भारतीय शास्त्रीय संगीत का इतिहास सहस्त्राब्दियों पुराना है। इसकी जड़ें वेदों में खोजी जा सकती हैं और इसकी शाखाएं आज भी वैश्विक सांस्कृतिक मंचों पर लहराती हैं। इस संगीत परंपरा में ‘ताल’ एक महत्वपूर्ण घटक है, जो लय, अनुशासन और सौंदर्य का आधार होता है। इन्हीं तालों में से एक अत्यंत प्राचीन, विशिष्ट और प्रभावशाली ताल है — चौताल (Chautal)।
हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री के त्रिनिदाद एंड टोबैगो के पोर्ट ऑफ स्पेन दौरे के दौरान आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में चौताल की प्रस्तुति ने एक बार फिर यह सिद्ध किया कि यह ताल केवल शास्त्रीय मंचों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय प्रवासी संस्कृति का जीवंत प्रतीक भी बन चुकी है।
इस लेख में हम चौताल की उत्पत्ति, संरचना, संगीतशास्त्रीय विशेषताएँ, ध्रुपद शैली में इसकी भूमिका, प्रवासी भारतीय समुदाय में इसका महत्व, और आधुनिक मंचों पर इसकी प्रासंगिकता पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
चौताल का संक्षिप्त परिचय
‘चौताल’, जिसे ‘चारताल’ अथवा ‘चउताल’ भी कहा जाता है, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ताल परंपरा का एक अत्यंत प्राचीन उदाहरण है। यह मुख्यतः ध्रुपद शैली से संबद्ध है, जो भारतीय संगीत की सबसे प्राचीन और आध्यात्मिक शैली मानी जाती है। ध्रुपद में जहां राग की गंभीरता होती है, वहीं चौताल उस राग की लयात्मक संरचना को गूढ़ता और गहराई प्रदान करता है।
‘चौताल’ नाम से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसमें ‘चार तालियों’ का कोई सम्बन्ध है — और यही इसकी संरचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। यह ताल प्राचीन वाद्य पखावज पर बजाई जाती है, जो तबले से भी पूर्व विकसित हुआ मृदंग जैसा वाद्य है।
तालों की सांगीतिक परंपरा में चौताल का स्थान
भारतीय संगीत में ‘ताल’ समय और लय की माप इकाई होती है। यह न केवल गीत की गति निर्धारित करता है, बल्कि गायन, वादन और नृत्य की समस्त गतिशीलता को एक अनुशासित ढाँचे में रखता है। चौताल इस परंपरा का ऐसा ताल है, जो अपनी गहराई, संतुलन और शक्ति के कारण विशेष रूप से ध्रुपद, धमार, हवेली संगीत, और कभी-कभी कथक में भी प्रयुक्त होता है।
चौताल की संरचना (Structure of Chautal):
चौताल की गणना उन तालों में होती है जो न तो बहुत जटिल हैं और न ही अत्यधिक सरल। इसकी विशेषता इसकी लयबद्ध संतुलन और ताकत है। इसकी दो प्रमुख रूप में व्याख्या की जाती है:
1. 12 मात्राओं वाला चौताल (मुख्य रूप):
- मात्राएँ (Beats): कुल 12
- विभाजन: 4 + 4 + 2 + 2
- सभी भागों में ताली होती है, खालि नहीं होती।
- यह रूप मुख्यतः ध्रुपद गायन में प्रयुक्त होता है।
2. छह भागों में विभाजन:
- विभाजन: 2 + 2 + 2 + 2 + 2 + 2
- यह संरचना एकताल की तरह दिखाई देती है, परंतु इसकी आंतरिक गति और प्रभाव अलग होता है।
- इसमें ताली और खालि के संकेतों का प्रयोग होता है।
3. थेका (Theka):
चौताल का पारंपरिक ‘थेका’ इस प्रकार होता है:
धा धा | दिन ता | किता तक | गदि गन
