रस का शाब्दिक अर्थ है – ‘आनंद’। किसी काव्य को पढ़ने अथवा सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को काव्य की आत्मा भी कहते है।
काव्य पढ़ते अथवा सुनते समय आने वाला ‘आनन्द’ अर्थात ‘रस’ लौकिक न होकर अलौकिक होता है। संस्कृत में कहा गया है कि “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” जिसका अर्थ है रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस को अंग्रेजी भाषा में ‘Sentiments’ कहते है।
रस से जिस भाव की अनुभूति होती है, वह रस का स्थायी भाव कहलाता है। पाठक अथवा श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है।
‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति
‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘रस्’ धातु में अच्’ प्रत्यय के योग से हुई है अर्थात ‘रस्+अच् = रस’ होता है। ‘रस’ शब्द का शाब्दिक अर्थ आनंद प्रदान करने वाली वस्तु से प्राप्त होने वाला ‘सुख’ अथवा ‘स्वाद’ है।
साधारण शब्दों में, किसी भी काव्य-रचना को पढ़ने अथवा सुनने से जिस आनंद की प्राप्ति होती है, उसे ही रस कहते है।
रस की व्युत्पत्ति से सम्बंधित निम्नलिखित 2 सूत्र भी प्रचलित है:-
- “रस्यते आस्वाद्यते इति रसः।” – जिसका आस्वादन अथवा स्वाद लिया जाता है, उसे ही ‘रस’ कहते है।
- “सरते इति रसः।” – जो प्रवाहित होता है, उसे ही रस कहते है।
रस की परिभाषा
श्रव्य-काव्य का पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य का दर्शन तथा श्रवण में, जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, उस ही काव्य में रस कहलाता है।
रस का शाब्दिक अर्थ है – ‘आनंद’। किसी काव्य को पढ़ने अथवा सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को काव्य की आत्मा भी कहते है।
रस क्या होता है?
‘रस’ शब्द रस् धातु और अच् प्रत्यय के मेल से बना है। संस्कृत वाङ्गमय में रस की उत्पत्ति ‘रस्यते इति रस’ इस प्रकार की गयी है अर्थात् जिससे आस्वाद अथवा आनन्द प्राप्त हो वही रस है। रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनन्द’। काव्य को पढ़ने या सुनने से अथवा चिन्तन करने से जिस अत्यंत आनन्द का अनुभव होता है, उसे ही रस कहा जाता है।
रस की विशेषताएं
रस की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
- रस स्वप्रकाशानन्द तथा ज्ञान से भरा हुआ है।
- भाव सुखात्मक दुखात्मक होते हैं, किन्तु जब वे रस रूप में बदल जाते हैं तब आनन्दस्वरूप हो जाते हैं।
- रस अखण्ड होता है।
- रस न सविकल्पक ज्ञान है, न निर्विकल्पक ज्ञान, अतः अलौकिक है।
- रस वेद्यान्तर सम्पर्क शून्य है अर्थात् रसास्वादकाल में सामाजिक पूर्णतः तन्मय रहता है।
- रस ब्रह्मानन्द सहोदर है। अतः ras in Hindi का आनन्द ब्रह्मानन्द (समाधि) के समान है।
रस के बारे में महान कवियों की पंक्तियां
रस के महत्व को बताते हुए आचार्य भरतमुनि ने स्वयं लिखा है-
नहि रसाते कश्चिदर्थः प्रवर्तते।
ऐसा ही विश्वनाथ कविराज ने भी लिखा है
सत्वोद्रेकादखण्ड-स्वप्रकाशानन्द चित्तमयः ।
वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो बास्वाद सहोदरः ॥
लोकोत्तरचमत्कार प्राणः कैश्चित्प्रमातृभिः ।
स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः ॥
उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है कि अन्तःकरण में रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण के सुन्दर और स्वच्छ प्रकाश से ‘रस’ का साक्षात्कार होता है। (प्रकृति के तीन गुण होते हैं सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण जिनकी बात यहाँ की गई है लेकिन तीनों में श्रेष्ठ सतोगुण माना जाता है।) यह रस अखण्ड, अद्वितीय, स्वयंप्रकाश, आनन्दमय और ज्ञान स्वरूप वाला है। इस अनुपम ‘रस’ के साक्षात्कार के समय दूसरे वेद्य विषयों का स्पर्श भी नहीं होता है।
अतः ब्रह्मास्वाद (समाधि) के समान होता है। इस रस की अलोकिकता यह है कि जैसे- आत्मा से भिन्न होने पर भी शरीर में ‘गौरोऽहं’, ‘कणोऽहं’ इत्यादि की अभेद प्रतीति होती है; उसी प्रकार आत्मा से भिन्न होने पर भी आनन्दमय एवं चमत्कारमय ‘रस’ आत्मा से अभिन्न प्रतीत होता है।
