चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई.

चोल साम्राज्य भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण राजस्थलों में से एक था जो दक्षिण भारत में स्थित था। इस साम्राज्य की स्थापना लगभग 3वीं शती ईसा पूर्व (300 ई.पू.) में हुई थी। यह अपने शक्तिशाली और प्रभावशाली साम्राज्यत्व के लिए प्रसिद्ध था। चोल साम्राज्य का मुख्य केंद्र थांबण्नल्लूर (वर्तमान तंजावुर) था।

नवीं सदी के मध्य से चोलों का पुनरुत्थान हुआ। इसका उत्थान विजयालय (850-870-71 ई.) ने किया। इस कारण इनको चोल वंश का संस्थापक माना जाता है। और यही से मध्य कालीन चोल वंश की शुरुआत हो जाती है। विजयालय उस समय पल्लव साम्राज्य की अधीनता में उरैयुर प्रदेश का शासक था। विजयालय के पश्चात उनकी वंशपरंपरा में लगभग 20 राजा हुए, जिन्होंने कुल मिलाकर चार सौ वर्षों से अधिक समय तक शासन किया।

चोल साम्राज्य के सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासकों में राजराज चोल और उनका पुत्र राजेंद्र चोल शामिल थे। राजराज चोल ने 11वीं शती में एक महान नौका निर्माणकार और सम्राटीय व्यापारी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी, जबकि राजेंद्र चोल ने चोल साम्राज्य को और विस्तारित करने के लिए विदेशी संपर्कों को मजबूत किया।

दक्षिण प्रायद्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी रहा था। इनके पास बहुत ही शक्तिशाली नौसेना थी जिसके दम पर ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल हो सके।

चोल साम्राज्य ने विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव डाला। इसके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने केरल, श्रीलंका, मलय प्रादेश, अंदमान द्वीपसमूह, बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में अपना प्रभाव स्थापित किया।

चोल साम्राज्य का अंत 1279 ई. में हुआ जब इसे पांड्य राजवंश ने विनाश किया। चोल साम्राज्य के साम्राज्य और उनकी प्रशासनिक कौशल को मान्यता मिलती है, और यह दक्षिण भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण रूप से याद किया जाता है।

चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद लगभग दो शताब्दियों तक अर्थात् बारहवीं ई. के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया बल्कि कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चोल साम्राज्य का समय दक्षिण भारत का ‘स्वर्ण युग’ था।

चोल साम्राज्य का संक्षिप्त परिचय

राजधानीपूर्वी चोल: पुहर, उरैयर,
मध्यकालीन चोल: तंजावुर
गंगकौडे चोलपुरम
भाषाएँतमिल, संस्कृत
धार्मिक समूहहिन्दू
शासनसाम्राज्य
राजा और शासक
 संस्थापक (848–871 ई.) विजयालय चोल
आखिरी शासक (1246–1279 ई.)राजेन्द्र चोल 3
ऐतिहासिक युगमध्य युग
स्थापित – 300s ई.पू.
मध्यकालीन चोल का उदय – 848 ई.
 चोल वंश का अंत- 1279 ई.
क्षेत्रफल
 1050 Apx. – 36,00,000 किमी² (13,89,968 वर्ग मील)
चोल साम्राज्य आज इन देशों का हिस्सा है:चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. India
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Sri Lanka
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Bangladesh
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Mayanmar
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Thailand
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Malaysia
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Cambodia
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Indonesia
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Vietnam
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Singapore
चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई. Maldives

चोल वंश का इतिहास

चोल वंश का इतिहास काफी प्राचीन है। इतिहासकारों के मुताबिक 300 ई.पू. में चोल सक्रिय थे और एक शक्तिशाली वंश हुआ करते थे। उस समय चोल वंश ने अपनी प्रारंभिक शक्ति और प्रभाव का काफी विस्तार किया। चोल वंश के शासकों ने दक्षिण भारत में एक महत्वपूर्ण राज्य की स्थापना की और विभिन्न क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाया। परन्तु इतिहास में इनके उस समय के शासकों के बारे कोई खास जानकारी नहीं मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि चोल वंश जब अपनी शक्तियों और साम्राज्य का विस्तार करने के क्रम में कई राज्यों और कई वंशो पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में कामयाब रहा।

