महाराजा विक्रमादित्य | एक महान सम्राट का गौरवमयी इतिहास | 101ई.पू.-19ईस्वी

भारत का बहुत गौरवशाली इतिहास रहा है तथा अनेकों ऐसे राजा हुए है, जो अपने शौर्य, पराक्रम, दानवीरता, ज्ञान और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। महाराजा विक्रमादित्य उन्हीं में से एक ऐसे ही राजा थे जो अपनी न्याय व्यवस्था के लिए जाने जाते थे। उनकी न्याय व्यवस्था के चर्चे संपूर्ण विश्व में फैले हुए थे। कहा जाता है कि देवता भी उनसे न्याय करवाने आते थे।

राजा विक्रमादित्य ने गुरु गोरक्षनाथ से अपनी शिक्षा ग्रहण की थी। राजा विक्रमादित्य श्री गुरु गोरक्षनाथ जी से गुरु दीक्षा लेकर राजपाट संभालने लगे। आज उन्हीं के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है, और हमारी संस्कृति बची हुई है। इन्होने हिंदुत्व का परचम पूरे विश्व में लहराया। महाराज विक्रमादित्य के राज में ही भारत सोने की चिड़िया बना था। इन्होंने 100 वर्ष तक राज्य किया।

Table of Contents

महाराजा विक्रमादित्य का परिचय

सम्राट विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। महाराज विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे। जो अपने न्याय वीरता पराक्रम शौर्य ज्ञान तथा उदारशिलता के लिए प्रसिद्ध थे। गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245 के अनुसार कलिकाल के 3000 वर्ष बीत जाने के पश्चात 101 ईसा पूर्व विक्रमादित्य का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम गर्दभील्ल ( गंधर्वसेन) था। इनके पिता को महेंद्रादित्य भी कहते थे। सम्राट विक्रमादित्य की बहन का नाम मैनावती था तथा उनके भाई भर्तृहरि महाराज थे। इनकी मां का नाम सौम्यदर्शना था।

महाराजा विक्रमादित्य के जन्म को लेकर अलग – अलग इतिहासकारों की अलग- अलग मान्यताएं हैं। कुछ इतिहासकारों द्वारा माना जाता है कि उनका जन्म 102 ई पू के आस पास हुआ था। महेसरा सूरी नामक एक जैनी साधू के अनुसार उज्जैन के एक बहुत बड़े शासक गर्दाभिल्ला ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके एक सन्यासिनी का अपहरण कर लिया था, जिसका नाम सरस्वती था।संयासिनी के भाई ने उस समय के शक शासक से मदद मांगी।

शक शासक ने उसकी मदद की और युद्ध में गर्दाभिल्ला से उस सन्यासिनी को रिहा कराया। और शासक गर्दाभिल्ला को बंदी बना लिया, और उनके साथ दुर्व्यवहार किया और कुछ समय के बाद गर्दाभिल्ला को एक जंगल में छोड़ दिया गया, जहाँ पर वह जंगली जानवरों का शिकार हो गया। राजा VIKRAMADITYA इसी गर्दाभिल्ला के पुत्र थे। अपने पिता के साथ हुए दुर्व्यवहार को देखते हुए राजा विक्रमादित्य ने बदला लेने की ठानी।

शासक गर्दाभिल्ला को युद्ध में पराजित करने के बाद शक शासकों को अपनी शक्ति का अंदाजा हो गया। वो उत्तरी- पश्चिमी भारत में अपना राज्य फैलाने लगे और हिन्दुओं पर अत्याचार करने लगे। शक शासकों की क्रूरता बढती गयी। उधर गर्दाभिल्ला के पुत्र विक्रमादित्य ने अपनी शक्ति को एकत्रित करना शुरू कर दिया और 57 ई. पू. के आस- पास राजा Vikramaditya ने शक शासक को पराजित करके करुर नाम के एक स्थान पर उस शासक का वध कर दिया। इसी समय से अर्थात 57 ई.पू. से महाराजा विक्रमादित्य द्वारा विक्रम संवत् की शुरुआत की गयी।

करूर वर्तमान के मुल्तान और लोनी के आस- पास का इलाका है। कई ज्योतिषी और आम लोगों ने इस घटना पर महाराजा को शकारि की ऊपधि दी और यही से विक्रमी संवत की शुरुआत हुई।

विक्रमादित्य

महाराज विक्रमादित्य की 5 पत्नियां भी थी जिनका नाम मलावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिलमहादेवी था। कहा जाता है कि महाराजा विक्रमादित्य की महारानी का नाम “देवी दीपला” था। जो उनकी पांचों पत्नियों में से किसी एक का अन्य नाम था। परन्तु यह नाम किसका था, इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं मिलती है। महाराजा विक्रमादित्य की महारानी “देवी दीपला” उनकी जीवनसंगिनी थीं और उन्होंने VIKRAMADITYA अर्थात अपने पति के शासनकाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी सहायता और समर्थन के बिना, विक्रमादित्य के साम्राज्य का विकास और प्रगति संभव नहीं थी। देवी दीपला उज्जैन की रानी के रूप में भी जानी जाती हैं।

महाराज के 2 पुत्र विक्रम चरित और विनय पाल थे। उनकी दो पुत्रियां विधोत्तमा (प्रियगुंमजंरी) तथा वसुंधरा थी। परन्तु कही-कही इनके पुत्र का नाम देवभक्त भी बताया जाता है। जो आगे चलकर सम्राट देवभक्त के नाम से इनका उत्तरवर्ती सम्राट बनता है। सम्राट विक्रमादित्य के एक भांजा था जिसका नाम गोपीचंद था। तथा उनके प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है।

महाराज विक्रमादित्य के राज में राजपुरोहित त्रिविक्रम तथा वसुमित्र थे तथा उनके सेनापति विक्रम शक्ति तथा चंद्र थे। महाराज विक्रमादित्य ने शको को परास्त किया था। उन्होंने अपनी जीत के साथ ही हिंदू विक्रम संवत की शुरुआत की थी तथा नौ रत्नों की शुरुआत भी महाराज विक्रमादित्य द्वारा ही की गई। जिसको तुर्क राजा अकबर ने भी अपनाया था।

महाराज विक्रमादित्य अपनी जनता के कष्ट और हाल जानने के लिए छद्मवेष धारण कर नगर भ्रमण के लिए जाते थे। वे अपने राज्य में न्याय व्यवस्था कायम रखने के लिए हर संभव प्रयास करते थे। राजा vikramaditya सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय तथा न्याय प्रिय के रूप में जाने जाते हैं।

राजा विक्रमादित्य की कहानी

महाराजा विक्रमादित्य की कहानी भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है। वह वाकाटक वंश के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली महाराजा थे। उनका शासनकाल 4वीं शताब्दी के आसपास माना जाता है।

राजा विक्रमादित्य के जीवन में कई महत्त्वपूर्ण घटनाएं हुईं। उन्होंने सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। विक्रमादित्य ने अपने शासनकाल में विजयों की बहुत सारी घोषणाएं की और अपने साम्राज्य के क्षेत्र को विस्तारित किया। उन्होंने न्यायपालिका को सुदृढ़ किया, व्यापार और वाणिज्य को प्रोत्साहित किया और साहित्य, कला, विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रगति की।

विक्रमादित्य की एक प्रसिद्ध कथा है “विक्रमादित्य और बेताल”। जो भारतीय लोककथा और कथासाहित्य में प्रसिद्ध है। इस कथा के माध्यम से महाराजा विक्रमादित्य की महिमा, प्रजा सेवा का महत्त्व और बुद्धिमान नीतिवचनों का संदेश दिया जाता है।

कथा के अनुसार, महाराजा Vikramaditya को एक बेताल नामक आत्मा से बातचीत करने की चुनौती दी जाती है। यह बेताल मृत्यु से जुड़े रहस्यों का ज्ञान रखता है। जब विक्रमादित्य उसके पास पहुँचते है और उसको पकड़कर अपने कंधे पर बैठा लेते है। इस प्रकार जब वह वेताल को अपने राज्य में ले कर आते है तो हर बार वह विक्रमादित्य को एक कहानी सुनाता है, जिसके अंत में उस कहानी से जुड़ा एक प्रश्न पूछता है। उस प्रश्न के अंतर्गत उनको न्याय पूर्ण उत्तर देना होता है।

महाराज विक्रमादित्य उसके प्रश्नों का न्यायपूर्ण उत्तर देते हैं, परन्तु Vikramaditya से अपने सवालों का उत्तर सुनाने के बाद यह कहते हुए कि महाराज आपने बिलकुल सही न्याय से परिपूर्ण उत्तर दिया है, बेताल विक्रमादित्य के पास से वापस उसी पेड़ पर चला जाता है।

