करके राज्य को नष्ट कर दिया, जिससे राज्य अव्यवस्थित हो गया। इसके कुछ समय उपरांत बेंतराज प्रथम ने हैदराबाद के नलगोड में अपने राज्य की स्थापना की। बेंतराज प्रथम भी पहले चालुक्य वंश का सामंत था। बहुत से इतिहासकार रुद्रदेव प्रथम को काकतीय वंश का संस्थापक मानते हैं, क्योकि इसके समय में चालुक्य साम्राज्य नष्ट हो चुका था, तथा इसने चालुक्यों की अधीनता से काकतीय वंश को स्वतंत्र करा लिया था।

काकतीय वंश का इतिहास एवं परिचय

प्रारंभिक काकतीय शासकों ने दो शताब्दियों से अधिक समय तक राष्ट्रकूटों और पश्चिमी चालुक्यों के सामंत के रूप में कार्य किया। इस समय बेतराज प्रथम चालुक्य वंश के शासक के सामंत थे। इन्होने 1000 ई. में हैदराबाद के नलगोंड में अपना राज्य स्थापित किया। यह राज्य काकतीय वंश के नाम से जाना गया। इस प्रकार काकतीय वंश की स्थापना हुई। यह राजवंश अब भी चालुक्यों के सामंतों के रूप में ही शासन कर रहा था।

1190 ई. के बाद कल्याण के चालुक्यों का साम्राज्य टूटकर तीन हिस्सों में विभाजित हो गया। जिसके एक भाग पर वारंगल के मूल निवासी काकतीय लोगों (शासकों) ने अपना अधिपत्य बनाये रखा। जबकि, दूसरे भाग पर द्वारसमुद्र के होएसलों ने अपना अधिकार कर लिया तथा तीसरे भाग पर देवगिरि के जाधवों ने अपना अधिकार कर लिया।

इसके पश्चात अपने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए इनमे आपसी संघर्ष होने लगा। काकतीय वंश की शक्ति प्रोलराज द्वितीय के समय विशेष बढ़ी। इस समय चोल शासक राजेंद्र चोल ने चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। राजेंद्र चोल के चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण करने से चालुक्य साम्राज्य काफी कमजोर हो चुका था। इस अवसर का लाभ उठाते हुए प्रोलराज द्वितीय के उत्तराधिकारी प्रताप रुद्रदेव प्रथम ने तेलंगाना (वारंगल) के क्षेत्रों में अन्य चालुक्य अधीनस्थों का दमन करके 1163 ई. में अपनी संप्रभुता स्थापित की।

प्रताप रुद्रदेव के बाद इनके भतीजे तथा प्रोलराज द्वितीय के पौत्र गणपति ने दक्षिण में कांची तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गणपति की कन्या रुद्रंमा बहुत ही प्रभावशाली शासक थी। उसकी शासन नीतियों से काकतीय साम्राज्य की काफी उन्नति हुई।

काकतीय राजा प्रतापरुद्रेव (रुद्रदेव द्वितीय) को दिल्ली के सुल्तानों से भी संघर्ष करना पड़ा था। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा भेजी सेना को 1303 ई. में काकतीय शासक प्रतापरुद्रदेव (रुद्रदेव द्वितीय) ने पराजित करके वापस भेज दिया था। इस प्रकार 1303 में, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा वारंगल को जीतने का पहला प्रयास असफल हो गया। परन्तु इसके चार वर्ष बाद यादवों द्वारा काकतीय नरेश प्रतापरुद्रदेव द्वितीय (प्रतापरुद्र द्वितीय) पराजित हो गए। उनकी इस हार से उत्साहित होकर अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापति मालिक काफूर के नेतृत्व में एक विशाल सेना को काकतीय नरेश प्रतापरुद्रदेव द्वितीय पर आक्रमण करने के लिये भेज दिया।

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का उद्देश्य वारंगल के राज्य को दिल्ली की सल्तनत में मिलाना नहीं था। क्योंकि वारंगल दिल्ली से काफी दूर था। दूरी ज्यादा होने के कारण वारंगल पर समुचित शासन कर पाना दिल्ली से संभव नहीं था। अलाउद्दीन खिलजी प्रताप रुद्रदेव पर अपना आधिपत्य जमाना और उसका अपार धन स्वायत्त करना चाहता था। इसी क्रम में उसने अपने सेनापति मलिक काफूर को आदेश भी दिया कि यदि काकतीय राजा उसकी शर्तें मान लें तो उसे वह बहुत परेशान न करे।

