मैथिली भारत की एक प्राचीन, समृद्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण भाषा है। यह न केवल बिहार की पहचान का प्रतीक है, बल्कि भारत की भाषाई विविधता में एक अनूठा स्थान रखती है। यह भाषा उत्तर-पूर्वी बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम और पड़ोसी देश नेपाल में भी बोली जाती है। इसके अतिरिक्त, प्रवासी समुदायों के कारण यह अब विश्व के विभिन्न देशों में भी बोली और समझी जाती है। मैथिली न केवल एक भाषा है, बल्कि यह भारत की लोकसंस्कृति, लोकसंगीत, नाट्य परंपरा और धार्मिक जीवन का जीवंत आधार है।
भौगोलिक विस्तार
मैथिली भाषा का विस्तार अत्यंत व्यापक है। भारत में यह मुख्यतः बिहार के 21 जिलों में बोली जाती है — मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, खगड़िया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, सुपौल, मधेपुरा, मुंगेर, भागलपुर, सहरसा, पूर्णिया, सीतामढ़ी, शिवहर, वैशाली, बाँका, लखीसराय, जमुई और बेगूसराय।
नेपाल में भी मैथिली भाषा का गहरा प्रभाव है। वहाँ यह सात प्रमुख जिलों — धनुषा, महोत्तरी, सिराहा, सर्लाही, सप्तरी, सुनसरी और मोरंग — में व्यापक रूप से बोली जाती है।
इस प्रकार मैथिली का भौगोलिक क्षेत्र लगभग 30,000 वर्गमील में फैला हुआ है। भारत में इसके सांस्कृतिक केंद्र मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी, सहरसा, मुजफ्फरपुर, देवघर और भागलपुर हैं, जबकि नेपाल में इसका सांस्कृतिक केंद्र जनकपुर है, जिसे आज भी ‘मिथिला की सांस्कृतिक राजधानी’ कहा जाता है।
मैथिली की उत्पत्ति और भाषाई स्वरूप
मैथिली की उत्पत्ति मागधी प्राकृत से मानी जाती है, जो संस्कृत से विकसित हुई थी। मागधी प्राकृत से ही आगे चलकर अपभ्रंश और फिर आधुनिक भाषाओं का निर्माण हुआ। इन्हीं अपभ्रंश रूपों से बांग्ला, असमिया, उड़िया और मैथिली जैसी पूर्वी भारतीय भाषाओं का विकास हुआ। इस दृष्टि से मैथिली इन भाषाओं की बहन भाषा कही जा सकती है।
मैथिली में संस्कृत, अपभ्रंश और स्थानीय बोलियों का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। इसकी ध्वन्यात्मकता, लय और वाक्य-विन्यास इसे हिंदी और बंगला दोनों से भिन्न बनाते हैं, फिर भी यह उनसे कुछ हद तक मिलती-जुलती है।
इसकी व्याकरणिक संरचना अत्यंत व्यवस्थित है। मैथिली के शब्दकोश में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है, किंतु इसके लोक-रूप में देशज और तद्भव शब्दों की प्रधानता मिलती है। यही कारण है कि मैथिली न केवल साहित्य की भाषा है, बल्कि लोकजीवन की भाषा भी है।
मैथिली लिपि : तिरहुता या मिथिलाक्षर
अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं की तरह मैथिली की भी अपनी एक स्वतंत्र प्राचीन लिपि रही है — जिसे “तिरहुता” या “मिथिलाक्षर” कहा जाता है। इस लिपि का विकास नवीं शताब्दी ईस्वी में ही प्रारंभ हो गया था। यह लिपि ब्राह्मी लिपि से विकसित हुई और अपने विशिष्ट रूप में मिथिला की धार्मिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक अभिलेखों में प्रयुक्त होती रही।
तिरहुता लिपि की विशेषता यह है कि इसके अक्षर गोलाकार और सुसज्जित होते हैं। इसका प्रयोग न केवल धार्मिक ग्रंथों में, बल्कि भूमि अभिलेखों, विवाह पत्रिकाओं और शिलालेखों में भी होता था।
हालाँकि आधुनिक काल में मैथिली के मुद्रित साहित्य में देवनागरी लिपि का प्रयोग अधिक होने लगा है, फिर भी तिरहुता लिपि मिथिला की सांस्कृतिक पहचान के रूप में आज भी महत्वपूर्ण है। मिथिला क्षेत्र के पंडित आज भी अपने पंचांग, जन्मपत्री और वैदिक ग्रंथों को तिरहुता में ही लिखते हैं।
मैथिली साहित्य का काल विभाजन
मैथिली साहित्य का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। विद्वानों ने इसके साहित्यिक विकास को मुख्यतः तीन कालों में बाँटा है —
- आदिकाल (1000 ई. – 1600 ई.)
- मध्यकाल (1600 ई. – 1860 ई.)
