गयासुद्दीन बलबन | GAYASUDDIN BALBAN |1266-1286

गयासुद्दीन बलबन का वास्तविक नाम बहाउद्दीन था, जो मध्य एशिया के एक सम्पन्न इलाबरी जन जाति के तुर्क परिवार से था। इसके पिता इलबारी जनजाति के कबीले के तुर्क सरदार थे। गयासुद्दीन बलबन गुलाम वंश का नौवां सुल्तान था। गयासुद्दीन बलबन ने गुलाम वंश के अंतर्गत एक नए राजवंश, “बलबनी राजवंश” की स्थापना की। बलबन मूलतः सुल्तान इल्तुतमिश का तुर्की गुलाम था।

गयासुद्दीन बलबन एक बेहद चतुर सैन्य प्रमुख शासक था। लेकिन दुर्भाग्य से, मंगोलों द्वारा बचपन में ही गयासुद्दीन बलबन को बन्दी बना लिया गया। और बगदाद में ख्वाजा जमाल-उद-दीन के हाथों एक दास के रूप में बेच दिया गया। वहा से उसके बाद बलबन दिल्ली लाया गया, दिल्ली में इल्तुतमिश ने एक गुलाम के रूप में बलबन को खरीद लिया।

गयासुद्दीन बलबन शुरु से ही अपने मालिक इल्तुतमिश को अपने कार्यो से काफी खुश कर दिया, जिससे वह इल्तुतमिश का बहुत खास बन गया। इल्तुतमिश ने उससे खुश होकर और उसके कार्यों से प्रभावित होकर उसको जल्द ही चेहलगन दल (दरबार के चालीस मुख्य सम्मानित व्यक्ति) सदस्य बना दिया। सन 1266 ई. की शुरुआत में गयासुद्दीन बलबन, नसीर-उद्-दीन महमूद के शासनकाल में धीरे-धीरे सत्ता हासिल करने लगा, और नसीर-उद्-दीन की मृत्यु के बाद गयासुद्दीन सुल्तान की गद्दी पर बैठ गया।

गयासुद्दीन बलबन का संक्षिप्त परिचय

दिल्ली सल्तनत का नौवां सुल्तान
इल्तुतमिश का गुलाम
शासन18 फरवरी 1266 ई. – 13 जनवरी 1287 ई.
पूरा नामगयासुद्दीन बलबन
बचपन का नामबहाउद्दीन
पिताइलबारी तुर्क सरदार
पूर्ववर्तीनसीरुद्दीन महमूद
उत्तराधिकारीमुइज़-उद-दीन क़ैकाबाद अथवा मुईजुद्दीन कैकुबाद (बलबन का पौत्र)
जन्म1200 ई. तुर्किस्तान
मृत्यु13 जनवरी 1287 (आयु 71-72)
समाधिबलबन का मकबरा , महरौली पुरातत्व पार्क , दिल्ली
पुत्रमुहम्मद खान, नसीरुद्दीन बुगरा खान
राजवंशदिल्ली सल्तनत का मामलुक वंश (गुलाम वंश) के अंतर्गत बलबनी राजवंश
धर्मसुन्नी इस्लाम

गयासुद्दीन बलबन का प्रारंभिक जीवन

बलबन को बचपन में ही मंगोलों ने पकड़ लिया था, और उसको ख्वाजा “जमालुद्दीन बसरी” नामक व्यक्ति को गुलाम के रूप में बेच दिया था। ख्वाजा जमालुद्दीन बसरी द्वारा 1232-33 ई. में उसे दिल्ली लाया गया। जहाँ पर दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर कब्ज़ा करने के बाद लौटते समय उसे अन्य गुलामों के साथ बलबन को खरीद लिया था।

अपनी योग्यता के दम पर बलबन ने इल्तुतमिश का भरोसा जीत लिया और उसके तुर्कान-ए-चहलगानी दल में शामिल हो गया। अपनी योग्यताओं के कारण बलबन का पद (ओहदा) बढ़ता गया और वह रजिया सुल्तान के काल में, “अमीर-ए-शिकार”, मुइज़ुद्दीन बहरामशाह के काल में “अमीर-ए-आहूर” तथा अलाउद्दीन मसूद के काल में वह “अमीर-ए-हाजिब” बन गया। इसके पश्चात बलबन ने इल्तुतमिश के कनिष्ठ पुत्र नसिरुद्दीन महमूद शाह और उसकी माँ के साथ मिलकर एक षड्यंत्र के तहत अलाउद्दीन मसूद शाह को दिल्ली की गद्दी से हटा दिया और उसकी जगह नसिरुद्दीन महमूद शाह को दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बना दिया।

