मगध महाजनपद | Magadha Mahajanpadas | 544-322 ई. पू.

मगध महाजनपद दक्षिण बिहार के वर्तमान  पटना व गया जिले में  स्थित था। मगध महाजनपद सभी 16 महाजनपदों में सबसे शक्तिशाली जनपद के रूप में उभरा। मगध धीरे धीरे अन्य सभी राज्यों को स्वंय में समाहित कर भारत का प्रथम साम्राज्य बना। मगध का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है ।

इससे पता चलता है कि प्राय: उत्तर वैदिक काल तक मगध, आर्य सभ्यता के प्रभाव क्षेत्र के बाहर था। अभियान चिन्तामणि के अनुसार मगध को कीकट कहा गया है। मगध बुद्धकालीन समय में एक शक्‍तिशाली राजतन्त्रों में एक था। यह गौरवमयी इतिहास और राजनीतिक एवं धार्मिकता का विश्‍व केन्द्र बन गया। हालांकि ऋग्वेद में मगध का प्रत्यक्ष उल्लेख तो नहीं मिलता है, किंतु कीकट जाति और उसके राजा परमअंगद की चर्चा जरुर मिलती है जो कि संभवत इसी क्षेत्र से संबंधित है।

मगध महाजनपद का संक्षिप्त इतिहास

मगध महाजनपद के बारे में अधिक जानकारी हमें महाभारत और पुराणों से मिलती है। गंगा नदी घाटी के क्षेत्र में आने के कारण यह एक अत्यंत उपजाऊ क्षेत्र भी था। शतपथ ब्राह्मण में भी  इस क्षेत्र को  ‘कीकट’ कहा गया है।  इसकी प्रारम्भिक राजधानी राजगृह (वर्तमान राजगीर) थी जो चारो तरफ से पर्वतो से घिरी होने के कारण गिरिब्रज के नाम से भी जानी जाती थी और इसकी सीमायें हर तरफ से सुरक्षित थी।

राजगीर के ऐतिहासिक महत्त्व को बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों से जोड़ा गया है। इस महाजनपद को दो महानगरो में विभाजित किया जा जा सकता है- प्राचीन राजगीर एवं नवीन राजगीर। प्राचीन राजगीर पांच पहाड़ियों के बीच स्थित था जिसके चारों तरफ़ दोहरे पत्थर के सुरक्षा घेरे बने हुए थे जो बिम्बिसार के द्वारा बनवाए गए थे। नवीन राजगीर भी पत्थर की दीवारों से घिरा था और प्राचीन राजगीर के उत्तर में बसाया गया था। यह सुरक्षा घेरे 25 से 30 मील के दायरे में फैले थे और संभवतः अजातशत्रु  के द्वारा बनवाए गए थे।  बाद में वैशाली एवं पाटलिपुत्र इसकी राजधानियां बनी।

मगध महाजनपद

मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्‍चिम में सोन नदी तक विस्तृत थीं । मगध का सर्वप्रथम उल्लेख से सूचित होता है कि विश्वस्फटिक नामक राजा ने मगध में प्रथम बार वर्णों की परंपरा प्रचलित करके आर्य सभ्यता का प्रचार किया था। वाजसेनीय संहिता में मागधों या मगध के चारणों का उल्लेख है। मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी । यह पाँच पहाड़ियों से घिरा नगर था ।

किन्तु समय बीतने के साथ मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई। मगध राज्य ने तत्कालीन शक्‍तिशाली राज्य कौशल, वत्स व अवन्ति को अपने जनपद में मिला लिया । इस प्रकार मगध का विस्तार अखण्ड भारत के रूप में हो गया और प्राचीन मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास बना।

मगध साम्राज्य के वंश

  • बृहद्रथ वंश (1700 – 683 ईसा पूर्व)
  • प्रद्योत वंश (683 – 544 ईसा पूर्व)
  • हर्यक वंश (बिम्बिसार वंश), (544 – 413 ईसा पूर्व)
  • शिशुनाग वंश (413 – 345 ईसा पूर्व)
  • नन्द वंश (345 – 322 ईसा पूर्व)

