तैमूर लंग | 1336 ई. – 1405 ई.

तैमूर लंग अथवा तैमूर (1336 ई. – 1405 ई.) चौदहवीं शताब्दी का एक शासक था, जिसने महान् तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। ‘तैमूर’ का शुद्ध शब्द ‘तिमुर’ है, जिसका अरबी भाषा में अर्थ है लोहा। तैमूर 1369 ई. में समरकंद के शासक के रूप में अपने पिता के सिंहासन पर बैठा और इसके बाद ही विश्व-विजय के लिए निकल पड़ा मेसोपोटामिया, फ़ारस और अफ़ग़ानिस्तान को जीतने के बाद उसने भारत कि तरफ अपना रुख किया। 1398 ई. में उसने अपनी विशाल अश्व सेना के साथ भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली तक बढ़ आया।

तैमूर लंग

दिल्ली कि तरफ बढते समय उसने मार्ग में सहस्रों लोगों की हत्या की और बहुत से नगरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। उसने दिल्ली के निकट सुल्तान महमूद तुग़लक़ की विशाल सेना को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया और 18 दिसंबर 1398 ई. को दिल्ली के अंदर प्रवेश किया। उसके सैनिकों ने कई दिनों तक राजधानी की लूटपाट की। दिल्ली में वह केवल 15 दिन रुका, फिर हज़ारों छकड़ों पर लूट का माल लादकर अपने वतन वापस लौट गया। मार्च 1398 ई. में उसकी सेना सिंधु के जिन-जिन इलाकों से होकर गुजरी, वहाँ अराजकता, अकाल और महामारी फैल गयी। उसके आक्रमण से दिल्ली सल्तनत की जड़ें हिल गयीं और उसका शीघ्र ही पतन हो गया।

बर्बर व्यक्तित्व

चंगेज़ ख़ाँ और उसके मंगोल भी बेरहम और बरबादी करने वाले थे, पर वे अपने ज़माने के दूसरे लोगों की तरह ही थे। लेकिन तैमूर उनसे बहुत ही बुरा था। अनियंत्रित और पैशाचिक क्रूरता में उसका मुक़ाबला करने वाला कोई दूसरा नहीं था। कहते हैं, एक जगह उसने दो हज़ार ज़िन्दा आदमियों की एक मीनार बनवाई और उन्हें ईंट और गारे में चुनवा दिया। ‘तैमूर लंग’ दूसरा चंगेज़ ख़ाँ बनना चाहता था। वह चंगेज़ का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए ‘तैमूर लंग’ कहलाता था। वह अपने पिता के बाद सन 1369 ई. में समरकंद का शासक बना।

इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। लेकिन मुसलमानों से पाला पड़ने पर वह उनके साथ जरा भी मुलामियत नहीं बरतता था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और बला और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया-कोचक तक उसने लाखों आदमी क़त्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक़्ल में जमवाया।

भारत की दौलत का आकर्षण

 पिता के बाद सन 1369 ई. में तैमूर समरकंद का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। लेकिन मुसलमानों से पाला पड़ने पर वह उनके साथ जरा भी मुलामियत नहीं बरतता था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और बला की पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। 

भारत की दौलत ने इस वहशी को आकर्षित किया। अपने सिपहसलारों और अमीरों को भारत पर हमला करने के लिए राज़ी करने में इसे कुछ कठिनाई हुई। समरकंद में एक बड़ी सभा हुई, जिसमें अमीरों ने भारत जाने पर इसलिए ऐतराज किया कि वहाँ गर्मी बहुत ज़्यादा पड़ती है। अंत में तैमूर ने वादा किया कि वह भारत में ठहरेगा नहीं, लूट-मार करके वापस चला आयेगा। उसने अपना वादा पूरा भी किया।

तत्कालीन भारत

उत्तर भारत में उस वक़्त मुसलमानी राज्य था। दिल्ली में एक सुल्तान राज करता था। लेकिन यह मुसलमानी रियासत कमज़ोर थी और सरहद पर मंगोलों से बराबर लड़ाई करते-करते इसकी कमर टूट गई थी। इसलिए जब तैमूर मंगोलों की फ़ौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुक़ाबला नहीं हुआ और वह क़त्लेआम करता और खोपडियों के स्तूप बनाता हुआ मज़े के साथ आगे बढ़ता गया। हिन्दू और मुसलमान दोनों क़त्ल किये गए।

इतिहासकार कहते हैं कि तैमूर ने हिन्दू और मुसलमानों में कोई फ़र्क़ नहीं किया गया। उसने हिन्दू हो या मुस्लमान दोनों का ही क़त्ल उतनी ही बेरहमी के साथ किया। तैमूर जहा भी जाता बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमानों को कैद भी कर लेता था। और इस तरह से उसके कैदियों की संख्या बढती जा रही थी।