काकतीय वंश मानचित्र

मालिक काफूर ने अपनी विशाल सेना के साथ वारंगल किले को चारो तरफ से घेर लिया। प्रतापरुद्रदेव द्वितीय (प्रतापरुद्र द्वितीय) ने वारंगल के किले से मलिक काफूर का डटकर सामना किया। परन्तु काफूर ने अपनी सफल घेराबंदी से काकतीय नरेश प्रताप रुद्रदेव को संधि करने पर विवश कर दिया। और अंततः प्रताप रुद्रदेव द्वितीय को 1310 ई. में मालिक काफूर के साथ संधि करनी पड़ी।

मलिक काफूर ने इस संधि के बाद काककीय राजा से भेंट में 100 हाथी, 7,000 घोड़े और अनंत रत्न तथा ढाले हुए सिक्के प्राप्त किये। इसी समय मालिक काफूर को कोहिनूर हीरा भी प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त राजा प्रताप रुद्रदेव द्वितीय ने दिल्ली के सुल्तान को वार्षिक कर देना भी स्वीकार किया। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात दिल्ली में अराजकता फ़ैल गयी। इसका फायदा उठाते हुए प्रतापरुद्रदेव द्वितीय ने वार्षिक कर देना बंद कर दिया। और अपने राज्य की सीमाओं का पर्याप्त विस्तार भी कर लिया।

खिलजी वंश के पश्चात दिल्ली में तुगलक वंश का शासन शुरू हुआ। तुगलक वंश के पहले सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने 1326 ई. में अपने बेटे मुहम्मद उलूग खान या जौना खान (आगे चलकर मुहम्मद बिन तुग़लक़ नाम से दिल्ली का सुल्तान हुआ) को सेना देकर वारंगल जीतने भेजा। जौना ने वारंगल के किले पर घेरा डाल दिया। परन्तु हिंदुओं ने (काकतीय वंश) डटकर उसका सामना किया। हिन्दुओं के कड़े प्रतिरोध और दिल्ली में हुए आतंरिक विद्रोह के कारण जुना खां (जौना खां) को बाध्य होकर दिल्ली वापस लौटना पड़ा।

परन्तु चार महीने बाद ही दिल्ली सुल्तान ने वारंगल पर पुनः आक्रमण किया। काकतीय नरेश ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी और एक घमासान युद्ध हुआ। परन्तु काकतीय नरेश प्रतापरुद्रदेव द्वितीय (प्रतापरुद्र द्वितीय) को हार का सामना करना पड़ा। अंततः काकतीय नरेश ने अपने परिवार और सरदारों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। जिसके पश्चात जौना खां ने प्रतापरुद्र को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाना चाहा था। किन्तु मार्ग में ही नर्मदा नदी के तट पर इस स्वाभिमानी और वीर पुरुष ने अपने प्राण का त्याग कर दिया।

इस प्रकार काकतीय वंश की समाप्ति हो गयी। और काकतीय राज्य पर दिल्ली का अधिकार हो गया। जौना खां ने वारंगल का नाम बदलकर सुल्तानपुर रख दिया। ककातीय वंश के शासनकाल में वरंगल में हिन्दू संस्कृति तथा संस्कृत और तेलुगु भाषाओं की अभूतपूर्व उन्नति हुई। शैव धर्म के अंतर्गत पाशुपत सम्प्रदाय का यह उत्कर्षकाल था। इस समय वरंगल का दूर-दूर के देशों से व्यापार होता था।

इस प्रकार सर्वप्रथम ग़यासुद्दीन तुगलक के समय में ही दक्षिण के राज्यों को दिल्ली सल्तनत में मिलाया गया। इन राज्यों में सर्वप्रथम वारंगल था।काकतीय राज्य को दिल्ली की सल्तनत में मिलाने के साथ साथ उसको शक्ति विहीन कर दिया गया। प्रतापरुद्रदेव द्वितीय (प्रतापरुद्र द्वितीय) तथा प्रतापरुद्रदेव प्रथम के समय पर काकतीय वंश की शक्ति अपने शिखर पर थी। इनके पूर्ववर्ती राजा इतने शक्तिशाली नहीं थे। हालाँकि वारंगल की रानी रुद्रम्मा (1261 ई. से 1296 ई.) ने तेलंगाना (वारंगल) को शक्ति एवं शालीनता दोनों ही प्रदान की। रानी ने अपनी अस्मत पर हाथ लगाने का साहस करने वाले मुसलमान नवाब के छक्के छुड़ा दिए। तेलंगाना का अधिकतर भाग निजाम के अधिकार में रहा है और उसकी राजधानी वारंगल रही है।

