मुद्रा तथा आर्थिक जीवन | Money and Economic Life

आज का युग आर्थिक गतिविधियों का युग है। मनुष्य की प्रगति, समाज की संरचना, उद्योगों की उन्नति, और राष्ट्र की समृद्धि — इन सभी की नींव एक ही तत्व पर टिकी हुई है और वह है — मुद्रा। यदि हम आधुनिक अर्थव्यवस्था की तुलना एक विशाल मशीन से करें तो मुद्रा उस मशीन को गति देने वाली शक्ति है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अल्फ्रेड मार्शल के शब्दों में, “मुद्रा वह धुरी है जिस पर समस्त अर्थशास्त्र घूमता है।” वास्तव में, आर्थिक जीवन की प्रत्येक क्रिया का संचालन और मूल्यांकन मुद्रा के माध्यम से ही संभव है।

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मुद्रा | आधुनिक आर्थिक जीवन की आधारशिला

मानव सभ्यता की प्रगति का इतिहास अगर खंगाला जाए तो यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक गतिविधियाँ सदैव इसके केंद्र में रही हैं। इन गतिविधियों को व्यवस्थित, सुगम और प्रभावी बनाने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता पड़ी, जिसे आज हम ‘मुद्रा’ के नाम से जानते हैं। वर्तमान युग में मुद्रा न केवल लेन-देन का साधन है, बल्कि यह समस्त आर्थिक क्रियाओं का प्रेरणा-स्रोत और आधुनिक आर्थिक जीवन की धुरी बन चुकी है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मार्शल ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा था, “मुद्रा वह धुरी है जिस पर संपूर्ण अर्थशास्त्र चक्कर लगाता है।” अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि अर्थव्यवस्था एक मशीन है, तो मुद्रा उस मशीन को चालू रखने वाली ऊर्जा है।

मुद्रा की उत्पत्ति और विकास

मुद्रा की उत्पत्ति की कहानी विनिमय प्रणाली (barter system) से शुरू होती है, जिसमें वस्तुओं के बदले वस्तुएँ दी जाती थीं। किंतु समय के साथ इस प्रणाली में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं — जैसे दो पक्षों की आवश्यकताओं का मेल न बैठना, वस्तुओं का विभाजन न हो पाना और उनकी तुलना करना मुश्किल होना। इन जटिलताओं से उबरने के लिए मनुष्य ने एक ऐसी वस्तु की खोज की जो सभी के लिए स्वीकार्य हो — यही से ‘मुद्रा’ का जन्म हुआ।

प्रारंभ में धातु मुद्राओं का उपयोग हुआ, फिर कागज़ी मुद्रा आई और आज डिजिटल मुद्रा (cryptocurrency, e-wallets) का युग है। यह यात्रा न केवल तकनीकी प्रगति का प्रतीक है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि आर्थिक जीवन में मुद्रा की भूमिका किस प्रकार समय के साथ परिष्कृत होती गई है।

मुद्रा का तात्त्विक स्वरूप और परिभाषा

मुद्रा को संक्षेप में वह वस्तु कहा जा सकता है जिसे समाज द्वारा सामान्यतः विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया हो। रॉबर्टसन ने मुद्रा को परिभाषित करते हुए कहा था, “मुद्रा वह वस्तु है जिसे बिना किसी संशय के भुगतान के रूप में स्वीकार किया जाता है।” इसका प्रमुख कार्य विनिमय माध्यम होना है, किंतु इसके अतिरिक्त यह मूल्य मापन, भविष्य की देनदारियों का निपटान और संचय का साधन भी है।

आर्थिक समस्याओं के समाधान में मुद्रा की भूमिका

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रॉबिन्स के अनुसार, “आर्थिक समस्या मनुष्य की असीमित आवश्यकताओं और सीमित साधनों के बीच संतुलन बनाने की प्रक्रिया है।” प्रत्येक व्यक्ति को यह निर्णय लेना होता है कि वह किन आवश्यकताओं को पहले पूरा करे और किन्हें बाद में। यह चुनाव ‘मुद्रा’ के माध्यम से निर्धारित कीमतों के आधार पर ही संभव होता है। मूल्य वह संकेत हैं जो संसाधनों के सीमित प्रयोग की दिशा तय करते हैं।

मुद्रा के बिना यह निर्णय प्रक्रिया संभव नहीं होती क्योंकि वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं का तुलनात्मक मूल्य निर्धारित करना अत्यंत कठिन होता है। इस प्रकार मुद्रा न केवल व्यक्तिगत निर्णयों का आधार बनती है, बल्कि पूरे समाज में उत्पादन, वितरण और उपभोग के निर्णयों को भी दिशा प्रदान करती है।

