कुमारगुप्त प्रथम | परमदैवत, महेंद्रादित्य | 415 ई.- 455 ई.

कुमारगुप्त प्रथम, गुप्त वंश के सम्राट एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र थे। पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद वह राजगद्दी पर बैठे। इनकी माता का नाम पट्टमहादेवी ध्रुवदेवी था। उनके शासन काल में विशाल गुप्त साम्राज्य अक्षुण रूप से क़ायम रहा। बल्ख से बंगाल की खाड़ी तक उनका अबाधित शासन था। सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती जनपद कुमारगुप्त के साम्राज्य के अधीन थे। गुप्त वंश की शक्ति उसके शासन काल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। कुमारगुप्त को विद्रोही राजाओं को वश में लाने के लिए कोई युद्ध नहीं करने पड़े।

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कुमारगुप्त प्रथम का संक्षिप्त परिचय

नामकुमारगुप्त प्रथम
जन्म399 ई., प्राचीन भारत
माताध्रुवा देवी
पिताचन्द्रगुप्त द्वितीय
पत्नीमहारानी अनंता देवी, रानी देवकी
पुत्रस्कंदगुप्त,  पूरुगुप्त
दादासमुद्रगुप्त
दादीदत्ता देवी
धर्महिंदू
साम्राज्यगुप्त साम्राज्य
पूर्ववर्ती राजाचन्द्रगुप्त द्वितीय
उत्तराधिकारी राजा स्कंदगुप्त
शासन415 ईस्वी – 455 ईस्वी
उपाधि महाराजाधिराज, परम भट्टारका, परमद्वैता, शंक्रादित्य, महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, श्री महिंद्रा, महेंद्रसिंह, महेंद्र सिम्हा, अश्वमेघमहेंद्र, अश्वमेध महिंद्रा, परमदैवत
मृत्यु 455 ई., प्राचीन भारत 

कुमारगुप्त प्रथम का पारिवारिक जीवन

कुमारगुप्त प्रथम के 2 पुत्र – स्कंदगुप्त और पूरुगुप्त थे। स्कंदगुप्त के अभिलेख में उसकी माता का नाम नहीं बताया गया है। कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम की राजकुमारी अनंता देवी से हुआ था। जिनसे उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम पूरुगुप्त था।

भिटारी के अभिलेख बताते हैं कि कुमारगुप्त प्रथम ने अपने एक मंत्री की बहिन के साथ विवाह किया था। परंतु, उन्हें प्राप्त हुई संतान का कहीं जिक्र नहीं मिलता है।

कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम के समय के लगभग 16 अभिलेख और बड़ी मात्रा में स्वर्ण के सिक्के प्राप्त हुए हैं। उनसे उसके अनेक नामों की यथा- ‘परमदैवत’, ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’, ‘अश्वमेघमहेंद्र’, ‘महेंद्रादित्य’, ‘श्रीमहेंद्र’, ‘महेंद्रसिंह’ आदि की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत हैं, जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं।

कुमारगुप्त प्रथम

कुछ अभिलेख उनकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं। सिक्कों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने दो अश्वमेध यज्ञ किए थे। उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है। वे पूर्व में उत्तर-पश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगर, अहमदाबाद, उत्तर प्रदेश और बिहार में उनकी संख्या अधिक है। उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों का भी ज्ञान होता है।

कुमारगुप्त प्रथम के राज्य पर आक्रमण

कुमारगुप्त के अंतिम दिनों में साम्राज्य को हिला देने वाले दो आक्रमण हुए थे। पहला आक्रमण कदाचित्‌ नर्मदा नदी और विध्यांचल पर्वतवर्ती आधुनिक मध्य प्रदेशीय क्षेत्रों में बसने वाली पुष्यमित्र नाम की किसी जाति का था। उनके आक्रमण ने गुप्त वंश की लक्ष्मी को विचलित कर दिया था, किंतु राजकुमार स्कंदगुप्त आक्रमणकारियों को मार गिराने में सफल हुआ। दूसरा आक्रमण हूणों का था, जो संभवत उसके जीवन के अंतिम वर्ष में हुआ था। हूणों ने गंधार पर क़ब्ज़ा कर गंगा की ओर बढ़ना प्रारंभ कर दिया था। स्कंदगुप्त ने उन्हें पीछे ढकेल दिया।