यह कथा विभिन्न कहानियों को संयोजित करती है, जिनमें विक्रमादित्य की साहसिकता, बुद्धिमानी और धैर्य का प्रदर्शन किया जाता है। विक्रमादित्य हमेशा न्याय का पालन करते है और बेताल के प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करते है।

महाराजा विक्रमादित्य के बारे में पौराणिक मान्यताएं

भविष्यत् पुराण की मान्यताओं के आधार पर भगवान शिव ने विक्रमादित्य को पृथ्वी पर भेजा था। शिव की पत्नी पार्वती ने बेताल को उनकी रक्षा के लिए और उनके सलाहकार के रूप में भेजा। बैताल की कहानियों को सुनकर राजा ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया, उस यज्ञ के बाद उस घोड़े को विचरने के लिए छोड़ दिया गया,

जहाँ जहाँ वह घोड़ा गया राजा का राज्य वहाँ तक फ़ैल गया। पश्चिम में सिन्धु नदी, उत्तर में बद्रीनाथ, पूर्व में कपिल और दक्षिण मे रामेश्वरम तक इस राजा का राज्य फ़ैल गया। राजा ने उस समय के चार अग्निवंशी राजाओं की राजकुमारियों से विवाह कर अपने राज्य को और मजबूत कर लिया। राजा विक्रमादित्य द्वारा स्थापित राज्य में कुल 18 राज्य थे। vikramaditya की इस सफलता पर सभी सूर्यवंशी खुश थे और चंद्रवंशी राज्यों में कोई ख़ुशी नहीं थी। इसके बाद राजा ने स्वर्ग का रुख किया।

ऐसा माना जाता है कि राजा Vikramaditya कलियुग के आरम्भ में कैलाश की ओर से पृथ्वी पर आये थे। उन्होंने महान साधुओं का एक दल बनाया जो पुराण और उप पुराण का पाठ किया करते थे। इन साधुओं में गोरखनाथ, भर्तृहरि, लोमहर्सन, सौनाका आदि प्रमुख थे।

महाराजा विक्रमादित्य ने अपने पराक्रम से लोगों की रक्षा भी की और साथ ही सदा धर्म स्थापना के कार्य में लगे रहे। जिसके कारण वह एक लोकप्रिय राजा के रूप में प्रसिद्ध हुए। साथ ही साथ अपने न्याय के लिए भी जाने जाते थे। और एक न्याय प्रिय राजा के रूप में भी प्रसिद्ध हुए।

महाराजा विक्रमादित्य

विक्रमादित्य से जुडी कुछ जैन रचनाएँ (किवदंतियां)

जैन लेखकों के कई रचनाओं में विक्रमादित्य के बारे में किंवदंतियाँ हैं, इन रचनाओं में शामिल हैं- 

  • प्रभाचंद्र की प्रभावक चरिता (1127 सीई)
  • सोमप्रभा का कुमार-पाल-प्रतिबोध (1184)
  • कालकाचार्य-कथा (1279 से पहले)
  • मेरुतुंगा का प्रबंध-चिंतामणि (1304)
  • जिनप्रभासूरि का विविध-तीर्थ-कल्प (1315)
  • राजशेखर का प्रबंध-कोश (1348)
  • देवमूर्ति का विक्रम-चरित्र (1418)
  • रामचंद्रसूरि का पंच-डंडा-छत्र-प्रबंध (1433)
  • सुभाषिला का विक्रम-चरित्र (1442)
  • पट्टावली (प्रमुख भिक्षुओं की सूची)

महाराजा विक्रमादित्य और शनिदेव का टकराव

कर्नाटक राज्य के यक्षगान में शनिदेव और विक्रमादित्य की कहानी को अक्सर प्रस्तुत किया जाता है। इस कहानी के अनुसार, विक्रम नवरात्रि का पर्व बड़े धूम-धाम के साथ मना रहे थे और इस पर्व के दौरान प्रतिदिन एक ग्रह पर वाद-विवाद चल रहा था। अंतिम दिन की बहस शनिदेव के बारे में थी। ब्राह्मण ने पृथ्वी पर धर्म को बनाए रखने में शनि की भूमिका तथा शनि की शक्तियों सहित उनकी महानता की व्याख्या की।

ब्राह्मण ने ये भी कहा कि Vikramaditya की जन्म कुंडली के अनुसार उनके बारहवें घर में शनि का प्रवेश है, जिसको खराब माना जाता है। परन्तु Vikramaditya संतुष्ट नहीं थे। Vikramaditya शनि को महज लोककंटक के रूप में बताया, जिन्होंने उनके पिता (सूर्य), गुरु (बृहस्पति) को कष्ट दिया था। इसलिए उन्होंने कहा कि वे शनि को पूजा के योग्य मानने के लिए तैयार नहीं हैं।

Vikramaditya को अपनी शक्तियों पर, विशेष रूप से अपने देवी मां का कृपा पात्र होने पर बहुत गर्व था। जब उन्होंने नवरात्रि समारोह की सभा के सामने शनि की पूजा को अस्वीकृत कर दिया, तो शनि भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने Vikramaditya को चुनौती दी कि वे विक्रम को अपनी पूजा करने के लिए बाध्य कर देंगे। इतना कहकर वे आकाश में अंतर्ध्यान हो गए।

जैसे ही शनिदेव आकाश में अंतर्धान हो गए, Vikramaditya ने कहा कि यह उनकी खुशकिस्मती है और किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए उनके पास सबका आशीर्वाद है। Vikramaditya ने निष्कर्ष निकाला कि हो सकता है कि ब्राह्मण ने उनकी कुंडली के बारे में जो बताया था वह सच हो। परन्तु वे शनि की महानता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।

Vikramaditya ने निश्चयपूर्वक कहा कि “जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा और जो कुछ नहीं होना है, वह नहीं होगा” और उन्होंने कहा कि वे शनिदेव की चुनौती को स्वीकार करते हैं।

एक दिन एक घोड़े बेचने वाला उनके महल में आया और कहा कि Vikramaditya के राज्य में उसका घोड़ा खरीदने वाला कोई नहीं है। घोड़े में अद्भुत विशेषताएं थीं – जो एक छलांग में आसमान पर, तो दूसरे में धरती पर पहुंचता था। इस प्रकार कोई भी धरती पर उड़ कर आसमान में घुड़सवारी कर सकता है। Vikramaditya को उस पर विश्वास नहीं हुआ, इसीलिए उन्होंने कहा कि घोड़े की क़ीमत चुकाने से पहले वे सवारी करके देखेंगे।

विक्रेता इसके लिए मान गया और vikramditya घोड़े पर बैठे और घोड़े को दौडाया। विक्रेता के कत्थनानुसार अनुसार, घोड़ा उन्हें आसमान में ले तो गया। और दूसरी छलांग में घोड़े को धरती पर आना था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय उसने विक्रमादित्य को कुछ दूर चलाया और जंगल में फेंक दिया।

Vikramaditya घायल हो गए और वापसी का रास्ता ढूंढ़ने का प्रयास करने लगे। उन्होंने कहा कि यह सब उनका नसीब है, इसके अलावा और कुछ नहीं हो सकता। वे घोड़े के विक्रेता के रूप में शनि को पहचानने में असफल रहे। जब वे जंगल में रास्ता ढ़ूढ़ने की कोशिश कर रहे थे, डाकुओं के एक समूह ने उन पर हमला किया। उन्होंने उनके सारे गहने लूट लिए और उन्हें खूब पीटा।

Vikramaditya तब भी हालत से विचलित नहीं हुए और कहने लगे कि डाकुओं ने सिर्फ़ उनका मुकुट ही तो लिया है, उनका सिर तो नहीं। चलते-चलते वे पानी के लिए एक नदी के किनारे पहुंचे। ज़मीन की फिसलन ने उन्हें पानी में पहुंचाया और तेज़ बहाव ने उन्हें काफ़ी दूर घसीटा। किसी तरह धीरे-धीरे Vikramaditya एक नगर पहुंचे और भूखे ही एक पेड़ के नीचे बैठ गए।

जिस पेड़ के नीचे विक्रम बैठे हुए थे, ठीक उसके सामने एक कंजूस दुकानदार की दुकान थी। जिस दिन से Vikramaditya उस पेड़ के नीचे बैठे, उस दिन से दुकान में बिक्री बहुत बढ़ गई। लालच में दुकानदार ने सोचा कि दुकान के बाहर इस व्यक्ति के होने से इतने अधिक पैसों की कमाई होती है और उसने Vikramaditya को घर पर आमंत्रित करने और भोजन देने का निर्णय लिया।

