भारतीय हस्तशिल्प की विविधता और समृद्धि विश्वप्रसिद्ध है। विभिन्न क्षेत्रों की पारंपरिक कलाएं न केवल स्थानीय संस्कृतियों को दर्शाती हैं, बल्कि उनमें देश की हजारों वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत भी समाहित होती है। ऐसी ही एक गौरवशाली कला है – ढोकरा शिल्प कला (Dhokra Art), जो अपनी अनूठी तकनीक, सौंदर्यशास्त्र और ऐतिहासिक विरासत के लिए जानी जाती है।
हाल ही में इस प्राचीन कला को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मान्यता तब और भी मिली जब भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने थाईलैंड के प्रधानमंत्री को एक ढोकरा पीतल की मोर आकृति वाली नाव उपहार स्वरूप भेंट की। यह केवल एक प्रतीकात्मक भेंट नहीं थी, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विरासत और पारंपरिक कलाओं को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत करने का एक सराहनीय प्रयास था।
ढोकरा शिल्प कला | ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ढोकरा शिल्प कला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसकी जड़ें लगभग 4,000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता में देखी जा सकती हैं। इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के अनुसार, मोहनजो-दड़ो से प्राप्त प्रसिद्ध कांस्य प्रतिमा – ‘नृत्य करती युवती’ (Dancing Girl) – इस ढलाई शिल्प का सबसे पुराना और सजीव उदाहरण मानी जाती है।
इस मूर्ति की बनावट, आकार और रचना विधि से यह स्पष्ट होता है कि उस काल में भी धातु के माध्यम से कलात्मक अभिव्यक्ति की उत्कृष्ट समझ थी। ढोकरा कला की परंपरा, समय के साथ कई रूपों में विकसित होती रही, लेकिन इसकी मूल तकनीक – लॉस्ट वैक्स कास्टिंग (Lost Wax Casting) – आज भी वैसी ही बनी हुई है, जैसी हजारों वर्ष पहले थी।
नाम की उत्पत्ति और जनजातीय संबंध
“ढोकरा” या “डोकरा” नाम की उत्पत्ति धोकरा डमर जनजाति से मानी जाती है, जो पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में फैले हुए हैं। यह जनजातियाँ पीढ़ियों से इस शिल्प को अपनी पारंपरिक आजीविका के रूप में अपनाती आई हैं।
विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के बांकुरा, बीरभूम और पुरुलिया जिले, ओडिशा का डंकेनाल और सुंदरगढ़, तथा छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र ढोकरा शिल्प कला के प्रमुख केंद्र माने जाते हैं। ये कारीगर पारंपरिक शैली में धातु की मूर्तियाँ और सजावटी वस्तुएँ बनाते हैं, जिनमें उनके जीवन, विश्वास, मिथक और संस्कृति की छवि झलकती है।
निर्माण प्रक्रिया | लॉस्ट वैक्स कास्टिंग तकनीक
ढोकरा कला की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी ‘लॉस्ट वैक्स कास्टिंग’ या मृत मोम ढलाई तकनीक है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘घोड़ा ढलाई’ भी कहा जाता है। यह प्रक्रिया अत्यंत श्रमसाध्य होती है और कई चरणों में पूरी होती है। इस तकनीक की विशेषता यह है कि हर एक कृति अद्वितीय होती है – बिल्कुल वैसी ही दो प्रतिमाएँ कभी नहीं बनतीं।
निर्माण की प्रमुख चरण
- मिट्टी का मूल ढांचा बनाना
सबसे पहले, कारीगर मिट्टी से उस आकृति का मूल ढांचा बनाता है जिसे अंततः धातु में ढालना होता है। - मों के साथ परत चढ़ाना
इस मिट्टी के ढाँचे पर मोम (आमतौर पर मधुमक्खी का मोम) की पतली परत चढ़ाई जाती है। इसी पर कारीगर सुंदर अलंकरण, डिज़ाइन और आकृतियाँ उकेरता है। - मिट्टी की अंतिम परत
मोम चढ़ी आकृति को फिर से महीन मिट्टी से ढका जाता है, जिससे एक बाहरी साँचा बनता है। इसे सूखने के बाद आग में तपाया जाता है, जिससे मोम पिघल कर बाहर निकल जाता है – और यही कारण है कि इसे “लॉस्ट वैक्स” (खोया हुआ मोम) कहा जाता है। - धातु ढालना
अब इस खोखले साँचे में पिघली हुई धातु (आमतौर पर पीतल या तांबा) डाली जाती है। - साँचे को तोड़ना और अंतिम रूप देना
ठंडा होने के बाद साँचे को तोड़कर मूर्ति को बाहर निकाला जाता है। फिर उसे घिसाई, पॉलिशिंग और अंतिम सजावट दी जाती है।
ढोकरा शिल्प की विषयवस्तु और डिज़ाइन
ढोकरा मूर्तियाँ न केवल सजावटी होती हैं, बल्कि वे एक प्रकार की कथात्मक कला (narrative art) भी होती हैं, जो जनजातीय जीवन, लोककथाओं, देवी-देवताओं और प्रकृति के तत्वों को दर्शाती हैं। इन मूर्तियों में एक प्रकार का अद्भुत सौंदर्यबोध और कच्चा आकर्षण होता है।
