छंद – परिभाषा, भेद और 100+ उदाहरण

छंद एक काव्यिक तत्व है जो कविता या गीत में उच्चारण की विशेषता को दर्शाता है। यह शब्द संस्कृत शब्द ‘छन्दस्’ से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘मिट्टी में मोड़ या ढालना’। छंद के माध्यम से, रचनाकार अपने भाषा को सुंदर और संगठित ढंग से प्रकट करता है और शब्दों की एक विशेष व्यवस्था बनाता है।

छंद की परिभाषा और प्रकार विभिन्न साहित्यिक परंपराओं और भाषाओं में थोड़ी भिन्नता दिखा सकती है, लेकिन इसका मूल उद्देश्य होता है वाक्यों के ढंग, गति, ताल और ध्वनि की सुव्यवस्था करना। छंद के माध्यम से, कवि या गीतकार शब्दों को समर्पित विषय के भाव और भावनाओं को सही रूप में प्रकट करने का प्रयास करते हैं। छन्द विभिन्न माप, मापदंड, छंदच्छेद, ग्राम, मात्रा और गुणों के माध्यम से पहचाना जा सकता है।

छंद की प्रमुख प्रकृतियों में छंद छंद, जाति छंद, मात्रा छंद, गति छंद, रस छंद, वृत्त छंद, और यमक छंद शामिल होते हैं। इन प्रकृतियों में आवृत्ति, विराम, बाल और गति के नियमों का पालन किया जाता है, जिससे कविता या गीत की सुंदरता, आकर्षण और संगठन का अनुभव होता है। छन्द की व्याख्या और अध्ययन काव्यशास्त्र और साहित्यिक अध्ययन का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इससे कविता और गीत का समझना और आनंद लेना संभव होता है।

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छन्द का इतिहास

छन्द का इतिहास
छन्द का इतिहास

छंद का इतिहास बहुत प्राचीन है और विभिन्न साहित्यिक और संस्कृतिक परंपराओं में मौजूद है। छंद का उद्भव वेदों में हुआ था, जहां वे ग्रंथों के प्रयोग में अत्यंत महत्वपूर्ण थे। वेदों के छन्द का विस्तार व विकास संस्कृत साहित्य के विकास के साथ साथ हुआ।

वेदों के साथ ही महाकाव्य रामायण और महाभारत में भी छंद का प्रयोग हुआ। यहां भी छंद को शब्दों की सही रचना और विभाजन का ज्ञान प्राप्त होता है। संस्कृत और पालि साहित्य में छंद के अनेक नियम, मापदंड, छंदच्छेद और प्रकृतियाँ प्राचीन काव्यशास्त्र के ग्रंथों में मिलते हैं।

भारतीय साहित्य के साथ ही, छंद का विकास अन्य भाषाओं में भी हुआ। हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, पंजाबी और अन्य भाषाओं में छंद का उपयोग किया जाता है। प्रत्येक भाषा में अपनी विशेषताएं और छंद के प्रकार होते हैं, जो उस भाषा की संरचना और ध्वनि विचारधारा से संबंधित होते हैं।

छंद का इतिहास विश्व साहित्य के विभिन्न काव्य परंपराओं में भी महत्वपूर्ण है। यूनानी साहित्य में होमर के महाकाव्य इलियाड और ओडिसी श्रेणीक के रचनाओं में छंद का प्रयोग किया गया है। इंग्लिश भाषा में शेक्सपियर, मिल्टन, बायरन, कॉलरिज, कीट्स, टेन्सन और अन्य कवियों की रचनाओं में भी छंद का महत्वपूर्ण स्थान है।

छंद की परिभाषा और नियमों का विस्तारित अध्ययन काव्यशास्त्र के अंतर्गत किया जाता है। छंद का अध्ययन कविता और गीत के अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, बंगाली और अन्य भाषाओं में काव्य रचना, संगठन, रचनात्मकता और अभिव्यक्ति के प्रत्येक पहलु को समझने में मदद करता है।

छंद की परिभाषा और विश्लेषण के माध्यम से हम विभिन्न छंदों, छंदच्छेदों, मापदंडों और गतियों के साथ उनकी व्याख्या कर सकते हैं और रचनाएँ समझ सकते हैं जिनमें ये नियमों का पालन किया जाता है।

छंद का इतिहास हमें साहित्यिक और सांस्कृतिक संपदा के साथ एक समृद्ध और मजबूत धारणा प्रदान करता है। इसका अध्ययन हमें काव्य के सौंदर्य और गहनता को समझने में सहायता करता है और हमें छंद की विविधता और सौंदर्य का आनंद लेने की क्षमता प्रदान करता है।

छन्द का प्राचीन भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन काल के ग्रंथों में संस्कृत में कई प्रकार के छन्द प्रयुक्त हुए हैं, जो वैदिक काल के जितने प्राचीन हैं। वेदों के सूक्तों में भी छन्द का प्रयोग किया गया है। पिंगल द्वारा रचित ‘छन्दशास्त्र’ इस विषय का मूल ग्रंथ है। इसमें छन्द के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या की गई है। छन्द पर चर्चा सबसे पहले ऋग्वेद में हुई है।

ऋग्वेद में छन्दों का व्यापक प्रयोग हुआ है और इसे ‘छन्दसाम’ कहा जाता है। ऋग्वेद में विभिन्न छन्दों का प्रयोग होता है जैसे कि गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुभ, बृहती, त्रिष्टुभ आदि। इन छन्दों का अपना विशेष ताल, अनुभाग और गति होती है।

पिंगल द्वारा रचित ‘छन्दशास्त्र’ में छन्द के प्रकार, लक्षण, नियम और अप्रयोग के सिद्धांतों की व्याख्या की गई है। इस ग्रंथ में अलंकार, अरुणवृत्त, गति, मात्रा, संख्या आदि छन्द के मूल तत्वों पर विस्तार से चर्चा की गई है।

छन्दशास्त्र के अलावा भारतीय साहित्य में ‘काव्यशास्त्र’ भी महत्वपूर्ण है जिसमें छन्द के साथ काव्य की रचना, उच्चारण और रस का सम्बन्ध विस्तार से वर्णित है। इसका विकास विभिन्न कालों में हुआ है। प्राचीन काव्य साहित्य में छन्द का प्रयोग अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है और विभिन्न काव्य ग्रंथों में विभिन्न छन्द प्रयुक्त हुए हैं।

इसके साथ ही, छन्द की विभिन्न विधाएं, ताल और गति ने भारतीय साहित्य को एक विशिष्टता प्रदान की है। यह साहित्यिक और सांस्कृतिक संपदा का महत्वपूर्ण हिस्सा है और हमें काव्य के सौंदर्य और गहनता को समझने में सहायता करता है।

छंद की परिभाषा

“छंद एक ऐसी पद्य रचना को कहा जाता है जिसे निश्चित चरण, वर्ण, मात्रा, गति, यति, तुक, और गण आदि से संबंधित नियमों के अनुसार नियोजित किया जाता है।”

छंद के विचार से होने वाली वाक्य-रचना को ‘छंद’ कहा जाता है। ‘छंद’ शब्द ‘चद्’ धातु से बना है और इसका अर्थ ‘आह्लादित करना’ या ‘खुश करना’ होता है। यह आह्लाद वर्ण या मात्राओं की नियमित संख्या के विन्यास से उत्पन्न होता है।

साधारण शब्दों में, जब वर्णों या मात्राओं की नियमित संख्या के विन्यास से आह्लाद पैदा होता है, तब उसे ‘छंद’ कहा जाता है। ‘छंद’ का प्रथम उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में मिलता है।

हिंदी साहित्य के अनुसार अक्षर, अक्षरों की संख्या, गणना, मात्रा, यति और गति से संबंधित किसी विषय पर रचना को छन्द कहा जाता है। इसके अलावा निश्चित चरण, गति, मात्रा, लय, तुक, वर्ण, मात्रा, यति और गण से बने पद्य रचना को छन्द कहते हैं। अंग्रेजी में छंद को Meta और कभी-कभी Verse भी कहते हैं।

जिस प्रकार ‘गद्य’ का नियामक ‘व्याकरण’ है, ठीक उसी प्रकार ‘पद्य’ का नियामक ‘छंद शास्त्र’ है। छंद में कुल 4 चरण होते हैं और ‘आचार्य पिंगल ऋषि’ को छन्द का प्रणेता माना जाता है। इसलिए, छंद को ‘पिंगल’ भी कहा जाता है।

आचार्य पिंगल ऋषि के ‘छंदसूत्र’ में छंद का सुसंबद्ध वर्णन निहित है, जिसके कारण इसे छंदशास्त्र का आदि ग्रंथ माना जाता है। ‘छंदशास्त्र’ आठ अध्यायों का एक सूत्र ग्रंथ है जिसमें छंद की विस्तृत व्याख्या की गई है।

छन्दों का विवेचन

छंद शब्द का अर्थ ‘आह्लादित करना’ या ‘खुश करना’ होता है। छन्द एक वाक्य-रचना को दर्शाता है, जो वर्णों या मात्राओं की नियमित संख्या के विन्यास से उत्पन्न होती है। यह विन्यास आह्लाद (आनंद) पैदा करता है। छंद शब्द का प्रथम उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में मिलता है।

जिस प्रकार ‘गद्य’ का नियामक ‘व्याकरण’ है, ठीक उसी प्रकार ‘पद्य’ का नियामक ‘छंद शास्त्र’ होता है। छंद में कुल 4 चरण होते हैं। छंद शास्त्र के प्रणेता ‘आचार्य पिंगल ऋषि’ माने जाते हैं और इसलिए छंद को ‘पिंगल’ भी कहा जाता है।

आचार्य पिंगल ऋषि के ‘छंदसूत्र’ में छंद का विस्तृत वर्णन होता है। इसलिए इसे छंदशास्त्र का आदि ग्रंथ माना जाता है। ‘छंदशास्त्र’ आठ अध्यायों का एक सूत्र ग्रंथ है।

छन्दों का विवेचन निम्नलिखित प्रकार से हो सकता है:

  1. इन्द्रवज्रा: इस छंद में दो गण होते हैं, प्रथम गण में 11 मात्राएं होती हैं और द्वितीय गण में 12 मात्राएं होती हैं।
  2. उपेन्द्रवज्रा: इस छंद में प्रथम गण में 12 मात्राएं होती हैं और द्वितीय गण में 11 मात्राएं होती हैं।
  3. वसन्ततिलका: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 13 मात्राएं होती हैं।
  4. मालिनी मजुमालिनी: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 15 मात्राएं होती हैं।
  5. मन्दाक्रान्ता: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएं होती हैं।
  6. शिखरिणी: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 17 मात्राएं होती हैं।
  7. वंशस्थ: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 18 मात्राएं होती हैं।
  8. द्रुतविलम्बित: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 19 मात्राएं होती हैं।
  9. मत्तगयन्द: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 20 मात्राएं होती हैं।
  10. सुन्दरी सवैया: इस छंद में प्रत्येक पंक्ति में 21 मात्राएं होती हैं।