कुमारगुप्त प्रथम का शासन काल | सुख-समृद्धि का युग

कुमारगुप्त का शासन काल भारतवर्ष में सुख और समृद्धि का युग था। वह स्वयं धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु और उदार शासक के रूप में जाने जाते थे। उसके अभिलेखों में पौराणिक हिन्दू धर्म के अनेक संप्रदायों के देवी-देवताओं के नामोल्लेख और स्मरण होने के साथ ही साथ बुद्ध की भी स्मृति चर्चा है। उसके उदयगिरि के अभिलेख में पार्श्वनाथ के मूर्ति निर्मांण का भी वर्णन है। यदि ह्वेनत्सांग ने ‘शंक्रादित्य’ नाम से जिसे संबोधित किया है वह कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य ही हैं, तो इन्हें ‘नालन्दा विश्वविद्यालय’ का संस्थापक भी कह सकते हैं।

कुमारगुप्त प्रथम का शासन का प्रबंधन

अपने शासन के अंतिम समय में कुमारगुप्त को पुष्यमित्र या हूण जातियों के विद्रोह सामना करना पड़ा। ऐसा लगता था कि इस विद्रोह के बाद से ही गुप्त साम्राज्य  विघटन की ओर चला जाएगा। परंतु कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने राजा बनने के बाद अपनी वीरता और शौर्य से हूणों को पराजित कर गुप्त वंश को भयंकर संकट से बचाया।

कुमारगुप्त के साम्राज्य में मजबूत शासन प्रणाली थी जिसकी बदौलत वह इतने बड़े साम्राज्य को संभाल पाने में सफल हुए। उनके राज्य में उपरिकस, भूक्तिस, विशयास और विश्यापति थे जो वर्तमान समय में क्रमशः गवर्नर, मुख्यमंत्री, कलेक्टर व मजिस्ट्रेट के समान पद थे। 

उपरिकस (गवर्नर) को महाराजा कहा जाता था जो शासन के कार्यभार व राज्यों से प्राप्त कर का हिसाब रखते थे। भूक्तिस (मुख्यमंत्री) हर एक राज्य एक ही होता था जो राज्य का शासन संभालता था। विशयास (कलेक्टर) राज्य के ही अंगों पर गौर करते थे और विश्यापति (मजिस्ट्रेट) अन्य नीचे स्तर के कार्यों की देखरेख किया करते थे।

कुमारगुप्त प्रथम की सैनिक एवं राजनैतिक उपलब्धियाॅं

कुमारगुप्त ने लगभग 40 वर्षों तक शासन किया। उनका राज्यकाल 415 ई. से 455 ई. तक था। 40 वर्षों में कुमारगुप्त प्रथम ने कोई सैनिक सफलता तो अर्जित नहीं की, परन्तु अपने पूर्वजों से जो विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने अक्षुण्ण बनाये रखा। उनके राज्यकाल में शान्ति और सुव्यवस्था कायम रही।  

कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके शासन के वर्ष शान्तिपूर्ण रहे और वह व्यवस्थित तरीके से शासन करते थे। लेकिन उसके शासन का अन्तिम चरण शान्तिपूर्ण नहीं था। स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख से पता चलता है कि इस काल में पुष्यमित्रों ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण किया था। हालाँकि स्कन्दगुप्त ने इस आक्रमण को विफल कर दिया था।

इस अभिलेख के अनुसार इस आक्रमण के परिणाम स्वरूप इस कुल की राजलक्ष्मी विचलित हो उठी। इसे स्थिर करने में स्कन्दगुप्त को कठिन  प्रयास करना पड़ा पुष्यमित्रों के तेज़ी को रोकने के लिए उसे पूरी रात युद्धभूमि में ही बितानी पड़ी। भीतरी लेख से पता चलता है कि पुष्यमित्रों की सैन्यशक्ति एवं साधन विकसित थे तथा उनसे मुकाबला करना अत्यन्त कठिन कार्य था।

इसलिए इस अभिलेख में तीन बार गुप्तों की लक्ष्मी विचलित होने का उल्लेख है। जिससे इस आक्रमण की तेजी का अनुमान लगाया जा सकता है। कुमारगुप्त इस समय तक बूढ़े हो चुके थे। इसलिए उनके पुत्र युवराज स्कन्दगुप्त को इस युद्ध के संचालन का नेतृत्व करना पड़ा।

