हिंदी साहित्य में समय-समय पर अनेक काव्यधाराएँ विकसित हुई हैं। प्रत्येक युग ने अपने समय की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप काव्यरचना की दिशा और दशा को नया मोड़ दिया। छायावाद, प्रगतिवाद, और प्रयोगवाद जैसी धाराओं के बाद जिस काव्यधारा ने हिंदी कविता को एक नया तेवर, नया स्वर, और नया शिल्प प्रदान किया, वह थी नयी कविता। यह केवल एक साहित्यिक आंदोलन नहीं था, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय समाज, मनुष्य और उसकी चेतना में आए परिवर्तनों की कविता थी।
नयी कविता की उत्पत्ति और प्रारंभिक पड़ाव
नयी कविता की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद रहा है। कुछ लोग इसका आरंभ 1943 से मानते हैं, जबकि अधिकांश आलोचक और साहित्यकार 1951 ई. में प्रकाशित ‘दूसरा सप्तक’ को इसका विधिवत प्रारंभ मानते हैं। ‘दूसरा सप्तक’ में सम्मिलित कवियों — अज्ञेय, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, भवानीप्रसाद मिश्र, नरेश मेहता, गिरिजाकुमार माथुर, शमशेर बहादुर सिंह, आदि — ने अपने वक्तव्यों में जिस कविता की घोषणा की, उसे ही आगे चलकर ‘नयी कविता’ का नाम दिया गया। इन कवियों ने परंपरागत शैली, विषयवस्तु और बिम्बों से आगे बढ़कर जीवन की नई जटिलताओं, अनुभवों और संवेदनाओं को कविता का विषय बनाया।
प्रतीक और प्रारंभिक प्रयोगवाद
नयी कविता की पृष्ठभूमि तैयार करने में प्रयोगवाद की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है, और इस आंदोलन का सबसे प्रभावशाली मंच रहा — अज्ञेय (सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन) द्वारा 1947 में इलाहाबाद से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतीक’।
अज्ञेय की भूमिका:
अज्ञेय का आरंभिक काव्य लेखन भले ही छायावाद की छाया में रहा हो, लेकिन वे बहुत शीघ्र उस युगीन काव्य संवेदना से आगे बढ़कर नई शिल्प योजना, आधुनिक बोध और वैयक्तिकता की ओर उन्मुख हो गए। उन्होंने अपने समकालीनों से हटकर, काव्य को एक नयी दृष्टि, नये बिम्ब, नयी भाषा और नये विषय देने का संकल्प लिया। इसी साहित्यिक चेतना के साथ उन्होंने 1947 में ‘प्रतीक’ का प्रकाशन शुरू किया, जिसने हिंदी कविता के एक नये युग का सूत्रपात किया।
‘प्रतीक’ की विशेषता:
‘प्रतीक’ पत्रिका मात्र एक प्रकाशन नहीं थी, बल्कि एक साहित्यिक प्रयोगशाला थी जहाँ युवा रचनाकारों को अपने विचार, भाषा और अभिव्यक्ति के नवीन रूपों को तलाशने की स्वतंत्रता मिली। इसमें छपे रचनाकारों ने पारंपरिक काव्यशास्त्र की सीमाओं को तोड़ते हुए जीवन और संवेदना को आधुनिक संदर्भों में देखने का प्रयास किया।
प्रयोगवाद से नयी कविता की ओर:
‘प्रतीक’ के माध्यम से अज्ञेय ने जो वैचारिक उर्वरता और शिल्पगत साहस उत्पन्न किया, उसी ने आगे चलकर दूसरा सप्तक (1951) और फिर नयी कविता आंदोलन की जमीन तैयार की। इस प्रकार, अज्ञेय को केवल एक कवि नहीं, बल्कि एक दिशा-दर्शक, संपादक और विचारक के रूप में भी देखा जाना चाहिए, जिन्होंने हिंदी कविता को छायावाद और प्रगतिवाद के पार जाकर एक नई काव्य-संभावना की ओर प्रेरित किया।
अज्ञेय: नयी कविता का भारतेन्दु
जिस प्रकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने आधुनिक हिंदी गद्य और नाटक की नींव रखी थी, ठीक उसी तरह अज्ञेय ने भी हिंदी कविता के नये युग की नींव रखी। उन्होंने न केवल स्वयं नये शिल्प में लेखन किया, बल्कि दूसरे रचनाकारों को भी प्रेरित, प्रकाशित और मार्गदर्शित किया। इसी कारण उन्हें नयी कविता का “भारतेन्दु” कहना अत्यंत समीचीन है।
नयी कविता का कालखण्ड
नयी कविता की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद रहा है। कुछ साहित्यकार इसका आरंभ 1947 ई. से मानते हैं, जब अज्ञेय (सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन) द्वारा संपादित साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतीक’ का प्रकाशन इलाहाबाद से शुरू हुआ। इस पत्रिका ने हिंदी साहित्य में प्रयोगवादी काव्य आंदोलन को एक सशक्त मंच प्रदान किया और समकालीन कविता को छायावाद की रुमानियत से अलग एक नवीन, यथार्थवादी दिशा में मोड़ा।
हालांकि, अधिकांश आलोचक और साहित्यविद यह मानते हैं कि 1951 ई. में प्रकाशित ‘दूसरा सप्तक’ के माध्यम से नयी कविता का औपचारिक और व्यवस्थित रूप से प्रारंभ हुआ। ‘दूसरा सप्तक’ के सातों कवियों — जैसे रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, शमशेर बहादुर सिंह आदि — ने स्वयं अपनी रचनाओं को ‘नयी कविता’ की संज्ञा दी। इसने हिंदी कविता को एक नये युगीन बोध और सांस्कृतिक चेतना के साथ जोड़ा।
