परमार वंश का प्रारंभ नवीं शताब्दी के आरम्भ में नर्मदा नदी के उत्तर मालवा (प्राचीन अवन्ती) क्षेत्र में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज द्वारा हुआ था। इस वंश के शासकों ने 800ई. से 1327 ई. तक शासन किया। मालवा के परमार वंशी शासक संभवतः राष्ट्रकूटों या प्रतिहारों के सामना थे।
परमार वंश एक राजवंश का नाम है, यह वंश मध्ययुग के प्रारम्भिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। चारण कथाओं में इसका उल्लेख एक जाति के एक रूप में मिलता है।
परमार वंश की कथा
परमार सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपनी एक पुस्तक ‘नवसाहसांकचरित’ में एक कथा का वर्णन किया है। इस कथा में कहा गया है कि ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये आबु पर्वत पर एक यज्ञ किया। उस यज्ञ के अग्निकुंड से एक पुरुष प्रकट हुआ।
असल में ये पुरुष वे थे जिन्होंने ऋषि वशिष्ठ को साथ देने का प्रण लिया और जिनके पूर्वज अग्निवंश के क्षत्रिय थे। इस पुरुष का नाम प्रमार रखा गया, यही आगे चलकर इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा परमार वंश। परमार के अभिलेखों में बाद में भी इस कहानी का पुनरुल्लेख किया गया है। इससे कुछ लोग यह समझने लगे कि परमारों का मूल निवासस्थान आबू पर्वत पर था, और यही से ही वे पड़ोस के देशों में जा जाकर बस गए। परन्तु इस वंश के एक प्राचीन अभिलेख से यह पता चलता है कि परमार दक्षिण के राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे।
परमार परिवार की मुख्य शाखा आठवीं शताब्दी के प्रारंभ से मालवा में धारा को राजधानी बनाकर राज्य करती थी और इसका प्राचीनतम ज्ञात सदस्य उपेन्द्र कृष्णराज था। इस वंश के प्रारंभिक शासक दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामन्त हुआ करते थे। जब राष्ट्रकूटों का पतन हो गया, उसके बाद सिंपाक द्वितीय के नेतृत्व में यह परिवार स्वतंत्र हो गया।
सिपाक द्वितीय का पुत्र वाक्पति मुंज, जो दशवी शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हुआ, अपने परिवार की महानता का संस्थापक था। उसने केवल अपनी स्थिति ही सुदृढ़ नहीं की वरन् दक्षिण राजपूताना का एक भाग भी जीत लिया और वहाँ के महत्वपूर्ण पदों पर अपने वंश के राजकुमारों को नियुक्त कर दिया। उसका एक भतीजा जिसका नाम भोज था, उसने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया और वह सर्वतोमुखी प्रतिभा का शासक था।
भोज मध्युगीन सर्वश्रेष्ठ शासकों में गिना जाता था। भोज ने अपने समय के चौलुभ्य, चंदेल, कालचूरी और चालुक्य इत्यादि सभी शक्तिशाली राज्यों से युद्ध किया। बहुत बड़ी संख्या में विद्वान् भोज के दरबार में दयापूर्ण आश्रय पाकर रहते थे। भोज स्वयं भी महान् लेखक था, और ऐसा माना जाता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखी थीं। उसने अपने राज्य के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए।