- आधुनिक काल (1860 ई. से वर्तमान तक)
इन तीनों कालों में विषयवस्तु, भाषा-शैली और अभिव्यक्ति के रूप में क्रमिक विकास देखा जाता है।
जहाँ आदिकाल में गीतिकाव्य की प्रधानता रही, वहीं मध्यकाल में नाट्य-साहित्य, और आधुनिक काल में गद्य साहित्य ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
आदिकाल (1000 ई. – 1600 ई.) : मैथिली साहित्य की नींव
मैथिली साहित्य का आरंभ बौद्ध तांत्रिक साधकों के अपभ्रंश दोहों और गीतों से माना जाता है। यह काल प्रायः उस समय का है जब मिथिला क्षेत्र में धर्म, तंत्र और साधना का गहरा प्रभाव था। इन बौद्ध तांत्रिक कवियों के दोहे न केवल धार्मिक रहस्य को उजागर करते हैं, बल्कि उनमें समाज और जीवन की झलक भी मिलती है।
इनकी भाषा मिथिला के पूर्वी भाग की बोली का प्राचीन रूप थी। इसी कारण से बंगला, उड़िया और असमिया भाषाएँ भी अपने आदि साहित्य का स्रोत इन बौद्ध तांत्रिक रचनाओं को ही मानती हैं।
कर्णाट राजवंश और मैथिली का स्वर्णयुग
इस अवधि में मिथिला में कर्णाट राजवंश का उदय हुआ। इस राजवंश ने मिथिला में न केवल राजनीतिक स्थिरता प्रदान की, बल्कि कला, संगीत और साहित्य की परंपरा को भी समृद्ध किया। कर्णाट वंश के राजा हरसिंह देव (लगभग 1324 ईस्वी) के समय को मैथिली साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है।
इसी काल में प्रसिद्ध विद्वान और कवि ज्योतिरीश्वर ठाकुर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने “वर्णन-रत्नाकर” नामक गद्यकाव्य की रचना की, जो उस समय के समाज, संस्कृति, जीवन और कल्पनाओं का विश्वकोश कहा जा सकता है। इसमें कवियों और लेखकों के लिए उपमाएँ, प्रतीक और वर्णन भंडार के रूप में सजाए गए हैं।
ज्योतिरीश्वर ठाकुर का “धूर्तसमागम” नाटक मैथिली नाट्य साहित्य का प्रारंभिक उदाहरण है। यह व्यंग्य और हास्य का उत्कृष्ट संगम है। इसी युग में मैथिली साहित्य ने न केवल धार्मिक भावभूमि को अपनाया, बल्कि लौकिक विषयों पर भी कलात्मक अभिव्यक्ति पाई।
विद्यापति युग (1350 ई. – 1450 ई.) : मैथिली काव्य का उत्कर्ष
ज्योतिरीश्वर के पश्चात् मैथिली साहित्य विद्यापति ठाकुर के युग में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँचा। विद्यापति मिथिला के प्रसिद्ध ओइनिवार वंश के आश्रय में रहे। उन्हें “मैथिल कोकिल” और “मैथिली भाषा के जनक” कहा जाता है।
जिस प्रकार बंगाल में जयदेव ने “गीत गोविंद” के माध्यम से कृष्ण प्रेम की संगीत परंपरा स्थापित की, उसी प्रकार विद्यापति ने हजारों पदों में राधा-कृष्ण प्रेम को रूपायित किया। उनके पदों में माधुर्य, श्रृंगार, भक्ति और लोक-संवेदना का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
विद्यापति के गीतों ने न केवल मैथिली में काव्य-संगीत की धारा प्रवाहित की, बल्कि बंगाल, उड़ीसा और असम में भी उनकी पदावली का प्रभाव गहराई तक पहुँचा। बंगाल के वैष्णव कवियों ने विद्यापति को वैष्णव कवि मानकर उनके पदों का अनुकरण किया।
विद्यापति की काव्य-विशेषताएँ
- भक्ति और श्रृंगार का संगम – विद्यापति के काव्य में ईश्वर प्रेम और लौकिक प्रेम दोनों का सुन्दर संतुलन है।
- भाषा की मधुरता – उनकी भाषा में संगीतात्मक लय और भावनात्मक गहराई है।
- नारी के मनोभावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति – राधा की वियोग और मिलन की भावनाओं को उन्होंने असाधारण कोमलता से चित्रित किया।
- लोकजीवन का सजीव चित्रण – उनके गीत मिथिला के लोकजीवन की आत्मा को प्रकट करते हैं।
विद्यापति की परंपरा और उत्तरवर्ती कवि
विद्यापति के बाद भी मैथिली में भक्ति और श्रृंगार दोनों की परंपरा चलती रही। उनके अनुयायियों ने न केवल राधा-कृष्ण विषयक पद रचे, बल्कि शक्ति और शिव भक्ति पर भी सुंदर गीतों की रचना की। शक्ति विषयक कविताओं को “गोसाउनिक गीत” और शिव भक्ति की कविताओं को “नचारी गीत” कहा गया।
विद्यापति के समकालीन और परवर्ती कवियों में अमृतकर, चंद्रकला, भानु, दशावधान, विष्णुपुरी, कवि शेखर यशोधर, चतुर्भुज और भीष्म कवि उल्लेखनीय हैं।
बाद में महाराज कंसनारायण (लगभग 1527 ईस्वी) के दरबार में अनेक कवि हुए, जिनमें गोविंद कवि विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए। इनके पद “कंसनारायण पदावली” में संगृहीत हैं।
इसके अतिरिक्त, महिनाथ ठाकुर, लोचन झा, हर्षनाथ झा और चंदा झा जैसे कवियों ने विद्यापति परंपरा को आगे बढ़ाया। नेपाल में भी सिंह नरसिंह, भूपतींद्र मल्ल और जगतप्रकाश मल्ल जैसे कवियों ने विद्यापति के शिव और शक्ति विषयक पदों का गहन अनुकरण किया।
विद्यापति की परंपरा का प्रभाव : सीमाओं के पार
विद्यापति के काव्य का प्रभाव केवल मिथिला तक सीमित नहीं रहा। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन ने विद्यापति के पदों को लोकगीतों के रूप में अपनाया।
उड़ीसा में जगन्नाथ संप्रदाय में भी उनके पदों का गायन होने लगा।
असम के कवियों ने भी मैथिली शैली को अपनाकर अपने भक्ति काव्य की नींव रखी।
बीसवीं शताब्दी में रवींद्रनाथ टैगोर जैसे विश्वकवि ने भी विद्यापति की शैली में “भानुसिंहेर पदावली” के नाम से सुंदर ब्रजभाषा-प्रेरित गीत रचे, जिन पर मैथिली की काव्यधारा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।
आदिकाल का सांस्कृतिक महत्त्व
मैथिली साहित्य का आदिकाल केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस काल में भाषा के साथ-साथ मिथिला की संगीत, नृत्य और नाट्य परंपराएँ भी सशक्त हुईं।
मिथिला के मंदिरों में विद्यापति के गीतों का गायन भक्ति-संस्कृति का हिस्सा बन गया। जनकपुर और मधुबनी के गाँवों में आज भी इन पदों की गूँज सुनाई देती है। विद्यापति की रचनाएँ न केवल धर्म और प्रेम की अभिव्यक्ति हैं, बल्कि वे मिथिला की संवेदनशीलता, सौंदर्यबोध और सांस्कृतिक गौरव की प्रतीक हैं।
मैथिली साहित्य का मध्यकाल (1600 ई.–1860 ई.)
