आधुनिक अर्थशास्त्र में मुद्रा (Money) को एक केंद्रीय भूमिका प्रदान की गई है। पहले के अर्थशास्त्री प्रायः मुद्रा को एक तटस्थ तत्व के रूप में देखते थे जो केवल विनिमय का माध्यम है, किंतु आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार मुद्रा मात्र माध्यम नहीं है, बल्कि वह समग्र अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला एक सक्रिय तत्व है। मुद्रा की अस्थिरता ही आधुनिक मुद्रा-सिद्धांत का प्रारंभ बिंदु है, और यही अस्थिरता आर्थिक असंतुलन, बेरोजगारी, उत्पादन में गिरावट, मूल्य अस्थिरता आदि के मूल कारणों में एक है।
मुद्रा की स्वाभाविक अस्थिरता
परंपरागत मुद्रा सिद्धांतों में यह मान लिया गया था कि मुद्रा अपने आप में स्थिर होती है और अर्थव्यवस्था में कोई विकार तभी उत्पन्न होता है जब बाह्य कारक उसे प्रभावित करते हैं। किंतु आधुनिक अर्थशास्त्री इस धारणा से सहमत नहीं हैं। वे मानते हैं कि मुद्रा स्वाभाविक रूप से अस्थिर होती है और इसकी यह अस्थिरता ही अर्थव्यवस्था को संतुलन से बाहर ले जाती है। आज के मौद्रिक विश्लेषणों में व्यापार, रोजगार, आय, कीमतों आदि से संबंधित समस्याओं पर विशेष बल दिया जाता है, क्योंकि ये समस्याएँ मुख्यतः मुद्रा की भूमिका से जुड़ी होती हैं, जो कीमतों के माध्यम से क्रियाशील होती है।
आधुनिक मुद्रा सिद्धांत की उत्पत्ति: केन्स का योगदान
आधुनिक मुद्रा सिद्धांत की आधारशिला 1936 में लॉर्ड जॉन मेनार्ड केन्स (J. M. Keynes) द्वारा लिखित प्रसिद्ध पुस्तक “The General Theory of Employment, Interest and Money” से रखी गई। इस युगांतरकारी ग्रंथ ने न केवल मौद्रिक सिद्धांत को बल्कि पूरे समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics) को एक नई दिशा दी। केन्स के अनुसार, जब सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था मुद्रा पर निर्भर होती है, तो मौद्रिक अस्थिरता का प्रभाव भी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
उन्होंने अल्पकालीन असंतुलन को विशेष महत्त्व दिया और यह स्पष्ट किया कि यदि अल्पकालीन समस्याओं की उपेक्षा की गई, तो अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में आ सकती है। उनका यह भी मत था कि दीर्घकालिक संतुलन की बात करना व्यर्थ है, यदि अल्पकाल में समाज बेरोजगारी, उत्पादन गिरावट और माँग की कमी से ग्रस्त है।
प्रभावकारी माँग और समष्टि व्यय का महत्व
केन्स ने “प्रभावकारी माँग” (Effective Demand) और “कुल व्यय” (Aggregate Spending) की अवधारणाओं को प्रमुखता दी। उनके अनुसार, यदि कुल व्यय में कमी आती है, तो यह न केवल कीमतों को गिराती है, बल्कि उत्पादन और रोजगार में भी गिरावट लाती है। इसके विपरीत, यदि कुल व्यय में वृद्धि होती है और यह उत्पादन की अधिकतम क्षमता से ऊपर चला जाता है, तो यह कीमतों को बढ़ाता है और रोजगार में अस्थायी वृद्धि करता है।
इस प्रकार मुद्रा या मौद्रिक नीति अथवा कोई अन्य कारक, जो कुल व्यय को प्रभावित करता है, वह न केवल कीमतों बल्कि उत्पादन और रोजगार पर भी असर डालता है। अतः, केन्स का यह स्पष्ट मत था कि मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव व्यय के आकार और बचत-निवेश संतुलन पर पड़ता है, जो अंततः कीमतों, आय और अन्य आर्थिक तत्वों को प्रभावित करता है।
मुद्रा की भूमिका: तटस्थ या सक्रिय?
