मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय, रचनाएं एवं भाषा शैली

हिन्दी साहित्य में लोकप्रियता की दृष्टि से मुंशी प्रेमचंद का विशेष स्थान है। मुंशी प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी, विशेषकर रूस में, खासा लोकप्रिय हैं। मुंशी प्रेमचंद जी उपन्यास सम्राट तो थे ही, उसके साथ वह अपने समय में भारतीय जनता के हृदय सम्राट भी बन गए थे। एक साहित्यकार के रूप में उन्होंने काफी प्रसिद्धि हासिल किया।

उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन साहित्य की साधना में ही समर्पित कर दिया था। हिंदी और उर्दू साहित्य में मुंशी प्रेमचंद के विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य में सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक हैं। इनकी कहानियां और उपन्यास सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं। उन्होंने अपने जीवन में 300 से अधिक कहानियां, एक दर्जन से अधिक उपन्यास, निबंध, आलोचना, लेख और संस्मरण जैसी अनेक विधाओं में साहित्य का सृजन किया। 

प्रेमचंद आधुनिक कथा साहित्य में नये युग के संस्थापक थे। कुछ लोग उन्हें भारत का गोर्की कहते हैं, और कुछ उन्हें हार्डी के रूप में देखते हैं क्योंकि उन्होंने अपने कार्यों में ज्यादातर ग्रामीण परिवेश का चित्रण किया है। मुंशी प्रेमचंद जी को कथा सम्राट और उपन्यास सम्राट नाम से भी संबोधित किया जाता है।

उपन्यास के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद जी के विशेष योगदान को देखकर बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार ‘शरतचंद्र चट्टोपाध्याय’ ने प्रेमचंद जी को ‘उपन्यास सम्राट’ कहकर संबोधित किया था। 

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मुंशी प्रेमचंद जी का संक्षिप्त परिचय

वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव 
प्रचलित नामनवाब राय, मुंशी प्रेमचंद 
जन्म31 जुलाई, 1880
जन्म स्थानलमही, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
पिता का नामअजायब राय
माता का नामआनंदी देवी 
पत्नी का नाम शिवरानी देवी 
संतान श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव
पेशा लेखक, अध्यापक, पत्रकार
कालआधुनिक काल
विधाकहानी, उपन्यास और निबंध 
भाषा उर्दू, हिंदी 
प्रमुख कहानियांपंच परमेश्वर, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा, ठाकुर का कुआं, सवा सेर गेहुँ ,नमक का दरोगा आदि। 
प्रमुख उपन्यास रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, सेवासदन, गोदान आदि 
प्रमुख नाटक कर्बला, वरदान, संग्राम, प्रेम की वेदी  
संपादन माधुरी, मर्यादा, हंस, जागरण 
प्रगतिशील लेखक संघप्रथम अध्यक्ष  (1936)
निधन 08 अक्टूबर 1936 

मुंशी प्रेमचंद जी का जीवन परिचय

प्रेमचंद का जन्म 1 जुलाई, 1880 को बनारस (अब वाराणसी) से लगभग छह मील दूर एक गाँव लमही में हुआ था। उनके पिता का नाम अजायब राय और माता का नाम आनंदी देवी था। उनकी तीन बहनें और एक छोटा भाई भी था। उनकी दो बहनों की बचपन में ही असामयिक मृत्यु हो गई।

प्रेमचंद का परिवार मूलतः किसान था। उस समय खेती से गुजरा नहीं हो पा रहा था, घर का खर्च मुश्किल से चलता था। जिसके कारण प्रेमचंद के पिता जी ने डाकघर में नौकरी कर ली। उनके पिता का हर कुछ महीनों में तबादला हो जाता था। बांदा से बस्ती, बस्ती से आज़मगढ़, गोरखपुर, कानपुर, लखनऊ। नवाब को यात्रा करना बहुत पसंद था। यात्रा के विचार मात्र से ही वह खुशी से झूम उठते थे।

मुंशी प्रेमचंद जी की शिक्षा

प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद के परिवार वाले उन्हें ‘नवाब’ कहते थे। जब वह आठ वर्ष के थे, उसी समय उनकी माता आनंदी देवी का देहांत हो गया था। बाद में उनके पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। प्रेमचंद जी माँ के प्यार और स्नेह से हमेशा वंचित रहे। फिर उन्हें पास के गाँव के एक स्कूल (मदरसा) में पढ़ने की अनुमति दी गई। इस समय शिक्षा में फ़ारसी और उर्दू भाषाएँ विशेष महत्वपूर्ण थीं।

यह स्कूली जीवन उनके लिए बहुत दिलचस्प था। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद, शुरुआत के कुछ वर्षों तक स्कूल में अध्यापक रहे। नौकरी के साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। 1910 में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास लेकर इण्टर किया और 1919 में अंग्रेजी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी. ए. किया। बी.ए पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के सब-डिप्टी इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।

प्रेमचंद का विद्यार्थी जीवन बहुत ही संघर्ष भरा रहा। स्कूल में अध्यापक रहने के साथ वह बच्चों को टयुसन भी पढाते थे, तथा खुद रात को खाने के बाद वे मिट्टी के दीये की रोशनी में अपनी पढाई करते थे। मुंशी प्रेमचंद एक वकील बनना चाहते थे लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उनका यह सपना हमेशा के लिए अधूरा रह गया। 

प्रेमचंद जी का वैवाहिक जीवन

अपनी माँ की मृत्यु के बाद नवाब को सबसे ज्यादा स्नेह अपनी बड़ी बहन से मिला। जब उनकी बहन की शादी हो गई तो नवाब अकेले रह गए। प्रेमचंद की शादी तब हो गई जब वे लगभग पंद्रह वर्ष के थे। उनकी पत्नी का स्वभाव अच्छा नहीं था। पारिवारिक समस्याओं और आर्थिक तंगी के कारण सन 1905 में एक दिन प्रेमचंद जी को अकेला छोड़कर उनकी पत्नी हमेशा के लिए अपने मायके चली गयी, और कभी वापस नहीं लौटी।