परन्तु उस समय पल्लव वंश भी काफी शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में अपना विस्तार कर रहा था। और इसी क्रम में चोल वंश का पल्लव वंश के साथ साम्राज्य विस्तार को लेकर टकराव हुआ, जिसमे चोल वंश को पराजय का सामना करना पड़ा। इसके पश्चात दोनों वंशो में एक संधि के तहत पल्लव वंश ने अपनी अधीनता में रहते हुए चोल वंश को शासन करने दिया। और इस प्रकार से चोल वंश की बढती हुई शक्तियों और साम्राज्य विस्तार पर उस समय विराम लग गया।

चोल वंश के बाकी के राजाओं ने भी इसी प्रकार से पल्लव साम्राज्य के अधीन रहते हुए अपना शासन किया। और यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक विजयालय ने चोल वंश की सत्ता नहीं संभाली। जब विजयालय पल्लव साम्राज्य की अधीनता में ही 848 ई. में उरैयुर प्रदेश का शासक बने।

उस समय तक चोलों की स्थिति काफी दयनीय थी। परन्तु विजयालय ने पल्लव साम्राज्य की अधीनता में रहते हुए ही पंड्या साम्राज्य को जीत लिया और अपनी शक्ति को मजबूत किया। इसके पश्चात् तत्कालीन पल्लव शासक को भी हरा दिया, और चोल वंश की पुनः स्थापना की। इसको मध्यकालीन (मध्य युग) चोल साम्राज्य का उदय के नाम से जाना जाता है। जो 848 ई. से शुरू होता है।

चोल साम्राज्य की स्थापना

चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की, जो प्रारंभ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने सन 850 ई. में तंजौर को अपने अधिकार में कर लिया और पाण्ड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 ई. तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि, उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और इसके बाद सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया।

इस हार के बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, परन्तु चोल शासकों को अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई. में चोल सम्राट परान्तक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। इससे चोल वंश को धक्का लगा, लेकिन 965 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद चोल साम्राज्य एक बार फिर से उठ खडा हुआ।

चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई.

चोल साम्राज्य का उत्थान

पल्लव, पाण्ड्य तथा चोल का आपस में युद्ध होता रहता था। तथा साथ ही ये राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भी संघर्षरत थे। इनमें से कुछ शासकों खासकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौ सेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए कई राजदूतों को चीन भेजे। पल्लव अधिकतर शैव मत के अनुयायी थे। और इन्होंने आधुनिक चेन्नई के निकट महाबलीपुरम में बहुत से मन्दिरों का निर्माण किया।

इसी बीच 965 ई. को राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय की मृत्यु हो जाती है। इसके बाद राष्ट्रकूट कमजोर पड़ जाते है, जिसका फायदा चोलों ने उठाया और उन पर अपना अधिकार कर लिया। इसके पश्चात पंडया तथा पल्लवों को भी जीत लिया और अपने साम्राज्य का विस्तार बहुत ही बड़े पैमाने पर कर लिया।

चोल वंश का इतिहास के स्रोत

चोल वंश का इतिहास की जानकारी निम्न स्रोतों से प्राप्त होती है –

साहित्य

चोल राजवंश का इतिहास जानने के लिए अनेक साहित्यिक गुणों का उपयोग करते हैं । इन साहित्यों में सर्वप्रथम संगम साहित्य (100-250 ई.) का उल्लेख किया जा सकता है । इस साहित्य के अध्ययन से प्रारम्भिक चोल शासक करिकाल की उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त होता है । पाण्ड्य तथा चेर राजाओं के साथ चोल साम्राज्य के सम्बन्धों का भी ज्ञान होता है ।

