भोजपुरी भाषा केवल जन-भाषा या लोक-व्यवहार का माध्यम नहीं रही है, बल्कि इसने भारतीय साहित्य के विविध रंगों को अपनी अभिव्यक्ति से समृद्ध किया है। यह भाषा उत्तर भारत की सांस्कृतिक चेतना का दर्पण है, जिसमें लोक की सरलता, जीवन की सच्चाई और भावना की गहराई एक साथ दिखाई देती है। भोजपुरी के कवियों ने समाज, धर्म, दर्शन, प्रेम, करुणा, श्रम, त्याग और लोकजीवन के विविध पक्षों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि वह जन-जन के हृदय में उतर जाती है।
भोजपुरी साहित्य का इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है। इसमें संत कवि, लोककवि, सामाजिक सुधारक कवि और आधुनिक रचनाकार — सभी का योगदान उल्लेखनीय है। संत परंपरा के कबीरदास और उनके शिष्य धरमदास से लेकर आधुनिक काल के भिखारी ठाकुर, रघुवीर नारायण, हीरा डोम, राहुल सांकृत्यायन और मनोज भावुक तक — भोजपुरी कविता ने हर युग में अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखी है।
संत परंपरा और आरंभिक भोजपुरी काव्य
भोजपुरी साहित्य का प्रारंभिक स्वरूप संत कवियों की वाणी में मिलता है। मध्यकाल में जब हिंदी क्षेत्र में संतमत और निर्गुण भक्ति का आंदोलन उभर रहा था, उसी समय भोजपुरी क्षेत्र में भी इसकी धारा फूटी। यह वह समय था जब जनभाषा को धार्मिक, दार्शनिक और सामाजिक विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जा रहा था।
(क) कबीरदास — भोजपुरी काव्य के आदिकवि
संत कबीरदास (15वीं सदी) का नाम भोजपुरी की साहित्यिक परंपरा में अत्यंत आदर से लिया जाता है। वे यद्यपि वाराणसी के निवासी थे और उनकी भाषा मिश्रित थी — जिसमें खड़ी बोली, अवधी, ब्रज और भोजपुरी का सम्मिश्रण मिलता है — फिर भी उनकी वाणी पर भोजपुरी की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
कबीर की साखियाँ और पद भाषा की सहजता, लयात्मकता और जनबोध से ओतप्रोत हैं। उदाहरणस्वरूप, उनके पदों में प्रयुक्त अनेक शब्द जैसे — “माटी”, “कुम्हार”, “रोंदे”, “मोहे” आदि विशुद्ध भोजपुरी क्षेत्र के प्रयोग हैं। उनकी प्रसिद्ध साखी —
“माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूंगी तोहे।”
यह पंक्तियाँ भोजपुरी की भाव-सरलता और जीवन-दर्शन की गहराई दोनों को प्रकट करती हैं। कबीर ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जातिभेद और कर्मकांड का विरोध किया तथा निष्कलंक भक्ति और सत्य की उपासना का संदेश दिया। उनकी वाणी ने भोजपुरी क्षेत्र के जनमानस को आत्मजागृति और समानता की भावना से ओतप्रोत किया।
(ख) धरणीदास — लोकभाषा में आध्यात्मिकता का स्वर
संत धरणीदास भोजपुरी के आरंभिक कवियों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने लोकभाषा के माध्यम से अध्यात्म और नैतिकता का प्रचार किया। वे निर्गुण भक्ति परंपरा से जुड़े कवि थे और उनकी कविताएँ ईश्वर के निराकार स्वरूप की आराधना करती हैं।
धरणीदास की वाणी में मानवता, करुणा और सामाजिक समरसता की भावना झलकती है। वे मानते थे कि सच्चा धर्म लोकसेवा और सत्य आचरण में निहित है। उन्होंने धर्म को लोकजीवन से जोड़कर देखा और उसकी अनुभूति को सहज शब्दों में प्रकट किया।
(ग) धरमदास — कबीर के शिष्य और संतमत प्रचारक