ये विभिन्न छंद विधियाँ हैं जो भारतीय संस्कृति में प्रचलित हैं। हर छंद का अपना अनुयायी प्रणाली और विशेषताएं होती हैं जो इसे अनुप्रयोगित करने के लिए उपयोगी बनाती हैं।

छंद के उदाहरण

यहां कुछ छंद के उदाहरण दिए गए हैं:

  1. इन्द्रवज्रा: दृष्टद्रष्टविष्टपूर्णः सुविस्तृतो जगदाच्छ्वाः। जन्यो जनकपुत्रश्च ब्रह्माशिवोऽस्तु सर्वदा॥
  2. उपेन्द्रवज्रा: जगदुद्धारणार्थाय नीलोत्पललसत्प्रभः। शारदोत्कर्षसंपूर्णो विष्णुः शशिसुदान्वितः॥
  3. वसन्ततिलका: जयति वसन्तो विजयते जयति वसन्तः। प्रियतम जगतामिव चित्रमीनकण्ठः॥
  4. मालिनी मजुमालिनी: मालिनी विरचिता नीलद्युतिः प्रथिता च नाम्ना। अपर्णी संवर्तका च भवति वस्त्रमालिनी॥
  5. मन्दाक्रान्ता: दिवि बहु शशिकोटीर्णे विमले मदने पुरे। विहरसि त्वमुत्सवे मन्दाक्रान्त मदच्युत॥
  6. शिखरिणी: नगरमिव नगारे जायते शिखरिणी वचः। समयाचलत्कुञ्चिते च निखिलेन्दुवदने गणे॥
  7. वंशस्थ: नानानागणसंख्यके वंशस्थेन्दुरगामिनि। स्थानांतरतपसांतरे च वृक्षप्रच्छायां जगताम्॥
  8. द्रुतविलम्बित: त्वयि मन्दार मधुपस्तनगिरौ मारुतो धरण्याम्। विकुर्वन्नखस्थलीय उद्ध्रुत्य चोद्धृतगच्छः॥
  9. मत्तगयन्द (मालती): स्वयमाम्बुजमुकुटेन सारमीशसहोदरे। विभान्ति मत्तगायन्दा मलयाचलननादिनी॥
  10. सुन्दरी सवैया: सुन्दरी वामपाणिस्त्वं सुरतनुरूपबाणिनी। सुन्दरी च सुरतनुरूपा भूषयस्व नगेश्वरि॥

ये उदाहरण छंद की विभिन्न प्रकारों को प्रतिष्ठित करने के लिए दिए गए हैं। ये छंद उदाहरण आपको छंद के विभिन्न स्वरूपों और संरचनाओं का अनुभव करने में मदद करेंगे।

इसके अलावा छंद के कुछ उदहारण मात्राओं का प्रयोग के साथ दिए गए हैं:

I I   IISI        SI     II   SII
जय हनुमान ग्यान गुन सागर। 
II    ISI    II     SI    ISII
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर। 
SI   SI    IIII          IISS
राम दूत अतुलित बलधामा। 
SII       SI   III     II     SS
अंजनि पुत्र पवन सुत नामा।

II      II    SS     III    SI    SSI     III    S
नित नव लीला ललित ठानि गोलोक अजिर में। 
III      SIS     SI   SI   II   SI  III    S
रमत राधिका संग रास रस रंग रुचिर में। ।
IIS     IS    S  SIS  S  SI   II   S   II  IS
कहते हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गये।
II    S  IS    S SI    SS  S  IS   SII   IS
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गये पंकज नये। 

SS   II    SS  IS   SS   SII    SI
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागर सोय। 
S    II  S  SS   IS    SI     III     II     SI
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय। । 

SI  SI    II   SI   IS   III     IIS      III
कुंद इंदु सम देह, उमा रमन करुना अयन। 
SI     SI   II   SI    III    IS  SII    III
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन॥

SS  IIS     SI   S   IIS   I    SS  SI
साईं अपने भ्रात को, कबहुं न दीजै त्रास। 
पलक दूर नहिं कीजिये, सदा राखिये पास। 
सदा राखिये पास, त्रास, कबहु नहिं दीजै। 
त्रास दियौ लंकेश ताहि की गति सुन लीजै। 
कह गिरिधर कविराय, राम सों मिलिगौ जाई। 
पाय विभीशण राज, लंकपति बाजयो साईं। 
SI      ISII      SI     SIII      SS     SS

IS      ISI    ISI      I   IIS   II    S   II    S
जहाँ स्वतंत्र विचार न बदले मन में मुख में। 
सब को जहाँ समान निजोन्नति का अवसर हो। 
शांतिदायिनी निशा हर्ष सूचक वासर हो। 
सब भाँति सुशासित हों जहाँ समता के सुखकर नियम।
II    SI        ISII       S    IS    IIS   S  IIII        III

छन्द को कितने वर्गों में बांटा गया है?

मात्राओं और वर्णों की संख्या के आधार पर छंदों को चार वर्गों में बाँटा गया है जो निम्न प्रकार से हैं :

  • साधारण छन्द
    • मात्रिक छन्दों में 32 मात्राओं तक के छन्द को ’साधारण छन्द‘ के नाम से जाना जाता है।
  • दंडक छन्द
    • 32 मात्राओं से अधिक मात्रा वाले छंदों को ‘दंडक छन्द‘ के नाम से जाना जाता है।
  • साधारण वृत्त
    • वर्णित वृत्तों में 26 वर्ण तक के वृत्त ’साधारण वृत्त‘ के नाम से जाना जाता है।
  • दंडक वृत्त
    • वर्ण वृत्तों में 26 से अधिक वर्णों के वृत्त को ’दंडक वृत्त‘ के नाम से जाना जाता है।

छंद के अंग

छंद के निम्नलिखित अंग होते हैं –

  • चरण/पद/पाद – छंद में प्रत्येक पक्तियों में को चरण/पद/पाद कहते हैं।
  • गति – पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं।
  • यति – पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं।
  • तुक – समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं।
  • वर्ण और मात्रा – वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा 2 प्रकार की होती है लघु और गुरु। ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। लघु मात्रा का मान 1 होता है और उसे। चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान २ होता है और उसे ऽ चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है।
  • गण – मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों की संख्या 8 है – यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)।

गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा। सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।

‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता है जबकि मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।

माताराभागा
गणचिह्नउदाहरणप्रभाव
यगण (य)।ऽऽनहानाशुभ
मगण (मा)ऽऽऽआजादीशुभ
तगण (ता)ऽऽ।चालाकअशुभ
रगण (रा)ऽ।ऽपालनाअशुभ
जगण (ज)।ऽ।करीलअशुभ
भगण (भा)ऽ।।बादलशुभ
नगण (न)।।।कमलशुभ
सगण (स)।।ऽकमलाअशुभ

छन्द के अंगों का विस्तृत विवरण

चरण/पद/पाद

छंद में कुल 4 भाग होते हैं, प्रत्येक को चरण/पद/पाद कहते है। साधारण शब्दों में छंद के चतुर्थांश भाग को ‘चरण’ कहते है। एक छंद में 4 से अधिक भी चरण हो सकते है, लेकिन प्राय: 4 चरण ही होते है। पहले और तीसरे चरण को विषम चरण और दूसरे और चौथे चरण को समचरण कहा जाता है। हर पद में वर्ण, मात्राएँ निश्चित रहती हैं। कुछ पदों में चार चरण तो होते हैं लेकिन वो दो पक्तियों में लिखे जाते हैं। जैसे:- ‘दोहा’ एवं ‘सोरठा’। इस प्रकार के छंदों की प्रत्येक पंक्ति को ‘दल’ कहते है।

चरण/पद/पाद के उदाहरण

धन्य जनम जगती-तल तासू।
पितहि प्रमोद चरति सुनि जासू।।
चारि पदारथ कर-तल ताके।।
प्रिय पितु-मात प्रान-सम सके।।

कुछ छन्द के चरण छः – छः  पक्तियों में लिखे जाते हैं। ऐसे छंद, दो छंद (कुण्डलिया, छप्पय) के योग से बनते हैं । जैसे-

प्रभु ने तुम को कर दान किये।
सब वांछित-वस्तु-विधान किये।।
तुम प्राप्त करो उनको न अहो!।
फिर है किसका यह दोष, कहो!।
समझो न अलभ्य किसी धन को।
नर हो, न निराश करो मन को।।

इस रचना में छंद के छह चरण हैं। प्रत्येक में 12-12 वर्ण है।

चरण/पद/पाद के प्रकार 

चरण/पद/पाद के दो प्रकार होते हैं –

  • सम चरण
    • दूसरे और चौथे चरण को समचरण कहा जाता हैं। 
  • विषम चरण
    • पहले और तीसरे चरण को विषमचरण कहा जाता है।

वर्ण और मात्राएँ

छंद के चरणों को वर्णों की गणना के अनुसार व्यवस्थित किया जाता है। छंद में जो अक्षर प्रयोग होते हैं उन्हें वर्ण कहते हैं। वर्ण दो प्रकार के होते हैं-

  • ह्रस्व (लघु) वर्ण
  • दीर्घ वर्ण/ गुरु

ह्रस्व (लघु) वर्ण

  • लघु वर्ण एक-एक मात्रा है, जैसे -अ, इ, उ, क, कि, कु। इसको (|) से प्रदर्शित करते हैं।
  • संयुक्ताक्षर स्वयं लघु होते हैं। यदि जोर न लगाना पड़े तो वह लघु ही माने जाएंगे। जैसे : तुम्हारा में ’तु’ को पढ़ने में उस पर जोर नहीं पड़ता। अतः उसकी एक ही मात्रा (लघु) होगी।
  • चन्द्रबिन्दु वाले वर्ण लघु या एक मात्रावाले माने जाते हैं। हँसी में ’हँ’ वर्ण लघु है।
  • ह्रस्व मात्राओं से युक्त सभी वर्ण लघु ही होते हैं। जैसे – कि, कु आदि।

लघु वर्ण की गणना के नियम

  • ‘अ, इ, उ’ – ये सभी स्वर लघु है। जैसे:- कमल (।।।) में तीन लघु वर्ण है।
  • ह्रस्व मात्राओं से युक्त सभी वर्ण लघु होते है। जैसे:- कि (।), कु (।), के (।), आदि।
  • चंद्र बिंदु वाले वर्ण लघु होते है। जैसे:- हँसना में ‘हँ’ को लघु (।) माना जाएगा।
  • यदि किसी शब्द के संयुक्ताक्षर में दो अर्द्ध वर्ण होते है, तो दोनों अर्द्ध वर्णों को लघु माना जाता है। जैसे:- उज्ज्वल में ‘ज्ज्’ को लघु (।) माना जाएगा।
  • यदि किसी शब्द का संयुक्ताक्षर आरंभ में आता है, तो संयुक्ताक्षर के अर्द्ध वर्ण की मात्रा नहीं गिनी जाएगी। जैसे:- ‘व्यवहार’ में ‘व्य’ को लघु (।) माना जाएगा।
  • हलंत व्यंजन लघु माने जाते है। जैसे:- अहम् में ‘म्’ को लघु (।) माना जाएगा।
  • यदि दो गुरु वर्णों के मध्य में कोई अर्द्ध वर्ण आता है, तो उस अर्द्ध वर्ण की मात्रा नहीं गिनी जाएगी। जैसे:- ‘आत्मा’ (ऽऽ) में ‘त्’ की कोई भी मात्रा नहीं गिनी जाएगी।