स्कन्दगुप्त ने बड़ी कुशलता-पूर्वक पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल कर दिया तथा अपनी योग्यता और शक्ति को प्रदर्शित किया। स्कन्दगुप्त की यह विजय अत्यन्त महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इस विजय से पुष्यमित्रों ने उत्पात, भय और आतंक की जो स्थिति उत्पन्न कर दी थी वह समाप्त हो गयी और उनके विचलित कर देने वाले प्रहारों से गुप्तवंश विलुप्त होने से बच गया।

विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पुष्यमित्र नामक जाति थी। वायुपुराण तथा जैनकल्पसूत्र में इस जाति का उल्लेख मिलता है। वे नर्मदा नदी के मुहाने के समीप मेकल में शासन करते थे। पुष्यमित्रों के पहचान का निर्धारण करना कठिन तो अवश्य है किन्तु इतना स्पष्ट है कि आक्रमणकारी बुरी तरह परास्त हुए और उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। इस विजय की सूचना मिलने से पहले ही वृद्ध सम्राट कुमारगुप्त दिवंगत हो चुके थे।

कुमारगुप्त प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

कुमारगुप्त प्रथम एक एक योग्य शासक थे। जिन्होंने गुप्तवंश को आगे बढाया और एक उदारवादी शासक के रूप में अपनी पहचान स्थापित किया। इसके साथ ही साथ उन्होंने कई सांस्कृतिक उपलब्धियां भी अर्जित की और बहुत से निर्माण कार्य भी कराये ।

1. सहिष्णुता और निर्माण-कार्य

कुमारगुप्त प्रथम का शासन-काल सहिष्णुता और सार्वजनिक निर्माण कार्यों का काल था। वह अपने पूर्वजों की तरह वैष्णव था। उसके मुद्राओं एवं अभिलेखों पर उसकी ‘परमभागवत‘ की उपाधि मिलती है। मुद्राओं पर विष्णु के वाहन गरूड़ की चित्र भी खुदा हुआ है। लेकिन उसने अपने पूर्वजों की धार्मिक सहिष्णुता को कायम रखा।

ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतान्त में उल्लेख किया है कि शक्रादित्य (कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य) ने नालन्दा बौद्ध बिहार की स्थापना की थी। यहाँ पर कुमारगुप्त प्रथम ने 450 ई. में विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्‍वविद्यालय की स्थापना की थी। इस विश्वविद्यालय को बाद के गुप्त वंशीय शासकों ने इस विश्वविद्यालय के निर्माण कार्य को जारी रखा और 470 ई. तक यह विश्वविद्यालय दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हो चुका था।

उस समय के करमदण्डा अभिलेख से पता चलता है कि कुमारगुप्त प्रथम का एक उच्च पदाधिकारी पृथ्वीषेण, जो उसका पहले मंत्री और कुमारामात्या था तथा बाद में कुमारगुप्त का महाबलाधिकृत (सेनापति) हो गया, शैव संप्रदाय से था। करमदण्डा अभिलेख में उसके द्वारा एक शैव-मूर्ति की स्थापना का उल्लेख मिलता है। 

मन्दसोर अभिलेख से ज्ञात होता है कि पश्चिमी मालवा के गवर्नर बन्धुवर्मा के शासनकाल में एक दशपुर में एक सूर्यमंदिर का निर्माण करवाया था। बिलसड़ के अभिलेख से पता चलता है कि ध्रुवशर्मा ने स्वामी महासेन (कार्तिकेय) का एक मंदिर बनवाया था। मनकुवर के अभिलेख में बुद्धमित्र द्वारा एक बुद्ध-प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख मिलता है।

उदयगिरी के एक गुहा लेख में शंकर द्वारा जैन तीर्थकर पाश्र्वनाथ की मूर्ति-स्थापना का प्राप्त होता है। उनमें किसी प्रकार की धार्मिक शत्रुता नहीं थी। लोह अपनी इच्छा के अनुसार कई धर्मों के मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण करते थे और अपनी इच्छा अनुसार दान भी देते थे। राजा की नजर में भी कोई पक्षपात नहीं था। वह एक मात्र योग्यता के आधार पर अपने पदाधिकारियों को नियुक्त करते थे, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय के हों।

2. अश्वमेघ यज्ञ

कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया था। अश्वमेघ के सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञयूप में बधे हुए घोड़े की चित्र तथा मुख्य भाग पर ‘श्री अश्वमेघमहेन्द्रः‘ मुद्रालेख छपी है। लेकिन कुमारगुप्त ने किस उपलब्धि के लिए यह अनुष्ठान किया था, इसका पता नहीं चलता।

