उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) 4 अप्रैल, 1949 को गठित एक सैन्य गठबंधन है। इसका का मुख्य कार्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में स्थित है। इसने सामूहिक सुरक्षा की एक प्रणाली बनाई जिसमें इसके सदस्य राज्य विदेशी आक्रमण की स्थिति में सहयोग करने के लिए सहमत हुए। फ्रेंच में NATO को OTAN कहते है, जो नाटो का उल्टा है।
शुरुआती वर्षों में NATO (North Atlantic Treaty Organization) सिर्फ एक राजनीतिक संगठन था। परन्तु, कोरियाई युद्ध ने नाटो के सदस्य देशों के लिए एक प्रेरक का कार्य किया। जिसके फलस्वरूप नाटो ने अपने सभी सदस्य देशों के साथ मिलकर एक एकीकृत सैन्य संरचना निर्मित किया। यह एकीकृत सैन्य संरचना दो अमेरिकी सर्वोच्च कमांडरों के नेतृत्व में बनाई गई थी। लॉर्ड इश्मे नाटो के पहले महासचिव बने। इन्होने संगठन के उद्देश्य पर एक वक्तव्य जरी किया था। उनका यह वक्तव्य बहुत ही चर्चित रहा। अपने इस वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि नाटो संगठन का निर्माण “रूसियों को बाहर रखने, अमेरीकियों को अन्दर और जर्मनों को नीचे रखने” के लिए किया गया है।
1999 और 2004 में कई ऐसे देश जो वारसॉ संधि में शामिल थे वे भी इस गठबंधन में शामिल हो गए। इसी क्रम में अल्बानिया और क्रोएशिया 1 अप्रैल 2009 को गठबंधन में शामिल हो गए, इनके शामिल होने के साथ ही 28 देश नाटो के सदस्य हो गए। संयुक्त राज्य अमेरिका पर 11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद, नाटो ने नई चुनौतियों का सामना करने के लिए पुनर्गठन किया, इसके लिए उसने अफगानिस्तान में सेना और इराक में प्रशिक्षुओं को भेजा।
यूरोप और अमेरिका के संबंध जैसे जैसे बनते बिगड़ते थे उसी तरह संगठन की शक्ति में भी उतर चढ़ाव हो रहा था। इस स्थिति में, फ्रांस ने 1966 में नाटो सैन्य संरचना को छोड़ दिया और एक स्वतंत्र परमाणु निवारक का निर्माण किया। मैसेडोनिया 6 फरवरी, 2019 को नाटो का 30वां सदस्य बन गया। 1989 में बर्लिन की दीवार गिरने के बाद, संगठन का विस्तार पूर्वी बाल्कन तक हो गया।
नाटो का इतिहास
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, दो महाशक्तियों, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच शीत युद्ध तेजी से शुरू हुआ, यह युद्ध विश्व मंच पर पहुँच गया। फुल्टन के भाषण और ट्रूमैन के सिद्धांत ने, जब साम्यवाद के प्रसार को रोकना शुरू किया, उस समय सोवियत संघ ने अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन किया और 1948 में बर्लिन की नाकाबंदी कर दी।
मार्च 1948 में, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्ज़मबर्ग ने बुसेल की संधि पर हस्ताक्षर किए। इसका लक्ष्य सामूहिक सैन्य सहायता और सामाजिक-आर्थिक सहयोग था। साथ ही, संधियों में वादा किया गया कि यूरोप में इनमें से किसी भी देश पर हमले की स्थिति में अन्य सभी चार देश हर संभव सहायता प्रदान करेंगे।
इस पृष्ठभूमि में, बर्लिन की घेराबंदी और बढ़ते सोवियत प्रभाव को देखते हुए, अमेरिका ने मामलों को अपने हाथों में लिया और सैन्य गठबंधन की दिशा में पहला बहुत शक्तिशाली कदम उठाया और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन, नाटो की स्थापना की। उत्तरी अटलांटिक संधि पर संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुच्छेद 15 में निर्धारित क्षेत्रीय संगठनों की शर्तों के अनुसार हस्ताक्षर किए गए थे। इसे 4 अप्रैल 1949 को वाशिंगटन में बनाया गया था और इस पर 12 देशों ने हस्ताक्षर किये थे। ये देश थे: फ़्रांस, बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग, ग्रेट ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैंड, इटली, नॉर्वे, पुर्तगाल और संयुक्त राज्य अमेरिका।