बाद में नवाब (प्रेमचंद) ने 1906 में एक नाबालिग विधवा शिवरानी देवी से विवाह कर लिया। इस विवाह से उनकी तीन संतानें हुईं जिनके नाम हैं, श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी। शिवरानी देवी को साहित्य से बड़ा लगाव था। प्रेमचंद जी का साथ पाकर वह आगे चलकर एक महान साहित्यकार बनी। प्रेमचंद की मृत्यु के बाद उन्होंने “प्रेमचंद घर में” नामक एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। यह पुस्तक प्रेमचंद जी के जीवन पर आधारित थी।

शिवरानी देवी द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद घर में’ नाम से मुंशी प्रेमचंद जी की जीवनी सन 1944 ई. में प्रकाशित हुई। अपनी इस पुस्तक के माध्यम से शिवरानी देवी जी द्वारा मुंशी प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व के उन पहलुओं को उजागर किया गया है जिनसे लोग अनभिज्ञ थे। इसके बाद उनके पुत्र ‘अमृत राय’ ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवन लिखी जो सन 1962 में प्रकाशित हुई। 

मुंशी प्रेमचंद जी: एक उपन्यासकार का उदय

प्रेमचंद जी एक बार अपने पिता जी के साथ गोरखपुर में थे, उस समय उनकी मुलाकात बुद्धिलाल नाम के एक पुस्तक विक्रेता से हुई। उस समय उनकी उम्र लगभग तेरह वर्ष थी। उन्हें हिंदी नहीं आती थी। उन्हें उर्दू उपन्यास बहुत पसंद थे। मौलाना शरर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसबा और हरदोई के मौलवी मुहम्मद अली आदि उस समय के प्रसिद्द उपन्यासकार हुआ करते थे। उस समय रेनॉल्ड्स के उपन्यास भी बहुत लोकप्रिय थे। प्रेमचंद जी को इनके उपन्यास पढने में काफी दिलचस्पी थी।

प्रेमचंद ने सन् 1901 में कहानी लिखना शुरू किया। उन्होंने पहली कहानी ‘’दुनिया का सबसे अनमोल रतन’’ उर्दू में लिखी थी, जो बहुत चर्चित हुई। इस कहानी की शैली तो उस जमाने की तरह ही पुरानी है, लेकिन इसमें नई बात यह कही गई थी कि देश की आजादी की लड़ाई में बहाए गए खून का एक कतरा दुनिया के महँगे-से-महँगे रत्न से ज्यादा कीमती है।

उस समय भारत ब्रिटिश हुकूमत के अधीन था और देशभर में आजादी के लिए अनेकों आंदोलन हो रहे थे। प्रेमचंद ने भी आवाम पर हो रहे शोषण, दुख, दर्द और ज़्यादती को गहराई से समझा और उसे अपनी लेखनी का आधार बनाया। प्रेमचंद जी ने देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत कई कहानियाँ लिखीं, इन कहानियों में सन् 1908 में छपीं एक कहानी ‘सोजे वतन’ काफी प्रसिद्ध हुई। यह पुस्तक समाज और स्वाधीनता-संग्राम सेनानियों में बेहद चर्चित हुई। सरकारी अधिकारी चौकन्ने हो गए। यह पुस्तक नवाबराय के नाम से प्रकाशित हुई थी। उन दिनों वे हमीरपुर जिले में शिक्षा विभाग डिप्टी इंस्पेक्टर के पद पर काम करते थे।

कथा-संग्रह (जिसमे सोजे वतन नामक कहानी भी थी) छपने के लगभग छह महीने बाद एक दिन वहां के जिलाधिकारी ने नवाबराय को बुलवाया। नवाब बैलगाड़ी तैयार कराकर, रात भर में तीस-चालीस मील का सफर तय करके सुबह वहाँ पहुँचे। जिलाधिकारी के सामने उनकी पुस्तक की एक प्रति रखी हुई थी। उसे देखते ही नवाब का दिल धड़कने लगा।

मुंशी प्रेमचंद जी को इस बात का पता पहले से था कि इस पुस्तक के लेखक को तलाश किया जा रहा है। वहां पर उन्हें एहसास हुआ कि उनको सजा देने के लिए ही बुलाया गया है।

जिलाधिकारी ने पूछा, “क्या तुम्हीं ने यह पुस्तक लिखी है ?”

नवाब ने स्वीकार किया कि वह पुस्तक उन्होंने ही लिखी है।

जिलाधिकारी ने हर कहानी के विषय में नवाब से पूछा। नवाब ने उसके हर सवाल का निडरता से जवाब दिया।

आखिर उसका पारा एकदम चढ़ गया। उसने कहा, “तुम्हारी कहानियों में बगावत भरी हुई है। तुम खुशकिस्मत हो कि यह ब्रिटिश सरकार है। अगर यह मुगल सरकार होती तो तुम्हारे दोनों हाथ काट डाले गए होते।”

अंत में जिलाधिकारी ने फैसला सुनाया कि पुस्तक की सारी प्रतियाँ सरकार के हवाले कर दी जाएँ और भविष्य में वे जिलाधिकारी की इजाजत के बगैर कुछ भी न लिखें। इसके पश्चात वर्ष 1910 में उनकी उर्दू रचना ‘सोजे़ वतन’ की प्रतियों को ब्रिटिश हुकुमत ने जब्त कर लिया और उस पर प्रतिबंध लगा दिया। 