नालंदा विश्वविद्यालय (निर्माण 450 ईस्वी से 470 ईस्वी)

5वीं शताब्दी ईस्वी (450 ईस्वी) में नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण गुप्त वंश के कुमारगुप्त ने करवाया था। कुमारगुप्त प्रथम के बाद उनके उत्तराधिकारी अन्य गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ अनेक विहारों और विश्वविद्यालय के भवनों का निर्माण करवाया। इनमें से गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य ने 470 ई. में यहाँ एक सुंदर मंदिर बनवाकर भगवान बुद्ध की 80 फीट की प्रतिमा स्थापित की थी। इसके बाद इसका निर्माण कार्य पूरा हो चुका था और इसे दुनिया के लिए अध्यन का एक केंद्र बना दिया गया था। नालन्दा विश्‍वविद्यालय में अध्ययन करने के लिए जावा, चीन, तिब्बत, श्रीलंका व कोरिया आदि देशों के छात्र आते थे।

जब ह्वेनसांग भारत आया था उस समय नालन्दा विश्‍वविद्यालय में 8500 छात्र एवं 1510 अध्यापक थे। उस समय शीलभद्र, धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, दिकनाग, ज्ञानचन्द्र, नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग, धर्मकीर्ति आदि नालंदा के प्रख्यात आचार्य (प्रोफ़ेसर) थे। तथा शीलभद्र यहाँ के प्राचार्य थे।

इसके निर्माण के बाद कन्नौज के राजा हर्षवर्धन, पाल शासक और अनेक विद्वानों ने समय समय पर इसका संरक्षण किया। नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा, प्रतिष्ठा और बौद्धिक आदान-प्रदान का केंद्र था। बौद्ध दर्शन के अलावा, इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, चिकित्सा, तर्कशास्त्र और गणित भी पढ़ाया जाता था। यह 5वीं शताब्दी ई. से 1200 ई. तक शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था। नालंदा विश्वविद्यालय को इतिहासकारों द्वारा दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय माना जाता है।

हालाँकि तक्षशिला विश्वविद्यालय और भी पुराना लगभग (700 ईसा पूर्व) है, परन्तु यह तक्षशिला विश्वविद्यालय आवासीय नहीं था। तक्षशिला विश्वविद्यालय इस समय पाकिस्तान के रावलपिंडी (पंजाब) में स्थित है। यह कभी भारत का हिस्सा हुआ करता था।

नालंदा विश्वविद्यालय में छात्रों के रहने की उत्तम व्यवस्था थी। इस विश्वविद्यालय में 8 शालाएं और 300 कमरे थे। अनेक खंडों में विद्यालय तथा छात्रावास बने हुए थे। छात्रों के सोने के लिए पत्थर के शयनयान बने हुए थे, तथा उसने स्नान के लिए सुन्दर तारण ताल बने हुए थे इस तरण तालों में नीचे से ऊपर जल पहुचने की व्यवस्था की गयी था। इसके परिसर में जगह जगह पर तांबे एवं पीतल की बुद्ध की अनेकों छोटी बड़ी मूर्तियाँ थी। इस विश्‍वविद्यालय में शिक्षण कार्य पालि भाषा में होता था। 

नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश के नियम

ह्वेनसांग ने दस वर्षों तक यहाँ अध्ययन किया। ह्वेनसांग ने अपनी पुस्तक में लिखा था था कि नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना अत्यंत कठिन था। इस विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए छात्र को प्रवेश परीक्षा (Entrance Test) देनी होती थी। इस प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही प्रवेश मिल पाना संभव था। यह प्रवेश परीक्षा छ: भागों में विभाजित थी। इस परीक्षा के छः भागों को संपन्न करने के लिए विश्विद्यालय में छ: द्वार बनाये गए थे। इस छः द्वारों से होकर ही छात्र को विद्यालय में प्रवेश करना होता था।