राजा भोज की मृत्यु के पश्चात् चोलुक्य कर्ण और कर्णाटों ने मालव को जीत लिया, परन्तु भोज के एक संबंधी उदयादित्य ने शत्रुओं को बुरी तरह से पराजित करके अपना प्रभुत्व पुन: स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उदयादित्य ने मध्यप्रदेश के उदयपुर नामक स्थान में नीलकंठ शिव के विशाल और भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। उदयादित्य का पुत्र जगद्देव एक प्रतिष्ठित सम्राट् था। वह मृत्यु के बहुत समय बाद तक पश्चिमी भारत के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण उपलब्धियों के लिय प्रसिद्ध रहा। मालव में परमार वंश का अंत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा सन 1305 ई. में कर दिया गया।
परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, दशवी शताब्दी के अंत से तेरहवी शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (जो कि वर्तमान बाँसवाड़ा में है) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर दशवी शताब्दी के मध्य से बारहवी शताब्दी के मध्य तक शासन करती रही। इस वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं, जिनमे से एक ने जालोर में तथा दूसरी ने बिनमाल में दशवी शताब्दी के अंत से से बारहवी शताब्दी के अंत तक राज्य किया।
वर्तमान
वर्तमान में परमार वंश की एक शाखा उज्जैन के गांव नंदवासला, खाताखेडी तथा नरसिंहगढ एवं इन्दौर के गांव बेंगन्दा में निवास करते हैं। धारविया परमार तलावली में भी निवास करते हैं कालिका माता के भक्त होने के कारण ‘परमार’ को कलौता के नाम से भी जाना जाता हैं। धारविया भोजवंश परमार की एक शाखा धार जिले के सरदारपुर तहसील में रहती है। इनके ईष्टदेव श्री हनुमान जी तथा कुलदेवी माँ कालिका है।
ये अपने यहाँ पैदा होने वाले हर लड़के का मुंडन राजस्थान के पाली जिला के बूसी में स्थित श्री हनुमान जी के मंदिर में करते हैं। इनकी तीन शाखा और है एक बूसी गाँव में,एक मालपुरिया राजस्थान में तथा एक निमच में निवासरत् है। 11वी से 17 वी शताब्दी तक पंवारो का प्रदेशान्तर सतपुड़ा और विदर्भ में हुआ ।
सतपुड़ा क्षेत्र में उन्हें भोयर पंवार कहा जाता है धारा नगर से 15 वी से 17 वी सदी स्थलांतरित हुए पंवारो की करीब 72 (कुल) शाखाए बैतूल छिंदवाडा वर्धा व् अन्य जिलों में निवास करती हैं। पूर्व विदर्भ, मध्यप्रदेश के बालाघाट सिवनी क्षेत्र में धारा नगर से सन 1700 में स्थलांतरित हुए पंवारो/पोवारो की करीब 36 (कुल) शाखाए निवास करती हैं जो कि राजा भोज को अपना पूर्वज मानते हैं । संस्कृत शब्द प्रमार से अपभ्रंषित होकर परमार/पंवार/पोवार/पँवार शब्द प्रचलित हुए ।
परमार वंश द्वारा शासित प्राचीन राज्य
- मालवा
- बागड़ (मेवाड़)
- आबू
- जालौर(राजस्थान)
- किराडू राज्य
परमार वंश द्वारा शासित नवीन राज्य
- दांता (गुजरात)
- पीसांगन(अजमेर)
- मध्यप्रदेश में स्थित देवास और धार क्षेत्र
- टेहरी गढ़वाल और पौडी गढ़वाल
- जगदीशपुर और डमरांव (बिहार)
- राजगढ़ और नरसिंहगढ़ (मध्य प्रदेश)
- छतरपुर राज्य
- अमरकोट (सिंध,पाकिस्तान)
- पारकर राज्य
- जगमेर राज्य
परमार वंश की कुलदेवी
उत्तर भारत के परमारो की कुलदेवी सच्चियाय माता तथा उज्जैन के परमारो की कुल देवी काली देवी है।
सच्चियाय माता मंदिर राजस्थान के प्रमुख शहर जोधपुर से 65 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सच्चियाय माता मंदिर जोधपुर जिले में बना हुआ सबसे विशाल मंदिर है।