शीत युद्ध की समाप्ति तक ग्रीस, तुर्की, पश्चिम जर्मनी और स्पेन भी नाटो के सदस्य बन गये और शीत युद्ध के बाद नाटो की सदस्यता बढ़ती रही। 1999 में, पोलैंड, हंगरी और चेक गणराज्य को शामिल करने के साथ मिसौरी सम्मेलन में 19 सदस्य हो गए। मार्च 2004 में, 7 नए देश इस संगठन के सदस्य बने, जिससे उनकी संख्या 26 हो गई। संगठन का मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स में है।
नाटो की स्थापना
नाटो की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) के बाद की वैश्विक राजनीतिक स्थिति और युद्धसंधि के बाद सुरक्षा के लिए की गयी थी। नाटो का नाम “उत्तरी अटलांटिक संघ” (North Atlantic Treaty Organization) से आया है, और यह 1949 में स्थापित किया गया था।
नाटो का मुख्य उद्देश्य था उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय संघीय देशों के बीच सुरक्षा और रक्षा की साझा जिम्मेदारी को पुनर्विचार करना और समर्थन करना। इसका मुख्य उद्देश्य था सोवियत संघ और उसके सत्ताधिकारी संगठनों के खिलाफ एक समृद्ध रक्षा संघ को बनाना जिससे सार्वजनिक सुरक्षा की जा सके ताकि दुनिया को अच्छी तरह से सुरक्षित रखा जा सके।
नाटो के सदस्य देशों ने संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग करने के लिए इकठ्ठा होने का वादा किया और उन्होंने एक-दूसरे की सुरक्षा को सहयोग से बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता भी जाहिर की। नाटो के सदस्य देशों के बीच एक आलौकिक संबंध थे, जिनका मुख्य उद्देश्य एक-दूसरे की सुरक्षा को सुनिश्चित करना था और एक आक्रामक देश के खिलाफ एक साथ खड़े होने की गारंटी थी। नाटो ने विश्व में तंत्र सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान किया।
इसके अलावा, नाटो ने सदस्य देशों के बीच विवादों के निर्णय में सहायक भूमिका भी निभाई है और सुरक्षा संबंधी जानकारी और तकनीकी ज्ञान को साझा करने का माध्यम बनाया है। इसके परिणामस्वरूप, नाटो एक महत्वपूर्ण संगठन बन गया है जो दुनिया की सुरक्षा और स्थिरता को बढ़ावा देने का काम करता है।
नाटो की स्थापना का कारण
- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत यूनियन (USSR) ने पूर्वी यूरोप से अपनी सेनाओं को नहीं हटाया और वहाँ साम्यवादी शासन की स्थापना का प्रयास करने लगा। अमेरिका ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर साम्यवाद के विरोध में सभी देशों को एक करने लगा। उसने साम्यवाद को यूरोपीय देशों के लिए एक खतरा बताया और साम्यवाद से सावधान किया। जिसका नतीजा यह हुआ कि यूरोपीय देश एक ऐसे संगठन के निर्माण हेतु राजी हो गए जो उनकी सुरक्षा कर सके। परिणाम स्वरुप नाटो सगठन की स्थापना किया गया।
- द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पश्चिम यूरोपीय देशों की अत्यधिक क्षति हुई थी। उस समय अमेरिका एक पूंजीवाद के रूप में उभरा और सबी देशों की मदद करने को राजी था अतः यूरोपीय देशों को अपने आर्थिक पुननिर्माण के लिए अमेरिका एक बहुत बड़ी आशा के रूप में दिखा इसलिए उन्होंने अमेरिका द्वारा नाटो की स्थापना का समर्थन किया और उसके सदस्य बन गए।
नाटो की स्थापना का उद्देश्य
नाटो (North Atlantic Treaty Organization) की स्थापना का मुख्य उद्देश्य गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा और सहयोग को बढ़ावा देना है। इसके द्वारा निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है:
- सदस्य देशों की सुरक्षा: नाटो का प्रमुख उद्देश्य सदस्य देशों की सुरक्षा और रक्षा को सुनिश्चित करना है। इसके द्वारा सदस्य देशों को एकजुट होकर आपसी सहयोग करने का मौका मिलता है, जिससे उन्हें अपनी रक्षा के लिए संशोधित और सशक्त किया जा सकता है।
- गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा: नाटो का उद्देश्य गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करना है, जिसमें सदस्य देशों के बीच गुप्तराष्ट्रीय संबंध और सहयोग का महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके द्वारा गुप्तराष्ट्रीय संबंधों को सुदृढ़ किया जाता है और आपसी सहयोग के माध्यम से सुरक्षा को संरक्षित किया जाता है।