इस समय भारत स्वतंत्रता प्राप्त कर चुका था और समाज राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। ऐसे में परंपरागत आदर्शवादी और छायावादी कविताओं से अलग, नई कविता ने व्यक्तिगत यथार्थ, आत्मबोध, सामाजिक विडंबनाओं और जीवन की गहराइयों को व्यक्त करना शुरू किया।
काल-सीमा:
नयी कविता का सक्रिय और प्रभावी कालखण्ड 1951 ई. से लगभग 1970–75 ई. तक माना जाता है।
इस दौरान:
- नयी कविता की विचारधारा परिपक्व हुई,
- शिल्पगत प्रयोग चरम पर पहुँचे,
- तथा कविता में व्यक्तिगत और सामाजिक यथार्थ के बीच एक नया संतुलन कायम हुआ।
इस दौर में कविता के कथ्य, शिल्प, भाषा और संवेदना — सभी स्तरों पर नवाचार हुआ। यह वही समय था जब कविता ने न केवल बाह्य जीवन की विसंगतियों को चित्रित किया, बल्कि आंतरिक द्वंद्व, अस्तित्ववाद, सामाजिक पीड़ा और मूल्य-संकटों को भी विषय बनाया।
1975 के बाद, यद्यपि अकविता, जनकविता, दलित साहित्य, स्त्री-विमर्श, उत्तर आधुनिक काव्य प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं, फिर भी नयी कविता की प्रभाव-रेखा हिंदी साहित्य में आज भी सक्रिय रूप में देखी जा सकती है।
इस प्रकार, ‘प्रतीक’ (1947) से लेकर ‘दूसरा सप्तक’ (1951) और फिर आगे 1975 के दशक तक, नयी कविता हिंदी कविता की एक विशिष्ट और निर्णायक धारा के रूप में स्थापित हुई।
‘नयी कविता’ नाम की औपचारिक स्थापना
यद्यपि ‘दूसरा सप्तक’ से इसकी भावभूमि तैयार हो चुकी थी, लेकिन 1954 में डॉ. जगदीश गुप्त और डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादन में ‘नयी कविता’ शीर्षक से एक काव्य संकलन प्रकाशित हुआ, जिसने इस कविता को एक औपचारिक नाम और पहचान दी। यही वह समय था जब ‘नयी कविता’ नामक पत्रिकाओं और संकलनों के माध्यम से यह धारा अधिक संगठित रूप से सामने आई।
नयी कविता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत के स्वतंत्र होने के बाद समाज में जो आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और मानसिक बदलाव आए, उन्होंने व्यक्ति की चेतना और अनुभव संसार को व्यापक किया। सामाजिक ढांचे में तेजी से हो रहे परिवर्तन, पारंपरिक मूल्यों का विघटन, महानगरीय जीवन की जटिलता, अस्तित्ववादी चिंता, और मनुष्य के आत्मसंघर्ष ने साहित्यकारों को नई संवेदनाओं के साथ सोचने और अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित किया।
इन परिस्थितियों ने नयी कविता को जन्म दिया, जो न केवल प्रगतिवादी ‘क्रांति’ और प्रयोगवादी ‘कलात्मकता’ से अलग थी, बल्कि उनसे आगे जाकर व्यक्तिगत अनुभवों, आंतरिक सघनता, और आत्मसजगता को केंद्र में रखती थी।
नयी कविता और पूर्ववर्ती काव्यधाराएँ
- प्रगतिवाद ने समाज के शोषित वर्ग की समस्याओं को कविता का विषय बनाया और सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षा रखी।
- प्रयोगवाद ने कलात्मकता, प्रतीकात्मकता और बिंबों के माध्यम से कविता को सृजनात्मक रूप देने का प्रयास किया।
- नयी कविता ने इन दोनों धाराओं की उपलब्धियों को समाहित करते हुए व्यक्ति की चेतना, अनुभव और उसके अस्तित्व को केंद्र में रखा।
इस तरह नयी कविता प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की सार्थक विकासधारा बन गई, जिसने कविता को आत्मसंवेदन और आत्मबोध का साधन बना दिया।
‘नयी कविता’ शब्द का चलन और आलोचना
समकालीन आलोचकों ने इस कविता को ‘नयी कविता’ कहकर संबोधित किया, लेकिन कुछ आलोचकों ने इसे इतना भिन्न और परंपरा से विचलित पाया कि इसे ‘अकविता’ (गद्यनुमा कविता) भी कहा। नयी कविता के कवि छंद, अलंकार, रस आदि पारंपरिक सौंदर्यशास्त्रीय नियमों से स्वतंत्र होकर कविता लिखते थे, जिससे पुराने समीक्षक असहज हो जाते थे।
नयी कविता आंदोलन का नेतृत्व
इस आंदोलन को प्रारंभिक रूप में दिशा देने और संगठित करने का कार्य सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने किया।
जैसे भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने हिंदी के नवजागरण युग में साहित्य को नई दिशा दी, वैसे ही अज्ञेय ने भी कविता के क्षेत्र में नवीन प्रयोगों को जन्म दिया।
इसी कारण उन्हें ‘नयी कविता का भारतेन्दु’ भी कहा जाता है।
उनकी पत्रिका ‘प्रतीक’ ने न केवल प्रयोगवादी कविता को बल दिया, बल्कि नई कविता को भी वैचारिक, कलात्मक और भाषिक स्तर पर पुष्ट किया।
उनके द्वारा संपादित सप्तकों ने अनेक नये कवियों को मंच प्रदान किया, जिनमें से कई आगे चलकर हिंदी कविता के शीर्षस्थ नाम बने।
नयी कविता के प्रमुख कवि और विशेषताएं