इस मंदिर का निर्माण नवी से दसवीं शताब्दी के मध्य उप्पलदेव( उपेंद्र राज) परमार ने करवाया था। यह मंदिर ओसियां नामक जगह पर स्थित है इसलिए इस मंदिर को ओसियां माता मंदिर भी कहा जाता है।
इस ऐतिहासिक प्रसिद्ध मंदिर में भारत से ही नहीं बल्कि दूसरे देशों से भी लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। ओसियां माता मंदिर में स्थित माता जी की मूर्ति महिषासुर मर्दिनी के अवतार में है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माता की मूर्ति अपने आप प्रकट हुई थी।
सच्चियाय माता परमार वंश के अतिरिक्त ओसवाल जैन, कुमावत, राजपूत तथा चारण समाज के लिए भी आराध्य देवी है।
सच्चियाय माता मंदिर में 1178 ईस्वी में उत्कीर्ण एक शिलालेख है जिसमें इस प्राचीन मंदिर में क्षेमकरी, शीतला माता सहित अन्य देवियों की मूर्तियां प्रतिष्ठापित किए जाने का पता चलता है।
ओसियां में जैन मंदिर व बाकी अन्य सब हिंदू मंदिर है। सभी मंदिर स्थापत्य कला के सुंदर उदाहरण है। इनमें से सूर्य मंदिर, हरिहर मंदिर, विष्णु मंदिर, शिव मंदिर प्रमुख है।
ओसियां माता मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है परंतु जब सुबह के समय माताजी को चुनरी चढ़ाई जाती है तब दो महिलाओं को गर्भगृह में जाकर पूजा करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। सच्चियाय माता मंदिर की प्रथा के अनुसार यहां पर जो प्रसादी चढ़ाई जाती है उसे घर नहीं ले जाया जाता है। प्रसादी का वितरण सिर्फ मंदिर परिसर में ही किया जाता है।
सच्चियाय माता मंदिर कैसे पहुंचे
सच्चियाय माता का मंदिर जोधपुर से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जोधपुर से ओसिया के लिए सीधी बसे चलती है। इस प्रकार आप आराम से बस के माध्यम से यहां पहुंच सकते हैं।
इसके अतिरिक्त ओसियां शहर, जोधपुर शहर से रेल मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। आप ट्रेन के माध्यम से भी यहां पहुंच सकते हैं।
अगर आप ओसियां में माता जी के दर्शन करने के लिए आते हैं तो आप “श्री सच्चियाय माता अंतर्राष्ट्रीय अतिथि गृह” के अंदर मात्र 120 रुपए में एक रात रुक सकते है। इसमें भोजन भी शामिल होता है।
परमार वंश के प्रमुख शासक
परमार वंश में राजा भोज, विक्रमादित्य जैसे वीर पुरुषों ने जन्म लिया है। भृतहरी जैसे संतो ने भी इस वंश में जन्म लेकर इसके गौरव को बढ़ाया है।
परमार वंश के प्रारंभिक शासक राष्ट्रकूटो के सामंत थे। जब धीरे-धीरे राष्ट्रकूटो की शक्ति क्षीण होने लगी तब सीपांक द्वितीय के नेतृत्व में परमार वंश स्वतंत्र हुआ और बाद में सीपांक के पुत्र वाक्पति मुंज (973-995 ईसवी) ने स्वयं को एक शक्तिशाली शासक के रूप में स्थापित किया। वाक्पति मुंज ने अपने राज्य को तो अच्छे से संभाला ही इसके साथ-साथ राजपूताने के बहुत से भाग पर भी अधिकार कर लिया था।
वाक्पति मुंज के बाद उनके महान भतीजे राजा भोज ने परमार वंश में चार चांद लगा दिए। राजा भोज परमार वंश के नवे शासक थे । राजा भोज एक बहुत ही विद्वान, प्रतापी और शक्तिशाली शासक थे। राजा भोज एक सर्वगुण संपन्न शासक थे जिनके दरबार में कई विद्वान रहते थे।
मध्य प्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाने का श्रेय राजा भोज को ही जाता है। राजा भोज एक अच्छी कवि भी थे तथा उनके राज दरबार में देश-विदेश से बड़े बड़े कवि आकर अपनी कला का प्रदर्शन करते थे।