मैथिली साहित्य का मध्यकाल सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत परिवर्तनशील काल रहा। इस युग में मिथिला क्षेत्र अनेक राजनीतिक अस्थिरताओं से गुज़रा, किंतु इसके बावजूद मैथिली भाषा और साहित्य की धारा अवरुद्ध नहीं हुई। इस काल में नाट्य साहित्य, गीतिनाट्य परंपरा, गद्य रचना, धार्मिक पदावली तथा वैष्णव भक्ति काव्य के रूप में मैथिली साहित्य ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और साहित्यिक पृष्ठभूमि
सोलहवीं शताब्दी के पश्चात मिथिला पर विदेशी आक्रमणों का गहरा प्रभाव पड़ा। मुसलमान शासकों के लगातार हमलों के कारण यहाँ अराजकता का वातावरण बन गया। ओइनिवार वंश के पतन के बाद मिथिला की राजनीतिक संरचना बिखर गई, जिससे विद्वानों, कवियों और संगीतज्ञों के लिए संरक्षण का संकट उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरूप अनेक मैथिल विद्वान और कलाकार नेपाल की ओर प्रस्थान करने लगे। वहाँ के मल्ल राजाओं ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया।
नेपाल के मल्ल शासक कला, संगीत और नाट्यकला के बड़े संरक्षक थे। इसी कारण मैथिली साहित्य का एक बड़ा भाग, विशेष रूप से नाट्य साहित्य, नेपाल के दरबारों में ही विकसित हुआ। भक्तपुर, काठमांडू और पाटन जैसे नगर उस समय मैथिली साहित्य और नाट्यकला के प्रमुख केंद्र बन गए।
नेपाल में मैथिली नाट्य परंपरा का उत्कर्ष
नेपाल के दरबारों में आरंभ में संस्कृत नाटकों में मैथिली गीतों का समावेश किया जाता था। धीरे-धीरे संस्कृत और प्राकृत के स्थान पर मैथिली का उपयोग बढ़ता गया और अंततः संपूर्ण नाटक ही मैथिली में लिखे जाने लगे। इस प्रक्रिया ने एक नए रूप—गीतिनाट्य—को जन्म दिया।
इन गीतिनाट्यों में संगीत और नृत्य की प्रधानता थी, जबकि संवाद या गद्य बहुत सीमित था। अधिकतर कथानक संकेत मात्र से प्रस्तुत किए जाते थे। मंचन दिन के समय खुली सभाओं में होता था, और दर्शक वर्ग मुख्यतः राजपरिवार व दरबारी होते थे। इन नाटकों के विषय पौराणिक या धार्मिक आख्यानों से लिए जाते थे, किंतु उनमें कलात्मकता और काव्य रस की प्रचुरता होती थी।
नेपाल में मैथिली नाटक की यह परंपरा विशेष रूप से भक्तपुर में फली-फूली। वहाँ के प्रमुख नाटककारों में जगज्योतिर्मल्ल, जगतप्रकाश मल्ल, जितामित्र मल्ल, भूपतींद्र मल्ल और रणजित मल्ल प्रमुख हैं। इनमें से रणजित मल्ल सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए — इनके लगभग उन्नीस नाटकों का उल्लेख आज भी मिलता है।
काठमांडू में वंशमणि झा तथा पाटन में सिद्धिनरसिंह मल्ल (1620–1657) ने मैथिली नाट्य परंपरा को ऊँचाई दी। 1768 ईस्वी में जब पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल में मल्ल राजाओं को परास्त कर गोरखा राज्य की स्थापना की, तब यह स्वर्णिम नाट्य परंपरा लुप्तप्राय हो गई।
मिथिला में कीर्तनिया नाट्य परंपरा
नेपाल के समानांतर, मिथिला में भी मैथिली नाटक की एक विशिष्ट परंपरा विकसित हुई, जिसे “कीर्तनिया नाटक” कहा गया। इसका उद्भव मुख्यतः धार्मिक आयोजनों से हुआ, परंतु समय के साथ यह केवल धार्मिक नहीं रहा बल्कि लोकमनोरंजन और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया।
कीर्तनिया नाटक प्रायः शिव या कृष्ण की कथाओं पर आधारित होते थे। इनका प्रदर्शन रात्रि में किया जाता था और इनमें प्रयुक्त संगीत को “नादी” कहा जाता था। प्रारंभिक कीर्तनिया नाटकों में संस्कृत नाटकों के बीच मैथिली गीतों को सम्मिलित किया जाता था, जो संस्कृत श्लोकों का ललित व्याख्यान प्रस्तुत करते थे। धीरे-धीरे पूरा नाटक मैथिली गीतों पर आधारित हो गया।
इन नाटकों की विशेषता थी — संगीत, नृत्य और काव्य का समन्वय, जिससे वे मिथिला के जनमानस में अत्यंत लोकप्रिय हुए।
कीर्तनिया नाटककारों के तीन काल
मैथिली कीर्तनिया नाटक परंपरा को लगभग तीन चरणों में विभाजित किया जाता है:
(क) प्रथम चरण (1350–1700 ई.)
इस काल में नाट्य परंपरा की नींव रखी गई। प्रमुख नाटककारों में विद्यापति (गोरक्षविजय), गोविंद कवि (नलचरितनाट), रामदास (आनंदविजय), देवानंद (उषाहरण), उमापति उपाध्याय (पारिजातहरण) और रमापति (रुक्मणि परिणय) उल्लेखनीय हैं।
इनमें सबसे लोकप्रिय नाम उमापति उपाध्याय का है, जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी में मैथिली गीतिनाट्य को नई दिशा दी।
(ख) द्वितीय चरण (1700–1900 ई.)
इस काल में मैथिली नाटक अपने परिपक्व रूप में पहुँचा। प्रमुख रचनाकारों में लाल कवि, नंदीपति, गोकुलानंद, जयानंद कान्हाराम, रत्नपाणि, भानुनाथ, और हर्षनाथ सम्मिलित हैं।
लाल कवि की “गौरी स्वयंवर” तथा हर्षनाथ की “उषाहरण” और “माघवानंद” साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान मानी जाती हैं।
(ग) तृतीय चरण (1900–1950 ई.)