जयंगोण्डार के कलिंगत्तूपराणि से कुलोतुंग प्रथम की वंश-परम्परा तथा उसके समय में कलिंग पर किये जाने वाले आक्रमण का परिचय मिलता है। ओट्टक्कुट्टम् कीकुलीतुंग द्वितीय, विक्रमचोल तथा राजराज द्वितीय के सम्बन्ध में रची गयी उलायें (श्रुंड्गार प्रधान जीवन-चरित) उनके विषय में कुछ ऐतिहासिक बातें बताती हैं।

अभिलेख

चोल इतिहास के सर्वाधिक स्रोत उस समय के अभिलेख है। ये अभिलेख बड़ी संख्या में प्राप्त हुये हैं। इन अभिलेखों में संस्कृत, तमिल, तेलगू तथा कन्नड भाषाओं का प्रयोग हुआ है । विजयालय (859-871 ई.) के बाद का चोल इतिहास की जानकारी मुख्यतः अभिलेखों से ही मिलती है । राजराज प्रथम ने अभिलेखों द्वारा अपने पूर्वजों के इतिहास को संकलित करने तथा अपने काल की घटनाओं और विजयों को लेखों में जोड़ने की प्रथा का प्रारम्भ किया ।

चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई.

राजराज प्रथम के बाद उनका इतिहास को संकलित करने की कार्य योजना का अनुकरण बाद के राजाओं ने भी किया। उसके समय के लेखों में लेडन दानपत्र तथा तन्जोर मन्दिर में उत्कीर्ण लेख काफी उल्लेखनीय हैं। तंजोर के लेख उस मन्दिर की व्यवस्था के बारे में बताते हैं। राजेन्द्र प्रथम के समय के प्रमुख लेख तिरुवालंगाडु तथा करन्डै दानपत्र है जो राजेंद्र प्रथम के उपलब्धियों का विवरण देते है ।

ऐतिहासिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेख राजराज तृतीय के समय का तिरुवेन्दिपुरम् अभिलेख है। यह लेख चोल वंश के उत्कर्ष का तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करता है। इस लेख में होयसल राजाओं के प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित की गयी है, जिनकी सहायता से चोलवंश का पुनरुद्धार सम्भव हो पाया था। राजाधिराज प्रथम के समय के प्राप्त मणिमंगलम् अभिलेख से उसकी लंका विजय तथा चालुक्यों के साथ संघर्ष की सूचना मिलती है। यह अभिलेख वीर राजेन्द्र की उपलब्धियों पर भी प्रकाश डालता है ।

सिक्के

अभिलेखों के अतिरिक्त धवलेश्वरम् से चोलों के स्वर्ण सिक्कों का भी एक ढेर प्राप्त हुआ है। जिनसे उनकी समृद्धि का ज्ञान होता है। राजाधिराज प्रथम के कुछ सिक्के लंका से प्राप्त हुये है जिनसे लंका में उसके अधिकार की पुष्टि होती है । साथ ही साथ दक्षिणी कनारा से उसके कुछ रजत सिक्के मिले हैं। सामान्यतः चोल सिक्कों से पुरे दक्षिण भारत के ऊपर उनका आधिपत्य प्रकट होता है ।

विदेशी विवरण

चीनी स्रोतों से चोल तथा चीनी राजाओं के बीच राजनयिक सम्बन्ध की सूचना का ज्ञान होता है । चीन की एक अनुश्रुति के अनुसार राजराज प्रथम तथा कुलीतुंग प्रथम के काल में एक दूत-मण्डल चीन की यात्रा पर भेजा गया था। चीनी यात्री चाऊ-जू-कूआ (1225 ई.) के विवरण से चोल देश तथा वहा की शासन व्यवस्था से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ज्ञान होता है। पेरीप्लस तथा टालमी के ग्रंथों में भी चोल देश का उल्लेख देखने को मिलता है।

चोल साम्राज्य का राजनैतिक इतिहास

चोल साम्राज्य का प्रारम्भिक इतिहास अंधकारमय था, और ऐसा माना जाता है कि, संगम युग (जो कि लगभग 100-250 ई. के आस पास माना जाता है) इस वंश में चोलवशी नरेश दक्षिण में बहुत शक्तिशाली थे। इस काल के राजाओं में करिकाल जो कि लगभग 190 ई. के समय में था, उसका नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। संगम साहित्य में उसकी तमाम उपलब्धियों का विवरण मिलता है।