बिक्री में लंबे समय तक वृद्धि की आशा में, उसने अपनी पुत्री को Vikramaditya के साथ शादी करने के लिए कहा। भोजन के बाद जब Vikramaditya कमरे में सो रहे थे, तब पुत्री ने कमरे में प्रवेश किया। वह बिस्तर के पास विक्रम के जागने की प्रतीक्षा करने लगी। धीरे- धीरे उसे भी नींद आने लगी। उसने अपने गहने उतार दिए और उन्हें एक बत्तख के चित्र के साथ लगी कील पर लटका दिया। इसके पश्चात वह भी वही सो गई।

जब विक्रमादित्य की नींद खुली तब उन्होंने देखा कि चित्र का बत्तख उसके गहने निगल रहा है। जब वे अपने द्वारा देखे गए दृश्य को याद कर ही रहे थे कि दुकानदार की पुत्री जग गई और देखती है कि उसके गहने गायब हैं। उसने अपने पिता को बुलाया और कहा कि वह (Vikramaditya) चोर है।

इसके पश्चात Vikramaditya को वहां के राजा के पास ले जाया गया। राजा ने निर्णय लिया कि विक्रम के हाथ और पैर काट कर उन्हें रेगिस्तान में छोड़ दिया जाए। जब Vikramaditya रेगिस्तान में चलने में असमर्थ और ख़ून से लथपथ हो गए, तभी उज्जैन में अपने मायके से ससुराल लौट रही एक महिला ने उन्हें देखा और पहचान लिया। उसने उनकी हालत के बारे में पूछताछ की और बताया कि उज्जैनवासी उनकी घुड़सवारी के बाद गायब हो जाने से काफी चिंतित हैं।

वह अपने ससुराल वालों से उन्हें अपने घर में जगह देने का अनुरोध करती है और वे उन्हें अपने घर में रख लेते हैं। उसके परिवार वाले श्रमिक वर्ग के थे। Vikramaditya उनसे कुछ काम मांगते हैं। वे कहते हैं कि वे खेतों में निगरानी करेंगे और हांक लगाएंगे ताकि बैल अनाज को अलग करते हुए चक्कर लगाएं। वे हमेशा के लिए केवल मेहमान बन कर ही नहीं रहना चाहते हैं।

एक शाम जब Vikramaditya काम कर रहे थे, हवा से मोमबत्ती बुझ जाती है। वे दीपक राग गाते हैं और मोमबत्ती जलाते हैं। इससे सारे नगर की मोमबत्तियां जल उठती हैं – नगर की राजकुमारी ने प्रतिज्ञा कि थी कि वे ऐसे व्यक्ति से विवाह करेंगी जो दीपक राग गाकर मोमबत्ती जला सकेगा। वह संगीत के स्रोत के रूप में उस विकलांग आदमी को देख कर चकित हो जाती है, लेकिन फिर भी उसी से शादी करने का फैसला करती है।

राजा जब विक्रम को देखते हैं तो याद करके आग-बबूला हो जाते हैं कि पहले उन पर चोरी का आरोप था और अब वह उनकी बेटी से विवाह के प्रयास में है। वे Vikramaditya का सिर काटने के लिए अपनी तलवार निकाल लेते हैं। उस समय विक्रम अनुभव करते हैं कि उनके साथ यह सब शनि की शक्तियों के कारण हो रहा है। अपनी मौत से पहले वे शनि से प्रार्थना करते हैं। वे अपनी ग़लतियों को स्वीकार करते हैं और सहमति जताते हैं कि उनमें अपनी हैसियत की वजह से काफ़ी घमंड था।

शनिदेव प्रकट होते हैं और उन्हें उनके गहने, हाथ, पैर और सब कुछ वापस लौटाते हैं। Vikramaditya शनिदेव से अनुरोध करते हैं कि जैसी पीड़ा उन्होंने सही है, वैसी पीड़ा सामान्य जन को ना दें। वे कहते हैं कि उन जैसा मजबूत इन्सान भले ही पीड़ा सह ले, पर सामान्य लोग सहन करने में सक्षम नहीं होंगे। शनिदेव उनकी बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि वे ऐसा कतई नहीं करेंगे।

राजा अपने सम्राट को पहचान कर, उनके समक्ष समर्पण करते हैं और अपनी पुत्री की शादी उनसे कराने के लिए सहमत हो जाते हैं। उसी समय, दुकानदार दौड़ कर महल पहुंचता है और कहता है कि बतख ने अपने मुंह से गहने वापस उगल दिए हैं। वह भी राजा को अपनी बेटी सौंपता है। विक्रम उज्जैन लौट आते हैं और शनिदेव के आशीर्वाद से महान सम्राट के रूप में जीवन व्यतीत करते हैं।

महाराजा विक्रमादित्य का वंश

उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य का वंश “वाकाटक” (Vakataka) वंश के अंतर्गत था। महाराजा विक्रमादित्य को वाकाटक वंश का सबसे प्रसिद्ध और प्रमुख महाराजा माना जाता है। वाकाटक वंश का स्थानांतरण दक्षिणी भारत में हुआ था और यह गुप्त साम्राज्य के उपनिवेशित प्रदेशों में सिद्ध हुआ। हालाँकि कही-कही इनको परमार वंश का भी बताया जाता है।

वाकाटक वंश के समय में उज्जैन के चारों ओर का क्षेत्र महत्त्वपूर्ण था और महाराजा vikramaditya ने इस क्षेत्र का समृद्ध और प्रगतिशील विकास किया। उन्होंने अपने साम्राज्य को विस्तारित किया और वाकाटक वंश को एक प्रभावशाली और सम्पूर्ण शासकीय शक्ति बनाया। महाराजा विक्रमादित्य के प्रमुख कार्यों में राजनीतिक संधियों की स्थापना, धार्मिक सम्प्रदायों के समरसता को स्थापित करना और कला, साहित्य, विज्ञान, और संगणकीय विकास का प्रोत्साहन शामिल था।

वाकाटक वंश के शासनकाल में उज्जैन महानगर एक प्रमुख सांस्कृतिक, शैक्षिक, और वाणिज्यिक केंद्र बना।

महाराजा विक्रमादित्य का राज्य विस्तार

विक्रमादित्य के शासन काल का नक्शा देख कर ही उनके शासन काल की भव्यता का अंदाजा लगा सकते हैं। महाराज विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्त कराने अत्याचारी राजाओं से मुक्ति दिलाने के लिए एक वृहत अभियान चलाया था। महाराज ने अपनी सेना का पुनर्गठन किया जिससे उनकी सेना विश्व की शक्तिशाली सेना बन गई थी। जिससे उन्होंने भारत में चारों तरफ अभियान चलाकर विदेशी शासकों तथा अत्याचारी राजाओं से मुक्त करवाया था और एक छत्र शासन कायम किया। सम्राट विक्रमादित्य का वर्णन भविष्य पुराण तथा स्कंद पुराण में भी मिलता है। 

आज का पूरा भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्की, अफ्रीका, अरब, नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया, श्रीलंका, चीन और रोम तक राजा vikramaditya का राज्य फैला हुआ था। उन्होंने रोम के राजा और शक राजाओं को मिलाकर 95 देश जीते। लोकतंत्र की शुरुआत राजा विक्रमादित्य ने ही किया था। परमार वंश के राजपूत राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में सेनापति प्रजा खुद चुनती थी। विक्रमादित्य ने खुद को राजा नही बल्कि प्रजा का सेवक घोषित कर रखा था।

महाराजा विक्रमादित्य

पहला शक राजा मास था उसने ईशा की सदी से पूर्व गांधार को जीत लिया था। उसके बाद एजेस नाम का राजा ने गद्दी संभाली और उसने शक के राज्य को आगे बढ़ाकर पंजाब तक कर दिया। शक राजा गवर्नर प्रणाली से राज्य चलाते थे। इन्हीं शक राजाओं से प्रेरित गवर्नर “क्षत्रप” कहलाते थे। इन गवर्नरों ने तकशीला से मथुरा तक राज्य किया है, ये शक लोग विंधयाचल पार करके दक्षिण की ओर भी गए।

इसीलिए विक्रमादित्य को मालवा और गुजरात के आस पास शकों (क्षत्रापों) से लड़ना पड़ा। विक्रमादित्य ने इनको बुरी तरह हराया। vikramaditya मालव राजपूत जाति से थे जो आज परमार कहलाते हैं। इनका वर्णन हरिवंश पुराण में है इनको चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा जाता था। मालव वंश के लोगों ने महाभारत में कौरवों का साथ दिया था।

