मुद्रा के प्रकार | Kinds of Money

मुद्रा का विकास मानव सभ्यता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है। प्रारंभ में वस्तुओं के आदान-प्रदान के साधन के रूप में मुद्रा का प्रयोग हुआ, परंतु समय के साथ इसके रूप, कार्य तथा महत्व में काफी परिवर्तन आया। आज के वैश्विक परिदृश्य में मुद्रा केवल एक विनिमय का साधन नहीं रह गई, बल्कि यह आर्थिक नीतियों, वित्तीय स्थिरता तथा निवेश के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभर कर सामने आई है। मुद्रा के विभिन्न रूपों को समझने के लिए एक उपयुक्त वर्गीकरण आवश्यक हो जाता है। इस लेख में हम मुद्रा के वर्गीकरण को मुख्यतः तीन आधारों पर देखते हैं – मुद्रा की प्रकृति, वैधानिकता तथा मुद्रा-पदार्थ। साथ ही, ऋण के आधार पर मुद्रा के वर्गीकरण पर भी विचार किया जाएगा।

मुद्रा की प्रकृति के आधार पर वर्गीकरण

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लॉर्ड जे.एम. केन्स (J.M. Keynes) ने मुद्रा को उसकी प्रकृति के आधार पर दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया है: 

  • वास्तविक मुद्रा (Money Proper)
  • लेखा मुद्रा (Money of Account)।

इसके अलावा, केन्स ने चालू मुद्रा (Current Money) की अवधारणा भी प्रस्तुत की है।

वास्तविक मुद्रा (Money Proper / Real Money)

लॉर्ड जे. एम. केन्स (J. M. Keynes) ने मुद्रा की प्रकृति के आधार पर वर्गीकरण में सबसे पहले ‘वास्तविक मुद्रा’ की अवधारणा प्रस्तुत की। वास्तविक मुद्रा वह होती है जिसे किसी देश में विनिमय के माध्यम तथा भुगतान के आधार के रूप में प्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किया जाता है। इसे ‘राज्य मुद्रा’ भी कहा जाता है क्योंकि यह सरकार द्वारा जारी की जाती है और इसके मूल्य को सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त होती है।

मुख्य लक्षण:

  • विनिमय माध्यम: वास्तविक मुद्रा का मुख्य कार्य वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान में सहूलियत प्रदान करना है।
  • क्रय-शक्ति का संचय: इसमें भविष्य के खर्चों या निवेश हेतु क्रय-शक्ति का संचय किया जाता है।
  • राज्य द्वारा नियंत्रित: वास्तविक मुद्रा को सरकार द्वारा नियंत्रित और प्रबंधित किया जाता है। भारत में करैन्सी नोट और सिक्के ही इसका उदाहरण हैं।
  • राज्य मुद्रा (State Money): इसे सरकार द्वारा कानूनी मान्यता प्राप्त होती है, इसलिए इसे राज्य मुद्रा (State Money) भी कहा जाता है।
  • संतुलित मूल्य: वास्तविक मुद्रा में वस्तु का वास्तविक मूल्य (intrinsic value) और मुद्रांकित मूल्य के बीच संतुलन बना रहता है।

बेनहम (Benham) ने वास्तविक मुद्रा को ‘चलन की इकाई’ कहा है, वहीं सेलिगमैन (Seligman) ने इसे ‘यथार्थ मुद्रा’ के रूप में वर्णित किया है। यह वर्गीकरण इस बात पर बल देता है कि वास्तविक मुद्रा वह है जिसे आर्थिक लेनदेन में प्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किया जाता है और जो व्यक्ति तथा संस्थाओं के पास प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध होती है।

उदाहरण: भारत में प्रचलित करेंसी नोट और सिक्के वास्तविक मुद्रा हैं।

केन्स ने वास्तविक मुद्रा को आगे दो उप-श्रेणियों में बाँटा है:

