सम्राट पृथ्वीराज चौहान को राज पिथौरा और हिन्दू सम्राट के नाम से भी जाना जाता है। भारत की पवित्र धरती पर सदियों से कई वीरों ने जन्म लिया। और उन्होंने भारत माता की आन, मान और शान के लिए खुद के जीवन की आहुति दे दी। ऐसे ही वीर राजा पृथ्वीराज चौहान हुए, जो चौहान वंश में जन्मे आखिरी हिंदू शासक थे। जिन्होंने मात्र 11 वर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु के बाद दिल्ली और अजमेर का शासन संभाला और उसका विस्तार भी किया।
महान शूरवीर और पराक्रमी योद्धा पृथ्वीराज चौहान का जन्म सन् 1149 में पाटण (गुजरात) में हुआ था। इनके पिता का नाम महाराजा सोमेश्वर था। और माता का नाम कर्पुरा देवी था। इनके पिता अजमेर के राजा थे। 11 वर्ष के उम्र में ही इनके पिता की मृत्यु हो गई, तब इन्होंने छोटी उम्र में ही अजमेर का कार्यभार संभाला और अजमेर के उत्तराधिकारी बने।
पृथ्वीराज चौहान का संक्षिप्त परिचय
- इनका पूरा नाम पृथ्वीराज चौहान था।
- पृथ्वीराज चौहान को राज पिथौरा और हिन्दू सम्राट के नाम से भी जाना जाता है।
- इनका जन्म पाटण (गुजरात) में सन 1149 में हुआ था। इनके पिता का नाम महाराजा सोमेश्वर था। और माता का नाम कर्पुरा देवी था।
- इनकी पत्नी का नाम संयोगिता (अन्य नाम: तिलोत्तमा, कान्तिमती, संजुक्ता) था।
- इनके पुत्र का नाम गोविंदराजा चतुर्थ था। इनकी कोई पुत्री नहीं थी।
- इनके मित्र एवं दरवारी कवि का नाम चंदबरदाई था। जिसने पृथ्वीराज रासो नमक ग्रन्थ की रचना की।
- पृथ्वीराज चौहान के बचपन के मित्र चंदबरदाई उनके लिए किसी भाई से कम नहीं थे।
- चंदबरदाई तोमर वंश के शासक अनंगपाल की बेटी के पुत्र थे।
- पृथ्वीराज चौहान ने चंदबरदाई के सहयोग से पिथोरगढ़ का निर्माण किया, जो आज भी दिल्ली मे पुराने किले नाम से विद्यमान है।
- पृथ्वीराज चौहान का गोत्र “चंद्रवंशी” था। वह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के वंशज थे और राजस्थान क्षेत्र में अपने साम्राज्य का शासन करते थे। चौहान वंश के सदस्यों को चंद्रवंशी या चौहान या चौहान राजपूत के रूप में जाना जाता है।
- पृथ्वीराज को आखिरी हिन्दू शासक माना जाता है। हालाँकि इनके क्षत्रिय या जाट होने पर विवाद भी है। कुछ का मत है की यह क्षत्रिय थे। जबकि कुछ का मत है कि पृथ्वीराज चौहान जाट थे।
पृथ्वीराज चौहान ने सरस्वती कण्ठाभरण विद्यापीठ से शिक्षा ली थी। पृथ्वीराज चौहान ने युद्ध की भी शिक्षा ग्रहण की और आगे चलकर एक कुशल योद्धा बने। इन्हें राय पिथौरा भी कहा जाता था। बचपन से ही कुशल योद्धा थे। अपने बाल्य काल से ही शब्दभेदी बाण विद्या का अभ्यास किया था, जिसके जरिए वे बिना देखे आवाज के आधार पर बाण चला सकते थे।
पृथ्वीराज चौहान ने संस्कृत, प्राकृत, पैशाची, शौरसेनी, मागधी और अपभ्रंश भाषा समेत छह भाषाओं का भी ज्ञान लिया था। इसके अतिरिक्त इन्होंने मीमांसा, वेदान्त, पुराण, इतिहास, सैन्य विज्ञान, गणित और चिकित्सा शास्त्र का भी ज्ञान लिया था। ये अश्व और हाथी नियंत्रण विद्या में भी माहीर थे।
पृथ्वीराज चौहान की माता कर्पूरी देवी अपने पिता की एकमात्र संतान थी, जिसके कारण कर्पूरी देवी के पिता महाराजा अंगपाल जो दिल्ली के राजा थे, उन्हें दिल्ली के उत्तराधिकारी की चिंता खाए जा रही थी, कि उनकी मृत्यु के बाद उनके साम्राज्य का कार्यभार कौन संभालेगा? क्योकि उनके कोई पुत्र नहीं था।