राजा भोज की मृत्यु के बाद परमार वंश को उदयादित्य ने संभाला और आगे बढ़ाया।
परमार वंश की प्रमुख शाखाएं या खांपे
वराह, लोदरवा परमार, बूंटा परमार, चन्ना परमार, मोरी परमार, सुमरा परमार, उमट परमार, बीहल परमार, डोडिया परमार, सोढा परमार, नबा, देवा, बजरंग, उदा, महराण, सादुल, अखैराज, जैतमल, सूरा, मधा, धोधा, तेजमालोट, करमिया, विजैराण, नरसिंह, सुरताण, नरपाल,गंगदास, भोजराज, आसरवा, जोधा, भायल, भाभा, हुण, सावंत, बारड, सुजान, कुंतल, बलिला, गुंगा, गहलड़ा, सिंधल, नांगल।
- परमार वंश का प्रारंभ 9वी शताब्दी से माना जाता है।
- परमार वंश के संस्थापक उपेन्द्रराज थे।
- परमार वंश की प्राचीन राजधानी उज्जैन थी बाद में राजधानी परिवर्तित कर धार नगर कर दी गई थी जो मध्य प्रदेश में स्थित है।
- परमार वंश का शासनकाल 800 से 1327 ईस्वी तक था।
- परमार वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज थे।
- प्रबंधचिंतामणि के लेखक परमार वंश से संबंध रखने वाले मेरुतुंग थे।
- सीता नाम की प्रसिद्ध कवित्री उपेंद्रराज के दरबार में ही थी।
परमार वंश के प्रमुख तथ्य
- इस वंश के प्रारम्भिक शासक उपेन्द्र, वैरसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम एवं वैरसिंह द्वितीय थे।
- परमार का मतलब है शत्रुओ को मारने वाला
- परमारों की प्रारम्भिक राजधानी उज्जैन में थी पर कालान्तर में राजधानी ‘धार’, मध्य प्रदेश में स्थानान्तरित कर ली गई।
- इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं प्रतापी राजा ‘सीयक अथवा श्रीहर्ष’ था। उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया।
- परमार वंश में आठ राजा हुए, जिनमें सातवाँ वाक्पति मुंज (973 से 995 ई.) और आठवाँ मुंज का भतीजा भोज (1018 से 1060 ई.) सबसे प्रतापी थी।
- मुंज अनेक वर्षों तक कल्याणी के चालुक्य राजाओं से युद्ध करता रहा और 995 ई. में युद्ध में ही मारा गया। उसका उत्तराधिकारी भोज (1018-1060 ई.) गुजरात तथा चेदि के राजाओं की संयुक्त सेनाओं के साथ युद्ध में मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ ही परमार वंश का प्रताप नष्ट हो गया। यद्यपि स्थानीय राजाओं के रूप में परमार राजा तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ तक राज्य करते रहे, अंत में तोमरों ने उनका उच्छेद कर दिया।
- परमार राजा विशेष रूप से वाक्पति मुंज और भोज, बड़े विद्वान् थे और विद्वानों एवं कवियों के आश्रयदाता थे।
इन्हें भी देखे
- विजयनगर साम्राज्य (1336 – 1485)
- चोल साम्राज्य (300 ई.पू.-1279ई.)
- चौहान वंश (7वीं शताब्दी-12वीं शताब्दी)
- चालुक्य वंश (6वीं शताब्दी – 12हवीं शताब्दी)
- पानीपत का महायुद्ध: अद्भुत लड़ाई का प्रतीक्षित परिणाम (1526,1556,1761 ई.)
- सम्राट हर्षवर्धन (590-647 ई.)
- कुमारगुप्त प्रथम (399-455) ई.
- प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857-1858
- ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल और वायसराय (1774-1947)
- हिंदी भाषा का इतिहास
- समास – परिभाषा, भेद और 100 + उदहारण
- अलंकार- परिभाषा, भेद और 100 + उदाहरण
- भाषा एवं उसके विभिन्न रूप
- संधि – परिभाषा एवं उसके भेद (Joining)