कबीर दास जी के दोहे एवं उनका अर्थ | साखी, सबद, रमैनी

कबीर दास जी के दोहे अपने अन्दर मानव कल्याणकारी होने के कारण विश्व प्रसिद्द तथा अत्यंत लोकप्रिय हैं। कबीर दास जी हिंदी साहित्य की निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। कबीर दास जी को पढना लिखना नहीं आता था। कबीर दास जी की वाणी को साखी, सबद, और रमैनी तीनों रूपों में उनके शिष्यों द्वारा लिखा गया है। कबीर ईश्वर को मानते थे और किसी भी प्रकार के कर्मकांड का विरोध करते थे।

कबीर दास बेहद ज्ञानी थे। स्कूली शिक्षा से वंचित रहने के बाद भी उनकी भोजपुरी, हिंदी, अवधी जैसे अलग-अलग भाषाओं में अच्छी पकड़ थी। सन् 1398 (विक्रम संवत 1455) लहरतारा, काशी, उत्तर प्रदेश में जन्मे कबीर दास जी सन् 1518 (विक्रम संवत 1575) मगहर, उत्तर प्रदेश में 120 वर्ष की अवस्था में अपने प्राण त्याग दिए। कबीर दास जी के प्रमुख दोहे एवं उनका अर्थ नीचे दिए गए हैं –

कबीर दास जी के दोहे

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय॥

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥

जो तोकौ काँटा बुवै, ताहि बोवे फूल।
तोहि फूल को फूल है, वा को है तिरसूल॥

दुर्बल को न सताइये, जा की मोटी हाय।
बिना जीव की- स्वास से, लोह भसम ह्वै जाय॥

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन कौं सीतल करै, आपहु सीतल होय॥

हस्ती चढ़िए ग्यान की, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूंकन दे झख मारि॥

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक॥

जैसा अन-जल खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय॥

करता था तो क्यों रहा, अब करि क्यों पछिताय।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहाँ ते खाय॥

दान किये धन ना घटे, नदी ना घटै नीर।
अपनी आँखों देखिये, यों कहि गये कबीर॥


रूखा-सूखा खाइ कै, ठंडा पानी पीव।
देख विरानी चोपड़ी, मत ललचावै जीव॥

साँच बराबर तप नहीं, झूँठ बराबर पाप।
जाके हिरदे साँच है, ताके हिरदे आप॥

साँच बिना सुमिरन नहीं, भय बिन भक्ति न होय।
पारस में पड़दा रहै, कंचन किहि विधि होय॥

साँचे को साँचा मिलै, अधिका बढ़े सनेह॥
झूँठे को साँचा मिलै, तब ही टूटे नेह॥

सहब के दरबार में साँचे को सिर पाव।
झूठ तमाचा खायेगा, रंक्क होय या राव।

झूठी बात न बोलिये, जब लग पार बसाय।
कहो कबीरा साँच गहु, आवागमन नसाय॥

जाकी साँची सुरति है, ताका साँचा खेल।
आठ पहर चोंसठ घड़ी, हे साँई सो मेल॥

कबीर लज्जा लोक की, बोले नाहीं साँच।
जानि बूझ कंचन तजै, क्यों तू पकड़े काँच॥

सच सुनिये सच बोलिये, सच की करिये आस।
सत्य नाम का जप करो, जग से रहो उदास॥

साँच शब्द हिरदै गहा, अलख पुरुष भरपुर।
प्रेम प्रीति का चोलना, पहरै दास हजूर॥


साँई सों साचा रहो, साँई साँच सुहाय।
भावै लम्बे केस रख, भावै मूड मुड़ाय॥

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय॥

प्रेम-प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्हे कोय।
आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावै सोय॥

प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहु होय विदेस ।
तन में, मन में, नैन में, ताको कहा सँदेश॥

कबिरा प्याला प्रेम का, अन्तर लिया लगाय ।
रोम-रोम मे रमि रहा, और अमल क्या खाय॥

जहाँ प्रेम तहँ नेम नहि, तहाँ न बुधि व्यौहार।
प्रेम-मगन जब मन भया, कौन गिनै तिथि बार॥