काकतीय वंश का राज्य विस्तार

प्रतापरुद्रदेव प्रथम ने वारंगल को काकतीय राज्य की राजधानी बनाया था। रुद्र प्रथम के बाद ‘महादेव’ व ‘गणपति’ शासक बने। रुद्र प्रथम काकतीय वंश के सबसे योग्य व साहसी राजाओं में से एक थे। उन्होंने अपने राज्य की सीमा का बहुत विस्तार किया। शासक गणपति ने विदेशी व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन प्रदान किया था। गणपति ने व्यापर में बाधक बन रहे विभिन्न बाधक तट करों को समाप्त कर दिया। ‘मोरपल्ली’ (आंध्र प्रदेश) उसके काल का प्रमुख बंदरगाह था।

काकतीय वंश का मुस्लिम शासकों से संघर्ष

गणपति के बाद उसकी पुत्री रुद्रमा देवी वारंगल की शासिका बनी। रुद्रमा देवी का उत्तराधिकारी उनका पुत्र ‘प्रतापरुद्र देव’ द्वितीय थे। इन्ही के शासन काल में ख़िलजी एवं तुग़लक़ शासकों ने वारंगल पर आक्रमण किया। चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में जब अफगान सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलज़ी का प्रसिद्ध सेनापति मलिक काफ़ूर दक्षिण भारत की विजय के लिए निकला, तो देवगिरि के यादवो और द्वारसमुद्र के होयसलों को परास्त करने के पश्चात वारंगल के काकतीयों को हराकर संधि करने पर विवश कर दिया।

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात, तुगलक वंश के शासक गयासुद्दीन तुगलक ने 1326 ई. में अपने पुत्र ‘उलगू ख़ाँ’ अथवा जौना खां के नेतृत्व में वारंगल पर आक्रमण कर दिया। परन्तु वारंगल को जीतने में असमर्थ रहा और प्रताप रुद्रदेव द्वितीय से परस्त होकर वापस दिल्ली आ गया। इसके चार महीने बाद 1326 ई. में ही उसने द्वितीय अभियान के तहत पुनः अपने पुत्र उलूग खान या जौना खान (मुहम्मद बिन तुग़लक़) को वारंगल पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस बार उसने वारंगल पर आक्रमण कर प्रतापरुद्र देव द्वितीय को बंदी बना लिया। इसके बाद काकातीय साम्राज्य पर दिल्ली सल्तनत का अधिकार हो गया।

काकतीय राजवंश के शासक

काकतीय वंश के शासकों के नाम इस प्रकार हैं-

  • बेतराज प्रथम या यर्रय्या (1000 ई.-1050 ई.) (संस्थापक)
  • प्रोलराज प्रथम (1030 ई.-1080 ई.)
  • बेतराज द्वितीय (1080 ई.-1115 ई.)
  • प्रोलराज द्वितीय (1115 ई.-1158 ई.)
  • रुद्रदेव प्रथम (1158 ई.-1197 ई.)
  • महादेव (1197 ई.-1198 ई.)
  • गणपतिदेव (1198 ई.-1261 ई.)
  • रुद्रमा देवी (1261 ई.-1296 ई.)
  • प्रतापरुद्रदेव (रुद्रदेव द्वितीय) (1296 ई.-1326 ई.)

काकतीय राजवंश के शासकों का संक्षिप्त परिचय

काकतीय वंश के शासकों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है –

बेतराज प्रथम या यर्रय्या (1000 ई.-1050 ई.)

प्रारंभ में काकतीय वंश के लोग चालुक्य शासकों के सामंत के रूप में कार्य करते थे। चालुक्य साम्राज्य के एक सामंत (जागीरदार) यर्रय्या ने बेंतराज के नाम से 1000 ई. में हैदराबाद के नलगोड में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इस राज्य को काकतीय वंश के नाम से जाना गया। बेंतराज के बाद उत्तराधिकारी प्रोलराज प्रथम हुए।

प्रोलराज प्रथम (1030 ई.-1080 ई.)

