भारत एक लोकतांत्रिक देश होने के कारण हर 5 साल पर भारत के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति को चुनने के लिए चुनाव करवाए जाते हैं। जहां अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है वही भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है क्योंकि भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। भारतीय संबिधान में कई संविधानो का मिश्रण देखने को मिलता है।
आखरी बार देश में लोकसभा चुनाव यानी कि प्रधानमंत्री चुनाव 2019 में करवाए गए थे जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीतकर दोबारा भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव जीतकर नरेंद्र मोदी पहली बार भारत के प्रधानमंत्री बने थे। अगर हम बात करें देश के पहले प्रधानमंत्री की तो आजादी के बाद 1947 ई. में पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने थे जिन्होंने 15 अगस्त 1947 से लेकर 27 मई 1964 ई. तक भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी।
भारत के प्रधानमंत्री का क्रमवार संक्षिप्त विवरण
क्रमांक | नाम | कार्यकाल | टिप्पणी |
1 | जवाहर लाल नेहरू | 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 16 साल, 286 दिन | भारत के पहले प्रधानमंत्री और सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले व्यक्ति। |
2 | गुलजारी लाल नंदा | 27 मई 1964 से 9 जून 1964 13 दिन | पहले कार्यवाहक प्रधानमन्त्री, सबसे कम समय तक प्रधानमंत्री रहे। |
3 | लाल बहादुर शास्त्री | 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 1 वर्ष, 216 दिन | इन्होंने 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय “जय जवान जय किसान” नारा दिया था। |
4 | गुलजारी लाल नंदा | 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966 13 दिन | |
5 | इंदिरा गांधी | 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977 11 साल, 59 दिन | भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री। |
6 | मोरारजी देसाई | 24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979 2 साल, 126 दिन | सबसे वृद्ध (81वर्ष) प्रधानमन्त्री और पद से इस्तीफ़ा देने वाले पहले प्रधानमंत्री। |
7 | चरण सिंह | 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 170 दिन | अकेले ऐसे पीएम जिन्होंने संसद का सामना नहीं किया। |
8 | इंदिरा गांधी | 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984 4 साल, 291 दिन | प्रधानमंत्री पद दूसरी बार संभालने वाली पहली महिला। |
9 | राजीव गांधी | 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989 5 साल, 32 दिन | सबसे युवा प्रधानमन्त्री (40 वर्ष)। |
10 | विश्वनाथ प्रताप सिंह | 2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990 343 दिन | पहले PM जिन्होंने अविश्वास प्रस्ताव पास होने से पद छोड़ा था। |
11 | चंद्रशेखर | 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991 223 दिन | समाजवादी जनता पार्टी से सम्बंधित। |
12 | पी. वी. नरसिम्हा राव | 21 जून 1991 से 16 मई 1996 4 साल, 330 दिन | दक्षिण भारत से पहले PM। |
13 | अटल बिहारी वाजपेयी | 16 मई 1996 से 1 जून 1996 16 दिन | केवल 1 वोट से सरकार गिरी थी। |
14 | एच. डी. देव गौड़ा | 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997 324 दिन | जनता दल से सम्बंधित थे। |
15 | इंदर कुमार गुजराल | 21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998 332 दिन | व्यक्तिगत रूप से भारत के 13वें PM। |
16 | अटल बिहारी वाजपेयी | 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 6 साल, 64 दिन | पहले गैर-कांग्रेसी PM जिन्होंने कार्यकाल पूरा किया। |
17 | मनमोहन सिंह | 22 मई 2004 से 26 मई 2014 10 साल, 2 दिन | पहले सिख प्रधानमन्त्री। |
18 | नरेंद्र मोदी | 26 मई 2014 से अब तक | दूसरे गुजराती PM, पहले मोरारजी थे। चौथे PM हैं जो कि लगातार दूसरा कार्यकाल पूरा किये। और राजीव गाँधी जी के बाद दूसरे PM हैं जो लगातार तीसरा कार्यकाल पूरा करेंगे। |
भारत के प्रधानमंत्री का विस्तृत विवरण
भारत के प्रधानमंत्री के कार्यकाल, उनके जीवन परिचय तथा उनके व्यक्तित्व के बारे में आगे दिया गया है। इसमे उनके द्वारा किये गए संघर्ष एवं बलिदान का भी विवरण है।
जवाहर लाल नेहरू 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964
16 साल, 286 दिन
पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने घर पर निजी शिक्षकों से प्राप्त की। पंद्रह साल की उम्र में वे इंग्लैंड चले गए और हैरो में दो साल रहने के बाद उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया जहाँ से उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
1912 ई. में भारत लौटने के बाद वे सीधे राजनीति से जुड़ गए। यहाँ तक कि छात्र जीवन के दौरान भी वे विदेशी हुकूमत के अधीन देशों के स्वतंत्रता संघर्ष में रुचि रखते थे। उन्होंने आयरलैंड में हुए सिनफेन आंदोलन में गहरी रुचि ली थी। उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनिवार्य रूप से शामिल होना पड़ा।
1912 में उन्होंने एक प्रतिनिधि के रूप में बांकीपुर सम्मेलन में भाग लिया एवं 1919 में इलाहाबाद के होम रूल लीग के सचिव बने। 1916 में वे महात्मा गांधी से पहली बार मिले जिनसे वे काफी प्रेरित हुए। उन्होंने 1920 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1920-22 के असहयोग आंदोलन के सिलसिले में उन्हें दो बार जेल भी जाना पड़ा।
पंडित नेहरू सितंबर 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने। उन्होंने 1926 में इटली, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड, बेल्जियम, जर्मनी एवं रूस का दौरा किया। बेल्जियम में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में ब्रुसेल्स में दीन देशों के सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने 1927 में मास्को में अक्तूबर समाजवादी क्रांति की दसवीं वर्षगांठ समारोह में भाग लिया। इससे पहले 1926 में, मद्रास कांग्रेस में कांग्रेस को आजादी के लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध करने में नेहरू की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन के खिलाफ एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए उन पर लाठी चार्ज किया गया था।
29 अगस्त 1928 को उन्होंने सर्वदलीय सम्मेलन में भाग लिया एवं वे उनलोगों में से एक थे जिन्होंने भारतीय संवैधानिक सुधार की नेहरू रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर किये थे। इस रिपोर्ट का नाम उनके पिता श्री मोतीलाल नेहरू के नाम पर रखा गया था। उसी वर्ष उन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता लीग’ की स्थापना की एवं इसके महासचिव बने। इस लीग का मूल उद्देश्य भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्णतः अलग करना था।
1929 में पंडित नेहरू भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन के लाहौर सत्र के अध्यक्ष चुने गए जिसका मुख्य लक्ष्य देश के लिए पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना था। उन्हें 1930-35 के दौरान नमक सत्याग्रह एवं कांग्रेस के अन्य आंदोलनों के कारण कई बार जेल जाना पड़ा।
उन्होंने 14 फ़रवरी 1935 को अल्मोड़ा जेल में अपनी ‘आत्मकथा’ का लेखन कार्य पूर्ण किया। रिहाई के बाद वे अपनी बीमार पत्नी को देखने के लिए स्विट्जरलैंड गए एवं उन्होंने फरवरी-मार्च, 1936 में लंदन का दौरा किया। उन्होंने जुलाई 1938 में स्पेन का भी दौरा किया जब वहां गृह युद्ध चल रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से कुछ समय पहले वे चीन के दौरे पर भी गए।
पंडित नेहरू ने भारत को युद्ध में भाग लेने के लिए मजबूर करने का विरोध करते हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह किया, जिसके कारण 31 अक्टूबर 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें दिसंबर 1941 में अन्य नेताओं के साथ जेल से मुक्त कर दिया गया। 7 अगस्त 1942 को मुंबई में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक संकल्प ‘भारत छोड़ो’ को कार्यान्वित करने का लक्ष्य निर्धारित किया।
8 अगस्त 1942 को उन्हें अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर अहमदनगर किला ले जाया गया। यह अंतिम मौका था जब उन्हें जेल जाना पड़ा एवं इसी बार उन्हें सबसे लंबे समय तक जेल में समय बिताना पड़ा। अपने पूर्ण जीवन में वे नौ बार जेल गए। जनवरी 1945 में अपनी रिहाई के बाद उन्होंने राजद्रोह का आरोप झेल रहे आईएनए के अधिकारियों एवं व्यक्तियों का कानूनी बचाव किया। मार्च 1946 में पंडित नेहरू ने दक्षिण-पूर्व एशिया का दौरा किया। 6 जुलाई 1946 को वे चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए एवं फिर 1951 से 1954 तक तीन और बार वे इस पद के लिए चुने गए।
गुलजारी लाल नंद 27 मई 1964 से 9 जून 1964
13 दिन
श्री गुलजारीलाल नंदा का जन्म 4 जुलाई 1898 को पंजाब के सियालकोट में हुआ था। उन्होंने लाहौर, आगरा एवं इलाहाबाद में अपनी शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1920-1921) में श्रम संबंधी समस्याओं पर एक शोध अध्येता के रूप में कार्य किया एवं 1921 में नेशनल कॉलेज (मुंबई) में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बने। इसी वर्ष वे असहयोग आंदोलन में शामिल हुए। 1922 में वे अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन के सचिव बने जिसमें उन्होंने 1946 तक काम किया। उन्हें 1932 में सत्याग्रह के लिए जेल जाना पड़ा एवं फिर 1942 से 1944 तक भी वे जेल में रहे।
