इस्लाम का महाशक्तिशाली उदय और सार्वजनिक विस्तार

इस्लाम एक एकेश्वरवादी धर्म है, जिसका आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत् का पालक मानना है। इस्लाम धर्म की शिक्षा अल्लाह के द्वारा इंसानों तक पहुंचाई गई अंतिम रसूल और नबी, मुहम्मद द्वारा स्थापित है। इस्लाम शब्द का अर्थ है – ‘अल्लाह को समर्पण’। इस प्रकार, मुसलमान वह है, जिसने अपने आपको अल्लाह को समर्पित कर दिया है और इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा है।

इस्लाम धर्म में अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत् का पालक माना जाता है, और हज़रत मुहम्मद साहब को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर माना जाता है। इस्लाम के ‘कलमे’ में दोहराया जाता है – ‘ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’ अर्थात् ‘अल्लाह एक है, उसके अलावा कोई दूसरा (दूसरी सत्ता) नहीं और मुहम्मद उसके रसूल या पैगम्बर हैं।’ मुसलमान इस क़लमे को पढ़कर किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते हैं। इस्लाम में अल्लाह को कुछ हद तक साकार माना जाता है, जो इस दुनिया से काफ़ी दूर सातवें आसमान पर वास करता है।

इस्लाम

इस्लाम के अनुसार, अल्लाह अभाव (शून्य) में सिर्फ़ ‘कुन’ कहकर ही सृष्टि रचता है। उसकी रचनाओं में आग से बने फ़रिश्ते और मिट्टी से बने मनुष्य सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। इस्लाम धर्म में गुमराह फ़रिश्तों को ‘शैतान’ कहा गया है। मान्यता है कि मनुष्य केवल एक बार दुनिया में जन्म लेता है। मृत्यु के पश्चात्, पुनः वह ईश्वरीय निर्णय (क़यामत) के दिन जाग्रत होता है और अपने कर्मों के अनुसार ‘जन्नत’ (स्वर्ग) या ‘नरक’ को प्राप्त करता है।

‘इस्लाम की शुरुआत से ही उसने सभी विरोधों का सामना किया है और निर्भीकतापूर्वक दूसरों के मिथ्याविश्वासों का खंडन किया है। इस क्रिया के कारण, इस्लाम को उखाड़ने का प्रयास बहुत हुआ है। हालांकि, मुसलमानों और उनके धर्मगुरुओं ने विरोध का सामना करते हुए उन्होंने अद्वितीय दृढ़ता दिखाई है। इस विरोध की दृढ़ता ने इस्लाम को संसार के इतिहास को पलटने में समर्थ बनाया है।

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इस्लाम धर्म कितना पुराना है ?

इस्लाम धर्म की उत्पत्ति 7वीं सदी में हुई थी। सन् 610 ईसवी में मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह को मक्का में वही में खुदा के मैसेंजर के रूप में प्रकट हुए थे। उनके प्रचार और उपदेशों का संग्रह कुरान में किया गया है, जो मान्य मुस्लिम धर्मग्रंथ है। इस्लाम धर्म की उत्पत्ति से लेकर आज तक, यह अपने अनुयायों के द्वारा मान्यता प्राप्त करता आ रहा है। इस्लाम धर्म का संपूर्ण आधार कुरान पर रखा गया है, जिसे उन्हीं के द्वारा प्राप्त किया गया था।

शिया और सुन्नी

इस्लाम धर्म में शिया और सुन्नी दो मुख्य धाराएं हैं जो विशेष धार्मिक और सामाजिक मतभेदों के कारण प्रकट हुई हैं। इन दोनों धाराओं का मूल विवाद है खिलाफत और इस्लामी संप्रदायों के नेताओं के चयन पर।

सुन्नी

सुन्नी मुस्लिम धर्म के अनुयायी अधिकांशतः मुस्लिम समुदायों को संदर्भित करते हैं। वे मानते हैं कि खिलाफत (कलीफ़ात) का अधिकार समय के साथ साथ सभी विश्वासी मुस्लिमों के पास होना चाहिए। उनके अनुसार, प्रमुख आदर्श और नियमों का स्रोत कुरान है, और हदीस (मुहम्मद के उक्तियाँ और कार्यक्षेत्र) भी महत्वपूर्ण है। सुन्नी मुस्लिम लोग जुम्मा (शुक्रवार) नमाज़, रमज़ान उल-मुबारक (माह-ए-रमदान), हज्ज (मक्का की यात्रा), आदि को महत्वपूर्ण मानते हैं।

सुन्नी इस्लाम धर्म की एक मुख्य धारा है जिसके अनुयायी अधिकांशतः मुस्लिम समुदायों को संदर्भित करते हैं। यह धारा प्रमुख आदर्शों, नियमों, और पदार्थों को समर्थन करती है जो इस्लाम के मूलतः स्थापित हुए हैं।

कुरान

सुन्नी मुस्लिम धर्म के अनुयायी मानते हैं कि कुरान अल्लाह की अधिकृत और सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है। वे कुरान को खुदा की वाही और मुहम्मद के माध्यम से उन्हें प्राप्त हुई नयी व्यक्तिगत वाणी मानते हैं। उनके अनुसार, कुरान में एक संपूर्ण और अद्वितीय धर्मीय गाइडलाइन है जो धार्मिक और नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करती है।

हदीस

सुन्नी मुस्लिम धर्म में हदीस का महत्वपूर्ण स्थान है। हदीस मुहम्मद के उक्तियों, कार्यों, और संबंधित घटनाओं का संग्रह है। सुन्नी मुस्लिम धर्म के अनुयायी मानते हैं कि हदीस के माध्यम से मुहम्मद के संदेशों का सही और सटीक विवरण प्राप्त होता है। हदीस को मान्यता प्राप्त करने के लिए, सुन्नी मुस्लिम धर्म के अनुसार, उन्हें सही, प्रामाणिक, और आदर्शवादी होना चाहिए।

खुलफ़ा-ए-राशिदीन

सुन्नी मुस्लिम धर्म में खुलफ़ा-ए-राशिदीन, यानी राष्ट्रपति अथवा धर्माध्यक्ष के नाम से जाने जाने वाले चार खलीफ़े अबू बक्र, उमर, उथमान और अली को महत्वपूर्ण मान्यता प्राप्त है। वे मुहम्मद के बाद के प्रमुख नेताओं थे और सुन्नी मुस्लिम समुदाय में धर्मिक और नैतिक प्रमाण हैं। उन्हें उदाहरण और मार्गदर्शन के रूप में मान्यता प्राप्त होती है और उनके जीवन को अनुसरण करने को प्रेरित किया जाता है।

सुन्नी मुस्लिम धर्म में शरीयत (इस्लामिक कानून), फिक्र (धार्मिक नियमों की शाखा), तौहीद (एकदेववाद), सलात (नमाज), रोज़ा (रोज़ा), जकात (चंदा), और हज्ज (मक्का की यात्रा) जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक अभिप्रेत उपास्यता शामिल होती हैं।