बृहद्रथ वंश (1700 – 683 ईसा पूर्व)

संस्थापक – वृहद्रथ

मगध के सबसे प्राचीन वंश बर्हद्रथ  वंश का  संस्थापक वृहद्रथ था। उसने गिरिब्रज (राजगृह) को अपनी राजधानी बनाई थी। महाभारत का शक्तिशाली राजा जरासंध वृहद्रथ का पुत्र था। बर्हद्रथ वंश  6ठी सदी ई.पू. तक समाप्त हो गया और हर्यक वंश का  संस्थापक बिम्बिसार मगध की गद्दी पर 544 ई० पू०  बैठा।

प्रद्योत वंश (683 – 544 ईसा पूर्व)

प्रद्योत राजवंश प्राचीन भारत में राज्य करने वाला वंश था। 6वीं सदी ई. पू. ‘वीतिहोत्र’ नामक वंश ने हैहय राजवंश को हटाकर अवन्ति में अपनी राजनीतिक सत्ता की स्थापना की। परंतु इसके तुरंत बाद ही प्रद्योत राजवंश के शासकों ने वीतिहोत्रों के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। प्रद्योत वंश के अभ्युदय के साथ यहाँ के इतिहास के बारे में साक्ष्य मिलने शुरू हो जाते हैं।

पुराणों के अनुसार प्रद्योत राजवंश का अंतिम शासक नन्दिवर्धन था। मगध की बढ़ती शक्ति के समक्ष धीरे-धीरे अवन्ति कमज़ोर होता रहा। अंततः मगध नरेश शिशुनाग ने प्रद्योत राजवंश का अंत कर दिया तथा शूरसेन सहित अवन्ति राज्य को भी मगध में मिला लिया गया।

हर्यक वंश (बिम्बिसार वंश), (544 – 413 ईसा पूर्व)

संस्थापक – बिम्बिसार

हर्यक वंश को मगध साम्राज्य का प्रथम वास्तविक वंश माना जाता है, इस वंश को पितृहन्ता वंश के नाम से भी संबोधित किया जाता है क्योंकि इस वंश के ज्यादातर राजाओं द्वारा अपने पिता की हत्या कर राजगद्दी प्राप्त की गई थी। 

बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का समकालीन था और बौद्ध धर्म का अनुयायी बना। बिम्बिसार ने ब्रह्मदत्त को हराकर अंग राज्य को मगध में मिला लिया। और राजगृह का निर्माण कर उसे अपनी राजधानी बनाया। बिम्बिसार ने मगध पर करीब 52 वर्षों तक शासन किया। महात्मा बुद्ध की सेवा में बिम्बिसार ने ही राजवैद्य जीवक को भेजा।

मगध साम्राज्य

बिम्बिसार ने वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। इस कारण से वह काफी चर्चित रहा। उसने कोशल नरेश प्रसेनजित की बहन महाकोशला से, वैशाली के चेटक की पुत्री वेल्लना से तथा मद्र देश (आधुनिक पंजाब) की राजकुमारी क्षेमा से विवाह कर इन  राज्यों से मगध के अच्छे सम्बन्ध स्थापित किये। विवाह में उपहार के स्वरुप उसे कई क्षेत्र भी इन राजाओं से मिले। कौशल नरेश प्रसेनजीत से उसे दहेज स्वरूप काशी प्राप्त हुआ जो कि आर्थिक रूप से एक अत्यंत ही समृद्ध नगर हुआ करता था। दूसरी पत्नी राजकुमारी चेलान्ना के कारण उसके साम्राज्य की उत्तरी सीमा सुरक्षित हो गई।