प्रेम छिपाये ना छिपै, जा घट परघट होय।
जोपै मुख बोले नहीं, नैन देत है रोय॥

जो घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिनु प्रान ॥

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥

सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥


बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥

जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥


कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥

गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥

आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥


शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥

जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥

आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥


सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥

गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥

जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥

गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥

समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥

हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥


कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥

कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥

जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥

साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥

लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥

भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥

अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥


मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥

प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥

सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥

सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥

जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥

जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥

नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥


आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥

बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥

फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥

दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥

दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥


छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥

मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥

जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥

काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥


बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥

तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥

जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥

कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥

आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥


सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥

सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥

बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥

आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥

कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥

ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥

सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥

सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥


जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥

सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥

यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥

जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥

जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥

जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥

लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥


कबीर दास जी के दोहों के अर्थ

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागौं पाय
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।
 

अर्थ –कबीरदास जी कहते हैं कि एक बार गुरु और ईश्वर एक साथ खड़े थे। तभी शिष्य को समझ में नहीं आ रहा था कि पहले किसके पाऊं छुए, इस पर ईश्वर ने कहा कि तुम्हें सबसे पहले अपने गुरु के पाव छूने चाहिए।

दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करें न कोय
जो सुख में सुमिरन करें, तो दुख काहे को होय। 

अर्थ- कबीरदास कहते हैं कि लोग जब दुखी होते हैं तो ईश्वर को याद करते हैं जबकि सुख में लोग ईश्वर को याद नहीं करते। अगर लोग सुख में भी ईश्वर को याद करें, उनकी आराधना करें, तो उन्हें दुःख आ ही नहीं सकता।

कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर
ना काहू से दोसती, ना काहू से बैर। 

अर्थ – कबीर जी ने  कहा कि जब उन्होंने इस संसार में जन्म लिया तो उनके मन में यहां के लोगों के लिए यही भावना थी कि सभी लोग अपना जीवन अच्छे से व्यतीत करें और किसी के भी मन में एक दूसरे के प्रति बैर भाव ना हो।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान

अर्थ -कबीरदास जी कहते हैं कि हमारा यह शरीर जहर की गठरी के समान है। और हमारे गुरु अमृत की तरह है। तो अगर आपको अपना शीश भी देना पड़े ऐसे गुरू के लिए तो वह सौदा भी बहुत सस्ता होता है।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जैसे दूसरों को शीतलता मिले और साथ ही साथ स्वयं का मन भी शीतल हो जाए। अर्थात हमेशा अच्छी वाणी ही बोलनी चाहिए।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।

अर्थ –कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की बोली बहुत ही ज्यादा अमूल्य है इसे बोलने से पहले हमें अपने हृदय रूपी तराजू में इसे तोलना चाहिए उसके बाद ही यह हमारे मुंह से बाहर आनी चाहिए।

साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।।

अर्थ – कबीरदस जी ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! मुझे केवल उतना ही दीजिए जिसमें मैं और मेरा परिवार भूखा ना रहे और दरवाजे पर से कोई वापस न लौटें।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।

अर्थ –कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहम था तब मुझे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई लेकिन जब मुझे हरी मिल गए तो मेरे अंदर से सारा निकल गया या बिल्कुल उसी तरह निकल गया जैसे दीपक जलाने पर सारा अंधियारा मिट जाता है।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैं इस संसार में बुरा खोजने चला तो मुझे कोई भी बुरा आदमी नहीं मिला, जब मैंने अपने ही मन में झांक कर देखा तो मुझे पता चला कि संसार में मुझसे बुरा इंसान कोई नहीं है।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।

अर्थ –कबीरदास जी कहते हैं कि हमें कभी अपने जीवन में एक तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो तिनका हमारे पांव के नीचे होता है वही जब आंख में पड़ जाता है तो हमें कष्ट देता है।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग इस संसार में जन्म लेते हैं पढ़ते हैं और मर जाते हैं लेकिन कोई भी पंडित नहीं हो पाता जो व्यक्ति प्रेम के ढाई अक्षर को समझ लेता है वह सबसे बड़ा विद्वान होता है।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में हर एक काम धीरे-धीरे होता है जिस तरह माली अपने फूलों को 100 घड़े भी  सींच ले लेकिन जब ऋतु आती है तभी उस में फल लगते हैं।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।