  • वस्तु मुद्रा (Commodity Money): यह किसी मूल्यवान धातु (जैसे सोना, चाँदी) से बनी होती है, जिसका आंतरिक मूल्य (Intrinsic Value) और अंकित मूल्य (Face Value) लगभग समान होता है।
  • प्रतिनिधि मुद्रा (Representative Money): इसका आंतरिक मूल्य नगण्य होता है, लेकिन यह किसी अन्य मूल्यवान संपत्ति (जैसे सोने के भंडार) का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें प्रबंधित मुद्रा (Managed Money) और प्रादिष्ट मुद्रा (Fiat Money) शामिल हैं।

लेखा मुद्रा (Money of Account)

लेखा मुद्रा वह मुद्रा है जिसमें ऋण, कीमतें तथा सामान्य क्रय-शक्ति व्यक्त की जाती है। सरल शब्दों में, लेखा मुद्रा एक मानक मापदंड है जिसके आधार पर विभिन्न आर्थिक लेन-देन का हिसाब रखा जाता है। उदाहरण स्वरूप, भारत में ‘रुपया’ एक लेखा मुद्रा है, जिसका उपयोग वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य निर्धारण में किया जाता है।

मुख्य विशेषताएँ:

लेखा मुद्रा एक सैद्धांतिक इकाई है जिसका उपयोग मूल्यों, ऋणों, और लेखा-जोखा रखने के लिए किया जाता है। इसकी विशेषताएँ हैं:

  • स्थायित्व: इसका नाम और मूल्य दीर्घकाल तक स्थिर रहता है।
  • सार्वभौमिक स्वीकृति: यह अर्थव्यवस्था में मूल्य मापन का आधार बनती है।
  • मापन का साधन: लेखा मुद्रा को मापन के साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसमें वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को एक समान आधार पर रखा जाता है।
  • सैद्धान्तिक स्वरूप: लेखा मुद्रा का स्वरूप सैद्धान्तिक होता है, अर्थात् यह एक आदर्श इकाई के रूप में मान्यता प्राप्त है, भले ही वास्तविक मुद्रा के रूप में उसके कई परिवर्तन हुए हों।
  • अभिव्यक्ति तथा शीर्षक: केन्स ने लेखा मुद्रा को ‘अभिव्यक्ति’ या ‘शीर्षक’ कहा है, जो दर्शाता है कि यह मुद्रा केवल मानवीय लेन-देन की एक अभिव्यक्ति है।
  • भिन्नता का उदाहरण: 1923 के जर्मनी के उदाहरण में, मार्क वास्तविक मुद्रा थी, जबकि लेखा मुद्रा के रूप में फ्रेंक तथा स्विस डालर का प्रयोग किया गया था। इससे स्पष्ट होता है कि वास्तविक और लेखा मुद्रा में अंतर हो सकता है।

उदाहरण: भारत में “रुपया” लेखा मुद्रा है, भले ही समय-समय पर इसके भौतिक स्वरूप (नोट, सिक्के) बदलते रहे हैं।

लेखा मुद्रा का महत्व इस बात में निहित है कि यह आर्थिक लेनदेन को एक समान मापदंड प्रदान करती है, जिसके द्वारा बाजार में विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य निर्धारित किए जा सकते हैं।

चालू मुद्रा (Current Money)

लॉर्ड जे. एम. केन्स ने ‘चालू मुद्रा’ का दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया है, जो किसी निश्चित समय पर जनता के हाथ में उपलब्ध मुद्रा की कुल मात्रा को दर्शाता है। यह मुद्रा न केवल राज्य-मुद्रा बल्कि बैंक-मुद्रा को भी शामिल करती है।

चालू मुद्रा के प्रकार:

  1. आय मुद्रा (Income Money):
    यह वह मुद्रा है जिसे व्यक्ति अपने आय प्राप्ति के बाद अपने दैनिक खर्चों के लिए अपने पास रखते हैं। आय के प्राप्त होने और अगले आय प्राप्ति के बीच के अवधि में यह मुद्रा सामान्य खर्चों के लिए प्रयोग होती है।
  2. व्यवसाय मुद्रा (Business Money):
    व्यवसायी एवं कंपनियाँ अपने व्यापारिक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने हेतु इस मुद्रा का प्रयोग करती हैं। व्यापार संचालन, लेन-देन एवं दैनिक कार्यों के लिए यह मुद्रा आवश्यक होती है।
  3. बचत मुद्रा (Savings Money):
    बचत मुद्रा वह है जिसे लोग भविष्य के निवेश या व्याज प्राप्त करने के लिए अपने पास रखते हैं। यह मुद्रा एक प्रकार की वित्तीय सुरक्षा प्रदान करती है और आपातकालीन स्थितियों में सहायक होती है।