शिया

शिया मुस्लिम धर्म के अनुयायी मानते हैं कि खिलाफत का अधिकार मुहम्मद के द्वारा चुने गए उनके वंशज (आल-ए-बैत) के पास होना चाहिए। वे मानते हैं कि अली इब्न अबी तालिब (मुहम्मद के जीवनसाथी और बेटे-जिगर) को पहले खलीफा के रूप में चुना जाना चाहिए था। उनके अनुसार, कुरान के अलावा, उनकी संप्रदायिक पुस्तकें और उनके आदर्शों का महत्वपूर्ण स्रोत है। शिया मुस्लिम लोग मातम (मोहर्रम) का त्योहार मनाते हैं, जिसमें वे हुसैन इब्न अली की शहादत की याद करते हैं, और उनके आलम, मातम और जुलूस में भाग लेते हैं।

इन दोनों संप्रदायों के अलावा, और भी विभिन्न संप्रदाय और समुदाय इस्लामी धर्म में मौजूद हैं, जो अलग-अलग तारीकों पर धार्मिक और सामाजिक अभिप्रेत रहते हैं। इन संप्रदायों में अंधेरे, बरैलवी, आह्ले हदीस, सलाफी, और दीबंदी जैसे संप्रदाय शामिल हैं, जो अपनी विशेषताओं और आचरणों में भिन्न होते हैं।

शिया इस्लाम

बगदाद में अब्बासी खलीफ़ा की सत्ता तेरहवीं सदी तक बनी रही। ईरान और उसके पड़ोसी क्षेत्रों में अबु इस्लाम के प्रति गहरी श्रद्धा और अब्बासी खलीफ़ा के खिलाफ रोष था। उनकी दृष्टि में अबू इस्लाम ईस्लाम का सच्चा पुजारी था और अली और हुसैन ईस्लाम के सच्चे उत्ताधिकारी थे। इस विश्वास को मानने वालों को शिया कहा जाता था।

इस्लाम का महाशक्तिशाली उदय और सार्वजनिक विस्तार

अली शिया का अर्थ होता है “अली की टोली वाले”। इन लोगों की दृष्टि में अली, हुसैन और अबू ने सच का मार्ग अपनाया और इन्हें शासकों ने बहुत परेशान किया। अबू इस्लाम को इस्लाम के लिए सही खलीफा चुनने के प्रयास के बावजूद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। उनके साथ भी वही हुआ जो अली और इमाम हुसैन के साथ हुआ था। इसलिए इन विचारधारा वाले शिया कई सालों तक अब्बासी शासन के अंतर्गत रहे, जो सुन्नी मुस्लिम थे। उन्हें समय-समय पर प्रताड़ित भी किया गया। बाद में पंद्रहवीं सदी में साफ़ावी शासन की आगमन के बाद, शिया लोगों को इस प्रताड़ना से मुक्ति मिली

इस्लाम का विस्तार

इस्लाम का शानदार उदय सातवीं सदी में अरब प्रायद्वीप में घटित हुआ। इसके महान प्रवीर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने 570 ई. में मक्का में जन्म लिया। लगभग 613 ई. के आसपास ही हजरत मुहम्मद साहब ने लोगों को अपने अद्वितीय ज्ञान का प्रवचन देना आरंभ किया। इस महत्वपूर्ण घटना को इस्लाम का प्रथम आरंभ माना जाता है।

अफ्रीका और यूरोप में इस्लाम

मिस्र में इस्लाम का प्रचार उमय्यदी काल में ही हुआ था। सन् 710 ई. में अरबों ने स्पेन में आक्रमण की योजना बनाई और उनका साम्राज्य धीरे-धीरे स्पेन के उत्तरी भाग में फैल गया। यहां तक कि दसवीं सदी के अंत तक यह स्थिति अब्बासी खिलाफत का अभिन्न अंग बन गयी। उस समय तक सिन्ध भी अरबों के नियंत्रण में आ गया था। सन् 1095 ई. में पोप अर्बान द्वितीय ने धर्मयुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार की और ईसाई लोगों ने स्पेन और पूर्वी क्षेत्रों में मुस्लिमों का सामरिक मुकाबला किया। वे येरूसेलम सहित कई धार्मिक स्थलों को मुस्लिमों के हक से छीन लिया था, लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही उन्हें प्रभुत्व से बाहर निकाल दिया गया।

भारत में इस्लाम का प्रवेश

712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हुआ जब मुहम्मद इब्न कासिम के नेतृत्व में अरब के मुस्लिम शासकों ने सिंध पर हमला किया। इस हमले के परिणामस्वरूप, ब्राह्मण राजा दाहिर को हराकर अरबों ने सिंध क्षेत्र में शासन स्थापित किया। इस घटना ने भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाया, क्योंकि यह पहली बार था जब इस्लाम धर्म के प्रतिष्ठान के पदार्थ भारतीय मैदान में घुस गए।

हालांकि, सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में इतना प्रभावशाली नहीं था। अगले सन् 1176 ई. में, शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने भारत के उत्तरी क्षेत्रों में आक्रमण किया और सिंध से अरबों को हरा दिया। इसके पश्चात्, मुस्लिम शासकों ने अपने सत्ताधारी प्रभाव को देश के अन्य हिस्सों में विस्तारित किया। सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुस्लिम शासकों ने पंजाब क्षेत्र को जीत लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद गजनवी ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह बार हमले किए। इन हमलों में, हिन्दू राजाओं की शक्ति को कुचल दिया गया, लेकिन फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुस्लिम आक्रमण के खिलाफ शक्तिशाली प्रतिरोध किया। उन्होंने इस धर्मीय-राजनीतिक उथल-पुथल के बीच भारतीय सभ्यता और संस्कृति को संरक्षित रखने में सक्षम रहे।

इस प्रकार, इस्लाम का प्रवेश भारतीय मैदान में मुख्य रूप से दो महत्वपूर्ण आक्रमणों के माध्यम से हुआ। पहले, 712 ई. में सिंध पर अरबों का हमला हुआ और इसके बाद वे अपना शासन स्थापित करने में सफल रहे। दूसरे, 1176 ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उत्तरी भारत में आक्रमण किया और सिंध से अरबों को हरा दिया। इसके बाद, मुस्लिम शासकों ने देश के अन्य हिस्सों में आक्रमण किया, लेकिन हिन्दू राजाओं ने मुस्लिम आक्रमण के खिलाफ दृढ़ता से प्रतिरोध किया। इस प्रक्रिया ने भारतीय सभ्यता को मुस्लिम शासनकाल में भी संरक्षित रखने में मदद की।

प्राचीन काल में अरब निवासियों का समाजिक और आर्थिक जीवन

अत्यंत प्राचीन काल में, ‘जदीस’, ‘आद’, ‘समूद’ आदि जातियाँ अरब में निवास करती थीं, जिनके नाम अब नहीं बचे हैं, हालांकि, भारतीय सम्राट हर्षवर्धन के समकालीन व्यक्तित्व हज़रत मुहम्मद साहब के समय ‘क़हतान’, ‘इस्माईल’ और ‘यहूदी’ वंश के लोगों के रूप में अरब में निवास करते थे। प्राचीन काल में, अरब में निवास करने वाले लोग सशिल्पी और कुशल कलाकार माने जाते थे।

