मुद्रा की तटस्थता की आलोचना | एक समालोचनात्मक अध्ययन

यह लेख “मुद्रा की तटस्थता” (Neutrality of Money) जैसे बहुचर्चित आर्थिक सिद्धांत की व्यापक आलोचना प्रस्तुत करता है। लेख में बताया गया है कि यह सिद्धांत मुख्यतः अबन्ध-नीति (Laissez-faire Policy) और परिमाण सिद्धांत पर आधारित है, जो आधुनिक परिवर्तनीय एवं जटिल अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ में अव्यावहारिक प्रतीत होता है। लेख में विस्तार से बताया गया है कि तटस्थ मुद्रा की नीति अवस्फीति और मंदी जैसी समस्याओं को जन्म दे सकती है, खासकर तब जब तकनीकी विकास और उत्पादकता में वृद्धि होने के बावजूद मुद्रा की आपूर्ति स्थिर रखी जाती है।

इसके अतिरिक्त, लेख में यह भी स्पष्ट किया गया है कि पूर्ण प्रतियोगिता जैसे सैद्धान्तिक आधारों पर बनाई गई यह नीति वास्तविक एकाधिकारवादी बाजारों में लागू नहीं हो सकती, क्योंकि लागत घटने पर भी कीमतें नहीं गिरतीं।

मुद्रा की तटस्थता का विचार विकासशील देशों के लिए विशेष रूप से अनुपयुक्त बताया गया है, जहाँ सक्रिय मौद्रिक नीति की आवश्यकता होती है। लेख यह तर्क देता है कि मुद्रा एक निष्क्रिय तत्व नहीं, बल्कि एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव रखने वाला सक्रिय तत्व है, जो उपभोक्ताओं और उत्पादकों के निर्णयों को प्रभावित करता है। अंततः, लेख इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि तटस्थ मुद्रा की अवधारणा व्यवहार में असफल और सैद्धांतिक रूप से असंगत है, तथा आधुनिक अर्थव्यवस्था में इसे अपनाना नीति निर्माताओं के लिए लाभकारी नहीं हो सकता। यह लेख नीति विशेषज्ञों, अर्थशास्त्र छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

मुद्रा की तटस्थता

आधुनिक अर्थशास्त्र में मुद्रा की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम ही नहीं, बल्कि आर्थिक गतिविधियों की दिशा और गति को भी निर्धारित करती है। अर्थशास्त्री विभिन्न कालखंडों में मुद्रा की भूमिका पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे हैं। इनमें से एक विचारधारा है – मुद्रा की तटस्थता। इस विचार के अनुसार, मुद्रा का दीर्घकालिक प्रभाव केवल कीमतों के स्तर पर होता है, जबकि वास्तविक चरों जैसे — उत्पादन, रोजगार और पूंजी निर्माण पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता।

इस धारणा के अनुसार यदि मुद्रा की मात्रा स्थिर रखी जाए तो यह अर्थव्यवस्था के सामान्य संतुलन को प्रभावित नहीं करती। यह अवधारणा मुख्यतः अबन्ध-नीति (laissez-faire policy) पर आधारित है, जिसमें राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम रखने की वकालत की जाती है। किंतु व्यवहारिक अनुभवों और नवीन शोधों से यह स्पष्ट हुआ है कि यह दृष्टिकोण कई स्तरों पर दोषपूर्ण और अव्यावहारिक है।

मुद्रा की तटस्थता की आलोचना

इस लेख में हम मुद्रा की तटस्थता के सिद्धांत की गहन आलोचना प्रस्तुत करेंगे, जिसमें इसके सैद्धांतिक आधार, व्यावहारिक अपूर्णताएं और इसके संभावित दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला जाएगा।

1. परिमाण सिद्धांत पर आधारित एक सीमित दृष्टिकोण

मुद्रा की तटस्थता का सिद्धांत मुख्यतः मुद्रा के परिमाण सिद्धांत (Quantity Theory of Money) पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार, मुद्रा की मात्रा और कीमत स्तर के बीच एक प्रत्यक्ष और आनुपातिक संबंध होता है। यदि मुद्रा की आपूर्ति दोगुनी कर दी जाए तो कीमतें भी दोगुनी हो जाएंगी, और इसका प्रभाव केवल मुद्रास्फीति तक सीमित रहेगा।

