मुद्रा किसी भी आधुनिक अर्थव्यवस्था की धुरी है। यह केवल विनिमय का माध्यम भर नहीं, बल्कि मूल्य मापन, भविष्य की देनदारी का निर्धारण और संपत्ति संचय का एक सशक्त उपकरण भी है। किंतु जब मुद्रा की भूमिका को लेकर उसके प्रभाव और सीमाओं पर विचार किया जाता है, तब “मुद्रा की तटस्थता” (Neutrality of Money) की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यह अवधारणा यह मानती है कि मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन से केवल सामान्य कीमत-स्तर में ही बदलाव होता है, परंतु सापेक्ष कीमतों (relative prices), उत्पादन, रोजगार, पूँजी निर्माण, और वास्तविक आय जैसे वास्तविक चर (real variables) पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
इस लेख में हम मुद्रा की तटस्थता के सिद्धांत, इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विभिन्न अर्थशास्त्रियों की व्याख्याएं, आलोचनाएं, व्यवहारिक उपयोगिता और आधुनिक संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
तटस्थ मुद्रा की संकल्पना
मुद्रा की तटस्थता का आशय उस स्थिति से है जहाँ मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन केवल सामान्य मूल्य स्तर को प्रभावित करता है, न कि सापेक्ष कीमतों, ब्याज दरों, रोजगार या उत्पादन को। इसका तात्पर्य यह है कि यदि हम अर्थव्यवस्था में मुद्रा की कुल मात्रा को समानुपात में बढ़ा दें, तो वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें तो बढ़ेंगी, परंतु उनका आपसी अनुपात या उत्पादन-संबंधी निर्णय जस के तस बने रहेंगे।
सरल शब्दों में, मुद्रा तटस्थ मानी जाती है यदि:
- यह उत्पादन को प्रभावित नहीं करती,
- यह रोजगार के स्तर में बदलाव नहीं लाती,
- यह ब्याज की वास्तविक दर में हस्तक्षेप नहीं करती,
- यह सापेक्ष कीमतों को नहीं बदलती।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
“तटस्थ मुद्रा” शब्द का सबसे पहला प्रयोग अंग्रेज अर्थशास्त्री पी. एच. विक्सटीड (P. H. Wicksteed) ने किया था। लेकिन इसे व्यवस्थित ढंग से समझाने और विस्तारित करने का कार्य प्रसिद्ध ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री फ्रेडरिक ए. हायक (F. A. Von Hayek) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Prices and Production (1931) में किया। हायक ने तटस्थ मुद्रा को एक आदर्श स्थिति के रूप में देखा जहाँ मौद्रिक प्रणाली केवल एक विनिमय-माध्यम है और आर्थिक प्रणाली को विकृत नहीं करती।
इसके अलावा ब्रिटिश अर्थशास्त्री डी. एच. रॉबर्टसन (D. H. Robertson) ने भी इस विचारधारा का समर्थन किया। उन्होंने भी माना कि मुद्रा को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि वह अर्थव्यवस्था में स्थिरता और संतुलन बनाए रखे।
मुद्रा की तटस्थता | प्रमुख परिभाषाएं
वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुद्रा केवल एक साधन नहीं है, बल्कि आर्थिक गतिविधियों का वह माध्यम बन चुकी है जिसके बिना उत्पादन, विनिमय और उपभोग की कल्पना भी अधूरी है। मुद्रा के महत्व को देखते हुए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या यह मात्र एक निष्क्रिय उपकरण है या अर्थव्यवस्था में इसके प्रभाव कहीं गहरे और जटिल हैं। इस संदर्भ में “मुद्रा की तटस्थता” (Neutrality of Money) की अवधारणा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मुद्रा की तटस्थता को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है:
“मुद्रा की तटस्थता” उस स्थिति को दर्शाता है जब मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन केवल सामान्य मूल्य स्तर (general price level) को प्रभावित करता है, न कि वास्तविक चर जैसे — सापेक्ष कीमतें (relative prices), उत्पादन, रोजगार, पूंजी निर्माण या ब्याज की वास्तविक दर।