हालांकि, ‘नीचैर्गच्छत्युपरि च तथा चक्रनेमिक्रमेण’ के अनुसार, कालान्तर में उनके वंशज अत्यंत अविद्यान्धकार में डूब गए और सभी शिल्पकलाओं को भूल गए, बल्कि ऊँट-बकरी पालन को अपनी मुख्य जीविका के रूप में अपनाया। इसके परिणामस्वरूप, वे एक स्थान से दूसरे स्थान, एक स्रोत से दूसरे स्रोत, हरी चरागाहों की खोज में व्यस्त रहने लगे। वे खेमों में निवास करके अपना समय बिताने लगे, जहां कनखजूरा, गोह, गिरगिट आदि सभी जीवों को भोजन के रूप में उपयोग करते थे। उनकी ऐसी मान्यता बन गयी थी कि मनुष्यों को अर्थात जीवित आदमी को प्रज्ज्वलित अग्नि में डालना या मारना किसी अशुभ कर्म के रूप में नहीं जाना जाता था। इसी क्रम में एक हिन्दू पुत्र को मार दिया गया। जिसके कारण ‘हिन्दू-पुत्र’ अम्रु ने अपने भाई की मौत पर एक के बदले सौ की हत्या करने का वचन लिया था।

इस पाठ के अनुसार, प्राचीन काल में अरब में निवास करने वाले लोगों का सामाजिक और आर्थिक जीवन अविभाज्य रूप से शिल्पकला और कारोबार के साथ जुड़ा हुआ था। हालांकि, समय के साथ, वे अविद्यान्धकार में घिरकर शिल्पकलाओं को भूल गए और गोवंश पालन के लिए व्यस्त हो गए। इस प्रकार, उनकी सभ्यता और कला का अधीनस्थ होना आवश्यकता से अधिक हो गया और वे अपनी जीविका के लिए अन्य स्रोतों की खोज में लगे।

इस्लाम के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब: एक महान व्यक्तित्व की कहानी

इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म 570 ईसा पूर्व सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में हुआ था। वे कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर में जन्मे थे। हज़रत मुहम्मद साहब के जन्म से पहले ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी और उनको जन्म देने के पांच वर्ष पश्चात उनकी माता का भी निधन हो जाता है। उनकी माता की मृत्यु के कारण वे पांच वर्ष की आयु में ही अनाथ हो गए। इसके बाद उन्हें उनके दादा मुत्तलिब और चाचा अबू तालिब ने देखभाल की। जब हज़रत मुहम्मद साहब की उम्र 25 वर्ष हुई तो उन्होंने एक विधवा महिला ख़दीजा से विवाह किया। ख़दीजा एक समृद्ध व्यापारिक महिला थी और उनके साथी और विश्वासी जीवनसाथी बनने के बाद हज़रत मुहम्मद साहब को उनका समर्थन और प्रेरणा मिली।

हज़रत मुहम्मद साहब के जीवन का यह अवधि मक्का में गुजरी, जहां परिवारिक और सामाजिक मान्यताओं का महत्व था। उनके द्वारा व्यापार में सफलता हासिल की गई और वे एक मान्य व्यापारिक व्यक्ति बन गए। इस अवधि में हज़रत मुहम्मद साहब ध्यान और मेधा की प्राप्ति करने के लिए रवाना होते थे और अक्सर वे मक्का के पास वाहीयत स्थलों पर विचारधारा की खोज में जाते थे। यह उनके बादरी गुफा में माइकाट नामक एक पहाड़ी गुफा में बिताए गए अनुभवों ने उनकी आत्मा को नये सिद्धांतों और आध्यात्मिकता की ओर खींच लिया।

इस्लाम का महाशक्तिशाली उदय और सार्वजनिक विस्तार

बचपन से ही मुहम्मद साहब मानवीय संबंधों, न्याय और सच्चाई के महत्व को महसूस करते थे। वे सच्चाई और ईमानदारी के लिए मशहूर थे और ‘अल-अमीन’ यानी ‘विश्वासयोग्य’ के रूप में भी पुकारे जाते थे।

मुहम्मद साहब को बाद में व्यापार में लगाने का अवसर मिला और वे कुछ समय तक व्यापार करने में व्यस्त रहे। बाद में जब वे 40 वर्ष के हो गए, उन्हें आत्मविचार, ध्यान और विचारधारा की खोज में लगने की इच्छा हुई। इसके पश्चात्, वे कई बार हिरा पहाड़ी के गुफाओं में जाकर अकेले चिन्तन करते रहे।

और्वीश्विक इतिहास में उनकी विशेष महत्वपूर्ण घटना हीरा पहाड़ी पर हुई। वहां पर एक दिन, उन्हें देवदूत जिब्रील (गब्रिएल) द्वारा आध्यात्मिक संदेश प्राप्त हुआ कि उन्हें दिए गए संदेशों को मानवता के लिए प्रचारित करना है। यह संदेशों का संकलन और अद्यात्मिक मूल्यों के आधार पर नया धर्म था, जिसे उन्होंने इस्लाम के नाम से जाना जाता है।

इस्लाम धर्म के प्रचार में उन्होंने मूर्ति पूजा और बहुमत सिद्धांत के खिलाफ विरोध किया। यह उनके संदेश को मक्का के पुरोहित वर्ग के खिलाफ उठा दिया। पुरोहित वर्ग उनके प्रचार को रोकने के लिए खिलाफत की संगठन की गठन की कोशिश की, जिससे मुहम्मद साहब और उनके अनुयायी भयभीत और शिकार बने।

622 ईसवी में मुहम्मद साहब ने मक्का छोड़कर यसरिब (मदीना) की ओर अपनी यात्रा शुरू की, जिसे ‘हिजरत’ कहा जाता है। इसमें उनके अनुयायी भी शामिल थे। हिजरत ने एक महत्वपूर्ण बदलाव लाया और इसे इस्लाम के कैलेंडर का प्रारंभिक दिन माना जाता है।

630 ईसवी में मुहम्मद साहब और उनके अनुयायी मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और इस्लाम को मक्का में स्थान दिया। इससे उनकी सत्ता और प्रभाव मजबूत हुई और इस्लाम धर्म लोकप्रिय हो गया।

फिर, 8 जून 632 को मुहम्मद साहब का निधन हो गया। यह उनके जीवन का अंत हुआ, लेकिन उनकी प्रभावशाली व्यक्तित्व और उनके प्रचार का परिणाम आज भी इस्लाम धर्म के अनुयायों के बीच महसूस किया जाता है।