रस सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक मम्मटाचार्य ने (ग्यारहवीं सदी में) काव्यानंद को ब्रह्मानन्द सहोदर’ अर्थात् योगी द्वारा अनुभूत आनन्द कहा है।
रस के सम्बन्ध में ब्रह्मानन्द की कल्पना का मूल स्रोत तैत्तिरीयोपनिषद है जिसमें कहा गया है- ‘रसो वै सः’ अर्थात् आनन्द ही ब्रह्म है।
हिन्दी वाङ्गमय में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. नगेन्द्र आदि आचार्य शुक्ल ने संस्कृत रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की स्थिति को ‘हृदय की मुक्तावस्था’ के रूप में मानते हैं।
‘विश्वनाथ कविराज’ ने उल्लेख किया है:
अविरुद्धा विरुद्धा वा विरोधातुमक्षमाः ।
आस्वादांकुरकन्दोऽसौ भावः स्थापीति संमतः ॥
अर्थात् अविरुद्ध अथवा विरुद्धभाव (जिसे छिपा न सकें), वह आस्वाद का मूलभूत भाव स्थायी भाव कहा जाता है। रति, क्रोध, उत्साह, घृणा प्रभृति भाव मनुष्य के अन्तःकरण में वासना-रूप में जन्म से ही होते हैं, जिन्हें सिखलाने हेतु किसी शिक्षक की आवश्यकता नहीं होती है। इसी स्थिति को शास्त्रीय भाषा में ‘वासनात्मक’ कहते हैं। अस्तु, स्थायी भाव मानव के अन्तर्मन में वासनात्मक रूप में विद्यमान होते हैं।
भरत मुनि द्वारा रस की परिभाषा
सर्वप्रथम रस उत्पत्ति को परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रास रस के 8 प्रकारों का वर्णन किया है।
रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते है कि सभी नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव ‘रस’ नहीं बल्कि उसका आधार है, लेकिन भरत मुनि ने स्थायी भावों को ही रस माना है।
भरत मुनि ने लिखा है:- “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगद्रसनिष्पत्ति” अर्थात विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अत: भरत मुनि के ‘रस तत्त्व’ का आधारभूत विषय नाट्य में ‘रस’ की निष्पत्ति है।
काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वानों ने काव्य की आत्मा को ही रस माना है।
भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के 8 रस है, जो कि निम्न प्रकार है:–
- श्रृंगार रस
- हास्य रस
- रौद्र रस
- करुण रस
- वीर रस
- अद्भुत रस
- वीभत्स रस
- भयानक रस
भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में ‘शांत रस’ का प्रयोग अनुचित माना है। लेकिन, भरत मुनि ने ‘शांत रस’ को एक रस के रूप में स्वीकार किया है। नाट्यशास्त्र में ‘वात्सल्य रस’ का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
इस प्रकार नवरस की संकल्पना निकलती है। जिसमें कुल 9 रस है, जो कि निम्न प्रकार है:-
- श्रृंगार रस
- हास्य रस
- रौद्र रस
- करुण रस
- वीर रस
- अद्भुत रस
- वीभत्स रस
- भयानक रस
- शांत रस
भरत मुनि ने ‘भक्ति रस’ को सिर्फ एक भाव के रूप में स्वीकार किया है।
अन्य विद्वानों के अनुसार रस की परिभाषा
अन्य सभी विद्वानों के द्वारा दी गई रस की परिभाषा निम्न प्रकार है:-
आचार्य धनंजय के अनुसार रस की परिभाषा
आचार्य धनंजय के अनुसार:- विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, साहित्य भाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से आस्वाद्यमान स्थायी भाव ही ‘रस’ है।
साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ के अनुसार रस की परिभाषा
विभावेनानुभावेन व्यक्त: सच्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादि: स्थायिभाव: सचेतसाम्॥
अर्थ:- जब हृदय का स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है, तो ‘रस’ रूप में निष्पन्न हो जाता है।
डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार रस की परिभाषा
डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार:- भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम ही ‘रस’ है।
आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार रस की परिभाषा
आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार:- स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक के हृदय में रस रूप में उसका आस्वादन होता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस की परिभाषा