श्री नंदा 1937 में बम्बई विधान सभा के लिए चुने गए एवं 1937 से 1939 तक वे बंबई सरकार के संसदीय सचिव (श्रम एवं उत्पाद शुल्क) रहे। बाद में, बंबई सरकार के श्रम मंत्री (1946 से 1950 तक) के रूप में उन्होंने राज्य विधानसभा में सफलतापूर्वक श्रम विवाद विधेयक पेश किया।
उन्होंने कस्तूरबा मेमोरियल ट्रस्ट में न्यासी के रूप में, हिंदुस्तान मजदूर सेवक संघ में सचिव के रूप में एवं बाम्बे आवास बोर्ड में अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। वे राष्ट्रीय योजना समिति के सदस्य भी रहे। राष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस के आयोजन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और बाद में इसके अध्यक्ष भी बने थे।
1947 में उन्होंने जेनेवा में हुए अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में एक सरकारी प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। उन्होंने सम्मेलन द्वारा नियुक्त ‘द फ्रीडम ऑफ़ एसोसिएशन कमेटी’ पर कार्य किया एवं स्वीडन, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, बेल्जियम एवं इंग्लैंड का दौरा किया ताकि वे उन देशों में श्रम एवं आवास की स्थिति का अध्ययन कर सकें।
मार्च 1950 में वे योजना आयोग में इसके उपाध्यक्ष के रूप में शामिल हुए। अगले वर्ष सितंबर में वे केंद्र सरकार में योजना मंत्री बने। इसके अलावा उन्हें सिंचाई एवं बिजली विभागों का प्रभार भी दिया गया। वे 1952 के आम चुनाव में मुंबई से लोक सभा के लिए चुने गए एवं फिर से योजना, सिंचाई एवं बिजली मंत्री के रूप में नियुक्त हुए। उन्होंने 1955 में सिंगापुर में आयोजित योजना सलाहकार समिति एवं 1959 में जेनेवा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया।
श्री नंदा 1957 के आम चुनाव में लोकसभा के लिए चुने गए एवं श्रम तथा रोजगार और नियोजन के केंद्रीय मंत्री बनाये गए। बाद में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष नियुक्त हुए। उन्होंने 1959 में जर्मन संघीय गणराज्य, यूगोस्लाविया एवं ऑस्ट्रिया का दौरा किया।
1962 के आम चुनाव में वे गुजरात के साबरकांठा निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए पुन: निर्वाचित हुए। उन्होंने 1962 में समाजवादी लड़ाई के लिए कांग्रेस फोरम की शुरूआत की। वे 1962 एवं 1963 में केन्द्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री एवं 1963 से 1966 तक गृह मंत्री रहे।
पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद उन्होंने 27 मई 1964 ई. को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। ताशकंद में श्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद फिर से 11 जनवरी 1966 को उन्होंने दुबारा भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी।
लाल बहादुर शास्त्री 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966
1 वर्ष, 216 दिन
श्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी माँ अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर जाकर बस गईं।
उस छोटे-से शहर में लाल बहादुर की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही लेकिन गरीबी की मार पड़ने के बावजूद उनका बचपन पर्याप्त रूप से खुशहाल बीता।
उन्हें वाराणसी में चाचा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि वे उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकें। घर पर सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे, यहाँ तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था।
बड़े होने के साथ-ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए। लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।
गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।
लाल बहादुर शास्त्री ब्रिटिश शासन की अवज्ञा में स्थापित किये गए कई राष्ट्रीय संस्थानों में से एक वाराणसी के काशी विद्या पीठ में शामिल हुए। यहाँ वे महान विद्वानों एवं देश के राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आए। विद्या पीठ द्वारा उन्हें प्रदत्त स्नातक की डिग्री का नाम ‘शास्त्री’ था लेकिन लोगों के दिमाग में यह उनके नाम के एक भाग के रूप में बस गया।
1927 में उनकी शादी हो गई। उनकी पत्नी ललिता देवी मिर्जापुर से थीं जो उनके अपने शहर के पास ही था। उनकी शादी सभी तरह से पारंपरिक थी। दहेज के नाम पर एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े थे। वे दहेज के रूप में इससे ज्यादा कुछ और नहीं चाहते थे।
1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।
आजादी के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई, उससे पहले ही राष्ट्रीय संग्राम के नेता विनीत एवं नम्र लाल बहादुर शास्त्री के महत्व को समझ चुके थे। 1946 में जब कांग्रेस सरकार का गठन हुआ तो इस ‘छोटे से डायनमो’ को देश के शासन में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए कहा गया। उन्हें अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया और जल्द ही वे गृह मंत्री के पद पर भी आसीन हुए।
कड़ी मेहनत करने की उनकी क्षमता एवं उनकी दक्षता उत्तर प्रदेश में एक लोकोक्ति बन गई। वे 1951 में नई दिल्ली आ गए एवं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। उनकी प्रतिष्ठा लगातार बढ़ रही थी।
एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी।
रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा; “शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।”
अपने मंत्रालय के कामकाज के दौरान भी वे कांग्रेस पार्टी से संबंधित मामलों को देखते रहे एवं उसमें अपना भरपूर योगदान दिया। 1952, 1957 एवं 1962 के आम चुनावों में पार्टी की निर्णायक एवं जबर्दस्त सफलता में उनकी सांगठनिक प्रतिभा एवं चीजों को नजदीक से परखने की उनकी अद्भुत क्षमता का बड़ा योगदान था।
तीस से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को प्रगति के मार्ग पर लेकर आये।
लाल बहादुर शास्त्री जी महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।” महात्मा गांधी के समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं।
इंदिरा गांधी 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977
11 साल, 59 दिन
पंडित जवाहर लाल नेहरु की पुत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी का जन्म 19 नवम्बर 1917 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उन्होंने इकोले नौवेल्ले, बेक्स (स्विट्जरलैंड), इकोले इंटरनेशनेल, जिनेवा, पूना और बंबई में स्थित प्यूपिल्स ओन स्कूल, बैडमिंटन स्कूल, ब्रिस्टल, विश्व भारती, शांति निकेतन और समरविले कॉलेज, ऑक्सफोर्ड जैसे प्रमुख संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की। उन्हें विश्व भर के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
प्रभावशाली शैक्षिक पृष्ठभूमि के कारण उन्हें कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा विशेष योग्यता प्रमाण दिया गया।श्रीमती इंदिरा गांधी शुरू से ही स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहीं।बचपन में उन्होंने ‘बाल चरखा संघ’ की स्थापना की और असहयोग आंदोलन के दौरान कांग्रेस पार्टी की सहायता के लिए 1930 में बच्चों के सहयोग से ‘वानर सेना’ का निर्माण किया। सितम्बर 1942 में उन्हें जेल में डाल दिया गया। 1947 में इन्होंने गाँधी जी के मार्गदर्शन में दिल्ली के दंगा प्रभावित क्षेत्रों में कार्य किया।
उन्होंने 26 मार्च 1942 को फ़िरोज़ गाँधी से विवाह किया। उनके दो पुत्र थे। 1955 में श्रीमती इंदिरा गाँधी कांग्रेस कार्य समिति और केंद्रीय चुनाव समिति की सदस्य बनी।1958 में उन्हें कांग्रेस के केंद्रीय संसदीय बोर्ड के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया।वे एआईसीसी के राष्ट्रीय एकता परिषद की उपाध्यक्ष और 1956 में अखिल भारतीय युवा कांग्रेस और एआईसीसी महिला विभाग की अध्यक्ष बनीं।वे वर्ष 1959 से 1960 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। जनवरी 1978 में उन्होंने फिर से यह पद ग्रहण किया।
वह 1966-1964 तक सूचना और प्रसारण मंत्री रहीं। इसके बाद जनवरी 1966 से मार्च 1977 तक वह भारत के प्रधानमंत्री के रूप में रहीं। साथ-ही-साथ उन्हें सितम्बर 1967 से मार्च 1977 तक के लिए परमाणु ऊर्जा मंत्री बनाया गया। उन्होंने 5 सितंबर 1967 से 14 फ़रवरी 1969 तक विदेश मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार संभाला। श्रीमती गांधी ने जून 1970 से नवंबर 1973 तक गृह मंत्रालय और जून 1972 से मार्च 1977 तक अंतरिक्ष मामले मंत्रालय का प्रभार संभाला। जनवरी 1980 ई. से वह योजना आयोग की अध्यक्ष रहीं। 14 जनवरी 1980 ई. में वे फिर से भारत के प्रधानमंत्री के रूप में सपथ ली।
श्रीमती इंदिरा गांधी कमला नेहरू स्मृति अस्पताल, गांधी स्मारक निधि और कस्तूरबा गांधी स्मृति न्यास जैसे संगठनों और संस्थानों से जुडी हुई थीं। वे स्वराज भवन न्यास की अध्यक्ष थीं। 1955 में वह बाल सहयोग, बाल भवन बोर्ड और बच्चों के राष्ट्रीय संग्रहालय के साथ जुड़ीं।श्रीमती गांधी ने इलाहाबाद में कमला नेहरू विद्यालय की स्थापना की थी।
वह 1966-77 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और पूर्वोत्तर विश्वविद्यालय जैसी कुछ बड़ी संस्थानों के साथ जुडी रहीं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय न्यायालय, 1960-64 में यूनेस्को के भारतीय प्रतिनिधिमंडल, 1960-1964 में यूनेस्को के कार्यकारी बोर्ड और 1962 में राष्ट्रीय रक्षा परिषद के सदस्य के रूप में कार्य किया।
वह संगीत नाटक अकादमी, राष्ट्रीय एकता परिषद, हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान,दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, नेहरू स्मारक संग्रहालय, पुस्तकालय समाज और जवाहर लाल नेहरू स्मृति निधि के साथ जुडी रहीं।