प्रोलराज वातापि के पश्चिमी चालुक्यों का सामंत था। प्रोलराज चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम की ओर से अनेकों युद्ध लड़े। जिससे प्रसन्न होकर सोमेश्वर प्रथम ने प्रोलराज प्रथम को वारंगल में हनुमकुंड का स्थायी सामंत बना दिया।

बेतराज द्वितीय (1080 ई.-1115 ई.)

बेतराज द्वितीय चालुक्य शासक विक्रमादित्य से कुछ प्रदेश प्राप्त किए। इन्होने 1080 ई. से 1115 ई. तक शासन किया। बेतराज द्वितीय ने अंमकोड़ को अपनी राजधानी बनाया।

प्रोलराज द्वितीय (1115 ई.-1158 ई.)

 प्रोलराज द्वितीय ने बेतराज द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में 1115 ई. से 1158 ई. तक काकतीय वंश के शासक के रूप में राज्य किया। पोलराज द्वितीय शुरू में कल्याणी के चालुक्यों के सामंत (जागीरदार) थे। चालुक्य साम्राज्य के विघटन के समय प्रोलराज द्वितीय ने अपने को चालुक्यों की अधीनता से मुक्त करते हुए गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच के प्रदेश पर अपना एक छत्र शासन स्थापित कर लिया। इन्होने चालुक्य नरेश तैल तृतीय को परास्त कर बंदी बना लिया, परंतु बाद में उसे स्वतंत्र कर दिया। इनके उत्तराधिकारी इनके पुत्र रुद्रदेव थे। 

रुद्रदेव प्रथम (1158 ई.-1197 ई.)

रुद्रदेव प्रथम काकतीय वंश के सबसे साहसी व योग्य राजाओं में से एक थे। इन्होने दक्षिणी भारत में वर्तमान तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों पर शासन किया था। वह अपने वंश का प्रथम संप्रभु शासक थे। अपने पिता प्रोलराज द्वितीय की तरह, रुद्रदेव प्रथम भी शुरू में कल्याणी के चालुक्यों के जागीरदार थे।

राजेंद्र चोल के आक्रमण के फलस्वरूप चालुक्य शक्ति के पतन के बीच, रुद्रदेव प्रथम ने कई अन्य चालुक्य अधीनस्थों को अपने अधीन कर लिया रुद्रदेव प्रथम ने चालुक्य सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने वाले चोडा प्रमुख भीम द्वितीय, नागुनुरु के डोम्मा-राजा और पोलावासा के मेदा द्वितीय को भी अपने अधीन कर लिया। अपने पिता की भांति इन्होने भी चालुक्य नरेश तैल को पराजित किया था।

रुद्रदेव प्रथम ने 1163 ई.पू. के लगभग संप्रभुता की घोषणा की। इन्होने वेलनाती चोडा शक्ति के पतन के समय अनेक स्थानीय शासकों को परास्त करके तटीय आंध्र क्षेत्र पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। रुद्रदेव प्रथम ने काकतीय वंश की राजधानी को अंमकोण्ड/अनुमाकोम्दा (वर्तमान हनमकोंडा) से ओरुगल्लू (वर्तमान वारंगल) में स्थानांतरित कर दिया, और वहां एक किले का निर्माण किया। 

रुद्रदेव प्रथम ने अनुमाकोम्दा (अंमकोण्ड) में रुद्रेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर हजार स्तंभ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यादव नरेश जैतुगी ने लगभग 1196 ई. में युद्ध में रुद्रदेव की हत्या कर दी तथा उनके भतीजे गणपति को बंदी बना लिया। रुद्रदेव का छोटा भाई महादेव उसके बाद राजा बने। जो केवल तीन वर्षों तक ही शासन किये।

महादेव (1197 ई.-1198 ई.)

रुद्रदेव प्रथम के छोटे भाई महादेव रुद्रदेव प्रथम के बाद काकतीय वंश के उत्तराधिकारी बने। जिनका शासनकाल अत्यंत अल्प समय के लिए था। महादेव ने 1197 ई. से 1198 ई. तक (लगभग तीन वर्षों तक) काकतीय साम्राज्य के शासक के रूप में शासन किया। 1199 ई. में यादव नरेश जैतुगी द्वारा महादेव के पुत्र गणपतिदेव को स्वतंत्र कर देने के बाद गणपतिदेव राजा बने। 

गणपतिदेव (1198 ई.-1261 ई.)