अर्थ –कबीरदास जी कहते हैं कि हमें कभी भी साधु की  शरीर नहीं देखनी चाहिए बल्कि हमें उनसे ज्ञान की बातें सीखनी चाहिए जिस प्रकार से तलवार की दुकान पर मूल्य केवल तलवार का होता है ना कि उसकी म्यान का जिसमें वह रखा गया है।

निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि निंदा करने वाले व्यक्ति को हमेशा अपने पास रखना चाहिए। क्योंकि निंदा करने वाला व्यक्ति हमारी बुराइयों को हमेशा हमें बताता रहेगा और हम अपनी बुराइयों का ज्ञान हो जाने के बाद हम अपनी बुराइयों को बिना पानी और साबुन के (अर्थात बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के) अपने से दूर कर सकेंगे।

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर

अर्थ – कबीर कहते हैं कि इतना बड़ा होने से क्या होगा अगर आप किसी की सहायता न कर पाए जिस प्रकार खजूर का पेड़ इतना बड़ा होता है लेकिन वह किसी भी पक्षी को ना तो छाया दे पाता है और उसमें फल भी बहुत दूर लगते हैं।

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।।

अर्थ –कबीर कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे तो सारा संसार हंसा था और हम रोए थे लेकिन हमें इस संसार में ऐसा काम करके जाना है कि जब हमारी मृत्यु तो हम हंसे और यह पूरा संसार हमारी मृत्यु पर आँसू बहाये।

मांगन मरण समान है, मत मांगो कोई भीख।
मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख।।

अर्थ –कबीरदास जी कहते हैं कि मांगना और मरना एक समान है इसलिए भीख मत मांगो उनके गुरु कह गए हैं कि भीख मांगने से अच्छा मरना है।

लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अभी समय है अभी से ही ईश्वर की भक्ति करना प्रारंभ कर दो क्योंकि जब अंत समय आएगा और प्राण छूटने लगेंगे तब पछताने से कुछ भी नहीं होगा।

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ।।

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य रात में सो कर और दिन में खा कर अपने अमूल्य समय को बर्बाद कर देता है और इस हीरे रूपी जन्म को कौड़ी में बदल देता है।

कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार ।
साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि कुटिल वचन अर्थात कड़वा वचन (कटु वचन) बुरा होता है। कटु वचन नहीं बोलना चाहिए, क्योकि इससे सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। जबकि सरल वचन (नम्र वचन) अमृत की धार के सामान मीठा होता है। इसको बोलने से प्रेम बढ़ता है।

तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।।

अर्थ – कबीर का कहना है कि तीरथ जाने से हमें एक फल मिलता है वहीं अगर संत मिल जाए तो हमें चार फल मिलते हैं लेकिन अगर हमारे जीवन में एक अच्छे गुरु मिल जाए तो हमें अनेकों फल मिलते हैं।

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जहां पर दया होती है वहां धर्म होता है जहां पर लालच होती है वहां पाप होता है और जहां पर क्रोध होता है वहां पर मृत होती है लेकिन जहां पर क्षमा होती है वहां पर स्वयं ईश्वर निवास करते हैं

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।

अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं जो काम कल करना चाहिए वह आज करो और जो आज करना है वह भी करो क्योंकि समय कब गुजर जाएगा हमें पता नहीं चलेगा और हम पछताते रह जाएंगे।

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे

अर्थ –कबीरदास जी कहते हैं कि कुम्हार जब बर्तन बनाता है तब मिट्टी को रोद (मसलता) करता है। उस समय मिट्टी कुंभार से कहती है कि, अभी आप मुझे रौंद रहे हैं, एक दिन ऐसा आएगा जब आप इसी मिट्टी में विलीन हो जाओगे और मैं आपको रौदूंगी।

धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।।

अर्थ –कबीर दास जी कहते हैं कि धर्म का कार्य करने से कभी धन नहीं घटता है ना तो नदी को देखने से उसका पानी कम होता है कबीर जी कहते हैं कि यह उन्होंने अपनी आंखों से देखा है।

माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं की दिन रात भगवान की पूजा करने से कुछ नहीं होगा जब तक आपका मन अंदर से शुद्ध नहीं है इसीलिए सबसे पहले हमें अपने मन को शुद्ध करना चाहिए।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि ना तो ज्यादा बोलना ही अच्छा है और ना ही ज्यादा चुप रहना अच्छा है उसी तरह ना तो ज्यादा बरसना ही अच्छा है और ना तो बहुत ज्यादा धूप ही अच्छी है।