सुल्तान बनने के बाद के बाद नसिरुद्दीन महमूद शाह ने बलबन के समर्पण और भक्ति से प्रभावित होकर उसे उलुग खान की उपाधि दी। इस प्रकार से बलबन राज्य शक्ति का केंद्र बन गया। बलबन ने अपनी बेटी का विवाह सुल्तान नसिरुद्दीन महमूद शाह से कर दिया, जिससे बलबन सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद शाह का अत्यंत करीबी तथा भरोसेमंद व्यक्ति बन कर राज्य संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा।

गयासुद्दीन बलबन का राज्यारोहण

18 फ़रवरी 1266 ई. (उम्र 35-37) को सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद शाह की अचानक मृत्यु हो जाती है। सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद शाह की मृत्यु के बाद उसका उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण गयासुद्दीन बलबन 1266 ई. में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इस प्रकार वह इल्बारी जाति का दूसरा शासक बना। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गयासुद्दीन बलबन ने सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ़ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी।

बलबन के बारे में फ़िरदौसी के “शाहनाम” में उल्लेखित है कि बलबन नस्लीय श्रेष्ठता में विश्वास करता था। इस कारण से, उसने अपने रिश्ते को सत्तारूढ़ तुरानी “अफ्रासियाब” राजवंश के साथ जोड़ा। उसने अपने पोते-पोतियों का नाम मध्य एशिया के प्रसिद्ध शासकों “कायखुसराव”, कैकुबाद आदि के नाम पर रखा। उसने प्रबंधन में केवल विशिष्ट लोगों को नियुक्त किया। बलबन कहता था कि, “जब मैं एक तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूं, तो मेरे शरीर की सारी नसें हिल जाती हैं। उत्तेजित हो जाता है।”

सुल्तान गयासुद्दीन बलबन ने मंगोलों के हमले से निपटने और शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए रक्त और लौह की नीति अपनाई। इसके अलावा बलबन ने अपने सल्तनत के अमीरो के घमंड को तोड़ने एवं दरबार में अनुशासन बनाये रखने के लिए अपने राजत्व सिंद्धांत के अंतर्गत सिजदा एवं पैबोस प्रथा की शुरुआत की। सिजदा का मतलब झुककर सुल्तान को नमस्कार करना एवं पैबोस का अर्थ सुल्तान के पैरों तो चूमना था।

रक्त और लौह की नीति

सुल्तान बलबन ने मंगोलों के हमलों से निपटने के लिए तथा शासन को बिना किसी हस्तक्षेप के अपने ढंग से चलाने के लिए रक्त और लौह की नीति अपनाई थी। रक्त और लौह’ की नीति का तात्पर्य दुश्मनों तथा विरोधियों से निर्मम होना, उनके प्रति तलवार का इस्तेमाल करना, कठोरता और सख्ती का प्रयोग क्रूरता के साथ किया जाना और खून बहाना है। इसे ही “रक्त और लोहे की नीति” के रूप में जाना जाता है। बलबन द्वारा दिल्ली सल्तनत को रक्त और लौह नीति की बदौलत बाहरी हमलों से बचाया गया।

बलबन रक्त और लौह की नीति अपनाने वाला पहला सुल्तान था। उसने मंगोलों के लगातार हमलों से निपटने के लिए इस नीति की शुरुआत की। बलबन के बाद दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का शासक अलाउद्दीन खिलजी यह नीति अपनाने वाला दूसरा सुल्तान था। 

सिजदा एवं पैबोस प्रथा

अपने शासन के दौरान सुल्तान बलबन ने शासन चलाने के लिए और अपना प्रभुत्व प्रजा और दरबारियों में बनाये रखने के लिए कई दमनकारी नीतियाँ चलाई, जिनमे से एक थी सिजदा एवं पैबोस प्रथा।