मुहम्मद साहब के जीवन और उनके कार्य ने इस्लाम धर्म को एक महत्वपूर्ण सामाजिक, आध्यात्मिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में स्थापित किया। उन्होंने एक संघटित समुदाय बनाया, जिसने सामाजिक और आर्थिक असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ी और विभिन्न वंशों, कबीलों और समुदायों को एकजुट किया। उनकी मृत्यु के बाद भी, उनके आदर्श और संदेशों ने इस्लाम धर्म को दुनिया भर में फैलाया और उनके अनुयायों द्वारा उनकी संदेशों की प्रामाणिकता और मान्यता बनाए रखी गई है।

मुहम्मद साहब की कहानी एवं उनके जीवन की कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं, उनका धर्म, सोच, और व्यक्तित्व आज भी लोगों के बीच महत्वपूर्ण है और वे एक महान आदर्श हैं जिनका अभिप्रेरणा और मार्गदर्शन लोग अपने जीवन में लेते हैं।

काबा मंदिर में मूर्ति पूजा के प्रचलन का आरम्भ और मुहम्मद साहब के पैगंबरी की उत्पत्ति

अरब के प्राचीन काल में, हुब्ल, लात, मनात, उज्ज, आदि अनेक भिन्न देवी-प्रतिमाएं प्रत्येक कबीले में महत्वपूर्ण थीं। इसके पहले काल में मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था। ‘अमरू’ नामक काबा के मुख्य पुजारी ने ‘शाम’ देश से सुना था कि इसकी पूजा से दुष्काल से रक्षा और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। उसने कुछ मूर्तियों को काबा मंदिर में स्थापित किया। इसके प्रचार के परिणामस्वरूप पूरा देश मूर्ति पूजा में लीन हो गया।

काबा मंदिर में एकमात्र 360 देवी-मूर्तियां थीं, जिसमें हुब्ल छत पर स्थापित था और यह कुरैश वंश की इष्ट देवी थी। ‘जय हुब्ल’ उनका जातीय घोष हुआ करता था। लोग यकीन रखते थे कि ये मूर्तियां ईश्वर को प्राप्त कराती हैं, इसलिए उन्हें पूजा किया जाता था। अरबी भाषा में ‘इलाह’ शब्द देवता और उनकी मूर्तियों के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु ‘अल्लाह’ शब्द पहले भी उस समय एक ही ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता था।

श्रीमती ‘खदीजा’ और उनके भाई ‘नौफ़ल’ यहूदी धर्म के अनुयायी थे और मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने यात्राओं में अनेक महात्माओं के संगति की और लोगों के पाखंड और दिखावे को देखकर मूर्ति पूजा से विमुख हो गए। वे ईसाई भिक्षुओं की भाँति अक्सर ‘हिरा’ की गुफा में अकेले बैठकर ईश्वर-प्रणिधान करने जाते थे।

‘इका बि-इस्मि रब्बिक’ (अपने प्रभु के नाम से पढ़िए) यह प्रथम कुरान वाक्य पहले ही वहीं पर देवदूत ‘जिब्राइल’ द्वारा महात्मा मुहम्मद साहब के हृदय में उतारा गया। उस समय देवदूत के भयंकर स्वरूप को देखकर उन्हें एक क्षण के लिए मूर्च्छित होना पड़ा। जब उन्होंने इस घटना को श्रीमती ‘खदीजा’ और ‘नौफ़ल’ को सुनाया, तो उन्होंने कहा, ‘यह निश्चित रूप से वह देवदूत था जो इस भगवत्वाक्य को लेकर तुम्हारे पास आया था।’ इस समय महात्मा मुहम्मद साहब की आयु 40 वर्ष की थी। यहीं से उनकी पैगंबरी (भगवत्ता) का समय आरंभ हुआ।

मुहम्मद साहब की यात्रा: अफ्रीका के हब्स राज्य में इस्लाम का प्रचार

मक्का के दाम्भिक और समागत यात्रियों को क़ुरान का उपदेश सुनाने के माध्यम से महात्मा मुहम्मद साहब ने ईश्वर के दिव्य आदेश को प्राप्त किया। ख़ास दिनों (‘इह्राम’ के महीनों) में मेले में आने वाले दूर से आए हुए तीर्थ-यात्रियों के समूह को छल-पाखण्डयुक्त लोकाचार और अनेक देवताओं की अपासना का खण्डन करके, उन्होंने एक ईश्वर (अल्लाह) की उपासना का उपदेश दिया और शुद्ध तथा सरल धर्म के अनुष्ठान के बारे में बताया।

महात्मा मुहम्मद साहब ने अपने उपास्य और आदर्शों के खिलाफ खुलेआम विरोध और निन्दा के बावजूद, ‘क़ुरैशी’ लोगों की अपासना, आचार और आमदनी के बारे में कुठाराघात करने की हिम्मत नहीं की। हाशिम परिवार के चिरशत्रुता के भय से वे उन्हें मारने का निर्णय नहीं ले पाते थे। हालांकि, इस नए धर्म के अनुयायियों ने दासों और दासियों को पीड़ित किया, उन्हें तप्त बालू पर लिटाया और उन्हें कष्ट पहुंचाया, लेकिन धर्म के पक्षपाती लोग अपने धर्म को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे।

इस असह्य अन्याय को देखते हुए महात्मा साहब ने अपने अनुयानियों को ‘हब्स’ नामक राज्य में ले जाने की अनुमति दी, जो ‘अफ्रीका’ के खंड में स्थित था और वहां के राजा न्यायपरायण था। क़ुरैशी लोगों का द्वेष उनकी संख्या के साथ बढ़ता गया, लेकिन ‘अबू तालिब’ जीवित थे इसलिए खुले तौर पर उनके खिलाफ उपद्रव करने की हिम्मत नहीं की। लेकिन जब ‘अबू तालिब’ की मृत्यु हो गई, तो मुहम्मद साहब ने स्पष्ट रूप से उनके विरोध में उठने का फैसला किया।

 “यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो। पुण्य तो यह है – परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं।” 

महात्मा मुहम्मद साहब ने अबू तालिब की मृत्यु के बाद, अपने धर्म के विरोध के खिलाफ स्पष्ट रूप से उठने का फैसला किया। इससे पहले वे अपने विरोधियों के प्रति संवेदनशील रहते थे, लेकिन अब वे उनके सामर्थ्य को निर्मूल करने के लिए संघर्ष करने का निर्णय ले चुके थे।

अपने विरोधियों के द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न और अत्याचार को देखते हुए मुहम्मद साहब ने नए गुर्जरों (हब्स) के साथ अफ्रीका के खंड में स्थित हब्स राज्य की यात्रा की। हब्स राजा, जिसका न्यायपरायण और यथार्थपरायण व्यवहार था, मुहम्मद साहब और उनके अनुयायियों का स्वागत करता था।

इस यात्रा के दौरान मुहम्मद साहब ने हब्स राज्य के लोगों को इस्लाम के सिद्धांतों का प्रचार किया और उन्हें ईश्वर (अल्लाह) की एकात्मता, शुद्ध धर्म और न्यायपूर्ण आचरण के बारे में उपदेश दिया। इसके परिणामस्वरूप, अफ्रीका में इस्लाम की प्रभावशीलता में वृद्धि हुई और मुसलमान समुदाय की संख्या बढ़ी।