- आपसी सहयोग: नाटो का मुख्य उद्देश्य आपसी सहयोग को बढ़ावा देना है, ताकि सदस्य देश एक दूसरे के साथ रक्षा के क्षेत्र में साथ काम कर सकें। इसके द्वारा सदस्य देश आपसी सहयोग के माध्यम से सुरक्षा के खतरों का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं और एक एकसरणीय बृहदाक्षरक धारा के तहत मिलकर काम करते हैं।
- दुनिया की शांति और स्थिरता: नाटो का उद्देश्य विश्व शांति और स्थिरता को सहयोग करना है, और इसके द्वारा सदस्य देश द्वारा अपनी अपेक्षित प्रबल और सुरक्षित स्थिति को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है।
इन उद्देश्यों के माध्यम से नाटो गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने का कार्य करता है और उसके सदस्य देशों को साथ मिलकर सुरक्षा के खतरों का सामना करने में मदद करता है।
नाटो की संरचना
नाटो (North Atlantic Treaty Organization) एक महत्वपूर्ण गुप्तसंगठन है जिसका मुख्यालय ब्रसेल्स, बेल्जियम में स्थित है। इस संगठन का उद्देश्य गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा और सहयोग को बढ़ावा देना है, और यह उद्देश्य चार प्रमुख अंगों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। चलिए, हम इन चार प्रमुख अंगों के बारे में विस्तार से जानते हैं:
1. परिषद (Council)
नाटो का सर्वोच्च अंग परिषद होता है, जिसका मुख्य कार्य नाटो की रक्षा और सुरक्षा पॉलिसी को निर्धारित करना होता है। यहाँ परिषद के सदस्य देशों के राज्य मंत्रियों का निर्माण होता है, और इसकी मंत्रिस्तरीय बैठक वर्ष में एक बार होती है, जिसमें सदस्य देशों के बीच सुरक्षा समझौतों की धाराओं को लागू करने की महत्वपूर्ण फैसले लिए जाते हैं।
2. उप परिषद (Deputies Committee)
इस परिषद का कार्य नाटो के सदस्य देशों द्वारा नियुक्त कूटनीतिक प्रतिनिधियों की परिषद है, जो नाटो के संगठन से संबंधित सामान्य हितों पर विचार करते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य नाटो के बीच गुप्तराष्ट्रीय मुद्दों पर समझौते करना है।
3. प्रतिरक्षा समिति (Defense Committee)
इस समिति में नाटो के सदस्य देशों के प्रतिरक्षा मंत्री शामिल होते हैं, और इसका मुख्य कार्य है प्रतिरक्षा, रणनीति, और सैन्य संबंधी मुद्दों पर विचार विमर्श करना।
4. सैन्य समिति (Military Committee)
इस समिति का मुख्य कार्य नाटो परिषद् और प्रतिरक्षा समिति को सलाह देना है। इसमें सदस्य देशों के सेनाध्यक्ष शामिल होते हैं और वे नाटो के सैन्य मुद्दों को देखते हैं तथा उनकी सलाह देते हैं।
इन चार प्रमुख अंगों के माध्यम से, नाटो अपने सदस्य देशों के बीच सुरक्षा और सहयोग के मामलों को नियंत्रित करता है और गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा को बनाए रखने के लिए कई महत्वपूर्ण फैसलों का निर्धारण करता है।
नाटो की भूमिका
नाटो (North Atlantic Treaty Organization) की भूमिका को उसके संधि प्रावधानों के आलोक में समझना महत्वपूर्ण है। नाटो की संधि प्रावधानों का मुख्य उद्देश्य गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा और सहयोग को बढ़ावा देना है, और इसके आलोक में निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया गया है:
स्वतंत्रता और ऐतिहासिक विरासत
संधि के प्रावधानों के आधार पर हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र के सदस्य देशों को अपनी स्वतंत्रता, ऐतिहासिक विरासत, और विशेष विविधताओं का सम्मान करने की जिम्मेदारी होती है। इससे संधि का स्वरूप सहयोगात्मक और सामर्थ्यवर्धन की ओर इशारा करता है।
समझौते की सख्त धाराएं
संधि प्रावधानों में आक्रमण की स्थिति में हस्ताक्षरकर्ता देशों के लिए एक जाति के सभी सदस्य देशों के साथ समझौता करने की जिम्मेदारी होती है। इससे संधि का स्वरूप सदस्य देशों को सुरक्षा छतरी प्रदान करने के लिए होता है, जो उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करता है।