दीर्घ वर्ण / गुरु वर्ण

  • दीर्घ वर्ण में दो मात्राएं होती हैं।
  • इनको में बोलने में लघु वर्ण से ज्यादा समय लगता है। जिन्हें (S) से प्रदर्शित करते हैं।
  • आ ई ऊ ऋ ए ऐ ओ औ ’गुरु’ वर्ण हैं।
  • संयुक्ताक्षर से पूर्व के लघु वर्ण दीर्घ होते हैं, यदि उन पर भार पड़ता है। जैसे- सत्य में ’स’, मन्द में ’म’ और व्रज में ’व’ गुरु है।
  • अनुस्वार से युक्त होने पर, जैसे- कंत, आनंद में ‘कं’ और ‘नं’ दीर्घ होगा।
  • विसर्गवाले वर्ण दीर्घ माने जाते हैं। जैसे- दुःख में ’दुः’ और निःसृत में ’निः’ गुरु है।
  • दीर्घ मात्राओं से युक्त वर्ण दीर्घ माने जाते हैं। जैसे-कौन, काम, कैसे आदि।

दीर्घ वर्ण / गुरु वर्ण की गणना के नियम

  • दीर्घ मात्राओं से युक्त वर्णों को गुरु माना जाता है। जैसे:- ‘कौन’ में ‘कौ’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा।
  • ‘आ, ई, ऊ, ऋ’ – ये सभी स्वर गुरु है। जैसे:- ‘दादी’ (ऽऽ) में ‘दा’ और ‘दी’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा।
  • संयुक्त मात्राओं से युक्त वर्णों को गुरु माना जाता है। जैसे:- ‘नौका’ में ‘नौ’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा।
  • ‘ए, ऐ, ओ, औ’ – ये सभी संयुक्त स्वर गुरु है। जैसे:- ‘ऐसा’ में ‘ऐ’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा।
  • यदि किसी शब्द के मध्य अथवा अंत में संयुक्ताक्षर आता है, तो संयुक्ताक्षर के पहले वाला वर्ण ‘गुरु’ माना जाता है। जैसे:- ‘भक्त’ में ‘भ’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा।
  • विसर्ग चिह्न से युक्त वर्ण गुरु माने जाते है। जैसे:- ‘दुःख’ में ‘दु:’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा।
  • अनुस्वार से युक्त वर्ण गुरु माने जाते है। जैसे:- ‘अंत’ में ‘अं’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा।
  • रेफ के पहले का वर्ण गुरु माने जाता है, लेकिन यदि ‘र’ किसी शब्द में नीचे जुड़ा है, तो वह लघु माना जाता है। जैसे:- ‘मर्म’ में ‘र्म’ को गुरु (ऽ) माना जाएगा, जबकि ‘नक्षत्र’ में ‘त्र’ को लघु (।) माना जाएगा।

गति 

छंद को पढ़ते समय एक प्रकार की लय होती है इसे ही गति कहते हैं। गति की आवकश्यता वर्ण छंदो के मुकाबले मात्रिक छंदो में है। मात्राओं की संख्या ठीक होने पर भी गति में बाधा उत्पन्न हो सकती है |

यति

छंदो के बीच बीच में विराम लेनी की स्थति को यति कहते हैं। इनके लिए (,) , (1) , (11) , (?) , (!) चिन्ह निर्धारित होते हैं। हर छंद में बीच में रुकने के लिए कुछ स्थान निश्चित होते हैं इसी रुकने को विराम या यति कहा जाता है। 

तुक   

छंद में समान स्वर व्यंजन की स्थापन तुक कहलाती है। यह तुकांत और अतुकांत दो प्रकार की होती है। जैसे :-

” हमको बहुत ई भाती हिंदी। हमको बहुत है प्यारी हिंदी।”  (तुकांत)

“काव्य सर्जक हूँ
प्रेरक तत्वों के अभाव में
लेखनी अटक गई हैं
काव्य-सृजन हेतु
तलाश रहा हूँ उपादान।” (अतुकांत)

संख्या, क्रम और गण

मात्राओं और वर्णों की गणना को ‘संख्या’ कहते है तथा लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को ‘क्रम’ कहते है। संख्या और लघु-गुरु के नियत क्रम से तीन वर्णों के समूह को ‘गण’ कहते है। गणों की कुल संख्या 8 है। गणों की पहचान निम्नलिखित सूत्र के द्वारा की जाती है:-

। ऽ ऽ ऽ । ऽ । । । ऽ
‘यमाताराजभानसलगा’

इसमें प्रथम 8 अक्षर गणों के परिचायक है तथा अंतिम 2 अक्षर ‘लघु गुरु’ के परिचायक है। इन्हीं गणों के आधार पर वर्णिक छंदों की पहचान की जाती है।

इस सूत्र के अंतिम वर्ण ‘ल’ तथा ‘ग’ छंदशास्त्र में ‘दशाक्षर’ कहलाते है। सूत्र के आधार पर 8 गण तथा लघु-गुरु क्रम निम्नलिखित है:-

गणचिह्नउदाहरण
यगण।ऽऽयशोदा
मगणऽऽऽआजादी
तगणऽऽ।तालाब
रगणऽ।ऽनीरजा
जगण।ऽ।जवान
भगणऽ।।भारत
नगण।।।कमल
सगण।।ऽवसुधा

यमाताराजभानसलगा सूत्र

‘यमाताराजभानसलगा’ सूत्र से किसी भी गण की मात्रा अथवा चिह्न की जानकारी प्राप्त हो जाती है। यदि किसी गण के बारे में जानकारी प्राप्त करनी है, तो उस गण के आगे के दो अक्षरों को जोड़कर जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

जैसे:- ‘भगण’ गण का स्वरूप जानने के लिए ‘भा’ और उसके आगे के दो अक्षर ‘न और स’ = भानस (ऽ।।) लेकर लघु-गुरु जाना जा सकता है।

छंद के प्रकार (भेद)

छंद के प्रकार (भेद)
छंद के प्रकार (भेद)

छन्द मुख्यतः 5 प्रकार के होते हैं –

  1. मात्रिक छंद
  2. वर्णिक छंद
  3. वर्णिक वृत छंद
  4. उभय छंद
  5. मुक्त या स्वच्छन्द छंद

1. मात्रिक छन्द किसे कहते हैं?

मात्रिक छन्दों में केवल मात्राओं की व्यवस्था होती है। परन्तु इसमें लघु और गुरु का क्रम निर्धारित नहीं होता हैं। इनमें चौपाई, रोला, दोहा, सोरठा आदि मुख्य हैं।

मात्रिक छन्द के प्रकार

मात्रिक छंद 3 प्रकार के होते हैं-

  1. सम मात्रिक छंद
  2. अर्धसम मात्रिक छंद
  3. विषम मात्रिक छंद

सम मात्रिक छंद किसे कहते हैं?

जिस छंद के सभी पदों में मात्राओं की संख्या समान होती है उन्हें सम मात्रिक छंद कहते हैं। सम मात्रिक छंद के अंतर्गत, चौपाई, रोला, हरिगीतिका, वीर, अहीर, तोमर, मानव, पीयूषवर्ष, सुमेरु, राधिका, दिक्पाल, रूपमाला, सरसी, सार, गीतिका और ताटंक आदि छन्द आते हैं।

अर्धसम मात्रिक छंद किसे कहते हैं?

जिस छंद का पहला और तीसरा चरण तथा दुसरा और चौथा चरण आपस में एक समान हो, वह अर्द्धसम मात्रिक छंद कहलाता है।किन्तु इसमें पहला और दूसरा चरण एक दूसरे से लक्षण में अलग रहते हैं। जैसे दोहा छंद के दल के दोनों चरण क्रमशः 13 और 11 मात्रा के होते हैं। इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले छंद सोरठा, बरवै, उल्लाला आदि हैं। साधारणतया ये छंद दो दल अथवा पंक्ति में लिखे जाते हैं।

विषम मात्रिक छंद किसे कहते हैं?

जिस छंद के पदों में असमानता विद्यमान हो वे विषम मात्रिक छंद की श्रेणी में आते हैं। साधारणतया ऐसे छंद दो या दो से अधिक छंदों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इस श्रेणी के अंतर्गत-कुण्डलिया (दोहा + रोला) , छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि आते हैं।

मात्रिक छंद के उदाहरण

मात्रिक छन्द के निम्न उदाहरण हैं –

  1. दोहा छंद
  2. चौपाई छंद
  3. सोरठा छंद
  4. रोला छंद
  5. गीतिका छंद
  6. हरिगीतिका छंद
  7. उल्लाला छंद
  8. बरवै (विषम) छंद
  9. छप्पय छंद
  10. कुंडलियाँ छंद
  11. दिगपाल छंद
  12. आल्हा या वीर छंद
  13. सार छंद
  14. तांटक छंद
  15. रूपमाला छंद
  16. त्रिभंगी छंद

दोहा छन्द किसे कहते हैं?

दोहा छंद हिंदी साहित्य में एक प्रसिद्ध छंद है, जिसमें प्रत्येक पद में दो छंदों की पंक्तियाँ होती हैं। यह अर्धसममात्रिक छंद होता है। ये सोरठा छंद के विपरीत होता है। इसमें पहले और तीसरे चरण में 13-13 तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। इसमें चरण के अंत में लघु (I) होना जरूरी होता है।   

दोहा छंद के उदाहरण

दोहा छंद के उदाहरण
दोहा छंद के उदाहरण

कबीर के दोहे और रहीम के दोहे काफी प्रसिद्ध हैं। इनका दोहा छन्द के उदाहरण के रूप मे प्रयोग किया जा सकता है। दोहा छंद के उदाहरण नीचे दिए गए हैं:-

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।

शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज ।

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।

निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।। 

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।। 

जो दिन के काम आवश्यक, सो रात को करेंगे |
जो रात के काम आवश्यक, सो दिन को करेंगे ||

मन को बांध लो जग बीचे, एक तरफ़ धरी चढ़ानी |
पैर पसारो जोग सुख चरन, दुजा तरफ़ गढ़वानी ||

रहिमन देखि बड़ा दूजा, लगे ना कोई रोड़ी |
जो अगणित रूप देखिये, तो लागे रहि न सोड़ी ||

संतों ने अच्छा किया, अच्छा होगा होय |
दुष्ट जनों ने जो किया, वह बुरा होगा सोय ||

दूध का दूध पानी का पानी,
मूरख देखे न समझे और जानी।

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
लालच रहिमन मन है, वैराग्य राखो ठोय॥

बिन देखे अचंभित नहीं जात,
नगरी नाम होय, तो नगर समात॥

जहां मंथरा की तरह, बसते दासी-दास।
आज्ञा-पालक राम को, मिलता है वनवास।।

राम नाम आधार नहीं तो क्या होय,
सार संसार उधार नहीं तो क्या होय॥

ये उपरोक्त उदाहरण दोहा छंद के अच्छे उदाहरण हैं जो इस छंद की प्रमुखता और संरचना को दर्शाते हैं। इनमें प्रत्येक पंक्ति में दो-दो पद हैं, और दोनों पंक्तियों के अंत में पदान्त है।

चौपाई छंद किसे कहते हैं?