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार:- जिस भांति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी भांति हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।
रस के अवयव या अंग
रस के मुख्यतः चार अंग या अवयव होते हैं:
- स्थायीभाव
- विभाव
- अनुभाव
- व्यभिचारी अथवा संचारी भाव।
1.स्थायीभाव रस किसे कहते है?
स्थायी भाव रस का प्रथम व सबसे प्रमुख अंग है। स्थायी भाव का अर्थ:- ‘प्रधान भाव’ होता है। ‘प्रधान भाव’ वह ही हो सकता है, जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। भाव शब्द की उत्पत्ति ‘भ्‘ धातु से हुई है, जिसका अर्थ:- विद्यमान अथवा संपन्न होना है।
अतः जो भाव मन में सदैव अभिज्ञान ज्ञात रूप में विद्यमान रहता है, उसे स्थिर अथवा स्थायी भाव कहते है। जब स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तो वह ‘रस रूप’ में व्यक्त हो जाते है।
स्थायी भाव व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते है। यदि वह भाव ‘सुप्त अवस्था’ में रहते है, फिर भी उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ‘रस’ के रूप में परिणत हो जाते है। लेकिन काव्य अथवा नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िर तक होता है। ‘रस’ में स्थायी भावों की कुल संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार होते है।
एक रस के मूल में एक ही स्थायी भाव रहता है। इसीलिए, रस की कुल संख्या भी 9 है, जिन्हें नवरस कहा जाता है। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों को मान्यता प्रदान की, जो कि ‘वात्सल्य’ और ‘देवविषयक रति’ है। इस प्रकार स्थायी भावों की कुल संख्या 11 हो जाती है और तदनुरूप रसों की कुल संख्या 11 हो जाती है।
रस और उनके स्थायी भाव
स्थायी भाव | रस | परिभाषा |
---|---|---|
रति | श्रृंगार रस | स्त्री-पुरुष की एक-दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते है। |
हास | हास्य रस | रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है। |
क्रोध | रौद्र रस | असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान, आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते है। |
शोक | करुण रस | प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव, आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होने वाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते है। |
उत्साह | वीर रस | मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है, ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति, शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है। |
आश्चर्य/विस्मय | अद्भुत रस | अलौकिक वस्तु को देखने, सुनने व स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है। |
जुगुप्सा/घृणा | वीभत्स रस | किसी अरुचिकर अथवा मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने व उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ‘जुगुप्सा’ कहलाता है। |
भय | भयानक रस | हिंसक जंतुओं के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘भय’ स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है। |
शम/निर्वेद/वैराग्य/वीतराग | शांत रस | सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति को ‘निर्वेद’ कहते है। |
वत्सलता | वात्सल्य रस | माता-पिता का सन्तान के प्रति व भाई-बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है। |
देवविषयक रति/भगवद विषयक रति/अनुराग | भक्ति रस | ईश्वर में परम अनुरक्ति को ही ‘देव-विषयक रति’ कहते है। |
स्थायी भावों का संक्षिप्त अर्थ
- रति– प्रिय वस्तु में मन के प्रेमपूर्ण उन्मुखी भाव को ‘रति’ कहते हैं।
- उत्साह – कार्य करने में स्थिरता तथा उत्कट आवेश को ही उत्साह’ कहते है।
- क्रोध– शत्रुओं के विषय में आवेश का दूसरा नाम ‘क्रोध’ है।
- जुगुप्सा– दोष के कारण किसी वस्तु के प्रति उत्पन्न घृणा को जुगुप्सा कहते हैं।
- विस्मय– अलौकिक शक्ति से युक्त किसी वस्तु के दर्शन इत्यादि से उत्पन्न मन के विस्तार को विस्मय कहते हैं।