प्रत्येक द्वार पर एक द्वार पण्डित होता था। प्रवेश का इच्छुक छात्र जब पहले द्वार पर पहुँचता था तो उस द्वारा पर मौजूद पंडित उसकी परीक्षा लेता था। अगर वह छात्र उस परीक्षा में अनुतीर्ण हो जाता था तो उसे प्रवेश नहीं मिलता था और उसको वापस कर दिया जाता था। यदि वह छात्र उत्तीर्ण हो जाता था तो उसे आगे दूसरे द्वार की तरफ भेजा जाता था जहाँ पर मौजूद पंडित पुनः उसकी परीक्षा लेता था। अगर वह छात्र यहाँ पर अनुतीर्ण हो गया तो उसे वही से योग्य करार देकर वापस कर दिया जाता।

दूसरे द्वारा पर उतीर्ण होने पर उसे आगे जाने दिया जाता था। आगे वह तीसरे द्वार पर पहुँचता था। इस प्रकार से उसे छ: द्वारों पर स्थित पंडितों द्वारा ली गयी परीक्षा को पास करने पर ही नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल पाता। जिस द्वारा पर छात्र अनुतीर्ण हो जाता वहा से वह असफल होकर प्रवेश प्रक्रिया से बहार हो जाता था। इस परीक्षा में 20 से 30 प्रतिशत छात्र ही उत्तीर्ण हो पाते थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश के बाद भी छात्रों को कठोर परिश्रम करना पड़ता था तथा अनेक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। यहाँ से स्नातक करने वाले छात्र का हर जगह सम्मान होता था।

नालंदा विश्वविद्यालय की निःशुल्क व्यवस्था

नालन्दा विश्वविद्यालय में शिक्षा, आवास, भोजन आदि का कोई शुल्क छात्रों से नहीं लिया जाता था। सभी सुविधाएं नि:शुल्क थीं। राजाओं और अमीर लोगों द्वारा दिये गये दान से इस विश्वविद्यालय का व्यय चलता था। इस विश्वविद्यालय को 200 ग्रामों की आय प्राप्त होती थी।

नालंदा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और शिक्षक

नालंदा में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त हेतुविद्या, शब्दविद्या, चिकित्सा शास्त्र, अथर्ववेद तथा सांख्य से संबंधित विषय भी पढ़ाए जाते थे। शिक्षा की व्यवस्था महास्थविर के नियंत्रण में थी। अर्थात महास्थविर यहाँ के व्यवस्थापक थे। शीलभद्र यहाँ के प्रधानाचार्य थे, जो एक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् थे। यहाँ के अन्य ख्याति प्राप्त आचार्यों में नागार्जुन, पदमसंभव (जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया), शांतिरक्षित और दीपंकर शामिल थे। ये सभी बौद्ध धर्म के इतिहास में प्रसिद्ध हैं।

ह्वेनसांग ने लिखा है कि नालंदा के एक सहस्त्र विद्वान् आचार्यों में से सौ ऐसे थे जो सूत्र और शास्त्र जानते थे, पाँच सौ विद्वान ऐसे थे जो तीन विषयों में पारंगत थे और बीस विद्वान ऐसे थे जो पचास विषयों में पारंगत थे। केवल शीलभद्र ही ऐसे थे जिनकी सभी विषयों में जानकारी थी।

नालंदा विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का महत्व

7वीं शती में और उसके पश्चात् कई सौ वर्षों तक, नालंदा एशिया का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय था। यहाँ अध्ययन के लिए चीन के अतिरिक्त चंपा, कंबोज, जावा, सुमात्रा, ब्रह्मदेश, तिब्बत, लंका और ईरान आदि देशों के विद्यार्थी आते थे और विद्यालय में प्रवेश पाकर अपने को धन्य मानते थे।

नालंदा के विद्यार्थियों द्वारा ही एशिया में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ था। यहाँ के विद्यार्थियों और विद्वानों की मांग एशिया के सभी देशों में थी और उनका सर्वत्र आदर होता था। तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर भदंत शांतिरक्षित और पद्मसंभव तिब्बत गए थे। वहाँ उन्होंने संस्कृत, बौद्ध साहित्य और भारतीय संस्कृति का प्रचार किया।

बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करना

1193 ई. में एक तुर्क शासक मुहम्मद बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था, जिसका उद्देश्य ज्ञान, बौद्ध धर्म और आयुर्वेद की जड़ों को नष्ट करना था। उसने नालंदा के पुस्तकालय में आग लगा दी थी। कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में इतनी पुस्तकें थी की पूरे तीन महीने तक यहां के पुस्तकालय में आग धधकती रही। उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार डाले। बख्तियार खिलजी ने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया था।