चौपाई एक सम मात्रिक छंद होता है, चौपाई में चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। तुक पहले चरण की दूसरे और तीसरे चरण के चौथे से मिलती है। यति हर एक चरण के अन्त में होती है। चरण के आखिर में गुरु स्वर या लघु स्वर नहीं होते है लेकिन दो गुरु स्वर और दो लघु स्वर हो सकते हैं। चरण के आखिर में जगण और तगण का आना वर्जित होता है।

चौपाई छंद के उदहारण

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर,

।।    ।।ऽ।      ऽ।   ।।    ऽ।।
जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।
।।    ।ऽ।     ।।    ऽ।    ।ऽ।।

नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुनगन गावन लागे ।।

जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।। “

इहि विधि राम सबहिं समुझावा
गुरु पद पदुम हरषि सिर नावा।

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुराग ।।
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू ।।

सुनि शिशु रुदन परम प्रिय बानी।
संभ्रम चलि आईं सब रानी।
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी।
आनंद मगन सकल पुरबासी।

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।

जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।

रामदूत अतुलित बल धामा।

अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।

सोरठा छंद किसे कहते हैं?

ये दोहा छंद के उलट होता है। इसमें पहले और तीसरे चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं।इसके सम चरणों के आरम्भ में जगण आना वर्जित माना जाता है जबकि विषम चरणों के अंत में एक लघु वर्ण आना आवश्यक है।यह अर्द्धसम मात्रिक छंद होता है।

सोरठा छन्द के उदाहरण

नील सरोरुह श्याम, तरुन अरुन वारिज नयन।
करहु सो मम उर धाम, सदा क्षीर सागर सयन ॥

नील  सरोरुह  श्याम,  तरुन  अरुन  वारिज  नयन।
S  I   I S I I     S I     I I I    I I I     S I I    I I I  = 11 +13=24

अतः यहां पर पहले तथा तीसरे चरण में 11 – 11 मात्राएं होती है। तथा दूसरे और चौथे चरण में 13 – 13 मात्राएं हैं । अतः यहां पर सोरठा छंद है।

सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुणा अयन, चितै जानकी लखन तन ॥

सुनि  केवट  के  बैन,  प्रेम  लपेटे  अटपटे।
I I     S I I   S   S I   S I   I S S  I I I S  = 11 +13=24

अतः यहां पर पहले तथा तीसरे चरण में 11 – 11 मात्राएं होती है । तथा दूसरे और चौथे चरण में 13 – 13 मात्राएं हैं। अतः यहां पर सोरठा छंद है।

कपि करि हृदय विचार, दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
।।     ।।   ।।।    ।ऽ।      ऽ।      ऽ।ऽ     ऽ।  ।।
जनु असोक अंगार, लीन्हि हरषि उठिकर गहउ।।
।।    ।ऽ।      ऽऽ।     ऽ।     ।।।    ।।।।     ।।।

कुछ प्रमुख सोरठा उदहारण के रूप में दिए गए हैं-

बन्दहुँ विधि पद रेनु, भव सागर जेहि कीन्ह यह ।
सन्त सुधा ससि धेनु, प्रगटे खल विष वारुनी॥

मूक होइ वाचाल, पंगु चढ़इ गिखिर गहन ।
जासु कृपा सु दयाल, द्रवहु सकल कलिमल दहन।।

चलते लोग कुचाल , दुर्जन जाकर देखिए |
होते सब. बेहाल , काटते बनकर विषधर ||

कंगन का यह राज‌, पनघट छनछन क्यों बजे |
बहुत हुई आबाज , वहाँ लिपटकर डोर से ||

गोरी‌ दर्पण देख , मोहित खुद पर हो रही |
रही रूप को लेख , कनक समझती निज तन ||

नहीं बुरी है बात, अपना हित ही देखना |
चले किसी पर लात , गलत समझना साधना ||

सदा रटे प्रभु नाम , तोता ज्ञानी कब बना |
भजन जहाँ श्री राम , दर्शन मिलते भगत को ||

रावण जग बदनाम , करके एक अनीति जब |
उसकी जाने राम , करता जो ताजिंदगी ||

देकर चोट निशान , ज़ख्म कुरेदे जग सदा |
करता है अपमान , आरोपों को थोपता ||

मतलब के सब यार , मिलते रहते हैं यहाँ |
मिले हाथ में खार, फैलाकर भी देख लो ||

कमी निकालें खोज ,माल बाँटिए मुफ़्त में |
बिक जाता है रोज , कचरा जाओ बेचनें ||

बहुत मिलेगें दाम , छाया के सँग फल मिलें |
जब हों कच्चे आम ,पत्थर को मत मारिए ||

उतरे हल को ठान , हम समझे हालात को |
कड़वा पाया पान , हाथ जलाकर आ गए ||

तरह-तरह के‌‌ रोग , माना इस संसार में |
दाँव पेंच के योग , सबके अपने रोग है ||

नहीं कोई‌ नादान , ज्ञानी अब सब लोग है |
अपना ज्ञान बखान , जगह-जगह हैं बाँटते ||

रोला छंद किसे कहते हैं?

मात्रिक छंद के उदाहरण
छंदों के नाम

यह मात्रिक सम छंद होता है। इस छंद के प्रत्येक चरण में 11,13 मात्राओं के क्रम से यति होती है। इसमें कुल इसमें 24 मात्रायें होती हैं। इसमें तुक प्रायः दो-दो चरणों में मिलती है। प्रायः इसके चरणांत में दो गुरु (ऽऽ) रखे जाते हैं, परन्तु ऐसा होना अनिवार्य नहीं है।

रोला छंद के उदहारण

हे देवी। यह नियम सृष्टि में सदा अटल है,
ऽ ऽ ऽ   ।।   ।।।    ऽ।  ऽ । ऽ   ।।।   ऽ
रह सकता है वही, सुरक्षित जिसमें बल है।
।।  ।। ऽ    ऽ । ऽ  ।। ऽ।    ।। ऽ   ।।   ऽ

निर्बल का है नहीं, जगत में कहीं ठिकाना,
ऽ।।    ऽ   ऽ । ऽ   ।।।   ऽ । ऽ   । ऽ ऽ
रक्षा साधन उसे, प्राप्त हों चाहे नाना।।
ऽ ऽ  ऽ।।   । ऽ   ऽ।    ऽ  ऽ ऽ  ऽ ऽ
              11 मात्रा 13 मात्रा

नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है।
ऽ ऽ।।     ।। ऽ।    ।।।  ।।   ।।  ऽ।।   ऽ – 24 मात्राएँ

सूर्य चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
ऽ।  ऽ।  ।।   ।।।     ऽ। ऽ   ऽ ऽ।।  ऽ – 24 मात्राएँ

नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल-तारा-मण्डल है।
।। ऽ    ऽ।  । ऽ।   ऽ।   ऽ ऽ   ऽ।।    ऽ – 24 मात्राएँ

बन्दीजन खगवृंद, शेष फन सिंहासन है।।
ऽ ऽ।।     ।। ऽ।    ऽ। ।।    ऽ ऽ।।   ऽ – 24 मात्राएँ

SSll llSl lll ll ll Sll S
नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य चन्द्र युग-मुकुट मेखला रत्नाकर है।।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडन है।
बंदी जन खग-वृन्द, शेष फन सिंहासन है।।

जो जगहित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोकहित में लग जाता।।

यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥

नन्दन वन था जहाँ, वहाँ मरूभूमि बनी है।
जहाँ सघन थे वृक्ष, वहाँ दावाग्नि घनी है।।
जहाँ मधुर मालती, सुरभि रहती थी फैली।
फूट रही है आज, वहाँ पर फूट विषैली।।

हुआ बाल रवि उदय, कनक नभ किरणें फूटीं।
भरित तिमिर पर परम, प्रभामय बनकर टूटीं।
जगत जगमगा उठा, विभा वसुधा में फैली।
खुली अलौकिक ज्योति-पुंज की मंजुल थैली।।

गीतिका छंद किसे कहते हैं?

इस छन्द में 26 मात्राएँ होती है जिसमें 14 (चौदह) और 12 (बारह) मात्राओं पर यति अर्थात विराम होता है। यह भी सममात्रिक छन्द के अन्तर्गत आते हैं। इसके अंत में लघु तथा गुरु स्वर होता है।

गीतिका छंद के उदाहरण

साधु भक्तों में सुयोगी। संयमी बढ़ने लगे ।।
सभ्यता की सीढ़ियों पर। सूरमा चढ़ने लगे ।।

साधु भक्तों में सुयोगी। संयमी बढ़ने लगे ।।
S I   I I S   S  I S S  S I S  I I S   I S = 14 +12 = 26                                             

पाइकै नर जनम जग मैं, राम के गुन गाइये ।
S I S I I  I I I   I I   S   S I  S  I I   S I S = 14+12 = 26   

हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बने।
ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।

हरिगीतिका छंद किसे कहते हैं?

यह मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके हर चरण में 16 और 12 के क्रम से 28 मात्राएँ होती हैं। 16 और 12 मात्राओं पर यति तथा अन्त में लघु और गुरु स्वर का प्रयोग अधिक प्रचलित है। इसके बारे में कहा गया है कि – लघु लागि विधि की निपुणता, अवलोकि पुर सोभा सही।

हरिगीतिका छंद के उदाहरण

।।    ऽ।     ।।     ऽ   ।।।ऽ        ।।ऽ।      ।।   ऽऽ    ।ऽ
वन बाग कूप तङाग सरिता, सुभग सब सक को कहीं
।।   ऽ।    ऽ।   ।ऽ।    ।।ऽ      ।।।    ।।   ।।   ऽ   ।ऽ
मंगल विपुल तोरण पताका, केतु गृह गृह सोहहीं
ऽ।।     ।।।     ऽ।।    ।ऽऽ      ऽ।   ।।  ।।    ऽ।ऽ
वनिता पुरुष सुन्दर चतुर छवि, देखि मुनि मन मोहहीं
।।ऽ     ।।।    ऽ।।     ।।।   ।।     ऽ।    ।।    ।।   ऽ।ऽ

कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।।

 मेरे इस जीवन की है तू, सरस साधना कविता।
मेरे तरु की तू कुसुमित , प्रिय कल्पना लतिका।
मधुमय मेरे जीवन की प्रिय,है तू कल कामिनी।
मेरे कुंज कुटीर द्वार की, कोमल चरण-गामिनी।”

उल्लाला छंद किसे कहते हैं?