मौद्रिक अर्थव्यवस्था और समाज

रॉबर्टसन का कथन उल्लेखनीय है कि “मौद्रिक अर्थव्यवस्था समाज को यह जानने में सहायता देती है कि लोग क्या चाहते हैं और कितना चाहते हैं।” जब उपभोक्ता अपनी पसंद की वस्तुओं पर पैसा खर्च करता है, तो उत्पादक समझते हैं कि किस वस्तु की माँग अधिक है। यह जानकारी संपूर्ण आर्थिक तंत्र को इस प्रकार संचालित करती है कि सीमित संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग सुनिश्चित हो सके।

इस संदर्भ में एक अत्यंत मानवीय उदाहरण भी रॉबर्टसन ने दिया — यदि किसी व्यक्ति के पास पर्याप्त मुद्रा हो तो वह बस में अनावश्यक यात्रा करने से बच सकता है, अथवा वह चार्ली चैपलिन का चेहरा देखने से खुद को वंचित नहीं रखेगा। यानी मुद्रा न केवल जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, बल्कि व्यक्ति को आनंद प्राप्ति के अवसर भी प्रदान करती है।

मुद्रा और आर्थिक नियोजन

किसी भी राष्ट्र की आर्थिक प्रगति को मापने के लिए मुद्रा एक महत्वपूर्ण पैमाना है। सकल घरेलू उत्पाद (GDP), राष्ट्रीय आय (National Income), उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) जैसी समस्त आर्थिक सूचनाएँ मौद्रिक मापदंडों के आधार पर ही प्राप्त होती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि मुद्रा केवल लेन-देन का साधन नहीं है, बल्कि यह आर्थिक नियोजन और नीति-निर्माण का मूलाधार भी है।

केंद्रीय बैंक (जैसे भारत में रिज़र्व बैंक) मुद्रा की मात्रा, प्रवाह और मूल्य को नियंत्रित कर राष्ट्र की समग्र आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं। मुद्रा की अधिकता या अल्पता सीधा महँगाई, बेरोजगारी और विकास दर पर असर डालती है।

मुद्रा की अनुपस्थिति: एक विचार प्रयोग

अगर हम यह कल्पना करें कि आधुनिक समाज से अचानक मुद्रा गायब हो जाए, तो आर्थिक तंत्र पूर्णतः अस्त-व्यस्त हो जाएगा। विनिमय प्रणाली पुनः स्थापित करने के प्रयासों में इतनी जटिलता होगी कि उत्पादन, वितरण और उपभोग के समस्त निर्णय ठप हो जाएँगे। ट्रेस्कॉट का यह कथन इस संदर्भ में अत्यंत उपयुक्त है — “यदि मुद्रा हमारे अर्थतंत्र का हृदय नहीं, तो रक्तस्रोत अवश्य है।” जिस प्रकार शरीर में रक्त प्रवाह अवरुद्ध हो जाने पर जीवन ठहर जाता है, उसी प्रकार मुद्रा के बिना आर्थिक जीवन की गति रुक जाती है।

मुद्रा और आधुनिक उद्योग

पीगू का यह कथन कि “आधुनिक युग में उद्योग मुद्रा रूपी वस्त्र धारण किए हुए हैं,” आज के युग में अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है। उद्योगों को अपने संचालन के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है, जो मुद्रा के रूप में ही उपलब्ध होती है। मशीनें खरीदनी हों, श्रमिकों को वेतन देना हो, कच्चा माल लाना हो या नया उत्पाद विकसित करना हो — हर जगह मुद्रा की भूमिका अपरिहार्य है।

मार्शल ने इसी तथ्य को आगे बढ़ाते हुए कहा था कि मौद्रिक अर्थव्यवस्था का इतिहास वास्तव में मानव सभ्यता के विकास का इतिहास है। व्यापार, वाणिज्य और वैश्विक आर्थिक सहयोग — सब कुछ मुद्रा के माध्यम से ही संभव हो सका है।

मौद्रिक प्रणाली की असंगठितता के दुष्परिणाम

जब किसी देश की मुद्रा प्रणाली असंगठित हो जाती है, तो उसका प्रभाव केवल आर्थिक नहीं होता, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र तक भी फैलता है। मुद्रा का अवमूल्यन (devaluation), अतिवृद्धि (hyperinflation) या मुद्रा संकट (currency crisis) जैसे उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि संगठित मौद्रिक प्रणाली न होने पर राष्ट्र की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।

अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और कुछ एशियाई देशों में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं, जहाँ अस्थिर मुद्रा प्रणाली ने जनता को व्यापक गरीबी और आर्थिक कुंठा की ओर धकेल दिया। भारत में 2016 की नोटबंदी जैसी घटनाएँ भी बताती हैं कि मुद्रा से जुड़ी नीतियाँ कितनी संवेदनशील और निर्णायक होती हैं।