धरमदास, कबीर के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। उन्होंने अपने गुरु के विचारों को भोजपुरी लोकभाषा में प्रसारित किया। उनकी रचनाओं में संतमत दर्शन के तत्व — आत्मा और परमात्मा के एकत्व, कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वय — स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। धरमदास की भाषा अत्यंत भावनात्मक और जनमानस से जुड़ी हुई थी, जिसने भोजपुरी क्षेत्र में संत परंपरा को गहराई तक पहुँचाया।
लोककविता और जनगीतों की परंपरा
भोजपुरी लोकजीवन गीतों से भरा हुआ है। यहाँ “सोहर”, “कजरी”, “चैता”, “बिरहा”, “बारहमासा” जैसे गीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन के संस्कार, ऋतु, प्रेम और विरह के संवेदन का माध्यम हैं।
इन गीतों के रचयिता प्रायः अज्ञात लोककवि होते थे, जिनकी वाणी गाँव की गलियों, खेतों, नदी-तटों और मेलों में गूँजती रही। ये कवि अनाम थे, पर उनकी रचनाएँ भोजपुरी संस्कृति की आत्मा बनीं।
लोकगीतों ने भोजपुरी को केवल भाषा नहीं, बल्कि जीवन की लय बना दिया। इनके माध्यम से जनभावनाएँ, पारिवारिक संबंध, स्त्री के दुःख-सुख और प्रकृति के साथ उसका तादात्म्य प्रकट होता है।
आधुनिक युग के भोजपुरी कवि
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भोजपुरी साहित्य का नया रूप उभरा। इस काल में कवियों ने समाज सुधार, प्रवासी जीवन, जातीय समानता, नारी-स्वतंत्रता और राष्ट्रीय चेतना को अपनी कविताओं में स्थान दिया।
(क) भिखारी ठाकुर — भोजपुरी के “शेक्सपियर”
भिखारी ठाकुर (1887–1971) भोजपुरी के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि, नाटककार, गीतकार और लोककलाकार थे। उन्हें “भोजपुरी का शेक्सपियर” कहा जाता है। उन्होंने लोकनाट्य, गीत और सामाजिक व्यंग्य के माध्यम से भोजपुरी भाषा को नई गरिमा प्रदान की।
उनकी प्रमुख कृतियों में ‘बिदेसिया’, ‘गबरघिचोर’, ‘बेटी बेचवा’, ‘पिया गमन’ आदि शामिल हैं।
‘बिदेसिया’ विशेष रूप से उस समय के प्रवासी मजदूरों के जीवन की वेदना का प्रतीक बन गई। इस नाटक में उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार आर्थिक विवशता के कारण पुरुष विदेश (कलकत्ता) कमाने जाते हैं और पीछे गाँव में स्त्रियाँ अकेली रह जाती हैं।
भिखारी ठाकुर की भाषा अत्यंत जनसुलभ थी। उनके गीतों और संवादों में भोजपुरी की मिठास, व्यंग्य की धार और लोकजीवन की करुणा एक साथ मिलती है। वे केवल कवि नहीं, बल्कि जनसंवेदना के शिल्पी थे।
(ख) रघुवीर नारायण — राष्ट्रीय चेतना के कवि
रघुवीर नारायण (1884–1955) भोजपुरी कविता में आधुनिकता और देशभक्ति के अग्रदूत माने जाते हैं। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘बटोहिया’ गीत ने भोजपुरी साहित्य को राष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित किया। यह गीत प्रवासी भारतीयों और कामगारों के मन की पीड़ा और देशप्रेम की भावना को व्यक्त करता है —
“पियरी साड़ी पहिर के, बटोहिया निकल गइलऽ रे।”
इस गीत में भोजपुरी जनजीवन की आत्मा, प्रवासी के हृदय की कसक और मातृभूमि के प्रति अनुराग झलकता है। रघुवीर नारायण की कविताएँ सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित थीं।