यह एक यह अर्द्धसम मात्रिक छंद होता है। होता हैं। इस छंद के प्रत्येक चरण में 15 व 13 के क्रम से 28 मात्रायें होती हैं। इसके अलावा पहले और तीसरे चरणों में 15-15 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्रायें होती हैं।

उल्लाला छन्द को चन्द्रमणि भी कहा जाता है। इसमें यति प्रत्येक चरण के अंत में होती है। इसमें तुक सदैव सम चरणों में मिलती है। 13 मात्राओं वाला चरण बिल्कुल दोहे की तरह होता है, बस दूसरे चरण में केवल दो मात्रायें बढ़ जाती है। प्रथम चरण में लघु-दीर्घ से विशेष फर्क नहीं पङता।

उल्लाला छंद के उदाहरण

हे शरणदायिनी देवि! तू, करती सबका त्राण है।
ऽ ।।। ऽ। ऽ      ऽ।   ऽ   ।। ऽ  ।। ऽ   ऽ।   ऽ
15 मात्राएँ 13 मात्राएँ

हे मातृभूमि संतान हम, तू जननी तू प्राण है।।
ऽ  ऽ। ऽ।    ऽ ऽ। ।।    ऽ ।। ऽ   ऽ  ऽ।  ऽ
15 मात्राएँ 13 मात्राएँ

भूखी आंतों के लिए, सेंसक्स बस बवाल है।
ऽ ऽ  ऽ ऽ  ऽ  ।ऽ    ऽ ऽ।।  ।।   । ऽ।  ऽ
तीसमार खा कह रहे, मार्केट में उछाल है।
ऽ। ऽ।   ऽ   ।।  । ऽ  ऽ ऽ।   ऽ । ऽ ।   ऽ

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
।। ऽ   ।। ऽ।    । ऽ।  ऽ   ।। ऽ ऽ  ।।   ऽ।  ऽ
हे मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की।।
ऽ  ऽ। ऽ।    ऽ ऽ।   ऽ   ।।।   ऽ।   ऽ ऽ।   ऽ

गुरु किरपा से सब मिला, गुरु जीवन आधार हैं।
गुरु बिन ध्यान ना ज्ञान है, गुरु भव तारणहार है।
गुरु चरणों में है मिला, मुझको जीवन सार है।
गुरु आज्ञा जो मानता, उसका तो उद्धार है।।

निर्मल अति मन में सदा, उठता यह उद्गार है।
सुगति स्वर्ग-अपवर्ग का, गुरु प्रसाद ही द्वार है।।

बरवै (विषम) छंद किसे कहते हैं?

बरवै छंद एक ‘अर्द्धसममात्रिक छंद’ होता है। इसमें चार चरण होते है। इसके प्रथम चरण तथा तृतीय चरण में 12-12 मात्राएँ और द्वितीय चरण तथा चतुर्थ चरण में 7-7 मात्राएँ होती है। बरवै छंद के द्वितीय चरण तथा चतुर्थ चरण के अंत में जगण (।ऽ।) अथवा तगण (ऽऽ।) आकर छंद को सुरीला बना देता है।

बरवै ‘अवधी भाषा’ का व्यक्तिगत छन्द है, जो सदैव श्रृंगार रस के लिए प्रयुक्त होता है। इसमें कुल 19 मात्राएँ होती है, जिसमें 12 एवं 7 पर यति अर्थात विराम होता है।

बरवै (विषम) छंद का उदाहरण

वाम अंग शिव शोभित, शिवा अदार।
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित विहार।।

वाम अंग शिव शोभित, शिवा अदार।
S I    S I    I I    S I I       I S     I S I = 12 + 7 = 19

चितवनि बसति करखियनु, अखियनु बीच।
I I I I      I I I      I I I I I         I I I I     S I = 12 + 7 = 19

अवधि शिला का उर पर, था गुरुभार।
तिल-तिल काट रही थी, दृग जल धार।।

अवधि शिला का उर पर, था गुरुभार।
I I I    I S     S   I I  I I     S  I I S I = 12 + 7 = 19

आँख मिलेंगी सबसे, रख व्यवहार।
फूल सभी जन चाहें, एक न ख़ार।।

बोलो शब्द तोलकर, बनो सुजान।
वापिस तीर न आए, छुटा कमान।।

इस प्रकार उपरोक्त पंक्तियाँ ‘बरवै छंद’ का उदाहरण है।

छप्पय छंद किसे कहते हैं?

यह एक संयुक्त मात्रिक छंद होता है। इसका निर्माण मात्रिक छंद के रोला छंद और उल्लाला छंद के योग से होता है। छप्पय छंद में 6 चरण होते हैं।

प्रथम चार चरण रोला छंद के होते हैं और आखिरी के दो चरण उल्लाला छंद के होते हैं। पहले के चार चरणों में 24 मात्राएँ और बाद के दो चरणों में 26-26 या 28-28 मात्राएँ होती हैं।

छप्पय छंद के उदाहरण

जिस तरह तुलसी की चौपाइयाँ, बिहारी के दोहे, रसखान के सवैये, पद्माकर के कविता तथा गिरिधर कविराय की कुंडलिया प्रसिद्ध हैं उसी तरह नाभादास के छप्पय प्रसिद्ध हैं। 

नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
नदिया प्रेम-प्रवाह, फूल -तो मंडन है।
बंदी जन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद है, बलिहारी इस वेश की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही,सगुण मूर्ति सर्वेश की।।”

जिसकी रज में लोट-पोट कर बड़े हुए हैं। 
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये। 
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।।
हम खेले कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में। 
हे मातृभूमि ! तुमको निरख मग्न क्यों न हों मोद में।।

जिस तरह तुलसी की चौपाइयाँ, बिहारी के दोहे, रसखान के सवैये, पद्माकर के कविता तथा गिरिधर कविराय की कुंडलिया प्रसिद्ध हैं उसी तरह नाभादास के छप्पय प्रसिद्ध हैं। 

कुंडलियाँ छंद किसे कहते हैं?

कुंडलियाँ एक विषम मात्रिक छंद होता है। इसका निर्माण मात्रिक छंद के दोहा और रोला छंद के योग से होता है। पहले एक दोहा और उसके बाद दोहा के चौथे चरण से यदि एक रोला रख दिया जाए तो वह कुंडलिया छंद बन जाता है। 

कुंडलियाँ छंद का एक नियम है की जिस शब्द से कुंडलिया छंद प्रारंभ होता है समाप्ति में भी वही शब्द रहना चाहिए। 

कुंडलियाँ छंद के उदाहरण

दौलत पाय न कीजिए, सपने में अभिमान। 
चंचल जल दिन चारि कौ, ठाउँ न रहत निदान।।
ठाउँ न रहत निदान, जियन जग में जस लीजै। 
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै।।
कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घर तौलत। 
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सब ही के दौलत।।

रत्नाकर सबके लिए, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान॥
सीप चुने नादान,अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह,इकट्ठा वैसा करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर॥

कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय’, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध।
बाहर का बक हंस है, हंस घरेलू गिद्ध
हंस घरेलू गिद्ध , उसे पूछे ना कोई।
जो बाहर का होई, समादर ब्याता सोई।
चित्तवृति यह दूर, कभी न किसी की होगी।
बाहर ही धक्के खायेगा , घर का जोगी।।

दिगपाल छंद किसे कहते हैं?

दिगपाल छंद जो कि मृदुगति छंद के नाम से भी जाना जाता है, 24 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है।
यह 12 और 12 मात्रा के दो यति खंड में विभक्त रहता है। इसका मात्रा विन्यास इस प्रकार है – SSIS ISS SSIS ISS

दिगपाल छंद के उदाहरण

तजि अधर्म,कर्म,सुधर्म कर,
गीता तुझे बताए I 
हों शुद्ध,बुद्ध,प्रबुद्ध सब,
निज धर्म को न भुलाए I I 

धर नव नीव स्वधर्म की,
शिव ही सत्य मानिए I 
छोड़ सकल लोभ मोह,
ऒम ही सर्व जानिए I I

आल्हा या वीर छंद किसे कहते हैं?

इसे आल्हा छंद या मात्रिक सवैया भी कहते हैं। वीर छंद दो पदों के चार चरणों में रचा जाता है जिसमें यति 16-15 मात्रा पर नियत होती है, छंद में विषम चरण का अंत गुरु (ऽ) या लघुलघु (।।) या लघु लघु गुरु (।।ऽ) या गुरु लघु लघु (ऽ ।।) से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु (ऽ।) से होना अनिवार्य है।

‘जैसा नाम वैसा गुण’ की तरह इस छंद के कथ्य अकसर ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना का संचार कर देते हैं। इस प्रकार से अतिशयोक्ति पूर्ण अभिव्यंजनाएँ इस छंद का मौलिक गुण बन जाती हैं। निम्न पंक्तियों से इसको समझा जा सकता है –

आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य।
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राइ को तुरत पहाड़।
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।

आल्हा या वीर छंद के उदाहरण

बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें,  आगे जीवन को धिक्कार।।

कर में गह करवाल घूमती, रानी बनी शक्ति साकार।
सिंहवाहिनी, शत्रुघातिनी सी करती थी अरि संहार।।
अश्ववाहिनी बाँध पीठ पै, पुत्र दौड़ती चारों ओर।
अंग्रेजों के छक्के छूटे, दुश्मन का कुछ, चला न जोर।।

एक तो सुघर लड़कैया के, दूसरे देवी कै वरदान।
नैन सनीचर है ऊदल कै, औ बेह्फैया बसै लिलार।।
महुवर बाजि रही आँगन मां, युवती देखि-देखि ठगि जांय।
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय।।

सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय।
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय।।
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ।
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ।।

हिल बचनियाँ है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ।
आजु बाघ कल बैरी मारिउ, मोर छतिया की दाह बताउ।।
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय।
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि पछताय।।

टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडूगढ़ बरगद की डार।
आधी रतिया की बेला में, खोपडी कहे पुकार-पुकार।।
कहवां आल्हा कहवां मलखै, कहवां ऊदल लडैते लाल।
बचि कै आना मांडूगढ़ में, राज बघेल जिये कै काल।।

सार छंद किसे कहते हैं?