- निर्वेद – इच्छाहीनता की अवस्था में अथवा सभी प्रकार की इच्छाओं के शान्त हो जाने पर आत्मा के विश्राम से उत्पन्न सुख को ही ‘शम’ या ‘निर्वेद’ कहते हैं।
- हास– वाणी आदि के विकारों को देखकर मन का आनंदित होना ही ‘हास’ है।
- भय-किसी रौद्र की शक्ति से उत्पन्न, मन को व्याकुल कर देने वाला भाव भय कहलाता है।
- शोक- किसी प्रिय वस्तु के नष्ट होने के कारण उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘शोक’ कहते हैं।
- संतान विषयक रति– जब कोई बालक के हाव-भाव, मीठी-तोतली बोली को सुनकर आकर्षित होता है, तो उसे संतान विषयक रति कहा जाता है।
- भगवद् विषयक रति– जब आराध्य देव के प्रति भक्त मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी आराधना में लीन हो जाता है, तो ऐसे में जिस भाव की उत्पत्ति होती है उसे भगवद् विषयक रति कहा जाता है।
रस-निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व
स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस-दशा को प्राप्त होते है, इसलिए रस-निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है। अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते है।
2.विभाव रस किसे कहते है?
विभाव का मतलब है, ‘कारण’। जिन कारणों से सहृदय सामाजिक के हृदय में स्थित स्थायी भाव विकसित होता है, उन्हें विभाव कहते हैं।
वह कारण (व्यक्ति, पदार्थ, आदि) जो किसी व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते है, उन्हें ‘विभाव’ कहते है।
इनके आश्रय से रस प्रकट होता है। यह कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाते है। विशेष रूप से भावों को प्रकट करने वाले विभाव रस कहलाते है। इन्हें कारण रूप भी कहा जाता है।
विभाव के भेद
‘विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जगाते है और उन्हें उद्दीप्त भी करते है। इस आधार पर विभाव के कुल 2 भेद है, जिनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
- आलम्बन विभाव– जिसके कारण आश्रम के हृदय में स्थायी भाव उदबुद्ध होता है। उसे आलम्बन विभाव कहते हैं।
- उद्दीपन विभाव– ये आलम्बन विभाव के सहायक एवं अनुवर्ती होते हैं। उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएँ एवं बाह्य वातावरण- दो तत्त्व आते हैं, जो स्थायी भाव को और अधिक उद्दीप्त, प्रबुद्ध एवं उत्तेजित कर देते हैं।
आलंबन विभाव
जिस व्यक्ति व वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति व वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव’ कहते है। जैसे:- नायक और नायिका का प्रेम।
आलंबन विभाव के कुल 2 पक्ष होते है, जिनका वर्णन निम्न प्रकार है:-
- आश्रयालंबन
- विषयालंबन
आश्रयालंबन
जिसके मन में भाव जाग्रत होता है, वह आश्रयालंबन कहलाता है। उदाहरण के तौर पर:- कृष्ण के मन में राधा के प्रति रति भाव जाग्रत होता है, तो कृष्ण आश्रय होंगे।
विषयालंबन
जिसके प्रति अथवा जिसके कारण मन में भाव जाग्रत होता है, वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण के तौर पर:- कृष्ण के मन में राधा के प्रति रति भाव जाग्रत होता है, तो राधा विषय होंगी।
उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं अथवा परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त व तीव्र होने लगता है, वह ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाता है। जैसे:- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक अथवा नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ, आदि।
आलम्बन विभाव के कारण ही रस में स्थायी भाव प्रकट होता है। इसी वजह से रस की स्थिति उत्पन्न होती है। प्रकट होने वाले स्थायी भावों को और अधिक प्रबुद्ध, उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते है।
रस-निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व
हमारे मन के स्थायी भावों को जाग्रत तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है। जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते है। इस प्रकार रस-निष्पत्ति में विभाव का काफी अधिक महत्त्व है।
3.अनुभाव रस किसे कहते है?