चोल साम्राज्य

करिकाल एक वीर योद्धा था जिसने समकालीन चेर एवं पाण्ड्य राजाओं को दबाकर रखा । इसके बाद चोलों की राजनीतिक शक्ति क्षीण हो गयी तथा नवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक उनका इतिहास अन्धकारपूर्ण हो चुका था। ऐसा माना जाता है कि यह संभवतः तमिल देश पर पहले कलभ्रों तथा फिर पल्लवों के आक्रमणों के कारण हुआ होगा।

नवीं शताब्दी के मध्य में (850 ई. के आस-पास) चोलसत्ता का पुनरुत्थान हुआ। और इस समय विजयालय नामक एक शक्तिशाली चोल राजा को पल्लवों के सामन्त के रूप में उरैयूर (त्रिचनापल्ली) के समीपवर्ती क्षेत्र में शासन करते हुए पाते है । उरैयूर ही चोली का प्राचीन निवास-स्थान माना जाता था ।

इस समय पल्लवों तथा पाण्ड्यों में हमेशा संघर्ष चल रहे थे । पाण्ड्यों की निर्बल स्थिति का लाभ उठाकर विजयालय ने तंजोर पर अपना अधिकार कर लिया तथा वहाँ उसने दुर्गा देवी का एक मन्दिर भी बनवाया। विजयालय ने लगभग 871 ई. तक शासन किया।

चोल साम्राज्य की सेना

भारत सहित दुनिया के अनेक देशों पर शासन करने वाले ब्रिटेन की सफलता का सबसे बड़ा कारण उसकी समुद्री सेना थी। लेकिन भारत में आज से लगभग हजार साल पहले ही एक ऐसे महान शासक हुए जिन्होंने बेहद ताकतवर समुद्री सेना बनाई थी। इस समुद्री सेना के बलबूते उन्होंने कई बड़ी जीत हासिल की थी। चोल साम्राज्य और उसके शासक उस समय के सबसे मजबूत समुद्री सेना (नौ सेना) के बलबूते अपने साम्राज्य का विस्तार करने के साथ एक मजबूत साम्राज्य की भी स्थापना किये।

चोल शासकों की विशाल नौसेना

चोल साम्राज्य

दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण राजवंश चोलों ने एक विशाल समुद्री सेना (नौ सेना) बनाई थी। चोल शासक राजराज प्रथम ने अपनी ताकतवर नौसेना के बल पर उत्तरी श्रीलंका पर जीत हासिल की थी। हालांकि ऐसा नहीं है कि अन्य शासकों ने नौसेना नहीं बनाई थी। लेकिन चोल शासकों के सामने उनकी सेनाये कहीं नहीं ठहरती थी।

चोल साम्राज्य (राजवंश) के मुख्य शासक

चोल साम्राज्य के शासकों ने अपनी विशाल नौसेना के बलबूते अपनी ताकत का लोहा उस समय के सभी राजवंशों से मनवाया था। इनके प्रमुख शासकों के बारे में निचे दिया गया है –

1. विजयालय (850-871 ई.)

विजयालय को चोल वंश का संस्थापक माना जाता हैं। 9वीं शताब्दी में चोल साम्राज्य की शक्ति का परचम लहराने में विजयालय की प्रमुख भूमिका रही।

चोल वंश के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि, पल्लव शासकों के अधिनस्थ यह एक शक्तिशाली सम्राट थे। इन्होंने पल्लव और पांडयों से युद्ध किया और तंजौर नामक स्थान पर अपना आधिपत्य जमा लिया। और इस जीत के बाद विजयालय ने तंजौर को अपनी राजधानी बनाया। तंजौर के पहले इनकी राजधानी उरैपुर थी। विजयालय ने नरकेसरी की उपाधि भी धारण की थी। इतना ही नहीं इन्होंने “निशम्भसुदिनी” देवी के भव्य मंदिर का निर्माण कार्य भी कराया था।

2. आदित्य प्रथम (871-907 ई.)

