कर्नाटक युद्ध भारत में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच अट्ठारहवी शताब्दी के मध्य में अपने आप को ज्यादा ताकतवर राष्ट्र बताने की एक होड़ लग गई। दोनों राष्ट्रों के बीच अपना वर्चस्व साबित करने की इस होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। इस युद्ध को कर्नाटक का युद्ध के नाम से जाना गया। इस युद्ध का नाम कर्नाटक का युद्ध पड़ने के पीछे कारण था कि इस युद्ध का केंद्र कर्नाटक के भूभाग रहे। ब्रिटेन और फ्रांस ने तीन बार युद्ध किया। इस युद्ध का केंद्र कर्नाटक के भूभाग रहे इसलिए इसे कर्नाटक का युद्ध कहते हैं।
कर्नाटक युद्ध का कारण
जब औरंजेब की सन 1707 ई. में मृत्यु हो जाती है उसके बाद भारत के विभिन्न भागों से मुगलों का नियंत्रण कमजोर होता चला गया। और इसी क्रम में निजाम-उल-मुल्क ने ने स्वतंत्र हैदराबाद रियासत की स्थापना कर ली थी। परन्तु उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे नसीर जंग, एवं उसके पोते मुजफ्फर जंग में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष शुरु हो गया। इस संघर्ष के कारण ब्रिटेन और फ्रांसीसी कंपनियों को भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने का सुनहरा मौका मिल गया।
निज़ाम-उल-मुल्क की ही तरह नबाब दोस्त अली खान ने भी कर्नाटक को मुग़लों और हैदराबाद से स्वतंत्र कर अपना अलग रियासत बना लिया था। यहाँ भी उत्तराधिकार को लेकर वही कहानी दोहरायी गई। दोस्त अली के निधन के बाद उसके दामाद चंदा साहिब और मुहम्मद अली में उत्तराधिकार का विवाद शुरु हो गया। फ्रांस और इंग्लैंड ने यहाँ भी अपना हस्तक्षेप किया। फ्रांस ने चंदा साहिब का और इंग्लैंड ने मुहम्मद अली का समर्थन किया। और यही हस्तक्षेप दोनों कंपनियों के लिए आपसी विवाद का कारण भी बना। और इस प्रकार से दोनों के मध्य अपने अपने वर्चस्व को साबित का परिणाम युद्ध के रूप में सामने आया, जो कर्नाटक का युद्ध के कारण बना।
कर्नाटक में कितने युद्ध हुए?
अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनी के मध्य तीन युद्ध हुए, जिन्हें “कर्नाटक युद्ध” के नाम से संबोधित किया जाता है-
- पहला कर्नाटक युद्ध (1746-1748)
- दूसरा कर्नाटक युद्ध (1749 – 1754)
- तीसरा कर्नाटक युद्ध ( 1756 – 1763 )
प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-1748)
अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी कंपनी के बीच प्रथम कर्नाटक युद्ध दो वर्षों तक चला था, जो 1746-1748 के मध्य हुआ था।
उत्तराधिकार के इस संघर्ष में पांडिचेरी के गवर्नर डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों की विजय हुई। और अपने दावेदारों को गद्दी पर बिठाने के बदले में उन्हें उत्तरी सरकार का क्षेत्र प्राप्त हुआ, जिसे फ्रांसीसी अधिकारी बुस्सी ने सात सालों तक नियंत्रित किया।
प्रथम कर्नाटक युद्ध का कारण क्या था?
