सम्राट पृथ्वीराज चौहान को राज पिथौरा और हिन्दू सम्राट के नाम से भी जाना जाता है। भारत की पवित्र धरती पर सदियों से कई वीरों ने जन्म लिया। और उन्होंने भारत माता की आन, मान और शान के लिए खुद के जीवन की आहुति दे दी। ऐसे ही वीर राजा पृथ्वीराज चौहान हुए, जो चौहान वंश में जन्मे आखिरी हिंदू शासक थे। जिन्होंने मात्र 11 वर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु के बाद दिल्ली और अजमेर का शासन संभाला और उसका विस्तार भी किया।
महान शूरवीर और पराक्रमी योद्धा पृथ्वीराज चौहान का जन्म 22 मई सन् 1166 में पाटण (गुजरात) में हुआ था। इनके पिता का नाम महाराजा सोमेश्वर था। और माता का नाम कर्पुरा देवी था। इनके पिता अजमेर के राजा थे। 11 वर्ष के उम्र में ही इनके पिता की मृत्यु हो गई, तब इन्होंने छोटी उम्र में ही अजमेर का कार्यभार संभाला और अजमेर के उत्तराधिकारी बने।
पृथ्वीराज चौहान का संक्षिप्त परिचय
- इनका पूरा नाम पृथ्वीराज चौहान था।
- पृथ्वीराज चौहान को राज पिथौरा और हिन्दू सम्राट के नाम से भी जाना जाता है।
- इनका जन्म पाटण (गुजरात) में 22 मई सन् 1166 में हुआ था। इनके पिता का नाम महाराजा सोमेश्वर था। और माता का नाम कर्पुरा देवी था।
- इनकी पत्नी का नाम संयोगिता (अन्य नाम: तिलोत्तमा, कान्तिमती, संजुक्ता) था।
- इनके पुत्र का नाम गोविंदराजा चतुर्थ था। इनकी कोई पुत्री नहीं थी।
- इनके मित्र एवं दरवारी कवि का नाम चंदबरदाई था। जिसने पृथ्वीराज रासो नमक ग्रन्थ की रचना की।
- पृथ्वीराज चौहान के बचपन के मित्र चंदबरदाई उनके लिए किसी भाई से कम नहीं थे।
- पृथ्वीराज चौहान ने चंदबरदाई के सहयोग से पिथौरागढ़ का निर्माण किया, जो आज भी दिल्ली मे पुराने किले नाम से विद्यमान है। इसी कारण इन्हें राय पिथौरा भी कहा जाता है।

- पृथ्वीराज चौहान का गोत्र “चंद्रवंशी” था। वह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के वंशज थे और राजस्थान क्षेत्र में अपने साम्राज्य का शासन करते थे। चौहान वंश के सदस्यों को चंद्रवंशी या चौहान या चौहान राजपूत के रूप में जाना जाता है।
- पृथ्वीराज को आखिरी हिन्दू शासक माना जाता है। हालाँकि इनके क्षत्रिय या जाट होने पर विवाद भी है। कुछ का मत है की यह क्षत्रिय थे। जबकि कुछ का मत है कि पृथ्वीराज चौहान जाट थे।
पृथ्वीराज चौहान का जीवन परिचय
पूरा नाम | पृथ्वीराज चौहान |
अन्य नाम | भरतेश्वर, पृथ्वीराज तृतीय, हिन्दूसम्राट, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा |
व्यवसाय | क्षत्रिय |
जन्मतिथि | 22 मई सन् 1166 |
जन्म स्थान | पाटण, गुजरात, भारत |
मृत्यु तिथि | दिसंबर, 1192 |
मृत्यु स्थान | अजयमेरु (अजमेर), राजस्थान |
उम्र | 26 साल |
शासन अवधि | 1178–1192 |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
धर्म | हिन्दू |
वंश | चौहानवंश |
जाति | क्षत्रिय या जाट ( विवाद हैं) |
वैवाहिक स्थिति | विवाहित |
पिता | सोमेश्वर |
माता | कर्पूरदेवी |
भाई | हरिराज |
बहन | पृथा |
पत्नी | 13 |
बेटा | गोविंद चौहान |
बेटी | कोई नहीं |
पराजय | मुहम्मद गौरी से |
पृथ्वीराज चौहान: वीरता, विद्वता और विरासत का प्रतीक
पारिवारिक पृष्ठभूमि और जन्म