नवाब राय से प्रेमचंद | प्रेमचंद नाम से किया लिखना शुरू

मुंशी प्रेमचंद जी जो नवाबराय नाम से लिखते थे, उनकी रचना सोजे वतन को ब्रिटिश हुकूमत ने जब्त कर लिया। तथा उनको हिदायत दिया की वह भविष्य में बगैर इजाजत लिए कुछ भी नहीं लिखेंगे। इस घटना के बाद से मुंशी प्रेमचंद जी को काफी दुःख हुआ और वो लिखना चाहकर भी नहीं लिख पा रहे थे।

एक दिन उनकी मुलाकात उनके मित्र ‘दयानारायण निगम’ से हुई। दयानारायण निगम उस समय उर्दू भाषा में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘ज़माना’ के संपादक थे। उन्होंने मुंशी जी को एक नए नाम “प्रेमचंद” से लिखने की सलाह दी। जिसे मुंशी जी ने स्वीकार कर लिया और इस तरह वह नवाबराय से ‘प्रेमचंद’ हो गए। इस घटना के बाद उन्होंने ‘प्रेमचंद’ के नाम से लिखना जारी रखा, और अपने जीवन के बाद भी वह इसी नाम से जाने गए। 

प्रेमचंद जी: सरकारी नौकरी और अनुभवों का साहित्यिक आयाम

सन् 1918 में प्रेमचंद का बहुचर्चित उपन्यास ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ, जिसमें वेश्या-समस्या का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है।

प्रेमचंद के इस लेखन में उनकी सरकारी नौकरी का बड़ा योगदान रहा था, जिसमें हर दो-तीन साल के बाद उनका तबादला हो जाता था। इतनी जल्दी-जल्दी तबादला होने से यद्यपि उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ा, तथापि इन तबादलों के कारण हर जगह उन्हें नए-नए लोग मिलते और नित नए अनुभव होते। ये अनुभव एक लेखक के लिए सबसे बड़ी पूँजी होते हैं। प्रेमचंद ने अपनी विभिन्न कहानियों और उपन्यासों में इन अनुभवों का उपयोग किया है।

प्रेमचंद जी: असहयोग आंदोलन 

सन् 1920 में महात्मा गांधी के विचारों एवं कार्यों से प्रभावित होकर प्रेमचंद ने नौकरी छोड़ दी और असहयोग आंदोलन में कूद पड़े तथा जेल भी गए। इसके बाद प्रेमचंद ने कुछ अरसे के लिए खादी की दुकान खोली, लेकिन उन्हें जल्दी ही यह एहसास हो गया कि दुकान चलाना उनके बस की बात नहीं है। तब उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम बढ़ाया। एक स्थानीय पत्र में संपादक बनने की कोशिश की। मगर जब उसका भी कोई नतीजा न निकला तो बनारस में कुछ महीने तक उन्होंने हिंदी मासिक ‘मर्यादा’ में संपादक की हैसियत से काम किया। बाद में उन्होंने ‘माधुरी’, ‘हंस’, ‘जागरण’ आदि पत्रिकाओं का भी संपादन किया।

प्रेमचंद जी: एक साहित्यिक योद्धा का आदर्शित जीवन और लेखन

सन् 1922 में प्रेमचंद का एक और महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ प्रकाशित हुआ, जिसमें किसानों और जमींदारों के संबंधों का सजीव चित्रण किया गया है। सन् 1923 में प्रेमचंद ने अपने गाँव में बराबर रहने और वहाँ से चार मील दूर शहर में एक प्रेस और प्रकाशन गृह स्थापित करने का फैसला किया।

सन् 1925 में प्रेमचंद का वृहद् उपन्यास ‘रंगभूमि’ प्रकाशित हुआ, जिसमें प्रेम, त्याग और बलिदान का आदर्श प्रस्तुत किया गया था। इसके बाद सन् 1926 में ‘कायाकल्प’, 1928 में ‘गबन’, 1932 में ‘कर्मभूमि’, 1933 में ‘निर्मला’ और 1936 में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ। ‘गोदान’ प्रेमचंद का श्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है, जिसमें शोषित भारतीय किसानों के जीवन की समस्याओं का मार्मिक चित्रण है।

प्रेमचंद की कहानियों के संग्रह अनेक नामों से बाजार में उपलब्ध हैं, परन्तु उनकी समस्त कहानियों का एकत्र संग्रह ‘मानसरोवर’ के नाम से आठ भागों में प्राय: उनके समय से ही प्रसिद्ध है। उपन्यास और कहानी के अलावा प्रेमचंद ने नाटक, निबंध, जीवनी आदि विधाओं में भी अपनी लेखनी चलाई है।

प्रेमचंद के उपन्यासों को अपने युग की परिस्थितियों एवं समस्याओं का दर्पण कहा जा सकता है। अपने उपन्यासों में प्रेमचंद ने देश के आहत स्वाभिमान एवं भारत की परतंत्रता की पीड़ा को मुखरित किया है। उनकी रचनाओं में मुखरित उनका जीवन-दर्शन सेवा का जीवन-दर्शन है।

प्रेमचंद: फिल्मी संसार में यात्रा और पुनः साहित्यिक मार्ग पर वापसी

इसको एक विडंबना ही कहा जा सकता है कि हिंदी के ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति जिनको कथा सम्राट् और उपन्यास सम्राट कहा गया, उनका सम्पूर्ण जीवन प्राय: गरीबी से संघर्ष करते हुए ही बीता। ऐसे ही समय में बंबई के अजंता सिनेटोन के मोहन भवनानी ने उन्हें बंबई आने और फिल्मों के लिए कहानियाँ लिखने का आमंत्रण दिया। प्रेमचंद जी फिल्मी दुनिया में कदम नहीं रखना चाहते थे, लेकिन इसके अलावा उनके पास कोई रास्ता भी नहीं बचा था, क्योंकि उन पर कर्ज का बोझ बढ़ता ही जा रहा था। मजबूरन प्रेमचंद ने एक साल के अनुबंध पर दस्तखत कर दिए।