इस युद्ध का कारण उत्तराधिकार की लड़ाई ही थी परन्तु इसका कारण कोई भारत में उत्पन्न स्थिति नहीं थी बल्कि भारत से हज़ारों किलोमीटर दूर यूरोप में ही कुछ ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो गई जिनका प्रभाव भारत में आई अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनी पर भी पड़ा और इन दोनों के बीच प्रथम कर्नाटक युद्ध हुआ था। इसका कारण बना था ‘आस्ट्रिया’। आस्ट्रिया यूरोपीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला एक देश था जहा पर उत्तराधिकार के लिए ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच संघर्षचल रहा था।
यह विवाद इतना बढ़ गया कि इसका प्रभाव भारत में रह रहे ब्रिटेन और फ़्रांसिसी कंपनियों पर पड़ा। इसी के चलते भारत में भी इन दोनों देशो के बीच संघर्ष शुरू हो गया जो आगे चलकर एक युद्ध के रूप में तब्दील हो गया और प्रथम कर्नाटक युद्ध का कारण बना।
प्रथम कर्नाटक युद्ध की संधि
इस युद्ध का समापन “ऐ-ला शापेल” की संधि के द्वारा हुआ था। यह संधि ब्रिटेन और फ्रांस के बीच यूरोप में सन 1748 ई. में हुई थी। क्योकि यह युद्ध यूरोप में चल रही स्थितियों के प्रभाव के कारण भारत में हुआ था, इसलिए यह संधि यूरोप में हुई थी।
प्रथम कर्नाटक युद्ध के महत्वपूर्ण तथ्य
- जिस समय यह युद्ध चल रहा था उस समय भारत में फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले था, और उसी समय मॉरिशस क्षेत्र में भी फ्रेंच गवर्नर था जिनका नाम था ला बौर्डोनैसो ( La Bourdonnais )।
- डूप्ले ने ला बौर्डोनैसो की मदद ली और दोनों ने मिलकर ब्रिटेन पर दबाव बनाने की कोशिश की और इसी क्रम में वे मद्रास क्षेत्र को ब्रिटेन से ले पाने में कामयाब हो गए। और इसके साथ साथ इसी समय एक सेंट थॉम ( St. Thome ) का युद्ध भी हुआ था।
- हालाँकि सेंट थॉम युद्ध का कोई विशेष परिणाम नहीं आया और दोनों देशों ने एक दूसरे से छीने हुए क्षेत्र वापस कर दिए जैसे की मद्रास जिसे फ्रांस ने ब्रिटेन से ले लिया था, वह ब्रिटेन को वापस मिल गया और अमेरिका में जो क्षेत्र ब्रिटेन ने फ्रांस से ले लिया था, वह क्षेत्र फ्रांस को वापस मिल गया था।
दूसरा कर्नाटक युद्ध (1749 – 1754)
प्रथम कर्नाटक के युद्ध में फ्रांसीसियों की जीत तो हो गई थी परन्तु फ्रांसीसियों की यह जीत बहुत कम समय की थी क्योकि 1751 ई. में रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने युद्ध की परिस्थितियाँ पूरी तरह से बदल दी थी। राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ने एक साल बाद ही उत्तराधिकार हेतु फ्रांसीसी समर्थित दावेदारों को पराजित करने में सफलता प्राप्त कर ली। इसमें ब्रिटिश की जीत हुई और अंततः फ्रांसीसियों को ब्रिटिशों के साथ पान्डिचेरी की संधि करनी पड़ी।
अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी कंपनी के मध्य द्वितीय कर्नाटक युद्ध पाँच वर्षों के लिए हुआ था, जो 1749-1754 के बीच हुआ था।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध का कारण क्या था?
कोई भी राजाअपनी मृत्यु से पहले ही अपना उत्तराधिकारी चुन लेता है, परन्तु फिर भी कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि राजा की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार बनने के लिए उसके पुत्रों या रिश्तेदारों में संघर्ष उत्पन्न हो जाता है।
ऐसी ही कुछ स्थिति भारत के हैदराबाद और कर्नाटक रियासत में उस समय पैदा हो गई थी जब अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनी भारत में अपना विस्तार कर रही थी।
हैदराबाद और कर्नाटक इन दोनों ही क्षेत्रों में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष शुरू हुआ। अंग्रेजी और फ्रांसीसी दोनी कंपनियों ने इस स्थिति का लाभ लेना चाहा। दोनों ही कंपनियों ने अपने-अपने हितों को देखते हुए अलग-अलग पक्ष का समर्थन दिया और फिर दोनों पक्षों के बीच युद्ध हो गया, जिसे द्वितीय कर्नाटक का युद्ध के नाम से जाना गया।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध की संधि (पाण्डिचेरी कि संधि)
यह युद्ध भारत में उत्पन्न हुई स्थितयों के कारण हुआ था इसलिए फ्रांस और ब्रिटेन के बीच इस युद्ध की संधि फ्रांस के कब्ज़े वाले क्षेत्र पांडिचेरी में सन 1755 ई. में हुई थी, और इस समधी के साथ ही यह युद्ध समाप्त हो गया।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध के महतवपूर्ण तथ्य
- इस समय अम्बूर का युद्ध सबसे महत्वपूर्ण युद्ध था। यह युद्ध दोनों अंग्रेजी और फ्रेंच गुटों के बीच हुआ था ताकि जिनको वे समर्थन दे रहे थे वे हैदराबाद और कर्नाटक की सत्ता हासिल कर सके। इस युद्ध का भी कोई विशेष परिणाम नहीं निकला था।
तीसरा कर्नाटक युद्ध (1756 – 1763)
तृतीय कर्नाटक युद्ध में दोनों यूरोपीय शक्तियों की शत्रुता फिर से सामने आ गयी। इस युद्ध की शुरुआत फ्रांसीसी सेनापति काउंट दे लाली द्वारा मद्रास पर आक्रमण के साथ हुई। यह युद्ध सात वर्षों तक चला। इस युद्ध में फ्रांसीसी सेनापति लाली को ब्रिटिश सेनापति सर आयरकूट द्वारा हरा दिया गया। और इस प्रकार 1761 ई. में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी पर कब्ज़ा कर लिया और लाली को जिंजी और कराइकल के समर्पण हेतु बाध्य कर दिया गया। इस प्रकार से फ्रांसीसी बांडीवाश में लडे गये तीसरे कर्नाटक युद्ध (1760 ई.) में हार गए और बाद में यूरोप में उन्हें ब्रिटेन के साथ पेरिस की संधि करनी पड़ी।
अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी कंपनी के बीच तृतीय कर्नाटक युद्ध सात वर्षों के लिए हुआ था, जो 1756-1763 के मध्य हुआ था।
तृतीय कर्नाटक युद्ध का कारण क्या था?