पृथ्वीराज चौहान का जन्म भारत के मध्यकालीन इतिहास में चौहान वंश के प्रतिष्ठित राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरादेवी के घर हुआ था। उनकी माता कर्पूरादेवी दिल्ली के प्रसिद्ध राजा अनंगपाल तोमर की पुत्री थीं। पृथ्वीराज और उनके छोटे भाई हरिराज का जन्म गुजरात में हुआ, जहाँ उनके पिता सोमेश्वर को उनके रिश्तेदारों ने चालुक्य राजदरबार में पाला-पोसा था।
राजनीतिक उथल-पुथल के कारण, जब पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु हुई, तो सोमेश्वर को चौहान वंश का नया शासक घोषित किया गया और वह गुजरात से अजमेर आ गए। इस प्रकार पृथ्वीराज का बचपन एक शाही लेकिन संघर्षपूर्ण वातावरण में बीता।
पिता की मृत्यु और नाबालिग शासन
1177 ईस्वी (संवत् 1234) में राजा सोमेश्वर का निधन हो गया। उस समय पृथ्वीराज की उम्र मात्र 11 वर्ष थी। बाल्यावस्था में ही उन्हें राज्य की बागडोर संभालनी पड़ी। प्रारंभ में उनकी माता रानी कर्पूरादेवी ने शासन में मार्गदर्शन दिया। इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार, पृथ्वीराज ने 1180 ईस्वी (संवत् 1237) में शासन का वास्तविक कार्यभार संभालना शुरू किया।
शिक्षा और विद्वता
सरस्वती कंठाभरण विद्यापीठ से शिक्षा
पृथ्वीराज चौहान ने प्रारंभिक और औपचारिक शिक्षा प्रसिद्ध सरस्वती कंठाभरण विद्यापीठ से प्राप्त की। यह विद्यापीठ उस समय भारत के प्रमुख शिक्षण संस्थानों में से एक था। वहाँ उन्होंने न केवल धार्मिक और दार्शनिक ज्ञान अर्जित किया, बल्कि व्यावहारिक और युद्ध-विद्या में भी पारंगत बने।
भाषा और साहित्य का ज्ञान
पृथ्वीराज को भाषाओं का अद्वितीय ज्ञान था। उन्होंने निम्नलिखित छह भाषाओं में दक्षता प्राप्त की:
- संस्कृत – धार्मिक और शास्त्रीय ग्रंथों की मूल भाषा
- प्राकृत – शास्त्रीय और जनभाषा के रूप में
- पैशाची – उस समय की एक प्राचीन लोकभाषा
- शौरसेनी – नाटक और काव्य की भाषा
- मागधी – मगध क्षेत्र की प्रमुख भाषा
- अपभ्रंश – भाषाओं के विकास का मध्यकालीन रूप
विविध विद्याओं में पारंगत
उनका ज्ञान केवल भाषाओं तक सीमित नहीं था। उन्होंने निम्नलिखित विद्याओं में भी विशेषज्ञता प्राप्त की:
- मीमांसा और वेदांत (दर्शन शास्त्र)
- पुराण और इतिहास
- सैन्य विज्ञान – युद्ध की रणनीति और कूटनीति
- गणित
- चिकित्सा शास्त्र – आयुर्वेदिक उपचार पद्धतियाँ
- अश्व-विद्या और हस्ति-विद्या – घोड़े और हाथी नियंत्रण कला
युद्ध-कला और पराक्रम
शब्दभेदी बाण विद्या
पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही युद्ध-कला में रुचि रखते थे। उन्होंने ‘शब्दभेदी बाण विद्या’ का अभ्यास किया था—यह ऐसी तकनीक थी, जिसमें ध्वनि के आधार पर लक्ष्य को बिना देखे बाण से भेदा जा सकता था। यह कला अत्यंत दुर्लभ मानी जाती थी और इससे पृथ्वीराज की गिनती भारत के महान योद्धाओं में होने लगी।
अश्व और हस्ति नियंत्रण में दक्षता
पृथ्वीराज को युद्ध में अश्वारोहण और हाथी नियंत्रण की विलक्षण क्षमता प्राप्त थी। वह सेनापति की तरह सेना का संचालन करते थे और रणभूमि में सामने खड़े होकर शत्रु को चुनौती देते थे। इससे उनकी ख्याति चारों दिशाओं में फैल गई।
दिल्ली का उत्तराधिकार और अनंगपाल तोमर का योगदान
वंशीय उत्तराधिकार की चिंता
दिल्ली के तत्कालीन राजा अनंगपाल तोमर अपनी एकमात्र संतान कर्पूरादेवी (पृथ्वीराज की माँ) के माध्यम से उत्तराधिकारी चुनना चाहते थे, क्योंकि उनके कोई पुत्र नहीं था। उन्होंने पृथ्वीराज के शौर्य, ज्ञान और प्रशासनिक क्षमता को देखकर उन्हें उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय लिया।