अगस्त 1964 से फ़रवरी 1967 ई. तक श्रीमती गाँधी राज्य सभा की सदस्य रहीं। वह चौथे, पांचवें और छठे सत्र में लोकसभा की सदस्य थी। जनवरी 1980 ई. में उन्हें रायबरेली (उत्तर प्रदेश) और मेडक (आंध्र प्रदेश) से सातवीं लोकसभा के लिए चुना गया। इन्होंने रायबरेली की सीट का परित्याग कर मेडक में प्राप्त सीट का चयन किया। उन्हें 1967-77 में और फिर जनवरी 1980 में कांग्रेस संसदीय दल के नेता के रूप में चुना गया था।
विभिन्न विषयों में रुचि रखने वाली श्री गाँधी जीवन को एक सतत प्रक्रिया के रूप में देखती थीं जिसमें कार्य एवं रुचि इसके विभिन्न पहलू हैं जिन्हें किसी खंड में अलग नहीं किया जा सकता या न ही अलग-अलग श्रेणियों में रखा जा सकता है।
उन्होंने अपने जीवन में कई उपलब्धियां प्राप्त की। उन्हें 1972 में भारत रत्न पुरस्कार, 1972 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए मैक्सिकन अकादमी पुरस्कार, 1973 में एफएओ का दूसरा वार्षिक पदक और 1976 में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा साहित्य वाचस्पति (हिन्दी) पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1953 में श्रीमती गाँधी को अमरीका ने मदर पुरस्कार, कूटनीति में उत्कृष्ट कार्य के लिए इटली ने इसाबेला डी ‘एस्टे पुरस्कार और येल विश्वविद्यालय ने होलैंड मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित किया।
फ्रांस जनमत संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार वह 1967 और 1968 में फ्रांस की सबसे लोकप्रिय महिला थी। 1971 में अमेरिका के विशेष गैलप जनमत सर्वेक्षण के अनुसार वह दुनिया की सबसे लोकप्रिय महिला थी।पशुओं के संरक्षण के लिए 1971 में अर्जेंटीना सोसायटी द्वारा उन्हें सम्मानित उपाधि दी गई।
उनके मुख्य प्रकाशनों में ‘द इयर्स ऑफ़ चैलेंज’ (1966-69), ‘द इयर्स ऑफ़ एंडेवर’ (1969-72), ‘इंडिया’ (लन्दन) 1975, ‘इंडे’ (लौस्सैन) 1979 एवं लेखों एवं भाषणों के विभिन्न संग्रह शामिल हैं। उन्होंने व्यापक रूप से देश-विदेश की यात्रा की। श्रीमती गांधी ने अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, बर्मा, चीन, नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों का भी दौरा किया। उन्होंने फ्रांस, जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य, जर्मनी के संघीय गणराज्य, गुयाना, हंगरी, ईरान, इराक और इटली जैसे देशों का आधिकारिक दौरा किया।
श्रीमती गांधी ने अल्जीरिया, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया बेल्जियम, ब्राजील, बुल्गारिया, कनाडा, चिली, चेकोस्लोवाकिया, बोलीविया और मिस्र जैसे बहुत से देशों का दौरा किया।वह इंडोनेशिया, जापान, जमैका, केन्या, मलेशिया, मॉरिशस, मेक्सिको, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, नाइजीरिया, ओमान, पोलैंड, रोमानिया, सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, सीरिया, स्वीडन, तंजानिया, थाईलैंड,त्रिनिदाद और टोबैगो, संयुक्त अरब अमीरात, ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत संघ, उरुग्वे, वेनेजुएला, यूगोस्लाविया, जाम्बिया और जिम्बाब्वे जैसे कई यूरोपीय अमेरिकी और एशियाई देशों के दौरे पर गई।उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
मोरारजी देसाई 24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979
2 साल, 126 दिन
श्री मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को भदेली गाँव, जो अब गुजरात के बुलसर जिले में स्थित है, में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे एवं बेहद अनुशासन प्रिय थे। बचपन से ही युवा मोरारजी ने अपने पिता से सभी परिस्थितियों में कड़ी मेहनत करने एवं सच्चाई के मार्ग पर चलने की सीख ली। उन्होंने सेंट बुसर हाई स्कूल से शिक्षा प्राप्त की एवं अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्कालीन बंबई प्रांत के विल्सन सिविल सेवा से 1918 में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने बाद उन्होंने बारह वर्षों तक डिप्टी कलेक्टर के रूप में कार्य किया।
1930 में जब भारत में महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किया गया आजादी के लिए संघर्ष अपने मध्य में था, श्री देसाई का ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में विश्वास खो चुका था, इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर आजादी की लड़ाई में भाग लेने का निश्चय किया। यह एक कठिन निर्णय था लेकिन श्री देसाई ने महसूस किया कि यह देश की आजादी का सवाल था, परिवार से संबंधित समस्याएं बाद में आती हैं, देश पहले आता है।
श्री देसाई को स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तीन बार जेल जाना पड़ा। वे 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य बने और 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। जब पहली कांग्रेस सरकार ने 1937 में कार्यभार संभाला, श्री देसाई राजस्व, कृषि, वन एवं सहकारिता मंत्रालय के मंत्री बने।
महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गए व्यक्तिगत सत्याग्रह में श्री देसाई को गिरफ्तार कर लिया गया था। अक्टूबर 1941 उन्हें छोड़ दिया गया एवं अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन्हें 1945 में छोड़ दिया गया। 1946 में राज्य विधानसभा के चुनावों के बाद वे मुंबई में गृह एवं राजस्व मंत्री बने।
अपने कार्यकाल के दौरान श्री देसाई ने ‘हलवाहा के लिए भूमि’ प्रस्ताव के लिए सुरक्षा काश्तकारी अधिकार प्रदान करके भू-राजस्व में कई दूरगामी सुधार किये। पुलिस प्रशासन के क्षेत्र में उन्होंने लोगों और पुलिस के बीच की दूरी कम की एवं पुलिस प्रशासन को लोगों की जरूरतों के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया ताकि वे लोगों के जीवन एवं संपत्ति को सुरक्षा प्रदान कर सकें। वर्ष 1952 में वे बंबई के मुख्यमंत्री बने।
वह यह मानते थे कि जब तक गांवों और कस्बों में रहने वाले गरीब लोग सामान्य जीवन जीने में सक्षम नहीं है, तब तक समाजवाद का कोई मतलब नहीं है। श्री देसाई ने किसानों एवं किरायेदारों की कठिनाइयों को सुधारने की दिशा में प्रगतिशील कानून बनाकर अपनी इस सोच को कार्यान्वित करने का ठोस कदम उठाया। इसमें श्री देसाई की सरकार देश के अन्य राज्यों से बहुत आगे थी। इसके अलावा उन्होंने अडिग होकर एवं पूर्ण ईमानदारी से कानून को लागू किया। बंबई में उनकी इस प्रशासन व्यवस्था की सभी ने जमकर तारीफ की।
राज्यों को पुनर्गठित करने के बाद श्री देसाई 14 नवंबर 1956 को वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। बाद में उन्होंने 22 मार्च 1958 से वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला।
श्री देसाई ने आर्थिक योजना एवं वित्तीय प्रशासन से संबंधित मामलों पर अपनी सोच को कार्यान्वित किया। रक्षा एवं विकास संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने राजस्व को अधिक बढ़ाया, अपव्यय को कम किया एवं प्रशासन पर होने वाले सरकारी खर्च में मितव्ययिता को बढ़ावा दिया। उन्होंने वित्तीय अनुशासन को लागू कर वित्तीय घाटे को अत्यंत निम्न स्तर पर रखा। उन्होंने समाज के उच्च वर्गों द्वारा किये जाने वाले फिजूलखर्च को प्रतिबंधित कर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया।
1963 में उन्होंने कामराज योजना के अंतर्गत केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। पंडित नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बने श्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रशासनिक प्रणाली के पुनर्गठन के लिए उन्हें प्रशासनिक सुधार आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए मनाया। लोक जीवन से संबंधित अपने लंबे एवं अपार अनुभव का उपयोग करते हुए उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।
1967 में श्री देसाई श्रीमती इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में उप-प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्रालय के प्रभारी मंत्री के रूप में शामिल हुए। जुलाई 1969 में श्रीमती गांधी ने उनसे वित्त मंत्रालय का प्रभार वापस ले लिया। श्री देसाई ने इस बात को माना कि प्रधानमंत्री के पास सहयोगियों के विभागों को बदलने का विशेषाधिकार है लेकिन उनके आत्म-सम्मान को इस बात से ठेस पहुंची कि श्रीमती गाँधी ने इस बात पर उनसे परामर्श करने का सामान्य शिष्टाचार भी नहीं दिखाया। इसलिए उन्हें यह लगा कि उनके पास भारत के उप-प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था।
1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन के बाद श्री देसाई कांग्रेस संगठन के साथ ही रहे। वे आगे भी पार्टी में मुख्य भूमिका निभाते रहे। वे 1971 में संसद के लिए चुने गए। 1975 में गुजरात विधानसभा के भंग किये जाने के बाद वहां चुनाव कराने के लिए वे अनिश्चितकालीन उपवास पर चले गए। परिणामस्वरूप जून 1975 में वहां चुनाव हुए।
चार विपक्षी दलों एवं निर्दलीय उम्मीदवारों के समर्थन से गठित जनता दल ने विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को निरर्थक घोषित करने के फैसले के बाद श्री देसाई ने माना कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए श्रीमती गांधी को अपना इस्तीफा दे देना चाहिए था।
आपातकाल घोषित होने के समय 26 जून 1975 को श्री देसाई को गिरफ्तार कर हिरासत में ले लिया गया था। उन्हें एकान्त कारावास में रखा गया था और लोकसभा चुनाव कराने के निर्णय की घोषणा से कुछ पहले 18 जनवरी 1977 को उन्हें मुक्त कर दिया गया। उन्होंने देशभर में पूरे जोर-शोर से अभियान चलाया एवं छठी लोकसभा के लिए मार्च 1977 में आयोजित आम चुनाव में जनता पार्टी की जबर्दस्त जीत में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। श्री देसाई गुजरात के सूरत निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गए थे। बाद में उन्हें सर्वसम्मति से संसद में जनता पार्टी के नेता के रूप में चुना गया एवं 24 मार्च 1977 को उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