इस युग के लेखकों में विश्वनाथ झा, बालाजी, चंदा झा और राजपंडित बलदेव मिश्र के नाम प्रमुख हैं। हालांकि इनकी रचनाओं में नवीनता अपेक्षाकृत कम थी, फिर भी इन लेखकों ने पुराने पदों और गीतों को पुनः जीवित रखकर मैथिली नाटक को लोकपरंपरा से जोड़े रखा।
असम में मैथिली नाट्य का विस्तार – अंकिया नाट परंपरा
मैथिली नाट्य की एक रोचक शाखा असम में विकसित हुई, जिसे “अंकिया नाट” कहा गया। यह परंपरा सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में आकार ली और इसमें वैष्णव भक्ति का गहरा प्रभाव रहा।
अंकिया नाट में संवादों की अपेक्षा वर्णन और पाठ अधिक महत्वपूर्ण था। सूत्रधार पूरे नाटक में अभिनय करता था, और कथा में नाटकीय संघर्ष की अपेक्षा भावनात्मक प्रस्तुति पर बल दिया जाता था। इन नाटकों का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन नहीं, बल्कि धार्मिक उपदेश और भक्ति प्रचार था।
मुख्य नाटककारों में शंकरदेव (1449–1558), माधवदेव और गोपालदेव प्रसिद्ध हैं। शंकरदेव का “रुक्मिणीहरण” नाटक आज भी असम की लोक-संस्कृति में जीवित है।
गद्य साहित्य का प्रारंभिक विकास
मध्यकाल में मैथिली गद्य साहित्य का भी आरंभ हुआ। उस युग के दानपत्रों, लेखों और पत्राचारों से गद्य की संरचना और प्रयोग के स्वरूप का ज्ञान मिलता है। इन दस्तावेजों में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, दास-प्रथा, धार्मिक परंपराएँ और प्रशासनिक भाषा-शैली का विस्तृत चित्र मिलता है।
हालाँकि यह गद्य अत्यधिक औपचारिक और व्यावहारिक था, किंतु इसी काल से मैथिली भाषा में गद्य लेखन की नींव पड़ी।
गीतिकाव्य और भक्ति साहित्य की परंपरा
विद्यापति की काव्य-परंपरा इस काल में भी जारी रही। उनके अनुकरण में अनेक कवियों ने श्रृंगार, भक्ति और वीर रस पर आधारित गीत लिखे। उल्लेखनीय कवियों में भज्जन कवि, लाल कवि, कर्ण श्याम, और प्रभु कर्ण प्रमुख हैं।
इसी काल में दीर्घ काव्य और महाकाव्य का भी उद्भव हुआ। मनवोध द्वारा रचित कृष्णजन्म, नंदापति रतिपति तथा चक्रपाणि की रचनाएँ मैथिली काव्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं।
इसके अतिरिक्त संत परंपरा के कवियों ने भी मैथिली काव्य को समृद्ध किया। इनमें संत रामदास का नाम अत्यंत सम्मान से लिया जाता है। उनकी “पदावली” (1746 ई.) वैष्णव भक्ति आंदोलन से गहराई से जुड़ी हुई है।
मध्यकाल का समग्र मूल्यांकन
मैथिली साहित्य का मध्यकाल, यद्यपि राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक चुनौतियों का काल था, फिर भी यह साहित्यिक दृष्टि से सृजनशील रहा। इस युग ने मैथिली को एक संवेदनशील, संगीतप्रधान और रंगमंचीय भाषा के रूप में स्थापित किया।
नेपाल और असम में इसके प्रसार ने यह सिद्ध कर दिया कि मैथिली केवल क्षेत्रीय बोली नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक सेतु भाषा थी जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अपनी छाप छोड़ी।
अगले चरण में (आधुनिक काल – 1860 ई. से आगे) मैथिली साहित्य ने पत्रकारिता, कथा-साहित्य, उपन्यास, निबंध, आलोचना और आधुनिक कविता के माध्यम से एक नए युग की शुरुआत की, जिसकी विस्तृत चर्चा अगले भाग में की गयी है।
आधुनिक काल
सन् 1860 ई. के आसपास मिथिला क्षेत्र में आधुनिक युग का शुभारंभ हुआ। सिपाही विद्रोह के बाद फैली अराजकता के अंत के साथ ही यहाँ सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक जीवन में नई चेतना आई। पश्चिमी शिक्षा का प्रसार हुआ, रेल और तार व्यवस्था स्थापित हुई, मुद्रणालयों की स्थापना आरंभ हुई तथा स्वशासन की ओर बढ़ते कदमों ने मिथिला को आधुनिक विचारधारा से जोड़ा। इसी दौर में अनेक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएँ अस्तित्व में आईं जिन्होंने जनचेतना और नवजागरण को दिशा दी। परिणामस्वरूप लोगों का ध्यान एक ओर जहाँ प्राचीन साहित्य के पुनः अध्ययन और खोज पर गया, वहीं दूसरी ओर नवीन युग के अनुरूप साहित्यिक सृजन की परंपरा भी आरंभ हुई।
कवीश्वर चंदा झा और नवजागरण
इस नवयुग की साहित्यिक नींव रखने में कवीश्वर चंदा झा (मृत्यु 1907 ई.) का योगदान सर्वाधिक उल्लेखनीय है। उनके महाकाव्य रामायण ने मैथिली भाषा को न केवल गरिमा प्रदान की बल्कि आधुनिक मैथिली साहित्य की दिशा भी निर्धारित की।
गद्य का विकास और पत्रकारिता का योगदान
आधुनिक काल में मैथिली गद्य का तीव्र विकास हुआ। इस युग को मैथिली गद्य का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। मैथिलहितसाधन, मिथिलामोद, मिथिलामिहिर और मिथिला जैसे समाचारपत्रों ने न केवल गद्य लेखन की शैली को प्रोत्साहित किया बल्कि भाषा की अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावशाली बनाया।