घोषणा और राज्याभिषेक
राजा अनंगपाल ने अपनी पुत्री और दामाद सोमेश्वर की सहमति से अपने पौत्र पृथ्वीराज को दिल्ली का उत्तराधिकारी घोषित किया और मृत्यु से पूर्व उनके राज्याभिषेक की व्यवस्था की। इससे पृथ्वीराज को दिल्ली और अजमेर दोनों क्षेत्रों का नियंत्रण मिल गया।
इतिहासिक साक्ष्यों में विवाद
हालाँकि पृथ्वीराज रासो और कुछ परंपरागत कथाएँ बताती हैं कि पृथ्वीराज को अनंगपाल ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, लेकिन कई इतिहासकार इससे सहमत नहीं हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि:
- अनंगपाल तोमर की मृत्यु संभवतः पृथ्वीराज के जन्म से पहले ही हो चुकी थी।
- दिल्ली पर चौहान वंश का अधिकार पहले ही पृथ्वीराज के चाचा विग्रहराज चतुर्थ के समय में हो चुका था।
- यह उत्तराधिकार की कथा संभवतः राजकीय महिमा को बढ़ाने के लिए कालांतर में जोड़ी गई हो।
किला राय पिथौरा और दिल्ली का विस्तार
दिल्ली में स्थित ऐतिहासिक किला राय पिथौरा का निर्माण पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में हुआ था। इसी कारण इन्हें राय पिथौरा भी कहा जाता है। यह किला न केवल उनकी सैन्य शक्ति का प्रतीक था, बल्कि यह दिल्ली को चौहान शासन के अधीन लाने का प्रमाण भी था। आज यह किला खंडहर रूप में मौजूद है, लेकिन यह पृथ्वीराज की प्रशासनिक दूरदर्शिता और स्थापत्य क्षमता का स्मारक है।
पृथ्वीराज चौहान एवं उनका साम्राज्य विस्तार
- पृथ्वीराज चौहान ने पिता की मृत्यु के बाद अजमेर का भी कार्यभार संभाला, उसके बाद दिल्ली तक अपने साम्राज्य को फैलाया। उसके बाद उन्होंने पड़ोसी राज्य तक अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए चंदेल शासकों को पराजित किया।
- पृथ्वीराज की सेना बहुत ही विशालकाय थी, जिसमे 3 लाख सैनिक और 300 हाथी थे।
- पृथ्वीराज चौहान ने चालुक्य वंश के राजाओं से भी युद्ध लड़ा। उनकी सेना बहुत ही अच्छी तरह से संगठित थी, इसी कारण इस सेना के बूते उन्होने कई युध्द जीते और अपने राज्य का विस्तार करते चले गए।

पृथ्वीराज चौहान और कन्नोज की राजकुमारी संयोगिता की कहानी

पृथ्वीराज चौहान और राजकुमारी संयोगिता की प्रेम कहानी बहुत ही रोचक है। संयोगिता राजा जयचंद की पुत्री थी, जो कन्नौज के राजा थे। संयोगिता बचपन से ही काफी सुंदर थी और वह अपनी सहेलियों से पृथ्वीराज चौहान के विरता के कई सारे किस्से सुनी हुई थी, जिसके कारण वह पृथ्वीराज चौहान को एक बार देखना चाहती थी।
उसी बीच एक बार दिल्ली से पन्नाराय नाम के चित्रकार दिल्ली के सौंदर्य और राजा पृथ्वीराज के चित्र को लेकर कन्नौज आए हुए थे। जब रानी संयोगिता को इसके बारे में पता चला तो वह उस चित्रकार को अपने पास बुलवाया। संयोगिता ने चित्रकार पन्नाराय को पृथ्वीराज चौहान की तस्वीर दिखाने के लिए आग्रह किया।
तस्वीर देखते ही संयोगिता पृथ्वीराज चौहान पर मोहित हो जाती है, जिसके बाद वह चित्रकार पन्ना राय को अपनी तस्वीर बनाकर अपनी मन की बात पृथ्वीराज चौहान को कहने के लिए कहती है।
चित्रकार पन्नाराय रानी संयोगिता का चित्र बनाकर पृथ्वीराज चौहान के सामने प्रस्तुत करते हैं और उनके मन की बात भी बताते हैं। तस्वीर में संयोगिता की सुंदरता को देख पृथ्वीराज चौहान भी उन पर मोहित हो जाते हैं। धीरे-धीरे एक दूसरे को प्रेम पत्र लिखते हैं और दोनों का प्रेम और भी ज्यादा बढ़ते जाता है।