साम्राज्यवाद और आक्रामक देशों के खिलाफ
सोवियत संघ ने नाटो को साम्राज्यवादी और आक्रामक देशों के सैनिक संगठन के रूप में प्रस्तुत किया, और इससे संधि का स्वरूप सदस्य देशों के संगठन के माध्यम से उनके आपसी सहयोग के प्रति समर्थन का प्रतीक होता है।
नाटो की भूमिका समझने से हमें इसके संधि प्रावधानों के महत्व का आदान-प्रदान होता है और यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि संधि का स्वरूप और उसके प्रावधान सदस्य देशों के बीच गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित रूप से बनाए रखने में कैसे मदद कर सकता है।
नाटो में सदस्य देश
1949 में नाटो के मूल सदस्य बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका थे। लेकिन अब सदस्य देशों की संख्या 31 के करीब पंहुच गई है।
- Albania – अल्बेनिया (2009)
- Belgium – बेल्जियम (1949)
- Bulgaria – बल्गारिया (2004)
- Canada – कनाडा (1949)
- Croatia – क्रोएशिया (2009)
- Czech Republic – चेक गणराज्य (1999)
- Denmark – डेनमार्क (1949)
- Estonia – एस्टोनिया (2004)
- Finland – फ़िनलैंड (2023)
- France – फ़्रांस (1949)
- Germany – जर्मनी (1955)
- Greece – यूनान (1952)
- Hungary – हंगरी (1999)
- Iceland – आइसलैंड (1949)
- Italy – इटली (1949)
- Latvia – लातविया (2004)
- Lithuania – लिथुआनिया (2004)
- Luxembourg – लक्ज़मबर्ग (1949)
- Montenegro – मॉन्टेनीग्रो (2017)
- Netherlands – नीदरलैंड्स (1949)
- North Macedonia – उत्तर मैसेडोनिया (2020)
- Norway – नॉर्वे (1949)
- Poland – पोलैंड (1999)
- Portugal – पुर्तगाल (1949)
- Romania – रोमानिया (2004)
- Slovakia – स्लोवाकिया (2004)
- Slovenia – स्लोवेनिया (2004)
- Spain – स्पेन (1982)
- Turkey – तुर्की (1952)
- United Kingdom – संयुक्त राज्य अमेरिका (1949)
- United States – संयुक्त राज्य अमेरिका (1949)
NATO का सदस्य कौन बन सकता है?
नाटो का सदस्य बनने के लिए यूरोपीय देश होना इसकी आवश्यक शर्त है। हालांकि, अपनी पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से नाटो ने कई अन्य देशों से भी अपने संपर्क स्थापित किए हैं। और उनको अपना सहयोगी बनाया है। अल्जीरिया, मिस्र, जॉर्डन, मोरक्को और ट्यूनिशिया भी नाटो के सहयोगी हैं। नाटो की भूमिका अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भी रही है।
नाटो (NATO) का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित मुख्य शर्तें होती हैं:
- देश को यूरोपीय महाद्वीप पर स्थित होना चाहिए: नाटो के सदस्य बनने के लिए, देश को यूरोपीय महाद्वीप पर स्थित होना आवश्यक है। यह एक मुख्य शर्त है और नाटो के संविधान में दिए गए हैं।
- सहमति और आवश्यक सर्वणिकरण: एक देश को नाटो के सदस्य बनने के लिए सदस्य देशों के साथ मिलकर सहमति और आवश्यक सर्वणिकरण को पूरा करना होता है।
- नाटो की सदस्यता का आग्रह: एक देश को नाटो की सदस्यता का आग्रह करना होता है और इसके लिए आवेदन करना होता है।
- सदस्यता के प्रक्रिया का पूरा करना: सदस्यता के प्रक्रिया को पूरा करना, जिसमें देश को नाटो के सदस्य बनने के लिए आवेदन करना होता है और उसकी सदस्यता की स्वीकृति होती है।
इन मुख्य शर्तों के साथ, एक देश को नाटो के सदस्य बनने के लिए कई अन्य सबक्षेत्रीय और औद्योगिक परिप्रेक्ष्यों को भी पूरा करना हो सकता है, जैसे कि सुरक्षा और सैन्य संरक्षण की योग्यता, योगदान की क्षमता, और अन्य समर्थन योग्यताएं।
नाटो के सदस्यता की प्रक्रिया में विशेष विवरण और शर्तें नाटो के संविधान में दी गई हैं, और सदस्यता के अपने विशेष विधियों का पालन करना होता है। नए देशों की सदस्यता को संविधान संशोधन के माध्यम से स्वीकृत किया जाता है।
क्या भारत नाटो का सदस्य बन सकता है?