सन् 1934 में उन्होंने अजंता सिनेटोन नामक कंपनी से समझौता करके फिल्मी संसार में प्रवेश किया। वह बंबई (मुंबई) पहुँचे और ‘मिल मजदूर’ तथा ‘शेरे दिल औरत’ नामक दो कहानियाँ लिखीं। ‘सेवासदन’ को भी परदे पर दिखाया गया। लेकिन प्रेमचंद निष्कपट व्यक्ति थे। फिल्म निर्माताओं का मुख्य उद्देश्य जनता का पैसा लूटना था। परन्तु मुंशी प्रेमचंद जी का उद्देश्य यह नहीं था। उनका ध्येय था कि वे जन जीवन में परिवर्तन करें तथा लोगों की रुचि को उन्नतिशील बनाकर उन्हें श्रेष्ठ इन्सान बनाएँ ।

फिल्मों से प्रेमचंद को आठ हजार रुपयों की वार्षिक आय थी, परंतु उन्हें फिल्म निर्माताओं के दृष्टिकोण से अरुचि हो गई। वे फिल्मी-संसार छोड़कर बनारस वापस आ गए।

प्रेमचंद जी का निधन: साहित्य के महारथी की अंतिम विदायी

सन् 1929 में सरकार ने उन्हें ‘रायसाहब’ की उपाधि देनी चाही, लेकिन प्रेमचंद ने उसे अस्वीकार कर दिया। अचानक से प्रेमचंद जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। 16 जून, 1936 को उनकी हालत अत्यधिक खराब हो गई । प्रेमचंद जी 19 जून को वे एक सभा में भाषण देने वाले थे। लेकिन उनकी अस्वस्थता के कारण यह संभव नहीं था।

परन्तु लिखना उन्होंने उस समय भी जरी रखा था और उसी दौरान ‘मगलसूत्र’ उपन्यास की रचना करना शुरू कर दिया था। 24 जून को जब उन्होंने खून की उलटी की, उस समय यह स्पष्ट हो गया कि उनके जीवन की कहानी अब खत्म होने वाली है। पत्नी शिवरानी देवी शीघ्र ही उनके पास पहुँचीं, तब उन्होंने कहा, ‘रानी, अब मैं संसार छोड़ रहा हूँ।’ 8 अक्टूबर, 1936 को उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँस ली। उस समय वे छप्पन वर्ष के थे।

मुंशी प्रेमचंद जी के निधन के बाद उनकी पत्नी शिवरानी देवी जी ने ‘प्रेमचंद घर में’ नाम से मुंशी प्रेमचंद जी की जीवनी लिखी जो सन 1944 ई. में प्रकाशित हुई। इसके बाद प्रेमचंद जी के पुत्र ‘अमृत राय’ ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवन लिखी जो सन 1962 में प्रकाशित हुई। कलम का सिपाही के लिए लिये अमृत्य राय जी को सन् 1963 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

मुंशी प्रेमचंद जी का साहित्यिक परिचय

मुंशी प्रेमचंद जी ने लगभग एक दर्जन से अधिक उपन्यास और तीन सौ लघु कहानियाँ लिखीं। उन्होंने ‘माधुरी’ और ‘मर्यादा’ पर्तिकाओं का संपादन किया और ‘हंस’ और ‘जागरण’ समाचार पत्र भी प्रकाशित किये। मुंशी प्रेमचंद उर्दू में नवाब राय नाम से अपनी रचनाएँ लिखते थे। उनकी रचनाएँ आदर्शवादी और यथार्थवादी हैं, जो रोजमर्रा की जिंदगी की वास्तविकताओं का सटीक चित्रण करती हैं। समाज सुधार और राष्ट्रवाद उनके कार्यों के मुख्य विषय थे।

प्रेमचंद जी ने हिन्दी कथा साहित्य के युग का सूत्रपात किया। उनका साहित्य सामाजिक सुधारों एवं राष्ट्रीय भावनाओं से परिपूर्ण है। वह अपने समय की सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें किसानों की दुर्दशा, सामाजिक प्रतिबंधों से पीड़ित महिलाओं की पीड़ा और जाति व्यवस्था की कठोरता में फंसे हरिजनों की पीड़ा का सजीव चित्रण किया गया है।

प्रेमचंद भारत के दलितों, शोषित किसानों, मजदूरों और उपेक्षित महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखते थे। इसकी प्रासंगिकता के अलावा इनके साहित्य में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो इनके साहित्य को कालजयी और कालातीत बनाते हैं। मुंशी प्रेमचंद जी अपने समय के प्रख्यात कलाकारों में से एक थे जिन्होंने हिंदी को नये युग की आशाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करने का सफल माध्यम बनाया।

मुंशी प्रेमचंद जी की भाषा एवं शैली

प्रेमचंद जी की भाषा स्वाभाविक, सरल, व्यावहारिक, धाराप्रवाह, मुहावरेदार और प्रभावशाली होने के साथ-साथ अद्भुत व्याख्यात्मक शक्ति भी रखती है। मुंशी प्रेमचंद जी की भाषा पात्र के अनुसार बदलती रहती है। मुंशी प्रेमचंद जी उर्दू से हिन्दी में आए थे इसलिए उनकी भाषा में उर्दू की कहावतें, लोकोक्तियां तथा मुहावरों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलता है।

मुंशी प्रेमचंद जी की भाषा में सादगी एवं आलंकारिकता का समन्वय विद्यमान है, जो उनकी कहानियों में सहज ही देखने को मिल जाता है। “बड़े बाई साहब”, “नमक का दरोगा”, “पूस की रात” आदि उनकी कुछ प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।

मुंशी प्रेमचंद जय की शैली मनमोहक है। इसमें मार्मिकता है। उनकी रचना शैलियों में वर्णनात्मकता, व्यंग्यात्मकता, भावात्मकता तथा विवेचनात्मकता उपलब्ध रहती है। चित्रात्मकता मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं की प्रमुख विशेषता है।

