कबीर दास जी भारत के एक महान संत तथा हिंदी साहित्य की मध्यकालीन भक्ति-साहित्य की निर्गुण धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) के अत्यंत महत्त्वपूर्ण और विद्रोही संत-कवि के रूप में जाने जाते हैं, जो जीवन पर्यन्त समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। कबीर दास जी हिंदी साहित्य की निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। कबीर दास जी लोगों के बीच व्याप्त अन्धविश्वास को दूर करने का प्रयास करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकती है। उनका सम्पूर्ण जीवन लोक कल्याण हेतु समर्पित था।
कबीर दास जी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर दास जी को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। कबीर दास जी के कुछ महान लेखन बीजक, कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, साखी ग्रंथ हैं। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने बचपन में ही अपने गुरु रामानंद से अपना सारा आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था। वे बहुत आध्यात्मिक व्यक्ति तथा एक महान साधु थे। अपनी प्रभावशाली परंपराओं और संस्कृति के कारण उन्हें दुनिया भर में प्रसिद्धि मिली।
कबीरदास जी का परिचय | Kabir Das Biography
नाम | संत कबीर दास |
अन्य नाम | कबीरदास, कबीर परमेश्वर, कबीर साहब, कबीरा |
जन्म | सन् 1398 (विक्रम संवत 1455) लहरतारा, काशी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | सन् 1518 (विक्रम संवत 1575) मगहर, उत्तर प्रदेश (120 वर्ष) |
नागरिकता | भारतीय |
शिक्षा | निरक्षर (पढ़े-लिखे नहीं) |
पेशा | संत (ज्ञानाश्रयी निर्गुण), कवि, समाज सुधारक, जुलाहा |
पिता-माता | नीरू, नीमा |
गुरु | रामानंद |
मुख्य रचनाएं | सबद, रमैनी, बीजक, कबीर दोहावली, कबीर शब्दावली, अनुराग सागर, अमर मूल |
भाषा | अवधी, साधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी |
कबीर दास जी का जन्म एवं जन्म स्थान
भारत के महान संत कबीर का जन्म सन 1398 ई. में एक जुलाहा परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम नीरू एवं माता का नाम नीमा था। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने लोक लाज के डर से जन्म देते ही कबीर दास जी को बनारस (वाराणसी) में गंगा जी के तट पर बनी सीढियों पर रख दिया था।
जब नीरू और नीमा नामक एक दंपत्ति उन सीढियों से गुजर रहे थे तो उनकी नजर कबीर दास जी पर पड़ी। नीरू और नीमा कबीर दास जी को अपने घर ले आये और उनका पालन-पोषण किया। कबीर दास जी ने प्रसिद्ध संत स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु मान लिया था। लोक कथाओं के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि कबीर विवाहित थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। कबीर दास जी की दो संताने थी। जिसमे एक पुत्र जिसका नाम कमाल था, और एक पुत्री थी, जिसका नाम कमाली था। कुछ लोगों का मानना है कि लोई, कमाल तथा कमाली कबीर दास जी के शिष्य थे।
कबीर दास जी के जन्म से सम्बंधित तर्क (विचार)
- कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक मत (विचार) प्रकट किये गए हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं।
- रामानंद जी को अपना गुरु बनाने के लिए एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की उन सीढ़ियों पर लेट गए जहाँ से रामानंद जी गंगा स्नान के लिए जाते थे। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम’ शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में-
हम कासी में प्रकट भये हैं,
रामानन्द चेताये।
- कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है-
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥
कबीर दास जी के जन्मस्थान से सम्बंधित तर्क (विचार)
कबीर के जन्मस्थान के संबंध में तीन मत हैं : मगहर, काशी और आजमगढ़ में बेलहरा गाँव।
- मगहर के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि कबीर ने अपनी रचना में वहाँ का उल्लेख किया है –
“पहिले दरसन मगहर पायो पुनि कासी बसे आई”
अर्थात् काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा। मगहर में कबीर दास जी का मक़बरा है। - कबीर दास जी का अधिकांश जीवन काशी में व्यतीत हुआ। वे काशी के जुलाहे के रूप में ही जाने जाते हैं। कई बार कबीरपंथियों का भी यही विश्वास है कि कबीर दास जी का जन्म काशी में हुआ था। किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं होने के कारण इस बात को निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है।
- बहुत से लोग आजमगढ़ ज़िले के बेलहरा गाँव को कबीर साहब का जन्मस्थान मानते हैं। हालाँकि इसका भी कोई प्रमाण नहीं है।