केन्स ने यह सिद्ध किया कि जब तक अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार की स्थिति में नहीं होती, तब तक मुद्रा कोई तटस्थ तत्व नहीं है। उसकी पूर्ति में वृद्धि ब्याज दर को घटाकर निवेश को प्रोत्साहित करती है, जिससे उत्पादन और रोजगार बढ़ता है। उन्होंने मुद्रा की तटस्थता को केवल दो स्थितियों में मान्यता दी:
- पूर्ण रोजगार की स्थिति: इस स्थिति में यदि मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि की जाती है, तो इससे केवल कीमतें बढ़ती हैं जबकि उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं होता।
- तरलता जाल (Liquidity Trap): इस स्थिति में ब्याज दर पहले से ही इतनी कम होती है कि मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाने से उसमें और गिरावट संभव नहीं होती। परिणामस्वरूप, निवेश और आय जैसे वास्तविक चर प्रभावित नहीं होते, और अतिरिक्त मुद्रा निष्क्रिय हो जाती है।
मुद्रावादी दृष्टिकोण (Monetarism): एक वैकल्पिक विचारधारा
केन्स के विचारों के विरुद्ध एक नवीन विचारधारा का उद्भव हुआ जिसे ‘मुद्रावाद’ (Monetarism) कहा जाता है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक मिल्टन फ्रिडमैन (Milton Friedman) और शिकागो स्कूल के अन्य विद्वान हैं, जिनमें करल ब्रुनर, एलन मेल्टज़र, फिलिप केगन, डॉन पैटिंकिंस, डेविड लैंड, ऐनी श्वार्ट्ज, एल एंडरसन तथा के. कार्लसन प्रमुख हैं।
इन विद्वानों के अनुसार मुद्रा एक परिसंपत्ति है जिसकी माँग व्यक्ति के धन-संचय की प्रवृत्ति पर आधारित होती है। वे मानते हैं कि मुद्रा की मात्रा (Stock of Money) का राष्ट्रीय आय तथा कीमतों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। मुद्रावादी विचारधारा में यह माना जाता है कि समस्त आर्थिक उतार-चढ़ाव मौद्रिक घटनाओं का ही परिणाम होते हैं।
मुद्रावादी अर्थशास्त्रियों का यह भी मत है कि कीमतों में वृद्धि अथवा गिरावट मुख्यतः मुद्रा की आपूर्ति में हुए परिवर्तनों की वजह से होती है। अतः, उनके अनुसार, यदि मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित रखा जाए, तो मूल्य स्थिरता और आर्थिक स्थायित्व संभव है। वे मौद्रिक नीति को आर्थिक नीति का प्रमुख औजार मानते हैं।
मुद्रा की उपयोगिता और सीमाएँ
हालाँकि मुद्रा एक शक्तिशाली आर्थिक उपकरण है, फिर भी इसे सर्वशक्तिमान मानना यथोचित नहीं होगा। न तो इसे महत्वहीन मानना उचित है और न ही यह मान लेना चाहिए कि केवल मौद्रिक साधनों से सभी आर्थिक समस्याओं का समाधान हो सकता है। वास्तव में, जब तक वास्तविक संसाधनों — जैसे भूमि, श्रम, पूंजी, प्रौद्योगिकी आदि — की पर्याप्त उपलब्धता और उपयोग नहीं होता, तब तक केवल मुद्रा के माध्यम से उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता।
उदाहरण के लिए, यदि किसी अर्थव्यवस्था में कच्चे माल की कमी हो, कुशल श्रमिकों का अभाव हो या तकनीकी विकास न हुआ हो, तो चाहे जितनी मुद्रा छापी जाए, उससे उत्पादन में वृद्धि नहीं होगी। इसलिए, मुद्रा तभी उपयोगी है जब उसका प्रयोग योजनाबद्ध और संतुलित तरीके से किया जाए।
मौद्रिक नीति की भूमिका
मौद्रिक नीति किसी भी देश की आर्थिक रणनीति का अभिन्न हिस्सा होती है। यह मुद्रा की आपूर्ति, ब्याज दर, और ऋण उपलब्धता को नियंत्रित करके समष्टि आर्थिक उद्देश्यों जैसे आर्थिक विकास, मूल्य स्थिरता, और पूर्ण रोजगार को प्राप्त करने का प्रयास करती है। आधुनिक अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि एक सशक्त और लचीली मौद्रिक नीति के बिना किसी भी अर्थव्यवस्था को स्थायित्व और समृद्धि नहीं मिल सकती।
किंतु यह भी ध्यान देने योग्य है कि मौद्रिक नीति का प्रभाव तत्काल नहीं होता और यह प्रायः समय अंतराल के बाद ही दिखता है। साथ ही, इसका प्रभाव वास्तविक क्षेत्रों पर पड़ता है जैसे उत्पादन, निवेश और रोजगार।
एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता
अंततः यह कहना समीचीन होगा कि आधुनिक मुद्रा सिद्धांत ने अर्थशास्त्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है। इसने यह सिद्ध कर दिया कि मुद्रा मात्र एक निष्क्रिय विनिमय माध्यम नहीं है, बल्कि एक सक्रिय शक्ति है जो आर्थिक संतुलन को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
आज के वैश्विक और जटिल आर्थिक परिदृश्य में यह आवश्यक है कि मुद्रा का उपयोग एक उपकरण के रूप में हो, न कि साध्य के रूप में। जब मुद्रा को नियंत्रित, अनुशासित और विवेकपूर्ण रूप में नियोजित किया जाता है, तभी यह समृद्धि और स्थायित्व ला सकती है।
Monetary Economics – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें –
- मुद्रा: प्रकृति, परिभाषाएँ, कार्य, और विकास | Money: Nature, Definitions, Functions, and Evolution
- मुद्रा एवं सन्निकट मुद्रा | Money and Near Money
- मुद्रा एवं मुद्रा मूल्य | Money and Value of Money
- मुद्रा के प्रकार | Kinds of Money
- मुद्रा की तटस्थता | Neutrality of Money
- मुद्रा की तटस्थता की आलोचना | एक समालोचनात्मक अध्ययन
- मुद्रा भ्रम (Money Illusion) | एक मनोवैज्ञानिक स्थिति का आर्थिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण
- यमन में राजनीतिक बदलाव | सलीम सालेह बिन ब्रिक नए प्रधानमंत्री नियुक्त
- 2025 में विश्व की शीर्ष 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ | एक विस्तृत विश्लेषण
- रामानुजन: जर्नी ऑफ अ ग्रेट मैथमेटिशियन | पुस्तक का विमोचन
- उड़ान योजना के 8 वर्ष | क्षेत्रीय कनेक्टिविटी की उड़ान
- दिल्ली में वरिष्ठ नागरिकों के लिए ‘आयुष्मान वय वंदना योजना’ का शुभारंभ