अजातशत्रु

विम्बिसार की हत्या उसके पुत्र अजातशत्रु ने कर दी और वह 493 ई० पू० में मगध की गद्दी पर बैठा।  अजातशत्रु का उपनाम कुणिक था।  अजातशत्रु ने 32 वर्षों तक मगध पर शासन किया। अजातशत्रु प्रारंभ में जैनधर्म का अनुयायी था। किंतु महात्मा बुद्ध के सम्पर्क में आ कर उसने भी बौद्ध धर्म अपना लिया। अजातशत्रु के कुशल  मंत्री का नाम वर्षकार या वरस्कार  था जिसकी सहायता से अजातशत्रु ने वैशाली पर विजय प्राप्त की।

अजातशत्रु की प्रसिद्धि रथ – मूसल एवं महा -शीला- कंटक नामक दो नए अस्त्रों के प्रयोग के कारण है जिसका प्रयोग उसने वैशाली के विरुद्ध अपने युद्ध में किया था। अजातशत्रु की हत्या उसके पुत्र उदायिन ने 460 ई० पू० में कर दी और वह मगध की गद्दी पर बैठा। 

उदायिन (उदयन)

अजातशत्रु के अंतिम चरण में उसके पुत्र उदायिन ने भी अजातशत्रु के कर्मों की तरह अपने पिता अजातशत्रु की 460 ई० पू० में हत्या करके राजगद्दी प्राप्त की थी। 

इन्हीं सब घटनाओं की वजह से हर्यक वंश को पितृहन्ता वंश के नाम से भी संबोधित किया जाता है। 

उदायिन को ही  पाटिलग्राम (पाटलिपुत्र) की स्थापना का श्रेय जाता है जो आगे चलकर पटना बना। उदायिन के द्वारा गंगा, सोन और गंडक नदी के संगम में एक शहर बसाया गया जिसका नाम पाटलिपुत्र था और फिर पाटलिपुत्र को मगध की नई राजधानी बनाई थी। उदायिन जैनधर्म का अनुयायी था। उदायिन का पुत्र नागदशक हर्यक वंश का अंतिम राजा हुआ।

नागदशक

नागदशक उदायिन का का पुत्र था। यह अपने पिता की हत्या करके गद्दी पर बैठता है। बाद में इसके सेनापति शिशुनाग ने इसको गद्दी से हटा कर स्वयं राजा बन जाता है और हर्यक वंश को समाप्त कर एक नए वंश शिशुनाग वंश की स्थापना करता है।

शिशुनाग वंश (413 – 345 ईसा पूर्व)

संस्थापक – शिशुनाग

नागदशक को उसके मंत्री  शिशुनाग ने 412 ई० पू० में अपदस्य करके मगध पर शिशुनाग वंश की स्थापना की। शिशुनाग ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से हटाकर वैशाली में स्थापित की। शिशुनाग का उत्तराधिकारी कालाशोक या काकवर्ण पुनः राजधानी को पाटलिपुत्र ले  गया।  

कालाशोक 

शिशुनाग के बाद उसका पुत्र कालाशोक राजा की गद्दी पर बैठा और उसके द्वारा फिर से वापस मगध की राजधानी को पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दिया गया था।  अब फिर से मगध की राजधानी पाटलिपुत्र बन गई थी।  कालाशोक के शासनकाल में ही दूसरी बौद्ध संगीति या सभा का आयोजन कराया गया था। शिशुनाग वंश का अंतिम राजा नंदिवर्धन हुआ।

नंदिवर्धन  

नंदिवर्धन शिशुनाग वंश का अंतिम शासक था। इसके बाद मगध में  नंदवंश की स्थापना हुई।

नन्द वंश (345 – 322 ईसा पूर्व)

शिशुनाग वंश के बाद मगध साम्राज्य में नन्द वंश की स्थापना हुई, इस वंश में 10 राजा या शासक हुए थे, पर जानकारी सिर्फ प्रथम और अंतिम शासक के बारे में ही प्राप्त होती है