वर्तमान युग में मुद्रा केवल अर्थव्यवस्था का माध्यम नहीं है, बल्कि यह जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। यह न केवल लेन-देन को सरल बनाती है, बल्कि सामाजिक न्याय, औद्योगिक प्रगति और राष्ट्रीय विकास की दिशा भी तय करती है। इसका संचालन और नियंत्रण यदि विवेकपूर्वक किया जाए तो यह समाज को समृद्धि के शिखर तक पहुँचा सकती है, अन्यथा इसके असंगठित स्वरूप से सम्पूर्ण तंत्र डगमगा सकता है।

अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि मुद्रा आधुनिक सभ्यता की जीवनरेखा है — वह शक्ति, जो आर्थिक विकास की समस्त धारणाओं को गति देती है।

आर्थिक क्रियाओं के क्षेत्र में मुद्रा का महत्व (Importance of Money in Economic Functions)

आर्थिक क्रियाओं के क्षेत्र में मुद्रा का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि उत्पादन, उपभोग, विनिमय, वितरण तथा राजस्व से सम्बन्धित किसी भी क्रिया अथवा समस्या को देखा जाय तो स्पष्ट हो जायेगा कि उस क्रिया की प्रकृति तथा समस्या के स्वरूप और आकार पर मुद्रा का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। आर्थिक क्रियाओं के विभिन्न क्षेत्रों में मुद्रा के महत्व का विश्लेषण अग्रवत् है :

1. उत्पादन के क्षेत्र में मुद्रा की भूमिका

(i) आर्थिक गणना: आधुनिक उत्पादन-प्रणाली आर्थिक गणना पर आधारित होती है, और यह गणना केवल मुद्रा के माध्यम से ही संभव है। उत्पादक को लागत, लाभ, मूल्य आदि सभी का मूल्यांकन मुद्रा के रूप में ही करना पड़ता है।

(ii) श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण: आर्थिक प्रगति का आधार श्रम विभाजन है, जो मुद्रा के बिना संभव नहीं। खेनहम के अनुसार, “विशिष्टीकरण पर आधारित आधुनिक जीवन, मुद्रा के अभाव में संभव नहीं होता।”

(iii) पूंजी की गतिशीलता: मुद्रा, पूंजी का सबसे तरल रूप होती है और इसी कारण यह पूंजी को गतिशील और उपयोगी बनाती है।

(iv) साधनों का समुचित संयोजन: उत्पादन के लिए आवश्यक संसाधनों का अनुकूल संयोजन मुद्रा द्वारा ही संभव होता है। उत्पादक प्रतिस्थापन नियम के अंतर्गत उत्पादन के विभिन्न साधनों को बदलने और संतुलन बनाने में मुद्रा सहायक होती है।

(v) बचत और निवेश: मुद्रा की सहायता से व्यक्ति बचत करता है और वही बचत निवेश बनकर पूंजी निर्माण में सहायक होती है।

2. उपभोग के क्षेत्र में मुद्रा की भूमिका

(i) उपभोक्ता की स्वतंत्रता: मुद्रा उपभोक्ता को इच्छा अनुसार वस्तुएँ चुनने की स्वतंत्रता देती है। यदि मुद्रा न हो, तो वस्तु-विनिमय या राशनिंग प्रणाली अपनानी पड़ेगी, जिससे उपभोग की स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी। हॉल्म के अनुसार, “मुद्रा रहित अर्थव्यवस्था में उपभोग पूर्वनिर्धारित मात्रा में करना पड़ेगा।”

(ii) उपभोग की विविधता और मात्रा: मुद्रा विनिमय को सरल बनाती है, जिससे उपभोक्ता को अधिक विकल्प मिलते हैं और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक वस्तुओं द्वारा हो पाती है।

(iii) सम-सीमान्त उपयोगिता नियम का पालन: उपभोक्ता अपने सीमित संसाधनों का उपयोग करते हुए अधिकतम संतोष प्राप्त कर सकता है, जो कि मुद्रा के बिना संभव नहीं।

3. विनिमय के क्षेत्र में मुद्रा की भूमिका

(i) वस्तु-विनिमय के दोषों की समाप्ति: मुद्रा वस्तु विनिमय प्रणाली के दोषों को समाप्त करती है। अब वस्तुओं की प्रत्यक्ष अदला-बदली के स्थान पर मुद्रा के माध्यम से क्रय-विक्रय किया जाता है।

(ii) भविष्य के सौदों का निष्पादन: मुद्रा के माध्यम से भावी सौदे वर्तमान में किये जा सकते हैं। इससे भावी कीमतें और भुगतान अभी ही सुनिश्चित किए जा सकते हैं।