अभी भी कुछ मल्ल वंशी क्षत्रिय नेपाल की तराई में रहते हैं। विक्रमादित्य ने शकों, हूणो को मारकर अरब तक खदेड़ दिया और शकारी की उपाधि ग्रहण की। vikramaditya ने अरब में मक्केश्वर महादेव की स्थापना की। अरब साहित्य और अरब इतिहास में इसका वर्णन है। हालंकि मुस्लिम शासकों ने बहुत जगह से उनका वर्णन हटा दिया है। ऐसा कहा जाता है कि ‘अरब’ का वास्तविक नाम ‘अरबस्थान’ है। ‘अरबस्थान’ शब्द आया संस्कृत शब्द ‘अटवस्थान’ से, जिसका अर्थ होता है ‘घोड़ों की भूमि, और जैसा कि हम सब जानते है कि ‘अरब’ घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है। विक्रमादित्य ने तत्कालीन रोमन सम्राट को बंदी बना लिया था।

महाराज विक्रमादित्य ने शकों को पराजित किया। उनके पराक्रम को देखकर उन्हें महान सम्राट कहा गया। तथा उनके नाम की उपाधि भारतवर्ष में कुल 14 राजाओं को दी गई। चक्रवर्ती सम्राट महाराज vikramaditya के नाम की उपाधि बाद में भारत में कई राजाओं को प्राप्त थी। जिनमें गुप्त वंश के सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय तथा सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। महाराज विक्रमादित्य का नाम विक्रम तथा आदित्य समास से बना हुआ है। जिसका अर्थ है पराक्रमी अथवा सूर्य के समान पराक्रम रखने वाला। महाराज विक्रमादित्य को विक्रम तथा विक्रमार्क ( विक्रम+अर्क) भी कहा जाता है जिसमें अर्क का अर्थ सूर्य होता है।

भारत में महाराज विक्रमादित्य का नाम पश्चिम के सीजर के नाम से भी प्रख्यात था। जिसे विजय वैभव तथा साम्राज्य का प्रतीक माना जाता है।

विक्रमादित्य का शासन

  • विक्रमादित्य का शासन अरब तक था और रोमन के सम्राट से उनकी प्रतिद्वंद्धा चलती थी। विक्रमादित्य ने रोम के शासक जूलियस सीजर को हराया था।
  • जूलियस सीजर ने विक्रम सम्वत का प्रचलन रोक दिया था और येरुशलम, मिस्त्र और अरब पर आक्रमण कर दिया था।
  • रोमन ने अपनी इस हार को छुपाने के लिए इस घटना को इतिहास में बहुत घुमा फिरा कर प्रस्तुत किया जिसमे रोमानो ने बताया की जल दस्यु ने सीजर का अपहरण कर लिया और बाद में जूलियस सीजर अपनी वीरता से वापस आने में सफल हुआ।
विक्रमादित्य
  • रोमानों ने विक्रम संवत की नकल करके नया रोमन कैलेंडर भी बनाया जिसको ईसाइयों ने यीशु के जन्म के बाद अपना लिया। जिसे हम आज ईसा पूर्व और ईसा बाद मानते हैं।
  • विक्रमादित्य के समय में अरब में यमन, इराक आसुरी, ईरान में पारस्य और भारत में आर्य सभ्यता के लोग रहते थे। यह असुर शब्द असुरी से बना है और जो इराक के पास सीरिया है वह भी असुरिया से प्रेरित है।
  • विक्रमादित्य के काल में विश्व भर में शिवलिंगों का जीर्णो उद्धार किया गया। कर्क रेखा पर निर्मित ज्योतिर्लिंग में प्रमुख थे गुजरात का सोमनाथ, उज्जैन का महाकालेश्वर और काशी में विश्वनाथ मन्दिर।
  • विक्रमादित्य ने कर्क रेखा के आस पास 108 शिवलिंगों का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य ने ही नेपाल के पशुपतिनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ मंदिरो को फिर से बनवाया। इसके लिए उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों, खगोल वैज्ञानिक और वास्तुविदो से भरपूर मदत ली थी।
  • बौद्ध, मुगल, अंग्रेज आदि के द्वारा नष्ट करने के बाद भी भारत की संस्कृति के प्रमाण अन्य,अन्य भाषाओं और प्राचीन जगहों पर मिल जाते है। हालंकि मुगलों और अंग्रेजो ने हमारी संस्कृति का 80% से भी ज्यादा प्रमाण नष्ट कर दिया था।

विक्रमादित्य द्वारा सेना का गठन

राजा विक्रमादित्य ने अपनी भूमि को विदेशी राजाओं से मुक्त कराने के लिए एक सेना का गठन किया उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई थी जिसने सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर विदेशी और अत्याचारी राजाओं से अपनी भूमि को मुक्त करा कर एकक्षेत्र शासन को कायम किया।

महाकवि कालिदास की पुस्तक ज्योतिर्विदभरण के अनुसार उनके पास 30 मिलियन सैनिकों, 100 मिलियन विभिन्न वाहनों, 25 हजार हाथी और 400 हजार समुद्री जहाजों की एक सेना थी। कहा जाता हैं कि उन्होंने ही विश्‍व में सर्व प्रथम 1700 मील की विश्व की सबसे लंबी सड़क बनाई थी जिसके चलते विश्व व्यापार सुगम हो चला था।

Maharaja Vikramditya

विक्रम संवत की शुरुआत

57 ई.पू. मे विक्रमसेन (vikramaditya) ने शकों को हरा कर विक्रम संवत की शुरुआत की। विक्रमसेन (vikramaditya) ने पुरे भारत के राजाओ को एकत्रित करके अखंड भारत का निर्माण किया। अखंड भारत के राजा होनेे की वजह से उनका नाम विक्रमसेन से विक्रमादित्य रख दिया गया। परन्तु कलिंग ने महाराजा विक्रमादित्य के अधीन होने से मना कर दिया। जिसकी वजह से एक भयंकर युद्ध हो गया इस युद्ध में महाराजा विक्रमादित्य की जीत हुई और इस जीत के पश्चात उन्होंने कलिंग की राजकुमारी “कलिंगसेना” से विवाह कर लिया। नौ रत्नों की परम्परा सम्राट विक्रमादित्य से ही शुरू हुई थी। इन्होने अपने दरबार में नौ विद्वानों का एक समूह रखा था जिसको नौरत्न की संज्ञा दी गई थी।

महाराजा विक्रमादित्य के नवरत्न (नौरत्न)

राजा विक्रमादित्य के दरबार में नौ बहुत महान विद्वान् थे, जो कि धन्वन्तरी, क्षपंका, अमर्सिम्हा, शंखु, खाताकर्पारा, कालिदास, भट्टी, वररुचि, वराहमिहिर थे। ये सभी अपने अपने क्षेत्र के महान विद्वान् थे। वराहमिहिर आयुर्वेद के महान ज्ञाता थे, कालिदास महान कवि, वररुचि वैदिक ग्रंथों के ज्ञाता, भट्टी राज्नीत्विद थे।

नौरत्नो की शुरुआत महाराज vikramaditya ने ही की थी। भारतीय परंपरा के अनुसार उनके नवरत्न धन्वंतरि, क्षपणक, अमर सिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, वेतालभट्ट (बेतालभट्ट), वररुचि और वराहमिहिर थे।

महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राज कवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी माने जाते हैं। जिन्होंने महाराज विक्रमादित्य के बेटे की मौत की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी तथा वराहमिहिर ने ही विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया था। जिसे मुगलों के आक्रमण के बाद क़ुतुब मीनार में बदल दिया गया था। वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे और यह माना जाता है कि उन्होंने ही सम्राट विक्रमादित्य को सोलह छन्दों (नीति प्रदीप) आचरण का श्रेय दिया था।

मध्य प्रदेश के उज्जैन महानगर के महाकाल मंदिर के पास ही सम्राट विक्रमादित्य टीला है। यहां पर विक्रमादित्य के नवरत्नों की मूर्तियां विक्रमादित्य संग्रहालय में स्थापित की गई है।

धन्वन्तरि

महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक धन्वंतरि वैद्य तथा औषध विज्ञानी थे। उनके लिखे नो ग्रंथ पाए जाते हैं जो सभी आयुर्वेदिक शास्त्र से संबंधित थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी धन्वंतरी से उपमा दी जाती है।