1. पेडिनकिन की परिभाषा:
रूसी अर्थशास्त्री अलेक्सांदर पेडिनकिन के अनुसार:
“जब मुद्रा की मात्रा में एक समान रूप से की गई वृद्धि वस्तुओं की संतुलन कीमतों में उसी अनुपात में वृद्धि करती है और इससे ब्याज दर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, तब मुद्रा तटस्थ मानी जाती है।”
2. गुर्ले और शॉ की परिभाषा:
गुर्ले और शॉ के अनुसार,
“मौद्रिक स्टॉक में परिवर्तनों के माध्यम से ब्याज दर, उत्पादन तथा अन्य वास्तविक चरों को प्रभावित करने में असमर्थता को ही मुद्रा की तटस्थता कहा जाता है।”
मुद्रा परिमाण सिद्धांत और तटस्थता
मुद्रा की तटस्थता का सबसे मजबूत आधार मुद्रा परिमाण सिद्धांत (Quantity Theory of Money) है। इस सिद्धांत के अनुसार:
MV = PT
जहाँ,
M = मुद्रा की मात्रा
V = मुद्रा का वेग
P = कीमत स्तर
T = लेनदेन की मात्रा
यदि हम मान लें कि V और T स्थिर हैं, तो M में वृद्धि से P में समानुपातिक वृद्धि होती है। इस सिद्धांत के अनुसार, मुद्रा केवल कीमतों को प्रभावित करती है, न कि उत्पादन या वास्तविक चर को। अतः दीर्घकाल में मुद्रा तटस्थ होती है।
यह सूत्र स्पष्ट करता है कि यदि मुद्रा की मात्रा (M) में वृद्धि होती है, और यदि मुद्रा का वेग (V) और लेनदेन की मात्रा (T) स्थिर हैं, तो कीमत स्तर (P) में समानुपातिक वृद्धि होगी। इसका तात्पर्य यह है कि मुद्रा की वृद्धि केवल नाममात्र मूल्य को प्रभावित करती है, न कि वास्तविक उत्पादन या रोजगार को।
केन्स की विचारधारा में तटस्थता
जॉन मेनार्ड केन्स ने मुद्रा की तटस्थता की धारणा को चुनौती दी, विशेष रूप से अल्पकाल में। उनके अनुसार:
1. पूर्ण रोजगार की स्थिति:
जब अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार की स्थिति में होती है, तब मुद्रा की मात्रा में वृद्धि से उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। केवल कीमतें बढ़ती हैं। यह वह स्थिति है जहाँ मुद्रा तटस्थ होती है।
2. तरलता जाल (Liquidity Trap):
जब ब्याज दर इतनी कम हो जाती है कि लोग अतिरिक्त मुद्रा को निवेश करने के बजाय रोक कर रखते हैं, तब मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि का कोई असर नहीं होता — न उत्पादन पर, न ब्याज दर पर। यह भी तटस्थता की स्थिति है।
हायक का दृष्टिकोण | अस्थिरता और तटस्थता
फ्रेडरिक हायक ने मुद्रा की तटस्थता को आर्थिक स्थिरता से जोड़ा। उन्होंने कहा:
“मुद्रा की सृष्टि और विनाश दोनों ही कुल मांग और कुल आपूर्ति के संतुलन को बिगाड़ते हैं।”
हायक की प्रमुख मान्यता
फ्रेडरिक हायक के अनुसार, मुद्रा की तटस्थता अत्यंत आवश्यक है क्योंकि मुद्रा का अत्यधिक विस्तार या संकुचन आर्थिक असंतुलन उत्पन्न करता है। उनके अनुसार:
“मुद्रा के माध्यम से माँग तो बढ़ाई जा सकती है, पर आपूर्ति तुरंत नहीं बढ़ती जिससे मुद्रास्फीति उत्पन्न होती है। वहीं, मुद्रा की मात्रा घटाने पर माँग कम होती है पर आपूर्ति स्थिर रहती है जिससे अवस्फीति होती है।”
अर्थात मुद्रा के माध्यम से माँग तो बढ़ाई जा सकती है, पर आपूर्ति तुरन्त नहीं बढ़ती। इससे मुद्रास्फीति या अवस्फीति उत्पन्न होती है। अतः मुद्रा की मात्रा को स्थिर रखा जाना चाहिए। उनके अनुसार, तटस्थ मुद्रा का अर्थ है ऐसी मुद्रा व्यवस्था जिसमें मूल्य, उत्पादन और रोजगार का संतुलन वैसे ही बना रहे जैसे किसी मुद्रा-विहीन समाज में होता।
इस विचारधारा को ही जॉर्ज एन. हाल्म (George N. Halm) ने अपनी पुस्तक Monetary Theory में इस प्रकार अभिव्यक्त किया:
“Creation as well as destruction of money spoil the equivalence of total supply and demand, they are the disturbing monetary germs injected into the economic body by a monetary policy which is not neutral.”