अब संयोगिता और पृथ्वीराज चौहान की प्रेम की कहानी धीरे-धीरे राज्यों के अन्य लोगों के कानों में भी आने लगी। जब इस बात का पता संयोगिता के पिता जयचंद को पता चलता है तो वह संयोगिता का स्वयंवर आयोजित करते हैं। क्योंकि जयचंद पृथ्वीराज चौहान से दुश्मनी थी, जिसके कारण वे नहीं चाहते थे कि दोनों आपस में शादी करें।
जयचंद ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर आयोजित किया, जहां पर अनेक देश के राजकुमारों को बुलाया गया था। वहां पर पृथ्वीराज चौहान का अपमान करने के लिए जयचंद ने किले के बाहर दरवाजे पर द्वारपाल के जगह पर पृथ्वीराज चौहान के पुतले को लगाने का आदेश दिया।
संयोगिता पहले से ही पृथ्वीराज चौहान को पत्र में खुद को अगवा करने का संदेश भेजती है। उसके बाद जब संयोगिता वरमाला पहनाने के लिए आती है तो वह पृथ्वीराज चौहान के पुतले पर माला डाल देती है, जिसे देख उनके पिता अपमानित और क्रोधित होते हैं।
इसी बीच पृथ्वीराज चौहान संयोगिता के पत्र को पढ़ने के बाद स्वयंवर में पहुंच जाते हैं और संयोगिता की सहमति पर संयोगिता को अगवा करके अपनी राजधानी ले जाते हैं, वहां पर पहुंचने के बाद दोनों शादी कर लेते हैं।
पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी का युद्ध
मुहम्मद गौरी ने सिंध और पंजाब को जीतने के बाद उत्तर भारत की ओर अपना शासन फैलाना चाहा। उस समय उत्तर भारत में दिल्ली और अजमेर के इलाकों में पृथ्वीराज चौहान का शासन था। मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने का निश्चय किया। लेकिन उसे पता नहीं था कि पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेनाओं के सामने उसका टिकना मुश्किल है।
इधर पृथ्वीराज चौहान ने भी पंजाब में अपने राज्य का विस्तार फैलाने का निर्णय लिया। लेकिन उस समय संपूर्ण पंजाब पर मोहम्मद गौरी का शासन था, जिसके कारण पृथ्वीराज चौहान के लिए बिना मोहम्मद गोरी से लड़े पंजाब पर शासन करना नामुमकिन था। इस प्रकार पृथ्वी राज चौहान और मोहम्मद गौरी का जो प्रथम युद्ध हुआ था, वह सरहिंद किले के पास तराई नामक स्थान पर हुआ था। पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच प्रथम युद्ध पंजाब तक अपने शासन को फैलाने के दौरान हुआ था।

तराइन का प्रथम युद्ध (1191)
इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी का युद्ध थानेश्वर के पास स्थित तराइन के मैदान में हुआ, जिसे तराइन का प्रथम युद्ध के नाम से जाना गया। युद्ध सन 1191 ई. में हुआ था। इस युद्ध में मोहम्मद गौरी की बुरी तरीके से हार हुई। मोहम्मद गौरी को पराजित करने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को बंदी बना लिया लेकिन कुछ समय के बाद इसे छोड़ दिया।
अपने राज्य के विस्तार को लेकर पृथ्वीराज चौहान हमेशा सजग रहते थे और इस बार अपने विस्तार के लिए उन्होने पंजाब को चुना था। इस समय संपूर्ण पंजाब पर मुहम्मद शाबुद्दीन गौरी का शासन था। वह पंजाब के ही भटिंडा से अपने राज्य पर शासन करता था। मुहम्मद गौरी भी अपना राज्य विस्तार करना चाहता था। मुहम्मद गोरी अपने राज्य विस्तार के लिए पृथ्वी राज चौहान पर आक्रमण करने के लिए योजना बना रहा था। पृथ्वीराज चौहान के लिए गौरी से युद्ध किए बिना पंजाब पर शासन नामुमकिन था, तो इसी उद्देश्य से पृथ्वीराज ने अपनी विशाल सेना को लेकर गौरी पर आक्रमण कर दिया।
