संयुक्त राष्ट्र में भारत की नई मतदान नीति: रणनीतिक स्वायत्तता की ओर एक परिपक्व यात्रा

यह लेख संयुक्त राष्ट्र (UN) में भारत की बदलती मतदान नीति और उससे जुड़ी कूटनीतिक रणनीति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। विशेष रूप से 2025 में भारत द्वारा UN प्रस्तावों पर बढ़ती Abstention (मतदान से दूरी) प्रवृत्ति को ऐतिहासिक, रणनीतिक और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। 1946 से लेकर अब तक भारत ने 5,500 से अधिक प्रस्तावों पर मतदान किया है, जिनमें उसके रुख में समय के साथ स्पष्ट परिवर्तन आए हैं। 2025 तक ‘हाँ’ मत घटकर 56% और Abstention बढ़कर 44% तक पहुँच गई, जो 1955 के बाद का सबसे ऊँचा स्तर है।

लेख में स्पष्ट किया गया है कि यह बदलाव निर्णयहीनता नहीं, बल्कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता, संप्रभुता और संतुलनकारी कूटनीति का परिणाम है। रूस-यूक्रेन युद्ध, म्यांमार संकट, चीन में मानवाधिकार उल्लंघन और इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष जैसे प्रमुख मामलों में भारत के Abstention व्यवहार को व्याख्यायित करते हुए यह लेख दिखाता है कि भारत अब किसी एक ध्रुव का हिस्सा नहीं बनना चाहता, बल्कि एक संतुलनकारी वैश्विक शक्ति के रूप में उभरना चाहता है।

लेख भारत की विदेश नीति में आ रहे परिपक्व बदलाव, रणनीतिक संतुलन, और उसकी वैश्विक छवि पर इस Abstention रणनीति के प्रभावों को भी उजागर करता है। यह लेख शोधार्थियों, नीति-विश्लेषकों और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में रुचि रखने वालों के लिए अत्यंत उपयोगी है।

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एक नई विदेश नीति की शुरुआत

भारत की विदेश नीति में 2025 तक एक उल्लेखनीय बदलाव देखा गया है। विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र (UN) में भारत के मतदान व्यवहार में जो परिवर्तन आया है, वह केवल संख्यात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत अब उन प्रस्तावों पर मतदान से दूरी (Abstention) अपनाने लगा है, जो कभी उसे सक्रिय रूप से समर्थन या विरोध के लिए प्रेरित करते थे। यह परिवर्तन केवल निर्णय टालने का प्रतीक नहीं है, बल्कि एक सुविचारित कूटनीतिक रणनीति का संकेत है जो भारत को वैश्विक मंच पर एक परिपक्व, संतुलित और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करती है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: UN में भारत की मतदान प्रवृत्ति का विकास

भारत का संयुक्त राष्ट्र के साथ जुड़ाव 1945 से है, जब वह इसकी स्थापना का एक संस्थापक सदस्य बना। प्रारंभिक दशकों में भारत ने UN प्रस्तावों पर अधिकतर स्पष्ट और मुखर रुख अपनाया, लेकिन यह प्रवृत्ति समय के साथ बदलती गई:

🟢 1946–1960 का दौर:

  • इस युग में भारत की मतदान प्रवृत्ति अत्यधिक अस्थिर थी।
  • ‘हाँ’ (Yes) मत 20% से 100% तक के बीच झूलते रहे।
  • मतदान से दूरी (Abstention) की घटनाएं अनिश्चित और असंगत थीं।

🟢 1970–1994:

  • यह काल भारत के मतदान व्यवहार में स्थिरता लाने वाला था।
  • ‘हाँ’ मतों की सीमा 74%–96% तक बनी रही।
  • मतदान से दूरी 8%–19% के बीच रही, जो संतुलित नीति की ओर संकेत करती थी।

🟢 1995–2019:

  • भारत एक परिपक्व वैश्विक खिलाड़ी के रूप में उभरा।
  • ‘हाँ’ मत 75%–83% के बीच, जबकि Abstention 10%–17% के भीतर रही।
  • नीति अधिक स्थिर, संतुलित और दूरदर्शी बन गई।

🟢 2019–2025:

  • यहीं से परिवर्तन का निर्णायक मोड़ आया।
  • 2025 तक ‘हाँ’ मत घटकर 56% रह गए।
  • मतदान से दूरी बढ़कर 44% हो गई — जो 1955 के बाद सबसे ऊँचा स्तर है।