आश्रय की चेष्टाओं तथा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करने वाले वह भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते है, अनुभाव कहलाते है। भावों को सूचना प्रदान करने के कारण यह भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चातवर्ती माने जाते है।
आलम्बन की चेष्टाएँ (कोशिश करने के लिए, इच्छा) उद्दीपन के अन्तर्गत मानी गयी हैं, जबकि आश्रय की चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आती हैं।
अनुभाव को परिभाषित करते हुए कहा गया है-
” अनुभावो भाव बोधक: “
अर्थात् भाव का बोध कराने वाला कारण अनुभाव कहलाता है। आश्रय की वे बाह्य चेष्टाएँ, जिनसे यह ज्ञात होता है कि उसके हृदय में कौन-सा भाव उबुद्ध हुआ है, अनुभाव कहलाती हैं।
अनुभाव के भेद
अनुभावों के मुख्य रूप से कुल 4 भेद होते है, जिनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
- आंगिक (कायिक)
- वाचिक अथवा मानसिक अनुभाव
- आहार्य
- सात्विक
आंगिक (कायिक)
शरीर की चेष्टाओं से प्रकट होते हैं। अक्सर शरीर की कृत्रिम चेष्टा ही ‘कायिक अनुभाव’ कहलाती है।
वाचिक अथवा मानसिक अनुभाव
वाणी से प्रकट होते हैं। मन में हर्ष-विषाद आदि का उद्वेलन ही ‘मानसिक अनुभाव’ कहलाता है।
आहार्य अनुभाव
मन के भावों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की कृत्रिम वेश-रचना करना ही ‘आहार्य अनुभाव’ कहलाता है। वेशभूषा, अलंकरण से प्रकट होते हैं।
सात्त्विक अनुभाव
सत्व के योग से उत्पन्न वे चेष्टाएँ जिन पर हमारा वश नहीं होता सात्विक अनुभाव कही जाती हैं। इनकी संख्या आठ है- स्वेद, कम्प, रोमांच, स्तम्भ, स्वरभंग, अश्रु, वैवर्ण्य, प्रलाप आदि।
हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्त्व’ का अर्थ:- ‘प्राण’ होता है। स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव’ का रूप धारण कर लेते है।
अनुभावों की कोई संख्या निश्चित नहीं है। जो अन्य 8 अनुभाव सहज और सात्विक विकारों के रूप में आते है, सात्विक भाव कहलाते है। यह अनायास सहज रूप से प्रकट होते है।
इनकी कुल संख्या 8 होती है, जो कि निम्नलिखित है:-
- स्तंभ
- स्वेद
- रोमांच
- स्वर-भंग
- कम्प
- विवर्णता
- अश्रु
- प्रलय
रस-निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व
स्थायी भाव जाग्रत व उद्दीप्त होकर रस-दशा को प्राप्त होते है। अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के हृदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं। इसके साथ ही अनुभावों का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है।
4.संचारी भाव अथवा व्यभिचारी भाव रस किसे कहते है?