मंत्र मुंशी प्रेमचंद जी की एक मार्मिक कहानी है। विरोधाभासी घटनाओं, स्थितियों और भावनाओं का चित्रण करके मुंशी प्रेमचंद जी ने कर्तव्य बोध का वांछित प्रभाव उत्पन्न किया। पाठक पूरी कहानी पढ़ने में तल्लीन हो जाता है। भगत की परस्पर विरोधी मनोदशाएँ, उनका दर्द और उनकी कर्तव्य भावना पाठक के दिल को छू जाती है।

कलम के जादूगर प्रेमचंद जी की रचनाएँ

प्रेमचंद हिंदी और उर्दू साहित्य के एक ऐसे महान लेखक हैं, जिन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से निम्न और मध्यम वर्ग के जीवन की गहरी समझ और संवेदनशील चित्रण प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज की वास्तविकता, उसके संघर्ष, गरीबी, और सामाजिक विषमताओं का प्रतिबिंब मिलता है। प्रेमचंद की कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करती हैं और समाज के ताने-बाने को उकेरती हैं, जो उन्हें अपने समय से आगे का लेखक बनाती हैं।

मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में 18 से अधिक प्रसिद्ध उपन्यास शामिल हैं, जिनमें सेवासदन, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, गोदान आदि शामिल हैं। उनकी लघु कहानियों का व्यापक संग्रह मानसरोवर शीर्षक के तहत आठ भागों में प्रकाशित हुआ है, जिसमें लगभग तीन सौ कहानियाँ संग्रहित हैं। “कर्बला”, “संग्राम” और “प्रेम की वेदी” उनके नाटक हैं। साहित्यिक निबंध ‘कुछ विचार‘ नाम से प्रकाशित हैं। उनकी कहानियों का दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है। गोदान एक श्रेष्ठ हिंदी उपन्यास है। मुंशी प्रेमचंद जी की इन रचनाओं ने उन्हें ‘कलम का जादूगर’ का दर्जा दिलाया।

मुंशी प्रेमचंद जी के उपन्यास: साहित्य की धरोहर

मुंशी प्रेमचंद जी, हिंदी और उर्दू के महान उपन्यासकार, कथाकार और कहानीकार के रूप में साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं। उनके उपन्यास न केवल सामाजिक समस्याओं को उभारते हैं, बल्कि उस समय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश का भी सजीव चित्रण करते हैं। यहाँ प्रेमचंद के कुछ प्रमुख उपन्यासों की चर्चा की गई है, जो उनके साहित्यिक सफर और सामाजिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं।

1. असरारे मआबिद (1903-1905)

प्रेमचंद का उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ उर्दू साप्ताहिक पत्रिका ‘आवाज-ए-खल्क़’ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। बाद में इसका हिंदी अनुवाद ‘देवस्थान रहस्य’ नाम से प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास धर्म और समाज की विसंगतियों पर प्रकाश डालता है।

2. हमखुर्मा व हमसवाब (1907)

‘हमखुर्मा व हमसवाब’ का प्रकाशन 1907 में हुआ और बाद में इसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से प्रकाशित हुआ। यह प्रेमचंद का प्रारंभिक उपन्यास है, जो सामाजिक और पारिवारिक जीवन के जटिल संबंधों की कहानी प्रस्तुत करता है।

3. किशना (1907)

प्रेमचंद का उपन्यास ‘किशना’ भी 1907 में प्रकाशित हुआ। अमृतराय के अनुसार, इस उपन्यास की समीक्षा ‘ज़माना’ पत्रिका के अक्टूबर-नवंबर 1907 के अंक में प्रकाशित हुई थी, जिससे इसके प्रकाशन वर्ष का अनुमान लगाया गया।

4. रूठी रानी (1907)

‘रूठी रानी’ अप्रैल से अगस्त 1907 तक ‘ज़माना’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने राजाओं और रानियों के आपसी संबंधों की कहानी को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।

5. जलवए ईसार (1912)

1912 में प्रकाशित ‘जलवए ईसार’ प्रेमचंद के शुरुआती दौर के उपन्यासों में से एक है, जिसमें उन्होंने समाज की उच्च और निम्न वर्ग की स्थितियों का चित्रण किया है।

6. सेवासदन (1918)

‘सेवासदन’ प्रेमचंद का हिंदी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। इसे मूल रूप से उर्दू में ‘बाजारे-हुस्न’ नाम से लिखा गया था, लेकिन इसका हिंदी रूप ‘सेवासदन’ पहले प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास स्त्री-समस्याओं, जैसे दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति और स्त्री-पराधीनता, पर केंद्रित है।

7. प्रेमाश्रम (1922)

1922 में प्रकाशित ‘प्रेमाश्रम’ प्रेमचंद का किसान जीवन पर आधारित पहला उपन्यास था। यह अवध के किसान आंदोलनों के दौर में लिखा गया और इसमें किसानों की समस्याओं, उनके संघर्ष और सामंती व्यवस्था के अंतर्विरोधों को दर्शाया गया है।

8. रंगभूमि (1925)

1925 में प्रकाशित ‘रंगभूमि’ का नायक सूरदास एक अंधा भिखारी है। इस उपन्यास ने हिंदी कथा साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव लाया और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई।

9. निर्मला (1925)

‘निर्मला’ अनमेल विवाह और उसके दुष्प्रभावों पर आधारित उपन्यास है, जो एक युवा लड़की की दर्दनाक कहानी को उजागर करता है। इसमें प्रेमचंद ने समाज में प्रचलित रूढ़ियों पर कठोर प्रहार किया है।

10. कायाकल्प (1926)

1926 में प्रकाशित ‘कायाकल्प’ प्रेमचंद का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है, जो समाज में नैतिकता और सुधार के महत्व को दर्शाता है।