यह गिरावट और दूरी बढ़ना उस नीति की ओर इशारा करता है, जिसमें भारत अब किसी खेमे विशेष के साथ नहीं खड़ा होता, बल्कि अपनी रणनीतिक स्वायत्तता और स्वतंत्र कूटनीतिक विवेक को प्राथमिकता देता है।

रणनीतिक Abstention के पीछे के प्रमुख कारण

भारत की यह नई नीति न तो निर्णय टालने का संकेत है और न ही निष्क्रियता का, बल्कि एक सुविचारित रणनीतिक उपाय है। आइए समझते हैं कि भारत मतदान से दूरी की नीति क्यों अपना रहा है:

1. 🌍 ध्रुवीकृत वैश्विक व्यवस्था

  • 21वीं सदी के तीसरे दशक में विश्व व्यवस्था अत्यंत ध्रुवीकृत हो गई है।
  • अमेरिका, रूस, और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा और मतभेदों के चलते UN में आम सहमति बनाना कठिन होता जा रहा है।
  • भारत इन ध्रुवों में से किसी एक के साथ खुलकर खड़ा होने के बजाय संतुलन बनाना चाहता है।

यह नीति “गुटनिरपेक्षता 2.0” का स्वरूप है – न तो पूर्ण तटस्थता, न ही किसी एक ध्रुव का समर्थन।

2. 🧾 प्रस्तावों की टिलता और अस्पष्टता

  • आधुनिक संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव अनेक बिंदुओं को समाहित करते हैं, जिनमें से कई एक-दूसरे से विरोधाभासी होते हैं।
  • कूटनीतिज्ञ इन्हें “क्रिसमस ट्री प्रस्ताव” कहते हैं — यानी हर किसी के लिए कुछ न कुछ जोड़ा गया होता है।
  • भारत विवादास्पद या अस्पष्ट बिंदुओं के कारण मतदान से दूरी अपनाता है, ताकि अनावश्यक विरोध या समर्थन से बचा जा सके।

3. 🇮🇳 संप्रभुता की मुखर अभिव्यक्ति

  • भारत की नीति अब एक सक्रिय संप्रभु राष्ट्र की है, जो स्वतंत्र निर्णय लेता है।
  • Abstention (मतदान से दूरी) को अब निर्णय टालने की बजाय एक “सॉवरन चॉइस” के रूप में देखा जा रहा है।
  • इससे भारत बिना किसी वैश्विक दबाव के अपने हितों की रक्षा कर सकता है।

4. 🤝 रणनीतिक साझेदारी की रक्षा

  • भारत के अमेरिका, रूस, इज़राइल, अरब देशों और ASEAN राष्ट्रों से बहुस्तरीय संबंध हैं।
  • यदि भारत किसी प्रस्ताव में पक्ष लेता है, तो किसी अन्य साझेदार देश से संबंधों में तनाव आ सकता है।
  • Abstention के माध्यम से भारत सभी पक्षों के साथ अपने द्विपक्षीय संबंध सुरक्षित रखता है।

भारत की रणनीतिक Abstention: प्रमुख घटनाएँ

इस नीति का व्यावहारिक पक्ष भारत के हालिया मतदान व्यवहार में स्पष्ट दिखता है। आइए, कुछ प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रस्तावों पर भारत के Abstention के उदाहरण देखें:

🔺 1. रूस-यूक्रेन युद्ध:

  • भारत ने रूस के विरुद्ध लाए गए अनेक प्रस्तावों पर मतदान से दूरी बनाई।
  • रूस उसका रक्षा साझेदार है, वहीं पश्चिमी देश ऊर्जा और निवेश भागीदार।
  • भारत ने युद्ध का समर्थन नहीं किया, पर सीधे विरोध से भी बचा।

“हम शांति की अपील करते हैं, पर किसी पक्ष के साथ नहीं हैं।” — भारत का रुख

🔺 2. म्यांमार में सैन्य तख्तापलट:

  • भारत ने म्यांमार के सैन्य शासन के खिलाफ कुछ प्रस्तावों पर Abstention अपनाया।
  • भारत की सीमा म्यांमार से लगती है, और रणनीतिक परियोजनाएं (जैसे कालादान) वहाँ चल रही हैं।
  • अतः आलोचना से बचते हुए भारत ने व्यवहारिकता को तरजीह दी।

🔺 3. चीन के मानवाधिकार उल्लंघन:

  • चीन के शिनजियांग क्षेत्र में उइगर मुस्लिमों के साथ अत्याचार पर UN प्रस्ताव पर भारत ने मतदान से दूरी बनाए रखी।
  • चीन से सीमा विवाद और व्यापारिक निर्भरता के बीच भारत आलोचना से बचा रहा।