इस प्रकार विचार करते हुए उन्होने अपनी पुत्री और दामाद के सामने अपने पौत्र पृथ्वीराज चौहान को अपना उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा प्रकट की, क्योकि पृथ्वीराज चौहान के वीरता और पराक्रम से वह भली भांति परिचित थे, और उनसे योग्य उनको और कोई नहीं दिखा।
इस तरह से पृथ्वीराज चौहान के पिता-माता दोनों की सहमति से पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय लिया गया। उसके पश्चात उन्होंने पृथ्वीराज चौहान को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। और फिर सन 1166 ई. में महाराज अंगपाल की मौत होने के बाद दिल्ली की गद्दी पर नए राजा के तौर पर पृथ्वीराज चौहान का राज्य अभिषेक कराया गया।
पृथ्वीराज चौहान का जीवन परिचय
पूरा नाम | पृथ्वीराज चौहान |
अन्य नाम | भरतेश्वर, पृथ्वीराज तृतीय, हिन्दूसम्राट, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा |
व्यवसाय | क्षत्रिय |
जन्मतिथि | 1 जून, 1163 |
जन्म स्थान | पाटण, गुजरात, भारत |
मृत्यु तिथि | 11 मार्च, 1192 |
मृत्यु स्थान | अजयमेरु (अजमेर), राजस्थान |
उम्र | 43 साल |
आयु | 28 साल |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
धर्म | हिन्दू |
वंश | चौहानवंश |
जाति | क्षत्रिय या जाट ( विवाद हैं) |
वैवाहिक स्थिति | विवाहित |
पिता | सोमेश्वर |
माता | कर्पूरदेवी |
भाई | हरिराज |
बहन | पृथा |
पत्नी | 13 |
बेटा | गोविंद चौहान |
बेटी | कोई नहीं |
पराजय | मुहम्मद गौरी से |
पृथ्वीराज चौहान एवं उनका साम्राज्य विस्तार
- पृथ्वीराज चौहान ने पिता की मृत्यु के बाद अजमेर का भी कार्यभार संभाला, उसके बाद दिल्ली तक अपने साम्राज्य को फैलाया। उसके बाद उन्होंने पड़ोसी राज्य तक अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए चंदेल शासकों को पराजित किया।
- पृथ्वीराज की सेना बहुत ही विशालकाय थी, जिसमे 3 लाख सैनिक और 300 हाथी थे।
- पृथ्वीराज चौहान ने चालुक्य वंश के राजाओं से भी युद्ध लड़ा। उनकी सेना बहुत ही अच्छी तरह से संगठित थी, इसी कारण इस सेना के बूते उन्होने कई युध्द जीते और अपने राज्य का विस्तार करते चले गए।
पृथ्वीराज चौहान और कन्नोज की राजकुमारी संयोगिता की कहानी
पृथ्वीराज चौहान और राजकुमारी संयोगिता की प्रेम कहानी बहुत ही रोचक है। संयोगिता राजा जयचंद की पुत्री थी, जो कन्नौज के राजा थे। संयोगिता बचपन से ही काफी सुंदर थी और वह अपनी सहेलियों से पृथ्वीराज चौहान के विरता के कई सारे किस्से सुनी हुई थी, जिसके कारण वह पृथ्वीराज चौहान को एक बार देखना चाहती थी।
उसी बीच एक बार दिल्ली से पन्नाराय नाम के चित्रकार दिल्ली के सौंदर्य और राजा पृथ्वीराज के चित्र को लेकर कन्नौज आए हुए थे। जब रानी संयोगिता को इसके बारे में पता चला तो वह उस चित्रकार को अपने पास बुलवाया। संयोगिता ने चित्रकार पन्नाराय को पृथ्वीराज चौहान की तस्वीर दिखाने के लिए आग्रह किया।
तस्वीर देखते ही संयोगिता पृथ्वीराज चौहान पर मोहित हो जाती है, जिसके बाद वह चित्रकार पन्ना राय को अपनी तस्वीर बनाकर अपनी मन की बात पृथ्वीराज चौहान को कहने के लिए कहती है।
चित्रकार पन्नाराय रानी संयोगिता का चित्र बनाकर पृथ्वीराज चौहान के सामने प्रस्तुत करते हैं और उनके मन की बात भी बताते हैं। तस्वीर में संयोगिता की सुंदरता को देख पृथ्वीराज चौहान भी उन पर मोहित हो जाते हैं। धीरे-धीरे एक दूसरे को प्रेम पत्र लिखते हैं और दोनों का प्रेम और भी ज्यादा बढ़ते जाता है।