नाटो (NATO) की सदस्यता का प्रावधान है कि एक देश को नाटो के सदस्य बनने के लिए यूरोपीय महाद्वीप पर स्थित होना चाहिए, और उसको नाटो की सदस्यता का आग्रह करना होता है। इसके बावजूद, भारत एक एशियाई देश है और यूरोप में स्थित नहीं है, इसलिए भारत को नाटो के सदस्य बनने के लिए प्राथमिकता नहीं मिलेगी।
भारत ने खुद की स्वतंत्र विदेश नीति और सुरक्षा नीति अपनाई है और इसका पालन कर रहा है। भारत का उद्देश्य नाटो के सदस्य बनने का होने की बजाय अपनी अन्य सुरक्षा और रक्षा रखने के तरीकों को बढ़ावा देने में है।
इसके बावजूद, भारत और नाटो के बीच सहयोग और संवाद के माध्यम से सुरक्षा प्रश्नों को समझने और समाधान करने का प्रयास कर सकते हैं। भारत ने अनेक बार नाटो के सदस्य देशों के साथ संवाद और सहयोग का संकेत दिया है, और इस प्रकार के सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देने की संभावना है।
नाटो का 31वां सदस्य बना फिनलैंड
रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की पृष्ठभूमि में, यूरोप में सुरक्षा स्थिति में ऐतिहासिक परिवर्तन आया है। रूस की नाराजगी के बावजूद फिनलैंड 4 अप्रैल 2023 को नाटो का 31वां सदस्य बन गया। फ़िनलैंड के नाटो में शामिल होने के बाद, रूस के साथ नाटो देशों की सीमा पहले की तुलना में लगभग दोगुनी हो गई है। फिनलैंड की लगभग 1300 किलोमीटर लंबी सीमा है, जो रूस से लगती है। तुर्की की संसद ने फिनलैंड को नाटो में प्रवेश की मंजूरी दे दी है।
फिनलैंड और स्वीडन ने 2022 में नाटो में शामिल होने के लिए आवेदन किए थे। परन्तु तुर्किये और हंगरी ने इसका विरोध किया था जबकि इनके अलावा ज्यादातर सदस्यों ने इन दो नॉर्डिक देशों के आवेदनों का स्वागत किया था। तुर्किये के राष्ट्रपति अर्दोआन ने फिनलैंड और स्वीडन पर आरोप लगाया था कि वे कुर्द ‘आतंकवादी संगठनों’ को श्रेय देते हैं। और हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने कहा कि फिनलैंड और स्वीडन में कानून व्यवस्था ठीक नहीं होने के बावजूद इसके ठीक होने का दावा करते हैं। इस कारण से इनको सदस्य बनने के लिए मंजूरी नहीं मिल पा रही थी। परन्तु तुर्किये की संसद ने फिनलैंड के सदस्य बनने के पक्ष में मतदान देकर फिनलैंड के रस्ते में आ रही बाधा को दूर कर दिया और अंतत फिनलैंड 04 अप्रैल 2023 को नाटो का सदस्य बन गया।
Low देश (Low Countries) क्या है ?
बेनेलक्स (Benelux) शब्द ‘Low’ देशों के पहले अक्षरों से बना है और इसमें बेल्जियम (Belgium), नीदरलैंड (Netherlands), और लक्ज़मबर्ग (Luxembourg) शामिल हैं। ये तीन यूरोपीय देश एक साथ काम करते हैं और बहुत से क्षेत्रों में सहयोग और संघटन की दिशा में मिलकर कई सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक मुद्दों का सामना करते हैं। बेनेलक्स देश एक आर्थिक संघ भी हैं और यूरोप में व्यापारिक सहयोग को बढ़ावा देने का काम करते हैं।
नाटो के किन गठबंधनों में भाग लेता है?