मैथिली लेखशैली को वैज्ञानिक रूप देने में डॉ॰ उमेश मिश्र, रमानाथ झा, और व्याकरणाचार्य दीनबंधु झा का योगदान महत्वपूर्ण रहा।
बाबू भोलालाल दास का योगदान
मैथिली के समग्र विकास में बाबू भोलालाल दास का योगदान अनुपम है। उन्होंने मैथिली को विश्वविद्यालयी अध्ययन का विषय बनवाया और अनेक लेखकों को इस भाषा में सृजन हेतु प्रेरित किया। उन्हें मैथिली के प्रथम व्याकरणाचार्य तथा बाल-साहित्य के प्रणेता के रूप में मान्यता प्राप्त है। उन्हीं के प्रयासों से मैथिली भाषा भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान पा सकी।
उपन्यास और कहानी परंपरा
आधुनिक युग की सर्वाधिक उल्लेखनीय देन उपन्यास और कहानी साहित्य रहा। आरंभ में मैथिली में अनेक अनुवाद हुए, जिनमें परमेश्वर झा का सामंतिनी आख्यान उल्लेखनीय है। आगे चलकर रासबिहारीलाल दास, जनार्दन झा, भोला झा और पुण्यानंद झा जैसे लेखकों ने मौलिक रचनाओं से इस परंपरा को समृद्ध किया।
इस दिशा में हरिमोहन झा ने कन्यादान और द्विरागमन जैसे उपन्यासों द्वारा मैथिली गद्य को ऊँचाई प्रदान की। व्यंग्य, चुटीली भाषा और जीवन के यथार्थ चित्रण में उनका स्थान अग्रणी रहा। बाद में सरोज यात्री और व्यास झा जैसे रचनाकारों ने समाज के बदलते स्वरूप को अपने उपन्यासों में प्रतिबिंबित किया। 21वीं सदी में गौरीनाथ का उपन्यास दाग समकालीन मैथिली साहित्य में चर्चित रहा।
कहानी साहित्य
कहानी विधा में विद्यासिंधु, सरोज, किरण, भुवन जैसे रचनाकारों ने उल्लेखनीय योगदान दिया। हरिमोहन झा के हास्यप्रधान कथानक आज भी जनमानस में लोकप्रिय हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाने में यंगानंद सिंह, नगेंद्रकुमार, मनमोहन, उमानाथ झा, और उपेंद्रनाथ झा की भूमिका विशेष रही। आधुनिक संवेदना और कल्पनाशीलता से ओतप्रोत कहानियाँ रमाकर, शेखर, यात्री, और अमर जैसे लेखकों ने प्रस्तुत कीं।
निबंध और दार्शनिक गद्य
इस काल के निबंधों में देशोन्नति, सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक चेतना का भाव स्पष्ट झलकता है। गंगानंद सिंह, भुवन जी, और उमेश मिश्र जैसे लेखकों ने गहन विचारपूर्ण निबंध लिखे। भाषा और साहित्य पर गंभीर लेखन के क्षेत्र में दीनबंधु झा, डॉ॰ सुभद्र झा, गंगापति सिंह, और नरेंद्रनाथ दास अग्रणी रहे। दार्शनिक गद्य की परंपरा को डॉ॰ सर गंगानाथ झा और क्षेमधारी सिंह ने समृद्ध किया।
काव्य की दो धाराएँ
आधुनिक मैथिली काव्य को दो प्रवृत्तियों में बाँटा जा सकता है — प्राचीनतावादी और नवीनतावादी।
प्राचीनतावादी कवियों ने महाकाव्य, खंडकाव्य और पारंपरिक गीतिकाव्य की रचना की। इनमें चंदा झा, रघुनंदनदास, लालदास, बदरीनाथ झा, दत्तबंधु, गणनाथ झा, सीताराम झा, ऋद्धिनाथ झा, और जीवन झा प्रमुख हैं।
वहीं, नवीन प्रवृत्ति वाले कवियों ने देशभक्ति, सामाजिक चेतना, हास्य-विनोद और आधुनिक जीवन की गति पर केंद्रित काव्य रचे। इस श्रेणी में यदुवराचार्य, राधवाचार्य, भुवन, सुमन, मोहन, यात्री, अमर, तथा हरिमोहन झा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
लोक परंपरा और सांस्कृतिक विरासत
मैथिली की साहित्यिक परंपरा केवल शास्त्रीय ग्रंथों तक सीमित नहीं रही। यहाँ की लोकसंस्कृति, विशेष रूप से गोनु झा की चतुराई की कहानियाँ और राम-सिया विवाह से जुड़े लोकगीत, आज भी जनमानस में जीवित हैं। मिथिला की भूमि को देवभूमि कहा जाता है, जिसने सदियों से साहित्य और संस्कृति दोनों को पोषित किया है।
नाटक का पुनरुद्धार
जहाँ प्राचीन गीतिनाट्य की परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती गई, वहीं आधुनिक युग में जीवन झा ने गद्यप्रधान नाट्यलेखन की नींव रखी। उनके बाद आनंद झा और ईशनाथ झा ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। बीसवीं शताब्दी के मध्य से एकांकी नाटकों का विशेष प्रसार हुआ, जिनके प्रमुख लेखक तंत्रनाथ झा और हरिमोहन झा रहे।
मैथिली के अन्य आधुनिक साहित्यकार
मैथिली साहित्य का आधुनिक काल न केवल गद्य और काव्य की दृष्टि से समृद्ध हुआ, बल्कि इसमें विभिन्न विधाओं — उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक, आलोचना, पत्रकारिता और लोकसाहित्य — का भी असाधारण विस्तार देखने को मिला। इस काल में अनेक प्रतिभाशाली रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से मैथिली भाषा को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।
प्रमुख कवि एवं काव्यधारा के योगदानकर्ता