सार छंद एक अत्यंत सरल, गीतात्मक एवं लोकप्रिय मात्रिक छंद है। इसमें हर पद के विषम या प्रथम चरण की कुल मात्रा 16 तथा सम या दूसरे चरण की कुल मात्रा 12 होती है। अर्थात, इसमें पदों की 16-12 पर यति होती है। इसमें पदों के दोनों चरणान्त गुरु-गुरु (ऽऽ) या गुरु-लघु-लघु (ऽ।।) या लघु-लघु-गुरु (।।ऽ) या लघु-लघु-लघु-लघु (।।।।) से होते हैं।

इसमें यह आवश्यक है, कि पदों के किसी चरणान्त में तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।) का निर्माण न हो।

निम्न पंक्तियों से इसको समझा जा सकता है –

सार बात होती जिसमें वो,सार छंद कहलाता।
सोलह बारह की मात्रा में,लिखा छंद ये जाता।
चार चरण हों दो गुरु से ही,चरण अंत है होता।
समतुकांत दो/चार चरण में,पूर्ण मुग्ध हों श्रोता।

सार छंद के उदाहरण

राम नाम से पत्थर तैरें,मानव क्यों न तरेंगें।
भवसागर के मालिक रामा,सबको पार करेंगें।
राम नाम की माला जपलो,मन में राम बसा लो।
शबरी जैसी सेवा कर तुम,जीवन सफल बना लो

पायल की रुन-झुन सुन मेरा,मनवा हाले डोले।
कोयल की संगत में कागा,मीठी बोली बोले।
प्रीत परायी देखूँ मैं तोे,मनवा डोल उठे है।
गीत अणू जी के पढ मेरा,यौवन बोल उठे है।

तांटक छंद किसे कहते हैं?

यह एक मात्रिक छंद है। इसके कुल चार चरण होते हैं। इसके चरण में कुल 30 मात्राएँ होती हैं जिसमें 16-14 मात्रा भार के क्रम से यति निश्चित होती है। इस छंद के लिए प्रत्येक चरण का अंत सिर्फ “मगण” (222) यानि 3 गुरु से ही होना अनिवार्य है। और यहाँ गुरु की जगह गुरु ही आएगा न कि दो लघु को मिलकर एक गुरु बनाना है। इस छंद में समतुकांत दो दो चरणों में ही मिलाया जायेगा न कि चार चरणों में।

यह छंद वैसे तो ओज गुण और वीर रस के लिए ही उपयुक्त है परन्तु इस छंद में समसामयिक मुद्दों , सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक चुनौतियों और चिंतनपरक विषयों पर भी लिखा जाता है।

तांटक छंद के उदाहरण

पढ़ने चला जगत का लेखा, समझ नहीं खुद को पाया ।
रहा स्वार्थ में लिप्त निरंतर, यही मार्ग मुझको भाया ॥

पल-पल यह संसार बदलता, पल-पल मिटता जाता है ।
ज्यों ज्यों उमर बीतती जाती, जगत छूटता जाता है ॥

फूलों की डोली में आई,शर्माती बरखा रानी।

इठलाती इतराती आई,कर बैठी कुछ नादानी।

बादल गरजे बिजली चमकी,झूम-झूम बरसा पानी।

भीग गया गोरी का आँचल,चिपक गई चुनरी धानी।

हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई, सब में भाई चारा हो।
जाति पाँति का भेद खत्म हो, सरल प्रेम की धारा हो॥
ऊँच-नीच की कटें सलाखें, क्यों धर्मो का पंगा हो।
मंदिर-मस्जिद गुरुद्वारों की, केवल शान तिरंगा हो॥

रूपमाला छंद किसे कहते हैं?

इसको मदन छन्द के नाम से भी जानते हैं। यह एक अर्द्धसममात्रिक छन्द, जिसके प्रत्येक चरण में 14 और 10 के विश्राम से 24 मात्राएँ और पदान्त गुरु-लघु से होता है। इसमें चार पद होते है, जिसमें दो-दो पदों पर तुकान्तता बनती है। हालाँकि रोला  भी 24 मात्रा का छंद हैं परन्तु, वह यति व गेयता में वह इससे भिन्न है। निम्न पंक्तियों से इसको समझा जा सकता है –

है मदन यह छंद इसका, रूपमाला नाम।

पंक्ति प्रति चौबीस मात्रा, गेयता अभिराम।।

यति चतुर्दश पंक्ति में हो, शेष दस ही शेष।

अंत गुरु-लघु या पताका, रस रहे अवशेष।।

रूपमाला छंद के उदाहरण

रावरे मुख के बिलोकत ही भए दुख दूरि ।

सुप्रलाप नहीं रहे उर मध्य आनँद पूरि ।

देह पावन हो गयो पदपद्म को पय पाइ ।                                                               

पूजतै भयो वश पूजित आशु हो मनुराइ । —– केशव

झनक-झन झांझर झनकती, छेड़ एक मल्हार।

खन खनन कंगन खनकते, सावनी मनुहार।।  

फहर-फर-फर आज आँचल, प्रीत का इज़हार।

बावरा मन थिरक चँचल, साजना अभिसार।।

धड़कनें मदहोश पागल , नयन छलके प्यार ।

बोल कुछ बोलें नहीं लब , मौन सब व्यवहार।।

शान्ति, चिर-स्थायित्व, खुशियाँ, प्रीत के उपहार।

झूमता जब प्रेम अँगना , बह चले रसधार।।     ——डॉ० प्राची सिंह

छम छमा छम छम बरसते, शब्द सजते खूब। 

खिलखिलाते भाव बहते, शब्द के अनुरूप।।

छंद गुनगुन कह रहे हैं, आ मिलो अब मीत।

झूमते तरुवर मगन सुन, श्रावणी संगीत।।     —–सीमा अग्रवाल

त्रिभंगी छंद किसे कहते हैं?

त्रिभंगी छंद एक सम मात्रिक छंद है इसमें प्रति पद 32 मात्राएँ होती है। प्रत्येक पद में 10, 8, 8, 6 मात्राओं पर यति होती है। यह 4 पद का छंद है। प्रथम व द्वितीय यति समतुकांत होनी आवश्यक है। परन्तु अभ्यांतर समतुकांतता यदि तीनों यति में निभाई जाय तो सर्वश्रेष्ठ है। पदान्त तुकांतता दो दो पद की होनी आवश्यक है।

प्राचीन आचार्य केशवदास, भानु कवि, भिखारी दास के जितने उदाहरण मिलते हैं उनमें अभ्यान्तर तुकांतता तीनों यति में है। परंतु रामचरित मानस में तुकांतता प्रथम दो यति में ही निभाई गई है। कई विद्वान मानस के इन छन्दों को दंडकल छंद का नाम भी देते हैं, जिसमें यति 10, 8, 14 मात्रा की होती है। निम्न प्रकार से इसको समझा जा सकता है –

प्रथम यति- 2+4+4
द्वितीय यति- 4+4
तृतीय यति- 4+4
पदान्त यति- 4+S (2)
चौकल में पूरित जगण वर्जित रहता है तथा चौकल की प्रथम मात्रा पर शब्द समाप्त नहीं हो सकता। पदान्त में एक दीर्घ (S) आवश्यक है लेकिन दो दीर्घ हों तो सौन्दर्य और बढ़ जाता है।

त्रिभंगी छंद के उदाहरण

भारत की धरती, दुख सब हरती,
हर्षित करती, प्यारी है।
ये सब की थाती, हमें सुहाती,
हृदय लुभाती, न्यारी है।।
ऊँचा रख कर सर, हृदय न डर धर,
बसा सुखी घर, बसते हैं।
सब भेद मिटा कर, मेल बढ़ा कर,
प्रीत जगा कर, हँसते हैं।।

नित शीश झुकाकर, वन्दन गाकर,
जीवन पाकर, रहते हैं।
इस पर इठलाते, मोद मनाते,
यश यह गाते, कहते हैं।।
नव युवकों आओ, आस जगाओ,
देश बढ़ाओ, तुम आगे।
भारत की महिमा, पाये गरिमा,
बढ़े मधुरिमा, सब जागे।।

2. वर्णिक छंद किसे कहते हैं?

वह छंद, जिनमें पद रचना वर्णों की संख्या, गणविधान, क्रम तथा लघु-गुरु स्वर के आधार पर होती है, उन्हें ‘वर्णिक छंद’ कहते है।

अर्थात सिर्फ वर्णों की गणना के आधार पर रचे गए छन्द ‘वर्णिक छन्द’ कहलाते है। इसमें सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान होती है, तथा लघु व गुरु स्वर का क्रम समान रहता है।

‘वृत्तों’ की भांति वर्णिक छंद में लघु तथा गुरु स्वर का क्रम निश्र्चित नहीं होता है, सिर्फ वर्णों की संख्या ही निर्धारित रहती है और इसमें 4 चरणों का होना भी अनिवार्य नहीं होता है।

वर्णिक छंद के कितने भेद होते हैं?

वर्णिक छंद के कुल 2 भेद है, जो कि निम्नलिखित है:-

  • साधारण वर्णिक छंद
    • 1 से 26 वर्ण तक के चरण रखने वाले को छंदों को ‘साधारण वर्णिक छंद’ कहते है।
      • 11 वर्णों वाले– इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, शालिनी, भुजंगी, आदि।
      • 12 वर्णों वाले – द्रुतविलम्बित, तोटक, वंशस्थ, आदि।
      • 14 वर्ण वाले – वसंततिलका
      • 15 वर्ण वाले -मालिनी
      • 17 वर्ण वाले मंद्रक्रांता, शिखरिणी, आदि।
      • 19 वर्ण वाले – शार्दूलविक्रीडित
      • 22 से 26 वर्ण वाले – सवैया मत्तगयंद, मदिरा, सुमुखी, मुक्तहरा, द्रुमिल, गंगोदक, किरीट, सुंदरी, अरविंद, आदि।
  • दंडक वर्णिक छंद
    • 26 वर्ण से अधिक चरण रखने वाले छंदों को दंडक वर्णिक छंद’ कहते है।
      • 26 वर्ण से अधिक वालेमनहरण, घनाक्षरी (कवित्त), रूपघनाक्षरी, देवघनाक्षरी, आदि।

प्रमुख वर्णिक छंद एवं उनके उदाहरण

प्रमुख वर्णिक छंदों के नाम एवं उनके उदाहरण को आगे विस्तार पूर्वक दिया गया है-

सवैया छंद किसे कहते हैं?