इस अवधि में ‘कुरैशी’ समुदाय की विरोधी भावना भी बढ़ती गई, और उन्होंने मुहम्मद साहब और उनके अनुयायियों के खिलाफ और अधिक उपद्रव करने का प्रयास किया। हालांकि, उनके पिता ‘अबू तालिब’ के जीवन के दौरान उन्हें खुलेआम विरोध करने की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन जब अबू तालिब की मृत्यु हो गई, तो मुहम्मद साहब ने खुले रूप से अपने विरोधियों के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया और अपने धर्म को बचाने के लिए संघर्ष करने की दृढ़ता दिखाई।

मुहम्मद साहब का आवास: यास्रिब से मदीना नगर तक की यात्रा और मदीना का प्रमुखता

महात्मा मुहम्मद साहब के विराम काल में 53 वर्ष पूर्ण हो गए थे। अर्थात इस समय तक महात्मा मुहम्मद साहब की अवस्था 53 वर्ष हो चली थी। उनकी पत्नी श्रीमती खदीजा भी इस समय में इस संसार को छोड़ चुकी थी। एक दिन, क़ुरैशी लोगों ने हत्या की इच्छा से मुहम्मद साहब के घर को घेर लिया, लेकिन मुहम्मद साहब ने इसकी सूचना पहले से ही प्राप्त कर ली थी। उन्होंने पहले ही उस स्थान से अपनी यात्रा की शुरुआत कर दी थी, जो ‘यस्रिब’ (मदीना) नगर है। वहां के शिष्यों ने मुहम्मद साहब के प्रति बहुत आदरपूर्वक आचरण करने की प्रार्थना की थी। मुहम्मद साहब पहुंचने पर उन्होंने उनके भोजन, आवास और अन्य व्यवस्थाओं का सम्पादन कर दिया।

मुहम्मद साहब के निवास के बाद से ‘यस्रिब’ नगर को ‘मदीतुन्नबी’ या ‘नबी का नगर’ कहा जाने लगा। इसे आजकल सिर्फ ‘मदीना’ के नाम से जाना जाता है। ‘क़ुरान’ में 30 पार्ट (जुज्ज) हैं और वह 114 सूरतों (अध्यायों) में बंटे हुए हैं। इन सूरतों को निवास क्रम में ‘मक्की’ और ‘मदीनी’ सूरतों में विभाजित किया गया है, अर्थात् मक्का में उतरने वाली सूरतों को ‘मक्की’ सूरतें कहा जाता है और मदीना में उतरने वाली सूरतों को ‘मद्नी’ सूरतें कहा जाता है।

अन्तिम पैग़म्बर मुहम्मद साहब: एक प्रेरणादायी आदर्शवादी

महात्मा मुहम्मद साहब के द्वारा प्रदर्शित आचरण को आदर्श मानकर उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय बताया गया है। इस कथन से समझा जाता है कि वे एक प्रेरक, आदर्शवादी और नेतृत्वीय व्यक्ति थे जिन्होंने उच्चतम आचार और सभ्यता के मानकों को प्रदर्शित किया। उन्होंने अपने जीवन में छोटे-छोटे से लेकर बड़े-बड़े आचार और समाजिक व्यवहारों को भी समझाया। इसका मुख्य कारण था कि उनके समय में अरब समाज असभ्यता की आदतों से भरा हुआ था। इसलिए, उन्हें यह बताने की जरूरत थी कि अच्छे आचार का महत्व है और उसे अपनाना चाहिए।

“जो कोई परमेश्वर और उसके प्रेरित की आज्ञा न माने, उसको सर्वदा के लिए नरक की अग्नि है।” महात्मा मुहम्मद साहब के आचरण को आदर्श मानकर उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय कहा गया है। “तुम्हारे लिए प्रभु–प्रेरित का सुन्दर आचरण अनुकरणीय है।” क्योंकि उस समय अरब के लोग एकदम असभ्य थे। इसलिए उन्हें अच्छा आचरण करने के लिए भी कहा गया।

उनको गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, बड़े-छोटे के सम्बन्ध का भी विशेष विचार नहीं था। महात्मा मुहम्मद को गुरु और प्रेरित स्वीकार करने पर उनका यही मुख्य सम्बन्ध मुसलमानों के साथ है, न कि भाईबन्दी, चचा-भतीजा वाला पहला सम्बन्ध, यथा- “मुहम्मद तुम पुरुषों में से किसी का बाप नहीं, वह प्रभु-प्रेरित और सब प्रेरितों पर मुहर (अन्तिम) है।” उसके अलावा भी, मुस्लिम समुदाय का उनके साथ आत्मीय संबंध है और उनकी स्त्रियाँ मुस्लिम समुदाय की माताओं के समान हैं। इसका अर्थ है कि मुस्लिम समाज में महात्मा मुहम्मद के प्रति अत्यधिक सम्मान और आदर्शवाद का भाव है।

क़ुरान शरीफ़: इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का महत्वपूर्ण विवरण

‘क़ुरान शरीफ़’ इस्लाम धर्म की प्रमुख पवित्र पुस्तक है, जिसे मुसलमान संप्रदाय के अनुसार अल्लाह के द्वारा मुहम्मद साहब के माध्यम से प्रकट किया गया माना जाता है। ‘क़ुरान’ शब्द का हिन्दी में अर्थ होता है ‘सस्वर पाठ’ या ‘सुन्ना’। यह पुस्तक अरबी भाषा में लिखी गई है और मुसलमान समुदाय के लिए प्रमुख धार्मिक ग्रंथ के रूप में मान्यता प्राप्त है।

‘क़ुरान शरीफ़’ को मुहम्मद साहब को 22 साल, 5 माह और 14 दिन के अर्से में दिवारों पर आयतों की सूचना के रूप में नाज़िल किया गया है। इसे 30 पारों में, जिन्हें जुज कहा जाता है, तथा 114 सूरतों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक सूरत अलग-अलग विषयों पर चर्चा करती है और उन्हें रुकूअओं में विभाजित किया जाता है। कुल मिलाकर, ‘क़ुरान शरीफ़’ में 540 रुकूअ हैं।

‘क़ुरान शरीफ़’ में कुल 6,666 (छह हज़ार छह सौ छियासठ) आयतें हैं। इन आयतों में मुसलमानों के लिए धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, न्यायिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत विषयों पर व्याख्यान और मार्गदर्शन किया गया है। यह प्रत्येक मुसलमान के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में महत्वपूर्ण माना जाता है और उनके आचरण, आदर्श और जीवनशैली को प्रभावित करने का निर्देश देता है।