नयी कविता आंदोलन हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने पारंपरिक काव्य-शैलियों से हटकर आधुनिक जीवन की जटिलताओं, संवेदनाओं और अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया। इसकी विधिवत शुरुआत ‘दूसरा सप्तक’ (1951 ई.) से मानी जाती है। इसके बाद ‘तीसरा सप्तक’ (1968 ई.) और स्वतंत्र रूप से रचनारत कवियों ने इस धारा को गहराई, विविधता और प्रभाव प्रदान किया।
1. ‘दूसरा सप्तक’ (1951) के कवि
‘दूसरा सप्तक’ का संपादन अज्ञेय द्वारा किया गया था, और इसे नयी कविता की औपचारिक शुरुआत माना जाता है। इसमें सम्मिलित सात कवियों ने आधुनिक भावबोध, नये शिल्प और विषयवस्तु का संकेत दिया। ये कवि हैं:
- रघुवीर सहाय
- धर्मवीर भारती
- नरेश मेहता
- शमशेर बहादुर सिंह
- भवानी प्रसाद मिश्र
- शकुंतला माथुर
- हरिनारायण व्यास
2. ‘तीसरा सप्तक’ (1968) के कवि
‘तीसरा सप्तक’ में सम्मिलित कवियों ने नयी कविता को वैचारिक गहराई, आत्म-संवाद और भाषिक प्रयोगशीलता की दृष्टि से समृद्ध किया। इस सप्तक में शामिल कवि हैं:
- कीर्ति चौधरी
- प्रयाग नारायण त्रिपाठी
- केदारनाथ सिंह
- कुँवर नारायण
- विजयदेव नारायण साही
- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
- मदन वात्स्यायन
3. अन्य प्रमुख कवि (सप्तकों से इतर)
नयी कविता की परंपरा में कई ऐसे कवि भी हुए जिन्होंने किसी सप्तक का हिस्सा न होते हुए भी अपने स्वतंत्र काव्य-संसार से इस आंदोलन को विस्तार और नवीन दिशा दी। इन कवियों में शामिल हैं:
- श्रीकांत वर्मा
- दुष्यंत कुमार
- मलयज
- सरेंद्र तिवारी
- धूमिल
- लक्ष्मीकांत वर्मा
- अशोक वाजपेयी
- चंद्रकांत देवताले
4. प्रमुख कवियों की विशेषताएँ
कवि का नाम | मुख्य विशेषताएँ |
---|---|
अज्ञेय | प्रयोगशीलता, आत्मसंघर्ष, प्रतीकात्मकता |
शमशेर बहादुर सिंह | सौंदर्यबोध, संवेदनात्मकता, चित्रात्मकता |
नरेश मेहता | दार्शनिक दृष्टिकोण, मिथकीय बिंब |
गिरिजाकुमार माथुर | आधुनिक मनुष्य की संवेदना, शहरी जीवन का चित्रण |
धर्मवीर भारती | इतिहास-बोध, प्रेम और सामाजिक यथार्थ का संगम |
रघुवीर सहाय | व्यवस्था की विडंबना, तीव्र व्यंग्य, नागरिक चेतना |
कुँवर नारायण | विचारशीलता, गूढ़ बिंब, चिंतनशीलता |
इस प्रकार नयी कविता के कवियों ने हिंदी साहित्य को एक आधुनिक, संवेदनशील और वैचारिक आयाम प्रदान किया, जो आज भी समकालीन काव्य प्रवृत्तियों को दिशा देता है।
नयी कविता आंदोलन का स्वरूप
नयी कविता कोई एकरूप या समरूप आंदोलन नहीं था। इसमें विविध दृष्टिकोण, दर्शन और विचारधाराओं से जुड़े रचनाकार सम्मिलित थे। यह कविता आधुनिक भारतीय समाज के विविध बौद्धिक और वैचारिक आयामों को समेटने वाली कविता थी।
विचारधाराओं से जुड़ाव
नयी कविता आंदोलन की एक विशेषता यह भी थी कि इसमें एक साथ विभिन्न विचारधाराओं के कवि शामिल हुए। उनके रुझान और दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न थे:
- अज्ञेय – अस्तित्ववादी, आधुनिक चेतना के संवाहक और वैयक्तिक अनुभव के कवि।
- मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह – मार्क्सवादी / समाजवादी चेतना से प्रेरित।
- भवानी प्रसाद मिश्र – गांधीवादी विचारधारा के समर्थक, लोक और नैतिकता पर ज़ोर।
- रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना – लोहियावादी समाजवाद के प्रवक्ता, जनता के पक्षधर।
- धर्मवीर भारती – जिनकी कविताओं में देहवाद, प्रेम और सौंदर्य की गहन उपस्थिति मिलती है।
इस प्रकार नयी कविता एक बहु-आयामी आंदोलन बन गया जिसमें दर्शन, राजनीति, कला और व्यक्तिगत चेतना के अनेक स्तरों का समावेश हुआ।
नयी कविता पर अस्तित्ववाद और आधुनिकतावाद का प्रभाव
नयी कविता की वैचारिक संरचना में दो प्रमुख विचारधाराओं — अस्तित्ववाद और आधुनिकतावाद — का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।
1. अस्तित्ववाद (Existentialism)
अस्तित्ववाद एक आधुनिक पश्चिमी दर्शन है, जिसकी जड़ें जाँ-पॉल सार्त्र, कैमू, हाइडेगर जैसे चिंतकों की सोच में मिलती हैं। हिंदी के अनेक नयी कविता के कवि (विशेषतः अज्ञेय, शमशेर, कुंवर नारायण आदि) इससे अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित थे।
मुख्य विशेषताएँ:
- मनुष्य की व्यक्तिगत अनुभूति को महत्व
- प्रत्येक कार्य के लिए स्वयं की जिम्मेदारी
- स्वतंत्रता, आत्मसंघर्ष, अजनबियत, ऊब, मृत्युबोध और त्रास की अनुभूति
- मनुष्य और उसके अस्तित्व के बीच का तनाव
नयी कविता में यह दर्शन व्यक्ति के अकेलेपन, आत्मसंघर्ष, और असुरक्षा की कविताओं में स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आता है।