अब संयोगिता और पृथ्वीराज चौहान की प्रेम की कहानी धीरे-धीरे राज्यों के अन्य लोगों के कानों में भी आने लगी। जब इस बात का पता संयोगिता के पिता जयचंद को पता चलता है तो वह संयोगिता का स्वयंवर आयोजित करते हैं। क्योंकि जयचंद पृथ्वीराज चौहान से दुश्मनी थी, जिसके कारण वे नहीं चाहते थे कि दोनों आपस में शादी करें।
जयचंद ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर आयोजित किया, जहां पर अनेक देश के राजकुमारों को बुलाया गया था। वहां पर पृथ्वीराज चौहान का अपमान करने के लिए जयचंद ने किले के बाहर दरवाजे पर द्वारपाल के जगह पर पृथ्वीराज चौहान के पुतले को लगाने का आदेश दिया।
संयोगिता पहले से ही पृथ्वीराज चौहान को पत्र में खुद को अगवा करने का संदेश भेजती है। उसके बाद जब संयोगिता वरमाला पहनाने के लिए आती है तो वह पृथ्वीराज चौहान के पुतले पर माला डाल देती है, जिसे देख उनके पिता अपमानित और क्रोधित होते हैं।
इसी बीच पृथ्वीराज चौहान संयोगिता के पत्र को पढ़ने के बाद स्वयंवर में पहुंच जाते हैं और संयोगिता की सहमति पर संयोगिता को अगवा करके अपनी राजधानी ले जाते हैं, वहां पर पहुंचने के बाद दोनों शादी कर लेते हैं।
पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी का युद्ध
मुहम्मद गौरी ने सिंध और पंजाब को जीतने के बाद उत्तर भारत की ओर अपना शासन फैलाना चाहा। उस समय उत्तर भारत में दिल्ली और अजमेर के इलाकों में पृथ्वीराज चौहान का शासन था। मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने का निश्चय किया। लेकिन उसे पता नहीं था कि पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेनाओं के सामने उसका टिकना मुश्किल है।
इधर पृथ्वीराज चौहान ने भी पंजाब में अपने राज्य का विस्तार फैलाने का निर्णय लिया। लेकिन उस समय संपूर्ण पंजाब पर मोहम्मद गौरी का शासन था, जिसके कारण पृथ्वीराज चौहान के लिए बिना मोहम्मद गोरी से लड़े पंजाब पर शासन करना नामुमकिन था। इस प्रकार पृथ्वी राज चौहान और मोहम्मद गौरी का जो प्रथम युद्ध हुआ था, वह सरहिंद किले के पास तराई नामक स्थान पर हुआ था। पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच प्रथम युद्ध पंजाब तक अपने शासन को फैलाने के दौरान हुआ था।
तराइन का प्रथम युद्ध (1191)
इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी का युद्ध थानेश्वर के पास स्थित तराइन के मैदान में हुआ, जिसे तराइन का प्रथम युद्ध के नाम से जाना गया। युद्ध सन 1191 ई. में हुआ था। इस युद्ध में मोहम्मद गौरी की बुरी तरीके से हार हुई। मोहम्मद गौरी को पराजित करने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को बंदी बना लिया लेकिन कुछ समय के बाद इसे छोड़ दिया।
अपने राज्य के विस्तार को लेकर पृथ्वीराज चौहान हमेशा सजग रहते थे और इस बार अपने विस्तार के लिए उन्होने पंजाब को चुना था। इस समय संपूर्ण पंजाब पर मुहम्मद शाबुद्दीन गौरी का शासन था। वह पंजाब के ही भटिंडा से अपने राज्य पर शासन करता था। मुहम्मद गौरी भी अपना राज्य विस्तार करना चाहता था। मुहम्मद गोरी अपने राज्य विस्तार के लिए पृथ्वी राज चौहान पर आक्रमण करने के लिए योजना बना रहा था। पृथ्वीराज चौहान के लिए गौरी से युद्ध किए बिना पंजाब पर शासन नामुमकिन था, तो इसी उद्देश्य से पृथ्वीराज ने अपनी विशाल सेना को लेकर गौरी पर आक्रमण कर दिया।