चालू मुद्रा के वर्गीकरण से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि किस प्रकार की मुद्रा किस उद्देश्य के लिए संग्रहित या प्रयोग की जाती है, और यह आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

वैधानिक मान्यता के आधार पर वर्गीकरण

मुद्रा की वैधानिकता का अर्थ है कि सरकार द्वारा मुद्रा को भुगतान के माध्यम के रूप में मान्यता दी जाती है। वैधानिकता के आधार पर मुद्रा को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है:

विधिग्राहा मुद्रा (Legal Tender Money)

विधिग्राहा मुद्रा वह मुद्रा है जिसे सरकार द्वारा भुगतान के साधन के रूप में मान्यता प्राप्त होती है। इसके प्रयोग को कानून द्वारा अनिवार्य कर दिया जाता है, जिससे किसी भी लेन-देन में इसकी स्वीकृति आवश्यक होती है।

मुख्य बिंदु:

  • असीमित तथा सीमित विधिग्राहा:
    • सीमित विधिग्राहा मुद्रा: ऐसी मुद्रा जिसे एक निश्चित सीमा तक स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, छोटे सहायक सिक्कों का प्रयोग अक्सर सीमित राशि तक ही किया जाता है।
    • असीमित विधिग्राहा मुद्रा: ऐसी मुद्रा जिसे किसी भी सीमा तक स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है। वर्तमान समय में चलन में प्रचलित मुख्य मुद्रा इसी प्रकार की होती है।
  • सार्वभौमिक स्वीकृति:
    विधिग्राहा मुद्रा को देश के प्रत्येक नागरिक तथा व्यापारिक संस्था द्वारा स्वीकृत किया जाता है। इसके बिना आर्थिक लेनदेन में अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है।

ऐच्छिक मुद्रा (Option Money)

ऐच्छिक मुद्रा वह है जिसे आम तौर पर स्वीकार किया जाता है, परंतु इसे स्वीकार करने या न करने का निर्णय व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। इसमें किसी भी प्रकार की कानूनी बाध्यता नहीं होती है।

मुख्य उदाहरण:

  • चेक, बिल तथा साखपत्र:
    बैंक द्वारा जारी चेक, बिल तथा अन्य साखपत्र इस श्रेणी में आते हैं। इन्हें आमतौर पर स्वीकार किया जाता है, परंतु यदि भुगतान करने वाला व्यक्ति इन्हें अस्वीकार भी कर सकता है।
  • बैंक-मुद्रा:
    रॉबर्टसन (Robertson) ने विधिग्राहा मुद्रा को ‘साधारण मुद्रा’ तथा ऐच्छिक मुद्रा को ‘बैंक-मुद्रा’ के रूप में वर्गीकृत किया है। बैंक-मुद्रा का प्रयोग बैंक की माँग जमा राशियों तथा ऋण के आधार पर किया जाता है।

वैधानिकता का महत्व

विधिग्राहा मुद्रा के माध्यम से सरकार आर्थिक लेन-देन में स्थिरता बनाए रखती है। जब किसी मुद्रा को वैधानिक रूप से मान्यता दी जाती है, तो इसका प्रयोग व्यापक रूप से स्वीकार्य होता है, जिससे व्यापार एवं आर्थिक गतिविधियाँ सुचारू रूप से चलती हैं। दूसरी ओर, ऐच्छिक मुद्रा की स्वीकृति बाजार में व्यक्तियों और संस्थाओं के भरोसे तथा साख पर निर्भर करती है, जो आर्थिक अस्थिरता का कारण बन सकती है।