चोल वंश के संस्थापक विजयालय की मृत्यु के बाद उनका पुत्र आदित्य, चोल वंश के द्वितीय शासक बने। आदित्य प्रथम के शासनकाल के दौरान पांडयो और पल्लव शासकों के बीच निरंतर युद्ध चल रहे थे, इस युद्ध में आदित्य प्रथम ने पल्लव शासक अपराजित वर्मन की मदद की।

बाद में लगभग 893 ई. के आसपास आदित्य प्रथम ने पल्लव शासक अपराजित वर्मन को मौत के घाट उतार दिया और संपूर्ण तोंडमंडल पर अपना अधिकार कर लिया, तथा चोल वंश के एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। आदित्य प्रथम ने पल्लवाें का बचा हुआ राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में लेने के बाद, पश्चिमी गंगों को भी पराजित करते हुए अपने अधीन कर लिया।

इसी कारण आदित्य प्रथम को चोल वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। आदित्य प्रथम ने चोल वंश का विस्तार किया था, साथ ही साथ यह चोल वंश के प्रथम स्वतंत्र राजा थे क्योंकि इनके पिता विजयालय पल्लव राजाओं के सामंत थे। इन्होंने कोदण्डराम की उपाधि धारण की थी। इन्होंने अपनी राजधानी तंजौर में अनेकों शिव मंदिरों का निर्माण का कार्य कराया था। चोल वंश के इतिहास में आदित्य प्रथम का नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं।

3. परान्तक प्रथम (907-953 ई.)

आदित्य प्रथम के पुत्र परान्तक प्रथम चोल वंश के अगले उत्तराधिकारी बने। इन्होंने पांड्या शासक राजसिंह को पराजित करके उनके राज्य को अपने राज्य में मिला कर अपने राज्य की सीमा रेखा और बढा दी । इन्होंने बाणों और वैदूंबों को भी पराजित किया तथा राष्ट्रकूट शासक कृष्णा तृतीय को हराकर पैनर नदी के दक्षिणी भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया। तंजौर में स्थित चिदंबरम मंदिर का निर्माण परान्तक प्रथम के द्वारा करवाया गया था, और नटराज की प्रतिमा के ऊपर सोने की छत का निर्माण भी इन्ही के कार्यकाल में हुआ था। इन्होंने तजेयकोंड की उपाधि धारण की थी।

परान्तक प्रथम से पराजित होने के बाद राष्ट्रकूट शासकों के मन में बदले की भावना प्रबल रूप से आ चुकी थी और इसी वजह से राष्ट्रकूट शासक कृष्णा तृतीय ने गंग शासकों के साथ मिलकर चोल साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। 949 ई. को लड़े गए इस युद्ध में चोल सेना की हार हुई और उनका युवराज राजदित्य इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गया।

चोल साम्राज्य के इतिहास को देखा जाये तो यह हार चोल वंश की बहुत बड़ी हार थी। इसी युद्ध ने चोलों के राज्य के साथ-साथ उनकी शक्ति को भी क्षीण कर दिया था। इसका प्रभाव यह हुआ कि आगामी लगभग 32 वर्षों तक चोल शासक दक्षिण की राजनीति से गायब हो गए। हालाँकि बाद में परान्तक प्रथम के बाद सुन्दर चोल या परान्तक द्वितीय ने तो तोण्डमण्डल पर पुनः अधिकार कर लिया।

4. राजराज प्रथम महान अथवा अरमोलिवर्मन (985-1014 ई.)

चोल वंश का सबसे प्रतापी राजा राजराज प्रथम था जिसको अरमोलिवर्मन कहा जाता था। राजराज उसकी एक उपाधि थी जबकि इनका असली नाम अरमोलिवर्मन था। 985 ई. में सिंहासन पर बैठने से पूर्व इन्हें सैन्य संचालन तथा शासन कार्य का अच्छा खासा अनुभव था। शैव- धर्मावलंबी राजराज प्रथम ने सिंघासन पर बैठने के बाद “शिवपाद शेखर” की उपाधि धारण की। इन्हें ऐसे ही महान नहीं कहा जाता है इन्होंने चोलों की शक्ति और प्रतिष्ठा को एक बार फिर से स्थापित किया था।