अपने इस युद्ध मे पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम हांसी, सरस्वती और सरहिंद पर अपना अधिकार किया। परंतु इसी बीच अनहिलवाड़ा मे विद्रोह हुआ और पृथ्वीराज को वहां जाना पड़ा और उनकी सेना ने अपनी कमांड खो दी और सरहिंद का किला फिर खो दिया। अब जब पृथ्वीराज अनहिलवाड़ा से वापस लौटे, उन्होने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये। युध्द मे केवल वही सैनिक बचे, जो मैदान से भाग खड़े हुये इस युध्द मे मुहम्मद गौरी बुरी तरह घायल हो गया, और पृथ्वी राज चौहान द्वारा बंदी बना लिया गया। परन्तु पृथ्वीराज चौहान ने उसे छोड़ दिया और उसके एक सैनिक ने उसकी हालत का अंदाजा लगते हुये, उन्हे घोड़े पर डालकर अपने महल ले गया और उनका उपचार कराया।
इस तरह इस युद्ध में मुहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान से शिकस्त झेलनी पड़ी। यह युध्द सरहिंद किले के पास तराइन नामक स्थान पर हुआ, इसलिए इसे तराइन का युध्द भी कहते है. इस युध्द मे पृथ्वीराज ने लगभग 7 करोड़ रूपय की संपदा अर्जित की, जिसे उसने अपने सैनिको मे बाट दिया।
तराइन का द्वितीय युद्ध (1192)
1192 ई में कन्नोज के राजा जयचंद के आमंत्रण पर मुहम्मद गोरी पुनः वापस आता है, और तराइन में उसका दूसरा युद्ध पुनः दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान से होता है। जिसमे मुहम्मद गोरी जयचंद की सहायता से सम्राट पृथ्वीराज चौहान को हराने में सफल हो जाता है। और इस प्रकार से एक महान शासक के राज्य पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो जाता है।
अपनी पुत्री संयोगिता के अपहरण के बाद राजा जयचंद्र के मन मे पृथ्वीराज के लिए कटुता बढती चली गयी तथा उसने पृथ्वीराज को अपना दुश्मन बना लिया। वो पृथ्वीराज के खिलाफ अन्य राजपूत राजाओ को भी भड़काने लगा और वह पृथ्वीराज के खिलाफ मुहम्मद गौरी के साथ खड़ा हो गया। दोनों ने मिलकर 2 साल बाद सन 1192 मे पुनः पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया।
यह युद्ध भी तराई के मैदान मे हुआ। इस युद्ध के समय जब पृथ्वीराज के मित्र चंदबरदाई ने अन्य राजपूत राजाओ से मदत मांगी, तो संयोगिता के स्वयंबर मे हुई घटना के कारण उन्होने ने भी उनकी मदत से इंकार कर दिया। ऐसे मे पृथ्वीराज चौहान अकेले पड़ गए और उन्होने अपने 3 लाख सैनिको के द्वारा गौरी की सेना का सामना किया। क्यूकि गौरी की सेना मे अच्छे घुड़ सवार थे, उन्होने पृथ्वीराज की सेना को चारो ओर से घेर लिया।
ऐसे मे वे न आगे पढ़ पाये न ही पीछे हट पाये। और जयचंद्र के गद्दार सैनिको ने राजपूत सैनिको का ही संहार किया और पृथ्वीराज की हार हुई। युद्ध के बाद पृथ्वीराज और उनके मित्र चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया। राजा जयचंद्र को भी उसकी गद्दारी का परिणाम मिला और उसे भी 1194 ई में चन्दावर के युद्ध में मार डाला गया। अब पूरे पंजाब, दिल्ली, अजमेर और कन्नोज मे गौरी का शासन था, इसके बाद मे कोई राजपूत शासक भारत मे अपना राज लाकर अपनी वीरता साबित नहीं कर पाया।
चंदबरदाई: पृथ्वीराज चौहान के राजकवि, मित्र और प्रथम हिन्दी कवि
जन्म, परिचय और पृष्ठभूमि