मुद्रा-पदार्थ के आधार पर वर्गीकरण

मुद्रा के रूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि मुद्रा का निर्माण किस पदार्थ से होता है। इसके आधार पर मुद्रा को दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जा सकता है – धातु-मुद्रा तथा पत्र-मुद्रा।

धातु-मुद्रा (Metallic Money or Coins)

धातु-मुद्रा, जिसे सिक्कों के रूप में जाना जाता है, मुद्रा का वह रूप है जो विभिन्न धातुओं से निर्मित होती है। धातु-मुद्रा को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

प्रामाणिक सिक्के (Standard or Full-bodied Coins)

प्रामाणिक सिक्के वे सिक्के होते हैं जो देश का प्रधान सिक्का माने जाते हैं। इनके चार प्रमुख लक्षण हैं:

  • मूल कार्य:
    यह सिक्का विनिमय-माध्यम के साथ-साथ लेखा मुद्रा के रूप में भी कार्य करता है। इसे राष्ट्रीय आर्थिक लेन-देन में मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है।
  • संतुलित मूल्य:
    सिक्के का धातु-मूल्य (अन्तर्निहित मूल्य) तथा मुद्रांकित मूल्य लगभग समान होते हैं। इससे सिक्के की विश्वसनीयता बनी रहती है।
  • असीमित विधिग्राह्यता:
    इन सिक्कों को असीमित रूप से कानूनी रूप से स्वीकार किया जाता है, जिससे लेन-देन में कोई बाधा नहीं आती।
  • स्वतंत्र ढलाई (Free Coinage):
    कोई भी व्यक्ति आवश्यकतानुसार धातु देकर सरकारी टकसालों से सिक्के प्राप्त कर सकता है। यह सिद्धांत सिक्कों की सार्वभौमिक स्वीकृति सुनिश्चित करता है।

सांकेतिक सिक्के (Token Coins)

सांकेतिक सिक्के, जिन्हें प्रतीक सिक्के भी कहा जाता है, उन सिक्कों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो छोटे-छोटे भुगतान में प्रयोग किए जाते हैं। इनके चार प्रमुख लक्षण हैं:

  • सहायक मुद्रा:
    ये सिक्के देश की मुख्य मुद्रा के सहायक होते हैं और छोटे-छोटे लेन-देन में प्रयोग किए जाते हैं।
  • अंकित मूल्य में वृद्धि:
    इनका अंकित मूल्य धातु-मूल्य से प्रायः अधिक होता है, जिससे इन्हें वास्तविक धातु-मुद्रा की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता।
  • असीमित विधिग्राह्यता:
    जैसे कि प्रामाणिक सिक्कों में होता है, इन्हें भी असीमित रूप से कानूनी रूप से स्वीकार किया जाता है।
  • नियत ढलाई:
    सांकेतिक सिक्कों की ढलाई स्वतंत्र नहीं होती, अर्थात् इन्हें केवल सरकार या अधिकृत संस्थान ही जारी कर सकते हैं।

पत्र-मुद्रा (Paper Money)

पत्र-मुद्रा आज के आर्थिक लेन-देन में मुख्य रूप से प्रचलित है। पत्र-मुद्रा के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण उसके निर्गमन तथा धातुओं के आधार पर किया जाता है। इसे चार भागों में बाँटा जा सकता है:

  1. प्रतिनिधि पत्र-मुद्रा (Representative Paper Money):
    यह मुद्रा सरकार द्वारा रखा शत-प्रतिशत धात्विक कोष का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें मुद्रांकित मूल्य के पीछे एक निश्चित भौतिक मूल्य रहता है।
  2. परिवर्तनीय पत्र-मुद्रा (Convertible Paper Money):
    ऐसी मुद्रा जिसे किसी निश्चित मात्रा में धातु में परिवर्तित करने की गारंटी के साथ जारी किया जाता है, भले ही इसका आधार 100% कोष पर न हो। यह मुद्रा व्यापार में विश्वसनीयता प्रदान करती है।
  3. अपरिवर्तनीय पत्र-मुद्रा (Inconvertible Paper Money):
    इसमें मुद्रांकित राशि के बदले धातुओं में परिवर्तन की कोई गारंटी नहीं होती। सरकार इस प्रकार की मुद्रा जारी करती है जब धातुओं के भंडार पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
  4. प्रादिष्ट पत्र-मुद्रा (Fiat Money):
    प्रादिष्ट मुद्रा वह है जिसे सरकार द्वारा सीमित मात्रा में जारी किया जाता है और जिसका निर्गमन अन्य किसी भौतिक वस्तु पर आधारित नहीं होता। वर्तमान समय में प्रचलित मुद्रा का अधिकांश भाग इसी प्रकार की होती है। केन्स ने इसे ‘प्रादिष्ट’ अथवा ‘बलात् मुद्रा’ कहा है।