पखावज वादक इस थापी को विविध गतियों, बोलों और भावों के साथ प्रस्तुत करता है। यह लयबद्धता रचना को गंभीरता और भव्यता प्रदान करती है।
चौताल की विशेषताएँ:
1. शक्ति और गहराई:
चौताल में थापों की शक्ति और गहराई स्पष्ट रूप से अनुभव की जाती है। यह लय में एक गंभीरता और आध्यात्मिकता उत्पन्न करता है।
2. थापी शैली:
इसमें पारंपरिक ‘थेका’ के स्थान पर थापी यानी बोलों का लयात्मक और कल्पनाशील उपयोग होता है, जो उसे अन्य तालों से अलग बनाता है।
3. ध्यानात्मकता और आध्यात्मिकता:
चौताल का प्रयोग विशेष रूप से ध्रुपद में होता है, जो स्वयं एक ध्यानात्मक शैली है। इस ताल की लय-प्रवृत्ति मन को स्थिर और एकाग्र करती है।
4. परंपरा और शुद्धता:
चौताल आज भी मूल रूप में सुरक्षित है। इसे आधुनिक प्रयोगवाद के बावजूद पारंपरिक ढंग से ही प्रस्तुत किया जाता है।
चौताल और ध्रुपद: एक आत्मिक संबंध
ध्रुपद, भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह शैली है जिसमें शब्द, राग और लय का गहनतम संतुलन देखने को मिलता है। यह शैली देव आराधना, आत्मानुशासन और ध्यान के साथ जुड़ी हुई है। चौताल इस शैली का सर्वप्रिय ताल है क्योंकि:
- इसकी गूंज और गहराई रचना की भावना को बल देती है।
- इसमें ‘अलाप’ के बाद ‘बंधिश’ (गीत) का स्थायित्व सहज बनता है।
- चौताल में ध्रुपद गायकों को राग की लयबद्धता में विविध प्रयोग करने की स्वतंत्रता मिलती है।
ध्रुपद के प्रमुख घराने जैसे दग्गर घराना, डागर वंश, आदि चौताल को केंद्र में रखकर गायन करते हैं।
प्रवासी भारतीय समुदाय और चौताल: वैश्विक मंच पर भारतीय लय
त्रिनिदाद, फिजी, सूरीनाम, मॉरिशस, और गुयाना जैसे देशों में प्रवासी भारतीयों द्वारा चौताल एक जीवंत परंपरा बन चुकी है। वहाँ यह केवल संगीत नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक परंपरा है। विशेषकर होली और रामनवमी जैसे पर्वों पर चौताल गायन समुदायिक आयोजन का मुख्य अंग होता है।
प्रवासी चौताल का विशिष्ट रूप:
- भोजपुरी चौताल का एक लोक-संस्करण विकसित हुआ है, जिसमें पारंपरिक बोलों के साथ-साथ सामाजिक सन्दर्भों का समावेश होता है।
- यह रूप कभी-कभी शुद्ध शास्त्रीय चौताल से अलग होता है, परंतु उसकी आत्मा को बनाए रखता है।
प्रधानमंत्री द्वारा चौताल की प्रस्तुति त्रिनिदाद में इस तथ्य को रेखांकित करती है कि भारतीय ताल परंपरा विश्व में केवल शास्त्रीय श्रोताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जन-जन की सांस्कृतिक पहचान है।
पखावज और चौताल: अविभाज्य युग्म
पखावज, जो कि एक प्राचीन मृदंग वाद्य है, चौताल का अभिन्न साथी है। इसकी गूंज और थाप चौताल के थेकों को जीवंत कर देती है। चौताल में पखावज वादन की कुछ विशेषताएँ:
- हर ताली पर स्पष्ट थाप और नाद।
- गती और बोलों की विविधता — “धा”, “दिन”, “ता”, “किट”, “टक”, आदि।
- संवाद शैली — जब वादक और गायक ताल में संवाद करते हैं।
चौताल का प्रभाव: श्रोताओं पर भावात्मक और मानसिक प्रभाव
चौताल केवल लय नहीं, बल्कि एक भावात्मक यात्रा है। इसके प्रदर्शन से:
- मानसिक एकाग्रता बढ़ती है।