महाकवि चंदबरदाई का जन्म संवत 1205 (1148 ईस्वी) में लाहौर (जो वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित है) में हुआ था। उनका वास्तविक नाम बलिद्ध्य था, परन्तु साहित्य और इतिहास में वे चंदबरदाई नाम से प्रसिद्ध हुए। वे हिन्दी साहित्य के आदिकालीन कवि माने जाते हैं।
बाल्यकाल में ही चंदबरदाई अजमेर आए, जहाँ उनका संपर्क चौहान वंश के महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान से हुआ। यह मित्रता इतनी दृढ़ हो गई कि वे पृथ्वीराज के राजकवि, सखा, और विश्वसनीय सहयोगी बन गए। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन पृथ्वीराज चौहान के साथ दरबार, रणभूमि और अभियानों में बिताया।
पृथ्वीराज रासो: हिन्दी साहित्य की प्रथम महाकाव्य कृति
चंदबरदाई की अमर रचना “पृथ्वीराज रासो” है, जिसे हिन्दी साहित्य की सबसे पहली और सबसे बड़ी महाकाव्य रचना माना जाता है। यह ग्रंथ पृथ्वीराज चौहान के जीवन, युद्धों, पराक्रम, प्रेम प्रसंगों और अंततः उनके बलिदान पर आधारित है।
- इस काव्य में “वीर रस” और “श्रृंगार रस” दोनों की प्रधानता है।
- रचना की भाषा को भाषाविदों ने “पिंगल” कहा है, जो राजस्थान की ब्रजभाषा का एक रूप माना जाता है।
- “रासो” में तत्कालीन राजपूत क्षत्रिय समाज, उनकी परंपराएं, और युद्धनीति का विस्तृत चित्रण है।
- इसमें लगभग 10,000 से अधिक छंद हैं, और इसमें छह भाषाओं – संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, पैशाची, मागधी और अपभ्रंश – के शब्दों का प्रयोग किया गया है।
इतिहासकारों की दृष्टि से मूल्यांकन
यद्यपि पृथ्वीराज रासो को एक ऐतिहासिक दस्तावेज माना जाता रहा है, फिर भी आधुनिक इतिहासकार इस ग्रंथ को पूर्ण रूप से ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक नहीं मानते। इसके कई अंश लोककथाओं, किंवदंतियों और कल्पनाओं पर आधारित प्रतीत होते हैं। उदाहरणतः – पृथ्वीराज द्वारा शब्दभेदी बाण से मोहम्मद गौरी की हत्या की घटना – रासो में विस्तृत है, जबकि यह ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित नहीं है।
शोध से यह भी ज्ञात होता है कि इस महाकाव्य को पूर्ण रूप से चंदबरदाई द्वारा नहीं लिखा गया, बल्कि उनके जीवन के पश्चात किसी अज्ञात कवि ने इसके शेष अंश जोड़े और संपादित किए, विशेषकर पृथ्वीराज और चंदबरदाई की मृत्यु की घटनाओं के विवरण।
चंदबरदाई की मृत्यु
चंदबरदाई की मृत्यु संवत 1249 (1192 ईस्वी) में गज़नी में हुई मानी जाती है, उसी समय जब पृथ्वीराज चौहान का भी अंतिम समय था। रासो के अनुसार, जब पृथ्वीराज को अंधा कर दिया गया और ग़ज़नी ले जाया गया, तो चंदबरदाई वहाँ पहुँचे और उनके साथ मिलकर मोहम्मद गौरी की हत्या की योजना बनाई। मोहम्मद गौरी की हत्या के बाद दोनों ने आत्महत्या कर ली या एक-दूसरे को वीरगति प्रदान की।
हिन्दी के पहले कवि का गौरव
- चंदबरदाई को हिन्दी का प्रथम कवि माना जाता है।
- उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिन्दी की प्रथम महाकाव्य रचना का गौरव प्राप्त है।
- साहित्यिक दृष्टि से भी यह कृति एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर है, जो न केवल एक वीर पुरुष की कथा कहती है, बल्कि उस युग की भाषा, रीति-नीति और समाज का भी दर्पण है।
इस प्रकार चंदबरदाई न केवल पृथ्वीराज चौहान के जीवन के साथी थे, बल्कि उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से उस युग की भावना, संघर्ष और गौरव को अमर कर दिया। उनके योगदान के बिना पृथ्वीराज चौहान का नाम मात्र एक ऐतिहासिक पात्र बनकर रह जाता, न कि एक अमर लोकगाथा।
पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेना
पृथ्वीराज की सेना बहुत ही विशालकाय थी, जिसमे 3 लाख सैनिक और 300 हाथी थे। कहा जाता है कि उनकी सेना बहुत ही अच्छी तरह से संगठित थी, इसी कारण इस सेना के बूते उन्होने कई युध्द जीते और अपने राज्य का विस्तार करते चले गए। परंतु अंत मे कुशल घुड़ सवारों की कमी और जयचंद्र की गद्दारी और अन्य राजपूत राजाओ के सहयोग के अभाव मे वे मुहम्मद गौरी से द्वितीय युध्द हार गए।
अपने राज्य के विस्तार को लेकर पृथ्वीराज चौहान हमेशा सजग रहते थे और इस बार अपने विस्तार के लिए उन्होने पंजाब को चुना था। इस समय संपूर्ण पंजाब पर मुहम्मद शाबुद्दीन गौरी का शासन था, वह पंजाब के ही भटिंडा से अपने राज्य पर शासन करता था। गौरी से युध्द किए बिना पंजाब पर शासन नामुमकिन था, तो इसी उद्देश्य से पृथ्वीराज ने अपनी विशाल सेना को लेकर गौरी पर आक्रमण कर दिया।
अपने इस युध्द मे पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम हांसी, सरस्वती और सरहिंद पर अपना अधिकार किया। परंतु इसी बीच अनहिलवाड़ा मे विद्रोह हुआ और पृथ्वीराज को वहां जाना पड़ा और उनकी सेना ने अपनी कमांड खो दी और सरहिंद का किला फिर खो दिया। अब जब पृथ्वीराज अनहिलवाड़ा से वापस लौटे, उन्होने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये।
युध्द मे केवल वही सैनिक बचे, जो मैदान से भाग खड़े हुये इस युध्द मे मुहम्मद गौरी भी अधमरे हो गए, परंतु उनके एक सैनिक ने उनकी हालत का अंदाजा लगते हुये, उन्हे घोड़े पर डालकर अपने महल ले गया और उनका उपचार कराया। इस तरह यह युध्द परिणामहीन रहा। यह युध्द सरहिंद किले के पास तराइन नामक स्थान पर हुआ, इसलिए इसे तराइन का युध्द भी कहते है। इस युध्द मे पृथ्वीराज ने लगभग 7 करोड़ रुपये की संपदा अर्जित की, जिसे उसने अपने सैनिको मे बाँट दिया।
पृथ्वीराज चौहान का अंतिम समय और मृत्यु
तराइन का द्वितीय युद्ध और बंदी बनना (1192 ई.)
1192 ईस्वी में तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ, जो पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच निर्णायक संघर्ष था। इस युद्ध में पृथ्वीराज को पराजय का सामना करना पड़ा और उन्हें बंदी बनाकर ग़ोरियों के शिविर में ले जाया गया। इसके बाद उन्हें ग़ज़नी ले जाया गया जहाँ उन्हें यातनाएं दी गईं।
अंधा किए जाने और अपमानजनक व्यवहार की कथाएँ
अधिकांश मध्ययुगीन स्रोतों के अनुसार, मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को अपमानित करने के उद्देश्य से उन्हें अंधा करवा दिया। कहा जाता है कि उनकी आँखों को गर्म लोहे की सलाखों से जलाया गया, जिससे वे पूरी तरह दृष्टिहीन हो गए।
इतिहास बनाम लोककथा
ऐतिहासिक दृष्टिकोण:
इतिहासकारों और समकालीन मुस्लिम स्रोतों के अनुसार, पृथ्वीराज को ग़ोरियों के अधीन एक अधीनस्थ राजा के रूप में बहाल करने का विचार किया गया था, लेकिन उनके द्वारा किए गए विद्रोह के बाद उन्हें मार दिया गया। इसके बाद ग़ोरियों ने उनके पुत्र गोविंदराज को अजमेर की गद्दी पर बैठाया, जो बाद में रणथंभौर चले गए और वहाँ चौहान वंश की नई शाखा की स्थापना की। पृथ्वीराज के छोटे भाई हरिराज ने कुछ समय के लिए अजमेर का नियंत्रण पुनः प्राप्त किया, लेकिन जल्द ही कुतुब-उद-दीन ऐबक के हाथों पराजित हो गए।