कबीर दास जी की साखी

सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सईं न दाति ।
हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।१।।

सद्गुरु के समान कोई सगा नहीं है। शुद्धि के समान कोई दान नहीं है। इस शुद्धि के समान दूसरा कोई दान नहीं हो सकता। हरि के समान कोई हितकारी नहीं है, हरि सेवक के समान कोई जाति नहीं है।

बलिहारी गुरु आपकी, घरी घरी सौ बार ।
मानुष तैं देवता किया, करत न लागी बार ।।२।।

मैं अपने गुरु पर प्रत्येक क्षण सैकड़ों बार न्यौछावर जाता हूँ जिसने मुझको बिना विलम्ब के मनुष्य से देवता कर दिया।


सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।
लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावनहार ।।३।।

सद्गुरु की महिमा अनन्त है। उसका उपकार भी अनन्त है। उसने मेरी अनन्त दृष्टि खोल दी जिससे मुझे उस अनन्त प्रभु का दर्शन प्राप्त हो गया।

राम नाम कै पटंतरे, देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या लै गुरु संतोषिए, हौंस रही मन माँहि ।।४।।

गुरु ने मुझे राम नाम का ऐसा दान दिया है कि मैं उसकी तुलना में कोई भी दक्षिणा देने में असमर्थ हूँ।

सतगुरु कै सदकै करूँ, दिल अपनीं का साँच ।
कलिजुग हम सौं लड़ि पड़ा, मुहकम मेरा बाँच ।।५।।

सद्गुरु के प्रति सच्चा समर्पण करने के बाद कलियुग के विकार मुझे विचलित न कर सके और मैंने कलियुग पर विजय प्राप्त कर ली।

सतगुरु शब्द कमान ले, बाहन लागे तीर ।
एक जु बाहा प्रीति सों, भीतर बिंधा शरीर ।।६।।

मेरे शरीर के अन्दर (अन्तरात्मा में) सद्गुरु के प्रेमपूर्ण वचन बाण की भाँति प्रवेश कर चुके हैं जिससे मुझे आत्म-ज्ञान प्राप्त हो गया है।


सतगुरु साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक ।
लागत ही भैं मिलि गया, पड्या कलेजै छेक ।।७।।

सद्गुरु सच्चे वीर हैं। उन्होंने अपने शब्दबाण द्वारा मेरे हृदय पर गहरा प्रभाव डाला है।

पीछैं लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि ।।८।।

मैं अज्ञान रूपी अन्धकार में भटकता हुआ लोक और वेदों में सत्य खोज रहा था। मुझे भटकते देखकर मेरे सद्गुरु ने मेरे हाथ में ज्ञानरूपी दीपक दे दिया जिससे मैं सहज ही सत्य को देखने में समर्थ हो गया।

दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट ।
पूरा किया बिसाहना, बहुरि न आँवौं हट्ट ।।९।।

कबीर दास जी कहते हैं कि अब मुझे पुन: इस जन्म-मरणरूपी संसार के बाजार में आने की आवश्यक्ता नहीं है क्योंकि मुझे सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त हो चुका है।

ग्यान प्रकासा गुरु मिला, सों जिनि बीसरिं जाइ ।
जब गोविंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आई ।।१०।।

गुरु द्वारा प्रदत्त सच्चे ज्ञान को मैं भुल न जाऊँ ऐसा प्रयास मुझे करना है क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही सच्चे गुरु मिलते हैं।

कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लौंन ।
जाति पाँति कुल सब मिटे, नाँव धरौगे कौंन ।।११।।

कबीर कहते हैं कि मैं और मेरे गुरु आटे और नमक की तरह मिलकर एक हो गये हैं। अब मेरे लिये जाति-पाति और नाम का कोई महत्व नहीं रह गया है।

जाका गुरु भी अँधला, चेला खरा निरंध ।
अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत ।।१२।।

अज्ञानी गुरु का शिष्य भी अज्ञानी ही होगा। ऐसी स्थिति में दोनों ही नष्ट होंगे।

नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्याडाव ।
दोनौं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ।।१३।।

साधना की सफलता के लिए ज्ञानी गुरु तथा निष्ठावान साधक का संयोग आवश्यक है। ऐसा संयोग न होने पर दोनों की ही दुर्गति होती है। जैसे कोई पत्थर की नाव पर चढ़ कर नदी पार करना चाहे।