2. आधुनिकतावाद (Modernism)
आधुनिकतावाद पूँजीवादी व्यवस्था, शहरीकरण और औद्योगिक विकास के साथ उभरा वह चिंतन है जिसने पारंपरिक सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचों को चुनौती दी।
मुख्य तत्व:
- इतिहास और परंपरा से दूरी
- आत्मकेन्द्रितता और आत्मचेतना की तीव्रता
- नैतिक दुविधा और वैचारिक अस्पष्टता
- तटस्थता, अव्यवस्था और विखंडन का बोध
- व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके निर्णय की महत्ता
- समाज से अलग, ‘अपने में बंद’ व्यक्ति की दुनिया
नयी कविता के अनेक कवियों की कविताओं में आधुनिकतावाद का प्रभाव भाषा, बिंब, प्रतीक और वैचारिक गहराई के रूप में देखा जा सकता है।
नयी कविता न केवल एक काव्य प्रवृत्ति थी, बल्कि वह आधुनिक भारतीय समाज के मनुष्य की चेतना का गहन दस्तावेज भी थी। इसमें सामूहिकता की जगह वैयक्तिकता, यथार्थ की जगह अनुभव की सच्चाई, और परंपरागत लयात्मकता की जगह स्वतंत्र शिल्प और भाषिक प्रयोगों का बोलबाला रहा।
सप्तक कवियों से लेकर स्वतंत्र कवियों तक, अस्तित्ववादियों से लेकर समाजवादियों तक, और लोक चेतना से लेकर गहन आत्मबोध तक — नयी कविता हिंदी साहित्य की वह धारा बन गई, जिसमें बहुस्वरता, जटिलता और संवेदनशीलता का अद्वितीय संगम दिखाई देता है।
नयी कविता का चरम बिंदु और उसकी द्वि-दिशात्मक प्रवृत्तियाँ
1959 ई. को नयी कविता के विकास का एक ऐतिहासिक और निर्णायक वर्ष माना जाता है। इस वर्ष तक नयी कविता अपनी रचनात्मकता, प्रयोगशीलता और वैचारिक गहराई के चलते एक विशिष्ट मुकाम तक पहुँच चुकी थी। इसे नयी कविता का “चरम बिंदु” भी कहा जाता है।
इस बिंदु पर पहुँचकर नयी कविता के समक्ष दो संभावित मार्ग स्पष्ट हो गए:
1. रूढ़ियों की ओर झुकाव
एक मार्ग ऐसा था, जहाँ कविता के रूप में विम्ब, प्रतीक, और शब्द प्रयोग इतने ज़्यादा प्रमुख हो गए कि वे शैलीगत रूढ़ियों में बदलने लगे। विम्बों और भाषा के प्रयोग में कृत्रिमता, प्रदर्शन, और विज्ञापन-सरीखा नुस्खा बन जाने का खतरा उत्पन्न हो गया। यह मार्ग काव्य के आत्मिक भावबोध से दूर ले जाता था, जिसमें नकल और अंधानुकरण की प्रवृत्ति प्रबल हो सकती थी।
2. सच्चे सृजन का रास्ता
दूसरा मार्ग वह था, जिसे वास्तविक और ईमानदार रचनाकारों ने अपनाया। इस रास्ते पर चलने वाले कवियों ने विम्बों की रूढ़िवादी प्रवृत्ति को तोड़ते हुए कविता को सीधे, स्पष्ट और संप्रेषणीय कथन की ओर मोड़ा।
यह शैली, जिसे बाद में अशोक बाजपेयी ने ‘सपाट बयानी’ (Flat Statement) की संज्ञा दी, नयी कविता के उस रूप का प्रतीक बनी जिसमें भाषा की कृत्रिमता के स्थान पर यथार्थ की तीव्रता और सीधी अभिव्यक्ति को महत्त्व मिला।
नयी कविता के 1959 के चरम बिंदु पर खड़े होकर कविता ने दो रास्तों की ओर देखा — एक तरफ विम्बवादी अंधानुकरण और दूसरी ओर प्रामाणिक अनुभव की ईमानदार प्रस्तुति।
सच्चे कवियों ने दूसरा मार्ग चुना, जिससे हिंदी कविता में नयी भाषा, नये स्वर, और जमीन से जुड़ी हुई संवेदना की पुनर्प्रतिष्ठा हुई। यही रुझान बाद की ‘सपाट बयानी’, अकविता और जनकविता जैसे प्रवाहों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।
नयी कविता की विशेषताएँ
नयी कविता हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण आधुनिक प्रवृत्ति रही है, जिसने कविता की विषयवस्तु, भाषा, शिल्प और दृष्टिकोण में क्रांतिकारी परिवर्तन किए। यह कविता आधुनिक समाज की जटिलताओं, व्यक्ति की आंतरिक विडंबनाओं और जीवन की अस्मिता को संवेदनशीलता से अभिव्यक्त करती है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित बिन्दुओं में समझी जा सकती हैं—
1. विषय की नवीनता और विविधता (कथ्य की व्यापकता)
नयी कविता में विषयों की सीमा अत्यंत विस्तृत है। यह केवल प्रकृति, प्रेम या राष्ट्रभक्ति तक सीमित नहीं रही, बल्कि शहरी अकेलापन, पारिवारिक विघटन, आत्मसंघर्ष, सामाजिक असंगति, यौनचेतना, राजनीतिक विडंबनाएँ, मानव अस्तित्व की तलाश, निरर्थकता-बोध और सामाजिक विसंगतियाँ जैसे विषयों को प्रमुखता दी गई।
यह कविता जीवन की कड़वी सच्चाइयों को स्वीकार करती है और आदर्शवाद से हटकर यथार्थ के कठोर पक्ष को उजागर करती है।
2. अनुभूति की प्रामाणिकता (वैयक्तिकता की प्रधानता)
नयी कविता आत्म-अभिव्यक्ति की कविता है। इसमें कवि अपने अनुभवों, संवेदनाओं और आंतरिक द्वंद्वों को बिना किसी बनावट के, पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत करता है।