नालंदा विश्वविद्यालय का यूनेस्को विश्व धरोहर सूची में शामिल होना

नालंदा विश्वविद्यालय को 9 जनवरी 2009 को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया। नालंदा विश्वविद्यालय को 2010 में पुनर्जीवित किया गया और इसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान का दर्जा दिया गया। यह बिहार के नालंदा जिले के राजगीर में स्थित है और विदेश मंत्रालय के अधीन कार्य करता है।

कुमारगुप्त प्रथम का धर्म

कुमारगुप्त के सिक्कों पर गरुड़ का चिन्ह बना हुआ है जिससे पता चलता है कि वह भगवान विष्णु के परम भक्त थे क्योंकि गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन है। हालांकि, गुप्त साम्राज्य का राष्ट्रीय चिन्ह भी गरुड़ था जो उनके पूर्वजों ने अपनाया था।

इसके साथ ही वह कार्तिकेय के भी भक्त थे। उनके सिक्कों पर कार्तिकेय को मोर पर बैठा हुआ दिखाया गया है। कार्तिकेय को स्कंद भी कहा जाता है जिसके कारण उन्होंने अपने एक पुत्र का नाम स्कंदगुप्त रखा था और खुद का नाम “कुमार” रखा था।

उनके राज्य में बौद्ध, जैन, शैव और विष्णु में विश्वास माने जाते रहे थे। वह खुद एक हिंदू थे , उनके द्वारा किया गया अश्वमेध यज्ञ हिंदू धर्म का एक प्रमाण है।

कुमारगुप्त प्रथम के सिक्के

कुमारगुप्त प्रथम ने अपने शासन के दौरान बड़ी संख्या में सिक्के जारी किए। बयाना से 614 सिक्के मिले हैं उन सिक्कों के मुख्य प्रकार निम्न है-

कुमारगुप्त प्रथम | परमदैवत, महेंद्रादित्य | 415 ई.- 455 ई.
  1. धनुर्धारी
  2. घुड़सवार 
  3. तलवारधारी
  4. शेर कातिल
  5. बाघ कातिल
  6. हाथी सवार
  7. हाथी सवार-बाघ कातिल
  8. गैंडा कातिल
  9. अश्वमेध
  10. छत्र
  11. अप्रतिघा
  12. गीतिकाव्यकार
  13. राजा और रानी

इन सिक्कों पर कुमारगुप्त प्रथम को भिन्न-भिन्न उपाधियां दी गई है जैसे श्री महिंद्रा, महेंद्र सिम्हा, अश्वमेध महिंद्रा इत्यादि।

कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु

संभवतः कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु प्राचीन भारत में 455 ई. में हुई थी। स्कंदगुप्त के अभिलेखों में बताया गया है कि स्कंदगुप्त 455 ई. में गुप्त साम्राज्य की राजगद्दी पर बैठे। जिसका मतलब है कि कुमारगुप्त ने उसी वर्ष या उससे पहले वर्ष में राज सिंहासन छोड़ा होगा। 

वी. ए. स्मिथ ने कुमारगुप्त के सिक्कों से पता लगाया है कि उसने 455 ई. तक शासन किया था। कुमारगुप्त प्रथम के राज्य के अंतिम वर्ष शांतिपूर्वक नहीं रहे। उस समय पुष्यमित्र या हूणों ने उनके खिलाफ रोष जताना शुरू कर दिया था और ऐसा माना जाता है कि जिसके कारण उन्होंने राज्य के कई भागों पर अपना अधिकार खो दिया था।

कुमारगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी स्कंदगुप्त

कुमारगुप्त प्रथम | परमदैवत, महेंद्रादित्य | 415 ई.- 455 ई.

455 ई. में स्कंदगुप्त, गुप्त वंश की राजगद्दी पर बैठे। राजा बनने के तुरंत बाद ही उनको हूणों (मलेच्छ/पुष्यमित्र) के आक्रमण का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपनी वीरता, सहस और पराक्रम के दम पर इस युद्ध में हूणों को पराजित कर दिया और उनके क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया।

उनके दादा समुद्रगुप्त के समय में ये क्षेत्र गुप्त वंश के ही अंग थे। जिनको हूणों ने अपने कब्जे में ले लिया था। इस जीत के बाद वह अपनी मां से मिलने गए जिनकी आंखें खुशी के मारे आंसुओं से भर आई थी।


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