धन्वन्तरि

क्षपणक

सम्राट विक्रम सभा के द्वितीय नवरत्न क्षपणक को कहा गया है यह बौद्ध सन्यासी थे। उन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें इस समय भिक्षाट्टन तथा नानार्थकोष ही उपलब्ध बताए जाते हैं।

क्षणपक

अमर सिंह

इनको कोष (डिक्शनरी) का जनक माना जाता है। इन्होंने शब्दकोश बनाया था तथा साथ ही शब्द ध्वनि पर कार्य किया। यह प्रकाण्ड विद्वान थे। बोधगया में एक मंदिर से प्राप्त शिलालेख के आधार पर पता चलता है कि इस मंदिर का निर्माण इन्होंने ही करवाया था। इनके अनेक ग्रंथों में से एक मात्र ग्रंथ अमरकोश ऐसा है कि इसके आधार पर उनका यश अखंड है। संस्कृत विद्वानों के अनुसार अष्टाध्यायी पंडितों की माता तथा अमरकोश पंडितों का पिता कहा गया है। यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान पंडित बन जाता है।

अमर सिंह

शकुं

शकुं नीति शास्त्र का ज्ञान रखते थे अर्थात यह नीति शास्त्री तथा रसाचार्य थे। उनका पूरा नाम शड्कुक हैं। इनका एक काव्य ग्रंथ भुवनाभ्युदयम बहुत प्रसिद्ध रहा है। लेकिन वह आज भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है।

शकुं

वैतालभट्ट 

वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। और यह माना जाता है कि उन्होंने ही सम्राट vikramaditya को  सोलह छन्दों (नीति प्रदीप) आचरण का श्रेय दिया था। या युद्ध कौशल में भी महारथी थे। ये हमेशा सम्राट विक्रमादित्य के साथ ही रहे। तथा सीमवर्ती सुरक्षा के कारण इन्हें द्वारपाल भी कहा गया। विक्रम तथा बेताल की कहानी लोकप्रियता तथा जगत प्रसिद्ध है। वेताल पंचविशंति के रचीयता यही है। किंतु इनका नाम अभी सुनने को नहीं मिलता।

वैतालभट्ट

घटकर्पर

जितने भी लोग संस्कृत जानते हैं वह सब जानते हैं कि घटकर्पर किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। उनका वास्तविक नाम यह नहीं है। इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो भी विद्वान इनको अनुप्रास तथा यमक में पराजित कर देगा यह उनके घर फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तभी से इनका नाम घटकर्पर (घटखर्पर) प्रसिद्ध हो गया किंतु इनका वास्तविक नाम अभी तक लुप्त है। इनकी रचना का नाम भी घटकर्पर काव्यम हीं है। उनका एक अन्य ग्रंथ नीतिसार के नाम से भी प्रसिद्ध है।

घटकर्पर

कालिदास

महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राज कवि थे। कालिदास जी महाराज Vikramaditya के प्राण प्रिय कवि थे। कालिदास जी की कहानी अत्यंत रोचक है कहा जाता है कि इनको विद्या मां काली की कृपा से प्राप्त हुई। सबसे इनका नाम कालिदास पड़ गया। व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था। परंतु इनकी प्रतिभा को देखकर अपवाद रूप में कालिदास ही रखा गया। जैसे विश्वामित्र को उसी रूप में रखा गया हैं। कालिदास जी के चार काव्य तथा तीन नाटक प्रसिद्ध है। शकुंतलम उनकी अनंतमय कृति मानी जाती है।

कालिदास

वराहमिहिर 

वराहमिहिर उस युग के  प्रमुख ज्योतिषी माने जाते हैं। जिन्होंने महाराज विक्रमादित्य के बेटे की मौत की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी। तथा वराहमिहिर ने ही विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया था। जिसे मुगलों के आक्रमण के बाद  क़ुतुब मीनार में बदल दिया गया था।वराहमिहिर ने ही काल गणना, हवाओं की दिशा, पशुधन प्रवृत्ति, वृक्षों से भूजल का आकलन आदि की खोज की। उन्होंने अनेक ग्रंथ लिखे जिनमें से बृहज्जातक, सुर्यसिद्धांत, बृहस्पति संहिता, पंचसिद्धान्ती, मुख्य हैं। गणक,तरिन्गणी,लघु जातक, समास संहिता, विवाह पटल, योग यात्रा आदि का भी इनके नाम से उल्लेख मिलता है।

वराहमिहिर

वररुचि 

यह कवि तथा व्याकरण के ज्ञाता थे। इनको शास्त्रीय संगीत का ज्ञान प्राप्त था। कालिदास जी की भांति ही इन्हें भी काव्यकर्ताओं में से एक माना जाता है। उनके नाम पर मतभेद है क्योंकि उनके नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं।

वररुचि

राजा विक्रमादित्य की गौरव गाथाएं

राजा विक्रमादित्य की गाथाएं संस्कृत के साथ कई अन्य भाषाओँ की कहानियों में भी देखने मिलते हैं. उनके नाम कई महागाथाओं और कई ऐतिहासिक मीनारों में देखने मिलते हैं, जिनका ऐतिहासिक विवरण तक नहीं मिल पाता है। इन कहानियों मे विक्रम बैताल और सिहासन बत्तीसी की कहानियाँ अति रोचक महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक है। इन काहनियो में कहीं कहीं अलौकिक घटनाएँ भी देखने मिलती हैं। इसके अलावा बृहतकथा में भी महाराजा विक्रमादित्य के गौरव गाथाएं संगृहीत हैं इन घटनों पर हालाँकि 21 वीं सदी में विश्वास करना कुछ नामुमकिन सा लगता है,  लेकिन इन कहानियों का मूल सरोकार न्याय की स्थापना से था। बैताल पच्चीसी में कुल 25 कहानियाँ हैं और सिंहासन बत्तीसी में कुल बत्तीस न्यायपूर्ण कहानियां हैं।

बृहत्कथा

बृहतकथाओं में इनकी काफ़ी गौरव गाथाएं संगृहीत हैं. ये दसवीं से बारहवीं सदी के बीच रचित ग्रन्थ है। इसमें प्रथम महान गाथा विक्रमादित्य और परिष्ठाना के राजा के बीच की दुश्मनी की है। इसमें राजा विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन की जगह पाटलिपुत्र दी गयी है। एक कथा के अनुसार vikramaditya बहुत ही न्यायप्रिय राजा थे।

उनकी न्यायप्रियता और अन्य करने की बुद्धि से स्वर्ग के राजा इंद्र ने उन्हें स्वर्ग बुलाया था। उन्होंने अपनी एक न्याय प्रणाली में राजा विक्रमादित्य से राय ली थी। स्वर्ग के राजा इन्द्र ने उन्हें स्वर्ग में हो रही एक सभा में भेजा, वहाँ पर दो अप्सराओं के बीच नृत्य की प्रतियोगिता थी। ये दो अप्सराएँ थीं रम्भा और उर्वशी। भगवन इंद्र ने राजा vikramaditya से पूछा कि उन्हें कौन सी अप्सरा बेहतर नर्तकी लगती है? राजा को एक तरकीब सूझी उन्होंने दोनों अप्साराओं के हाथ में एक –एक फूल का गुच्छा दिया और उसपर एक एक बिच्छु भी रख दिया।

राजा ने दोनों नर्तकियों को कहा कि नृत्य के दौरान ये फूल के गुच्छे यूँ ही खड़े रहने चाहिए। रम्भा ने जैसे ही नाचना शुरू किया उसे बिच्छु ने काट लिया। रम्भा ने फूल का गुच्छा हाथ से फेंक कर नाचना बंद कर दिया। वहीँ दूसरी तरफ़ जब उर्वशी ने नाचना शुरू किया तो वह बहुत ही अच्छी तरह अति सुन्दर मुद्राओं में नाची। फूल पर रखे बिच्छु को कोई तकलीफ नहीं हो रही थी, जो बहुत आराम से सो गया और उर्वशी को बिच्छु का डंक नहीं सहना पड़ा।

राजा विक्रमादित्य ने कहा कि उर्वशी ही बहुत काबिल और रम्भा से बेहतर नर्तकी है। न्याय की इस बुद्धि और विवेकशीलता को देख कर भगवान् इंद्र उनसे बहुत ही प्रसन्न और आश्चर्यचकित हुए।