(ग) हीरा डोम — दलित चेतना के अग्रदूत
हीरा डोम (1885–1924) भोजपुरी दलित साहित्य के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अछूत की शिकायत’ भोजपुरी ही नहीं, बल्कि समग्र हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक महत्व रखती है।
उन्होंने समाज की जड़ व्यवस्था और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध मुखर स्वर उठाया। उनकी कविता में विद्रोह, आत्मसम्मान और मानव समानता की भावना है। ‘अछूत की शिकायत’ को भारतीय समाज में सामाजिक क्रांति के स्वरूप के रूप में देखा जा सकता है।
(घ) राहुल सांकृत्यायन — ज्ञान, यात्रा और विचार के कवि
राहुल सांकृत्यायन (1893–1963) बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे — वे लेखक, दार्शनिक, इतिहासकार और समाज सुधारक सभी थे। उन्होंने भोजपुरी को ज्ञान और तर्क की भाषा बनाने का प्रयास किया।
उनकी रचनाओं में समाजवादी दृष्टिकोण, मानवतावाद और वैज्ञानिक चेतना झलकती है। राहुल सांकृत्यायन ने भोजपुरी में गद्य और पद्य दोनों में लेखन किया और इस भाषा को वैचारिक विमर्श का माध्यम बनाया।
(ङ) मनोज भावुक — समकालीन युग के प्रतिनिधि कवि
मनोज भावुक (जन्म 1976) आधुनिक भोजपुरी कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी ग़ज़ल-संग्रह ‘तस्वीर ज़िंदगी के’ ने भोजपुरी साहित्य को नई दिशा दी। वे भोजपुरी को आधुनिक संवेदना, शहरी जीवन और प्रवासी अनुभवों से जोड़ने वाले कवियों में अग्रणी हैं।
उनकी कविताओं में भाषा की परिष्कृत अभिव्यक्ति के साथ-साथ भोजपुरी की भाव-संवेदना का गहरा सम्मिश्रण दिखाई देता है।
अन्य प्रमुख कवि एवं रचनाकार
भोजपुरी साहित्य की यह परंपरा केवल कुछ नामों तक सीमित नहीं रही। इसके दायरे में अनेक कवि आए, जिन्होंने अपनी तरह से भाषा को समृद्ध किया।
इनमें बाबू रामकृष्ण वर्मा, तेग अली ‘तेग’, बिसराम, मनोरंजन प्रसाद सिन्हा, महेन्द्र मिश्र और लक्ष्मण झा जैसे कवि उल्लेखनीय हैं।
महेंद्र मिश्र का प्रसिद्ध गीत ‘लाल लाल ओढ़निया’ आज भी भोजपुरी लोक में अमर है। यह गीत न केवल प्रेम का प्रतीक है, बल्कि भोजपुरी लोकभावना की मधुरता का दर्पण भी है।
भोजपुरी कवियों का सामाजिक योगदान
भोजपुरी कवियों ने केवल कविता नहीं लिखी, बल्कि अपने समाज की अंतरात्मा को स्वर दिया। उन्होंने जनसाधारण के दुःख-सुख, शोषण, संघर्ष, प्रेम, भक्ति और उम्मीद को शब्द दिए।
कबीर ने सामाजिक सुधार का बिगुल फूँका, धरणीदास ने अध्यात्म को लोक में उतारा, भिखारी ठाकुर ने समाज की विसंगतियों को मंच पर प्रस्तुत किया, हीरा डोम ने समानता का नारा दिया, और मनोज भावुक जैसे कवियों ने आधुनिक जीवन के संघर्षों को स्वर प्रदान किया।
इन कवियों की रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि भोजपुरी मात्र बोलचाल की भाषा नहीं, बल्कि भाव, विचार और सामाजिक परिवर्तन की शक्ति है।
भोजपुरी भाषा के प्रमुख कवियों और उनकी प्रमुख रचनाओं की सारणी
| क्रम संख्या | कवि का नाम | काल/युग | प्रमुख रचनाएँ / रचनात्मक क्षेत्र | प्रमुख विषय / योगदान |
|---|---|---|---|---|
| 1 | संत कबीरदास | 15वीं सदी | साखियाँ, पद, दोहे | सामाजिक सुधार, निर्गुण भक्ति, जाति-विरोध, आध्यात्मिकता |