किन्तु, आधुनिक अर्थशास्त्री इस सिद्धांत की वैधता पर प्रश्न उठाते हैं। वास्तविक अर्थव्यवस्था में कीमतें, वेतन, मांग, उत्पादन और मुद्रा की गति जैसे कारक इतने जटिल और परस्पर प्रभावित करने वाले होते हैं कि एक सरल अनुपात के द्वारा इन्हें समझना अवास्तविक प्रतीत होता है। इस प्रकार, जब मुद्रा की तटस्थता पर आधारित नीति परिमाण सिद्धांत पर निर्भर करती है, तब इसकी संपूर्ण वैधता संदेहास्पद हो जाती है।

2. अवस्फीति (Deflation) और मंदी (Recession) का संकट

तटस्थ मुद्रा नीति इस धारणा पर आधारित है कि मुद्रा की मात्रा को स्थिर बनाए रखने से अस्थिरता से बचा जा सकता है। परंतु, यह विचार आर्थिक विकास की वास्तविकता से मेल नहीं खाता। तकनीकी विकास और उत्पादन प्रणाली में सुधार से उत्पादन की मात्रा और उत्पादकता में वृद्धि होती है। इसके परिणामस्वरूप लेन-देन की मात्रा बढ़ती है, और मुद्रा की माँग में स्वाभाविक रूप से वृद्धि होती है।

यदि इस स्थिति में मुद्रा की आपूर्ति स्थिर रखी जाती है, तो यह अवस्फीति (deflation) और मंदी (recession) की स्थिति उत्पन्न कर सकती है। अवस्फीति से उपभोक्ता खर्च में गिरावट आती है, व्यवसायों का लाभ घटता है और निवेश की प्रवृत्ति कमजोर होती है। इससे आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।

3. लागत और कीमतों में समानुपातिकता की अवास्तविकता

तटस्थ मुद्रा नीति के समर्थकों का मानना है कि तकनीकी प्रगति से उत्पादन लागत में कमी आती है, जिससे कीमतें गिरती हैं और समाज को इसका समग्र लाभ मिलता है। परंतु यह तर्क पूर्ण-प्रतियोगिता (perfect competition) की अवधारणा पर आधारित है, जो व्यावहारिक रूप में बहुत ही दुर्लभ है।

जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर हेन्सन ने कहा है – आधुनिक उद्योगों में एकाधिकार या संधिपरक प्रतिस्पर्धा (oligopoly) की स्थिति बनी रहती है। ऐसी स्थिति में लागत में गिरावट के बावजूद निर्माता कीमतों में कटौती नहीं करते। इसके अतिरिक्त, यह भी संभव है कि उन वस्तुओं की कीमतें गिरे जिनकी लागत नहीं घटी है, जबकि जिनकी लागत में कमी आई है उनकी कीमतें स्थिर बनी रहें।

इस प्रकार, लागत और कीमत के बीच प्रत्यक्ष संबंध की धारणा एक अव्यावहारिक कल्पना बनकर रह जाती है।

4. आर्थिक तंत्र की परिवर्तनीय प्रकृति

आधुनिक अर्थव्यवस्था में जनसंख्या वृद्धि, तकनीकी नवाचार, व्यापार विस्तार और आय के स्तर में परिवर्तन जैसे अनेक कारक मुद्रा की माँग को प्रभावित करते हैं। यदि इन परिवर्तनों के बावजूद मुद्रा की आपूर्ति को स्थिर रखने का प्रयास किया जाए, तो यह अर्थव्यवस्था के लिए बाधक बन जाता है।

मुद्रा की आपूर्ति को पूरी तरह स्थिर रखना केवल एक सैद्धान्तिक कल्पना है, व्यवहार में यह संभव नहीं। जैसे-जैसे व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि होती है, लेन-देन के लिए अधिक मुद्रा की आवश्यकता होती है। यदि इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती तो आर्थिक गतिविधियाँ सीमित होने लगती हैं।

5. मुद्रा की निष्क्रियता: एक भ्रमपूर्ण धारणा

तटस्थ मुद्रा का विचार इस सिद्धांत पर आधारित है कि मुद्रा केवल एक विनिमय माध्यम है, न कि कोई सक्रिय आर्थिक तत्व। किंतु, यह धारणा आर्थिक अनुभवों और संकटों से असंगत है।