चौसठि दीवा जोइ करि, चौदह चंदा माँहि ।
तिहि घर किसकौ चाँन्दना, जिहि घर गोविंद नाँहि ।।१४।।

ईश्वर भक्ति के बिना केवल कलाओं और विद्याओं की निपुणता मात्र से मनुष्य का कल्याण सम्भव नहीं है।

भली भई जु गुर मिल्या, नातर होती हानि ।
दीपक जोति पतंग ज्यूँ, पड़ता आप निदान ।।१५।।

कबीर दास जी कहते हैं कि सौभाग्यवश मुझे गुरु मिल गया अन्यथा मेरा जीवन व्यर्थ ही जाता तथा मैं सांसारिक आकर्षणों में पड़कर नष्ट हो जाता।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं पडंत ।
कहै कबीर गुर ग्यान तैं, एक आध उबरंत ।।१६।।

माया का आकर्षण इतना प्रबल है कि कोई विरला ही गुरु कृपा से इससे बच पाता है।

संसै खाया सकल जग, संसा किनहुँ न खद्ध ।
जे बेधे गुरु अष्षिरां, तिनि संसा चुनिचुनि खद्ध ।।१७।।

अधिकांश मनुष्य संशय से ग्रस्त रहते हैं। किन्तु गुरु उपदेश से संशय का नाश संभव है।

सतगुर मिल्या त का भया, जे मनि पाड़ी भोल ।
पांसि विनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल ।।१८।।

सद्गुरु मिलने पर भी यह आवश्यक है कि साधना द्वारा मन को निम्रल किया जाय अन्यथा गुरु मिलन का संयोग भी व्यर्थ चला जाता है।

बूड़ा था पै ऊबरा, गुरु की लहरि चमंकि ।
भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरंकि ।।१९।।

कबीर दास जी कहते हैं कि कर्मकाण्ड रूपी नाव से भवसागर पार करना कठिन था। अत: मैंने कर्मकाण्ड छोड़कर गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से आसानी से सिद्धि प्राप्त कर ली।

गुरु गोविंद तौ एक है, दूजा यहु आकार ।
आपा मेट जीवत मरै, तौ पावै करतार ।।२०।।

गुरु और ईश्वर में कोई भेद नहीं है। जो साधक अहंता का भाव त्याग देता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है।

कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीख।
स्वाँग जती का पहिरि करि, घरि घरि माँगे भीख।।२१।।

सद्गुरु के मार्गदर्शन के अभाव में साधना अधूरी रह जाती है और ऐसे लोग संन्यासी का वेश बनाकर केवल भिक्षा मांगते रहते हैं।

सतगुर साँचा, सूरिवाँ, तातैं लोहि लुहार।
कसनी दे कंचन किया, ताई लिया ततसार।।२२।।

इस साखी में कबीर दास जी ने सद्गुरु के लिए सोनार और लोहार का दृष्टान्त दिया है। सोनार की भाँति गुरु शिष्य को साधना की कसौटी पर परखता है फिर लोहार की भाँति तपाकर शिष्य के मन को सही आकार देता है।

निहचल निधि मिलाइ तत, सतगुर साहस धीर ।
निपजी मैं साझी घना, बाँटे नहीं कबीर ।।२३।।

कबीर दास जी कहते हैं कि सद्गुरु की कृपा से आत्मज्ञान का आनन्द मुझे मिला है किन्तु चाह कर भी मैं इस आनन्द को दूसरों के साथ बाँट नहीं सकता क्योंकि आत्मानुभूति के लिए व्यक्ति को स्वयं साधना करनी पड़ती है।

सतगुर हम सूँ रीझि करि, कहा एक परसंग ।
बरसा बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग ।।२४।।

सद्गुरु ने प्रसन्न होकर हमसे एक रहस्य की बात बतलायी, जिससे प्रेम का बादल इस प्रकार बरसा कि हम उसमें भींग गये।

कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरस्या आइ ।
अंतरि भीगी आतमाँ, हरी भई बनराई ।।२५।।

कबीर दास जी कहते हैं कि सद्गुरु के बताये हुए मार्ग से प्रेम का बादल उमड़कर हमारे ऊपर बरसने लगा। हमारी अन्तरात्मा भींग गयी और जीवनरूपी वनराशि हरी हो गयी।


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