1199 ई. में यादव नरेश जैतुगी ने गणपति को स्वतंत्र कर दिया। गणपति देव महादेव के पुत्र तथा रुद्रदेव प्रथम के भतीजे थे। जिसके पश्चात गणपतिदेव काकतीय वंश के राजा बने। गणपतिदेव काकतीय वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली तथा सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले शासक थे। इन्होने लगभग 60 वर्षो से भी साधिक समय तक शासन किया। इन्होने कांची, आंध्र, नेल्लोर, कर्नुल को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था।

गंपतिदेव ने अपने समय में मोटूपल्ली स्थान के कृष्ण जिला में बंदरगाह बनवाया था, जहाँ से विदेशी व्यापार होता था।1263 ई. में सुंदर पांड्य ने गंपतिदेव को पराजित करके कांची तथा नेल्लोर पर अधिकार कर लिया। जिसके परिणाम स्वरूप गणपति ने अपनी राजधानी पुनः वारंगल में स्थांतरित कर ली। गणपतिदेव के बाद इनका उत्तराधिकारी इनकी पुत्री रुद्रमा देवी बनी। 

रुद्रम्बा देवी/ रुद्रमा देवी (1261 ई.-1296 ई.)

रुद्रम्बा देवी अथवा रुद्रमा देवी गणपति की पुत्री थी। इसकी एक बहन भी थी जिसका नाम गणपांबा था। रुद्रम्बा देवी अपने समय की शक्तिशाली और प्रभावशाली महिला थी। इन्होने ने अपने राज्य में जल निकासी की उचित व्यवस्था बनायीं थी और सिंचाई व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया। विदेशी यात्री मार्को पोलो ने अपनी यात्रा के दौरान अपनी लिखी पुस्तक मे रुद्रम्बा देवी की काफी प्रशंसा की है ओर उनके शासन काल को उत्कृष्ट शासन काल बताया है। इनके बाद इनका उत्तराधिकारी इनका दत्तक पुत्र प्रतापरुद्रदेव या रुद्रदेव द्वितीय बने।

प्रतापरुद्रदेव/ रुद्रदेव द्वितीय (1296 ई.-1326 ई.)

रुद्रम्बा देवी ने प्रताप रूद्रदेव को गोद लिया था। प्रतापरुद्र अपनी माता रुद्रमादेवी के उत्तराधिकारी के रूप में काकतीय सम्राट बने। काकतीय सम्राट बनने के बाद सबसे पहले उन्होंने उन अवज्ञाकारी सरदारों को अपने अधीन कर लिया, जिन्होंने उसके पूर्ववर्ती शासनकाल के दौरान अपनी स्वतंत्रता का दावा किया था। प्रतापरुद्रदेव ने यादवों (सेनास), पांड्यों और काम्पिली के पड़ोसी राज्यों के खिलाफ भी सफलता प्राप्त किया था।

प्रतापरुद्रदेव ने काकतीय वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा का पुनरुद्धार किया। उन्होंने अंबदेव को पराजित कर कर्नूल तथा कुड्डपह को पुनः जीता तथा नेल्लोर पर आक्रमण किया। 

1310 में, उन्हें दिल्ली सल्तनत के आक्रमण का सामना करना पड़ा , और वे दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के साथ संधि करने के लिए विवश हो गए। परन्तु अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद, उन्होंने संधि की शर्तों को मानाने से इंकार कर दिया। परन्तु 1318 ई. में दिल्ली सल्तनत के शासक अलाउद्दीन खिलजी के बेटे मुबारक शाह ने उन्हें संधि की शर्तों को पुनः मानने के लिए मजबूर कर दिया। 

खिलजी वंश के अंत के बाद, प्रतापरुद्रदेव ने फिर से दिल्ली सल्तनत के साथ हुई शर्तों को तोड़ दिया, और अपना दक्षिणी अभियान प्रारंभ किया। अपने दक्षिण अभियान के तहत प्रतापरुद्रदेव नेल्लोर और कांची पर विजय प्राप्त करते हुए त्रिचनापल्ली तक जा पहुँचे। परंतु उसकी सफलतायें कुछ समय के लिये ही थी।

कुछ समय पश्चात 1322 ई. में दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के मोहम्मद बिन तुगलक ने प्रतापरुद्रदेव को पराजित करके बंदी बना लिया। बंदी बनाने के बाद प्रताप रुद्रदेव और उनके परिवार को दिल्ली भेज दिया गया। परन्तु दिल्ली जाते समय रास्ते में नर्मदा नदी के तट पर इन्होने अपने प्राण त्याग दिए।