बलबन के अनुसार सुल्तान ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और उसी के मर्जी से सुल्तान बना है। उसका आदेश ईश्वर के आदेश के सामान है। बलबन ने स्वयं को जिल्लेइलाही की उपाधि प्रदान की, जिसका अर्थ होता है – ईश्वर का प्रतिनिधि। उसके आदेशों और निर्णयों की अवहेलना और विरोध करने का किसी को अधिकार नही था।

बलबन ने स्वयं को कुलीन दर्शाने और प्रजा और दरबारियों को अपने अधीन रखने के लिए “सिजदा” और “पैबोस” प्रथा की शुरुआत की। सिजदा के अनुसार, लोगो द्वारा सुल्तान के आगे कमर तक झुक कर सलाम करना और पैबोस के अनुसार, सुल्तान के करीब आकर झुककर उनके पैरों को चूमना शामिल था।

गयासुद्दीन बलबन का शासन

सुल्तान नसीरुद्दीन की मृत्यु के बाद, गयासुद्दीन बलबन खुद को दिल्ली का सुल्तान घोषित करके सिंहासन पर बैठ गया। एक सुल्तान के रूप में गयासुद्दीन बलबन ने अपने राज्य में बहुत ही कठोरता के साथ शासन किया। नसिरुद्दीन महमूद शाह के बीस साल के शासनकाल के दौरान, चेहलगन दल (दरबार के चालीस मुख्य सम्मानित व्यक्ति) जिनको तुर्कान-ए-चहलगानी के नाम से जाना जाता था, काफी मजबूत हो चुका था।

तुर्कान ए चहलगान दल के सदस्य बलबन के गद्दी पर बैठने से उनसे ईर्ष्या करने लगे थे। गयासुद्दीन बलबन ने विद्रोही चेहलगन दलों के पराक्रम को रोकने के लिए चालीसो सरदारों को मरवा दिया और तुरकन ए चहलगानी को समाप्त कर दिया।

मेवात, जाट और राजपूतों ने भी राज्य के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया। गयासुद्दीन बलबन ने शाही सेना से उन्हें कुचलने का आदेश दे दिया।

गयासुद्दीन बलबन का यह मानना था, कि धरती पर एक राजा ईश्वर का उपासक होता है। जिसे अद्वितीय शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। गयासुद्दीन बलबन का दरबार बहुत ही अनुशासित था, कोई भी व्यक्ति उसके दरबार में मुस्कुराने की हिम्मत नहीं कर सकता था। गयासुद्दीन बलबन ने एक खुफिया विभाग की स्थापना की और देश के विभिन्न हिस्सों में जासूसों को अपने खिलाफ हो रहे षड्यंत्रों की जानकारी इकट्ठा करने के लिए तैनात कर दिया।

गयासुद्दीन बलबन ने अपने शासनकाल के दौरान विद्रोहियों का बहुत ही कुशलतापूर्वक दमन किया। गयासुद्दीन बलबन ने विद्रोहियों को परास्त करने के लिए दोआब राज्य में अफगान सैनिकों को तैनात किया। रोहिलाखण्ड में गयासुद्दीन ने गांवों को जलाकर और पुरुष आबादी को मारकर विद्रोहियों के अन्दर दहशत पैदा कर दी।

गयासुद्दीन बलबन के शासनकाल के आखिरी दिनों में बंगाल के शासक तुगरल बेगने ने बलबन के शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। बंगाल दिल्ली से बहुत दूर था और वहा के शासक तुगरल बेगने बूढ़े हो चुके थे। इसलिए बलबन ने विद्रोही सैनिकों से युद्ध करने के लिए खुद न जाकर सिर्फ अपनी सेना भेजी थी। परन्तु उसकी सेना पराजित हो गई। तब बलबन ने सेना का नेतृत्व खुद किया। और शासक तुगरल बेगने को पराजित कर गयासुद्दीन बलवन ने पश्चिम बंगाल पर फिर से विजय प्राप्त कर लिया। और अपने बेटे बुगरा ख़ाँ को बंगाल का शासक घोषित कर दिया।

गयासुद्दीन बलबन के प्रमुख कार्य

  • बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा बनाये गए चालीस तुर्क सरदारों का दल तुर्कान-ए-चहलगानी के सभी सरदारों को मरवा कर तुर्कान-ए-चहलगानी को समाप्त किया ।
  • बलबन ने सबसे पहले नौरोज पर्व को शुरू किया।
  • सिजदा एवं पैबोस प्रथा शुरू किया।
  • लौह एवं रक्त की निति की शुरुआत किया।

