भारत की बैंकिंग व्यवस्था पिछले कुछ दशकों में अत्यधिक परिवर्तित हुई है। एक ओर डिजिटलीकरण और फिनटेक क्रांति ने ग्राहकों को अधिक सुविधाएँ प्रदान की हैं, वहीं दूसरी ओर निजी बैंकों के बढ़ते दबाव और लाभ की प्रतिस्पर्धा ने सामान्य ग्राहकों की जेब पर असर डालने वाले निर्णयों को जन्म दिया है। हाल ही में ऐसा ही एक मामला सामने आया जब आईसीआईसीआई बैंक (ICICI Bank) ने नए बचत खाता धारकों के लिए न्यूनतम औसत शेष राशि (Minimum Average Balance – MAB) को अचानक पाँच गुना बढ़ा दिया।
पहले यह सीमा ₹10,000 थी जिसे बढ़ाकर ₹50,000 कर दिया गया। यह निर्णय न केवल ग्राहकों बल्कि वित्तीय विशेषज्ञों और बैंकिंग नीति-निर्माताओं के बीच भी तीव्र आलोचना का कारण बना। अंततः विरोध और नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के चलते बैंक ने अपना निर्णय आंशिक रूप से वापस लिया और संशोधित शर्तें घोषित कीं।
यह पूरा घटनाक्रम भारत की बैंकिंग प्रणाली में ग्राहक-अधिकार, वित्तीय समावेशन, और लाभप्रदता बनाम सामाजिक जिम्मेदारी जैसे मुद्दों पर नई बहस को जन्म देता है।
एमएबी (Minimum Average Balance) क्या है?
किसी भी बचत खाते को सक्रिय बनाए रखने और बैंक को परिचालन लागत वसूलने के लिए बैंक ग्राहकों से एक निश्चित न्यूनतम औसत राशि खाते में बनाए रखने की शर्त रखते हैं।
- यदि ग्राहक इस राशि को बनाए रखने में असफल रहते हैं तो नॉन-मेंटेनेंस चार्ज (Penalty) लगाया जाता है।
- यह शर्त शहरी, अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग-अलग निर्धारित होती है।
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में यह शर्त अपेक्षाकृत लचीली होती है, जबकि निजी बैंकों में अपेक्षाकृत कठोर।
भारत सरकार और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया (RBI) लंबे समय से वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) को बढ़ावा देने के लिए बैंकों को लचीली नीतियाँ अपनाने का सुझाव देते रहे हैं। लेकिन निजी बैंकों के लिए लाभ और मार्केट शेयर का दबाव कई बार ग्राहकों पर अतिरिक्त बोझ डालता है।
आईसीआईसीआई बैंक का विवादित निर्णय
हाल ही में आईसीआईसीआई बैंक ने शहरी क्षेत्रों में नए बचत खातों के लिए एमएबी की राशि ₹10,000 से बढ़ाकर ₹50,000 कर दी।
- पहले की स्थिति:
- शहरी क्षेत्र: ₹10,000
- अर्ध-शहरी क्षेत्र: ₹5,000–₹10,000
- ग्रामीण क्षेत्र: ₹2,000–₹5,000
- नई स्थिति (विवादित):
- शहरी क्षेत्र: ₹50,000
- अर्ध-शहरी क्षेत्र: ₹25,000
- ग्रामीण और पुराने ग्राहकों: ₹5,000 (कोई बदलाव नहीं)
यह बढ़ोतरी ग्राहकों को अचानक बहुत बड़ी लगी क्योंकि अधिकांश निजी और सार्वजनिक बैंक ₹2,000–₹10,000 की सीमा ही रखते हैं।
विरोध और आलोचना क्यों हुई?
- अत्यधिक बढ़ोतरी:
₹10,000 से सीधे ₹50,000 करना पाँच गुना वृद्धि थी, जो असंगत और ग्राहकों के लिए असहनीय मानी गई। - अन्य बैंकों से तुलना:
- भारतीय स्टेट बैंक (SBI): 2020 में न्यूनतम बैलेंस की शर्त पूरी तरह खत्म कर दी।
- एचडीएफसी, एक्सिस और कोटक: ₹10,000 से कम एमएबी।
- इसके मुकाबले आईसीआईसीआई का ₹50,000 कदम नकारात्मक रूप से अलग दिखा।
- वित्तीय समावेशन पर चोट:
भारत में अब भी बड़ी संख्या में लोग पहली बार औपचारिक बैंकिंग से जुड़ रहे हैं। इतनी ऊँची शर्त गरीब और मध्यम वर्गीय ग्राहकों को दूर कर सकती थी। - महँगाई और आय असमानता:
ऐसे समय में जब महँगाई पहले से दबाव डाल रही है, यह कदम मध्यमवर्ग के लिए असुविधाजनक था। - डिजिटल प्रतिस्पर्धा का युग:
कई नए फिनटेक और नियोबैंक शून्य बैलेंस खाता (Zero Balance Account) ऑफर कर रहे हैं। ऐसे में आईसीआईसीआई का यह निर्णय ग्राहक पलायन का कारण बन सकता था।
संशोधित निर्णय – आंशिक वापसी
विरोध और आलोचना के बाद बैंक ने निर्णय वापस लेते हुए नई शर्तें घोषित कीं:
- शहरी क्षेत्र: अब ₹15,000 (पहले घोषित ₹50,000 से घटाकर)
- अर्ध-शहरी क्षेत्र: अब ₹7,500 (पहले ₹25,000 से घटाकर)
- ग्रामीण क्षेत्र और पुराने ग्राहक: ₹5,000 (कोई बदलाव नहीं)
यानी शहरी एमएबी अब भी पुराने ₹10,000 से अधिक है, लेकिन फिर भी यह ₹50,000 की तुलना में ग्राहकों के लिए बड़ी राहत है।