सवैया छंद एक ‘वर्णिक संवृत्त छंद’ है। इसके प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते हैं। यह ‘लयमूलक छंद’ है। इसके चरणों में अंत के 2 वर्णों में प्रथम वर्ण लघु (।) तथा द्वितीय वर्ण गुरु (ऽ) होता है। इस छंद में आरंभ से अंत तक कोई एक गण दोहराया जाता है। 

सवैया छंद अनेक प्रकार के होते है और इनके नाम भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं। इनका निर्वाह नहीं होता है। सवैया छंद में एक ही वर्णिक गण को बार-बार आना चाहिए।

सवैया छंद के उदाहरण

सवैया छंद के उदाहरण निम्नलिखित है:-

प्रताप नारायण सिंह द्वारा लिखी गयी सवैया-

चाँद चले नहिं रात कटे, यह सेज जले जइसे अगियारी।

नागिन सी नथनी डसती, अरु माथ चुभे ललकी बिंदिया री।।

कान का कुण्डल जोंक बना, बिछुआ सा डसै उँगरी बिछुआ री।

मोतिन माल है फाँस बना, अब हाथ का बंध बना कँगना री ॥

काजर आँख का आँस बना, अरु जाकर भाग के माथ लगा री।

हाथ की फीकी पड़ी मेंहदी, अब पाँव महावर छूट गया री।।

काहे वियोग मिला अइसा, मछरी जइसे तड़पे है जिया री।

आए पिया नहि बीते कई दिन, जोहत बाट खड़ी दुखियारी ॥

–प्रताप नारायण सिंह

रसखान के प्रसिद्ध सवैया के कुछ उदाहरण-

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।

जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥

नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं।

ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं।

माहिनि तानन सों रसखान, अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥

टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि, काल्हि कोई कितनो समझैहैं।

माई री वा मुख की मुसकान, सम्हारि न जैहैं, न जैहैं, न जैहैं॥

सवैया छंद के भेद

सवैया छंद के भेद निम्न लिखित हैं –

  • मदिरा सवैया छंद
    • मदिरा सवैया छंद के प्रत्येक चरण में 22 वर्ण होते है। इसमें 7 भगण (ऽ।।) तथा अंत में गुरु (ऽ) होता है।
      • उदाहरण – ऽ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ
        भासत गौरि गुसांइन को वर राम दुह धनु खंड कियो।
        ऽ।। ऽ ।।ऽ। ।ऽ ।। ऽ ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ
        मालिन को जयमाल गुहौ हरि के हिय जानकि मेल दियो।
        ऽ।। ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ। ।ऽ। । ऽ। ।ऽ
        रावण की उतरी मदिरा चुपचाप पयान जु लंक कियो।
        ऽ। ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ ।। ऽ ।।ऽ। ।ऽ
        राम वरी सिय मोद-भरी नभ में सुर जै जयकार कियो॥
  • मत्तगयंद सवैया छंद
    • इस छंद के प्रत्येक चरण में 23 वर्ण होते है। मत्तगयंद छंद में 7 भगण (ऽ।।) तथा अंत में 2 गुरु (ऽऽ) होते है। इसके चारों चरणों में तुकांत होता है। मत्तगयंद सवैया छंद को ‘मालती’ तथा ‘इन्दव’ भी कहते है।
      • उदाहरण – ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽ।। ऽऽ
        सेस महेस गणेस सुरेस दिनेसहु जाहि निरंतर गावैं।
        ऽ।। ऽ ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ। । ऽऽ
        नारद से सुक व्यास रटै, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
        ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽऽ
        जाहि अनादि, अनंत, अखंड, अछेद अभेद, सुवेद बतावैं।
        ऽ। ।ऽ। । ऽ।।ऽ ।।ऽ ।। ऽ। । ऽ। ।ऽऽ
        ताहि अहीर कि छोहरियाँ छछिया भरि छाछ प नाच नचावैं।
  • सुमुखी सवैया छंद
    • मदिरा सवैया छंद के आदि में एक लघु (।) वर्ण जोड़ने से सुमुखी सवैया छंद बनता है। इस के प्रत्येक चरण में 23 वर्ण होते है। इसमें 11वें और 12वें वर्ण पर यति होती है। इसमें 7 जगण (।ऽ।) और चरणों के अंत के वर्णों में लघु-गुरु (।ऽ) होता है।
      • उदाहरण- ।ऽ ।।ऽ। ।ऽ। ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ। ।ऽ ।।ऽ
        हिये बनमाल रसाल धरे, सिर मोर-किरीट महा लसिबो।
        ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ ।।ऽ ।। ऽ।। ऽ ।।ऽ ।।ऽ
        कसे कटि पीत-पटी, लकुटी कर आनन पै मुरली रसिबो।
        ।ऽ। । ऽ। ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽ ।।ऽ
        कलिंदि के तीर खड़े बल-वीर अहीरन बाँह गये हँसिबो।
        ।ऽ ।।ऽ ।। ऽ।। ऽ ।। ऽ।। ऽ ।।ऽ ।।ऽ
        सदा हमारे हिय-मंदिर में यह बानक सों करिये बसिबो॥
  • मुक्तहरा सवैया छंद
    • इसके प्रत्येक चरण में 24 वर्ण होते है। मुक्तहरा छंद में 8 जगण (।ऽ।) होते है। इसमें 11वें और 13वें वर्ण पर यति होती है।
    • मुक्तहरा सवैया छंद को ‘मोतियदाम’ भी कहते है। मत्तगयंद छंद के आदि-अंत में एक-एक लघु (।) वर्ण जोड़ने से ‘मुक्तहरा सवैया छंद’ बनता है।
      • उदाहरण- । ऽ। ।ऽ। । ऽ। ।ऽ।
        न भूमि महान, न व्योम महान,
        । ऽ। ।ऽ। । ऽ। । ऽ।
        न तीर्थ महान, न पुण्य, न दान।
        । ऽ। ।ऽ। । ऽ। ।ऽ।
        न शैल महान, न सिंधु महान,
        ।ऽ। । ऽ। । ऽ।। ऽ।
        महान न गंग, न संगम स्नान।
        । ऽ। ।ऽ। । ऽ। ।ऽ।
        न ग्रंथ महान, न पंथ महान,
        ।ऽ। । ऽ। । ऽ।। ऽ।
        महान न काव्य, न दर्शन ज्ञान।
        ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ।
        महान सुकर्म, महान सुभाव,
        ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ।
        सुदृष्टि महान, चरित्र महान।
  • दुर्मिल सवैया छंद
    • दुर्मिल सवैया छंद को ‘चंद्रकला’ कहते है। इस छंद के प्रत्येक चरण में 24 वर्ण होते है। दुर्मिल सवैया छंद में 12-12 वर्ण पर यति होती है। इसमें 8 सगण (।।ऽ) होता है।
      • उदाहरण- ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ ।।ऽ
        सखि नील-नभस्सर में उतरा,
        ।। ऽ। ।ऽ ।।ऽ ।।ऽ
        यह हंस अहा तरता तरता।
        ।। ऽ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ
        अब तारक-मौक्तिक शेष नहीं,
        ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ
        निकला जिनको चरता चरता।
        ।।ऽ ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ
        अपने हिम-बिन्दु बचे तब भी,
        ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ
        चलता उनको धरता धरता,
        ।। ऽ। । ऽ।। ऽ।। ऽ
        गड़ जायँ न कंटक भूतल के,
        ।। ऽ। ।ऽ ।।ऽ ।।ऽ
        कर डाल रहा डरता डरता।
  • गंगोदक सवैया छंद
    • इस छंद के प्रत्येक चरण में 24 वर्ण होते है। इसको ‘लक्ष्मी’ छंद’ भी कहते है। गंगोदक सवैया छंद में 8 रगण (ऽ।ऽ) होता है।
      • उदाहरण- ऽ। ऽऽ। ऽ ऽ। ऽऽ ।ऽ
        राम राजान के राज आये इहाँ,
        ऽ। ऽऽ ।ऽऽ। ऽऽ ।ऽ
        धाम तेरे महाभाग जागे अबै।
        ऽ। ऽऽ।ऽ ऽ।ऽऽ। ऽ
        देवि मंदोदरी कुम्भकर्णादि दै,
        ऽ। ऽऽ ।ऽ ऽ। ऽऽ ।ऽ
        मित्र मंत्री जिते पूछि देखो सबै।
        ऽ।ऽ ऽ। ऽ ऽ। ऽ ऽ। ऽ
        राखिये जाति को, पाँति को वंश को,
        ऽ।ऽ ऽ। ऽ ऽ। ऽऽ। ऽ
        साधिये लोक मैं लोक पर्लोक को।
        ऽ। ऽ ऽ ।ऽ ऽ। ऽ ऽ। ऽ
        आनि कै पाँ परौ देस लै, कोस लै,
        ऽ।ऽ ऽ। ऽऽ। ऽ ऽ। ऽ
        आसुहीं ईश सीताहि लै ओक को।
  • किरीट सवैया छंद
    • इस छंद के प्रत्येक चरण में 24 वर्ण होते है। इसमें 12-12 वर्णों पर यति होती है। इस छंद में 8 भगण (ऽ।।) होता है। मदिरा सवैया छंद के अंत में 2 लघु (।) वर्ण जोड़ने से ‘किरीट सवैया छंद’ बनता है।
      • उदाहरण- ऽ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ।।
        चूनर छीन गयो कित मोहन,
        ऽ।। ऽ ।।ऽ ।।ऽ।।
        ढूंढत हूँ तुझको मुरलीधर
        ऽ। ।ऽ।। ऽ।। ऽ।।
        बांह मरोरत गागर फोड़त,
        ऽ। ।ऽ।। ऽ ।।ऽ ।।
        आज उलाहन दूँ जसुदा घर
        ऽ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ।।
        बोलत बाल सखा घर भीतर,
        ऽ। ।ऽ ।। ऽ ।। ऽ।।
        श्याम रहो इत ही नट नागर
        ऽ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ ।।
        दर्शन पाकर धन्य भई अब,
        ऽ। ।ऽ ।। ऽ ।।ऽ।।
        रीझ गई प्रभु हे करुणाकर।
  • सुंदरी सवैया छंद
    • सुंदरी सवैया छंद के प्रत्येक चरण में 25 वर्ण होते है। तथा 12 और 13 वर्णों पर यति होती है। इसमें 8 सगण (।।ऽ) तथा अंत में 1 गुरु (।) होता है।
      • उदाहरण- ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ
        सुख शान्ति रहे सब ओर सदा,
        ।।ऽ। ।ऽ ।। ऽ। । ऽऽ
        अविवेक तथा अघ पास न आवैं।
        ।। ऽ। ।ऽ ।। ऽ। ।ऽ
        गुण शील तथा बल बुद्धि बढ़ें,
        ।। ऽ। ।ऽ। ।ऽ ।। ऽऽ
        हठ बैर विरोध घटै मिटि जावैं।
        ।। ऽ।। ऽ ।। ऽ ।।ऽ
        सब उन्नति के पथ पे विचरे,
        ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽऽ
        रति पूर्ण परस्पर पुण्य कमावैं।
        ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ।।
        दृढ़ निश्चय और निरापद,
        ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ ।। ऽऽ
        होकर निर्भय जीवन में जय पावैं।
  • अरविंद सवैया छंद
    • अरविंद सवैया छंद के प्रत्येक चरण में 25 वर्ण होते है। तथा 12 और 13 वर्णों पर यति होती है। इस छंद में 8 सगण (।।ऽ) तथा अंत में 1 लघु (।) होता है।
      • उदाहरण- ।।ऽ ।। ऽ।। ऽ।। ऽ
        सबसों लघु आपुहिं जानिय जू,
        ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽ।
        यह धर्म सनातन जान सुजान।
        ।।ऽ ।।ऽ ।। ऽ। ।ऽ
        जबहीं सुमती अस आनि वसै,
        ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ।
        उर संपत्ति सर्व विराजत आन।
        ।। ऽ। ।ऽ ।।ऽ।। ऽ
        प्रभु व्याप करौं सचराचर में,
        ।। ऽ। ।ऽ। ।ऽ ।।ऽ।
        तजि-बैर सुभक्ति सजौ मतिमान।
        ।। ऽ। ।ऽ ।।ऽ।। ऽ
        नित राम पदै अरविंदन को,
        ।।ऽ। ।ऽ ।।ऽ। ।ऽ।
        मकरंद पियो सुमिलिंद समान॥

3. वर्णिक वृत्त छंद किसे कहते हैं?