गयासुद्दीन बलबन के कथन

  1. “राजा का हृदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नहीं है।”
  2. “एक अनुग्रही राजा सदा ईश्वर के संरक्षण के छत्र से रहित रहता है।”
  3. “राजा को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि, मुसलमान उसके प्रत्येक कार्य शब्द या क्रियाकलाप को मान्यता दे और प्रशंसा करे।”
  4. “जब मै किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो, मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी उत्तेजित हो जाती है।”

गयासुद्दीन बलबन की मृत्यु

गयासुद्दीन बलवन ने 1279 और 1285 ई. के हमलों में मंगोलों को पराजित किया था, परन्तु इस युद्ध में गयासुद्दीन बलबन के बेटे मोहम्मद की मृत्यु हो जाती है। अपने बेटे की मृत्यु से गयासुद्दीन को बहुत बड़ा सदमा लगा जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सका, और इस वजह से गयासुद्दीन बलबन की 1287 में मृत्यु हो गई।

गयासुद्दीन बलबन का उतराधिकारी

गयासुद्दीन बलबन ने अपने पुत्र मुहम्मद खान के पुत्र कैखुसराव को उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। परन्तु दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन मुहम्मद ने एक षडयंत्र रच कर कैखुसराव को मुल्तान की सूबेदारी देकर उसे वहां भेज दिया तथा उसके जगह पर बलबन के दूसरे पुत्र बुगरा खां के पुत्र कैकुबाद को सुल्तान बनाया। राज्यारोहण के अवसर पर कैकुबाद की उम्र मात्र 17 या 18 बर्ष थी। कैखुसराव और कैकुबाद दोनों ही बलबन के पौत्र थे। परन्तु कैकुबाद को सुल्तान बनाने के पीछे फखरुद्दीन मुहम्मद का मकसद शासन को अपने चलाना चलाना था। क्योंकि कैकुबाद को शासन चलाने की अच्छी समझ नहीं थी।

गयासुद्दीन बलबन से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य

  • 1236 से 1246 ई. तक के काल में नासिरुद्दीन महमूद राज्य में अमीरों या तुर्क सरदारों की शक्ति का प्रभाव देख चुका था। अतः 1246 ई. में गद्दी पर बैठने के बाद भी उसने राज्य की समस्त शक्ति बलबन को सौंप रखी थी।
  • 1246-66 ई. तक नासिरुद्दीन महमूद सुल्तान था। परन्तु राज्य का सचालन बलबन के अनुसार ही होता था।
  • अगस्त 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नासिरुद्दीन महमूद से कर दिया। 7 अक्टूबर, 1249 ई. को सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद ने बलबन को ‘उलूग खाँ‘ की उपाधि प्रदान की व बाद में उसे ‘अमीर-ए-हाजिब’ बनाया।
  • गयासुद्दीन बलबन ने पुनः तुर्क सरदरों का समर्थन प्राप्त किया तथा 1255 ई. में पुनः ‘नाइब-ए-मुमलिकत’  का पद प्राप्त कर लिया। सम्भवतः इसी समय बलबन ने सुल्तान से ‘छत्र’ (सुल्तान के पद का प्रतीक) प्रयोग की अनुमति भी प्राप्त कर ली।
  • नासिरुद्दीन महमूद के काल में बलबन ने ग्वालियर, रणथंभौर, मालवा तथा चन्देरी के राजपूतों का दमन किया, दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में लुटेरे मेवातियों का दमन किया तथा प्रतिद्वन्द्वी मुस्लिम सरदारों (रहान आदि) की शक्ति को कुचला। उसने 1249 ई. में मंगोल नेता हलाकू से समझौता करके पंजाब में शान्ति स्थापित की।
  • 18 फरवरी, 1266 ई. में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद की अचानक मृत्यु हो गई। क्योंकि नासिरुद्दीन महमूद का कोई पुत्र नहीं था। अतः बलबन उसका उत्तराधिकारी बना।
  • शासक बनने के बाद बलबन ने सुल्तान इल्तुतमिश द्वारा बनायीं गयी तुर्कान-ए-चहलगानी को समाप्त कर दिया।
  • बलबन ने सिजदा एवं पैबोस प्रथा अपनाई, जिससे वह अमीरों का घमंड तोड़ सके।

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