उन्होंने राजा विक्रमादित्य को 32 बोलने वाली मूर्तियाँ भेंट की। ये मुर्तिया अभिशप्त थीं और इनका शाप किसी चक्रवर्ती राजा के न्याय से ही कट सकता था। इन 32 मूर्तियों के अपने नाम थे। इनके नाम क्रमशः रत्नमंजरी, चित्रलेखा, चन्द्रकला, कामकंदला, लीलावती, रविभामा, कौमुधे, पुष्पवती, मधुमालती, प्रभावती, त्रिलोचना, पद्मावती, कीत्रिमती, सुनैना, सुन्दरवती सत्यवती, विध्यति, तारावती, रूप रेखा, ज्ञानवती, चन्द्रज्योति, अनुरोधवती, धर्मवती, करुणावती, त्रिनेत्र, मृगनयनी, वैदेही, मानवती, जयलक्ष्मी, कौशल्या, रानी रूपवती थे। इन प्रतिमाओं की सुन्दरता का वर्णन समस्त ब्रम्हाण्ड में विख्यात था।

सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी की कहानियों का कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलता है परन्तु ऐसा कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर 32 पुतलियां लगी हुई थीं, जो राजा भोज को एक एक करके 32 कहानियां सुनती है। यही कहानियां सिंहासन बत्तीसी की कहानी के रूप में प्रसिद्ध हो गयी।

राजा भोज और सिंहासन बत्तीसी

राजा भोज को यह सिंहासन कैसे प्राप्त हुआ ? इसके पीछे बहुत सी कथाये प्रचलित है उनमे से एक कथा के अनुसार – उज्जैन के किसी गाँव में कुछ चरवाहे लड़के अपने पशुओं को गाँव के बाहार थोड़ी दूरी पर स्थित एक चारागाह में चराने के लिए जाया करते थे। उसी चारागाह में एक ऊँची सी जगह थी। एक लड़का रोज उस ऊँचे से टीले पर बैठ जाता था। उस पर बैठते ही उसके अन्दर कोई अद्भुत शक्ति आ जाती थी। जिसके कारण उसकी बुद्धि काफी तीव्र हो जाती थी, और उसके अन्दर न्याय करने की क्षमता विकसित हो जाती थी।

सभी लड़के अपनी समस्या लेकर के उस लड़के के पास आते थे। लड़का उनकी समस्याओ का बहुत ही न्याय पूर्ण तरीके से समाधान कर देता था। परन्तु उस टीले से उतरने के बाद उस लड़के की वह न्याय करने की क्षमता समाप्त हो जाती थी। और वह सामान्य हो जाता था। इस प्रकार यह बात पूरे गांव में फ़ैल गयी और गांव के लोग भी उससे न्याय कराने के लिए उस जगह पर आने लगे। यह बात धीरे धीरे पूरे राज्य में फ़ैल गयी ।

उस समय राजा भोज का राज्य था। जब उनको यह बात पता चली तो उन्होंने स्वयं आकर उस जगह का निरिक्षण किया। वहां आकर उन्होंने उस टीले को देखा। उस टीले को देखने के बाद उन्होंने अनुमान लगाया कि इसके निचे जरुर कोई ऐसी वास्तु है जिसके कारण इस पर बैठने से उस लड़के के अन्दर अद्भुत शक्ति आ जाती है। इसका पता लगाने के लिए उन्होंने उसको खुदवाने का आदेश दे दिया। जब उस जगह की खुदाई की गयी तब वहां से एक अद्भुत सिंहासन निकला। उस सिंहासन को साफ किया गया। वह सिंहासन अद्भुत और दिव्य था। जिसमे 32 रत्न जडित मुर्तिया लगी हुई थी।

राजा भोज ने उस सिंहासन को अपने राज्य में ले आने का आदेश दिया। परन्तु वह सिंहासन अपनी जगह से हिला ही नहीं। फिर कुछ विद्वानों ने बताया कि वह सिंहासन महाराजा विक्रमादित्य का है जो देवराज इंद्र ने दिया था। इसके पश्चात उस सिंहासन की पूजा अर्चना की गयी । फिर उस सिंहासन को राजा भोज अपने राज्य में लाने में सफल हुए। उन्होंने निश्चय किया कि वह भी उस सिंहासन पर बैठ कर न्याय करेंगे और अपना राज्य चलाएंगे।

जब राजा भोज सिंहासन पर बैठने जाते है तब एक पुतली उनको रोकते हुए कहती है की आप को इस पर बैठने से पहले उसके एक सवाल का जवाव देना होगा। फिर वह एक कहानी सुनती है जिसके अंत में वह राजा भोज से एक न्यायपूर्ण सवाल करती है जिसका जवाब राजा भोज देते है। फिर वह पुतली कहती है कि आपने अच्छा न्याय किया और सही जवाव दिया इतना कहकर वह पुतली उड़ जाती है।

इसके पश्चात जब राजा भोज सिंहासन पर फिर से बैठने जाते है तब दूसरी मूर्ति (पुतली) पुनः रोकते हुए एक कहानी सुनती है इस प्रकार वह मूर्तियाँ राजा भोज से अलग- अलग कहानियाँ सुनाकर सवाल करती हैं और राजा भोज को सिंहासन पर बैठने से रोकती हैं। राजा इस तरह बत्तीस कहानियों से निकले सवालों का जवाब देते है। हर पुतली महाराज विक्रमादित्य की दानवीरता और फैसले लेने के कौशल से जुड़े किस्से राजाभोज को सुनाकर उड़ जाती हैं। और आखिरी पुतली जब कहानी सुनाकर उडती है तो वह अपने साथ उस सिंहासन को भी लेकर उड़ जाती है।

सिंहासन की अप्सरा

इस प्रकार से सिंहासन पुनः स्वर्ग में देवराज इंद्र के दरबार में चला जाता है। परन्तु राजा भोज उन कहानियों से काफी कुछ सिख जाते है। और महाराजा विक्रमादित्य के गुणों को अपनाते हुए उनके जैसे ही एक न्याय प्रिय और लोक प्रिय राजा बनकर अपने राज्य को चलाने लगते है।

बैताल पच्चीसी

बैताल पच्चीसी में एक बैताल की कहानी है। एक साधू राजा विक्रमादित्य को उस बैताल को बिना एक शब्द कहे पेड़ से उतार कर लाने को कहता है। राजा उस बैताल की तलाश में जाते हैं और उसे ढूंढ भी लेते हैं।

विक्रम और वेताल

बैताल रास्ते में हर बार एक कहानी सुनाता है और उस कहानी के बीच से एक न्यायपूर्ण सवाल पूछता है, साथ ही विक्रम को ये श्राप देता है कि जवाब जानते हुए भी न बताने पर उसका सर फट जाएगा। विक्रमादित्य न चाहते हुए भी उसके सवाल का जवाब देते हैं। साधू का विक्रम द्वारा एक शब्द भी न कह कर विक्रम को लाने का प्रण टूट जाता है, और बैताल वापिस उसी पेड़ पर रहने चल जाता है। इस तरह से इस माध्यम से पच्चीस कहानियाँ वहाँ पर मौजूद हैं। जिनको बेताल पच्चीसी कहा जाता है ।

महाराजा विक्रमादित्य का सिंहासन

माहाराज विक्रमादित्य के सिंहासन के बारे में कहा जाता है कि यह कोई साधारण सिंहासन नहीं था देवराज इंद्र ने महाराज विक्रमादित्य के कौशल तथा अंतर्दृष्टि को देखते हुए स्वयं vikramaditya को भेंट स्वरूप प्रदान किया था। कथाओं में कहा जाता है कि यह सिंहासन भगवान शिव का था जिसको इन्होंने देवराज इंद्र को दे दिया था।

महाराजा विक्रमादित्य का सिंघासन

सिंहासन अति भव्य था तथा उसके कदमों पर सुंदर 32 मूर्तियां लगी हुई थी जो सजीव होने का आभास दिलाती थी। यह मूर्तियां देवी पार्वती की अप्सराएँ थी जो एक श्राप के कारण सिंहासन की मूर्तियों में बदल गई थी। यह शुद्ध सोने से बना हुआ था तथा इसके सभी भाग रत्नों से सजाए गए थे। उज्जैन के विद्वानों ने महाराज विक्रमादित्य की मौत के पश्चात उनके बराबर का योग्य के राजा न होने के कारण इसे दफनाने का फैसला लिया। कहते हैं कि सिंहासन में लगी 32 मूर्तियां हर कार्य में महाराज vikramaditya की सहायता करती थी।