लौह महफूज में क़ुरान शरीफ़: एक पवित्र और अदृष्ट पुस्तक

क़ुरान शरीफ़ के अनुयायी लोग इसे एक पवित्र और अदृष्ट पुस्तक मानते हैं, जिसमें खुद भी लिखा है, “सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है।” यहां “अदृष्ट पुस्तक” से इसका अर्थ है कि इस्लामी परंपरा में इसे “लौह-महफूज” भी कहा जाता है, जो स्वर्गीय लेख-पटिट्का होती है। सृष्टिकर्ता ने शुरुआत से ही इसमें त्रिकालवृत्ति लिखी है, जैसा कि इसका स्थानान्तरन में कहा गया है, “हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है।”

जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को मुहम्मद साहब के माध्यम से विश्व के हित के लिए प्रकाशित किया है, और यही इसका मुख्य अर्थ है। मनुष्य का स्वभाव है कि उसे अपने धर्म की पुस्तक पर असाधारण श्रद्धा होती है। इसी कारण से क़ुरान के महत्व के विषय में अनेक कथाएँ लोगों में प्रचलित हैं, हालांकि यह ध्यान देने योग्य है कि इन कथाओं का आधार श्रद्धा के बिना क़ुरान में ढूँढ़ना युक्तिसंगत नहीं है। इसके अतिरिक्त यह कहना भी संभव नहीं है कि ऐसे वाक्यों की पूर्णता में कोई अभाव है।

इसके एक स्थान पर यह कहा गया है, “यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (या पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबाकर फटा देखता।” इन दृष्टान्तों को हम मनुष्यों के विचारों को प्रेरित करने के लिए उद्धृत करते हैं।

इस्लाम के सिद्धान्त

‘मज़हब’ और ‘दीन’ शब्दों का सटीक अनुवाद अंग्रेज़ी में ‘रिलीज़न’ (Religion) है। हालांकि, संस्कृत या हिंदी में इन शब्दों का सीधा पर्यायवाची शब्द नहीं है।

आमतौर पर, इस्लामी परिभाषा में ‘पन्थ’ (Panth) शब्द को इन शब्दों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ‘पन्थ’ शब्द ठीक वही धातुर्थ प्रकट करता है जो ‘मज़हब’ शब्द के लिए होता है।

इस्लाम में हर पन्थ में दो प्रकार के मतवाले होते हैं – एक विश्वासात्मक और दूसरा क्रियात्मक। ये मतवाले मुख्य तत्व होते हैं जो कुछ संदेशों और सिद्धांतों के आधार पर प्रचार करते हैं। इस्लाम में इन मतवालों के बारे में विवरण उन्हीं के शब्दों में दिए गए हैं जो आपने उद्धृत किए हैं। उद्धृत उदाहरणों के अनुसार विवरण देते हैं कि पुण्य का अर्थ सिर्फ इस बात से नहीं होता है कि व्यक्ति अपने मुँह को दिशा करे, बल्कि यह पुण्य उन गुणों को प्रकट करता है जिसे परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूत, पुस्तक और ऋषि का सम्मान करना, धन को प्रेम करना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, प्रतिज्ञा को पूरा करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णुता रखना जैसे गुणों का अनुसरण करने से होता है। इन उद्धरणों की व्याख्या करते हुए यह दिखाते हैं कि पुरे अर्थ में पुण्य का आदर्श पालन करने वाले लोग ही सच्चे और संयमी माने जाते हैं।

निचे सभी उल्लेखित उद्धरणों के बारे में विस्तृत व्याख्या दिया गया है:-

  1. “यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो।” यह उद्धरण क़ुरान की सूरह बाक्यात एंक़ाबूत, आयत 17 में से है। यहां पुण्य का अर्थ सिर्फ दिशा बदलने से नहीं होता है। यह पुण्य विशेष गुणों और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें मनुष्य को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। इस आयत में पुण्य के कुछ उदाहरण दिए गए हैं जैसे परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों का सम्मान करना। यह बताता है कि मनुष्य को ईश्वर और आध्यात्मिक विचारों का सम्मान करना चाहिए।
  2. “पुण्य तो यह है—परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके हो तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं।” यह उद्धरण क़ुरान की सूरह बाक्यात एंक़ाबूत, आयत 177 में से है। इसमें पुण्य के कई गुणों और कार्यों का वर्णन किया गया है। यह बताता है कि पुण्य का अर्थ सिर्फ देवी और धार्मिक कार्यों में सीमित नहीं होता है, बल्कि धार्मिक सेवा, भाईचारा, दान, उपवास, प्रतिज्ञा का पालन और सहिष्णुता जैसे गुणों का अनुसरण करने से पुण्य प्राप्त होता है। इसके अलावा, इस उद्धरण में व्यक्त किए गए हैं कि जो इन गुणों का पालन करते हैं, वे सच्चे और संयमी माने जाते हैं।

ये उद्धरण दिखाते हैं कि पुण्य का आदर्श व्यक्ति के आचरण और गुणों के प्रतिनिधित्व में होता है। यह व्यक्ति को सच्चे और संयमी माना जाता है। इन उद्धरणों का उद्देश्य लोगों को धार्मिक गुणों का अनुसरण करने की प्रेरणा देना है और उन्हें धार्मिक और नैतिक जीवन के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करना है।

इस्लाम धर्म के मूल एवं कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है

  1. ईमान (Iman): इस्लाम में ईमान, पूर्ण आस्था और विश्वास का प्रतीक है। इस्लामिक सिद्धांतों के अनुसार, ईमान में प्रमुख तत्त्व हैं एक मात्र परमेश्वर (अल्लाह) की मान्यता। विश्वास के आधार पर मनुष्यों को दया, धैर्य, धर्म, अध्ययन, समर्पण और पुनर्जन्म की आशा की जाती है।
  2. तौहीद (Tawhid): तौहीद ईस्लाम का मूल सिद्धांत है और इसका अर्थ है कि अल्लाह एकमात्र सत्ता है और वह किसी और के साथ साझा नहीं की जा सकती। इस्लाम शास्त्रों में बताया गया है कि अल्लाह अनन्त, निरंकार, निर्माणकर्ता और सर्वशक्तिमान हैं। तौहीद के सिद्धांत के अनुसार, मानव जाति का कर्तव्य है कि वह केवल एकमात्र परमेश्वर को पूजे और उसकी इबादत करे।
  3. प्रेरणा (Prophethood): इस्लाम में मुहम्मद नबी को अंतिम और महान प्रेरणा के रूप में मान्यता दी जाती है। मुहम्मद नबी को अल्लाह का अखिरी मैसेंजर माना जाता है और उनकी उपदेशों, जीवनशैली और संदेशों का पालन करने की सलाह दी जाती है।
  4. अखिरत (Akhirah): इस्लाम में अखिरत यानी परलोक की मान्यता है। यह मान्यता है कि मौत के बाद एक अंतिम दिन होगा जब सभी लोग अपने कर्मों के आधार पर बदले मिलेंगे। सच्चे ईमानदारों को स्वर्ग मिलेगा और पापी लोगों को नरक में भुगतना पड़ेगा। अखिरत की मान्यता ईमानदारी, न्याय, सच्चाई और उचित आचरण के प्रोत्साहन को देती है।
  5. इबादत (Ibadah): इबादत अल्लाह की उपासना और आदर की अभिव्यक्ति को दर्शाता है। इबादत आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट रूप में प्रकट की जाती है, जैसे नमाज़, रोज़ा, जकात (चंदा), हज़्ज़ आदि। इस्लाम में इबादत के माध्यम से आत्मा की शुद्धि, आध्यात्मिक विकास, समर्पण और संयम को प्रोत्साहित किया जाता है।
  6. शरीअत (Shariah): इस्लाम में शरीअत धर्म के नियमों, विधियों और आचार संहिता को दर्शाता है। शरीअत अल्लाह के इच्छानुसार मान्यता है और उसे मानव जीवन के हर क्षेत्र में लागू करना चाहिए। शरीअत के नियमों का पालन करना धार्मिक कर्तव्य माना जाता है और इसे आचार्यों और मुख्य ग्रंथों में विवरणित किया गया है।
  7. नबूवत (Nubuwwah): इस्लाम में नबूवत की मान्यता है, जिसके अनुसार अल्लाह ने मुहम्मद नबी को अपने विशेष उपदेशों का रूप में नियुक्त किया है। मुहम्मद नबी को अंतिम और महान प्रेरणा के रूप में मान्यता दी जाती है और उनकी उपदेशों, जीवनशैली और संदेशों का पालन करने की सलाह दी जाती है।
  8. किताब (Kitab): किताब सिद्धांत के अनुसार, अल्लाह ने अपने उपदेशों को ईसाई और यहूदी पूर्वाग्रंथों के साथ उन्नत और पूर्ण किया है। क़ुरान को मुस्लिम समुदाय का पवित्र ग्रंथ माना जाता है, जिसमें अल्लाह के उपदेश, धर्म, नैतिकता, आचार, और संदेशों का संग्रह है।