11. प्रतिज्ञा (1927)

‘प्रतिज्ञा’ 1927 में प्रकाशित हुआ और यह विधवा जीवन तथा उसकी समस्याओं पर केंद्रित है। उपन्यास में सामाजिक सुधार और विधवा पुनर्विवाह के मुद्दे को उठाया गया है। यह उपन्यास सामाजिक समस्याओं और भारतीय नारी की विवशताओं का सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है। इसमें प्रेमचंद ने विधवा जीवन की पीड़ा और उससे उत्पन्न समस्याओं को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। ‘प्रतिज्ञा’ उन विषम परिस्थितियों की कहानी है जिसमें भारतीय नारी घुट-घुट कर जीने के लिए मजबूर होती है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने नारी की विवशता, उसकी सामाजिक स्थिति और संघर्षों को बहुत ही सजीव तरीके से उभारा है।

इसी पुस्तक में प्रेमचंद की अंतिम और अपूर्ण उपन्यास मंगल‍सूत्र भी है। इसका बहुत थोड़ा अंश ही वे लिख पाए थे। मंगल‍सूत्र गोदान के तुरंत बाद की कृति है जो अधूरी रह गयी थी। बाद में इसको उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया।

12. गबन (1928)

‘गबन’ का प्रकाशन 1928 में हुआ। यह उपन्यास रमानाथ और उसकी पत्नी जालपा के दाम्पत्य जीवन और उनके संघर्षों के इर्द-गिर्द घूमता है। इसमें प्रेमचंद ने लालच और सामाजिक दबावों को बखूबी चित्रित किया है।

13. कर्मभूमि (1932)

1932 में प्रकाशित ‘कर्मभूमि’ में अछूत समस्या, मंदिर प्रवेश, और लगान जैसे सामाजिक मुद्दों को उभारा गया है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने सामाजिक अन्याय के खिलाफ संघर्ष का चित्रण किया है।

14. गोदान (1936)

‘गोदान’ प्रेमचंद का अंतिम पूर्ण उपन्यास है, जो 1936 में प्रकाशित हुआ। यह किसान जीवन पर आधारित एक अद्वितीय रचना है, जो ग्रामीण भारत की समस्याओं, संघर्षों और आशाओं को प्रकट करती है।

15. प्रेमा (हमखुर्मा व हमसवाब का हिंदी अनुवाद) (1907)

प्रेमा अथवा हमख़ुर्मा व हमसवाब प्रेमचंद का पहला उपन्यास है। प्रेमा असल में उर्दू में प्रकाशित उपन्यास हमख़ुर्मा व हमसवाब का हिंदी रूपांतरण है। यह 1907 ई में मूलतः उर्दू में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास में 12 अध्याय हैं। विधवा विवाह पर केंद्रित इस उपन्यास में धार्मिक आडंबरों और मंदिरों में व्याप्त पाखंड को उजागर किया गया है।

16. मंगलसूत्र (अपूर्ण)

प्रेमचंद का आखिरी अधूरा उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ था, जिसे उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया और इसका प्रकाशन 1948 में हुआ।

प्रेमचंद के ये उपन्यास भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को सामने लाते हैं और सामाजिक सुधार की दिशा में एक मजबूत संदेश देते हैं। उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और साहित्य प्रेमियों को प्रेरित करती हैं।

मुंशी प्रेमचंद जी ने 18 उपन्यासों की रचना की थी। जिसमें सन 1918 में प्रकाशित उनका पहला हिंदी उपन्यास ‘सेवासदन’ और अंतिम उपन्यास सन 1936 में प्रकाशित ‘गोदान था। गोदान को हिंदी साहित्य की अमर कृति भी माना जाता है। मुंशी प्रेमचंद जी के प्रसिद्द उपन्यासों की सूची निम्नलिखित है –

प्रेमचंद जी के उपन्यासप्रकाशन
सेवासदनसन 1918 
वरदान सन 1920 
प्रेमाश्रमसन 1922 
रंगभूमिसन 1925 
कायाकल्पसन 1926 
प्रतिज्ञासन 1927
गबन सन 1928
कर्मभूमिसन 1932
निर्मलासन 1933
गोदानसन 1936 
मंगलसूत्र सन 1948 (अधूरा)
रूठी रानीमुंशी प्रेमचंद का एकमात्र ऐतिहासिक उपन्यास।
प्रेमा (हिंदी अनुवाद)सन 1907

प्रेमचंद जी का कहानी संग्रह

प्रेमचंद ने अपने साहित्यिक जीवन में 300 से अधिक कहानियाँ और 18 से अधिक उपन्यास लिखे, जो विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर आधारित थे। उनके साहित्यिक योगदान को संकलित करते हुए डॉ. कमलकिशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद कहानी रचनावली’ नामक संग्रह प्रकाशित किया, जिसमें प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानियाँ शामिल हैं। प्रेमचंद की इन रचनाओं ने उन्हें ‘कलम का जादूगर’ का दर्जा दिलाया।

प्रेमचंद की पहली कहानी और प्रारंभिक लेखन

प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह ‘सोज़े वतन’ (राष्ट्र का विलाप) जून 1908 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ को उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता है। इस कहानी को वह नवाब राय नाम से लिखे थे। यह कहानी कानपुर से प्रकाशित होने वाली उर्दू पत्रिका ज़माना में 1907 में प्रकाशित हुई थी।

सोजे वतन के बाद से उन्होंने नवाब राय नाम से लिखना छोड़ दिया। प्रेमचंद जी की कहानी “दुनिया का सबसे अनमोल रतन” नवाब राय नाम से लिखी उनकी पहली कहानी है।