श्री देसाई ने 1911 में गुजराबेन से शादी की। उनके पांच बच्चों में से एक बेटी और एक बेटा अभी जीवित है।
भारत के प्रधानमंत्री के रूप में श्री देसाई चाहते थे कि भारत के लोगों को इस हद तक निडर बनाया जाए कि देश में कोई भी व्यक्ति, चाहे वो सर्वोच्च पद पर ही आसीन क्यों न हो, अगर कुछ गलत करता है तो कोई भी उसे उसकी गलती बता सके। उन्होंने बार-बार यह कहा, “कोई भी, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी देश के कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए”।
उनके लिए सच्चाई एक अवसर नहीं बल्कि विश्वास का एक अंग था। उन्होंने शायद ही कभी अपने सिद्धांतों को स्थिति की बाध्यताओं के आगे दबने दिया। मुश्किल परिस्थितियों में भी वे प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ते गए। वह स्वयं यह मानते थे – ‘सभी को सच्चाई और विश्वास के अनुसार ही जीवन में कर्म करना चाहिए’।
चरण सिंह 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980
छह महीने से कम समय (170 दिन)
श्री चरण सिंह का जन्म 1902 में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के नूरपुर में एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने 1923 में विज्ञान से स्नातक की एवं 1925 में आगरा विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। कानून में प्रशिक्षित श्री सिंह ने गाजियाबाद से अपने पेशे की शुरुआत की। वे 1929 में मेरठ आ गये और बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए।
वे सबसे पहले 1937 में छपरौली से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए एवं 1946, 1952, 1962 एवं 1967 में विधानसभा में अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। वे 1946 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत की सरकार में संसदीय सचिव बने और राजस्व, चिकित्सा एवं लोक स्वास्थ्य, न्याय, सूचना इत्यादि विभिन्न विभागों में कार्य किया।
जून 1951 में उन्हें राज्य के कैबिनेट मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया एवं न्याय तथा सूचना विभागों का प्रभार दिया गया। बाद में 1952 में वे डॉ. सम्पूर्णानन्द के मंत्रिमंडल में राजस्व एवं कृषि मंत्री बने। अप्रैल 1959 में जब उन्होंने पद से इस्तीफा दिया, उस समय उन्होंने राजस्व एवं परिवहन विभाग का प्रभार संभाला हुआ था।
श्री सी.बी. गुप्ता के मंत्रालय में वे गृह एवं कृषि मंत्री (1960) थे। श्रीमती सुचेता कृपलानी के मंत्रालय में वे कृषि एवं वन मंत्री (1962-63) रहे। उन्होंने 1965 में कृषि विभाग छोड़ दिया एवं 1966 में स्थानीय स्वशासन विभाग का प्रभार संभाल लिया। कांग्रेस विभाजन के बाद फरवरी 1970 में दूसरी बार वे कांग्रेस पार्टी के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालांकि राज्य में 2 अक्टूबर 1970 को राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था।
श्री चरण सिंह ने विभिन्न पदों पर रहते हुए उत्तर प्रदेश की सेवा की एवं उनकी ख्याति एक ऐसे कड़क नेता के रूप में हो गई थी जो प्रशासन में अक्षमता, भाई – भतीजावाद एवं भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करते थे। प्रतिभाशाली सांसद एवं व्यवहारवादी श्री चरण सिंह अपने वाक्पटुता एवं दृढ़ विश्वास के लिए जाने जाते हैं।
उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार का पूरा श्रेय उन्हें जाता है। ग्रामीण देनदारों को राहत प्रदान करने वाला विभागीय ऋणमुक्ति विधेयक, 1939 को तैयार करने एवं इसे अंतिम रूप देने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उनके द्वारा की गई पहल का ही परिणाम था कि उत्तर प्रदेश में मंत्रियों के वेतन एवं उन्हें मिलने वाले अन्य लाभों को काफी कम कर दिया गया था। मुख्यमंत्री के रूप में जोत अधिनियम, 1960 को लाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह अधिनियम जमीन रखने की अधिकतम सीमा को कम करने के उद्देश्य से लाया गया था ताकि राज्य भर में इसे एक समान बनाया जा सके।
देश में कुछ-ही राजनेता ऐसे हुए हैं जिन्होंने लोगों के बीच रहकर सरलता से कार्य करते हुए इतनी लोकप्रियता हासिल की हो। एक समर्पित लोक कार्यकर्ता एवं सामाजिक न्याय में दृढ़ विश्वास रखने वाले श्री चरण सिंह को लाखों किसानों के बीच रहकर प्राप्त आत्मविश्वास से काफी बल मिला।
श्री चौधरी चरण सिंह ने अत्यंत साधारण जीवन व्यतीत किया और अपने खाली समय में वे पढ़ने और लिखने का काम करते थे। उन्होंने कई किताबें एवं रूचार-पुस्तिकाएं लिखी जिसमें ‘ज़मींदारी उन्मूलन’, ‘भारत की गरीबी और उसका समाधान’, ‘किसानों की भूसंपत्ति या किसानों के लिए भूमि, ‘प्रिवेंशन ऑफ़ डिवीज़न ऑफ़ होल्डिंग्स बिलो ए सर्टेन मिनिमम’, ‘को-ऑपरेटिव फार्मिंग एक्स-रयेद्’ आदि प्रमुख हैं।
राजीव गांधी 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989
5 साल, 32 दिन
40 वर्ष की उम्र में भारत के प्रधानमंत्री बनने वाले श्री राजीव गांधी भारत के सबसे कम उम्र के भारत के प्रधानमंत्री थे और संभवतः दुनिया के उन युवा राजनेताओं में से एक हैं जिन्होंने सरकार का नेतृत्व किया है। उनकी माँ श्रीमती इंदिरा गांधी 1966 में जब पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं, तब वह उनसे उम्र में आठ साल बड़ी थीं। उनके महान नानाजी पंडित जवाहरलाल नेहरू 58 वर्ष के थे जब उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में 17 साल की लंबी पारी शुरू की थी।
देश में पीढ़ीगत बदलाव के अग्रदूत श्री गांधी को देश के इतिहास में सबसे बड़ा जनादेश प्राप्त हुआ था। अपनी मां की हत्या के शोक से उबरने के बाद उन्होंने लोकसभा के लिए चुनाव कराने का आदेश दिया। उस चुनाव में कांग्रेस को पिछले सात चुनावों की तुलना में लोकप्रिय वोट अधिक अनुपात में मिले और पार्टी ने 508 में से रिकॉर्ड 401 सीटें हासिल कीं।
700 करोड़ भारतीयों के नेता के रूप में इस तरह की शानदार शुरुआत किसी भी परिस्थिति में उल्लेखनीय मानी जाती है। यह इसलिए भी अद्भुत है क्योंकि वे उस राजनीतिक परिवार से संबंधित थे जिसकी चार पीढ़ियों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं इसके बाद भारत की सेवा की थी, इसके बावजूद श्री गांधी राजनीति में अपने प्रवेश को लेकर अनिच्छुक थे एवं उन्होंने राजनीति में देर से प्रवेश भी किया।
श्री राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त 1944 को बम्बई में हुआ था। वे सिर्फ तीन वर्ष के थे जब भारत स्वतंत्र हुआ और उनके दादा स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने। उनके माता-पिता लखनऊ से नई दिल्ली आकर बस गए। उनके पिता फिरोज गांधी सांसद बने एवं जिन्होंने एक निडर तथा मेहनती सांसद के रूप में ख्याति अर्जित की।
राजीव गांधी ने अपना बचपन अपने दादा के साथ तीन मूर्ति हाउस में बिताया जहाँ इंदिरा गांधी ने भारत के प्रधानमंत्री की परिचारिका के रूप में कार्य किया। वे कुछ समय के लिए देहरादून के वेल्हम स्कूल गए लेकिन जल्द ही उन्हें हिमालय की तलहटी में स्थित आवासीय दून स्कूल में भेज दिया गया। वहां उनके कई मित्र बने जिनके साथ उनकी आजीवन दोस्ती बनी रही। बाद में उनके छोटे भाई संजय गाँधी को भी इसी स्कूल में भेजा गया जहाँ दोनों साथ रहे।
स्कूल से निकलने के बाद श्री गाँधी कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए लेकिन जल्द ही वे वहां से हटकर लन्दन के इम्पीरियल कॉलेज चले गए। उन्होंने वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।
यह तो स्पष्ट था कि राजनीति में अपना करियर बनाने में उनकी कोई रूचि नहीं थी। उनके सहपाठियों के अनुसार उनके पास दर्शन, राजनीति या इतिहास से संबंधित पुस्तकें न होकर विज्ञान एवं इंजीनियरिंग की कई पुस्तकें हुआ करती थीं। हालांकि संगीत में उनकी बहुत रुचि थी। उन्हें पश्चिमी और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय एवं आधुनिक संगीत पसंद था। उन्हें फोटोग्राफी एवं रेडियो सुनने का भी शौक था।
हवाई उड़ान उनका सबसे बड़ा जुनून था। अपेक्षानुसार इंग्लैंड से घर लौटने के बाद उन्होंने दिल्ली फ्लाइंग क्लब की प्रवेश परीक्षा पास की एवं वाणिज्यिक पायलट का लाइसेंस प्राप्त किया। जल्द ही वे घरेलू राष्ट्रीय जहाज कंपनी इंडियन एयरलाइंस के पायलट बन गए।
कैम्ब्रिज में उनकी मुलाकात इतालवी सोनिया मैनो से हुई थी जो उस समय वहां अंग्रेजी की पढ़ाई कर रही थीं। उन्होंने 1968 में नई दिल्ली में शादी कर ली। वे अपने दोनों बच्चों, राहुल और प्रियंका के साथ नई दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी के निवास पर रहे। आस-पास राजनीतिक गतिविधियों की ऐसी हलचल के बावजूद वे अपना निजी जीवन जीते रहे।
लेकिन 1980 में एक विमान दुर्घटना में उनके भाई संजय गाँधी की मौत ने सारी परिस्थितियां बदल कर रख दीं। उनपर राजनीति में प्रवेश करने एवं अपनी माँ को राजनीतिक कार्यों में सहयोग करने का दवाब बन गया। फिर कई आंतरिक एवं बाह्य चुनौतियाँ भी सामने आईं। पहले उन्होंने इन दबावों का विरोध किया लेकिन बाद में वे उनके द्वारा दिए गए तर्क से सहमत हो गए। उन्होंने अपने भाई की मृत्यु के कारण खाली हुए उत्तर प्रदेश के अमेठी संसद क्षेत्र का उपचुनाव जीता।