— George N. Halm, Monetary Theory, p. 123
इस उद्धरण का सार है कि मुद्रा की रचना या विनाश — दोनों ही कुल माँग और कुल आपूर्ति के बीच संतुलन को तोड़ते हैं और इस असंतुलन से ही आर्थिक अस्थिरता जन्म लेती है। इसीलिए एक तटस्थ मौद्रिक नीति को अपनाना आवश्यक है जो अर्थव्यवस्था में विकृति उत्पन्न न करे।
मुद्रावादियों का दृष्टिकोण
मिल्टन फ्राइडमैन जैसे मुद्रावादी अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि दीर्घकाल में मुद्रा तटस्थ होती है, लेकिन अल्पकाल में यह वास्तविक चरों को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए:
- यदि सरकार अचानक मुद्रा की आपूर्ति बढ़ा देती है तो अल्पकाल में मांग बढ़ेगी, उत्पादन में वृद्धि होगी और रोजगार में सुधार दिखेगा।
- लेकिन दीर्घकाल में, यह केवल कीमतों को प्रभावित करेगा और वास्तविक चरों को पूर्व स्थिति में पहुँचा देगा।
तटस्थ मुद्रा की मान्यताएं
तटस्थ मुद्रा की अवधारणा निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:
- पूरी जानकारी: सभी आर्थिक एजेंटों को मुद्रा आपूर्ति में परिवर्तन की जानकारी होती है।
- समयहीन समायोजन: कीमतें और वेतन तुरंत समायोजित हो जाते हैं।
- पूर्ण रोजगार: अर्थव्यवस्था हमेशा पूर्ण रोजगार की स्थिति में रहती है।
- लंबी अवधि का दृष्टिकोण: मुद्रा की तटस्थता दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में अधिक लागू होती है।
मुद्रा की तटस्थता की व्यवहारिक आलोचनाएं
- वितरणात्मक प्रभाव:
मुद्रा की मात्रा में वृद्धि समान रूप से सभी वर्गों तक नहीं पहुँचती। कुछ वर्ग पहले लाभान्वित होते हैं। अर्थात नई मुद्रा पहले जिन हाथों में आती है, वे ज्यादा लाभान्वित होते हैं, जिससे सापेक्ष कीमतों में परिवर्तन संभव हो जाता है। - सूचना की असममता:
अर्थव्यवस्था में सभी प्रतिभागियों के पास समतुल्य जानकारी नहीं होती, जिससे वे मुद्रा परिवर्तन के प्रति भिन्न रूप से प्रतिक्रिया करते हैं। - मूल्य-चिपचिपापन (Price Stickiness):
वास्तविक दुनिया में कीमतें तुरंत नहीं बदलतीं। इसलिए, मुद्रा की आपूर्ति में बदलाव का प्रभाव अस्थायी रूप से वास्तविक चर पर पड़ता है। अर्थात मजदूरी व वस्तु कीमतें तत्काल समायोजित नहीं होतीं, जिससे अल्पकाल में उत्पादन और रोजगार पर प्रभाव पड़ता है। - बाह्य झटके और असंतुलन:
मौद्रिक परिवर्तनों से उत्पन्न अस्थिरता कभी-कभी दीर्घकालिक असंतुलन का कारण बन सकती है। - राजनीतिक हस्तक्षेप:
मौद्रिक नीति प्रायः राजनीतिक निर्णयों से प्रभावित होती है जो तटस्थता को बाधित कर सकते हैं।
नीति-निर्माण में तटस्थ मुद्रा की उपयोगिता
हालाँकि व्यवहार में मुद्रा पूरी तरह तटस्थ नहीं होती, फिर भी मुद्रा की तटस्थता की धारणा ने नीति निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। तटस्थ मुद्रा की अवधारणा से नीति-निर्माताओं को आर्थिक स्थिरता बनाए रखने की दिशा में मार्गदर्शन मिलता है:
- मूल्य स्थिरता:
तटस्थ मुद्रा का लक्ष्य मूल्य स्थिरता को सुनिश्चित करना है। - मुद्रास्फीति नियंत्रण:
यदि सरकार मुद्रा का सृजन सीमित रखती है, तो महंगाई पर नियंत्रण संभव होता है। - बाजार-आधारित विनियमन:
मुद्रा की निष्क्रिय भूमिका से बाजार की आत्म-नियमन प्रणाली प्रभावी रहती है। - अत्यधिक हस्तक्षेप से बचाव:
मुद्रा को तटस्थ मानने से सरकार और केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में अत्यधिक हस्तक्षेप से बच सकते हैं। - सरकारी हस्तक्षेप में कमी:
तटस्थ मुद्रा की नीति से सरकारों को अनावश्यक मौद्रिक हस्तक्षेप से रोका जा सकता है।
समकालीन परिप्रेक्ष्य
आज के वैश्विक और तकनीकी रूप से जटिल आर्थिक वातावरण में पूरी तरह तटस्थ मुद्रा का अस्तित्व संभव नहीं है, फिर भी यह एक आदर्श दिशा-निर्देश अवश्य है। जहाँ एक ओर मुद्रावादी अर्थशास्त्री दीर्घकाल में मुद्रा की तटस्थता को स्वीकार करते हैं, वहीं केन्सीय दृष्टिकोण अल्पकालीन प्रभावों को नज़रंदाज नहीं करता।
तटस्थ मुद्रा की अवधारणा न केवल मूल्य स्थिरता और आर्थिक संतुलन की ओर संकेत करती है, बल्कि यह नीति निर्माण की एक ऐसी रणनीति प्रस्तुत करती है जो अनावश्यक आर्थिक झटकों से बचने में सहायक हो सकती है।
अतः यह कहा जा सकता है कि:
“मुद्रा की तटस्थता एक सैद्धांतिक आदर्श है — व्यवहार में भले ही पूर्णतः लागू न हो, परंतु इसकी अवधारणा आर्थिक अनुशासन और स्थिरता की नींव अवश्य रखती है।”
मुद्रा की तटस्थता एक आदर्श अवधारणा है, जो दर्शाती है कि मुद्रा केवल एक माध्यम है, न कि उद्देश्यों की पूर्ति का साधन। यह धारणा बताती है कि यदि मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित रूप से स्थिर रखा जाए, तो आर्थिक अस्थिरता को रोका जा सकता है।
हालाँकि व्यवहारिक दृष्टि से मुद्रा अल्पकाल में तटस्थ नहीं मानी जाती, फिर भी दीर्घकाल में अधिकांश अर्थशास्त्री इस सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। नीति-निर्माण के सन्दर्भ में तटस्थ मुद्रा की अवधारणा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह आर्थिक संतुलन, मूल्य स्थिरता, और दीर्घकालिक विकास को सुनिश्चित करने का आधार प्रस्तुत करती है।
अतः, मुद्रा की तटस्थता न केवल एक विशुद्ध सैद्धांतिक विचार है, बल्कि यह आर्थिक नीति में विवेकशीलता, संयम और स्थायित्व का भी परिचायक है। आर्थिक व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए यह आवश्यक है कि मुद्रा को केवल विनिमय का माध्यम और मूल्य मापन का यंत्र माना जाए, न कि उत्पादन और रोजगार को प्रभावित करने वाला उपकरण।
Economics – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें –
- मुद्रा: प्रकृति, परिभाषाएँ, कार्य, और विकास | Money: Nature, Definitions, Functions, and Evolution
- मुद्रा एवं सन्निकट मुद्रा | Money and Near Money
- मुद्रा एवं मुद्रा मूल्य | Money and Value of Money
- मुद्रा के प्रकार | Kinds of Money
- मुद्रा भ्रम (Money Illusion) | एक मनोवैज्ञानिक स्थिति का आर्थिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण
- वर्ष 2025 में विश्व की शीर्ष 50 अर्थव्यवस्थाएँ | भारत बना दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था
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