दक्षिण क्षेत्र में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा और राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए इन्होंने पश्चिमी गंगो, वेंगी के पूर्वी चालूक्यों, कलिंग के गंगों, मदुरा के पांड्यो और केरल के चेरों को परास्त किया। इन्होंने विशाल नौसेना का निर्माण कर श्रीलंका और उसके समीपस्थ द्वीपों को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया। चोल साम्राज्य में यह पहले ऐसे राजा थे जिन्होंने अपने राज्य की सीमाओं को दक्षिण भारत से लेकर श्रीलंका तक फैला दिया और यही कारण है कि राजराज प्रथम को चोल वंश का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है।

राजराज प्रथम ने वेंगी में उनके समर्थक विमलादित्य को सिंहासन पर बिठाया और अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दिया। राज राज एक महान विजेता ही नहीं बल्कि एक योग्य शासक-प्रबंधक और निर्माता भी थे। इन्होने पूरी तरह से अपने साम्राज्य को खो चुके चोलों का पुनरुत्थान किया और एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया।

राजराजेश्वर शिव मंदिर का निर्माण इन्होंने ही करवाया था जो कि तमिल वास्तुकला का अद्वितीय नमूना है। धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु माने जाने वाले राजा राजराज ने बौद्ध मठों एवं विहारों को भी अपने राज्य में संरक्षण दिया।

5. राजेंद्र प्रथम (1014-1044 ई.)

राजराज प्रथम के बाद उनका पुत्र राजेंद्र प्रथम, चोल साम्राज्य का उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी पर बैठा । और अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए साम्राज्य के विस्तार पर ध्यान दिया जिसके परिणामस्वरूप चोल राजवंश की शक्ति चरमसीमा तक पहुंच गई। उन्होंने ना सिर्फ पांडेय और चेर राज्यों को पराजित किया, बल्कि श्रीलंका को भी अपने राज्य में शामिल कर लिया। अपने पिता से विरासत में मिले साम्राज्य को इन्होंने कई गुना बढ़ा दिया।

राजेंद्र चोल प्रथम को चोल वंश का महान और शक्तिशाली और चोल साम्राज्य का सबसे प्रसिद्ध शासक माना जाता है। इन्होंने अरब सागर में एक श्रेष्ठ नौसेना स्थापित किया। इन्होने अपनी राजधानी तंजोर को बदल कर गंगेईकोंडचोलपुरम को अपनी राजधानी बनया और यहां पर कई मंदिरों का निर्माण करवाया।

इतना ही नहीं महान चोल शासक राजेंद्र प्रथम ने कई उपाधियां धारण की जिनमें गंगेईकोंडचोल, पण्डित चोल, वीर राजेंद्र, कडर कोंड, मुंडीगोंड चोल और परकेशरी वर्मन मुख्य है। इनके गुरु का नाम “संत ईशानशिव” था। इन्होंने अपने शासनकाल में ही अपने पुत्र राजाधिराज को युवराज पद पर अभिषेक कर अपना संभावित उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

6. राजाधिराज (1044-1052 ई.)

राजाधिराज चोल वंश के महान और शक्तिशाली शासक राजेंद्र प्रथम के पुत्र थे जो उनके बाद इस वंश के राजा बने। इनका शासनकाल में पांड्या और श्रीलंका में विद्रोह हो गया था।इनका ज्यादातर समय इन विद्रोहों को दबाने में बीता।

1052 ई. में राजाधिराज और कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में इन्होंने कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर को पराजित कर दिया परन्तु राजाधिराज भी वीरगति को प्राप्त हुए। इन्होंने विजयराजेंद्र की उपाधि धारण कर रखी थी।

7. राजेंद्र द्वितीय (1052- 1064 ई.)

राजेंद्र द्वितीय राजाधिराज प्रथम के भाई थे, जो उनकी मृत्यु के पश्चात चोल वंश की गद्दी पर बैठे। कोल्हापुर स्थित जयस्तंभ का निर्माण इन्होंने ही करवाया था, साथ ही इन्होंने प्रकेशरी की उपाधि धारण की। पश्चिमी चालूक्यों और श्रीलंका के राजाओं से इन्होंने युद्ध किया और इनसे अपने साम्राज्य की सुरक्षा की।

8. वीर राजेंद्र (1064-1070 ई.)