वे कहते हैं कि ‘बेलहरा’ ही बदलते-बदलते लहरतारा हो गया। जबकि बेलहरा गाँव कब तक था? और कब बेलहरा गाँव का नाम लहरतारा हो गया? और वह आजमगढ़ ज़िले से काशी के पास कैसे आ गया? यह सभी ऐसे प्रश्न हैं जिनका आज तक कोई उत्तर नहीं मिल पाया है। यहाँ तक की आजमगढ़ ज़िले में कबीर दास जी, उनके पंथ या अनुयायियों का कोई स्मारक भी नहीं है।
कबीर दास जी के माता-पिता
कबीर दास जी के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है। “नीमा’ और “नीरु’ की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या विधवा ब्राह्मणी की कोख से जन्म लिए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है। लहरतारा में कबीर दास जी को कौन छोड़ कर चला गया था इसका आज तक कुछ पता नहीं चल पाया। कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। एक किवदंती के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था।
एक जगह कबीर ने कहा है :-
“जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।’जाति जुलाहा मति कौ धीर। हरषि गुन रमै कबीर।
तू ब्राह्मन मैं काशी का जुलाहा।
कबीर दास जी की शिक्षा
कबीर दास जी पढ़े लिखे नहीं थे। उन्होंने कभी भी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली। यहाँ तक कि उन्होंने कभी कागज़ कलम को छुआ भी नहीं।
`मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।’
कबीरदास की खेल में कोई रुचि नहीं थी। मदरसे भेजने लायक़ साधन पिता-माता के पास नहीं थे। जिसे हर दिन भोजन के लिए ही चिंता रहती हो, उस पिता के मन में कबीर दास जी को पढ़ाने का विचार आया ही न होगा। यही कारण है कि वे किताबी विद्या प्राप्त न कर सके। उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, बल्कि उनकी कही हुई बातों और उपदेशों को उनके शिष्यों ने लिख लिया।
वे अपनी आजीविका के लिए जुलाहे का काम करते थे। कबीर दास जी अपनी आध्यात्मिक खोज को पूर्ण करने के लिए वाराणसी के प्रसिद्ध संत रामानंद के शिष्य बनना चाहते थे। स्वामी रामानन्द जी अपने समय के सुप्रसिद्ध ज्ञानी कहे जाते थे पर रामानंद उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते थे। किन्तु कबीर ने उन्हें मन ही मन अपना गुरु मान लिया था। वे अपने गुरु से गुरु मंत्र लेना चाहते थे पर कबीर दास को कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।
कबीर दास जब संत रामानंद रात्रि चार बजे स्नान के लिए काशी घाट पर जाते थे तो उनके मार्ग में लेट जाते थे ताकि उनके गुरु मुख से जो भी पहला शब्द निकले उसे ही गुरु मंत्र मान लेंगे। तब एक दिन मार्ग में उनके गुरु के पैर कबीर पर पड़े तो संत रामानंद ने अपने मुंह से “राम” नाम लिया। बस कबीर ने उसे ही गुरु मंत्र मान लिया।
कुछ लोग मानते हैं कि कबीर दास जी के कोई गुरु नहीं थे। उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ वह अपनी ही बदौलत प्राप्त किया। वे पढ़े-लिखे नहीं थे यह बात उनके इस दोहा से मिलता है – `मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।’
कबीर दास जी ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखा, उन्होंने सिर्फ उसे बोले थे। उनके शिष्यों ने उनके द्वारा कही गई बातों और उपदेशों को कलमबद्ध किया था। कबीर दास के बारे में जानकर ही आश्चर्य होता है कि उन्होंने कभी कागज कलम को हाथ तक नहीं लगाया, ना ही कोई पढ़ाई की और न ही उनके कोई औपचारिक गुरु थे।
पर कैसे उन्हें इतना आत्मज्ञान प्राप्त हुआ? यह अपने आप में हैरान करने वाला है।
कबीर दास जी का वैवाहिक जीवन
कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या ‘लोई’ के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।
बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।
कबीर दास जी की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी वाणियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात – दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह कबीर उसको समझाते हैं –
सुनि अंघली लोई बंपीर।
इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।
जबकि कबीर दास जी को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं –
“कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।
यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है –
नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।
कबीर दास जी की मृत्यु
15वीं शताब्दी के सूफी कवि कबीर दास के अनुसार, ऐसी मान्यता है कि उन्होंने अपनी मृत्यु का स्थान मगहर चुना था, जो लखनऊ से लगभग 240 किमी दूर स्थित है। उन्होंने लोगों के मन में भरे हुए एक अन्धविश्वास को दूर करने के लिए इस जगह को अपनी मृत्यु के लिए चुना।