आधुनिक मैथिली कविता में अनेक रचनाकारों ने अपनी विशिष्ट शैली और विषय-वस्तु के कारण अमिट छाप छोड़ी।
अमृतकर, बिष्णुपुरी, गोविन्द दास, नृपति जगज्योतिर्मल्ल, उमापति, नरसिंह, लोचन, चतुर चतुर्भुज, रघुनाथदास, महाकवि मनबोध, लक्ष्मीनाथ गोसाई, भानुनाथ झा, रामजी चौधरी, हर्षनाथ झा, लालदास, कविवर जीवन झा, कुमार गंगानन्द सिंह, मुन्शी रघुनंदन झा, भवप्रीतनंद ओझा, रामवृक्ष बेनीपुरी, त्रिपुरारि कुमार शर्मा, कुशेश्वर कुमार, सीताराम झा, बदरीनाथ झा, पुलकित लाल दास ‘मधुर’, छेदी लाल द्विजवर, अच्युतानंद दत्त, महावीर झा वीर, श्यामनंद झा, जयनारायण झा, डॉ. कांचीनाथ झा, बाबू भुवनेश्वर सिंह ‘भुवन’, बाबू लक्ष्मी सिंह, ईशनाथ झा, काशीकांत ‘मधुप’, सुरेंद्र झा सुमन, रमेश चंद्र झा, वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ (नागार्जुन), आरसी प्रसाद सिंह, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, तारानंद वियोगी, शान्ति सुमन, डॉ. योगेन्द्र पाठक ‘वियोगी’, लक्ष्मण झा सागर, रामदेव भावुक, रवीन्द्र नारायण मिश्र, विभूति आनंद, अरविन्द श्रीवास्तव, लालदेव कामत, राजदेव मंडल, बेचन ठाकुर, राज सिंह बनारसी, सुकान्त सोम, राम विलास साहु, रामदेव प्रसाद मंडल ‘झारूदार’, सुशान्त भास्कर जैसे कवियों ने मैथिली काव्य को विविध आयाम दिए।
इनमें भक्ति, देशभक्ति, सामाजिक चेतना, आधुनिक जीवन की विडंबनाएँ और हास्य-व्यंग्य सभी स्वर मिलते हैं।
कथा साहित्य के रचनाकार
कहानी और उपन्यास विधा में मैथिली भाषा को नई पहचान दिलाने वाले रचनाकारों में हरिमोहन झा, राजकमल चौधरी, चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’, जीवकांत, धूमकेतु, गंगेश गुंजन, महाप्रकाश, अशोक, प्रभास कुमार चौधरी, डॉ. सुरेंद्र लाल दास, उदयचंद्र झा ‘विनोद’, डॉ. शेफालिका वर्मा, उषा किरण खान, गजेन्द्र ठाकुर, धीरेन्द्र कुमार, डॉ. विभा कुमारी, नारायण यादव, मुन्नी कामत, कपिलेश्वर राउत, प्रदीप पुष्प, किशन कारीगर, जयप्रकाश मण्डल, मो. सद्रे आलम गौहर, रघुनाथ मुखिया, रवीन्द्र नारायण मिश्र, जगदीश प्रसाद मंडल, डॉ. बचेश्वर झा, गौरीनाथ ठाकुर, शुभेन्दु शेखर, कुणाल, गौतम गोविन्द, सुशान्त भास्कर, रामदेव झा, और धीरेन्द्र कुमार के नाम प्रमुख हैं।
इन लेखकों ने ग्रामीण जीवन, सामाजिक परिवर्तन, प्रेम, व्यंग्य, और संघर्ष जैसे विषयों को कथात्मक रूप में प्रस्तुत किया।
नाटक और रंगकला के विकासकर्ता
आधुनिक मैथिली नाटक ने समाज की यथार्थ समस्याओं, पारिवारिक संघर्षों और लोकजीवन की संवेदनाओं को नाट्यरूप में अभिव्यक्त किया।
इस दिशा में महेन्द्र मलंगिया का नाटक ओकरा आंगनक बारहमासा मैथिली रंगमंच की क्लासिक कृति माना जाता है।
अन्य चर्चित नाटक हैं — ओ खाली मुँह देखै छै, गाम नै सुतैये, खिच्चैर, कमला कातक राम लक्ष्मण आ सीता, देह पर कोठी खसा दिअ, चीनिक लड्डू, बसात, भफाइत चाहक जिनगी (लेखक – सुधांशु शेखर चौधरी), छुतहा घैल, काठक लोक, डाक बाबू, काजे तोहर भगवान, और विदापत।
इसके अतिरिक्त जगदीश प्रसाद मंडल द्वारा रचित मिथिलाक बेटी, स्वयंवर, झमेलिया बिआह, पंचवटी एकांकी संचयन और बेचन ठाकुर द्वारा लिखा गया बाप भेल पित्ती उल्लेखनीय हैं।
आलोचना, निबंध और वैचारिक साहित्य
आधुनिक मैथिली आलोचना और निबंध लेखन ने साहित्यिक विमर्श को गहराई दी। इस क्षेत्र में डॉ. कांचीनाथ झा, डॉ. तारानंद वियोगी, डॉ. योगेन्द्र पाठक, डॉ. अमरेश पाठक, डॉ. भीमनाथ झा, मंत्रेश्वर झा, राजलक्ष्मी, राम विलास साहु, सुधांशु शेखर, अरविन्द श्रीवास्तव, लालदेव कामत, नारायण यादव, उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’, प्रदीप पुष्प, डॉ. बिभा कुमारी, और सुरेश पासवान जैसे विद्वानों का योगदान रहा है।
पत्रकारिता और पत्रिकाओं की भूमिका
मैथिली साहित्य के प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं का विशेष योगदान रहा।
प्रमुख पत्रिकाओं में —
- अंतिका (संपा. अनलकांत)
- आरंभ (संपा. राज मोहन झा)
- शिखा (संपा. अग्निपुष्प, कुणाल)
- गामघर (साप्ताहिक, संपा. राम भरोस कपारी ‘भ्रमर’)
- आँजुर (मासिक, संपा. राम भरोस कपारी ‘भ्रमर’)
- कोसी संदेश (संपा. अर्द्धनारीश्वर)
- विदेह-सदेह (संपा. गजेन्द्र ठाकुर)
- मिथिला दर्शन, घर-बाहर, और समय साल जैसी पत्रिकाएँ प्रमुख हैं।
इन पत्रिकाओं ने नई रचनाशैली को मंच दिया और आधुनिक मैथिली साहित्य के लेखकों को व्यापक पाठकवर्ग से जोड़ा।
आधुनिक काल में मैथिली साहित्य ने लगभग सभी विधाओं — कविता, कथा, नाटक, आलोचना और पत्रकारिता — में असाधारण प्रगति की। इन असंख्य साहित्यकारों की सामूहिक सृजनशीलता ने न केवल मिथिला की सांस्कृतिक चेतना को नई दिशा दी, बल्कि मैथिली को भारतीय भाषाओं की अग्रणी पंक्ति में स्थापित किया।