अपने इस युद्ध मे पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम हांसी, सरस्वती और सरहिंद पर अपना अधिकार किया। परंतु इसी बीच अनहिलवाड़ा मे विद्रोह हुआ और पृथ्वीराज को वहां जाना पड़ा और उनकी सेना ने अपनी कमांड खो दी और सरहिंद का किला फिर खो दिया। अब जब पृथ्वीराज अनहिलवाड़ा से वापस लौटे, उन्होने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये। युध्द मे केवल वही सैनिक बचे, जो मैदान से भाग खड़े हुये इस युध्द मे मुहम्मद गौरी बुरी तरह घायल हो गया, और पृथ्वी राज चौहान द्वारा बंदी बना लिया गया। परन्तु पृथ्वीराज चौहान ने उसे छोड़ दिया और उसके एक सैनिक ने उसकी हालत का अंदाजा लगते हुये, उन्हे घोड़े पर डालकर अपने महल ले गया और उनका उपचार कराया।
इस तरह इस युद्ध में मुहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान से शिकस्त झेलनी पड़ी। यह युध्द सरहिंद किले के पास तराइन नामक स्थान पर हुआ, इसलिए इसे तराइन का युध्द भी कहते है. इस युध्द मे पृथ्वीराज ने लगभग 7 करोड़ रूपय की संपदा अर्जित की, जिसे उसने अपने सैनिको मे बाट दिया।
तराइन का द्वितीय युद्ध (1192)
1192 ई में कन्नोज के राजा जयचंद के आमंत्रण पर मुहम्मद गोरी पुनः वापस आता है, और तराइन में उसका दूसरा युद्ध पुनः दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान से होता है। जिसमे मुहम्मद गोरी जयचंद की सहायता से सम्राट पृथ्वीराज चौहान को हराने में सफल हो जाता है। और इस प्रकार से एक महान शासक के राज्य पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो जाता है।
अपनी पुत्री संयोगिता के अपहरण के बाद राजा जयचंद्र के मन मे पृथ्वीराज के लिए कटुता बढती चली गयी तथा उसने पृथ्वीराज को अपना दुश्मन बना लिया। वो पृथ्वीराज के खिलाफ अन्य राजपूत राजाओ को भी भड़काने लगा और वह पृथ्वीराज के खिलाफ मुहम्मद गौरी के साथ खड़ा हो गया। दोनों ने मिलकर 2 साल बाद सन 1192 मे पुनः पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया।
यह युद्ध भी तराई के मैदान मे हुआ। इस युद्ध के समय जब पृथ्वीराज के मित्र चंदबरदाई ने अन्य राजपूत राजाओ से मदत मांगी, तो संयोगिता के स्वयंबर मे हुई घटना के कारण उन्होने ने भी उनकी मदत से इंकार कर दिया। ऐसे मे पृथ्वीराज चौहान अकेले पड़ गए और उन्होने अपने 3 लाख सैनिको के द्वारा गौरी की सेना का सामना किया। क्यूकि गौरी की सेना मे अच्छे घुड़ सवार थे, उन्होने पृथ्वीराज की सेना को चारो ओर से घेर लिया।
ऐसे मे वे न आगे पढ़ पाये न ही पीछे हट पाये। और जयचंद्र के गद्दार सैनिको ने राजपूत सैनिको का ही संहार किया और पृथ्वीराज की हार हुई। युद्ध के बाद पृथ्वीराज और उनके मित्र चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया। राजा जयचंद्र को भी उसकी गद्दारी का परिणाम मिला और उसे भी 1194 ई में चन्दावर के युद्ध में मार डाला गया। अब पूरे पंजाब, दिल्ली, अजमेर और कन्नोज मे गौरी का शासन था, इसके बाद मे कोई राजपूत शासक भारत मे अपना राज लाकर अपनी वीरता साबित नहीं कर पाया।
पृथ्वीराज चौहान के मित्र
पृथ्वीराज के बचपन के मित्र चंदबरदाई उनके लिए किसी भाई से कम नहीं थे। चंदबरदाई तोमर वंश के शासक अनंगपाल की बेटी के पुत्र थे। चंदबरदाई बाद मे दिल्ली के शासक हुये और उन्होने पृथ्वीराज चौहान के सहयोग से पिथोरगढ़ का निर्माण किया, जो आज भी दिल्ली मे पुराने किले नाम से विद्यमान है।
पृथ्वीराज चौहान का दिल्ली पर उत्तराधिकार