वर्णिक वृत्त उस सम छंद को कहते है, जिसमें चार समान चरण होते है और प्रत्येक चरण में आने वाले वर्णों का लघु-गुरु क्रम सुनिश्चित रहता है। ‘वर्णिक वृत्त छंद’ वर्णिक छंद का एक रूप है। इसमें वर्णों की गिनती होती है।

वर्णिक वृत छंद के उदाहरण

7 भगण और 2 गुरु का ‘मत्तगयन्द सवैया’ तथा ‘द्रुतविलम्बित’ और ‘मालिनी’ आदि छन्द ‘वार्णिक वृत्त छंद’ के उदाहरण है। जैसे-

राज तिहूँ पुर को तजि डारौं –  इसकी मात्रा – ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽऽ – इसमें कुल 7 भगण + 2 गुरु = 23 वर्ण है अतः वर्णिक वृत्त छंद का उदहारण है। अन्य उदहारण – या लकुटी अरु कामरि या पर

4. उभय छंद किसे कहते हैं?

जिन छंदों में मात्रा और वर्ण दोनों की समानता एक साथ पाई जाती है, उन्हें उभय छन्द कहते हैं। यह वर्ण और मात्रा पर निर्भर करता है, ये गण (यमाताराजभानसलगा) आधारित भी होते है ।

उभय छंद के उदाहरण

मत्तगयंद सवैया (मालती सवैया) उभय छंद के उदहारण के अंतर्गत आते हैं।

5. मुक्त या स्वच्छन्द छंद किसे कहते हैं?

वे सभी छंद या कविताएं जिनमें छंद के नियमों का कोई प्रतिबंध नहीं होता है, उन्हें मुक्त या स्वच्छन्द छंद कहते हैं। आधुनिक गीत अथवा कविता में इसी छंद का अधिकतर प्रयोग देखने को मिलता है। छंद शास्त्र के आधार पर इस छंद को उपयुक्त नहीं माना जाता है ।

मुक्त या स्वच्छन्द छंद के उदहारण

उदाहरण :- सूर्यकांत त्रिपाठी ( निराला जी ) की कविता “भिक्षुक” एवं “जूही की कली” इसका प्रमुख उदाहरण है –

सूर्यकांत त्रिपाठी ( निराला जी ) की कविता “भिक्षुक”

वह आता-
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठीभर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट चलते हैं,
और दाहिना दयादृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।

सूर्यकांत त्रिपाठी ( निराला जी ) की कविता “जूही की कली”  

विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न-
अमल-कोमल-तनु-तरुणी-जूही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल-पत्रांक में।
वासन्ती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आई याद बिछुड़ने से मिलन की वह मधुर बात,
आई याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आई याद कान्ता की कम्पित कमनीय गात,
फिर क्या? पवन उपवन-सर-सरित गहन-गिरि-कानन
कुञ्ज-लता-पुंजों को पारकर
पहुँचा जहां उसने की केलि
कली-खिली-साथ।
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल,
बोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक-क्षमा मांगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूंदे रही-
किम्वा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये
कौन कहे?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की,
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल,
चौंक पड़ी युवति-
चकित चितवन निज चारों ओर पेर,
हेर प्यारे की सेज-पास,
नम्रमुख हंसी-खिली
खेल रंग, प्यारे संग।

उपरोक्त छंद में नियमानुसार वर्ण, मात्रा, यति, गति देखने को नहीं मिलेगा ।

कुछ प्रमुख छंद का संक्षिप्त विवरण

छंदसंक्षिप्त विवरण
दोहादोे छंद में प्रथम और तृतीय चरणों में तेरह एवं दूसरे तथा चौथे चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। मात्रा की शर्त होने के कारण यह मात्रिक छंद की श्रेणी में आता है। इस छंद में दूसरे एवं चौथे चरणों का तुक मिलता है।
नियम : प्रथम तीसरे पद सदा तेरह मात्रा योग।
पद दूजे चौथे रखें, ग्यारह मात्रा लोग।।
चौपाईचौपाई एक मात्रिक सम छंद है। इस छंद के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। जगण और तगण इसके अंत में नहीं होते। चरण के अंत में गुरु-लघु नहीं होता।
नियम : चौपाई सोलह मात्राएँ, जगण हो अन्त नहीं।
सम कल पीछे सम, कल विषम बाद हो विषम।
सोरठायह अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। यह दोहे का उल्टा होता है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ एवं द्वितीय-चतुर्थ चरणों में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं।
इसके सम चरणों में जगण नहीं होता।
नियम : दोहा उल्टे सोरठा, ग्यारह तेरह मात्रा,
सम चरणों में जगण निषेध।
ग्यारह मात्रा योग, प्रथम तीसरे पद रहे।
तेरह मात्रा लोग, दूजे चौथे पद रखे।।
रोलारोला में विषम पद में 4+4+3 या 3+3+2+3
और सम पद 3+2+4+4 या 3+2+3+3+2 इस तरह की मात्राएँ होती हैं। यह एक अर्द्ध सममात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। 11 एवं 13 मात्राओं पर यति होती है। यही भी दोहे का उल्टा होता है।
नियम : रोला ग्यारह तेरह पै यति, पद चैबीस मात्रा धरिये।
कुण्डलियाएक दोहा और एक रोला मिलाने से य छंद बन जाता है। दोहे का प्रथम शब्द कुंडलिया का अंतिम शब्द होता है। यह विषम मात्रिक छंद है, जिसमें छह पंक्तियाँ होती हैं।
नियम : कुंडलिया चौबीस मात्रा, दोहा रोला मिला बनाओ।
आदि शब्द हो अन्त, पद दोहा का रोला में लाओ।
हरिगीतिका (16 + 12 + 28)यह एक सममात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है। अंत में एक लघु और एक गुरु होता है।
नियम : हरिगीतिका सोलह बारह यति, हो पदांत लघु, गुरू, जहाँ पड़े चैकल होता है जगण निषिद्ध, अन्त रगण हो कर्ण मधुर।
उल्लाजइस मात्रिक छन्द में प्रथम एवं तृतीय चरणों 15 तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरणों में 13 मात्राएँ होती हैं।
नियम : उल्लाज मात्रा पन्द्रह तेरह यदि दो दल हों चार चरण
कवित्त (मनहरण)यह एक सम वर्णिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में इकत्तीस वर्ण होते हैं। 16 एवं 15 वर्णों पर यति होती है। चरणान्त में एक गुरू वर्ण अवश्य रहता है।
नियम :मनहर धनाक्षरी इकत्तीस वर्ण, आठ आठ आठ सात, यति गुरु अन्त।
कवित्त अनेक हैं:
अनजान नर किया करता है खोटे काम,
रोग-शेक भोगे, मले हाथ धीर छोड़ता।
अपमान जान, आन, शान धूल मिली देख,
भाग्य कोस, माथा ठोक, आश-दीप तोड़ता।।
कवित्त (घनाक्षरी)इसमें 31 वर्ण होते हैं। 16वें और 16वें और 15वें वर्णों पर यति होती है। कवित्त में वर्णों के क्रम का कोई बंधन नहीं होता।
इन्द्र जिमि जम्भ पर, बाडव सुअम्भ पर, (16 वर्ण)
रावन सदंभ पर रघुकुलराज हैं। (15 वर्ण)
पौन बारि बाह पर, सम्भु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं।।
सवैयायह एक वर्णिक छंद है। प्रत्येक चरण में 22 अक्षरों से लेकर 26 अक्षरों तक के छंदो को ‘सवैया’ कहा जाता है। इसके चारों चरणों में तुक मिलता है।
मन्तगयंद, दुर्मिल, सुमुखी, किरीट, वीर (आल्हा) आदि इसके अनेक रूप हैं।

छंद से युक्त रचनाओं की विशेषताएं

छंद से युक्त रचनाओं की निम्न विशेषताएं होती हैं –

  • छंदोबद्ध रचनाएँ सुनने और सुनाने में मजेदार होती हैं।
  • ये रचनाएँ गाय होने के कारण स्मृति में दिनों तक बनी रहती हैं, और शीघ्र ही कंठस्थ हो जाती हैं।
  • इन छन्दोबद्ध रचनाओं को स्मरण करने से तार्किक शक्ति बढ़ती है।
  • छन्दों का आधार रहते हुए, विचारों को संक्षेप में प्रकट किया जा सकता है।
  • इसके साथ ही, गंभीर विषयों को छन्दों में लिखकर सुगमता प्राप्त की जा सकती है।

छंद के महत्व और लाभ

छंदों का महत्व और परिणाम व्यापक हैं, जो मानवीय अनुभव, संवेदनशीलता, और सृजनशीलता को प्रकट करते हैं। इसलिए, छंदों का आदान-प्रदान करना और उन्हें समझना साहित्य, कला, और संस्कृति के माध्यम से व्यक्तिगत और सामाजिक विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। छंद से लाभ और उसके महत्व को निम्न विन्दुओं से समझा जा सकता है –

  1. कला और सौंदर्य का प्रदर्शन: छंद के माध्यम से, कविता, गीत, और अन्य साहित्यिक रचनाएं लोगों को खूबसूरती और सौंदर्य का आनंद देती हैं। छंद में उपयोग होने वाली शब्द-रचना, ताल, और विभाजन सुनने और प्रकट करने में मनोरंजन का साधन बनते हैं।
  2. भावनात्मक संवाद का निर्माण: छंद की सही रचना से, भावनाएं और विचार सही ढंग से प्रगट होते हैं। छंद के माध्यम से, भावनाएं सुनाने और समझाने में आसानी होती है, जिससे सामरिक और भावनात्मक संवाद का निर्माण होता है।
  3. समृद्धि की अनुभूति: छंद रचनाएं लोगों को उत्साह, प्रेरणा, और समृद्धि की भावना देती हैं। कविताएं और गीत जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूने और संवादित करने का माध्यम बनती हैं, जो लोगों को मार्गदर्शन और संबल प्रदान करती हैं।
  4. सामाजिक संदेशों की पहुंच: छंद रचनाएं सामाजिक संदेशों को आम जनता तक पहुंचाने का एक प्रभावी माध्यम हैं। इसके माध्यम से, विभिन्न मुद्दों, विचारों, और समस्याओं को साझा करना संभव होता है और सामान्य जनता में जागरूकता और परिवर्तन का प्रेरणा सृजित होता है।
  5. साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व: छंद रचनाएं साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व की धारा बनी रहती हैं। काव्य, गीत, और छंदों में निहित रचनाएं साहित्यिक परंपराओं का हिस्सा बनी रहती हैं और संस्कृति के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में एकता और संवर्धन को संजोती हैं।

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