नाटो, जिसे उत्तर अटलांटिक संघ (North Atlantic Treaty Organization) भी कहा जाता है, एक गैर-लाभकारी संगठन है जिसमें विश्व के कई देश शामिल हैं। नाटो का उद्देश्य सदस्य देशों के बीच सुरक्षा और साझेदारी को बढ़ावा देना है। इन गैर-नाटो गठबंधनों के माध्यम से, नाटो अपने सदस्य देशों के साथ और बाहर के देशों के साथ सुरक्षा और सहयोग में योगदान करता है, जिससे विश्व की सुरक्षा और स्थिरता में मदद मिलती है। नाटो निम्न गैर नाटो गठबन्धनों में भाग लेता है –
यूरो-अटलांटिक पार्टनरशिप काउंसिल (EAPC): यह संगठन एक 50-देशों का संघ है जो यूरो-अटलांटिक क्षेत्र में नाटो के साथ व्यापक सहयोग और शांति के लिए साझेदारी करता है। EAPC के अंतर्गत देश नाटो के सदस्य नहीं होते हैं, लेकिन उन्होंने राजनीतिक और सुरक्षा मुद्दों पर बातचीत और परामर्श के लिए मिलकर काम करने का आदान-प्रदान किया है।
शांति के लिए साझेदारी (PfP): शांति के लिए साझेदारी (Partnership for Peace, PfP) एक द्विपक्षीय सहयोग कार्यक्रम है जो गैर-नाटो देशों को नाटो के साथ सहयोग करने का अवसर प्रदान करता है। इसका उद्देश्य व्यापक द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देना है और भागीदारों को नाटो के साथ सहयोग करने का मौका प्रदान करना है।
भूमध्यसागरीय संवाद: यह एक साझेदारी मंच है, इसका उद्देश्य नाटो के भूमध्य और उत्तरी अफ्रीकी पड़ोस में सुरक्षा और स्थिरता में योगदान करना है। इस संवाद में भाग लेने वाले देशों और नाटो सहयोगियों के बीच अच्छे संबंधों और समझ को बढ़ावा दिया जाता है। वर्तमान में जो गैर-नाटो देश वार्ता में भाग लेते हैं उनका नाम है- अल्जीरिया, मिस्र, इज़राइल, जॉर्डन, मॉरिटानिया, मोरक्को और ट्यूनीशिया।
इस्तांबुल सहयोग पहल (ICI): यह एक साझेदारी मंच है। इसका उद्देश्य व्यापक मध्य पूर्व क्षेत्र में गैर-नाटो देशों को नाटो के साथ सहयोग करने का अवसर प्रदान करके दीर्घकालिक वैश्विक और क्षेत्रीय सुरक्षा में योगदान करना है। इस पहल का उद्देश्य गैर-नाटो देशों को व्यापक मध्य पूर्व क्षेत्र में नाटो के साथ सहयोग करने का अवसर प्रदान करना है। इसमें भाग लेने वाले देशों को दीर्घकालिक सुरक्षा और स्थिरता में योगदान करने का मौका मिलता है। बहरीन, कुवैत, कतर और संयुक्त अरब अमीरात वर्तमान में इसमें भाग ले रहे हैं।
बर्लिन प्लस समझौता क्या है?
बर्लिन प्लस समझौता 16 दिसंबर, 2002 को नाटो (North Atlantic Treaty Organization, NATO) और यूरोपीय संघ के बीच हस्ताक्षरित समझौतों का एक व्यापक सेट है, जिसमें कहा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष की स्थिति में यदि नाटो कोई कार्यवाही नहीं करता है तो भी यूरोपीय संघ नाटो की परिसंपत्तियों का उपयोग अंतरराष्ट्रीय संघर्ष की स्थिति में कार्रवाई के लिए कर सकता है। सभी नाटो सदस्यों का संयुक्त सैन्य खर्च विश्व रक्षा बजट का 70 प्रतिशत से अधिक है, अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका कुल विश्व सैन्य खर्च का आधा खर्च करता है और यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, जर्मनी और इटली 15 प्रतिशत खर्च करते हैं।
नाटो (NATO) और वारसा पैक्ट के महत्वपूर्ण घटनाएं और उनके प्रभाव:
- नेटो की स्थापना (1949): नेटो की स्थापना का मुख्य उद्देश्य था पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा बनाए रखना और सोवियत संघ के खिलाफ एक सुरक्षित संघटन तैयार करना। यह सुरक्षा छतरी पश्चिमी यूरोप के देशों को अद्यतन विस्तार की स्वीकृति दिलाती है।
- वारसा पैक्ट की स्थापना (1955): वारसा पैक्ट का गठन सोवियत संघ के खिलाफ पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य सोवियत संघ के खिलाफ एक विपक्षी साम्राज्यवादी सैन्य संगठन की स्थापना करना था।