- भीतर ध्यान और संतुलन का भाव आता है।
- दर्शकों में श्रद्धा और भव्यता की अनुभूति होती है।
यह प्रभाव खासकर तब स्पष्ट होता है जब यह किसी ध्यानात्मक रचना जैसे ध्रुपद में प्रयुक्त होता है।
आधुनिक मंच और चौताल:
आजकल चौताल का प्रयोग केवल पारंपरिक शास्त्रीय मंचों तक सीमित नहीं है। यह:
- भारतीय संगीत समारोहों में एक नियमित अंग है।
- अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय विरासत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
- संगीत विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में एक अध्ययन का विषय है।
निष्कर्ष
चौताल, भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह धरोहर है जो समय के साथ परिपक्व हुई है, किंतु कभी पुरानी नहीं हुई। इसकी गूंज आज भी शास्त्रीय मंचों से लेकर प्रवासी भारतीयों के होली के जुलूसों तक सुनी जाती है। यह केवल 12 मात्राओं की एक ताल नहीं, बल्कि वह लय है जिसमें भारत की परंपरा, ध्यान, अध्यात्म, और सांस्कृतिक चेतना समाहित है।
जब प्रधानमंत्री त्रिनिदाद में चौताल की प्रस्तुति के साक्षी बने, तब यह एक कूटनीतिक कार्यक्रम से अधिक, भारतीय संस्कृति की वैश्विक यात्रा का प्रतीक बन गया।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs):
1. चौताल क्या है?
चौताल हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक पारंपरिक ताल है, जिसमें कुल 12 मात्राएँ होती हैं।
2. चौताल का प्रयोग किस संगीत शैली में होता है?
मुख्यतः ध्रुपद शैली में, लेकिन प्रवासी लोक परंपराओं में भी इसका उपयोग होता है।
3. चौताल का नाम ‘चौताल’ क्यों पड़ा?
क्योंकि इसमें पारंपरिक रूप से चार भागों में ताली होती है — इसलिए ‘चार ताल’ या ‘चौताल’।
4. चौताल किस वाद्य पर बजाई जाती है?
मुख्यतः पखावज पर, जो एक प्राचीन मृदंग वाद्य है।
5. चौताल की प्रमुख विशेषता क्या है?
इसकी गहराई, गंभीरता, और ध्यानात्मकता।
6. क्या चौताल में ‘खालि’ होती है?
इसके पारंपरिक रूप में केवल तालियाँ होती हैं, कुछ संस्करणों में खालि भी प्रयोग होती है।
7. चौताल और एकताल में क्या अंतर है?
दोनों 12 मात्रा के ताल हैं, लेकिन उनकी लय, विभाजन और उपयोग अलग होते हैं।
8. प्रवासी भारतीय चौताल का उपयोग कैसे करते हैं?
होली, रामनवमी, सतनारायण कथा आदि धार्मिक अवसरों पर सामूहिक गायन में।
9. क्या चौताल आज भी प्रासंगिक है?
हाँ, यह आज भी ध्रुपद से लेकर अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक में उपयोगी है।
10. क्या चौताल को सीखा जा सकता है?
हाँ, इसे पखावज वादन और ताल प्रशिक्षण के माध्यम से सीखा जा सकता है।
11. क्या चौताल का कोई आधुनिक संस्करण है?
कुछ प्रयोगात्मक संगीत समूह इसे नए वाद्यों पर प्रस्तुत कर रहे हैं, किंतु इसकी आत्मा पारंपरिक ही है।
यदि आप भारतीय ताल परंपरा को समझना चाहते हैं, तो चौताल से बेहतर प्रारंभिक बिंदु और कुछ नहीं हो सकता। यह ताल हमें भारतीय संगीत की उस गहराई से परिचित कराता है, जहाँ राग, लय और अध्यात्म एक साथ सन्निहित हैं।
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