पृथ्वीराज रासो और लोककथा:
पृथ्वीराज रासो, जोकि चंदबरदाई द्वारा रचित महाकाव्य मानी जाती है, एक भिन्न कथा प्रस्तुत करती है। इस काव्य के अनुसार, पृथ्वीराज को अंधा कर ग़ज़नी ले जाया गया। जब यह समाचार कवि चंदबरदाई को मिला, तो उन्होंने ग़ज़नी की यात्रा की और वहां पहुंचकर मोहम्मद गौरी को चकमा देने की योजना बनाई।
शब्दभेदी बाण से बदला और वीरगति
चंदबरदाई ने भरी सभा में पृथ्वीराज से उनकी अंतिम इच्छा पूछे जाने पर यह योजना बनायी कि पृथ्वीराज को शब्दभेदी बाण चलाने का अवसर दिया जाए। उन्होंने गौरी को लक्षित करते हुए पृथ्वीराज को यह सांकेतिक दोहा सुनाया:
“चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुलतान है, मत चूको चौहान॥”
इस दोहे का अर्थ था — गौरी चार बांस (लगभग 24 फीट) दूर, 8 अंगुल ऊँचे स्थान पर बैठा है। पृथ्वीराज ने इस संकेत के आधार पर बिना देखे गौरी की आवाज़ की दिशा में बाण चलाया और कथित रूप से उसकी हत्या कर दी।
इसके पश्चात, दोनों – पृथ्वीराज और चंदबरदाई – ने एक-दूसरे की जीवनलीला समाप्त कर दी, ताकि वे ग़ोरियों के हाथों और अपमानित न हों।
संयोगिता की आत्महत्या
लोककथा यह भी कहती है कि जब यह समाचार पृथ्वीराज की पत्नी संयोगिता को मिला, तो उन्होंने भी यह दुःख सहन न कर पाने के कारण आत्महत्या कर ली।
ऐतिहासिक सत्यता पर प्रश्नचिह्न
हालांकि यह कथा जनमानस में अत्यंत प्रसिद्ध है और वीरता एवं स्वाभिमान का प्रतीक मानी जाती है, लेकिन इतिहासकारों द्वारा इसे काल्पनिक माना गया है। इसका कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इतिहासकारों द्वारा एइसा भी कहा जाता है कि मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद लगभग एक दशक तक जीवित रहे और उन्होंने भारत में मुस्लिम सत्ता की नींव को मजबूत किया।
इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु न केवल इतिहास का एक निर्णायक मोड़ बनी, बल्कि उनके जीवन का अंतिम अध्याय भारतीय लोकस्मृति में अमर गाथा के रूप में समाया हुआ है — जहाँ वह एक वीर योद्धा, अंधा होकर भी लक्ष्यभेदी, स्वाभिमानी राजा और बलिदान के प्रतीक के रूप में स्मरण किए जाते हैं।
पृथ्वीराज चौहान भारतीय इतिहास के एक ऐसे यशस्वी शासक रहे हैं जिन्होंने अपने ज्ञान, शौर्य और प्रशासनिक कौशल से न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि भारतीय मध्यकालीन संस्कृति और गौरव को भी नया आयाम दिया। उनका जीवन एक संतुलित व्यक्तित्व का प्रतीक है—जहाँ एक ओर वे उच्च शिक्षा प्राप्त एक विद्वान थे, वहीं दूसरी ओर एक साहसी और दूरदर्शी शासक भी।
उनसे संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों और काव्यात्मक कथाओं में भले ही अंतर हो, लेकिन यह निर्विवाद है कि पृथ्वीराज चौहान भारत के इतिहास में वीरता, नीति, संस्कृति और आत्मगौरव के प्रतीक माने जाते हैं।
इन्हें भी देखें –
- मुमताज महल (1593-1631)
- जहाँगीर 1569-1627
- काकतीय वंश |1000 ई.-1326 ई.
- वारसॉ संधि | 1955-1991 | सोवियत संघ का एक महत्वपूर्ण पहल और ग्लोबल समर्थन
- रूस की क्रांति: साहसिक संघर्ष और उत्तराधिकारी परिवर्तन |1905-1922 ई.
- अमेरिकी गृहयुद्ध (1861 – 1865 ई.)
- पुर्तगाली साम्राज्य (1415 – 1999 ई.)
- सप्तवर्षीय युद्ध: अद्भुत संघर्ष और संकटपूर्ण निर्णय |1756–1763 ई.