🔺 4. इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष:

  • भारत ने कई बार संतुलित रुख अपनाया है।
  • एक ओर भारत फिलिस्तीन के साथ ऐतिहासिक समर्थन बनाए रखता है, वहीं इज़राइल से रक्षा और तकनीकी सहयोग भी जारी है।
  • मतदान से दूरी भारत के संतुलनकारी दृष्टिकोण को दर्शाता है।

लाभ और चुनौतियाँ: रणनीतिक Abstention का प्रभाव

लाभ:

  1. रणनीतिक स्वतंत्रता: भारत को किसी भी वैश्विक गुट में बंधे बिना अपनी नीति तय करने की स्वतंत्रता मिलती है।
  2. राजनयिक संतुलन: सभी प्रमुख साझेदार देशों के साथ संबंध बनाए रखने की सुविधा मिलती है।
  3. नीति में लचीलापन: भारत प्रस्ताव की भाषा, समय और परिस्थिति के अनुसार अपने निर्णयों को बदल सकता है।

चुनौतियाँ:

  1. वैश्विक आलोचना का खतरा: मानवाधिकार, युद्ध अपराध या शांति प्रस्तावों पर Abstention को कुछ देश नैतिक उदासीनता समझते हैं।
  2. प्रतिबद्धता पर प्रश्न: कुछ पश्चिमी देशों को भारत की रणनीति से यह संदेश जाता है कि भारत निर्णायक नेतृत्व नहीं दिखा पा रहा।
  3. स्थायी सदस्यता पर प्रभाव: UNSC की स्थायी सदस्यता की दौड़ में भारत की सक्रियता पर प्रश्नचिह्न लग सकते हैं।

अंतरराष्ट्रीय विश्लेषण और कूटनीतिक संदेश

भारत की इस नई नीति को वैश्विक विश्लेषकों ने एक “संतुलनकारी शक्ति” (balancing power) के रूप में देखा है।
अमेरिका की ब्रूकिंग्स संस्था, ब्रिटेन की चाथम हाउस और फ्रांस की IFRI जैसी संस्थाएं भारत को अब एक “Strategic Swing State” मानती हैं — जो वैश्विक शक्ति संतुलन में निर्णायक भूमिका निभा सकती है।

भविष्य की दिशा: नई विश्व व्यवस्था में भारत की भूमिका

1. मध्यम शक्ति (Middle Power) से संतुलनकारी शक्ति की ओर

भारत G20, QUAD, BRICS, I2U2 और SCO जैसे मंचों में सक्रिय भागीदार है। इन मंचों पर वह अपनी संतुलनकारी भूमिका को सुदृढ़ कर रहा है।

2. UNSC की स्थायी सदस्यता की तैयारी

Abstention रणनीति भारत को एक जिम्मेदार, परिपक्व और विचारशील देश के रूप में प्रस्तुत करती है — जो बिना पूर्वाग्रह के कार्य करता है।

3. डिजिटल डिप्लोमेसी और वैकल्पिक मंच

भारत संयुक्त राष्ट्र जैसे पारंपरिक मंचों के साथ-साथ वैश्विक दक्षिण (Global South) के नेतृत्व के लिए वैकल्पिक मंचों पर सक्रिय हो रहा है।

निष्कर्ष: रणनीतिक Abstention — कूटनीति का नया चेहरा

भारत की संयुक्त राष्ट्र में नई मतदान नीति केवल एक तकनीकी परिवर्तन नहीं, बल्कि उसकी विदेश नीति की परिपक्वता का प्रतीक है। Abstention को अब निष्क्रियता या निर्णयहीनता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह एक रणनीतिक, स्वतंत्र और संतुलित कूटनीतिक रुख का परिचायक है।

यह नीति भारत को वैश्विक शक्ति संतुलन में एक निर्णायक भूमिका निभाने की दिशा में आगे बढ़ाती है — जहां वह अपने संप्रभु हितों की रक्षा करते हुए, दुनिया को नैतिक और संतुलित नेतृत्व प्रदान कर सके।

🔍 सुझाव:

  • भारत को चाहिए कि वह Abstention नीति के साथ संवाद की पारदर्शिता भी बढ़ाए, जिससे सहयोगी राष्ट्रों को उसकी मंशा स्पष्ट हो।
  • इस नीति की सार्वजनिक व्याख्या समय-समय पर विदेश मंत्रालय द्वारा की जानी चाहिए, जिससे घरेलू और वैश्विक दोनों स्तरों पर उसकी विश्वसनीयता बनी रहे।

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