पत्र-मुद्रा के इन रूपों ने आधुनिक अर्थव्यवस्था में लेन-देन के तरीके को सरल, सुगम एवं सुरक्षित बनाया है। इसके द्वारा सरकारें आर्थिक नीतियाँ तैयार करने में सक्षम होती हैं और बैंकिंग प्रणाली के माध्यम से आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित किया जाता है।

ऋण के आधार पर वर्गीकरण

मुद्रा का एक और महत्वपूर्ण वर्गीकरण ऋण के आधार पर किया जा सकता है। गुलें और शाँ (Gurley and Shaw) ने मुद्रा की कुल मात्रा को दो भागों में बाँटा है – आन्तरिक (Inside) मुद्रा तथा बाह्य (Outside) मुद्रा।

आन्तरिक मुद्रा (Internal Money)

आन्तरिक मुद्रा वह होती है जो निजी क्षेत्र में किसी निजी ऋण के आधार पर बनाई जाती है। इसे “अन्तर्जात आर्थिक इकाइयों के ऋण पर आधारित मुद्रा” के रूप में परिभाषित किया गया है।
मुख्य विशेषताएँ:

  • निजी ऋण पर आधारित:
    आन्तरिक मुद्रा के निर्माण में निजी व्यक्तियों, फर्मों तथा वित्तीय संस्थानों के बीच ऋण संबंधी लेन-देन शामिल होते हैं।
  • बैंक जमाराशियाँ तथा ऋण:
    बैंक द्वारा प्राप्त जमाराशियाँ एवं उनके द्वारा जारी ऋण आन्तरिक मुद्रा का एक प्रमुख स्रोत हैं। अक्सर देखा गया है कि बैंक की जमा राशियाँ उनके द्वारा दिये गए ऋणों से अधिक होती हैं।
  • वित्तीय दावों का समूह:
    यह मुद्रा निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों में विभिन्न समूहों के बीच होने वाले ऋण संबंधी दावों का प्रतिनिधित्व करती है।

बाह्य मुद्रा (External Money)

बाह्य मुद्रा वह होती है जो सरकारी इकाई द्वारा जारी की जाती है। इसे “सरकारी ऋण पर आधारित मुद्रा” के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है।
मुख्य विशेषताएँ:

  • सरकारी निर्गमन:
    बाह्य मुद्रा में सरकार द्वारा जारी की गई मुद्रा (नोट और सिक्के) तथा बकाया सरकारी बांड शामिल होते हैं।
  • मूल्य में परिवर्तन का प्रभाव:
    जब बाजार में कीमतों में परिवर्तन होता है तो बाह्य मुद्रा में रखे गए सरकारी नोटों और बांडों के वास्तविक मूल्य में उतार-चढ़ाव आता है, जिससे आर्थिक इकाइयों के बीच धन हस्तांतरण में बदलाव देखने को मिलता है।
  • सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच संतुलन:
    बाह्य मुद्रा आर्थिक संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि इसकी वास्तविक कीमत में हर परिवर्तन सरकार और निजी क्षेत्र के बीच धन हस्तांतरण को प्रभावित करता है।

ऋण पर आधारित इस वर्गीकरण से हमें यह समझने में सहायता मिलती है कि किस प्रकार निजी और सरकारी ऋण प्रणाली आर्थिक गतिविधियों को संचालित करती है तथा मुद्रा के वास्तविक मूल्य को प्रभावित करती है।