हालांकि, डॉ. गोयनका के अनुसार, प्रेमचंद की पहली प्रकाशित कहानी ‘सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम’ (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) थी, जो कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ‘ज़माना’ के अप्रैल अंक में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी समाज और देशभक्ति की भावनाओं को दर्शाती है और प्रेमचंद की लेखन शैली का आरंभिक उदाहरण प्रस्तुत करती है।

इसके कुछ समय बाद वह प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किये। ‘प्रेमचंद’ नाम से उनकी पहली कहानी “बड़े घर की बेटी” थी जो ज़माना पत्रिका के दिसम्बर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई थी। मुंशी प्रेमचंद जी की 300 से अधिक कहानियाँ मानसरोवर नामक पुस्तक द्वारा आठ भागों में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें- लाल फीता, नमक का दारोगा, नवविधि, सप्त सुमन, प्रेम पूर्णिमा, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसून, प्रेम द्वाद्वशी, प्रेम तीर्थ, प्रेम प्रतिज्ञा, प्रेम पंचगी, प्रेरणा, समरयात्रा, पंच प्रसून, नव जीवन, बड़े घर की बेटी, सप्त सरोज आदि प्रमुख हैं।

कहानियों में निम्न और मध्यम वर्ग का चित्रण

प्रेमचंद की कहानियाँ मुख्यतः निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों के जीवन संघर्ष और उनके सामाजिक हालातों पर केंद्रित हैं। उनकी कहानियों में गरीबी, शोषण, जाति-पाँति, सामाजिक अन्याय, और सामाजिक विसंगतियों का सजीव चित्रण है। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र साधारण लोग होते हैं—किसान, मजदूर, विधवा, बेरोजगार युवक, और निम्न वर्ग की महिलाएँ, जो जीवन के विभिन्न संघर्षों से जूझ रहे होते हैं।

प्रतिनिधि कहानियां

प्रेमचंद की प्रतिनिधि कहानियों में- पंच परमेश्वर, माता का हृदय, सुजान भगत, इस्तीफा, अलग्योझा, पूस की रात, बड़े भाई साहब, सज्जनता का दंड, ईश्वरी न्याय, दुर्गा का मंदिर, आत्माराम, बूढ़ी काकी, सवा सेर गेहूं, शतरंज के खिलाड़ी, होली का उपहार, ठाकुर का कुआं, बेटों वाली विधवा, ईदगाह, प्रेम प्रमोद, नशा, दफन आदि प्रमुख हैं।

कहानियों की सूची: मुंशी प्रेमचंद की मानसरोवर के आठ भागों में प्रकाशित होने वाली 300 से अधिक कहानियों में से प्रमुख 118 कहानियों के नाम निम्नलिखित हैं-

क्रमांककथाक्रमांककथाक्रमांककथा
1अनाथ लड़की41अन्धेर81अपनी करनी
2अमृत42अलग्योझा82आखिरी तोहफ़ा
3आखिरी मंजिल43आत्म-संगीत83आत्माराम
4आल्हा44इज्जत का खून84इस्तीफा
5ईदगाह45ईश्वरीय न्याय85उद्धार
6एक आँच की कसर46एक्ट्रेस86कप्तान साहब
7कफ़न47कर्मों का फल87कवच
8कातिल48कोई दुख न हो तो बकरी खरीद ला88कौशल़
9क्रिकेट मैच49खुदी89गुल्‍ली डण्डा
10गृह-दाह50गैरत की कटार90घमण्ड का पुतला
11जुलूस51जेल91ज्‍योति
12झाँकी52ठाकुर का कुआँ92तांगेवाले की बड़
13तिरसूल53तेंतर93त्रिया-चरित्र
14दण्ड54दिल की रानी94दुर्गा का मन्दिर
15दूध का दाम55दूसरी शादी95देवी
16देवी – एक और कहानी56दो बैलों की कथा96दो सखियाँ
17धिक्कार57धिक्कार – एक और कहानी97नबी का नीति-निर्वाह
18नमक का दरोगा58नरक का मार्ग98नशा
19नसीहतों का दफ्तर59नाग-पूजा99नादान दोस्त
20निर्वासन60नेउर100नेकी
21नैराश्य61नैराश्य लीला101पंच परमेश्वर
22पत्नी से पति62परीक्षा102पर्वत-यात्रा
23पुत्र-प्रेम63पूस की रात103पैपुजी
24प्रतिशोध64प्रायश्चित104प्रेम-सूत्र
25बड़े घर की बेटी65बड़े बाबू105बड़े भाई साहब
26बन्द दरवाजा66बाँका जमींदार106बेटोंवाली विधवा
27बैंक का दिवाला67बोहनी107मनावन
28मन्त्र68मन्दिर और मस्जिद108ममता
29माँ69माता का ह्रदय109मिलाप
30मुक्तिधन70मुबारक बीमारी110मैकू
31मोटेराम जी शास्त्री71राजहठ111राष्ट्र का सेवक
32र्स्वग की देवी72लैला112वफ़ा का खजर
33वासना की कड़ियां73विजय113विश्वास
34शंखनाद74शराब की दुकान114शादी की वजह
35शान्ति75शान्ति115शूद्र
36सभ्यता का रहस्य76समर यात्रा116समस्या
37सवा सेर गेहूँ नमक का दरोगा77सिर्फ एक आवाज117सैलानी बन्दर
38सोहाग का शव78सौत118स्त्री और पुरूष
39स्वर्ग की देवी79स्वांग
40होली की छुट्टी80स्‍वामिनी

प्रेमचंद जी के नाटक

मुंशी प्रेमचंद ने तीन नाटकों की रचना की, जिनके नाम हैं – संग्राम (1923) कर्बला (1924) और प्रेम की वेदी (1933)।

नाटक का नाम प्रकाशन 
सग्राम सन 1923 
कर्बला सन 1924 
प्रेम की वेदी सन 1933 

मुंशी प्रेमचंद जी का बाल साहित्य 

मुंशी जी ने बाल साहित्य की भी रचना की थी। उनके बाल साहित्य की प्रमुख रचनाओं के नाम निम्नलिखित है:-

