जैन धर्म | Jainism

जैन धर्म के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी भद्रबाहु के कल्पसूत्र से मिलती है। जैन दार्शनिक परम्परा वैदिक परम्परा के ही समकालीन एक आंदोलन माना जाता है। जैन शब्द संस्कृत के ‘जिन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ विजेता है। जैन संस्थापकों को ‘तीर्थकर’ जबकि जैन महात्माओं को ‘निर्ग्रंथ’ कहा गया। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे इन्हें इस धर्म का संस्थापक भी माना जाता है। तीर्थंकर का अर्थ – तीर्थंकर ’तीर्थ’ शब्द से बना है। तीर्थ का अर्थ – ‘घाट’।

जैन धर्म की उत्पत्ति

जैन धर्म को एक स्वतंत्र धर्म माना जाता है। इस धर्म की उत्पत्ति बौद्ध धर्म के उत्पत्ति से भी पहले माना जाता है। कहा जाता है कि जैन धर्म की उत्पत्ति 700 ईसा पूर्व हुई थी हालांकि इसकी उत्पत्ति विवादित है। कुछ विद्वानों का दावा है कि जैन धर्म की जड़ें सिंधु घाटी सभ्यता में हैं, जो भारत में इंडो-आर्यन प्रवास से पहले की मूल आध्यात्मिकता को दर्शाती है।

इस प्रकार जैन धर्म के उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है। जैन धर्म ग्रंथो के अनुसार धर्म वस्तु का स्वाभाव समझाता है, इसलिए जब से सृष्टि है तब से धर्म है, और जब तक सृष्टि है, तब तक धर्म रहेगा, अर्थात् जैन धर्म सदा से अस्तित्व में था और सदा रहेगा।

जैन धर्म के तीर्थकर

तीर्थंकार का अर्थ – संसार सागर को पार करने के लिए ‘घाटो का निर्माता’। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर माने जाते हैं, जिन्होंने समय-समय पर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया। ये हैं-

1. ऋषभदेव या आदिनाथ, 2. 1001 अजितनाथ, 3. संभवनाथ, 4. अभिनंदन, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्रभ, 7.सुपार्श्वनाथ, 8. चंद्रप्रभ, 9. पुष्पदंत (सुविधिनाथ), 10. शीतलनाथ, 11. श्रेयांसनाथ, 12. वासुपूज्य, 13. विमलनाथ, 14. अनंतनाथ, 15.धर्मनाथ, 16. शांतिनाथ, 17. कुंथुनाथ, 18. अरनाथ, 19. मल्लिनाथ, 20. मुनि-सुव्रत, 21. नमिनाथ, 22. नेमिनाथ या अरिष्टनेमि, 23. पार्श्वनाथ एवं 24. महावीर स्वामी

जैन धर्म में कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का पालन आवश्यक माना गया है ये त्रिरत्न हैं-

  • सम्यक दर्शन
  • सम्यक ज्ञान
  • सम्यक आचरण

जैन धर्म के पहले तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। इनके अन्य नाम ऋषभनाथ, आदिनाथ, वृषभनाथ भी है। ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर माने जाते हैं। इनका जन्म काशी (वाराणसी) में हुआ था। इनके पिता अश्वसेन काशी के राजा थे। पार्श्वनाथ को वाराणसी के निकट आश्रमपद उद्यान में ज्ञान प्राप्त हुआ था और उनका परिनिर्वाण सम्मेतशिखर (सम्मेद पर्वत) पर हुआ था। पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को चातुर्याम शिक्षा का पालन करने को कहा था। ये चार शिक्षाएं थीं-सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवं अपरिग्रह

प्रमुख जैन तीर्थंकर एवं उनके प्रतीक चिह्न-

तीर्थंकरप्रतीक चिह्न
 ऋषभदेवबैल
अजितनाथहाथी
संभवनाथअश्व
पद्मप्रभकमल
सुपार्श्वनाथसाथिया (स्वास्तिक)
मल्लिनाथकलश
नमिनाथनीलकमल
नेमिनाथशंख
पार्श्वनाथसर्प
महावीर स्वामीसिंह

जैन धर्म की उत्पत्ति का कारण

  • जटिल कर्मकांडों और ब्राह्मणों के प्रभुत्व के साथ हिंदू धर्म कठोर व रूढ़िवादी हो गया था।
  • वर्ण व्यवस्था ने समाज को जन्म के आधार पर 4 वर्गों में विभाजित किया, जहाँ दो उच्च वर्गों को कई विशेषाधिकार प्राप्त थे।
  • ब्राह्मणों के वर्चस्व के खिलाफ क्षत्रिय की प्रतिक्रिया।
  • लोहे के औज़ारों के प्रयोग से उत्तर-पूर्वी भारत में नई कृषि अर्थव्यवस्था का प्रसार हुआ।