काकतीय वंशजों की जाति

काकतीय लोग अपने को चोल करिकाल का वंशज मानते थे। अनेक इतिहासकारों का मानना है कि काकतीय शासक दुर्जय नामक एक महान प्रमुख शासक के वंशज थे। हालाँकि आंध्र के कई अन्य शासक राजवंश भी महान शासक दुर्जय को अपना पूर्वज होने का दावा करते हैं। परन्तु प्रमुख शासक दुर्जय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता लग पाया है। काकतीय अभिलेखों में परिवार के वर्ण का उल्लेख नहीं है। इतिहासकारों के अनुसार काकतीय वंश ने कोटा और नटवादी प्रमुखों के साथ भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। इन प्रमाणों के आधार पर कुछ विद्वान काकतीय वंशजों को शुद्र मूल का मानते है।

लेकिन ताम्रपत्र शिलालेख में काकतीय वंश को क्षत्रिय वर्ण से संबंधित बताया गया है। इसी प्रकार गणपति मोतुपल्ली शिलालेख में काकतीय परिवार के पूर्वज दुर्जय के पूर्वजों में राम जैसे पौराणिक सूर्य वंशी राजाओं की गिनती होती है।

काकतीय वंश के प्रमुख शिलालेख

काकतीय वंश के प्रमुख शिलालेख नीचे दिए गए हैं –

मल्कापुरम शिलालेख

रानी रुद्रंबा देवी के गुरु विश्वेश्वर शिवाचार्य का मल्कापुरम शिलालेख काकतीय वंश को सूर्य वंश से जोड़ता है। इसके साथ ही मंगलु और बयाराम शिलालेख की एक व्याख्या के अनुसार काकतीय केवल राष्ट्रकूट जागीरदार ही नहीं थे बल्कि राष्ट्रकूट परिवार की एक शाखा भी थे।

मंगलू शिलालेख

काकतीय प्रमुख गुंडा चतुर्थ के अनुरोध पर वेंगी चालुक्य राजकुमार दानार्णव द्वारा 956 ई. में मंगलू शिलालेख जारी किया गया। जिसमे गुण्ड्याना के पूर्वजों को गुण्डिया राष्ट्रकूट बताया गया हैं। इस से यह पता चलता है की गुंडा चतुर्थ एक राष्ट्रकूट सेनापति था।

बयाराम टैंक शिलालेख

गणपति की बहन मैलाम्बा द्वारा बयाराम टैंक शिलालेख निर्मित करवाया गया था। इस शिलालेख में काकतीय वंश को राष्ट्रकुटो से संबंधित बताया गया है।

वेंगी शिलालेख

वेंगी शिलालेख राजा गुणपंडित के शासनकाल के हैं, जो काकतीय राजवंश के एक महत्वपूर्ण राजा थे। इसमें उनके राज्य के विकास और उनके प्राशासिक प्रक्रिया का वर्णन मिलता है।

हनमकोण्डा शिलालेख

हनमकोण्डा शिलालेख काकतीय राजा गणपतिदेव के द्वारा जारी किया गया था और इसमें राजा के धर्मिक और राजनीतिक कार्यों का विवरण होता है।

कृष्णादेवराय के शिलालेख

इस शिलालेख में विजय नगर के अंतर्गत तुलुव वंश के महान और प्रतापी शासक कृष्णादेवराय द्वारा एक महान राजा के रूप में, काकतीय राजा प्रतापरुद्र द्वितीय की प्रशंसा और उनके योगदान का वर्णन किया गया है।

रुद्रमादेवी शिलालेख

रुद्रमादेवी शिलालेख में रानी रुद्रमादेवी के बारे में जानकारी दी गई है, जो काकतीय राजवंश की पहली महिला राजा थी।

काकतीय वंश की परम्परा एवं धर्म

काकतीय राजवंश एक मध्ययुगीन भारतीय राजवंश था। इसने 12वीं से 14वीं शताब्दी तक भारत के वर्तमान तेलंगाना और आंध्र प्रदेश क्षेत्रों के कुछ हिस्सों पर शासन किया था। यह राजवंश कला, वास्तुकला, साहित्य और धार्मिक संस्थानों के संरक्षण के लिए जाना जाता था। काकतीय शासन काल के दौरान परंपराओं और धार्मिक प्रथाओं की प्रमुख जानकारी नीचे दी गई है –