कुछ लोकप्रिय विषय:
- देवी-देवताओं की आकृतियाँ – जैसे दुर्गा, सरस्वती, गणेश
- लोक जीवन – खेतों में काम करते किसान, संगीत बजाते आदिवासी, लोकनृत्य करती स्त्रियाँ
- पशु-पक्षी – हाथी, घोड़ा, मोर, साँप, गाय, आदि
- परंपरागत झांकी – बैलगाड़ी, नाव, जनजातीय घर, उत्सव के दृश्य
कलात्मक विशेषताएँ और सौंदर्यशास्त्र
ढोकरा शिल्प की सबसे प्रमुख विशेषता इसका अद्वितीय (Unique) होना है। प्रत्येक वस्तु कारीगर के हाथों से बनाई जाती है, और एक बार उपयोग किए गए साँचे को पुनः प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसलिए दो मूर्तियाँ कभी भी एक जैसी नहीं होतीं।
इसके अतिरिक्त, ढोकरा की कलाकृतियाँ एक तरह की जैविक बनावट (organic texture) लिए होती हैं, जो अत्यंत प्राकृतिक और रचनात्मक प्रतीत होती है। इनकी सतह पर की गई सजावट में अक्सर रेखाएँ, गोल आकृतियाँ, बिंदीदार डिज़ाइन और परतदार सजावटी मोटिफ दिखाई देते हैं।
सांस्कृतिक महत्व और पहचान
ढोकरा शिल्प न केवल एक कलात्मक अभिव्यक्ति है, बल्कि यह जनजातीय संस्कृति, लोकविश्वासों और परंपराओं की अभिव्यक्ति भी है। यह कला उस समुदाय की सोच, जीवनशैली और प्रकृति के प्रति उनके दृष्टिकोण को उजागर करती है। आज जब पूरी दुनिया स्थिरता (sustainability) और हस्तशिल्प आधारित अर्थव्यवस्था की ओर लौटने का प्रयास कर रही है, ढोकरा जैसी कलाएँ हमें एक गहरी सीख देती हैं।
भौगोलिक संकेतक (GI Tag) और संरक्षण
2008 में, पश्चिम बंगाल के बांकुरा क्षेत्र के ढोकरा शिल्प को GI टैग (Geographical Indication Tag) प्रदान किया गया। यह टैग न केवल इस पारंपरिक कला को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि यह उपभोक्ताओं को इसकी प्रामाणिकता की गारंटी भी देता है।
GI टैग के माध्यम से इस कला के पारंपरिक शिल्पकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों तक पहुँच मिली है। साथ ही, यह युवाओं को इस पेशे की ओर आकर्षित करने में सहायक रहा है।
समकालीन उपयोग और वैश्विक पहचान
वर्तमान में ढोकरा शिल्प केवल पारंपरिक मूर्तियों तक सीमित नहीं है। अब यह कला होम डेकोर, फैशन ज्वेलरी, आर्ट इंस्टॉलेशन, वॉल हैंगिंग्स और कॉरपोरेट गिफ्टिंग आइटम्स के रूप में भी लोकप्रिय हो चुकी है।
इसके उत्पादों की माँग भारत के अलावा अमेरिका, यूरोप, जापान, थाईलैंड जैसे देशों में भी तेजी से बढ़ रही है। कई अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में ढोकरा शिल्प ने भारत का प्रतिनिधित्व किया है।
प्रधानमंत्री द्वारा थाई प्रधानमंत्री को भेंट में दी गई ढोकरा नाव इसका एक बेहतरीन उदाहरण है, जो दर्शाता है कि कैसे यह पारंपरिक कला भारत की ‘सांस्कृतिक कूटनीति’ का हिस्सा बन रही है।
चुनौतियाँ और भविष्य की संभावनाएँ
हालांकि ढोकरा शिल्प की लोकप्रियता बढ़ रही है, परंतु इसके सामने कई चुनौतियाँ भी हैं:
- पारंपरिक कारीगरों की संख्या में गिरावट
- आधुनिक बाज़ार की माँगों के अनुसार नवाचार की कमी
- बिचौलियों के कारण कारीगरों को उचित मूल्य न मिल पाना
- प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता की सीमाएँ
इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार और निजी संस्थानों को मिलकर कार्य करने की आवश्यकता है। अधिक प्रशिक्षण केंद्र, डिज़ाइन स्कूल, ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म और GI टैग आधारित प्रमाणीकरण से इस कला को एक नई ऊँचाई दी जा सकती है।
ढोकरा शिल्प कला न केवल भारत की प्राचीन परंपरा का प्रतीक है, बल्कि यह आधुनिक युग में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाए हुए है। इसमें न केवल सौंदर्य और कला का संगम है, बल्कि यह हमारे समाज के सबसे पुराने और उपेक्षित समुदायों की रचनात्मकता, आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक गर्व को भी अभिव्यक्त करती है।
यदि इस कला को सही संरक्षण और प्रोत्साहन मिले, तो यह न केवल लाखों कारीगरों की आजीविका का आधार बन सकती है, बल्कि भारत की ‘सांस्कृतिक महाशक्ति’ की छवि को भी और मजबूत बना सकती है।
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