उदाहरण के लिए, जब किसी अर्थव्यवस्था में मंदी की स्थिति उत्पन्न होती है, तो मुद्रा की मात्रा स्थिर रखने से उत्पादन व मांग में गिरावट आती है। ऐसी स्थिति में केवल ब्याज दरों को कम करके या मूल्य स्तर स्थिर रखकर अर्थव्यवस्था को पुनः संतुलन की स्थिति में लाना संभव नहीं होता। इसके विपरीत, केंद्रीय बैंक द्वारा सक्रिय मुद्रा नीति अपनाकर मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाई जाती है, जिससे मांग में वृद्धि होती है और आर्थिक चक्र को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

6. तटस्थता और हस्तक्षेप की सैद्धांतिक असंगति

मुद्रा की तटस्थता की नीति अबन्ध-नीति और पूर्ण-प्रतियोगिता पर आधारित होती है। परंतु जब सरकार या केंद्रीय बैंक मुद्रा की आपूर्ति को स्थिर रखने का प्रयास करता है, तब वह अनजाने में ही अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करता है।

यह नीति यह मानती है कि अर्थव्यवस्था स्वतः संतुलन की ओर अग्रसर होगी, जबकि वास्तविकता यह है कि अनेक असंतुलनकारी तत्व — जैसे बेरोजगारी, क्षेत्रीय विषमता, आय असमानता, अव्यवस्थित निवेश — केवल मौद्रिक नीति के सक्रिय प्रयोग से ही नियंत्रित किए जा सकते हैं। इस प्रकार तटस्थता की नीति और मौजूदा असंतुलनों के समाधान के बीच सैद्धान्तिक विरोधाभास उत्पन्न होता है।

7. विकासशील देशों के लिए अनुपयुक्त नीति

विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं में संरचनात्मक समस्याएँ, निवेश की कमी, प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन और उच्च बेरोजगारी जैसी जटिलताएँ पाई जाती हैं। ऐसी अर्थव्यवस्थाओं को सक्रिय मौद्रिक और वित्तीय नीति की आवश्यकता होती है, जो पूंजी निर्माण को प्रोत्साहित कर सके, उत्पादन को गति दे सके और जनसामान्य की क्रयशक्ति में वृद्धि कर सके।

तटस्थ मुद्रा नीति के अनुसार मुद्रा की निष्क्रियता को वरीयता दी जाती है, जिससे इन समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता। अतः यह नीति विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए न तो प्रासंगिक है और न ही उपयोगी

8. मुद्रा का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव

मुद्रा मात्र एक आर्थिक यंत्र नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारक भी है। मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन उपभोक्ता व उत्पादक दोनों के व्यवहार को प्रभावित करता है। यदि उपभोक्ता को यह प्रतीत हो कि मूल्य स्थिर हैं या गिर रहे हैं, तो वह अपनी क्रय प्रक्रिया को स्थगित कर सकता है। इसके विपरीत, मूल्यवृद्धि की आशंका उपभोग और निवेश को प्रेरित कर सकती है।

इस प्रकार, मुद्रा न केवल आर्थिक निर्णयों को प्रभावित करती है, बल्कि सामाजिक अपेक्षाओं और मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों को भी संचालित करती है। इसे निष्क्रिय मानना, वास्तविकता से मुँह मोड़ने जैसा है।

मुद्रा की तटस्थता का सिद्धांत एक सैद्धान्तिक कल्पना मात्र है, जिसका वास्तविकता से कोई ठोस सम्बन्ध नहीं है। यह विचारधारा उस युग की उपज है जब अर्थव्यवस्थाएँ सरल, सीमित और अपेक्षाकृत स्थिर हुआ करती थीं। किंतु आज की जटिल, वैश्वीकृत और परिवर्तनशील अर्थव्यवस्था में, मुद्रा को एक सक्रिय आर्थिक उपकरण के रूप में देखा जाना चाहिए।

तटस्थ मुद्रा नीति न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि आर्थिक संकटों से उबरने में बाधक भी सिद्ध होती है। आधुनिक अर्थशास्त्र इस विचार को अस्वीकार करता है और केंद्रीय बैंकों की सक्रिय भूमिका को आर्थिक संतुलन बनाए रखने और विकास को गति देने के लिए आवश्यक मानता है।

अतः यह कहा जा सकता है कि मुद्रा की निष्क्रियता का विचार न तो व्यवहारिक है और न ही नीतिगत दृष्टिकोण से उचित। एक सफल अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि मुद्रा नीति लचीली, प्रतिक्रियाशील और समसामयिक परिस्थितियों के अनुरूप हो।

A. H. Hansen : Full Recovery or Stagnation P 78-79

Economics – KnowledgeSthali


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