प्रमुख आधुनिक मैथिली साहित्यकार
| क्रमांक | साहित्यकार का नाम | प्रमुख रचना / रचनाएँ | साहित्यिक विधा | प्रमुख योगदान |
|---|---|---|---|---|
| 1 | कविवर चंदा झा | रामायण | महाकाव्य | आधुनिक मैथिली काव्य के प्रवर्तक, नवजागरण के कवि |
| 2 | बाबू भोलालाल दास | मैथिली व्याकरण, बालोपयोगी कथा संग्रह | व्याकरण / बाल साहित्य | मैथिली के प्रथम व्याकरणाचार्य, विश्वविद्यालय स्तर पर मैथिली को प्रतिष्ठा दी |
| 3 | हरिमोहन झा | कन्यादान, द्विरागमन | उपन्यास / व्यंग्य | आधुनिक मैथिली गद्य के प्रमुख स्तंभ, हास्य-व्यंग्य शैली के जनक |
| 4 | सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ | सुमन संगीता, गीत संचय | काव्य / गीतिकाव्य | देशभक्ति और मानवता के संवाहक कवि |
| 5 | राजकमल चौधरी | मछली मरी हुई, मिथिला मिराज | उपन्यास / आलोचना | प्रयोगधर्मी और आधुनिक चेतना के वाहक |
| 6 | वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ (नागार्जुन) | बलचनमा, पत्रहीन नग्न गाछ | काव्य / उपन्यास | जनकवि, लोक और राजनीति के समन्वयक |
| 7 | डॉ॰ तारानंद वियोगी | विदेह: एक अध्ययन | आलोचना / निबंध | आधुनिक मैथिली आलोचना के प्रमुख विद्वान |
| 8 | रमेशचन्द्र झा | मिथिला माटि, आँखक बुँद | कविता / देशभक्ति | स्वतंत्रता आंदोलन के युगीन कवि |
| 9 | काशीकान्त मिश्र ‘मधुप’ | गीतांजलि (अनुवाद) | अनुवाद / काव्य | रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुवाद से मैथिली का विस्तार किया |
| 10 | ललित नारायण मिश्र | राजनीति और संस्कृति | निबंध / आलोचना | समाज व संस्कृति पर गहन लेखन |
| 11 | गंगानन्द सिंह | देशोन्नति विचार | निबंध | निबंध साहित्य के अग्रणी |
| 12 | आनन्द झा | स्वयंवर, मिथिलाक बेटी | नाटक | आधुनिक नाट्य परंपरा के प्रतिष्ठापक |
| 13 | बेचन ठाकुर | बाप भेल पित्ती | नाटक / एकांकी | हास्य-प्रधान सामाजिक नाटककार |
| 14 | गजेन्द्र ठाकुर | विदेह-सदेह | आलोचना / संपादन | मैथिली को वैश्विक मंच तक पहुँचाने वाले |
| 15 | प्रवीण कुमार निषाद | समकालीन मिथिला | आलोचना / समीक्षा | आधुनिक समीक्षा-धारा के प्रतिनिधि |
| 16 | डॉ॰ उमेश मिश्र | मैथिली लेखशैली | व्याकरण / निबंध | आधुनिक लेखन शैली के निर्णायक |
| 17 | दीनबंधु झा | गद्य विकास यात्रा | गद्य / आलोचना | वैज्ञानिक लेखशैली के प्रवर्तक |
| 18 | जनार्दन झा ‘जनसीदन’ | गामक कथा | कहानी | ग्रामीण जीवन के संवेदनशील चित्रकार |
| 19 | बदरीनाथ झा | भक्ति गीतावली | काव्य / गीत | प्राचीन भावधारा से जुड़े कवि |
| 20 | रघुनन्दन झा | मिथिला जीवन | निबंध / कथा | सामाजिक यथार्थवादी लेखन |
| 21 | कुमार गंगानन्द सिंह | नवजागरणक स्वर | काव्य | नवजागरण काल के कवि |
| 22 | ईशनाथ झा | लोकधारा | नाटक / आलोचना | लोकजीवन आधारित नाट्यलेखन |
| 23 | क्षेमधारी सिंह | दार्शनिक गद्यसंग्रह | निबंध / दर्शन | दार्शनिक लेखन के प्रवर्तक |
| 24 | डॉ॰ सर गंगानाथ झा | न्याय दर्शन विवेचन | दर्शन / गद्य | वैदिक एवं दर्शन परंपरा के विद्वान |
| 25 | भुवनेश्वर सिंह ‘भुवन’ | आधुनिक मिथिला | काव्य / निबंध | आधुनिक काव्य और आलोचना के संगमकर्ता |
| 26 | राधवाचार्य | भक्ति सुधा | काव्य / गीत | भक्ति आंदोलन के संवाहक |
| 27 | यदुवर | जनगीत संग्रह | गीत / देशभक्ति | राष्ट्रवादी गीतों के प्रसिद्ध कवि |
| 28 | चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ | मिथिला की माटि | कहानी / उपन्यास | सामाजिक और भावनात्मक यथार्थ के लेखक |
| 29 | धीरेन्द्र कुमार | नवसृजन | कविता / निबंध | नवोन्मेषी काव्य के प्रतिनिधि |
| 30 | रामदेव झा | लोककथा संग्रह | लोकसाहित्य | मिथिला के लोककथा संकलक |
| 31 | डॉ॰ बचेश्वर झा | आधुनिक मैथिली अध्ययन | आलोचना / शोध | आधुनिक मैथिली आलोचना के अग्रणी |
| 32 | भीमनाथ झा | नव चेतना | काव्य / निबंध | सामाजिक जागरूकता के कवि |
| 33 | डॉ॰ शेफालिका वर्मा | नदी मरै न चान्द | उपन्यास | महिला चेतना की सशक्त स्वर |
| 34 | उषा किरण खान | हंसुली घाटक लोग | कहानी / उपन्यास | ग्रामीण जीवन की प्रमुख कथाकार |
| 35 | तारानन्द झा | आधुनिकता के स्वर | निबंध | आलोचनात्मक दृष्टिकोण के चिंतक |
| 36 | डॉ॰ योगेन्द्र पाठक ‘वियोगी’ | कविता की नई भोर | आलोचना / काव्य | आधुनिक काव्य-चिंतन के विश्लेषक |
| 37 | शिवकुमार झा ‘टिल्लू’ | हंसिया धार पर | कविता / जनकाव्य | समाज-सापेक्ष कवि |