ग्राहकों और विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया
- ग्राहक: राहत महसूस की, लेकिन यह भी कहा कि ₹15,000 अब भी ऊँचा है।
- विशेषज्ञ: यह उदाहरण है कि बैंकिंग क्षेत्र में ग्राहकों की सामूहिक प्रतिक्रिया नीतियों को बदलने पर मजबूर कर सकती है।
- वित्तीय समावेशन समर्थक: उन्होंने चेतावनी दी थी कि अधिक एमएबी गरीब वर्ग को औपचारिक बैंकिंग से दूर कर देगा।
प्रतिस्पर्धी बैंकिंग बाजार का असर
भारत का बैंकिंग बाजार अत्यंत प्रतिस्पर्धी है।
- सार्वजनिक बैंकों (SBI, PNB, BOI आदि) ने न्यूनतम बैलेंस शर्तें सरल बना दी हैं।
- निजी बैंक भी डिजिटल खाता धारकों को शून्य बैलेंस विकल्प देते हैं।
- फिनटेक कंपनियाँ (Paytm Payments Bank, Airtel Payments Bank, Jio Payments Bank) पूरी तरह से शून्य बैलेंस खाते चला रही हैं।
इस माहौल में आईसीआईसीआई का ₹50,000 निर्णय ग्राहकों को आकर्षित करने के बजाय दूर करने वाला साबित हो सकता था।
बैंक की मंशा: लाभप्रदता या जोखिम प्रबंधन?
बैंक के दृष्टिकोण से देखें तो एमएबी बढ़ाने के पीछे कुछ संभावित कारण हो सकते हैं:
- लाभप्रदता बढ़ाना:
अधिक बैलेंस का मतलब है कि बैंक के पास फंड अधिक समय तक उपलब्ध रहेंगे, जिससे लोन और निवेश पर फायदा होगा। - उच्च आय वर्ग पर फोकस:
बैंक शायद केवल उन ग्राहकों को आकर्षित करना चाहता था जो उच्च जमा राशि रखते हैं। - ऑपरेशनल लागत नियंत्रण:
अधिक संख्या में छोटे खातों की तुलना में सीमित लेकिन उच्च बैलेंस वाले खाते बैंक के लिए सस्ते पड़ते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या यह नीति ग्राहकों के हितों के विपरीत नहीं जाती?
नियामकीय निगरानी की भूमिका
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) बैंकों को एमएबी तय करने की स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह सुनिश्चित करता है कि ग्राहकों को पारदर्शिता से जानकारी दी जाए।
- वित्त मंत्रालय और नीति आयोग समय-समय पर वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिए बैंकों को ग्राहक-हितैषी फैसले लेने का संदेश देते हैं।
- यह प्रकरण एक बार फिर सवाल उठाता है कि क्या एमएबी जैसी शर्तों पर नियामकीय नियंत्रण और सख्त होना चाहिए?
व्यापक परिप्रेक्ष्य – वित्तीय समावेशन बनाम लाभ
भारत में जनधन योजना जैसी योजनाओं का मकसद था कि गरीब और मध्यमवर्गीय लोग बिना बाधा औपचारिक बैंकिंग का हिस्सा बन सकें।
- करोड़ों लोग शून्य बैलेंस खाता खोल चुके हैं।
- डिजिटल भुगतान (UPI, AEPS आदि) ने ग्रामीण भारत तक बैंकिंग पहुंचा दी है।
ऐसे में निजी बैंकों का उच्च एमएबी निर्णय न केवल इन प्रयासों को कमजोर करता है बल्कि ग्राहक असंतोष और बहिष्कार को भी जन्म देता है।
भविष्य की दिशा
- ग्राहक जागरूकता:
अब ग्राहक अधिक सचेत हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी असहमति दर्ज कराते हैं। - बैंकिंग पारदर्शिता:
इस घटना ने साबित किया कि ग्राहकों की प्रतिक्रिया से बैंक अपनी नीतियाँ बदलने को मजबूर हो सकते हैं। - फिनटेक चुनौती:
यदि पारंपरिक बैंक कठोर शर्तें रखेंगे तो ग्राहक डिजिटल बैंकों और फिनटेक विकल्पों की ओर पलायन कर सकते हैं। - नियामकीय हस्तक्षेप:
भविष्य में संभव है कि RBI न्यूनतम बैलेंस की ऊपरी सीमा तय कर दे ताकि ग्राहक-हित सुरक्षित रहे।
निष्कर्ष
आईसीआईसीआई बैंक का यह निर्णय और उसके बाद की वापसी भारत की बैंकिंग व्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण सबक है।
- यह दर्शाता है कि ग्राहक अब केवल निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं हैं, बल्कि नीति-निर्माण को प्रभावित करने वाली आवाज़ बन चुके हैं।
- बैंकिंग क्षेत्र में लाभ और ग्राहक हित के बीच संतुलन आवश्यक है।
- वित्तीय समावेशन की दिशा में यह घटना संकेत देती है कि यदि निजी बैंक ग्राहक-हित की अनदेखी करेंगे तो उन्हें पीछे हटना ही पड़ेगा।
इस पूरे प्रकरण से यही निष्कर्ष निकलता है कि बैंकिंग का भविष्य ग्राहक-केंद्रित नीतियों पर ही टिका है।
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