इनके बाद वीर राजेंद्र (1064-1070 ई.) ने श्रीलंका और शैलेंद्र साम्राज्य पर अपने आधिपत्य को बनाये रखा। साथ ही चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम और सोमेश्वर वित्तीय को युद्ध में पराजित करने में सफलता प्राप्त की।

वीर राजेंद्र ने राजकेसरी की उपाधि धारण की। इन्होने अपनी पुत्री का विवाह चालुक्य शासक के साथ किया। वीर राजेंद्र के बाद अधिराजेंद्र, चोल वंश की राजगद्दी पर बैठे परन्तु ज्यादा सफल नहीं हुए।

9. कुलोत्तुंग प्रथम (1070- 1120 ई.)

अधिराजेंद्र के बाद चोल वंश को उनके बहनोई कुलोत्तुंग प्रथम ने संभाला था। इन्होंने अपनी पुत्री का विवाह श्रीलंका के राजकुमार के साथ किया था। कुलोत्तुंग प्रथम ने शुंगमततर्तीत नामक उपाधि धारण की।

इनके बाद इस वंश में कई राजा हुए परन्तु कोई भी अपनी छाप नहीं छोड़ पाया इन राजाओं में विक्रम चोल (1120-1133), कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराजा द्वितीय (1150-1173), राजाधिराज द्वितीय (1173-1182) , कुलोत्तुंग तृतीय (1182-1216), और राजाधीराज तृतीय (1216-1250) आदि सामिल हैं ।

10. राजेंद्र तृतीय (1250-1279 ई.)

राज राज तृतीय के बाद 1246 ई. में राजेंद्र तृतीय चोल वंश की गद्दी पर बैठे। इन्होंने पांड्य राज्य को जीता और होयसल एवं काकातीय राज्यों को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया। राजेंद्र तृतीय को चोल वंश का अंतिम शासक माना जाता है।

चोल वंश के अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय को पराजित करके पंड्या शासक ने संपूर्ण चोल साम्राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। चोल वंश के अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय की पराजय के साथ ही चोल साम्राज्य समाप्त हो गया।

चोल साम्राज्य का पतन

चोल साम्राज्य के पतन की कहानी बड़ी ही दुःखद हैं। इस विशाल और महान साम्राज्य का अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय थे। सन 1250 ई. में काकातीय शासक गणपति ने आक्रमण कर काँची पर अपना अधिकार कर लिया। सुंदरपंड्या ने भी होयसल राजा की मदद लेकर चोल साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि चोल वंश के अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय को हार माननी पड़ी और उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

पांड्या वंश के अधीनस्थ 1279 ई. तक राजेंद्र तृतीय ने सामंत के रूप में काम किया। कमजोर पड़ चुके चोल साम्राज्य का पुनः उत्थान करने वाला कोई योग्य शासक बाद में पैदा नहीं हुआ, जिसके परिणामस्वरूप एक विशाल चोल साम्राज्य का अंत हो गया।


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5 thoughts on “चोल साम्राज्य | 300 ई.पू.-1279 ई.”

  1. भारत का क्षेत्रफल 3287263वर्ग किलोमीटर है जबकी चोल साम्राज्य 360000 वर्ग किलोमीटर मेँ फेला था चोल महानथे

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  2. चोल साम्राज्य में नौकरशाही सुसंगठित और विकसित थी जिसमें अधिकारियों के उच्च और निम्न वर्ग थे। केंद्रीय विभाग की ओर से स्थानीय अधिकारियों का निरीक्षण और नियंत्रण करने के लिए कणकाणि नाम के अधिकारी होते थेे। 👍

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    • चोल साम्राज्य के बारे में काफी बेहतर जानकारी है आपको। क्या आप अपनी कुछ जानकारी हमारे साथ भी साझा करना चाहेंगे ?

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