उन दिनों यह माना जाता था कि जो व्यक्ति मगहर क्षेत्र में अपनी अंतिम सांस लेते है और मृत्यु हो जाती है, उन्हें स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी। उनको नरक में भेज दिया जाता है। यह भी माना जाता है कि जो काशी में मर जाता है, वह सीधे स्वर्ग जाता है इसलिए हिंदू लोग अपने अंतिम समय में काशी जाते हैं और मोक्ष प्राप्त करने के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं।
लोगों के मिथकों और अंधविश्वासों को तोड़ने के लिए कबीर दास जी जीवन भर काशी में रहने के बावजूद अपने आखिरी समय में मगहर चले आये। और उनकी मृत्यु काशी के बजाय मगहर में हुई। विक्रम संवत 1575 में हिंदू कैलेंडर के अनुसार, उन्होंने माघ शुक्ल एकादशी पर वर्ष 1518 में जनवरी के महीने में मगहर में दुनिया को छोड़ दिया।
मिथक को ध्वस्त करने के लिए कबीर दास जी ने मगहर में अपने प्राण त्यागे थे। इससे जुड़ी एक प्रसिद्ध कहावत है –
“जो कबीरा काशी मुए तो रमे कौन निहोरा”
यानी काशी में मरने से ही स्वर्ग जाने का आसान रास्ता है तो भगवान की पूजा करने की क्या जरूरत है।
ऐसा कहा जाता ही कि जब कबीर दास जी ने जब मगहर में अपना देह त्याग दिया, उस समय उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने।
मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर दास जी की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान् उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं।
समाधि से कुछ मीटर की दूरी पर एक गुफा है जो मृत्यु से पहले उनके ध्यान स्थान का संकेत देती है। कबीर शोध संस्थान नाम का एक ट्रस्ट चल रहा है जो कबीर दास के कार्यों पर शोध को बढ़ावा देने के लिए एक शोध फाउंडेशन के रूप में काम करता है। यहां शैक्षणिक संस्थान भी चल रहे हैं जिनमें कबीर दास की शिक्षाएं शामिल हैं।
कबीर दास जी का ईश्वर के प्रति विचार
संत कबीर दास जी के अनुसार ईश्वर एक है। जिस प्रकार विश्व में एक ही वायु और जल है, उसी प्रकार संपूर्ण संसार में एक ही परम ज्योति व्याप्त है। सभी मानव एक ही मिट्टी से अर्थात् ब्रम्ह द्वारा निर्मित हुए हैं। कबीर दास ने ईश्वर प्राप्ति के प्रचलित विश्वासों का खंडन किया है।
कबीर के अनुसार ईश्वर न मंदिर में है, न मस्जिद में है। न काबा में हैं, न कैलाश आदि तीर्थ स्थानों में है। वह न योग साधना से मिलता है, और न वैरागी बनने से। ये सब उपरी दिखावे हैं, ढोंग हैं। इनसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती।
कबीर दास जी का साहित्यिक परिचय
कबीर दास जी एक महान संत होने के साथ-साथ सांसारिक व्यक्ति भी थे। तथा वह समाज सुधारक और एक सजग कवि भी थे। वह अनाथ थे, लेकिन सारा समाज उनकी छत्रछाया की अपेक्षा करता था। कबीर के महान व्यक्तित्व एवं उनके काव्य के संबंध में हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ प्रभाकर माचवे ने लिखा है – “कबीर में सत्य कहने का अपार धैर्य था और उसके परिणाम सहन करने की हिम्मत भी। कबीर की कविता इन्हीं कारणों से एक अन्य प्रकार की कविता है। वह कई रूढ़ियों के बंधन तोड़ता है वह मुक्त आत्मा की कविता है।”
कबीर दास जी की रचनाएं एवं भाषा
संत कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे उन्होंने स्वयं ही कहा है –
मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ।
उनकी कही गयी वाणियों को, उनके उपदेशों को उनके शिष्यों ने लिखा।
कबीर दास जी की भाषा सधुक्कड़ी एवं अवधी थी। कबीरदास जी ने अपनी रचनाओं को बेहद सरल और आसान भाषा में है, अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने बड़ी बेबाकी से धर्म, संस्कृति, समाज एवं जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी राय रखी है। उनके काव्य में आत्मा और परमात्मा के संबंधों की भी स्पष्ट व्याख्या मिलती है। उनकी प्रमुख रचनाएं हैं –
- साखी
- सबद
- रमैनी
- कबीर बीजक
- सुखनिधन
- रक्त
- वसंत
- होली अगम
इन रचनाओं में कबीर का बीजक ग्रंथ प्रमुख है। उनकी रचनाओं में वो जादू है जो किसी और संत में नहीं है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को “वाणी का डिक्टेटर” कहा है। और आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कबीर की भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा है।
यह सत्य है कि उन्होंने स्वयं अपनी रचनाओं को नहीं लिखा है। इसके बाद भी उनकी वाणीयों के संग्रह के रूप में कई ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। इन ग्रंथों में- ‘अगाध-मंगल’, ‘अनुराग सागर’, ‘अमर मूल ‘, ‘अक्षर खंड रमैनी’, ‘अक्षर भेद की रमैनी’, ‘उग्र गीता’, ‘कबीर की वाणी’, ‘कबीर ‘, ‘कबीर गोरख की गोष्ठी’, ‘कबीर की साखी’, ‘बीजक’, ‘ब्रह्म निरूपण’, ‘मुहम्मद बोध’, ‘रेख़्ता विचार माला’, ‘विवेकसागर’, ‘शब्दावली ‘, ‘हंस मुक्तावली’, ‘ज्ञान सागर’ आदि प्रमुख ग्रंथ हैं इन ग्रंथों को पढ़ने से हमें कबीर की विलक्षण प्रतिभा का परिचय मिलता है।
कबीर की वाणियों का संग्रह ‘बीजक’ के नाम से प्रचलित है इसके तीन भाग हैं –
- साखी
- सबद