हिंदू धर्म

काकतीय शासक कट्टर हिंदू थे। उन्होंने अपने राज्य में हिंदू धर्म को प्रमुख धर्म के रूप में प्रचारित किया। वे स्वयं हिंदू धर्म के भीतर शैव और शाक्त परंपराओं के अनुयायी थे। शैववाद भगवान शिव की पूजा है, जबकि शक्तिवाद दिव्य स्त्री ऊर्जा की पूजा है, जिसे मुख्य रूप से देवी दुर्गा या देवी के रूप में दर्शाया जाता है।

मंदिर

काकतीय लोग मंदिर निर्माण के संरक्षण के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपने राज्य भर में विभिन्न हिंदू देवताओं को समर्पित कई मंदिर बनवाए। उनमें से सबसे प्रसिद्ध वारंगल में श्री भद्रकाली मंदिर है, जो देवी भद्रकाली को समर्पित है। काकतीय लोग स्वयं को देवी काली का भक्त मानते थे। हनमकोंडा में हजार स्तंभ मंदिर और पालमपेट में रामप्पा मंदिर उनके मंदिर वास्तुकला के अन्य उल्लेखनीय उदाहरण हैं।

प्रतिमा विज्ञान और मूर्तिकला

काकतीय काल में मंदिर मूर्तिकला और प्रतिमा विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस युग की मूर्तियों की विशेषता जटिल विवरण, अभिव्यंजक रूप और कुशल शिल्प प्रतिभा है।

धार्मिक त्यौहार

काकतीय राजवंश विभिन्न हिंदू त्यौहारों को भव्यता के साथ मानते थे। महा शिवरात्रि, नवरात्रि, दिवाली और उगादि (तेलुगु नव वर्ष) जैसे त्योहार उत्साह और भक्ति के साथ मनाए जाते थे। इन त्योहारों में विस्तृत अनुष्ठान, जुलूस, सांस्कृतिक प्रदर्शन और देवताओं को प्रसाद चढ़ाना शामिल था।

सांस्कृतिक समन्वयवाद

काकतीय काल के दौरान, हिंदू धर्म और जैन धर्म के बीच सांस्कृतिक समन्वय था। कुछ काकतीय शासकों को हिंदू धर्म के समर्थन के साथ-साथ जैन मंदिरों और संस्थानों को संरक्षण देने के लिए जाना जाता था।

शिलालेख और अनुदान

काकतीय राजवंश के दौरान कई शिलालेख और अनुदान जारी किए गए, जिन्हें “प्रशस्ति” के नाम से जाना जाता है। इन शिलालेखों में उनकी धार्मिक बंदोबस्ती, मंदिरों को दान, और पुजारियों और धार्मिक संस्थानों को भूमि अनुदान दर्ज थे। ये शिलालेख काकतीय काल के बारे में बहुमूल्य ऐतिहासिक और धार्मिक जानकारी प्रदान करते हैं। काकतीय काल के दौरान धार्मिक प्रथाएं और परंपराएं मुख्य रूप से हिंदू-केंद्रित थीं।

काकतीय वंश के शासन के दौरान शैववाद और शक्तिवाद पर जोर दिया गया था। हालाँकि, काकतीय राजवंश ने जैन धर्म जैसी अन्य परंपराओं के साथ अपनी बातचीत के माध्यम से सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता भी प्रदर्शित की है। गरुड़ यहाँ के शाही चोल प्रतीक चिन्ह के रूप में संदर्भित है। परन्तु जब काकतीय लोगो ने कल्याणी के चालुक्य के प्रति अपनी निष्ठा बदली, तो उन्हों ने उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए वराह प्रतीक को भी अपनाया। काकतीय लोग शैव धर्म के उपासक थे। इन्होने शैव वाद को अपने परिवार के धर्म के रूप में स्थापित किया।

शैव धारण को अपने परिवार धर्म के रूप में स्थापित करने वाले काकतीय राजवंश के शासकों में हरिहर, गणपति, रुद्रम्बा और महादेव आदि शासकों के नाम आते है।

काकतीय वंश का पतन

दिल्ली सल्तनत के प्रसिद्ध शासक, दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 1303 ई में साम्राज्य को लूटने के लिए एक सेना भेजी। परन्तु प्रताप रुद्रदेव द्वितीय ने उन्हें हराकर वापस जाने पर विवश कर दिया। पुनः 1310 ई में, अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर के नेतृत्व में वारंगल पर आक्रमण के लिए एक और सेना भेजी। इस युद्ध में प्रतापरुद्रदेव को हार का सामना करते हुए संधि करना पड़ा। इस संधि के पश्चात प्रतापरुद्र एक विशाल कर देने के लिए सहमत हुए थे।