नवंबर 1982 में जब भारत ने एशियाई खेलों की मेजबानी की थी, स्टेडियम के निर्माण एवं अन्य बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने संबंधी वर्षों पहले किये गए वादे को पूरा किया गया था। श्री गांधी को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि सारे काम समय पर पूर्ण हों एवं यह सुनिश्चित किया जा सके कि बिना किसी रूकावट एवं खामियों के खेल का आयोजन किया जा सके।
उन्होंने दक्षता एवं निर्बाध समन्वय का प्रदर्शन करते हुए इस चुनौतीपूर्ण कार्य को संपन्न किया। साथ-ही-साथ कांग्रेस के महासचिव के रूप में उन्होंने उसी तन्मयता से काम करते हुए पार्टी संगठन को व्यवस्थित एवं सक्रिय किया। उनके सामने आगे इससे भी अधिक मुश्किल परिस्थितियां आने वाली थीं जिसमें उनके व्यक्तित्व का परीक्षण होना था।
श्री गांधी से ज्यादा दुखद एवं कष्टकर परिस्थिति में कोई सत्ता में क्या आ सकता है जब 31 अक्टूबर 1984 को अपनी मां की क्रूर हत्या के बाद वे कांग्रेस अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन व्यक्तिगत रूप से इतने दु:खी होने के बावजूद उन्होंने संतुलन, मर्यादा एवं संयम के साथ राष्ट्रीय जिम्मेदारी का अच्छे से निर्वहन किया।
महीने भर के लंबे चुनाव अभियान के दौरान श्री गांधी ने पृथ्वी की परिधि के डेढ़ गुना के बराबर दूरी की यात्रा करते हुए देश के लगभग सभी भागों में जाकर 250 से अधिक सभाएं कीं एवं लाखों लोगों से आमने-सामने मिले।
स्वभाव से गंभीर लेकिन आधुनिक सोच एवं निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता वाले श्री गांधी देश को दुनिया की उच्च तकनीकों से पूर्ण करना चाहते थे और जैसा कि वे बार-बार कहते थे कि भारत की एकता को बनाये रखने के उद्देश्य के अलावा उनके अन्य प्रमुख उद्देश्यों में से एक है – इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माण।
विश्वनाथ प्रताप सिंह 2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990
एक साल से कम समय (343 दिन)
राजा बहादुर राम गोपाल सिंह के पुत्र श्री वी.पी. सिंह का जन्म 25 जून 1931 को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद एवं पूना विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी। 25 जून 1955 को श्रीमती सीता कुमारी से उनका विवाह हुआ एवं उनके दो बेटे हैं।
विद्वान् श्री वी.पी. सिंह इलाहाबाद के कोरॉव में स्थित गोपाल विद्यालय इंटर कालेज के संस्थापक थे। वे 1947-48 में वाराणसी के उदय प्रताप कॉलेज में छात्र संघ के अध्यक्ष थे एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष भी रहे। उन्होंने 1957 में भूदान आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया एवं इलाहाबाद जिले के पासना गांव में सुस्थित खेत को दान में दिया था।
वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, 1969 से 71 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कार्यकारी निकाय एवं उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे। वे 1971 से 74 तक संसद (लोकसभा) के सदस्य, अक्टूबर 1974 से नवंबर 1976 तक वाणिज्य उपमंत्री, नवंबर 1976 से मार्च 1977 तक वाणिज्य संघ राज्य मंत्री, 3 जनवरी से 26 जुलाई 1980 तक संसद (लोकसभा) के सदस्य रहे।
वे 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, 21 नवंबर 1980 से 14 जून 1981 तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य और 15 जून 1981 से 16 जुलाई 1983 तक उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे।
वे 29 जनवरी 1983 से केंद्रीय वाणिज्य मंत्री रहे एवं 15 फरवरी 1983 से आपूर्ति विभाग का अतिरिक्त प्रभार संभाला। वे 16 जुलाई 1983 से संसद (राज्य सभा) के सदस्य रहे। वे 1 सितंबर 1984 को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए और 31 दिसंबर 1984 को केंद्रीय वित्त मंत्री बने।
चंद्रशेखर 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991
223 दिन
श्री चन्द्र शेखर का जन्म 17 April 1927 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में स्थित इब्राहिमपत्ती गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। वह 1977 से 1988 तक जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे थे।
श्री चन्द्र शेखर अपने छात्र जीवन से ही राजनीति की ओर आकर्षित थे और क्रांतिकारी जोश एवं गर्म स्वभाव वाले वाले आदर्शवादी के रूप में जाने जाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1950-51) से राजनीति विज्ञान में अपनी मास्टर डिग्री करने के बाद वे समाजवादी आंदोलन में शामिल हो गए। उन्हें आचार्य नरेंद्र देव के साथ बहुत निकट से जुड़े होने का सौभाग्य प्राप्त था। वे बलिया में जिला प्रजा समाजवादी पार्टी के सचिव चुने गए एक साल के भीतर वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के संयुक्त सचिव बने। 1955-56 में वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के महासचिव बने।
1962 में वे उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गए। वे जनवरी 1965 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। 1967 में उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का महासचिव चुना गया। संसद के सदस्य के रूप में उन्होंने दलितों के हित के लिए कार्य करना शुरू किया एवं समाज में तेजी से बदलाव लाने के लिए नीतियाँ निर्धारित करने पर जोर दिया।
इस संदर्भ में जब उन्होंने समाज में उच्च वर्गों के गलत तरीके से बढ़ रहे एकाधिकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई तो सत्ता पर आसीन लोगों के साथ उनके मतभेद हुए।
वे एक ऐसे ‘युवा तुर्क’ नेता के रूप में सामने आए जिसने दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ निहित स्वार्थ के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
वे 1969 में दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘यंग इंडियन’ के संस्थापक एवं संपादक थे। इसका सम्पादकीय अपने समय के विशिष्ट एवं बेहतरीन संपादनों में से एक हुआ करता था। आपातकाल (मार्च 1977 से जून 1975) के दौरान ‘यंग इंडियन’ को बंद कर दिया गया था। फरवरी 1989 से इसका पुनः नियमित रूप से प्रकाशन शुरू हुआ। वे इसके संपादकीय सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे।
श्री चन्द्र शेखर हमेशा व्यक्तिगत राजनीति के खिलाफ रहे एवं वैचारिक तथा सामाजिक परिवर्तन की राजनीति का समर्थन किया। यही सोच उन्हें 1973-75 के अशांत एवं अव्यवस्थित दिनों के दौरान श्री जयप्रकाश नारायण एवं उनके आदर्शवादी जीवन के और अधिक करीब ले गई। इस वजह से वे जल्द ही कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष का कारण बन गए।
25 जून 1975 को आपातकाल घोषित किये जाने के समय आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जबकि उस समय वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शीर्ष निकायों, केंद्रीय चुनाव समिति तथा कार्य समिति के सदस्य थे। श्री चन्द्र शेखर सत्तारूढ़ पार्टी के उन सदस्यों में से थे जिन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था।
वह हमेशा सत्ता की राजनीति का विरोध करते थे एवं लोकतांत्रिक मूल्यों तथा सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता की राजनीति को महत्व देते थे।आपातकाल के दौरान जेल में बिताये समय में उन्होंने हिंदी में एक डायरी लिखी थी जो बाद में ‘मेरी जेल डायरी’ के नाम से प्रकाशित हुई। ‘सामाजिक परिवर्तन की गतिशीलता’ उनके लेखन का एक प्रसिद्ध संकलन है।
श्री चन्द्र शेखर ने 6 जनवरी 1983 से 25 जून 1983 तक दक्षिण के कन्याकुमारी से नई दिल्ली में राजघाट (महात्मा गांधी की समाधि) तक लगभग 4260 किलोमीटर की मैराथन दूरी पैदल (पदयात्रा) तय की थी। उनके इस पदयात्रा का एकमात्र लक्ष्य था – लोगों से मिलना एवं उनकी महत्वपूर्ण समस्याओं को समझना।
उन्होंने सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा सहित देश के विभिन्न भागों में लगभग पंद्रह भारत यात्रा केंद्रों की स्थापना की थी ताकि वे देश के पिछड़े इलाकों में लोगों को शिक्षित करने एवं जमीनी स्तर पर कार्य कर सकें।
1984 से 1989 तक की संक्षिप्त अवधि को छोड़ कर 1962 से वे संसद के सदस्य रहे। 1989 में उन्होंने अपने गृह क्षेत्र बलिया और बिहार के महाराजगंज संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा एवं दोनों ही चुनाव जीते। बाद में उन्होंने महाराजगंज की सीट छोड़ दी। श्री चन्द्र शेखर का विवाह श्रीमती दूजा देवी से हुआ एवं उनके दो पुत्र हैं – पंकज और नीरज।
पी. वी. नरसिम्हा राव 21 जून 1991 से 16 मई 1996
4 साल, 330 दिन
श्री पी. रंगा राव के पुत्र श्री पी.वी. नरसिंह राव का जन्म 28 जून 1921 को करीमनगर में हुआ था। उन्होंने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय, मुंबई विश्वविद्यालय एवं नागपुर विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई की। श्री पी.वी. नरसिंह राव के तीन बेटे और पांच बेटियां हैं।
पेशे से कृषि विशेषज्ञ एवं वकील श्री राव राजनीति में आए एवं कुछ महत्वपूर्ण विभागों का कार्यभार संभाला। वे आंध्र प्रदेश सरकार में 1962 से 64 तक कानून एवं सूचना मंत्री, 1964 से 67 तक कानून एवं विधि मंत्री, 1967 में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री एवं 1968 से 1971 तक शिक्षा मंत्री रहे। वे 1971 से 73 तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे।
वे 1975 से 76 तक अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव, 1968 से 74 तक आंध्र प्रदेश के तेलुगू अकादमी के अध्यक्ष एवं 1972 से मद्रास के दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उपाध्यक्ष रहे। वे 1957 से 1977 तक आंध्र प्रदेश विधान सभा के सदस्य, 1977 से 84 तक लोकसभा के सदस्य रहे और दिसंबर 1984 में रामटेक से आठवीं लोकसभा के लिए चुने गए।
लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के तौर पर 1978-79 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय के एशियाई एवं अफ्रीकी अध्ययन स्कूल द्वारा आयोजित दक्षिण एशिया पर हुए एक सम्मेलन में भाग लिया। श्री राव भारतीय विद्या भवन के आंध्र केंद्र के भी अध्यक्ष रहे।
वे 14 जनवरी 1980 से 18 जुलाई 1984 तक विदेश मंत्री, 19 जुलाई 1984 से 31 दिसंबर 1984 तक गृह मंत्री एवं 31 दिसंबर 1984 से 25 सितम्बर 1985 तक रक्षा मंत्री रहे। उन्होंने 5 नवंबर 1984 से योजना मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी संभाला था। 25 सितम्बर 1985 से उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में पदभार संभाला।
श्री राव संगीत, सिनेमा एवं नाटकशाला में रुचि रखते थे। भारतीय दर्शन एवं संस्कृति, कथा साहित्य एवं राजनीतिक टिप्पणी लिखने, भाषाएँ सीखने, तेलुगू एवं हिंदी में कविताएं लिखने एवं साहित्य में उनकी विशेष रुचि थी। उन्होंने स्वर्गीय श्री विश्वनाथ सत्यनारायण के प्रसिद्ध तेलुगु उपन्यास ‘वेई पदागालू’ के हिंदी अनुवाद ‘सहस्रफन’ एवं केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित स्वर्गीय श्री हरि नारायण आप्टे के प्रसिद्ध मराठी उपन्यास “पान लक्षत कोन घेटो” के तेलुगू अनुवाद ‘अंबाला जीवितम’ को सफलतापूर्वक प्रकाशित किया।
उन्होंने कई प्रमुख पुस्तकों का मराठी से तेलुगू एवं तेलुगु से हिंदी में अनुवाद किया एवं विभिन्न पत्रिकाओं में कई लेख एक उपनाम के अन्दर प्रकाशित किया। उन्होंने राजनीतिक मामलों एवं संबद्ध विषयों पर संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिम जर्मनी के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिया। विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने 1974 में ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, स्विट्जरलैंड, इटली और मिस्र इत्यादि देशों की यात्रा की।
विदेश मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान श्री राव ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के क्षेत्र में अपनी शैक्षिक पृष्ठभूमि एवं राजनीतिक तथा प्रशासनिक अनुभव का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया। प्रभार सँभालने के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने जनवरी 1980 में नई दिल्ली में संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन के तृतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की।
उन्होंने मार्च 1980 में न्यूयॉर्क में जी-77 की बैठक की भी अध्यक्षता की। फरवरी 1981 में गुट निरपेक्ष देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में उनकी भूमिका के लिए श्री राव की बहुत प्रशंसा की गई थी। श्री राव ने अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मुद्दों में व्यक्तिगत रूप से गहरी रुचि दिखाई थी। व्यक्तिगत रूप से मई 1981 में कराकास में ईसीडीसी पर जी-77 के सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया।
वर्ष 1982 और 1983 भारत और इसकी विदेश नीति के लिए अति महत्त्वपूर्ण था। खाड़ी युद्ध के दौरान गुट निरपेक्ष आंदोलन का सातवाँ सम्मलेन भारत में हुआ जिसकी अध्यक्षता श्रीमती इंदिरा गांधी ने की। वर्ष 1982 में जब भारत को इसकी मेजबानी करने के लिए कहा गया और उसके अगले वर्ष जब विभिन्न देशों के राज्य और शासनाध्यक्षों के बीच आंदोलन से सम्बंधित अनौपचारिक विचार के लिए न्यूयॉर्क में बैठक की गई, तब श्री पी.वी. नरसिंह राव ने गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के विदेश मंत्रियों के साथ नई दिल्ली और संयुक्त राष्ट्र संघ में होने वाली बैठकों की अध्यक्षता की थी।
श्री राव विशेष गुट निरपेक्ष मिशन के भी नेता रहे जिसने फिलीस्तीनी मुक्ति आन्दोलन को सुलझाने के लिए नवंबर 1983 में पश्चिम एशियाई देशों का दौरा किया। श्री राव नई दिल्ली सरकार के राष्ट्रमंडल प्रमुखों एवं सायप्रस सम्बन्धी मामले पर हुई बैठक द्वारा गठित कार्य दल के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे।
विदेश मंत्री के रूप में श्री नरसिंह राव ने अमेरिका, यू.एस.एस.आर, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, वियतनाम, तंजानिया एवं गुयाना जैसे देशों के साथ हुए विभिन्न संयुक्त आयोगों की भारत की ओर से अध्यक्षता की।
अटल बिहारी वाजपेयी16 मई 1996 से 1 जून 1996
16 दिन, 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004
6 साल, 64 दिन
जनता के बीच प्रसिद्द अटल बिहारी वाजपेयी अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे। 13 अक्टूबर 1999 को उन्होंने लगातार दूसरी बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की नई गठबंधन सरकार के प्रमुख के रूप में भारत के प्रधानमंत्री का पद ग्रहण किया। वे 1996 में बहुत कम समय के लिए भारत के प्रधानमंत्री बने थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद वह पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो लगातार दो बार भारत के प्रधानमंत्री बने।
वरिष्ठ सांसद श्री वाजपेयी जी राजनीति के क्षेत्र में चार दशकों तक सक्रिय रहे। वह लोकसभा (लोगों का सदन) में नौ बार और राज्य सभा (राज्यों की सभा) में दो बार चुने गए जो अपने आप में ही एक कीर्तिमान है।
भारत के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, संसद की विभिन्न महत्वपूर्ण स्थायी समितियों के अध्यक्ष और विपक्ष के नेता के रूप में उन्होंने आजादी के बाद भारत की घरेलू और विदेश नीति को आकार देने में एक सक्रिय भूमिका निभाई।
श्री वाजपेयी जी अपने छात्र जीवन के दौरान पहली बार राष्ट्रवादी राजनीति में तब आये जब उन्होंने वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद का अंत किया, में भाग लिया। वह राजनीति विज्ञान और विधि के छात्र थे और कॉलेज के दिनों में ही उनकी रुचि विदेशी मामलों के प्रति बढ़ी। उनकी यह रुचि वर्षों तक बनी रही एवं विभिन्न बहुपक्षीय और द्विपक्षीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने अपने इस कौशल का परिचय दिया।
श्री वाजपेयी जी ने अपना करियर पत्रकार के रूप में शुरू किया था और 1951 में भारतीय जन संघ में शामिल होने के बाद उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी। आज की भारतीय जनता पार्टी को पहले भारती जन संघ के नाम से जाना जाता था जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का अभिन्न अंग है। उन्होंने कई कवितायेँ भी लिखी जिसे समीक्षकों द्वारा सराहा गया। अब भी वह राजनीतिक मामलों से समय निकालकर संगीत सुनने और खाना बनाने जैसे अपने शौक पूरे करते हैं।
श्री वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में रहने वाले एक विनम्र स्कूल शिक्षक के परिवार में हुआ। निजी जीवन में प्राप्त सफलता उनके राजनीतिक कौशल और भारतीय लोकतंत्र की देन है। पिछले कई दशकों में वह एक ऐसे नेता के रूप में उभरे जो विश्व के प्रति उदारवादी सोच और लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रति प्रतिबद्धता को महत्व देते हैं।
महिलाओं के सशक्तिकरण और सामाजिक समानता के समर्थक श्री वाजपेयी भारत को सभी राष्ट्रों के बीच एक दूरदर्शी, विकसित, मजबूत और समृद्ध राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ते हुए देखना चाहते हैं। वह ऐसे भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जिस देश की सभ्यता का इतिहास 5000 साल पुराना है और जो अगले हज़ार वर्षों में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है।
उन्हें भारत के प्रति उनके निस्वार्थ समर्पण और पचास से अधिक वर्षों तक देश और समाज की सेवा करने के लिए भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण दिया गया। 1994 में उन्हें भारत का ‘सर्वश्रेष्ठ सांसद’ चुना गया। उद्धरणानुसार:”अपने नाम के ही समान, अटलजी एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेता, प्रखर राजनीतिज्ञ, नि:स्वार्थ सामाजिक कार्यकर्ता, सशक्त वक्ता, कवि, साहित्यकार, पत्रकार और बहुआयामी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं”। अटलजी जनता की बातों को ध्यान से सुनते हैं और उनकी आकाँक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करते हैं। उनके कार्य राष्ट्र के प्रति उनके समर्पण को दिखाते हैं।
एच. डी. देव गौड़ा 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997
एक साल से कम समय (324 दिन)
सामाजिक-आर्थिक विकास और भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के पुरजोर समर्थक श्री एच.डी. देवेगौड़ा का जन्म 18 मई 1933 को कर्नाटक के हासन जिले के होलेनारासिपुरा तालुक के हरदनहल्ली गांव में हुआ था।
सिविल इंजीनियरिंग डिप्लोमा धारक, श्री देवेगौड़ा 20 साल की उम्र में अपनी पढाई पूरी करने के बाद राजनीति में आ गए, 1953 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और 1962 तक इसके सदस्य बने रहे। एक मध्यम वर्गीय कृषि परिवार के गौड़ा ने किसान के जीवन की कठिनाइयां देखी थीं इसीलिए उन्होंने किसानों, वंचित और शोषित वर्ग के लोगों को उनका अधिकार दिलाने के लिए आवाज़ उठाई।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के निचले तबके से संबंध रखने वाले श्री देवेगौड़ा ने धीरे – धीरे राजनीतिक उंचाइयां हासिल की। अन्जनेया सहकारी सोसायटी के अध्यक्ष और होलेनारासिपुरा के तालुक तहसील विकास बोर्ड के सदस्य के रूप में उन्होंने लोगों के मन में अपने लिए एक अलग स्थान बनाया।
उन्होंने हमेशा एक ऐसे समाज का सपना देखा जहाँ असमानताओं के लिए कोई जगह न हो। 28 साल की उम्र में गौड़ा निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़े और 1962 में वे कर्नाटक विधानसभा के सदस्य बन गए। विधानसभा में वक्ता के रूप में उन्होंने सभी को प्रभावित किया।