(iii) मूल्य तंत्र का संचालन: कीमतों के उतार-चढ़ाव, मांग-आपूर्ति के अनुसार बाजार की स्थिति का निर्धारण मुद्रा के द्वारा ही होता है। इसी के आधार पर अर्थव्यवस्था समायोजित होती है।

(iv) राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि: मुद्रा ने व्यापार की सीमाओं को विस्तृत कर दिया है। अब विश्वव्यापी लेन-देन आसान हो गया है।

(v) साख का निर्माण: बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा दी जाने वाली ऋण एवं क्रेडिट सुविधाएँ भी मुद्रा पर आधारित हैं।

4. वितरण के क्षेत्र में मुद्रा की भूमिका

विभिन्न उत्पादन-साधनों का पारिश्रमिक—जैसे मजदूरी, ब्याज, किराया और लाभ—मुद्रा के रूप में ही दिया जाता है। यह आवश्यक है कि संसाधनों के बीच कुल आय का न्यायसंगत वितरण हो जिससे समरसता बनी रहे। उत्पादन पूर्ण होने से पहले ही श्रमिकों को भुगतान मुद्रा के रूप में संभव हो पाता है। इस तरह वितरण में निष्पक्षता और संतुलन लाने में मुद्रा सहायक होती है।

5. राजस्व और सार्वजनिक वित्त के क्षेत्र में मुद्रा की भूमिका

आधुनिक राज्य का लक्ष्य केवल शासन चलाना नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और जन-कल्याण सुनिश्चित करना है। इसके लिए राजस्व की आवश्यकता होती है, जो करों और लोक ऋण के रूप में मुद्रा द्वारा ही एकत्र किया जाता है। राज्य का सारा व्यय—चाहे वह प्रशासन हो, शिक्षा, स्वास्थ्य या रक्षा—मुद्रा के रूप में ही होता है। यदि मुद्रा न हो तो राज्य का बजट बनाना और आय-व्यय का संतुलन साधना असंभव हो जाएगा।

मुद्रा की अनुपस्थिति के प्रभाव

यदि कभी ऐसा कल्पना करें कि मुद्रा का अस्तित्व न होता तो आर्थिक जीवन कैसा होता? समाज वस्तु-विनिमय की पुरानी प्रणाली में फँस जाता जहाँ ‘एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु’ का सिद्धांत लागू होता। न तो उत्पादन बढ़ पाता, न ही उपभोग की विविधता संभव होती, न ही मूल्य निर्धारण या राष्ट्रीय व्यापार जैसी आधुनिक अवधारणाएँ विकसित हो पातीं।

ट्रेस्कॉट के अनुसार, “यदि मुद्रा हमारे आर्थिक तंत्र का हृदय नहीं है, तो इसे उसकी रक्त-धारा अवश्य कहा जा सकता है।” इसी भाव को पीगू ने और स्पष्ट करते हुए कहा है, “आधुनिक युग में उद्योग मुद्रा रूपी वस्त्र धारण किए हुए हैं।”

मुद्रा का सामाजिक प्रभाव

मुद्रा ने न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक जीवन को भी प्रभावित किया है। सामाजिक स्थिति, शिक्षा, जीवनशैली और व्यवहार — इन सबका स्वरूप भी अब मौद्रिक हो चुका है। जहाँ पहले सम्मान का मापदंड जाति, धर्म या ज्ञान था, अब वह संपत्ति और मुद्रा की मात्रा बन गया है। यही कारण है कि आज हर व्यक्ति अधिकाधिक मुद्रा अर्जित करने को जीवन का लक्ष्य मानता है।

उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि मुद्रा केवल एक विनिमय का माध्यम नहीं है, बल्कि आधुनिक आर्थिक जीवन की धुरी है। यह उत्पादन, उपभोग, वितरण, विनिमय, और राज्य की वित्तीय गतिविधियों का मूल आधार है। जे. एस. मिल जैसे अर्थशास्त्रियों द्वारा मुद्रा को तुच्छ मानना सर्वथा अनुचित था।

मुद्रा के बिना हम आर्थिक समस्याओं को समझ ही नहीं सकते, उनके समाधान की तो बात ही दूर है। आज की वैश्विक और जटिल आर्थिक संरचना मुद्रा के अभाव में मात्र एक असंगठित ढाँचा बनकर रह जाती। इसीलिए, यह कहा जा सकता है कि आधुनिक सभ्यता और अर्थव्यवस्था की आत्मा — मुद्रा ही है।

  1. A. C. Pigou: Industrial Fluctuations, p. 117.
  2. Alfred Marshall: Money, Credit and Commerce, p. 264.
  3. Paul B. Trescott: Money, Banking and Economic Welfare, p. 3.

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