- कोल्ड वॉर (1947-1991): नेटो और वारसा पैक्ट के गठन के बाद, पश्चिमी यूरोप में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच कोल्ड वॉर का काल आया, जिसमें यह दो सुपरपॉवर्स आपसी मुकदमों और आर्थिक प्रतिस्पर्धा में रहे।
- वारसा पैक्ट की अस्तित्व समापन (1991): सोवियत संघ के विखंडन के बाद, वारसा पैक्ट का अस्तित्व समापन हो गया, जिससे सोवियत संघ का संकट बढ़ गया और कोल्ड वॉर का अंत हुआ।
- नेटो का विस्तार (1990s-2000s): शीत युद्ध के बाद, नेटो ने अपने सदस्यता को बढ़ावा दिया और पश्चिमी यूरोप के कई देशों को शामिल किया, जिससे नेटो का व्यापक स्थानक बना।
- रूस और नेटो के संबंध: रूस ने नेटो के विस्तार को लेकर चिंता जताई है और इसे अपने सुरक्षा के खिलाफ एक संकट माना है। इसके बावजूद, नेटो और रूस के बीच सहयोग की कोशिशें भी हुई हैं।
- नाटो के मौजूदा भूमिका (शीत युद्धोत्तर): शीत युद्ध के बाद, नाटो अपने उद्देश्य को बदलकर संशोधित किया है और अब यह संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग करके अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और स्थिरता की दिशा में काम कर रहा है। यह आतंकवाद और अंतरराष्ट्रीय संघटनों के माध्यम से गुप्तराष्ट्रीय सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
नेटो और वारसा पैक्ट के महत्वपूर्ण होने के कारण, इनके प्रभाव और उनके संबंध विश्व संघर्ष और सुरक्षा के क्षेत्र में अहम हैं। इनके साथ तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय संघटनों के माध्यम से दुनिया की सुरक्षा और स्थिरता को बनाए रखने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं।
नाटो के महत्वपूर्ण तथ्य
- उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) सोवियत संघ के खिलाफ सामूहिक सुरक्षा प्रदान करने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और कई पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा अप्रैल, 1949 की उत्तरी अटलांटिक संधि द्वारा निर्मित एक सैन्य गठबंधन है। इस संधि को वाशिंगटन संधि भी कहा जाता है
- वर्तमान में इसमें इकत्तीस सदस्य राज्य (देश) शामिल हैं। (2023 में फिनलैंड के शामिल होने से)
- इसके मूल सदस्य बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्राँस, आइसलैंड, इटली, लक्ज़मबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका थे। बाद में इसमें और भी राज्य जुड़ते गए और इसकी संख्या इस समय (2023 तक) 31 तक पहुँच चुकी है
- इसके मूल हस्ताक्षरकर्त्ताओं में शामिल देश ग्रीस और तुर्की (वर्ष 1952), पश्चिम जर्मनी (वर्ष 1955, वर्ष 1990 से जर्मनी के रूप में), स्पेन (वर्ष 1982), चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड (वर्ष 1999), बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया, और स्लोवेनिया (वर्ष 2004), अल्बानिया और क्रोएशिया (वर्ष 2009), मोंटेनेग्रो (वर्ष 2017), और उत्तर मैसेडोनिया (वर्ष 2020) थे।
- वर्ष 1966 में फ़्रांस नाटो की एकीकृत सैन्य कमान से हट गया परन्तु संगठन का सदस्य बना रहा, और वर्ष 2009 में पुनः नाटो की सैन्य कमान में वापस शामिल हुआ।
- इस समय फिनलैंड और स्वीडन ने नाटो में शामिल होने के लिये अपनी इच्छा जाहिर की है।
- फिनलैंड नाटो में सामिल हो गया है, जिससे इसके सदस्य देशों की संख्या अब 31 हो चुकी है।
- इसका मुख्यालय बेल्जियम के ब्रुसेल्स में है।
- इसके एलाइड कमांड ऑपरेशंस का मुख्यालय बेल्जियम के मॉन्स में है।
- नाटो के पास एक एकीकृत सैन्य कमान संरचना तो है परन्तु इसमें से बहुत कम सैन्य बल हैं जो नाटो के लिए विशेष रूप से निजी सैन्य बल हैं।
- ज्यादातर सैन्य बल पूर्ण राष्ट्रीय कमान और नियंत्रण में रहते हैं जब तक कि सदस्य देश नाटो से संबंधित कार्यों को करने के लिये सहमत नहीं हो जाते।