| 38 | प्रदीप पुष्प | शब्दक बगान | कविता / संपादन | नई पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि |
| 39 | गौरीनाथ | दाग | उपन्यास | 21वीं सदी के चर्चित कथाकार |
| 40 | रबीन्द्र नारायण मिश्र | गीत गंध | गीत / काव्य | समकालीन काव्य के प्रमुख स्वर |
| 41 | कपिलेश्वर राउत | लोक चेतना | कविता / गीत | लोक-आधारित कवि |
| 42 | मुन्नी कामत | नव दिशा | कहानी / नारी लेखन | नारी अनुभवों की प्रखर लेखिका |
| 43 | नारायण यादव | जन की बात | निबंध / लेख | सामाजिक परिवर्तन के प्रवक्ता |
| 44 | गंगेश गुंजन | मिथिला गाथा | कविता / आलोचना | मिथिला संस्कृति के गायक कवि |
| 45 | प्रभास कुमार चौधरी | सपना और सत्य | उपन्यास | यथार्थवादी आधुनिक उपन्यासकार |
| 46 | विभूति आनंद | समकालीन स्वर | कविता / आलोचना | नवपीढ़ी के संवेदनशील कवि |
| 47 | डॉ॰ उमेश मण्डल | सृजन संवाद | आलोचना / शोध | मैथिली अनुसंधान के विद्वान |
| 48 | पं॰ बालगोविन्द आर्य | काव्यक सौरभ | काव्य / अनुवाद | वैदिक और आधुनिक भावभूमि के कवि |
| 49 | रामदेव भावुक | गामक गीत | लोकगीत / कविता | लोकजीवन के प्रतिनिधि कवि |
| 50 | उदय चन्द्र झा ‘विनोद’ | कमल पुष्प | कविता / निबंध | आधुनिक युग के संवेदनशील रचनाकार |
निष्कर्ष: मैथिली साहित्य की सतत यात्रा
मैथिली साहित्य का विकास एक दीर्घ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भाषिक यात्रा का परिणाम है, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप की साहित्यिक परंपरा को गहराई से समृद्ध किया है। आदिकाल से आधुनिक युग तक इसकी निरंतरता केवल भाषायी परिवर्तन की कहानी नहीं, बल्कि समाज, संस्कृति, धर्म और लोकचेतना के सतत विकास की दास्तान है।
आदिकाल (1000 ई.–1600 ई.) ने मैथिली को एक सशक्त काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस काल में विद्यापति जैसे कवियों ने मैथिली को संस्कृत की छाया से मुक्त कर लोकजीवन की सजीव भाषा बनाया। उनकी रचनाओं में भक्ति, प्रेम, शृंगार और दर्शन का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। यह काल मैथिली की भाषिक पहचान और साहित्यिक स्वरूप की नींव रखता है।
मध्यकाल (1600 ई.–1860 ई.) में मैथिली साहित्य ने समाज और धर्म के साथ एक गहरा तादात्म्य स्थापित किया। इस काल में जनकपुर, मिथिला और दरभंगा साहित्यिक केंद्रों के रूप में उभरे। लोककाव्य, पौराणिक आख्यान, रामायण-महाभारत पर आधारित कथाएँ और नाट्यकला ने मैथिली साहित्य को जनमानस से जोड़ा। इस युग ने मैथिली भाषा के संवेदनशील लोक-स्वर और सामाजिक यथार्थ को सशक्त रूप में अभिव्यक्त किया।
आधुनिक काल (1860 ई. से आगे) में मैथिली साहित्य ने नवजागरण का अनुभव किया। इस काल में हरिमोहन झा, उपेन्द्रनाथ झा ‘बचस्पति’, नागेन्द्र झा, लक्ष्मीनाथ गोसाईं, चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’, राजकमल चौधरी, बालाकृष्ण झा, और विद्यानिवास मिश्र जैसे रचनाकारों ने आधुनिकता, सामाजिक परिवर्तन, राष्ट्रवाद, नारी–चेतना और अस्तित्व–विमर्श को केंद्र में रखा। गद्य, उपन्यास, नाटक और आलोचना साहित्य का विकास हुआ, जिससे मैथिली आधुनिक भारतीय भाषाओं की पंक्ति में प्रतिष्ठित हुई।
इन तीनों कालों का समग्र अवलोकन यह स्पष्ट करता है कि मैथिली साहित्य केवल एक भाषा की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि मिथिला संस्कृति, वैदिक परंपरा, जनमानस की भावनाओं और भारतीय जीवनदर्शन का समग्र दस्तावेज़ है। यह साहित्य भक्ति से लेकर आधुनिक बोध तक, लोकगीतों से लेकर प्रयोगशील कविता तक, हर युग की आत्मा को प्रतिबिंबित करता है।
अतः कहा जा सकता है कि —
“मैथिली साहित्य भारतीय भाषाओं के उद्यान में वह पुष्प है जिसकी सुगंध ने अतीत, वर्तमान और भविष्य — तीनों युगों को एकसूत्र में बाँध रखा है।”
इन्हें भी देखें –
- मैथिली भाषा : इतिहास, विकास, लिपि और साहित्यिक महत्त्व
- मगही या मागधी भाषा : उत्पत्ति, विकास, लिपि और साहित्यिक परंपरा
- भोजपुरी भाषा के प्रमुख कवि (Prominent Poets of Bhojpuri Language)
- बोड़ो या बड़ो भाषा : उत्पत्ति, विकास, लिपि, बोली क्षेत्र और सांस्कृतिक महत्व
- मणिपुरी या मैतेई भाषा : इतिहास, विकास, लिपि, वर्णमाला और विशेषताएँ
- प्रकीर्णक (लौकिक) साहित्य: श्रृंगारिकता और लोकसंवेदना का आदिकालीन स्वरूप
- नाथ संप्रदाय (साहित्य): योग, तंत्र और साधना की भारतीय परंपरा का अनूठा अध्याय
- भक्ति काल के कवि और उनके काव्य (रचनाएँ)
- भारतेन्दु युग (1868–1900 ई.): हिंदी नवजागरण का स्वर्णिम प्रभात
- चम्पू साहित्य | गद्य और पद्य का अद्वितीय संगम