यह सिद्धांतों का संक्षेप में विवरण है। इन्ही सिद्धांतों ने इस्लामिक संघर्षों, व्यवस्था और समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस्लाम के सिद्धांतों का पालन और अनुसरण मुस्लिमों के आदर्श जीवन के माध्यम से सुनिश्चित किया जाता है। यह सिद्धांतों में धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक दिशाओं का पूरा विकास व्यक्त करता है और मुस्लिम समुदाय के शांति, सौहार्द, और संगठन को बढ़ावा देता है।

इस्लाम में पुरानी कथाएँ एवं उनके महात्मा

इस्लाम में पुरानी कथाएँ इन महात्माओं के बारे में है-

  • महात्मा आदम
  • महात्मा नूह
  • महात्मा इब्राहीम
  • महात्मा लूत
  • महात्मा यूसुफ़
  • महात्मा मूसा
  • महात्मा दाऊद

इनके बारे में इस्लाम धर्म की पुराणी कथाएँ दर्शाती हैं। ये महात्मा अवतार व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने ईश्वर की इच्छा के अनुसार मानवता को उद्धार करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे विभिन्न प्रकार के धार्मिक और नैतिक सन्देशों के प्रतिष्ठान हैं और उनके कथानकों में उनके जीवन और उपदेशों की महत्वपूर्ण घटनाएं संकलित हैं। इन महात्माओं की कथाएँ ईमानदारी, विश्वास, त्याग, प्रेम, संघर्ष और न्याय को प्रभावी ढंग से प्रकट करती हैं।

महात्मा आदम

मुस्लिम परंपरा में, महात्मा आदम को आदम और हव्वा (एवा) का पहला पुत्र माना जाता है। वे ईस्लाम के धर्मग्रंथ, कुरान, के अनुसार खुदा के द्वारा सृजित किए गए प्रथम मानव थे। आदम और हव्वा को सृष्टि के आदि के बादशाह और माता के रूप में देखा जाता है। ईसाई और यहूदी परंपरा में भी वे ऐसे ही महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं।

महात्मा नूह

मुस्लिम परंपरा में, महात्मा नूह को एक पूर्वज माना जाता है जिन्होंने अपराधी और विनाशकारी दुनिया को बचाने के लिए अल्लाह के आदेश पर एक बड़ी नौका बनाई थी। उन्होंने अपने अनुयायों को अल्लाह के बहुचर्चित दंडानुयायी आपातकाल के आगमन से बचाया और इस्लामिक धर्म में उन्हें विशेष महत्व दिया गया है।

महात्मा इब्राहीम

मुस्लिम परंपरा में, महात्मा इब्राहीम को एक महान नबी माना जाता है और उन्हें ईस्लाम के पितामह माना जाता है। उन्होंने अपनी पत्नी साराह के साथ अपनी वत्सलता और श्रद्धा के लिए प्रसिद्ध हैं। ईस्लाम में, इब्राहीम और उनके पुत्र इस्माईल और इसहाक को संसार के प्रमुख नबी माना जाता है।

महात्मा लूत

मुस्लिम परंपरा में, महात्मा लूत को एक प्रमुख नबी माना जाता है जो अल्लाह के संकट से बचने के लिए सोडोम और गोमोरा की नगरी से निकले। उनकी पत्नी को लूत की पत्नी के रूप में प्रस्तावित किया जाता है जो अपराधी नगरी में भयंकर प्रलोभनों के बीच न्याय की रक्षा की। लूत और उनकी पत्नी की अनुयायों के लिए उनकी रक्षा करने के लिए उन्हें महत्वपूर्ण माना जाता है।

महात्मा यूसुफ़

मुस्लिम परंपरा में, महात्मा यूसुफ़ को एक महान नबी माना जाता है जिन्होंने अल्लाह के साथ उनकी विशेष सम्पर्क और उनकी इच्छा के बारे में सपनों के माध्यम से बातचीत की। यूसुफ़ की कथा को कुरान में विस्तार से बताया गया है और उनकी पत्नी पोतीफार के अपमानजनक प्रस्ताव के बाद उनके संघर्ष और महत्वपूर्ण भूमिका के लिए उन्हें प्रस्तुत किया गया है।

महात्मा मूसा

मुस्लिम परंपरा में, महात्मा मूसा को भगवान के संदेशवाहक, अल्लाह के प्रमुख नबी और इजरायल के लोगों के मुक्ति के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। मूसा की कथा कुरान में विस्तार से बताई गई है, जिसमें उनके नबूत और मगरमच्छ को लेकर घटित घटनाओं का वर्णन है। उन्हें अल्लाह द्वारा प्रमुख दस आयातों के माध्यम से तौरत दी गई, जो ईसाई और यहूदी परंपरा में महत्वपूर्ण धर्मग्रंथ है।

महात्मा दाऊद

मुस्लिम परंपरा में, महात्मा दाऊद को एक महान नबी माना जाता है और उन्हें अल्लाह के द्वारा भेजे गए संदेश का प्रसारक माना जाता है। उन्हें महान शासक और संगीतकार के रूप में भी जाना जाता है। दाऊद की कथा को कुरान में विस्तार से बताया गया है, जिसमें उनकी सफलता, वीरता, आदर्शता और मुसीबतों के सामर्थ्य का वर्णन है। उन्हें प्रेरणा का स्रोत माना जाता है, और उनकी प्रार्थनाओं और सभी कार्यों के लिए उन्हें महत्वपूर्ण गुरु माना जाता है।