यह कविता ‘मैं’ की कविता है, पर यह ‘मैं’ समाज से कटा हुआ नहीं, बल्कि समाज से टकराने और उसमें जूझने वाला है। इसमें दिखावा नहीं, बल्कि अनुभूति की प्रामाणिकता और संवेदना की गहराई होती है।
3. लघुमानववाद, क्षणवाद और द्वंद्व-बोध
नयी कविता का नायक अब ‘लघुमानव’ है — यानी आम आदमी, जो रोजमर्रा की छोटी-छोटी समस्याओं, सपनों और संघर्षों से घिरा हुआ है।
- क्षणवाद: क्षण विशेष की अनुभूति या स्मृति को पकड़ना इसका केंद्रीय उद्देश्य है।
- आंतरिक द्वंद्व: नैतिक असमंजस, सामाजिक तनाव और आत्मसंघर्ष इसकी कविता का मुख्य स्वर बनते हैं।
4. मूल्यों की पुनर्परीक्षा
नयी कविता परंपरागत जीवन-मूल्यों की समीक्षा करती है। यह नए मूल्यों को स्थापित करती है और पुराने मूल्यों की विफलता को भी दर्शाती है।
- वैयक्तिकता को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया।
- निरर्थकता-बोध (Existential Crisis) और विसंगति-बोध (Absurdity) इसकी रचनात्मक भूमि बनते हैं।
- पीड़ा को जीवन की सच्चाई मानते हुए उसे भी कविता का वैध अनुभव माना गया है।
5. लोक-संपृक्तता (जन से जुड़ाव)
हालाँकि नयी कविता व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है, फिर भी यह समाज और जनजीवन से जुड़ी रहती है। कई कवियों की कविताओं में लोकजीवन, ग्रामीण संस्कृति और सामाजिक यथार्थ की झलक मिलती है।
यह लोक-संपृक्तता सीधी समाज-सुधार की भावना नहीं, बल्कि कवि के अनुभव संसार के सामाजिक संदर्भ से जुड़ी होती है।
6. शिल्प और भाषा में प्रयोगशीलता (काव्य संरचना का नवाचार)
नयी कविता का शिल्प परंपरागत छंदों से मुक्त होकर नये ढाँचों और प्रयोगों की ओर उन्मुख होता है:
- छंदमुक्त कविता: स्वाभाविक लय, आंतरिक संगीत और अर्थग्रहण की स्वतंत्रता।
- छोटी कविताएँ: प्रगीतात्मक, बिंबप्रधान और तीव्र अनुभूति वाली रचनाएँ।
- लंबी कविताएँ: नाटकीयता, फैंटेसी और दृश्यात्मकता से युक्त।
इस कविता ने पारंपरिक संरचना को तोड़कर कविता की स्वतंत्र रचना प्रक्रिया को अपनाया।
7. काव्य भाषा की विशेषताएँ
नयी कविता की भाषा सहज, बोलचाल की और अनुभव के अनुकूल होती है:
- कठिन, क्लिष्ट या संस्कृतनिष्ठ शब्दों से बचाव।
- संक्षिप्तता, तीव्रता और लचीलापन भाषा की विशेषताएँ हैं।
- हर शब्द का चयन कवि की संवेदना और अनुभूति की तीव्रता के अनुसार किया जाता है।
8. नवीन बिंब, प्रतीक और उपमान
नयी कविता में बिंब और प्रतीक परंपरागत स्रोतों से अलग होकर आधुनिक जीवन से लिए गए:
- शहरी जीवन, उद्योगवाद, टूटती आस्थाएँ, राजनीतिक द्वंद्व, अस्तित्व-संकट जैसे नए संदर्भों से उपजे बिंबों का प्रयोग।
- इन बिंबों और प्रतीकों ने कविता को गहराई, आधुनिकता और समकालीन संवेदना से जोड़ा।
9. दर्शन या वाद से अनबद्धता
नयी कविता किसी दार्शनिक प्रणाली, वाद या पूर्वनिर्धारित विचारधारा से नहीं बंधी है। यह स्वतंत्र चेतना की कविता है जो मनुष्य के समग्र अस्तित्व और अनुभव को अभिव्यक्त करती है।
10. यथार्थ के प्रति नई दृष्टि
नयी कविता का यथार्थवाद परंपरागत प्रगतिवाद से अलग है। यह न केवल सामाजिक अन्याय, शोषण या संघर्ष को चित्रित करती है, बल्कि व्यक्तिगत स्तर के यथार्थ — मानसिक द्वंद्व, आत्म-संघर्ष, सामाजिक अलगाव आदि को भी उजागर करती है।
नयी कविता ने हिंदी काव्य की परंपरागत परिधियों को तोड़ते हुए उसे नवीन अर्थ, स्वर, और शिल्प दिया। इसमें आधुनिक जीवन की जटिलता, मानव की आत्मपीड़ा, और सामाजिक विसंगतियों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई। इसके नायक अब न कोई देवता हैं, न आदर्शवादी क्रांतिकारी, बल्कि एक साधारण व्यक्ति — लघुमानव — है, जो अपने अस्तित्व की तलाश में संघर्षरत है।
नयी कविता हिंदी साहित्य में आधुनिक जीवन की सच्चाइयों, जटिलताओं और आत्मसंघर्ष की अभिव्यक्ति है। यह कविता साधारण मनुष्य के अनुभवों, संवेदनाओं और आत्मबोध को केंद्र में रखती है। उसकी शक्ति उसके यथार्थबोध, आत्मप्रकाश, और शिल्पगत नवीनता में है। यही विशेषताएँ इसे समकालीन हिंदी कविता की सबसे सशक्त और प्रभावशाली काव्यधारा बनाती हैं।
नई कविता की शिल्पगत विशेषताएँ
नई कविता ने न केवल कथ्य में नवीनता लाई, बल्कि शिल्प, भाषा, बिंब, प्रतीक, लय और छंद के स्तर पर भी अत्यंत मौलिक प्रयोग किए। यह कविता शिल्प के स्तर पर परंपरागत मान्यताओं से हटकर एक नई काव्य-दृष्टि को सामने लाती है। इसके शिल्पगत पक्षों को निम्नलिखित उपशीर्षकों के माध्यम से समझा जा सकता है:
1. लोक-जीवन से शिल्प का पोषण
नई कविता ने लोक-जीवन की संवेदनाओं, शब्दों और बिंबों को आत्मसात किया। उसने प्राकृतिक सौंदर्य, जीवन की सरलता, तथा स्थानीय संस्कृति को एक मानवीय और आत्मीय धरातल पर ग्रहण किया। इसके परिणामस्वरूप:
- कविता अधिक संवेदनापूर्ण और जीवंत बनी।
- प्रतीक, उपमान और बिंब सीधे लोक-चेतना से ग्रहण किए गए।
- जीवन के यथार्थ पक्ष को सजावटी भाषिक व्यवस्था के बिना प्रस्तुत किया गया।
2. बाह्य शिल्प का त्याग और आंतरिक संरचना की प्रतिष्ठा
नई कविता ने ऊपरी काव्य-सजावट और अनावश्यक कलात्मक जटिलता को अस्वीकार किया। इसके स्थान पर:
- अंतर्लय,
- नवीन प्रतीक योजना,
- सजीव और वास्तविक विशेषणों का प्रयोग,
- नवीन उपमान इत्यादि को शिल्प का आधार बनाया गया।
इसने काव्य-शिल्प को अधिक प्रामाणिक और जीवन-सापेक्ष बनाया।
3. भाषा की विविधता और सहजता
नई कविता की भाषा किसी एक पद्धति या परंपरा से बँधी नहीं है। इसमें:
- बोलचाल की भाषा को अधिक महत्त्व दिया गया।
- केवल संस्कृतनिष्ठ शब्दों पर निर्भरता नहीं रही।
- हिंदी की लोकभाषाओं और अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को अपनाया गया।
- नई कविता के अंतर्गत नये शब्दों का प्रयोग भी खूब हुआ है।
नई कविता में प्रयुक्त कुछ नवीन शब्दों के उदाहरण:
- टोये, भभके, खिंचा, सीटी, ठिठुरन, ठसकना, चिड़चिड़ी, ठूँठ, विरस, सिराया, फुनगियाना इत्यादि।
इन शब्दों ने कविता को स्वाभाविकता, खुलापन और ताजगी प्रदान की।
4. प्रतीकों का व्यापक प्रयोग
नई कविता में प्रतीकों का प्रयोग अत्यंत सघन और अर्थगर्भित ढंग से हुआ। उदाहरणार्थ:
“साँप, तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होंगे, नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूँछु? उत्तर दोगे! फिर कैसे सीखा डँसना? विष कहाँ पाया?”
— अज्ञेय
इस तरह के प्रतीकों ने कविता को एक बहुस्तरीय अर्थवत्ता प्रदान की।
5. बिंब-प्रधान अभिव्यक्ति
नई कविता में बिंबों की विपुलता देखी जा सकती है। इनमें:
- दैनिक जीवन,
- प्राकृतिक यथार्थ,
- पौराणिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ,
- आंतरिक भाव-स्थितियाँ प्रमुख हैं।
उदाहरण:
“सामने मेरे सर्दी में बोरे को ओढ़कर, कोई एक अपने,
हाथ-पैर समेटे काँप रहा, हिल रहा – वह मर जाएगा।”
— मुक्तिबोध
इस प्रकार के बिंब संवेदनात्मक और दृश्यात्मक सघनता के वाहक हैं।
6. छंद के प्रति लचीलापन
यह धारणा गलत है कि नई कविता ने छंद का पूरी तरह से त्याग किया। वास्तविकता यह है कि:
- छंद की पारंपरिक बाध्यता को छोड़ा गया।
- मुक्तछंद और नई लयात्मकता को अपनाया गया।
- कविता में ध्वनि-परिवर्तन, लयात्मक विघटन, और स्वर की गतिशीलता का प्रयोग हुआ।
नई कविता ने छंद को विवेकपूर्वक प्रयोग किया, न कि यंत्रवत।
7. लंबी कविता का नवाचारी प्रयोग
नई कविता के कवियों ने लंबी कविताएँ भी लिखीं, लेकिन वे प्रबंध काव्य की पारंपरिक धारा से भिन्न थीं। इसमें:
- किसी विषय या भाव को लेकर गहराई से विचार किया गया।
- परंतु उसे निबंधात्मक विस्तार देने की बजाय, काव्यात्मक संक्षिप्तता और तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया।
- लंबी कविताएँ भी चित्रात्मक, विम्बात्मक और विचारात्मक बनीं।
8. व्यक्तिगत शिल्प और सम्प्रेषण
नई कविता का प्रत्येक कवि अपनी एक विशिष्ट शैली लेकर आया। किसी एक रूप या माध्यम से बँधने की बजाय:
- सम्प्रेषणीयता को महत्त्व दिया गया।
- माध्यम से अधिक भाव और अर्थ की प्रभावशीलता को ज़रूरी माना गया।
- कवि के लिए प्रधान था – संदेश का संप्रेषण, न कि उसका तरीका।
9. लय और ध्वनि में नवाचार
नई कविता में संगीत की पारंपरिक लय को त्यागकर:
- ध्वनि की विविधता,
- शब्दों की गूँज,
- स्वर-परिवर्तन,
- अंतर्निहित लयात्मकता पर ज़ोर दिया गया।
इससे कविता में एक नई श्रवणीयता और गति का सृजन हुआ।
नई कविता ने अपने शिल्प में गहन नवाचार किए। लोकजीवन, सहजता, नई भाषा, प्रतीक-बिंब, लय, छंद और रचना-प्रविधि — सभी स्तरों पर यह कविता परंपरा से भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यही शिल्पगत विशेषताएँ इसे समकालीन यथार्थ का सजीव दस्तावेज बनाती हैं।
इस प्रकार, नई कविता केवल विषयवस्तु में ही नहीं, बल्कि शिल्प की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में हिंदी काव्य की विकास यात्रा में दर्ज होती है।
नयी कविता की आलोचना और सीमाएँ
नयी कविता को जहाँ एक ओर आधुनिकता का प्रतीक माना गया, वहीं इस पर कुछ आलोचनाएँ भी की गईं:
- इसे अत्यधिक बौद्धिक और जटिल कहा गया, जिससे आम पाठक इससे जुड़ नहीं पाता।
- इसमें भावुकता की कमी, शुष्कता, और आत्मकेंद्रिता की अधिकता होने का आरोप भी लगा।