होलेनारसिपुर निर्वाचन क्षेत्र से वे लगातार चौथी (1967-1971); पांचवी (1972-1977) और छठी (1978-1983) विधानसभाओं के लिए चुने गए। मार्च 1972 से मार्च 1976 तक और नवंबर 1976 से दिसंबर 1977 तक विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में उन्होंने ख्याति प्राप्त की।
श्री देवेगौड़ा ने 22 नवंबर 1982 को छठी विधानसभा की सदस्यता छोड़ दी। सातवीं और आठवीं विधानसभा के सदस्य रहने के दौरान उन्होंने लोक निर्माण और सिंचाई मंत्री के रूप में कार्य किया। सिंचाई मंत्री के रूप में उन्होंने कई सिंचाई परियोजनाएँ शुरू की। 1987 में उन्होंने सिंचाई के लिए अपर्याप्त धन आवंटन का विरोध करते हुए मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
स्वतंत्रता और समानता के समर्थक गौड़ा को 1975-76 में केंद्र सरकार की नाराजगी का सामना करना पड़ा एवं उन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया था। श्री देव गौड़ा ने इस समय का उपयोग अपने अध्ययन कार्य के लिए किया ताकि अपने ज्ञान का विस्तार किया जा सके। उनके अध्ययन एवं इस अवधि के दौरान जेल में बंद भारतीय राजनीति के अन्य दिग्गजों से हुई उनकी बातचीत से उनके व्यक्तित्व और दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। जेल से बाहर आने के बाद वे परिपक्व और दृढ संकल्प वाले व्यक्ति के रूप में सामने आए।
1991 में वे हसन लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से सांसद के रूप में चुने गए। श्री गौड़ा ने राज्य की समस्याओं, विशेष रूप से किसानों की समस्याओं के निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने किसानों की दुर्दशा के बारे में संसद में स्पष्ट रूप से अपने विचार व्यक्त किये जिसके लिए सभी ने उनकी प्रशंसा की। संसद और इसके संस्थानों की प्रतिष्ठा और गरिमा बनाये रखने के लिए भी सभी ने उनकी ख़ूब प्रशंसा की।
श्री देवेगौड़ा राज्य स्तर पर दो बार जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। 1994 में वे जनता दल के अध्यक्ष बने। 1994 में राज्य में जनता दल की जीत के सूत्रधार वही थे। वे जनता दल के नेता चुने गए और 11 दिसम्बर 1994 को वे कर्नाटक के 14वें मुख्यमंत्री बने। इसके बाद उन्होंने रामनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से जीत हासिल की।
राजनीति में उनके अनुभव और निचले तबके के लोगों तक उनकी अच्छी पहुँच ने राज्य की समस्याओं से निपटने में उनकी मदद की। उनकी राजनीतिक विचक्षणता की झलक सभी ने फिर से तब दिखी जब उन्होंने हुबली के ईदगाह मैदान का मुद्दा उठाया। यह अल्पसंख्यक समुदाय का मैदान था जो हमेशा से ही राजनीतिक विवाद का मुद्दा रहा था। श्री देवगौड़ा ने सफलतापूर्वक इस मुद्दे का शांतिपूर्ण समाधान निकला।
जनवरी 1995 में श्री देवेगौड़ा स्विट्जरलैंड के दौरे पर गए जहाँ उन्होंने अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्रियों के फोरम में भाग लिया। यूरोपीय और मध्य पूर्वी देशों के उनके दौरे उनके एक समर्पित राजनेता होने का प्रमाण देते हैं। श्री गौड़ा अपने सिंगापुर दौरे के दौरान राज्य के लिए आवश्यक विदेशी निवेश लाये जो उनके व्यावसायिक कौशल को दिखाता है।
1970 के बाद से सभी ने राजनीति और इसकी प्रक्रियाओं में उनके अत्यधिक व्यस्तता पर कटाक्ष किया। श्री गौड़ा के अनुसार, उनकी राजनीति लोगों के लिए है और उनसे घिरे रह कर और उनके लिए कार्य कर के ही उन्हें ख़ुशी मिलती है।
1989 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में जनता दल को 222 में से केवल 2 सीटें मिलीं जो पार्टी के लिए एक करारी हार थी। श्री गौड़ा के लिए भी यह उनके करियर की पहली असफलता थी जहाँ उन्हें दोनों निर्वाचन क्षेत्रों (जहाँ से वे चुनाव लड़ रहे थे) में हार का सामना करना पड़ा। अतः यह कहा जा सकता है कि वे राजनीतिक क्षेत्र की अस्थिरता से अनजान नहीं हैं।
इस हार ने उनके खोये हुए सम्मान और सत्ता पाने की उनकी इच्छा तथा अपनी राजनीतिक शैली को फिर से जांचने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने दिल्ली और कर्नाटक में अपने प्रतिद्वंदियों से अपने कड़वे रिश्ते को अलग रखते हुए उनके साथ मैत्री संबंध स्थापित किया। श्री गौड़ा एक सरल जीवन जीने वाले मुखर और प्रभावी व्यक्ति हैं।
राजनीति में आने से पहले श्री गौड़ा साधारण निर्माण कार्य लेने वाले ठेकेदार थे। सात वर्ष निर्दलीय के रूप में कार्य करने से उन्हें दलीय राजनीति समझने में आसानी हुई। अपने कार्य के प्रति लगनशील श्री गौड़ा विधानमंडल पुस्तकालय में पुस्तक और पत्रिकाएं पढ़ा करते थे। वर्ष 1967 के चुनाव में फिर से चुने जाने पर उनमें आत्मविश्वास का संचार हुआ
1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद वे श्री निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाले तत्कालीन सत्ताधारी कांगेस दल में शामिल हो गए। 1971 में लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की हार ने श्री गौड़ा को बड़ा अवसर प्रदान किया। वह उस समय एक सशक्त विपक्ष नेता के रूप में उभरे जब पूरे देश में इंदिरा गाँधी की लहर थी।
श्री देव गौड़ा और श्रीमती देवाम्मा के पुत्र श्री देव गौड़ा को कृषि संबंधी अपनी साधारण पृष्ठभूमि पर गर्व है। उनका विवाह श्रीमती चेन्नम्मा से हुआ था। उनके 4 पुत्र एवं 2 पुत्रियाँ हैं जिनमें से एक पुत्र कर्नाटक में विधायक और दूसरे लोकसभा के सदस्य हैं।श्री देव गौड़ा के पास तीसरे मोर्चे (क्षेत्रीय दलों और गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा समूह का गठबंधन) के नेतृत्व का अवसर अचानक ही आया जो उन्हें भारत के प्रधानमंत्री के पद तक ले गया। 30 मई 1996 को देव गौड़ा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर भारत के 11वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
इंदर कुमार गुजराल 21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998
एक साल से कम समय (332 दिन)
श्री इंदर कुमार गुजराल 21 अप्रैल, 1997 को भारत के 12 वें प्रधानमंत्री बने।श्री गुजराल स्वर्गीय श्री अवतार नारायण गुजराल एवं स्वर्गीय पुष्पा गुजराल के पुत्र थे। उन्होंने एम.ए, बी.कॉम, पीएच.डी. और डी. लिट. की उपाधि प्राप्त की थी। उनका जन्म 4 दिसम्बर 1919 को झेलम में हुआ। 26 मई 1945 को उन्होंने श्रीमती शीला गुजराल से विवाह किया।
श्री गुजराल के माता-पिता स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने पंजाब के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। वर्ष 1931 में 11 वर्ष की उम्र में श्री गुजराल ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जिसमें पुलिस ने उनको झेलम में युवा बच्चों के आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए गिरफ्तार कर लिया और बर्बरता से पीटा। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया।
भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले श्री गुजराल 1 जून 1996 से विदेश मंत्री रह चुके थे और 28 जून 1996 को उन्होंने जल संसाधन मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार संभाला। वह वर्ष 1989-90 में जल संसाधन मंत्री थे। 1976 से 1980 तक यूएसएसआर में भारत के राजदूत (मंत्रिमंडल स्तर) रहे और 1967 से 1976 तक उन्होंने निम्नलिखित मंत्रिस्तरीय पदों का कार्यभार संभाला :
- संचार एवं संसदीय मामलों के मंत्री;
- सूचना, प्रसारण तथा संचार मंत्री;
- निर्माण एवं आवास मंत्री;
- सूचना एवं प्रसारण मंत्री;
- योजना मंत्री
ग्रहण किये गए संसदीय पद
इंदर कुमार जून 1996 से राज्य सभा के नेता रहे। अप्रैल 1993 से 1996 तक संसद की वाणिज्य और टेक्सटाइल की स्थायी समिति के अध्यक्ष; अप्रैल 1996 तक विदेश मामलों की स्थायी समिति के सदस्य; 1964 से 1976 और 1989 से 1991 तक संसद के सदस्य; 1992 में बिहार राज्यसभा के सदस्य; याचिका समिति, लोक लेखा समिति, राज्यसभा की नियम संबंधी समिति; राज्यसभा की अधीनस्थ विधान समिति; राज्य सभा की सामान्य प्रयोजन समिति के सदस्य रहे।
अन्य महत्वपूर्ण पद
इंदर कुमार भारतीय दक्षिण एशियाई सहकारिता परिषद के अध्यक्ष; पूंजीगत योजना निगरानी समिति के सदस्य; रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण (आईडीएसए) संस्थान के पूर्व अध्यक्ष; उर्दू के प्रोत्साहन (गुजराल समिति) संबंधी सरकारी समिति के अध्यक्ष; 1959 से 1964 तक नई दिल्ली नगरपालिका परिषद के उपाध्यक्ष; लाहौर छात्र संघ के अध्यक्ष; पंजाब छात्र महासंघ के महासचिव; कलकत्ता, श्रीनगर और दिल्ली में संयुक्त मोर्चा विपक्षी दल सम्मेलन के संयोजक और प्रवक्ता रहे।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल
वह 1996 में हुई संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के भारतीय प्रतिनिधिमंडल के राजनेता; 1995 में जिनेवा में हुए मानव अधिकार संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन के भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता; 1990 में हुई संयुक्त राष्ट्र महासभा के भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता; 1990 में संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक विकास पर हुए विशेष सत्र के भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता;
1994 और 1995 में संयुक्त राष्ट्र संघ के भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य; 1977 में शिक्षा और पर्यावरण पर यूनेस्को में हुए सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता; 1970, 1972 और 1974 में यूनेस्को के अधिवेशन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के स्थापन्न नेता; 1973 में पेरिस में यूनेस्को द्वारा मनुष्य और नई संचार प्रणालियों पर आयोजित संगोष्ठी के अध्यक्ष; 1995 में बुकारेस्ट में हुए अंतर संसदीय संघ सम्मेलन के प्रतिनिधि; 1994 में हुए कनाडा राष्ट्रमंडल संसदीय संघ सम्मेलन के प्रतिनिधि;