अजमेर की महारानी कपुरीदेवी अपने पिता अंगपाल की एक लौती संतान थी. इसलिए उनके सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी, कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनका शासन कौन संभालेगा। उन्होने अपनी पुत्री और दामाद के सामने अपने दोहित्र को अपना उत्तराअधिकारी बनाने की इच्छा प्रकट की और दोनों की सहमति के पश्चात युवराज पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। सन 1166 मे महाराज अंगपाल की मृत्यु के पश्चात पृथ्वीराज चौहान की दिल्ली की गद्दी पर राज्य अभिषेक किया गया और उन्हे दिल्ली का कार्यभार सौपा गया।
पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेना
पृथ्वीराज की सेना बहुत ही विशालकाय थी, जिसमे 3 लाख सैनिक और 300 हाथी थे। कहा जाता है कि उनकी सेना बहुत ही अच्छी तरह से संगठित थी, इसी कारण इस सेना के बूते उन्होने कई युध्द जीते और अपने राज्य का विस्तार करते चले गए। परंतु अंत मे कुशल घुड़ सवारों की कमी और जयचंद्र की गद्दारी और अन्य राजपूत राजाओ के सहयोग के अभाव मे वे मुहम्मद गौरी से द्वितीय युध्द हार गए।
अपने राज्य के विस्तार को लेकर पृथ्वीराज चौहान हमेशा सजग रहते थे और इस बार अपने विस्तार के लिए उन्होने पंजाब को चुना था। इस समय संपूर्ण पंजाब पर मुहम्मद शाबुद्दीन गौरी का शासन था, वह पंजाब के ही भटिंडा से अपने राज्य पर शासन करता था। गौरी से युध्द किए बिना पंजाब पर शासन नामुमकिन था, तो इसी उद्देश्य से पृथ्वीराज ने अपनी विशाल सेना को लेकर गौरी पर आक्रमण कर दिया।
अपने इस युध्द मे पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम हांसी, सरस्वती और सरहिंद पर अपना अधिकार किया। परंतु इसी बीच अनहिलवाड़ा मे विद्रोह हुआ और पृथ्वीराज को वहां जाना पड़ा और उनकी सेना ने अपनी कमांड खो दी और सरहिंद का किला फिर खो दिया। अब जब पृथ्वीराज अनहिलवाड़ा से वापस लौटे, उन्होने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये।
युध्द मे केवल वही सैनिक बचे, जो मैदान से भाग खड़े हुये इस युध्द मे मुहम्मद गौरी भी अधमरे हो गए, परंतु उनके एक सैनिक ने उनकी हालत का अंदाजा लगते हुये, उन्हे घोड़े पर डालकर अपने महल ले गया और उनका उपचार कराया। इस तरह यह युध्द परिणामहीन रहा। यह युध्द सरहिंद किले के पास तराइन नामक स्थान पर हुआ, इसलिए इसे तराइन का युध्द भी कहते है. इस युध्द मे पृथ्वीराज ने लगभग 7 करोड़ रूपय की संपदा अर्जित की, जिसे उसने अपने सैनिको मे बाट दिया।
पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु
गौरी से युध्द के पश्चात पृथ्वीराज को बंदी बनाकर उनके राज्य ले जाया गया। वहा उन्हे यतनाए दी गयी तथा पृथ्वीराज की आखो को लोहे के गर्म सरियो द्वारा जलाया गया, इससे वे अपनी आखो की रोशनी खो बैठे। जब पृथ्वीराज से उनकी मृत्यु के पहले आखरी इच्छा पूछी गयी, तो उन्होने भरी सभा मे अपने मित्र चंदबरदाई के शब्दो पर शब्दभेदी बाण का उपयोग करने की इच्छा प्रकट की।
और इसी प्रकार चंदबरदई द्वारा बोले गए दोहे का प्रयोग करते हुये उन्होने गौरी की हत्या भरी सभा मे कर दी। इसके पश्चात अपनी दुर्गति से बचने के लिए दोनों ने एक दूसरे की जीवन लीला भी समाप्त कर दी। और जब संयोगिता ने यह खबर सुनी, तो उसने भी अपना जीवन समाप्त कर लिया।
इन्हें भी देखें –
- मुमताज महल (1593-1631)
- जहाँगीर 1569-1627
- काकतीय वंश |1000 ई.-1326 ई.
- वारसॉ संधि | 1955-1991 | सोवियत संघ का एक महत्वपूर्ण पहल और ग्लोबल समर्थन
- रूस की क्रांति: साहसिक संघर्ष और उत्तराधिकारी परिवर्तन |1905-1922 ई.
- अमेरिकी गृहयुद्ध (1861 – 1865 ई.)
- पुर्तगाली साम्राज्य (1415 – 1999 ई.)
- सप्तवर्षीय युद्ध: अद्भुत संघर्ष और संकटपूर्ण निर्णय |1756–1763 ई.