  • रामकथा
  • दुर्गादास
  • कुत्ते की कहानी, 
  • जंगल की कहानियाँ

मुंशी प्रेमचंद जी के विचार 

मुंशी प्रेमचंद जी के लेखों में उनके द्वारा व्यक्त विचारों के संकलन निम्नलिखित हैं:-

  • ‘प्रेमचंद : विविध प्रसंग’ – अमृतराय द्वारा संपादित
  • प्रेमचंद के विचार (तीन खंडों में)

प्रेमचंद जी का निबंध संग्रह

मुंशी प्रेमचंद जी एक सवेदनशील लेखक होने के साथ साथ एक सजग नागरिक व संपादक भी थे। उन्होंने कई गंभीर विषयों पर लेख/निबंध लिखें हैं। मुंशी प्रेमचंद जी के निबंधों में पुराना जमाना नया जमाना, स्‍वराज के फायदे, कहानी कला (तीन भागों में), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिन्दी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता, उपन्‍यास, जीवन में साहित्‍य का स्‍थान आदि प्रमुख हैं। मुंशी प्रेमचंद जी के कुछ प्रमुख निबधों के नाम निम्नलिखित है:-

  • साहित्‍य का उद्देश्‍य
  • पुराना जमाना नया जमाना
  • स्‍वराज के फायदे
  • कहानी कला (तीन भागों में)
  • उपन्यास 
  • हिंदी-उर्दू की एकता 
  • महाजनी सभ्यता 
  • कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार
  • जीवन में साहित्‍य का स्‍थान

प्रेमचंद जी के अनुवाद

मुंशी प्रेमचंद जी ने ‘टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ’ (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्‍याय (1931) नाम से हिंदी अनुवाद किया। मुंशी प्रेमचंद जी द्वारा रतननाथ सरशार का उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का हिन्दी अनुवाद ‘आजाद कथा’ बहुत लोकप्रिय हुआ।

संपादन कार्य 

मुंशी प्रेमचंद जी ने साहित्य की रचना के साथ-साथ ‘माधुरी’ और ‘मर्यादा’ नामक पत्रिकाओं का संपादन कार्य किया। इसके साथ ही उन्होंने स्वयं का प्रेस खोलकर ‘जागरण’ नामक समाचार पत्र और ‘हंस’ नामक मासिक  साहित्यिक पत्रिका निकाली। उनके प्रेस का नाम ‘सरस्वती’ था। वे उर्दू की पत्रिका ‘जमाना’ में नवाब राय के नाम से लिखते थे।

विचारधारा

अपनी विचारधारा को प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहा है। प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित करने के साथ उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। हालाँकि 1936 तक आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाओं में यथार्थ परक समस्याओं को दर्शाया गया है, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया है।

प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार हैं। इस अर्थ में उन्हें राष्ट्रवादी भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें प्रेमाश्रम के दौर से ही आकर्षित कर रही थी।

1936 में मुंशी प्रेमचन्द ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। इस अर्थ में प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं।

विरासत

मुंशी प्रेमचंद जी की परंपरा को आगे बढ़ाने में कई रचनाकारों ने अपना योगदान दिया है। प्रेमचंद जी के बारे में रामविलास शर्मा ‘प्रेमचंद और उनका युग’ में लिखते हैं कि- प्रेमचंद की परंपरा को ‘अलका’, ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ के निराला ने अपनाया। उसे ‘चकल्लस’ और ‘क्या-से-क्या’ आदि कहानियों के लेखक पढ़ीस ने अपनाया। उस परंपरा की झलक नरेंद्र शर्मा, अमृतलाल नागर आदि की कहानियों और रेखाचित्रों में मिलती है।

मुंशी प्रेमचंद जी की स्मृतियाँ

प्रेमचंद की स्मृति में उनके गाँव लमही में उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई है। भारतीय डाक विभाग ने 30 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है।

मुंशी प्रेमचंद जी से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य

  • मुंशी प्रेमचंद का जन्म सन् 1880 में वाराणसी जिले के लमही ग्राम में हुआ था।
  • उनका बचपन का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था।
  • उपन्यास के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद जी के विशेष योगदान को देखकर बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार ‘शरतचंद्र चट्टोपाध्याय’ ने प्रेमचंद जी को ‘उपन्यास सम्राट’ कहकर संबोधित किया था। 
  • अल्पायु में माता-पिता की मृत्यु के कारण उनका बचपन से ही उनका जीवन बहुत ही, संघर्षो से गुजरा था।
  • मुंशी प्रेमचंद जी का निधन लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 ई. को हुई थी।
  • प्रेमचंद जी का पहला विवाह 15 वर्ष की अल्पायु में उनके पिताजी ने करा दिया। उस समय मुंशी प्रेमचंद कक्षा 9 के छात्र थे। परन्तु उनकी पत्नी का स्वभाव अच्छा नहीं था। आर्थिक तंगी से परेशान होकर वो प्रेमचंद जी को छोड़ कर हमेशा के लिए अपने मायके चली गयीं।
  • पहली पत्नी को छोड़ने के बाद प्रेमचंद जी ने दूसरा विवाह 1906 ई. में शिवारानी देवी से किया, जो एक महान साहित्यकार थीं।
  • प्रेमचंद की मृत्यु के बाद शिवारानी देवी ने “प्रेमचंद घर में” नाम से एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी।
  • प्रेमचंद जी पहले अपनी रचनाएँ नवाब राय नाम से लिखते थे।
  • अंग्रेजों के खिलाफ लिखने पर, ब्रिटिश शासकों ने धनपत राय पर प्रतिबंध लगा दिया। जिससे उन्होंने अपना नाम नवाब राय से बदलकर प्रेमचंद कर लिया।

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सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.