संस्थापक – महापदमनन्द

नन्दवंश का संस्थापक महापद्म नंद था। कई ग्रन्थों में उसे उग्रसेन कहा गया है, और इनको बहुत ही प्रभावशाली और शक्तिशाली राजा के रूप में देखा जाता है। इन्होंने अपनी प्रतिष्ठा में “एकराट” नामक उपाधि धारण की थी और यह उपाधि धारण करने वाले यह भारत के प्रथम राजा थे।  बहुत ही प्रभावशाली और शक्तिशाली होने के कारण, पुराणों के अनुसार इन्हें परशुराम का दूसरा अवतार या रूप भी कहा जाता है। 

इन्होंने कलिंग जो वर्तमान ओडिशा का क्षेत्र है उस पर आक्रमण करके उसे जीत लिया था और उसे मगध साम्राज्य में मिला लिया था। महापदमनन्द जैन धर्म का अनुयायी था और कलिंग विजय के बाद वहां की एक जैन मूर्ति जो की “जिनसेन” की मूर्ति थी उसे लेकर मगध आ गया था। 

इन्होंने अपनी कलिंग की विजय के पश्चात इस क्षेत्र में नहरों का निर्माण भी करवाया था, इसके प्रमाण हमें कलिंग में स्थित हाथी गुफाओं से प्राप्त होते हैं, जहाँ यह लिखा हुआ प्राप्त हुआ है की महापदमनन्द द्वारा कलिंग में नहरों का निर्माण करवाया गया था और इन हाथी गुफाओं का निर्माण राजा खारवेल द्वारा करवाया गया था। 

घनानंद 

घनानंद नन्द वंश का अंतिम शासक था और इन्हें एक क्रूर राजा या शासक के रूप में देखा जाता है। इनकी प्रशासन व्यवस्था बहुत ही क्रूर और कठोर थी और इसके कारण इनकी प्रजा इनसे काफी दुखी थी। इसके शासनकाल के समय भारत के उत्तरी-पश्चिमी भागों पर सिकंदर का आक्रमण होता है, जो की यूनानी शासक था। इसी समय यूनानी और ईरानी आक्रमण भारत में हुए थे। 

घनानंद के दरबार में चाणक्य रहा करते थे, जिन्हें हम कौटिल्य के नाम से भी संबोधित करते हैं, जैसे की घनानंद एक क्रूर राजा था तो घनानंद द्वारा एक बार चाणक्य का अपमान किया जाता है जिसके बाद चाणक्य वहां से चले जाते हैं और चन्द्रगुप्त मौर्य को तैयार करके घनानंद पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर मौर्य वंश का शासन कराते हैं। 

मगध महाजनपद का विस्तार

मगध राज्य का विस्तार उत्तर में गंगा, पश्‍चिम में सोन तथा दक्षिण में जगंलाच्छादित पठारी प्रदेश तक था। पटना और गया ज़िला का क्षेत्र प्राचीनकाल में मगध के नाम से जाना जाता था। मगध प्राचीनकाल से ही राजनीतिक उत्थान, पतन एवं सामाजिक-धार्मिक जागृति का केन्द्र बिन्दु रहा है। मगध महात्मा बुद्ध के समकालीन एक शक्‍तिकाली व संगठित राजतन्‍त्र था । गौतम बुद्ध के समय में मगध में बिंबिसार और तत्पश्चात् उसके पुत्र अजातशत्रु का राज था।

मगध महाजनपद

इस समय मगध की कोसल जनपद से बड़ी अनबन थी यद्यपि कोसल-नरेश प्रसेनजित की कन्या का विवाह बिंबिसार से हुआ था। इस विवाह के फलस्वरूप काशी का जनपद मगधराज को दहेज के रूप में मिला था। यह मगध के उत्कर्ष का समय था और परवर्ती शतियों में इस जनपद की शक्ति बराबर बढ़ती रही।

चौथी सदी ई.पू. में मगध के शासक नव नंद थे। इनके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के राज्यकाल में मगध के प्रभावशाली राज्य की शक्ति अपने उच्चतम गौरव के शिखर पर पहुंची हुई थी और मगध की राजधानी पाटलिपुत्र भारत भर की राजनीतिक सत्ता का केंद्र बिंदु थी। मगध का महत्त्व इसके पश्चात् भी कई सदियों तक बना रहा और गुप्त काल के प्रारंभ में काफ़ी समय तक गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र ही रही।