- कुछ आलोचकों ने इसे ‘गद्यात्मक कविता’ कहकर खारिज किया।
फिर भी, यह स्वीकार करना होगा कि इन आलोचनाओं के बावजूद नयी कविता ने हिंदी कविता को नई ऊँचाइयों और गहराइयों तक पहुँचाया।
नयी कविता का प्रभाव और विरासत
नयी कविता ने बाद की काव्यधाराओं — जैसे अकविता, जनकविता, दलित कविता, स्त्री कविता, उत्तर आधुनिक कविता — को जन्म देने की भूमिका निभाई।
इसने कविता को बंद दायरों से निकालकर व्यक्तिगत संवेदना, सामाजिक चेतना और अस्तित्व की जटिलताओं तक पहुँचाया।
निष्कर्ष
नयी कविता ने हिंदी कविता को केवल विषय और शिल्प की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि चिंतन और संवेदना की दृष्टि से भी एक नया मोड़ दिया।
यह कविता न तो परंपरा को पूरी तरह नकारती है और न ही किसी वाद से बंधती है।
यह आधुनिक मनुष्य की वह अभिव्यक्ति है, जो टूटते मूल्यों, बिखरते संबंधों, और जटिल आत्मबोध के बीच अपनी पहचान और सार्थकता तलाशती है।
अज्ञेय, शमशेर, और रघुवीर सहाय जैसे कवियों ने इस धारा को न केवल जन्म दिया बल्कि इसे विचार और कला दोनों की दृष्टि से समृद्ध किया।
आज भी जब कविता जीवन की नवीन संवेदनाओं और प्रश्नों को लेकर सामने आती है, तो उसमें नयी कविता की छाया स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
अंततः, नयी कविता हिंदी साहित्य का वह अध्याय है, जिसने कविता को आधुनिकता के धरातल पर खड़ा कर एक वैश्विक चेतना और व्यक्तित्व की गहराई दी, और हिंदी कविता को अंतरराष्ट्रीय स्तर की गरिमा प्रदान की।
नयी कविता: महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर (FAQs)
तथ्यात्मक प्रश्नोत्तर
1. नयी कविता आंदोलन का औपचारिक प्रारंभ किस वर्ष से माना जाता है?
➤ 1951 ई., जब ‘दूसरा सप्तक’ प्रकाशित हुआ।
2. ‘दूसरा सप्तक’ के संपादक कौन थे?
➤ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’।
3. नयी कविता के प्रारंभ को लेकर विद्वानों में कौन-सा मतभेद है?
➤ कुछ लोग इसका आरंभ 1943 से मानते हैं, लेकिन अधिकांश विद्वान 1951 से।
4. ‘प्रतीक’ पत्रिका की शुरुआत किसने की और कब?
➤ अज्ञेय ने 1947 में इलाहाबाद से।
5. ‘नयी कविता’ नाम की पत्रिका किसने निकाली?
➤ जगदीश प्रसाद गुप्त के संपादन में।
6. नयी कविता आंदोलन से जुड़े प्रमुख वाद कौन-से थे?
➤ अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद।
7. नयी कविता किस काव्यधारा के बाद आई?
➤ प्रयोगवाद के बाद।
8. नयी कविता की सबसे बड़ी शिल्पगत विशेषता क्या मानी जाती है?
➤ छंदमुक्त शैली, नवीन बिंब, प्रतीक, और बोलचाल की भाषा का प्रयोग।
9. ‘अज्ञेय’ को नयी कविता के संदर्भ में किस उपाधि से नवाजा गया है?
➤ नयी कविता का भारतेन्दु।
10. ‘तीसरा सप्तक’ के कवियों में एक प्रमुख नाम बताइए।
➤ केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, आदि।
विश्लेषणात्मक प्रश्नोत्तर
11. नयी कविता किस प्रकार छायावाद और प्रगतिवाद से भिन्न है?
➤ नयी कविता में न अतिशय भावुकता (जैसे छायावाद) है, न ही केवल सामाजिक क्रांति की पुकार (जैसे प्रगतिवाद)। इसमें वैयक्तिक अनुभूतियाँ, आधुनिक तनाव, निरर्थकता, विसंगति, और सामाजिक यथार्थ का संयोजन है।
12. नयी कविता का नायक किसे कहा गया है?
➤ लघुमानव – जो आम आदमी है, संघर्षरत, विवश, और द्वंद्वग्रस्त।
13. अस्तित्ववाद का नयी कविता पर क्या प्रभाव पड़ा?
➤ नयी कविता में व्यक्ति की अस्मिता, अकेलापन, उदासी, मृत्युबोध, और स्वतंत्र निर्णय के भाव अस्तित्ववाद से आए।
14. आधुनिकतावाद की विशेषताएँ नयी कविता में कैसे परिलक्षित होती हैं?
➤ इतिहास और परंपरा से अलगाव, स्वत्व चेतना, तटस्थता, वैयक्तिकता, और शहरी जीवन के संकट आधुनिकतावाद के प्रभाव से आए।
15. नयी कविता में लोकजीवन की उपस्थिति कैसे दिखती है?
➤ लोक-प्रतीक, लोकभाषा, संवेदनशीलता, और ग्रामीण परिवेश से जुड़ी छवियाँ कविता में स्थान पाती हैं।
रचनात्मक/दीर्घ उत्तर आधारित प्रश्नोत्तर
16. नयी कविता की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
➤
- कथ्य की व्यापकता
- अनुभूति की प्रामाणिकता
- लघुमानववाद
- क्षणवाद व द्वंद्व
- नये बिंब-प्रतीकों का प्रयोग
- बोलचाल की भाषा
- छंदमुक्त शैली
- व्यक्तिगत और सामाजिक विसंगति का चित्रण
17. ‘प्रतीक’ पत्रिका का नयी कविता में क्या योगदान रहा?
➤ प्रतीक अज्ञेय द्वारा निकाली गई पत्रिका थी (1947), जिसने प्रयोगवादी कविता को मंच दिया और नई कविता के लिए वैचारिक और शिल्पगत ज़मीन तैयार की। इसने कवियों को नया सोचने और कहने की स्वतंत्रता दी।
18. नयी कविता में शिल्पगत नवीनता किस रूप में प्रकट हुई?