- सभी 31 सदस्य देशों का एक समान मत है कि गठबंधन के निर्णय एकमत और सहमति वाले होने चाहिये और इसके सदस्यों को उन सभी बुनियादी मूल्यों का सम्मान करना चाहिये जो गठबंधन को रेखांकित करते हैं, अर्थात् लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ साथ कानून का शासन भी होना चाहिए।
- नाटो का संरक्षण सदस्यों के गृह युद्ध या आंतरिक तख्तापलट पर भी नजर रखता है।
- नाटो को उसके सदस्यों द्वारा फंडिंग किया जाता है। नाटो के बजट में सबसे ज्यादा योगदान अमेरिका का है जो कुल फंडिंग का लगभग तीन-चौथाई है।
- वर्ष 1945 में दूसरे विश्व युद्ध के बाद, पश्चिमी यूरोप आर्थिक और सैन्य रूप से काफी कमज़ोर हो चुका था। इस समय पश्चिमी मित्र राष्ट्रों ने युद्ध के अंत में अपनी सेनाओं में बड़ी संख्या में कटौती की।
- इसी बीच वर्ष 1948 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक योजना शुरू की जिसका नाम मार्शल योजना था, इस योजना के अंतर्गत अमेरिका ने पश्चिमी और दक्षिणी यूरोप के देशों को इस शर्त पर भारी मात्रा में आर्थिक सहायता प्रदान की कि वे सभी एक दूसरे के साथ सहयोग करें और अपनी पारस्परिक रिकवरी को तेज़ करने के लिये संयुक्त योजना में संलग्न हों।
- सैन्य रिकवरी के लिये वर्ष 1948 में ब्रुसेल संधि की गयी। जिसके तहत, यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस एवं ‘Low’ देशों (बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्ज़मबर्ग) ने पश्चिमी यूरोपीय संघ नामक एक सामूहिक-रक्षा समझौते का समापन किया।
- हालाँकि, शीघ्र ही यह स्वीकार कर लिया गया कि सोवियत यूनियन को पर्याप्त सैन्य प्रतिकार करने के लिये एक अधिक दुर्जेय गठबंधन की आवश्यकता होगी।
- फरवरी में चेकोस्लोवाकिया में एक आभासी कम्युनिस्ट तख्तापलट हुआ। जिसके बाद के बाद मार्च, 1948 में तीनों सरकारों ने एक बहुपक्षीय सामूहिक-रक्षा योजना पर चर्चा शुरू की। इस परिचर्चा में पश्चिमी देशों के सुरक्षा को बढाने के साथ साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को भी बढ़ावा देने पर चर्चा किया गया।
- इन चर्चाओं के बाद अंततः फ्राँस, ‘Low’ देश और नॉर्वे शामिल इस गठबंधन में शामिल हुए और अप्रैल 1949 में उत्तरी अटलांटिक संधि हुई।
- द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में संयुक्त राज्य अमेरिका और यूएसएसआर के बीच पारस्परिक होड़ के कारण बिगड़ते संबंध अंततः शीत युद्ध का कारण बने।
- यूएसएसआर ने साम्यवाद के प्रसार के माध्यम से यूरोप में अपने प्रभाव का विस्तार करने की कोशिश की। परन्तु अमेरिका को USSR के इस विस्तार को अपने लिए खतरा महसूस किया।
- वर्ष 1955 में जब शीत युद्ध अपने चरम पर पहुँच रहा था, उस समय सोवियत संघ ने मध्य और पूर्वी यूरोप के समाजवादी गणराज्यों को वारसॉ संधि (वर्ष 1955) में शामिल कर लिया। वारसा संधि, जो अनिवार्य रूप से एक राजनीतिक-सैन्य गठबंधन था, को नाटो के प्रत्यक्ष रणनीतिक प्रतिकार के रूप में महसूस किया गया था।
- वारसॉ संधि में अल्बानिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, पोलैंड और रोमानिया शामिल थे। हालाँकि अल्बानिया वर्ष 1968 में इस संधि से हट गया था।
- वर्ष 1991 की शुरुआत में सोवियत संघ के विघटन के बाद वारसा संधि को आधिकारिक तौर पर भंग कर दिया गया था।
इन्हें भी देखें-
- वारसॉ संधि|1955-1991| सोवियत संघ का एक महत्वपूर्ण पहल और ग्लोबल समर्थन
- सोवियत संघ USSR|1922-1991| गठन से पतन तक की ऐतिहासिक यात्रा
- द्वितीय विश्व युद्ध|1939-45| गहरी उम्मीदों की पुनरावृत्ति
- प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.
- रूस की क्रांति: साहसिक संघर्ष और उत्तराधिकारी परिवर्तन |1905-1922 ई.
- फ्रांस की क्रांति: एक रोमांचकारी परिवर्तन और जज्बाती संघर्ष |1789 ई.
- परिसंघीय राज्य अमेरिका |CSA|1861-1865
- अमेरिकी गृहयुद्ध (1861 – 1865 ई.)