महान कवि कालिदास के समय (संभवत: 5वीं सदी ई.) में भी मगध की प्रतिष्ठा पूर्ववत् थी क्योंकि रघुवंश में इंदुमती के स्वयंवर के प्रसंग में मगधनरेश परंतप का भारत के सब राजाओं में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है। इसी प्रसंग में मगध-नरेश की राजधानी को कालिदास ने पुष्पपुर में बताया है।

यहाँ के प्रमुख पारंपरिक उद्योगों में वस्र-उद्योग, मिष्टान्न उद्योग बांस से उत्पादित वस्तु उद्योग, पाषाण एवं काष्ठ मूर्ति उद्योग, वाद्य यंत्र उद्योग, ऊन एवं कंबल उद्योग, हस्तकला के अन्य उद्योग, शराब एवं ताड़ी उद्योग मुख्य थे। 

मगध के उत्थान के कारण

भारत पहले 16 महाजनपदों में विभक्त था। जिसमे से एक महाजनपद मगध था। मगध महाजनपद काफी शक्तिशाली जनपद था।  कालांतर में मगध महाजनपद इन सभी महा जनपदों को परास्त कर इन सभी महाजनपदों पर अपना प्रभुत्व स्तापित करने में सफल रहा। इस प्रकार से मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली हो कर उभरा और भारत का प्रथम साम्राज्य बना। इतिहासकारों ने मगध के साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उत्थान के पीछे  निम्न कारण बताए हैं :

  • मगध की भौगोलिक स्थिति:- मगध की राजधानी राजगृह एवं पाटलिपुत्र प्राकृतिक सीमाओं से सुरक्षित थी। राजगृह पहाड़ियों से और पाटलिपुत्र नदियों से घिरा हुआ था। इसलिए इस पर बाहरी आक्रमण सम्भव नहीं था। अतः यहाँ के राजाओं को राज्य विस्तार का अवसर प्राप्त हुआ, जिसका लाभ उन लोगों ने उठाया। साथ ही वे बाहरी आक्रमणों से भी बहुत हद तक सुरक्षित रहे।
  • आर्थिक सम्पन्नता:- इस राज्य में कृषि, उद्योग और व्यापार की उन्नत स्थिति थी। मगध का राज्य गंगा के उपजाऊ मैदान में आता था और साथ ही यहाँ लोहे के भी प्रचुर खान उपलब्ध थे। ये लोहे के खान अब ज्यादातर झारखण्ड में आते हैं। लोहे के ये खान होने के कारण कृषि के उपकरण और युद्ध के लिए शस्त्र आदि बनाने में काफी सहूलियत मिली । ये लोहे के खान कृषि तथा औजार दोनों में अत्यंत लाभाकरी थे। राज्य को भरपूर कर की प्राप्ति होती थी, जिसके बल पर सेना का गठन कर साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया गया।
  • सैनिक संगठन:- मगध में सुदृढ़ सैन्य व्यवस्था थी। इसके पास हाथी की टुकड़ी थी, जो दलदली  क्षेत्र में घोड़े से अधिक उपयुक्त थी। इसके अलावा मगध की सेना युद्ध के नए अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। मगध की सैनिक सर्वोच्चता ने मगध के उत्कर्ष में प्रमुख भूमिका निभाई।
  • मगध के शासकों की नीतियां :- प्रारंभिक जैन धर्म और बौद्ध धर्म के लेखकों ने मगध की महत्ता का कारण विभिन्न शासकों की नीतियों को बताया है। इन लेखकों के अनुसार बिंबिसार, अजातसत्तु ,अशोक , चन्द्रगुप्त और महापद्मनंद जैसे प्रसिद्ध राजा अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक थे, और इनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे। मगध में अनेक साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के शासक हुए, जिन्होंने युद्ध एवं कूटनीति द्वारा मगध की सीमा का विस्तार किया। बिम्बिसार की “विवाह के द्वारा कुटनीतिक प्रसार की नित “ अत्यंत सफल रही।