जब ज़्यादा क़ैदियों को संभाल पाना उसके लिए मुश्किल हो गया तो उसने उनके क़त्ल का हुक्म दे दिया। और इस तरह से एक लाख क़ैदी मार डाले गए। कहते हैं, एक जगह हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर जौहर की राजपूती रस्म अदा की थी, यानी तैमूर का कैदी होने अथवा उसका कैदी बनाने से अच्छा युद्ध में लड़ कर मर जाना बेहतर समझा। और युद्ध में लड़ते-लड़ते मर जाने के लिए बाहर निकल पड़े थे।

तैमूर रास्ते भर कत्ले आम करता हुआ दिल्ली की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। जो भी उसके रस्ते में आता वह मारा जाता। कहते है, तैमूर की फ़ौज के पीछे-पीछे अकाल और महामारी चलती थी। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और उसने इस बड़े शहर को कसाईख़ाना बना दिया। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह समरकंद वापस लौट गया।

तैमूर लंग के बाद दिल्ली

तैमूर के जाने के बाद दिल्ली मुर्दों का शहर रह गया। चारों तरफ अकाल और महामारी का राज था। दो महीने न कोई राजा था और न संगठन, न व्यवस्था। बहुत कम लोग ही वहाँ रह गये। यहाँ तक कि जिस आदमी को तैमूर ने दिल्ली का वाइसराय नियुक्त किया था, वह भी मुल्तान चला गया।

ईरान और इराक में तबाही

तैमूर लंग | 1336 ई. - 1405 ई.

इसके बाद तैमूर ईरान और इराक में तबाही और बरबादी फैलाता हुआ पश्चिम की तरफ बढ़ा। अंगोरा में सन् 1402 ई. में उस्मानी तुर्कों की एक बड़ी फ़ौज के साथ इसका मुक़ाबला हुआ। अपने सैनिक कौशल से उसने तुर्कों को हरा दिया। लेकिन समुद्र के आगे उसका बस नहीं चला और वह बासफोरस को पार न कर सका। इसलिए यूरोप उससे बच गया।

वास्तुकला का शौक़ीन

हालाँकि तैमूर वहशी था, पर वह समरकंद में और मध्य एशिया में दूसरी जगहों पर ख़ूबसूरत इमारतें बनवाना चाहता था। इसलिए बहुत दिन पहले के सुल्तान महमूद की तरह उसने भारत के कारीगरों, राजगीरों और होशियार मिस्त्रियों को इकट्ठा किया और उन्हें अपने साथ ले गया। इनमें से जो सबसे अच्छे कारीगर और राजगीर थे, उन्हें उसने अपनी शाही नौकर में रख लिया। बाकी को उसने पश्चिम एशिया के ख़ास-ख़ास शहरों में भेज दिया। इस तरह इमारतें बनाने की कला की एक नई शैली का विकास हुआ।

तैमूर लंग की मृत्यु

तीन वर्ष के बाद 18 फ़रवरी सन् 1405 ई. में, जब तैमूर चीन की तरफ बढ़ रहा था, उसी बीच तैमूर कि मृत्यु हो जाती है। उसकी मृत्यु के साथ साथ उसका लम्बा-चौड़ा साम्राज्य भी, जो क़रीब-क़रीब सारे पश्चिम एशिया में फैला हुआ था, गर्त हो गया। उस्मानी तुर्क, मिस्र और सुनहरे क़बीले इसे खिराज देते थे। लेकिन उसकी योग्यता सिर्फ़ उसकी अदभुत सिपहसलारी तक ही सीमित थी। साइबेरिया के बर्फिस्तान में उसकी कुछ रण-यात्रायें असाधारण रही हैं। पर असल में वह एक जंगली ख़ानाबदोश था।

तैमूर लंग | 1336 ई. - 1405 ई.

उसने न तो कोई संगठन बनाया और न ही चंगेज़ की तरह साम्राज्य चलाने के लिए अपने पीछे कोई क़ाबिल आदमी छोड़ा। इसलिए तैमूर का साम्राज्य उसी के साथ ही खत्म हो गया और सिर्फ़ बरबादी और क़त्लेआम की यादें अपने पीछे छोड़ गया। मध्य एशिया में होकर जितने भी भाग्य-परीक्षक और विजेता गुज़रे हैं, उनमें से चार के नाम लोगों को शायद कभी न भूले वे चार नाम हैं- सिकन्दरसुल्तान महमूदचंगेज़ ख़ाँ और तैमूर लंग


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