| 2 | धरणीदास | 16वीं सदी | निर्गुण भक्ति काव्य | लोकभाषा में अध्यात्म, मानवता और समानता का संदेश |
| 3 | धरमदास | 16वीं सदी | संतमत पदावली | आत्मा–परमात्मा एकत्व, संतमत दर्शन का प्रचार |
| 4 | भिखारी ठाकुर | 20वीं सदी (1887–1971) | बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी बेचवा, पिया गमन | सामाजिक व्यंग्य, प्रवासी जीवन, स्त्री-स्थिति, लोकनाट्य |
| 5 | रघुवीर नारायण | 20वीं सदी (1884–1955) | बटोहिया (गीत) | राष्ट्रीय चेतना, प्रवासी भारतीयों की व्यथा, देशप्रेम |
| 6 | हीरा डोम | 20वीं सदी (1885–1924) | अछूत की शिकायत | दलित चेतना, सामाजिक समानता, विद्रोही स्वर |
| 7 | राहुल सांकृत्यायन | 20वीं सदी (1893–1963) | भोजपुरी गद्य–कविता संग्रह | समाजवाद, मानवतावाद, वैज्ञानिक दृष्टि |
| 8 | महेंद्र मिश्र | 20वीं सदी प्रारंभ | लाल लाल ओढ़निया, लोकगीत | प्रेम, विरह, लोकभावना |
| 9 | मनोरंजन प्रसाद सिन्हा | 20वीं सदी | काव्य-संग्रह और निबंध | सामाजिक जागरूकता, लोकसंस्कृति |
| 10 | बाबू रामकृष्ण वर्मा | 20वीं सदी | गीत, नाटक | ग्रामीण जीवन, नैतिकता और शिक्षा |
| 11 | तेग अली “तेग” | 20वीं सदी | ग़ज़लें, गीत | प्रेम और मानवीय संबंध |
| 12 | मनोज भावुक | समकालीन (21वीं सदी) | तस्वीर ज़िंदगी के (ग़ज़ल संग्रह) | आधुनिक जीवन, प्रवासी अनुभव, शहरी संवेदना |
टिप्पणी:
- यह तालिका भोजपुरी भाषा की काव्य-परंपरा को “संतकाल से समकालीन युग” तक दर्शाती है।
- इसमें सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सभी आयामों के कवि सम्मिलित हैं।
निष्कर्ष
भोजपुरी कविता की यात्रा संतों की सरल भक्ति से शुरू होकर आधुनिक युग के बौद्धिक और सामाजिक चेतना तक पहुँचती है। यह भाषा हर युग में जीवित रही, क्योंकि इसके कवि लोक से जुड़े रहे।
कबीर से लेकर भिखारी ठाकुर, रघुवीर नारायण, हीरा डोम और मनोज भावुक तक — सभी कवियों ने भोजपुरी को जीवन की लय और समाज की संवेदना से जोड़ा।
भोजपुरी कविता आज भी गाँवों, कस्बों, प्रवासी समाजों और डिजिटल मंचों तक फैल रही है। इसने सिद्ध कर दिया है कि भाषा चाहे लोक की हो, यदि उसमें हृदय की सच्चाई है, तो वह कालातीत बन जाती है।
इस प्रकार, भोजपुरी कवियों की यह विस्तृत परंपरा न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक धारा में उस ‘लोकात्मा’ की पहचान है, जो हर युग में नई भाषा और नए स्वरूप में स्वयं को अभिव्यक्त करती रही है।
इन्हें भी देखें –
- भोजपुरी भाषा : इतिहास, विकास, लिपि, क्षेत्र, साहित्य और विशेषताएँ
- बिहारी हिन्दी : उत्पत्ति, बोलियाँ, विकास और विशेषताएँ
- बोड़ो या बड़ो भाषा : उत्पत्ति, विकास, लिपि, बोली क्षेत्र और सांस्कृतिक महत्व
- मणिपुरी या मैतेई भाषा : इतिहास, विकास, लिपि, वर्णमाला और विशेषताएँ
- हिंदी वर्णमाला- स्वर और व्यंजन | Hindi Alphabet
- संधि – परिभाषा एवं उसके भेद | Joining
- समास – परिभाषा, भेद और 100 + उदाहरण
- वर्तनी | परिभाषा, भेद एवं 50+ उदाहरण
- वाक्य | परिभाषा, भेद एवं 100+ उदाहरण
- भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति प्रक्रिया और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की नियुक्ति का संवैधानिक महत्व