नगरीकरण का काल

छठी सदी ईसा पूर्व का काल आर्थिक प्रगति एवं द्वितीय नगरीकरण का काल कहलाता है। इस काल में कृषि में लोहे का प्रयोग शुरू हुआ ,पक्की ईंटों का प्रयोग अधिक किया जाने लगा और सैन्य हथियारों में भी लोहे के प्रयोग के कारण एक क्रांति आई। साम्राज्य का उदय प्रारंभ हुआ और इस प्रकार नगरों के विकास के कारण रोजगार एवं व्यवसाय के भी नए-नए सृजन हुए । अरण्यकों  में पहली बार “नगर” शब्द का उल्लेख किया गया है। इस काल में कुल 60 नगरों की जानकारी मिलती है। बुद्ध कालीन 6  प्रमुख नगर राजगिरी, चंपा, कौशांबी, साकेत, श्रावस्ती एवं वाराणसी थे।

महाजपदों का जीवन, व्यवसाय व व्यापार

महाजनपदों में से अधिकांश व्यापारिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण थे क्योंकि वे भरत के मुख्य व्यापारिक मार्गों पर स्थित थे और इनके सहारे बहुमूल्य सामानों का यातायात होता था। महाजनपदों में इस समय तक विभिन्न प्रकार के व्यवसाय भी प्रचलित हो चुके थे, जिनमे व्यापार व कृषि के अतिरिक्त पशुपालक, दर्जी, हजाम, रसोइये, धोबी, रंगरेज इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है । 

शासकों के द्वारा विभिन्न प्रकार के विशेषज्ञों को भी बहाल किया जाता था, जिनमें  पैदल योद्धा, धनुर्धारी ,घुड़सवार, हाथी पर युद्ध करने वाले तथा रथ चलाने वाले  सभी थे। नगरीय व्यवसायों में वैद्य, शल्य चिकित्सक  तथा लेखाकार भी सम्मिलित थे मुद्रा विनिमय-करता  और गणना भी नगरीय व्यवसाय में आता था। नट (कलाकार या रंगकर्मी), नटक (नर्तक), शोकजयिक (जादूगर), नगाड़ा बजाने वाले , भविष्यवक्ता  इत्यादि की भी चर्चा ऐतिहासिक स्रोतों में की गयी है।

महाजनपदों में मेले भी आयोजित होते थे जिन्हें “समाज” कहा जाता था। विभिन्न प्रकार के शिल्पों का भी उल्लेख हमें मिलता है।  इनको बनाने वाले शिल्पकार नगरों में रहते थे।इनमें यानकार, दंतकार (हाथी दांत की वस्तु बनाने वाले), कर्मकार (धातु का काम करने वाले), स्वर्णकार, कोशीयकार (रेशम का काम करने वाले), पालकण्ड (बढ़ई), सूचीकार (सुई बनाने वाले), नलकार और मालाकार तथा कुम्भकार(कुम्हार) प्रमुख हैं। विभिन्न प्रकार के श्रेणी सन्गठन का होना भी इस काल की एक प्रमुख विशेषता थी। महाजनपदों के समय ही पहली बार मुद्रा का भी प्रोग किया गया । इतिहास में पहली बार मुद्रा का प्रयोग इस काल की एक अन्यअहम विशेषता है । 

इस काल में निर्मित सिक्कों को आहत सिक्का कहा जाता था जो आमतौर पर चांदी के होते थे। इसी समय कार्षापन, पाद, मासिक, काकिर्ण आदि सिक्कों का भी उल्लेख मिलता है। आहत सिक्का जिसे पंचमार्क सिक्का भी कहते हैं, भारत का प्राचीनतम सिक्का है। इसके प्रथम प्रमाण तक्षशिला में मिलते हैं। क्योंकि तक्षशिला गांधार क्षेत्र में आता था इसीलिए कई बार इसे गांधारण सिक्का  भी कहा जाता है | 