सिंहासन में लगी 32 मूर्तियों के नाम है –

  • 1.रत्नमंजरी,
  • 2. चित्रलेखा,
  • 3.चन्द्रकला,
  • 4.कामकंदला,
  • 5 लीलावती,
  • 6.रविभामा,
  • 7 कौमुदी,
  • 8. पुष्पवती,
  • 9. मधुमालती,
  • 10. प्रभावती,
  • 11. त्रिलोचना,
  • 12. पद्मावती,
  • 13. कीर्तिमती,
  • 14सुनयना,
  • 15.सुन्दरवती,
  • 16.सत्यवती,
  • 17.विद्यावती,
  • 18 तारावती,
  • 19. रुपरेखा,
  • 20.ज्ञानवती,
  • 21. चन्द्रज्योति,
  • 22 अनुरोधवती
  • 23. धर्मवती,
  • 24. करुणावती,
  • 25.त्रिनेत्री,
  • 26. मृगनयनी,
  • 27.मलयवती,
  • 28.वैदेही,
  • 29.मानवती,
  • 30.जयलक्ष्मी,
  • 31.कौशल्या,
  • 32. रानी रुपवती

कुछ जगहों पर यह नाम अलग भी हो सकते है । इस सिंहासन के बारे में कहा जाता है कि जब राजा भोज इस सिंहासन पर बैठने लगे तो ये बत्तीस पुतलियाँ उनका उपहास करने लगीं और हंसने लगी। इस पर जब राजा भोज ने उन पुतलियों के हंसने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि इस सिंहासन पर वही बैठ सकता है जो सम्राट विक्रमादित्य के समान महादानी, त्यागी, निस्वार्थी, पराक्रमी और न्यायप्रिय राजा हो। और सभी पुतालियाँ एक- एक करके महाराज की कथा सुनाने लगीं। ये कहानियां आज भी सिंहासन बत्तीसी के रूप में प्रसिद्ध हैं। सिंहासन बत्तीसी 32 कहानियों का संग्रह है जिसमें पुतलियां महाराज के गुणों का वर्णन करती है।

राजा विक्रमादित्य का सिंहासन कहां है?

यह सिंहासन उनकी राजधानी उज्जैन (वर्तमान मध्यप्रदेश, भारत) में स्थित है। इस जगह की सिंहासन बत्तीसी नाम से जाना जाता है। कहते है कि यही वह जगह है जहा पर विक्रमादित्य का सिंहासन मिला था। उज्जैन गुप्त साम्राज्य के समय में भी एक प्रमुख नगरी थी। यह उज्जैन का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। यहा पर राजा विक्रमादित्य जी का छोटा सा मंदिर बना हुआ है।

मंदिर के पीछे राजा विक्रमादित्य की बहुत बड़ी मूर्ति देखने के लिए मिलती है। यह मूर्ति 30 फीट ऊंची है। यहां पर नीचे 32 पुतलियों की मूर्ति भी बनी हुई है। हर मूर्ति के निचे उस मूर्ति की कहानी लिखी हुई मिलती है। इसके अलावा उनके दरबार के नवरत्न की मुर्तिया भी स्थापित की गयी है।

विक्रमादित्य का सिंहासन यही एक बड़े से तालाब के बीच में है। वहा तक जाने के लिए पुल बना हुआ है। इस तालाब को रूद्र सागर तालाब के नाम से जाना जाता है। यह तालाब बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। विक्रमादित्य का टीला यही एक बड़े से मंच के ऊपर बनाया गया है। विक्रमादित्य टीला के मंच को गोलाई में बनाया गया है। इस मंच के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है। मंच के नीचे सीढ़ियों के पास काल भैरव जी की प्रतिमा को स्थापित किया गया हैं। काल भैरव की प्रतिमा के सामने उनके वाहक स्वान (कुत्ते) की मूर्ति बनी हुई है। मंच के ऊपर राजा विक्रमादित्य जी की छोटा सा मंदिर है।

यह जगह अत्यंत ही मनोरम लगती है। मुंसिपल कारपोरेशन के द्वारा इस जगह को बहुत ही भव्य तरीके से बनाया गया है। सिंहासन बत्तीसी महाकाल मंदिर के पास ही में है। महाराजा विक्रमादित्य की यहां पर बहुत सारी कहानियां लिखी गई है। यहां पर विक्रम बेताल की कहानी भी लिखी हुई मिल जाएगी। यह 32 पुतलियां मंच के चारों तरफ बनी हुई है। और मंच की दीवारों में राजा विक्रमादित्य और उनके मंत्रियों, राजा विक्रमादित्य की विजय यात्रा, प्रजाजनो में विक्रमादित्य, हाथियों, पुरानी मुद्राओं इन सभी के चित्र बने हुए हैं, जो अत्यंत ही मनोहर लगते हैं।

राजा विक्रमादित्य का महल

राजा विक्रमादित्य का महल उज्जैन, मध्यप्रदेश, भारत में स्थित है। यह महल उज्जैन किले के भीतर स्थित है, जिसे उज्जैन के महाराजा संग्रहालय के रूप में भी जाना जाता है।

उज्जैन किला में राजा Vikramaditya का महल एक प्रमुख भव्य भवन है जो उनके शासनकाल में निर्मित हुआ था। यह महल राजा के आदेश पर बनाया गया था और उसकी शानदार वास्तुकला को प्रशंसा करता है। यह महल भव्य शिलापतिक और कलात्मक विस्तार के साथ निर्मित किया गया है और उज्जैन के ऐतिहासिक महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है।

राजा विक्रमादित्य के महल में विभिन्न कक्ष, मंच, मंदिर, छज्जे और आवासीय सुविधाएं होती थीं। इसके अलावा, वहां सुंदर उद्यान और बगीचे भी थे। यह महल उज्जैन के साम्राज्यिक और सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक है और पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध है।

महाराजा विक्रमादित्य की मृत्यु

महाराजा विक्रमादित्य की मृत्यु से सम्बंधित सटीक जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराज को दैवीय और अलौकिक शक्तियां प्राप्त थी। और इन्होने अपनी इन शक्तियों के बल से यह आभास कर लिया था की इनकी मृत्यु कब होगी। ऐसा कहा जाता है की उन्होने 18 ई. को अपना शारीर त्याग दिया था। हालाँकि कुछ जगहों पर उनकी मृत्यु तिथि 15 ई. बताई जाती है। उनकी मृत्य से सम्बंधित कहानी इस प्रकार है-

सम्राट विक्रमादित्य की मृत्यु के बारे में इक्कतीस वी पुतली कौशल्या ने बताया। जब सम्राट विक्रमादित्य वृद्धावस्था में आ गए थे तो उन्होंने अपने योग बल से यह जान लिया था कि उनका अंतिम समय अब निकट है। महाराज vikramaditya राज कार्य तथा धर्म में स्वयं को लगाए रखते थे और उन्होंने वन में साधना के लिए एक कुटिया बनाई थी। एक दिन उन्होंने देखा की कुटिया में सामने वाले पहाड़ से प्रकाश आ रहा है इस प्रकाश के बीच उनको एक सुंदर महल दिखाई दिया।

महाराज को भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने मां काली द्वारा प्रदत दो बेतालो का स्मरण किया। उनके आदेश पर दोनों बेताल उनको पहाड़ी पर ले आए। तथा उन्होंने कहा कि हम इससे आगे नहीं जा सकते कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि एक योगी महात्मा ने इस महल के चारों ओर तंत्र शक्ति का घेरा बनाया हुआ है और इस भवन में उनका निवास है। तथा इस भवन में वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उन योगी से अधिक हो।

वास्तविकता जानने के पश्चात सम्राट विक्रमादित्य ने महल की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए वह जानना चाहते थे कि उनका पुण्य उन योगी से अधिक है या नहीं। चलते-चलते वह उस भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए तथा एकाएक उनके पास एक अग्नि पिंड आया और वहां पर स्थिर हो गया तथा महल के अंदर से एक आज्ञा भरा स्वर आया। उसके बाद वह अग्नि पिंड चलता हुआ महल के पीछे चला गया तथा दरवाजा साफ हो गया जब वह अंदर गए तो वही आवाज उनसे उनका परिचय पूछने लगी। तथा उस आवाज ने कहा कि वह सब कुछ साफ-साफ बताएं वरना वे अपने श्राप से आने वाले को भस्म कर देंगे।

महाराज विक्रमादित्य तब तक एक कक्ष में पहुंच चुके थे। उनको देखकर वहां एक योगी खड़े हुए। जब महाराज विक्रमादित्य ने बताया कि वे उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य है तो योगी ने कहा कि वे स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं। उनको आशा नहीं थी कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे। योगी ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। तथा महाराज vikramaditya से कुछ मांगने को कहा तब महाराज विक्रमादित्य ने तमाम सुख-सुविधाओं से सहित यह भवन मांगा। वे योगी खुशी-खुशी यह भवन महाराज विक्रमादित्य को सौंपकर उसी वन में कहीं चले गए। काफी दूर चलने के पश्चात उन योगी को उनके गुरु मिले।