1967 में कैनबरा (ऑस्ट्रेलिया) में हुई अंतर संसदीय संघ की बैठक के प्रतिनिधि; 1974 में पर्यावरण पर स्टॉकहोम में हुए संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के स्थापन्न नेता; 1975 में गैबॉन, कैमरून, कोंगो, चैड और मध्य अफ्रीका के लिए भारत के विशेष दूत; 1966 में गणराज्य मलावी के उद्घाटन के लिए भारत के विशेष दूत; 1961 में बुल्गारिया में विशेष दूत; श्रीलंका, भूटान, मिस्र और सूडान के राजनीतिक दौरे पर केन्द्रीय मंत्री; भारतीय दक्षिण एशियाई सहकारिता परिषद के अध्यक्ष; 1961 में हुए एशियाई रोटरी सम्मेलन के उपाध्यक्ष रहे।
सामाजिक संगठन जिनसे वे जुड़े रहे
श्री गुजराल नारी निकेतन न्यास एवं जालंधर (पंजाब) के ए.एन. गुजराल मेमोरियल स्कूल के अध्यक्ष; भारत पाक मैत्री संस्था के अध्यक्ष; दिल्ली कला थियेटर के संस्थापक एवं अध्यक्ष; लोक कल्याण समिति के उपाध्यक्ष; 1960 में दिल्ली के रोटरी क्लब के अध्यक्ष; 1961 में एशियाई रोटरी सम्मेलन के उपाध्यक्ष रहे।
विशेष रुचि:
श्री गुजराल राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मामलों तथा थिएटर पर लेखन-कार्य और समीक्षा करते थे।
मनमोहन सिंह 22 मई 2004 से 26 मई 2014
10 साल, 2 दिन
भारत के चौदहवें प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह विचारक और विद्वान के रूप में प्रसिद्ध है। वह अपनी नम्रता, कर्मठता और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितम्बर 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के एक गाँव में हुआ था। डॉ. सिंह ने वर्ष 1948 में पंजाब विश्वविद्यालय से मेट्रिक की शिक्षा पूरी की। उसके बाद उन्होंने अपनी आगे की शिक्षा ब्रिटेन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1957 में उन्होंने अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी से ऑनर्स की डिग्री अर्जित की। इसके बाद 1962 में उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के नूफिल्ड कॉलेज से अर्थशास्त्र में डी.फिल किया।
उन्होंने अपनी पुस्तक “भारत में निर्यात और आत्मनिर्भरता और विकास की संभावनाएं” में भारत में निर्यात आधारित व्यापार नीति की आलोचना की थी। पंजाब विश्वविद्यालय और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में डॉ. सिंह ने शिक्षक के रूप में कार्य किया जो उनकी अकादमिक श्रेष्ठता दिखाता है। इसी बीच में कुछ वर्षों के लिए उन्होंने यूएनसीटीएडी सचिवालय के लिए भी कार्य किया। इसी के आधार पर उन्हें 1987 और 1990 में जिनेवा में दक्षिण आयोग के महासचिव के रूप में नियुक्ति किया गया।
1971 में डॉ. सिंह वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के रूप में शामिल हुए। 1972 में उनकी नियुक्ति वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में हुई। डॉ. सिंह ने वित्त मंत्रालय के सचिव; योजना आयोग के उपाध्यक्ष; भारतीय रिजर्व बैंक के अध्यक्ष; प्रधानमंत्री के सलाहकार; विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
डॉ सिंह ने 1991 से 1996 तक भारत के वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया जो स्वतंत्र भारत के आर्थिक इतिहास में एक निर्णायक समय था। आर्थिक सुधारों के लिए व्यापक नीति के निर्धारण में उनकी भूमिका को सभी ने सराहा है। भारत में इन वर्षों को डॉ. सिंह के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग के रूप में जाना जाता है।
डॉ. सिंह को मिले कई पुरस्कारों और सम्मानों में से सबसे प्रमुख सम्मान है – भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण(1987); भारतीय विज्ञान कांग्रेस का जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी पुरस्कार (1995); वर्ष के वित्त मंत्री के लिए एशिया मनी अवार्ड (1993 और 1994); वर्ष के वित्त मंत्री के लिए यूरो मनी अवार्ड (1993), कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (1956) का एडम स्मिथ पुरस्कार; कैम्ब्रिज के सेंट जॉन्स कॉलेज में विशिष्ट प्रदर्शन के लिए राइट पुरस्कार (1955)। डॉ. सिंह को जापानी निहोन किजई शिम्बुन एवं अन्य संघो द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। डॉ. सिंह को कैंब्रिज एवं ऑक्सफ़ोर्ड तथा अन्य कई विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधियाँ प्रदान की गई हैं।
डॉ. सिंह ने कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। उन्होंने 1993 में साइप्रस में राष्ट्रमंडल प्रमुखों की बैठक में और वियना में मानवाधिकार पर हुए विश्व सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया है।
अपने राजनीतिक जीवन में डॉ. सिंह 1991 से भारतीय संसद के उच्च सदन (राज्य सभा) के सदस्य रहे जहाँ वे 1998 से 2004 तक विपक्ष के नेता थे। डॉ. मनमोहन सिंह ने 2004 के आम चुनाव के बाद 22 मई 2004 को प्रधानमंत्री के रूप के शपथ ली और 22 मई 2009 को दूसरी बार प्रधानमंत्री बने।डॉ. सिंह और उनकी पत्नी श्रीमती गुरशरण कौर की तीन बेटियां हैं।
नरेंद्र दामोदर दास मोदी 26 मई 2014 से अब तक
नरेंद्र मोदी जी का जन्म उत्तर गुजरात मेहसाना जिले के छोटे से शहर में सितंबर 1950 में हुआ था। उनके पिता का नाम दामोदर दास मूलचंद मोदी तथा माता का नाम हीराबेन था। यह अपने माता पिता के 6 संतानों में से तीसरे थे।
शिक्षा
इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा वादनगर से की जहाँ वे एक औसत दर्जे के विद्यार्थी थे किंतु अपने शिक्षकों से वाद विवाद करने के लिए जाने जाते थे। परास्नातक की शिक्षा इन्होंने राजनीतिक विज्ञान में गुजरात विश्व विद्यालय से की।
व्यवसाय
युवावस्था में यह अपने भाई के साथ चाय की दुकान लगाते थे, इसके बाद इन्होने गुजरात राज्य सड़क परिवहन निगम की कैंटीन में भी 1970 तक काम किया।
1970 में यह आर एस एस के पूर्णकालिक प्रचारक बन गये। संकटकाल के समय यह एबीवीपी के इंचार्ज थे। 1985 मे इन्होने भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बने। मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा के दौरान ये सबकी नज़रों में आए।
1988 में मोदी बीजेपी के गुजरात इकाई के महा सचिव चुने गये। 1988 में ही इन्हे बीजेपी का राष्ट्रीय सचिव बना दिया गया। 7 अक्तूबर 2001 को मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने।
27 फ़रवरी 2002 में इनके कार्यकाल में ही गोधरा कांड हुआ। गोधरा कांड की वजह से ही मोदी को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। जिसा चुनाव में बोजेपी को गुजरात विधानसभा चुनाव में 182 सीटों में से 127 सीटों की विजय मिली थी।
2002-2007 के अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी ने अपना दृष्टिकोण हिन्दुत्व से हटाकर गुजरात के विकास की ओर केंद्रित किया। जिसके साथ ही राज्य में वित्त व तकनीक पार्क शुरू हुए। 2007 में मोदी ने गुजरात के सबसे लंबे समय तक कार्यरत मुख्य मंत्री का रिकॉर्ड कायम किया। जिस कारण से चुनाव में बीजेपी वापस से एक भारी बहुमत अर्थात 182 मे से 122 सीटों के साथ सत्ता मे आई एवं मोदी पुनः गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए।
इसके बाद 2012 के मतदान में बीजेपी फिर से मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आई। 2013 में बीजेपी के संसदीय बोर्ड में मोदी को पार्टी का उच्च स्तर का निर्णयकर्ता घोषित किया गया। इसके साथ ही आगामी चुनावी योजना के लिए अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया। सितंबर 2013 में बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए उन्हे अपना प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया।
सम्मान व पुरस्कार
- 2009 में एफ़डीयाई मैगजिंन ने मोदी को एफडीआई पर्सनॅलिटी ऑफ द ईयर के सम्मान से नवाजा।
- श्री पूना गुजराती बंधु समाज ने इन्हें गुजरात रत्न के सम्मान से सुशोभित किया है।
- कंप्यूटर सोसायटी ऑफ इंडिया ने मोदी को ई-रत्न का सम्मान दिया।
- 2006 में इंडिया टुडे मैगज़ीन के राष्ट्रीय सर्वेक्षण में मोदी को सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री घोषित किया।
- 2012 के टाइम मेगज़ीन के एशियाई संकरण में मोदी को कवर पृष्ठ पर स्थान दिया गया।
- ई-प्रशासन के लिए सीएसआई अवॉर्ड।
- आपदा कमी के लिए यूएन ससाकवा अवॉर्ड।
- कॉमनवेल्थ असोसियेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन एंड मेनेजमेंट की ओर से प्रशासनिक नवीकरण अवॉर्ड।
- यूनेस्को अवॉर्ड।
उपलब्धि
नरेंद्र मोदीजी गुजरात के सबसे लंबे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री हैं।
पुस्तकें व प्रलेख
मोदी जी ने जिन पुस्तकों की रचना की हैं वे हैं –
- सेतुबन्ध – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता लक्ष्मणराव इनामदार की जीवनी के सहलेखक (2001 में)
- आँख आ धन्य छे (गुजराती कविताएँ)
- कर्मयोग
- आपातकाल में गुजरात (हिंदी)
- एक भारत श्रेष्ठ भारत (नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन; संपादक प्रदीप पंडित)
- ज्योतिपुंज (आत्मकथन – नरेंद्र मोदी)
- सामाजिक समरसता (नरेंद्र मोदी के लेखों का संकलन)
- एक्जाम वॉरियर्स (अंग्रेजी)
योगदान
गुजरात के एकीकृत विकास के लिए इन्होने पाँच स्तरीय पांचामृत योजना की शुरुआत की। वायबरेंट गुजरात नाम की योजना ने गुजरात को निवेश क लिए एक सर्वोत्तम स्थानों की सूची मे ला दिया। 2013 की वायबरेंट गुजरात सम्मेलन ने पूरे विश्व के 120 देशों के निवेश को आकर्षित किया।
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इन्हें भी देखे –
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- संख्याएँ | Numbers
- युग्म-शब्द | 500 +| उच्चारण में समान अर्थ में भिन्न
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