आधुनिक संदर्भ में मुद्रा का महत्व एवं प्रयोग

डिजिटल युग में मुद्रा

आधुनिक समय में, जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी में वृद्धि हुई है, मुद्रा के नए रूप उभर कर सामने आए हैं। पारंपरिक नोटों एवं सिक्कों के साथ-साथ अब क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, इलेक्ट्रॉनिक भुगतान प्रणाली तथा मोबाइल बैंकिंग जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं। डिजिटल मुद्रा का प्रयोग न केवल लेन-देन को सरल बनाता है, बल्कि पारदर्शिता एवं सुरक्षा में भी योगदान देता है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में अर्थव्यवस्था में कुल मुद्रा का परिमाण ट्रिलियन डॉलर में मापा जाता है, परन्तु दैनिक लेन-देन में इसका केवल एक हिस्सा प्रयोग में आता है।

मुद्रा की स्थिरता एवं आर्थिक नीतियाँ

मुद्रा के प्रकार और उसका वर्गीकरण यह समझने में मदद करता है कि सरकार और केंद्रीय बैंक किस प्रकार मौद्रिक नीति तैयार करते हैं।

  • मुद्रा आपूर्ति का नियंत्रण:
    केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीति के तहत मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करते हैं ताकि मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जा सके और आर्थिक विकास को सुचारू बनाया जा सके।
  • आर्थिक स्थिरता:
    मुद्रा की स्थिरता से निवेश, बचत तथा वित्तीय लेनदेन में विश्वास बढ़ता है। वैधानिक मुद्रा एवं प्रादिष्ट मुद्रा के माध्यम से सरकार आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में सफल रहती है।
  • वित्तीय बाजार पर प्रभाव:
    आन्तरिक तथा बाह्य मुद्रा के बीच संतुलन बनाए रखना वित्तीय बाजारों में विश्वास और स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण होता है। निजी क्षेत्र तथा सरकारी ऋणों के आधार पर मुद्रा का मूल्य परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील रहता है, जिससे वित्तीय नीतियाँ समय-समय पर पुनर्विचार एवं सुधार की मांग करती हैं।

मुद्रा और वैश्विक आर्थिक संबंध

वैश्वीकरण के इस युग में, मुद्रा केवल घरेलू लेन-देन तक सीमित नहीं रही, बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न देशों की मुद्राएँ एक दूसरे के साथ विनिमय दरों के आधार पर जुड़ी हुई हैं। अंतरराष्ट्रीय व्यापार, निवेश एवं पर्यटन में मुद्रा की स्थिरता एवं विश्वसनीयता एक महत्वपूर्ण कारक होती है। वैश्विक वित्तीय प्रणाली में मुद्रा के प्रकार एवं उनका वर्गीकरण यह सुनिश्चित करता है कि अंतरराष्ट्रीय लेन-देन सुचारू रूप से संपन्न हों।

मुद्रा के प्रकार और उनके वर्गीकरण को समझना न केवल एक शैक्षणिक विषय है, बल्कि यह आधुनिक अर्थव्यवस्था के गहरे ताने-बाने को समझने का एक महत्वपूर्ण अंग भी है।

  • वास्तविक तथा लेखा मुद्रा:
    वास्तविक मुद्रा दैनिक लेन-देन में प्रयोग होने वाली मुद्रा है, जबकि लेखा मुद्रा आर्थिक लेन-देन के लिए एक सैद्धान्तिक मापदंड प्रदान करती है।
  • वैधानिकता का महत्व:
    विधिग्राहा मुद्रा द्वारा सरकार द्वारा दी गई कानूनी स्वीकृति मुद्रा के प्रयोग में स्थिरता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करती है, वहीं ऐच्छिक मुद्रा बाजार की व्यक्तिगत तथा संस्थागत साख पर आधारित होती है।
  • मुद्रा-पदार्थ के आधार पर वर्गीकरण:
    धातु-मुद्रा तथा पत्र-मुद्रा में विभाजन यह दर्शाता है कि मुद्रा के निर्माण में किस प्रकार के पदार्थों का प्रयोग हुआ है और उनका वास्तविक मूल्य निर्धारण किस प्रकार से किया जाता है।
  • ऋण आधारित वर्गीकरण:
    आन्तरिक तथा बाह्य मुद्रा के बीच के अंतर से हमें समझ में आता है कि निजी तथा सरकारी ऋणों के आधार पर मुद्रा का मूल्य और उपलब्धता किस प्रकार प्रभावित होती है।