जैन धर्म के त्रिरत्न

जैन धर्म का उद्देश्य मानव की मुक्ति है और जैन धर्म मानता है की इसके लिए किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। इसे तीन सिद्धांतों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है जिसे थ्री ज्वेल्स या त्रिरत्न कहा जाता है, ये हैं-

  • सम्यक दर्शन
  • सम्यक ज्ञान
  • सम्यक चरित्र

जैन धर्म के सिद्धांत

जैन धर्म ने मानव की मुक्ति के लिए कुल पांच सिद्धांत बनाये। जैन धर्म का मानना है की इन्ही पांच सिद्धांतों पर चलकर मुक्ति पाई जा सकती है जैन धर्म में मुक्ति के लिए बताये गए वे पांच सिद्धांत है:

  • अहिंसा: जीव को चोट न पहुँचाना
  • सत्य: झूठ न बोलना
  • अस्तेय: चोरी न करना
  • अपरिग्रह: संपत्ति का संचय न करना और
  • ब्रह्मचर्य

जैन धर्म का ईश्वर के प्रति विचार

जैन धर्म का इश्वर के प्रति विचार

  • जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मांड और उसके सभी पदार्थ या संस्थाएँ शाश्वत हैं। समय के संबंध में इसका कोई आदि या अंत नहीं है। ब्रह्मांड अपने स्वयं के ब्रह्मांडीय नियमों द्वारा अपने हिसाब से चलता है।
  • जैन धर्म का मानना है की ब्रह्मांड में कुछ भी नष्ट या निर्मित नहीं किया जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड में मौजूद सभी पदार्थ या वस्तुएं लगातार अपने रूपों को बदलते या संशोधित करते रहते हैं।
  • ब्रह्मांड को चलाने या प्रबंधित करने के लिये किसी की आवश्यकता नहीं होती है।
  • इसलिये जैन धर्म ईश्वर को ब्रह्मांड के निर्माता, उत्तरजीवी और संहारक के रूप में नहीं मानता है। बल्कि का कहना है की ईश्वर सभी का निर्माण नहीं किया है।
  • जैन धर्म ईश्वर को एक निर्माता के रूप में नहीं, बल्कि एक पूर्ण प्राणी के रूप में मानता है।
  • जैन धर्म का कहना है की जब कोई व्यक्ति अपने सभी कर्मों को नष्ट कर देता है, तो वह एक मुक्त आत्मा बन जाता है। वह हमेशा के लिये मोक्ष में पूर्ण आनंदमय अवस्था में रहता है।
  • मुक्त आत्मा के पास अनंत ज्ञान, अनंत दृष्टि, अनंत शक्ति और अनंत आनंद है। यह जीव जैन धर्म का देवता है।
  • प्रत्येक जीव में ईश्वर बनने की क्षमता होती है।
  • इसलिये जैनियों का एक ईश्वर नहीं है, लेकिन जैन देवता असंख्य हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है क्योंकि अधिक जीवित प्राणी मुक्ति प्राप्त करते हैं।

जैन धर्म में अनेकांतवाद की अवधारणा

जैन धर्म

जैन धर्म में अनेकांतवाद की एक मौलिक धारणा है कि कोई भी इकाई एक बार में स्थायी होती है, लेकिन परिवर्तन से भी गुज़रती है जो निरंतर और अपरिहार्य है। अनेकांतवाद के सिद्धांत में कहा गया है कि सभी संस्थाओं के तीन पहलू होते हैं, ये तीनो पहलु है – द्रव्य, गुण, और पर्याय।

द्रव्य कई गुणों के लिये एक आधार के रूप में कार्य करता है, जिनमें से प्रत्येक स्वयं में लगातार परिवर्तन या संशोधन के दौर से गुज़र रहा है। इस प्रकार किसी भी इकाई में एक स्थायी निरंतर प्रकृति और गुण दोनों होते हैं जो निरंतर प्रवाह की स्थिति में होते हैं।

जैन धर्म के संप्रदाय

जैन धर्म आगे चलकर दो प्रमुख संप्रदायों दिगंबर और श्वेतांबर में विभक्त हो गया। जैन धर्म के इन दो सम्प्रदायों में विभाजन के पीछे का मुख्य कारण मगध में भयंकर अकाल का पड़ जाना था। इस अकाल ने भद्रबाहु के नेतृत्व वाले एक समूह को दक्षिण भारत में स्थानांतरित होने के लिये मजबूर कर दिया।