- रमैनी
कबीर दास जी के कुछ प्रमुख दोहे
- यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।
- लाडू लावन लापसी ,पूजा चढ़े अपार पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार !!
- पाथर पूजे हरी मिले, तो मै पूजू पहाड़ ! घर की चक्की कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार !!
- जो तूं ब्राह्मण , ब्राह्मणी का जाया ! आन बाट काहे नहीं आया !!
- माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया ! जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाया !!
- माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे । एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।
- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।
- ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग । तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।
- जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए । यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ।
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े ,काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो मिलाय ।।
- सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज । सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।
- ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
- ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
- बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर । पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।
- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय । जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।
- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।
- चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये । दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।
- मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार । फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।
- जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।
- तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार । सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।
- नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए । मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।
- कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी । एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।
- जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि । एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥
- मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि । कब लग राखौ हे सखी, रूई लपेटी आगि ॥
- उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं । एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥
- कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ । इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ ॥
- `कबीर’ नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ । ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥
- पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार। याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार।।
- गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥
- निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें । बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।
- पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ।
- जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप । जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।
- जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान । जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।
- ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग । प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।
- तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय । सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।
- प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए । राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ।
- जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही । ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।
- साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।
- जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश । जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।
- राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।
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