इस युद्ध का कारण भी प्रथम कर्नाटक युद्ध की तरह कोई भारत में उत्पन्न स्थिति नहीं थी, जैसा कि हमने ऊपर जाना की प्रथम कर्नाटक युद्ध का कारण यूरोप के एक देश ऑस्ट्रिया में उत्तराधिकार को लेकर ब्रिटेन और फ्रांस के बीच चल रहा संघर्ष था।
इसी ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार को लेकर ब्रिटेन और फ्रांस के बीच जो स्थिति थी वह अभी तक शांत नहीं हुई थी और कुछ बिंदुओं को लेकर देशों के बीच अभी भी संघर्ष चल ही रहा था।
इसी क्रम में दोनों देशों के बीच यूरोप में “सप्तवर्षीय युद्ध” हुआ, जिस युद्ध का प्रभाव भी भारत में आई इन दोनों देशों की कंपनियों पर पड़ा और भारत में भी इन दोनों देशों की कंपनियों के बीच युद्ध आरंभ हो गया।
तृतीय कर्नाटक युद्ध की संधि
क्यूंकि यह युद्ध भी यूरोप की स्थितियों के प्रभाव से ही भारत में लड़ा जा रहा था, इसलिए यह संधि भी प्रथम कर्नाटक युद्ध की तरह भारत से बाहर ही हुई थी। ब्रिटेन और फ्रांस के बीच यह संधि फ्रांस की राजधानी पेरिस में सन 1763 ई. में हुई थी।
तृतीय कर्नाटक युद्ध के महतवपूर्ण तथ्य
- इस समय सबसे महत्वपूर्ण युद्ध “वांडीवाश का युद्ध” हुआ था, जो की ब्रिटेन और फ्रांस के बीच 1760 में हुआ था, यह एक ऐसा युद्ध था जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों को इस युद्ध में विजय प्राप्त हुई थी।
- इस युद्ध के परिणाम के बाद भारत से फ्रांस का वर्चस्व खत्म हो गया था और यह भी तय हो गया कि अब अंग्रेजी कंपनी ही भारत में पूर्णतः अपनी प्रधानता बनाएगी और फ्रांसीसी बहुत कम ही क्षेत्रों में सिमट कर रह गए थे ये क्षेत्र थे – पांडिचेरी, माहे, कारिकल आदि।
- वांडीवाश के युद्ध में फ्रांस की तरफ से कॉम्टे डी लैली ( Comte de Lally ) नेतृत्व कर रहे थे जबकि अंग्रेजों की तरफ से सर आयर कूट ( Sir Eyre Coote ) नेतृत्व कर रहे थे।
इन्हें भी देखें –
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी (1600 – 1858)
- ब्रिटिश राज (1857 – 1947)
- भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस (1885-1947)
- सैयद वंश (1414-1451 ई.)
- टीपू सुल्तान (1750-1799 ई.)
- तुगलक वंश (1320-1413ई.)
- भारतीय परमाणु परीक्षण (1974,1998)
- लोदी वंश (1451-1526 ई.)
- भारत के स्वतंत्रता सेनानी: वीरता और समर्पण
- Revolutionary Database Management System | DBMS
- HTML’s Positive Potential: Empower Your Web Journey|1980 – Present
- A Guide to Database Systems | The World of Data Management
- Kardashev scale