➤
- छंदमुक्त कविता,
- क्रिस्टलीय संरचना,
- प्रगीतात्मकता,
- नाटकीयता,
- फैंटेसी और स्वप्न कथा का प्रयोग,
- नये उपमान व प्रतीक,
- शब्द-संरचना की नवीनता
19. नयी कविता आंदोलन में शामिल कवियों की विचारधारात्मक विविधता स्पष्ट कीजिए।
➤
- अज्ञेय – अस्तित्ववादी
- मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह – मार्क्सवादी
- भवानी प्रसाद मिश्र – गांधीवादी
- रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना – लोहियावादी
- धर्मवीर भारती – देहवादी रुचि
20. 1959 को नयी कविता के विकास का ‘चरम बिंदु’ क्यों कहा जाता है?
➤ यह वर्ष एक ऐसा मोड़ था जहाँ कविता या तो रूढ़िवादी बिंब-प्रतीकों की तरफ बढ़ती या फिर सीधे, सपाट, संप्रेषणीय अभिव्यक्ति की ओर। कवियों ने दूसरा रास्ता चुना – स्पष्ट, मानवीय, और तर्कशील कविता की ओर। इसे अशोक बाजपेयी ने ‘सपाटबयानी’ कहा।
21. ‘नयी कविता’ का समकालीन हिंदी कविता पर क्या प्रभाव पड़ा?
➤
- छंदमुक्त लेखन की स्वीकृति,
- वैयक्तिकता की स्वाधीनता,
- भाषा में संप्रेषणीयता,
- विमर्शों की विविधता,
- कविता के लोकधर्मीकरण में योगदान।
22. ‘नयी कविता’ को हिंदी कविता की एक क्रांतिकारी धारा क्यों कहा जाता है?
➤ नयी कविता ने छायावाद और प्रगतिवाद की रूढ़ियों को तोड़ते हुए कविता को नई संवेदना, आधुनिक बोध और सशक्त वैयक्तिक दृष्टिकोण से जोड़ा। इसने आम आदमी (लघुमानव) को केंद्र में रखा और कवियों को भाषा, शिल्प और विषय में स्वच्छंदता दी, जिससे हिंदी कविता में एक वैचारिक और शिल्पगत क्रांति आई।
23. नयी कविता के प्रमुख कवियों की सूची दीजिए और उनके योगदान का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
➤
- अज्ञेय – प्रयोगवाद व नयी कविता के संस्थापक, ‘दूसरा सप्तक’ के संपादक
- मुक्तिबोध – विचारधारा और सामाजिक यथार्थ का गहन चित्रण
- रघुवीर सहाय – शहरी जीवन की विसंगतियों पर प्रहार
- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना – मानवीय पीड़ा और राजनीतिक व्यंग्य
- शमशेर बहादुर सिंह – सूक्ष्म संवेदना, संगीतात्मकता
- धूमिल – सपाटबयानी और जनवादी चेतना
- दुष्यंत कुमार – ग़ज़लों के माध्यम से सामाजिक व्यंग्य
24. नई कविता की भाषा संबंधी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
➤
- बोलचाल की भाषा का प्रयोग
- शब्दों की नवीनता और ताजगी (जैसे- ठसकना, ठिठुरन, सिराया)
- विभिन्न भारतीय भाषाओं के शब्दों को अपनाना
- संप्रेषण की स्पष्टता और सहजता
- शब्दों पर बल, ताकि वे प्रतीकात्मक रूप में काम करें
- लोक भाषा और शहरी भाषा का प्रयोग, जिससे कविता अधिक वास्तविक लगे
25. नई कविता में प्रतीकों और बिंबों की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
➤ नयी कविता में प्रतीक और बिंब केवल सौंदर्यबोध के लिए नहीं, बल्कि विचारों और भावों के वाहक हैं। जैसे अज्ञेय का ‘साँप’ प्रतीक है सभ्यता-विरोधी प्रवृत्तियों का। मुक्तिबोध, शमशेर, धूमिल आदि कवियों ने बिंबों के ज़रिए सामाजिक अन्याय, अकेलापन, अजनबियत, त्रासद यथार्थ को प्रस्तुत किया। बिंबों में कल्पना के साथ सामाजिक यथार्थ का मेल दिखता है।
26. नयी कविता और प्रयोगवाद के बीच क्या संबंध है?
➤
- प्रयोगवाद (1943–51) नयी कविता की पूर्ववर्ती धारा है।
- अज्ञेय ने ही ‘प्रतीक’ के माध्यम से प्रयोगवाद का प्रवर्तन किया।
- प्रयोगवाद भाषा, शिल्प, प्रतीकों और व्यक्तिगत अनुभूतियों में नवीनता का आग्रह करता है – यही प्रवृत्तियाँ आगे चलकर नयी कविता में विकसित और परिपक्व हुईं।
- प्रयोगवाद नयी कविता की आधारभूमि है, जबकि नयी कविता उसका विस्तार और गहनता है।
इन्हें भी देखें –
- प्रयोगवाद (1943–1953): उद्भव, कवि, विशेषताएं, प्रवृत्तियाँ | प्रयोगवादी काव्य धारा
- छायावादोत्तर युग (शुक्लोत्तर युग: 1936–1947 ई.) | कवि और उनकी रचनाएँ
- मुक्तक काव्य: अर्थ, परिभाषा, भेद, प्रकार, उदाहरण एवं विशेषताएं
- छायावादी युग (1918–1936 ई.): हिंदी काव्य का स्वर्णयुग और भावात्मक चेतना का उत्कर्ष
- द्विवेदी युग (1900–1920 ई.): हिंदी साहित्य का जागरण एवं सुधारकाल
- भारतेन्दु युग (1850–1900 ई.): हिंदी नवजागरण का स्वर्णिम प्रभात
- प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता: छायावादोत्तर युग के अंग या स्वतंत्र साहित्यिक प्रवृत्तियाँ?
- रीतिकाल (1650 – 1850 ई.): हिंदी साहित्य का उत्तर मध्यकालीन युग
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