महाजनपदों की राजनैतिक व्यवस्था

महाजनपदों में आमतौर पर राजतन्त्र था जहाँ  राजा का शासन होता था लेकिन गण और संघ के भी उल्लेख ऐतिहासिक स्रोतों में मिलते हैं। ऐसे  राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था और  इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। जैन  महावीर और गौतम  बुद्ध ऐसे ही गणों से संबंधित थे। जैन महावीर वज्जी संघ के ग्यात्रिक  कुल के थे, जबकि बुद्ध का सम्बन्ध शक्य गण से था। बुद्ध के पिता सुद्दोधन कपिलवस्तु के शाक्य गण के राजा थे। इनके अतिरिक्त कई अन्य महत्वपूर्ण गण इस प्रकार थे –

  • रामग्राम के कोलिय- यह राज्य शाक्यों के पूर्व में बसा हुआ था। दोनों राज्यों की विभाजक रेखा रोहिणी नदी थी और  नदी-जल के बँटवारे के लिए दोनों राज्यों में संघर्ष चलते रहते थे।  
  • पावा के मल्ल- यह महावीर की निर्वाण स्थली थी। 
  • कुशीनारा के मल्ल- यह गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली थी।  
  • मिथिला के विदेह- विदेह की राजधानी मिथिला थी। यह वज्जि संघ का ही एक  घटक राज्य था।
  • पिप्पलीवन के मोरिय- यह गणराज्य नेपाल की तराई में स्थित था, और  मौर्यों से इनका  सम्बन्ध जोड़ा जाता है।
  • सुसुमार के भग्ग- यह राज्य आधुनिक  मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश के निकट स्थित था। 
  • अल्लकप्प के वुलि- वुलि,शाहाबाद और मुजफ्फरपुर के मध्य बसा हुआ अल्लकप्प राज्य का भाग था।
  • केसपुत्त के कालाम- यह एक छोटा-सा गणराज्य था। गौतम बुद्ध के गुरु आलार कलाम यहीं के आचार्य थे। यहाँ का प्रसिद्ध नगर केसपुत्त गोमती नदी के तट पर बसा हुआ था। 
  • वैशाली के लिच्छवि- यह गण वृज्जि संघ का घटक था। इस संघ में सबसे प्रमुख लिच्छवि ही थे।  लिच्छवियों को  परम्परा पर आधारित न्याय-व्यवस्था के लिए जाना जाता है। लिच्छवि गणराज्य को विश्व का पहला गणतंत्र माना जाता है।

वज्जि संघ की ही भाँति कुछ राज्यों में भूमि सहित अनेक आर्थिक स्रोतों पर राजा गण सामूहिक नियंत्रण रखते थे। यद्यपि स्रोतों के अभाव में इन राज्यों के इतिहास की पूरी जानकारी नहीं मिलती,  लेकिन ऐसे कई राज्य लगभग एक हज़ार साल तक बने रहे। प्रत्येक महाजनपद की राजधानी को  प्राय: किले से घेरा जाता था। किलेबंद राजधानियों के रख-रखाव और प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए  आर्थिक राजस्व स्रोत की भी आवश्यकता होती थी, जिसके लिए शासक व्यापारियों, शिकारियों, चरवाहों, कृषकों और शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलते थे।

इन राजाओं ने नियमित सेनाएँ रखीं। फसलों पर आमतौर पर उनके मूल्य के 1/6 भाग पर कर लगाया जाता था। इन राज्यों की कुछ विशेषताएं भी थी। इनका प्रमुख एक निर्वाचित राजा होता था जिसके कारण गण में विद्रोह की संभावना कम रहती थी। जनता आमतौर पर अनुशासन प्रिय थी, एवं राज-आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझती थी। बदले में प्रशासन भी उदार हुआ करता था और जनता के हित में होता था। न्याय एवं सुरक्षा पर विशेष बल दिया जाता था। साथ ही आपसी सदभाव भी कायम रखना इन गणों का दायित्व था।


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