अंततः, आधुनिक अर्थव्यवस्था में मुद्रा के प्रकारों का अध्ययन हमें यह समझने में सहायक होता है कि किस प्रकार से सरकारें, केंद्रीय बैंक तथा वित्तीय संस्थाएँ आर्थिक नीतियाँ निर्धारित करती हैं और बाजार में मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित करती हैं। डिजिटल युग में, जहाँ लेन-देन के नए-नए साधन उभर कर सामने आ रहे हैं, मुद्रा का यह वर्गीकरण और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है।

आज के आर्थिक परिदृश्य में, मुद्रा का महत्व न केवल लेन-देन के एक माध्यम के रूप में है, बल्कि यह एक व्यापक आर्थिक नीतिगत ढांचे का भी हिस्सा है। मौद्रिक नीति, विनिमय दर, मुद्रास्फीति एवं आर्थिक विकास के सभी पहलुओं में मुद्रा की भूमिका केंद्रीय होती है। इसके अतिरिक्त, निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र के बीच के संबंध, ऋण आधारित मुद्रा का विभाजन एवं डिजिटल प्रौद्योगिकी का समावेश आधुनिक वित्तीय प्रणाली की जटिलताओं को उजागर करता है।

इस विस्तृत अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि मुद्रा के प्रकारों का ज्ञान हमें न केवल इतिहास की समझ देता है, बल्कि आधुनिक अर्थव्यवस्था के गतिशील स्वरूप को भी समझने में सहायता करता है। जब हम मुद्रा की विविधताओं, उसके प्रकारों एवं उनके कार्यों पर विचार करते हैं, तो हमें यह एहसास होता है कि प्रत्येक प्रकार की मुद्रा अपने-अपने विशेष गुणों के साथ आर्थिक प्रणाली को सुदृढ़ बनाने में योगदान देती है।

आगे का मार्ग

  • शैक्षिक एवं अनुसंधान:
    मुद्रा के वर्गीकरण पर आधारित विस्तृत शोध और अध्ययन से न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण प्राप्त होता है, बल्कि भविष्य की मौद्रिक नीतियों को भी सुधारने में मदद मिलती है।
  • आर्थिक नीति निर्माण:
    केंद्रीय बैंक और सरकारें मुद्रा के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए नीतियाँ तैयार करती हैं, जिससे आर्थिक स्थिरता एवं विकास को सुनिश्चित किया जा सके।
  • वैश्विक वित्तीय प्रणाली:
    अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुद्रा के प्रकारों का अध्ययन वैश्विक विनिमय दर, निवेश एवं व्यापार संबंधी नीतियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इस लेख में प्रस्तुत की गई जानकारी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मुद्रा का वर्गीकरण न केवल शैक्षणिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह व्यावहारिक अर्थव्यवस्था के संचालन में भी एक अभिन्न तत्व है। मुद्रास्फीति, विनिमय दर में उतार-चढ़ाव, वित्तीय बाजारों की स्थिरता एवं निवेश के अवसर सभी पहलुओं पर मुद्रा का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है।

अंत में, यह कहना उचित होगा कि जैसे-जैसे तकनीकी प्रगति और वैश्वीकरण आगे बढ़ते हैं, मुद्रा के प्रकार और उनके कार्य में निरंतर परिवर्तन देखने को मिलेंगे। इसलिए, आर्थिक नीति निर्माता, शोधकर्ता और निवेशकों को इस वर्गीकरण का गहन अध्ययन करना आवश्यक है ताकि वे भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो सकें।

इस प्रकार, मुद्रा के प्रकारों का यह व्यापक अध्ययन न केवल वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में स्थिरता एवं विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भविष्य की मौद्रिक नीतियों के निर्माण में भी एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है।

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