12 वर्षों के अकाल के दौरान दक्षिण भारत में रहने वाला समूह सख्त प्रथाओं पर कायम रहा, जबकि मगध में रहने वाले समूह ने अधिक ढीला रवैया अपनाया और सफेद कपड़े पहनना शुरू कर दिया। और जब अकाल की समाप्ति हुई उसके बाद जब दक्षिणी समूह मगध में वापस आया तो बदली हुई प्रथाओं ने जैन धर्म को दो संप्रदायों में विभाजित कर दिया। इन दोनों सम्प्रदायों का नाम है –

  • दिगंबर
  • श्वेतांबर ।

1. दिगंबर संप्रदाय

  • इस संप्रदाय के प्रतिपादक भद्रबाहु है जो लोग भद्र बहु के साथ थे उन्होंने इस संप्रदाय को जन्म दिया
  • इस संप्रदाय के साधु पूर्ण नग्नता में विश्वास करते हैं। पुरुष भिक्षु कपड़े नहीं पहनते हैं जबकि महिला भिक्षु बिना सिलाई वाली सफेद साड़ी पहनती हैं।
  • ये सभी पाँच व्रतों (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) का पालन करते हैं।
  • इस संप्रदाय की मान्यता है कि औरतें मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकतीं हैं।
  • यह संप्रदाय कुछ उप संप्रदाय में विभक्त हो गया जो निम्न है

प्रमुख उप-संप्रदाय:

  •  मुला संघ
  •  बिसपंथ
  •  थेरापंथा
  •  तरणपंथ या समायपंथा

 लघु उप-समूह:

  •  गुमानपंथ
  •  तोतापंथ

2. श्वेतांबर संप्रदाय

  • इस संप्रदाय के प्रतिपादक स्थूलभद्र थे।
  • साधु सफेद वस्त्र धारण करते हैं।
  • केवल 4 व्रतों का पालन करते हैं (ब्रह्मचर्य को छोड़कर)।
  • इनका विश्वास है कि महिलाएँ मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं।

प्रमुख उप-संप्रदाय:

  •  मूर्तिपूजक
  •  स्थानकवासी
  •  थेरापंथी

जैन परिषद

  • प्रथम जैन परिषद – यह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में आयोजित हुई और इसकी अध्यक्षता स्थूलभद्र ने की थी।
  • द्वितीय जैन परिषद – इसे 512 ईस्वी में वल्लभी में आयोजित किया गया था और इसकी अध्यक्षता देवर्षि क्षमाश्रमण ने की थी।

जैन धर्म से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

  • जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है जो उस दर्शन में निहित है जो सभी जीवित प्राणियों को अनुशासित, अहिंसा के माध्यम से मुक्ति का मार्ग एवं आध्यात्मिक शुद्धता और आत्मज्ञान का मार्ग सिखाता है।
  • ‘जैन’ शब्द जिन या जैन से बना है जिसका अर्थ है ‘विजेता’।
  • जैन दार्शनिक परम्परा वैदिक परम्परा के ही समकालीन एक आंदोलन माना जाता है।
  • भद्रबाहु के कल्पसूत्र से जैन धर्म के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी मिलती है।
  • जैन शब्द ’जिन’ शब्द से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ ’विजेता’ होता है। संसार की मोह-माया व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना ही जैन धर्म (Jain Dharm) का एकमात्र उद्देश्य है।
  • जिन – जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली, उसे जिन कहते है।
  • जिन के अनुयायी जैन कहलाते है।
  • इन जिनो को जैन धर्म में तीर्थंकर कहते है।
  • तीर्थंकर का अर्थ – तीर्थंकर ’तीर्थ’ शब्द से बना है। तीर्थ का अर्थ – ‘घाट’।
  • तीर्थंकार का अर्थ – संसार सागर को पार करने के लिए ‘घाटो का निर्माता’।
  • प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ थे।
  • छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जब भगवान महावीर ने जैन धर्म का प्रचार किया तब यह धर्म प्रमुखता से सामने आया।
  • इस धर्म में 24 महान शिक्षक हुए, जिनमें से अंतिम भगवान महावीर थे।
  • इन 24 शिक्षकों को तीर्थंकर कहा जाता था, वे लोग जिन्होंने अपने जीवन में सभी ज्ञान (मोक्ष) प्राप्त कर लिये थे और लोगों तक इसका प्रचार किया था।

इन्हें भी देखें –

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