अल्लाह, फ़रिश्ते, शैतान

दुनिया के सारे धर्म प्रायः सारे पदार्थों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हैं, अर्थात् जड़ और चेतन। चेतन के भी दो भेद हैं – ईश्वर, जीव। जीवों में ही फ़रिश्ते भी हैं और शैतान भी हैं।

इस्लाम धर्म में, जड़ और चेतन दो प्रमुख पदार्थों को विभाजित करने का तरीका है। यह विभाजन इंसानी मानवीय और आध्यात्मिक अनुभव को समझने में मदद करता है। यहां दोनों पदार्थों की व्याख्या है:

जड़

जड़ पदार्थ आध्यात्मिक दृष्टि से अचेतन होते हैं। इसमें अचेतन वस्तुओं जैसे पहाड़, पत्थर, जल, पौधे आदि को सम्मिलित किया जाता है। जड़ पदार्थ अपने आप में जीवन नहीं होता है और इसलिए इन्हें अचेतन माना जाता है। जड़ पदार्थों की दृष्टि से वे साधारणतः प्राकृतिक तत्व होते हैं और उनमें जीवन की क्षमता या चेतना नहीं होती है।

चेतन

चेतन पदार्थ आध्यात्मिक दृष्टि से सचेतन होते हैं। इसमें मानव जीवन को सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें चेतना, विचार, उच्चता और स्वतंत्रता की विशेषताएं होती हैं। चेतन पदार्थों में मानव आत्मा, मानव जीवन, मनुष्यों की सोच और इच्छाशक्ति शामिल होती है। चेतन पदार्थों की दृष्टि से वे उच्चता, ज्ञान और संवेदनशीलता के प्रतीक होते हैं।

इस्लाम धर्म में, जड़ और चेतन का विभाजन जीवन की एक व्यावहारिक और आध्यात्मिक तथ्यात्मकता को समझने के लिए किया जाता है। जड़ पदार्थ और चेतन पदार्थ एकदृष्टि से अलग-अलग होते हैं और मानवीय जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करते हैं। इस्लाम में, अल्लाह को चेतन एवं सर्वशक्तिमान माना जाता है, जबकि दूसरे पदार्थ जड़ और चेतन दोनों का एक अंश हैं।

अल्लाह, फ़रिश्ते और शैतान तीनों चेतन पदार्थ हैं, जो कि इस्लाम धर्म में महत्वपूर्ण हैं। यहां उनकी विस्तृत व्याख्या दी गयी है:

अल्लाह

इस्लाम में, अल्लाह सर्वोच्च ईश्वर हैं, जिन्हें विश्व का सृजनहार, पालक और नियंत्रक माना जाता है। अल्लाह को सर्वशक्तिमान, सबका पालक और सबका मालिक माना जाता है। वे अनन्त और सर्वव्यापी हैं और सभी धर्मों के सच्चे ईश्वर के रूप में मान्यता प्राप्त हैं।

फ़रिश्ते

फ़रिश्ते इस्लामी परंपरा में दिव्य सत्ताओं को दर्शाते हैं। ये ईश्वरीय मौजूदात हैं जो अल्लाह के आदेशों को पालन करने और मानवता की सेवा करने के लिए निर्मित हुए हैं। फ़रिश्ते सत्य, न्याय, राष्ट्रीयता और धार्मिकता के प्रतीक हैं और मानव जीवन को निर्देशित करने में मदद करते हैं। इस्लाम में माना जाता है कि फ़रिश्ते अल्लाह के आदेशों को पूरा करने के लिए मौजूद होते हैं और मानवों की मदद करने के लिए भेजे जाते हैं।

शैतान

इस्लाम में शैतान एक दुष्ट चेतना हैं, जो अल्लाह के विरुद्ध काम करती हैं और मानवों को भ्रष्ट करने का प्रयास करती हैं। शैतान को अल्लाह के विरुद्ध कार्यों का प्रतिनिधित्व करने का दायित्व दिया गया हैं। वह मानवों को गुमराह करने की कोशिश करता है, उन्हें पाप में ले जाता है और उन्हें अल्लाह से दूर करने की कोशिश करता है। इस्लाम में माना जाता है कि मानव अपने जीवन में शैतान की विपरीत उपस्थिति से सतर्क रहें और उसके बुरे प्रभावों से बचें।

इन तीनों पदार्थों का महत्वपूर्ण स्थान इस्लाम धर्म में है और इसका अध्ययन आध्यात्मिक एवं नैतिक मार्गदर्शन के लिए महत्वपूर्ण है। ये प्रतीकत्व और विरोधी तत्व धार्मिक अनुष्ठान, सामाजिक न्याय और आत्मिक परिशुद्धि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इस्लाम धर्म के कुछ महत्वपूर्ण त्योहार

इस्लाम धर्म में कई महत्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं, जिनकी व्याख्या निम्नलिखित है:

  1. ईद-उल-फ़ित्र (Eid-ul-Fitr): यह ईस्लामिक कैलेंडर के माह रमजान के बाद मनाया जाता है। यह त्योहार उपवास और धार्मिक आयोजनों के बाद रमजान के महीने की खुशी और आत्मसमर्पण को मनाता है।
  2. ईद-उल-अज़हा (Eid-ul-Adha): इसे भी “क़ुरबानी का ईद” कहा जाता है और यह इस्लामी कैलेंडर के माह ज़िल-हिज़्ज़ा के दसवें दिन मनाया जाता है। यह त्योहार पूरे विश्व में मुस्लिम समुदाय द्वारा मनाया जाता है, जिसमें भक्तजन भगवान की अदला-बदली के रूप में भेड़ या बकरी को कुर्बानी करते हैं।
  3. मिलाद-उन-नबी (Milad-un-Nabi): इस त्योहार को प्रोफ़ेसर मुहम्मद के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मुस्लिम समुदाय इस अवसर पर उनके जीवन, उपदेश और संदेशों की याद में मुबारकबाद और धार्मिक आयोजनों का आयोजन करते हैं।
  4. शब-ए-मेराज़ (Shab-e-Miraj): इस त्योहार को प्रोफ़ेसर मुहम्मद की मेराज़ (स्वर्ग यात्रा) की याद में मनाया जाता है। मुस्लिम समुदाय मस्जिद में इबादत करते हैं और अपने विश्वास को मजबूत करने के लिए इस अवसर पर बातचीत और धार्मिक गतिविधियों का आयोजन करते हैं।

यह केवल कुछ उदाहरण हैं और इस्लाम धर्म में और भी कई महत्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं। ये त्योहार आधिकारिक आयोजनों, प्राथमिकताओं और स्थानीय सांस्कृतिक आदतों के आधार पर अलग-अलग देशों और समुदायों में थोड़ी भिन्नता भी दिखा सकती है।

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