जब उनके गुरु ने उनसे इस तरह वन में भटकने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि वे उस भवन को महाराज Vikramaditya को भेंट कर चुके हैं। यह सुनकर उनके गुरु को हंसी आ गई उन्होंने कहा कि इस पृथ्वी के सबसे दानवीर व्यक्ति को वह क्या दान करेंगे।

उन्होंने योगी से कहा कि वह ब्राह्मण रूप में जाकर विक्रमादित्य से उस भवन को मांग ले। तब योगी ने ब्राह्मण का वेश बनाकर विक्रमादित्य के पास उस कुटिया में गए। तथा रहने के लिए आश्रय प्रदान करने की मांग की। तब महाराज विक्रमादित्य ने कहा कि वे अपनी इच्छा अनुसार रहने की जगह मांग सकते हैं तब उन्होंने उस महल को मांगा तो महाराज विक्रमादित्य मुस्कुरा उठे। उन्होंने कहा कि उन्होंने वह महल जो का तो वहीं छोड़ कर आ गए थे।

मै तो बस उनकी परीक्षा लेना चाहते थे। इक्कतीस वी पुतली ने बताया कि महाराज विक्रमादित्य देवताओं के समान गुणों वाले थे। लेकिन उन्होंने मृत्यु लोक में जन्म लिया था तो था वह मानव थे इसलिए उन्होंने एक दिन अपनी देह त्याग कर दिया। उनकी मृत्यु के पश्चात प्रजा में हाहाकार मच गया चारों ओर विलाप होने लगा जब उनकी चिता सजाई गई। तब देवताओं ने उनकी चिता पर पुष्प वर्षा की।

महाराज विक्रमादित्य के पश्चात उनके बड़े पुत्र को राजगद्दी दी गई लेकिन वह उस सिंहासन पर बैठ नहीं सका उसको समझ नहीं आया कि वह क्यों इस सिंहासन पर नहीं बैठ पा रहा है। फिर एक दिन स्वय महाराज vikramaditya उसके सपने में आए और कहा कि तुम इस सिंहासन पर तभी बैठ सकोगे जब तुम देवत्व को प्राप्त कर लोगे। और जब तुम अपने पुण्य तथा यश से इस सिंहासन पर बैठने लायक हो जाओगे तो मैं स्वयं तुम्हारे सपने में आकर तुम्हें बता दूंगा।

लेकिन महाराज विक्रमादित्य उनके सपने में नहीं आए तब उज्जैन के विद्वानों ने महाराज विक्रमादित्य की मौत के पश्चात उनके बराबर का योग्य राजा न होने के कारण इसे दफनाने का फैसला लिया। महाराज विक्रमादित्य ने सपने में आकर फिर कहां कि कालांतर में अगर कोई सर्वगुण संपन्न राजा होगा तो यह सिंहासन स्वयं ही उसके अधीन हो जाएगा। उनके पुत्र ने महाराज विक्रमादित्य की आज्ञा के अनुसार मजदूरों को बुलाकर सिंहासन को जमीन में गढ़वा दिया तथा स्वयं खंभावती में राज करने लगे।

महाराज विक्रमादित्य के महत्वपूर्ण तथ्य

  • विक्रम संवत अनुसार अवंतिका (उज्जैन) के महाराजाधिराज राजा विक्रमादित्य आज से (2021 से) 2292 वर्ष पूर्व हुए थे।
  • विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था।
  • उनकी पांच पत्नियां थी, मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी।
  • विक्रामादित्य के दरबार में नवरत्न रहते थे।
  • महाराजा विक्रमादित्य ने ही विक्रम संवत की शुरुआत की उन्होंने 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत की नीव रखी।
  • विक्रमादित्य पहले ऐसे राजा थे जिनके दरबार में नवरत्न सुशोभित हुए। महाराजा vikramaditya के बाद ही राजाओं ने नवरत्न को दरबार में रखने की परंपरा शुरू की जिसके बाद कृष्णदेव राय और अकबर ने अपने दरबार में नवरत्न रखें।
  • भारत के अलावा कई अरबी देशों ईरान, इराक, नेपाल और अन्य स्थानों पर महाराजा vikramaditya के शासन के साक्ष्य मिलते हैं। अरब के एक कवि ने अपने काव्य ने लिखा है कि हम बहुत ही खुशनसीब हैं जो हमने महाराजा विक्रमादित्य के शासन में अपना जीवन व्यतीत करने का मौका मिला।
  • महाराजा विक्रमादित्य अपनी प्रजाजनों के कुशलता के लिए सदैव समर्पित रहते थे वह अपनी प्रजा के बीच छद्म वेश धारण करके घूमा करते थे और उनके बीच चल रही समस्याओं और उनकी जरूरतों को समझा करते थे।
  • महाराजा vikramaditya अत्यंत न्याय प्रिय राजा थे उन्होंने अपनी नया प्रियता से ही महाराजा इंद्र को प्रभावित कर दिया था। जिसके पश्चात इंद्र ने उन्हें स्वर्ग के लिए आमंत्रित किया था। इंद्र ने उन्हें 32 बोलने वाली मूर्तियां भी भेंट स्वरूप दी थी।
  • कई धार्मिक ग्रंथों में कहा जाता है कि महाराजा vikramaditya को भगवान शिव ने पृथ्वी पर भेजा था और महारानी पार्वती ने बेताल को विक्रमादित्य की रक्षा करने के लिए उनके साथ भेजा था।
  • राजा विक्रमादित्य ने गुरु गोरक्षनाथ से अपनी शिक्षा ग्रहण की थी। राजा vikramaditya श्री गुरु गोरक्षनाथ जी से गुरु दीक्षा लेकर राजपाट संभालने लगे, और आज उन्हीं के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है और हमारी संस्कृति बची हुई है।

विक्रमादित्य वंश

महाराजा विक्रमादित्य वाकाटक वंश के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली महाराजा थे। कही-कही इनको परमार वंश का भी बताया जाता है। उनका शासनकाल लगभग 4वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास माना जाता है। vikramaditya को धर्म, शिक्षा, कला, साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए प्रसिद्ध किया जाता है। उनके शासनकाल में उज्जैन का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बना और वहां कला, संस्कृति, विज्ञान, औद्योगिक विकास और आर्थिक सुविधाओं में विशेष प्रगति हुई। कही कही इनको विक्रमादित्य परमार के नाम से भी जाना जाता है।

विक्रमादित्य की प्रमुख विजयों में से कुछ हैं:

  1. आरब सागर की विजय: विक्रमादित्य ने आरब सागर के क्षेत्र में विजय प्राप्त की थी और वहां अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। इससे उनकी सत्ता और प्रभाव में मजबूती हुई।
  2. दक्षिण भारत में विजय: विक्रमादित्य ने दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में विजय प्राप्त की थी। उन्होंने द्रविड़, आंध्र और कर्नाटक क्षेत्रों को अपने आधीन किया था।

इसके अलावा भी इन्होने अनेक जगहों पर विजय प्राप्त की और अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

वाकाटक वंश के शासनकाल में उज्जैन महानगर एक प्रमुख सांस्कृतिक, शैक्षिक, और वाणिज्यिक केंद्र बना।

महाराजा विक्रमादित्य की उपाधि इतिहास में कई महाराजाओं को दिया गया है। परन्तु कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गुप्त वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ही महाराजा विक्रमादित्य हैं क्योंकि इनका शासन और कार्य पद्धति काफी हद तक महाराजा विक्रमादित्य के शासन और कार्य पद्धति से मिलता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी विक्रमादित्य की उपाधि धारण किया था तथा इनके दरबार में भी महाराजा विक्रमादित्य की ही भांति 9 रत्न विराजमान थे।

विक्रमादित्य द्वितीय – (चंद्रगुप्त II): चन्द्रगुप्त II (चन्द्रगुप्त द्वितीय) विक्रमादित्य नाम से भी जाने जाते हैं। इनका शासन काल 380 ईस्वी से 415 ईस्वी तक था। इन्होंने गुप्त साम्राज्य को विस्तारित किया और अपनी महत्त्वपूर्ण विजयों के लिए प्रसिद्ध हुए।


इन्हें भी देखे

3 thoughts on “महाराजा विक्रमादित्य | एक महान सम्राट का गौरवमयी इतिहास | 101ई.पू.-19ईस्वी”

  1. अति सुन्दर कथा, महान थे सम्राट विक्रमादित्य। ।

    Reply

Leave a Comment

Table of Contents

Contents
सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.