1318 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के निधन के बाद प्रतापरुद्र ने आगे कर देना बंद कर दिया। इसके पश्चात मुसलमानों का एक और आक्रमण काकतीय राजवंश में हुआ। वारंगल पर कब्जा करने के लिए, तुगलक वंश के प्रसिद्ध शासक, गयासुद्दीन तुगलक ने 1326 ई. में उलुग खान के अधीन एक विशाल सेना भेजी। उसने वारंगल को घेरा। परन्तु काकतीय राज्य के हिन्दुओं के कड़े प्रतिरोध और कुछ आंतरिक विद्रोहों के कारण गयासुद्दीन तुगलक (जौना खां) को वापस दिल्ली जाना पड़ा।

परन्तु कुछ महीनों बाद ही गयासुद्दीन तुगलक (जौना खां) वापस आ गया। एक विशाल सेना के साथ प्रतापरुद्र ने उनके खिलाफ वीरतापूर्ण लड़ाई लड़ी। परन्तु इस युद्ध में प्रताप रुद्रदेव परस्त हो गए, और आत्मसमर्पण कर दिया। उनके आत्मसमर्पण के बाद प्रतापरुद्र को गिरफ्तार कर कैदी के रूप में दिल्ली ले जाया जा रहा था। दिल्ली जाते समय रस्ते में ही उनका निधन हो गया। इसने काकतीय राजवंश के अंत को चिह्नित किया।

काकतीय राजवंश के योगदान

काकतीय वंश

काकतीय राजवंश के शासन को तेलुगु के इतिहास का सबसे आशाजनक काल माना गया है। राज्य के प्रबंधन के अलावा, काकतीय राजवंश के शासकों ने भी कला और साहित्य को संरक्षण दिया। साथ ही काकतीय राजवंश की पहल के कारण, संस्कृत की भाषा का पुनरुत्थान हुआ था। प्रतापरुद्र ने अन्य साहित्यों को भी बढ़ावा दिया।

काकतीय राजवंश धार्मिक कला में अत्यंत समृद्ध है। काकतीय राजवंश के मंदिर भगवान शिव के स्मरण में बनाए गए थे। वास्तव में ये उत्तरी और दक्षिणी भारत की शैलियों के बीच परिपूर्ण सम्मिश्रण के उदाहरण हैं, जिसने पूर्ववर्ती दक्कन क्षेत्रों के राजनीतिक परिदृश्य को भी ढाला।

काकतीय वंश से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य

  • अलाउद्दीन खिलजी की सेना को वारंगल में 1303 ई. में काकतीय शासकों की सेना द्वारा पराजित किया गया था।
  • 1303 में, अलाउद्दीन द्वारा वारंगल को जीतने का पहला प्रयास एक आपदा में समाप्त हो गया क्योंकि काकतीय राजवंश की सेना ने उन्हें पराजित कर दिया था।
  • काकतीय एक आंध्र राजवंश है जो 12 वीं शताब्दी ईस्वी में फला-फूला था।
  • काकतीय राजवंश ने वारंगल (तेलंगाना) पर 1083 से 1326 ईस्वी तक शासन किया।
  • काकतीय वंश के पराक्रमी शासक सम्राट गणपति देवा द्वारा निर्मित एक मंदिर।
  • धरणीकोटा (आंध्र प्रदेश) को स्थानीय देवी बालूसुलम्मा (देवी दुर्गा) का निवास स्थान में बदल दिया गया है।
  • 13वीं सदी के इस मंदिर में इष्टदेव काकती देवी थीं, जो काकतीय शासकों की रक्षक देवी थीं। जो समय के प्रकोपों और रखरखाव नहीं होने के कारण, क्षतिग्रस्त हो गयी हैं।
  • काकतीय राजवंश के गणपति देवा, रुद्रमा देवी और प्रतापरुद्र जैसे काकतीय राजाओं के संरक्षण में सैकड़ों हिंदू मंदिर बने हैं। 
  • यहाँ एक तारे के आकार का, तिहरा तीर्थ (त्रिकुटलयम) है जो विष्णु, शिव और सूर्य को समर्पित है। जहाँ एक मंदिर है जिसका नाम हजार स्तंभ मंदिर या रुद्रेश्वर स्वामी मंदिर, तेलंगाना है।

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