स्थायी भावों के साथ संचरण करने वाले भाव, ‘संचारी भाव’ कहलाते है। इससे स्थायी भाव की पुष्टि होती है।
संचारी भाव स्थायी भावों के सहकारी कारण होते हैं, यहीं उन्हें रसावस्था तक ले जाते है और स्वयं बीच में ही लुप्त हो जाते हैं। इसलिए, यह व्यभिचारी भाव भी कहलाते है।
जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती है और बाद में समुद्र में ही विलीन हो जाती है, ठीक उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न होकर विलीन होते रहते है।
भरत मुनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि यें वह भाव हैं, जो रसों में विभिन्न प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्ट कर आस्वादन के योग्य बनाते है।
स्थायी भाव को पुष्ट करने वाले संचारी भाव कहलाते हैं। ये सभी रसों में होते हैं। इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इनकी संख्या 33 मानी गयी है।
महाराजा ‘ जसवंत’ सिंह ने अपने ग्रन्थ ‘भाषा-भूषण’ में इनका इस प्रकार वर्णन किया है-
निर्वेदौ शंका गरब चिन्ता मोह विषाद ।
दैन्य असूया मृत्यु मद, आलस श्रम उन्माद ॥
प्रकृति-गोपन चपलता अपसमार भय ग्लानि ।
बीड़ा जड़ता हर्ष धृति मति आवेग बखानि ॥
उत्कंठा निद्रा स्वपन बोध उग्रता बनाय ।
व्याधि अमर्ष वितर्क स्मृति ये तैंतीस गनाय ॥
(‘भाषा-भूषण’ जसवंत सिंह)
संचारी भाव के भेद
संचारी भाव अनगिनत है, लेकिन फिर भी आचार्यों ने संचारी भावों की कुल संख्या 33 निश्चित की है। जो कि निम्न प्रकार है:-
निर्वेद | आवेग | दैन्य |
श्रम | मद | जड़ता |
उग्रता | मोह | विबोध |
स्वप्न | अपस्मार | गर्व |
मरण | आलस्य | अमर्ष |
निद्रा | अवहित्था | उत्सुकता |
उन्माद | शंका | स्मृति |
मति | व्याधि | सन्त्रास |
लज्जा | हर्ष | असूया |
विषाद | धृति | चपलता |
ग्लानि | चिन्ता | वितर्क |
रस-निष्पत्ति में संचारी भावों का महत्त्व
संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते है। वह स्थायी भावों को इस योग्य बनाते है कि उनका आस्वादन किया जा सके। यद्यपि, वह स्थायी भाव को पुष्ट कर स्वयं समाप्त हो जाते है, फिर भी यह स्थायी भाव को गति व व्यापकता प्रदान करते है।
रस के प्रकार
हिन्दी में मूल रस की कुल संख्या 9 है। इनके अतिरिक्त वात्सल्य रस को दसवाँ रस तथा भक्ति रस को ग्यारहवाँ रस माना गया है।
विवेक साहनी के द्वारा लिखित ग्रंथ “भक्ति रस – पहला रस या ग्यारहवाँ रस” में इस रस को स्थापित किया गया है। इस प्रकार से हिंदी में रसों की कुल संख्या 11 तक पहुंच जाती है। इन सभी रस का नामों सहित विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
रस | स्थायी भाव |
---|---|
श्रृंगार रस | रति/प्रेम |
हास्य रस | हास |
रौद्र रस | क्रोध |
करुण रस | शोक |
वीर रस | उत्साह |
अद्भुत रस | आश्चर्य/विस्मय |
वीभत्स रस | जुगुप्सा/घृणा |
भयानक रस | भय |
शांत रस | शम/निर्वेद/वैराग्य/वीतराग |
वात्सल्य रस | वत्सलता |
भक्ति रस | देवविषयक रति/भगवद विषयक रति/अनुराग |
1. शृंगार रस किसे कहते है?
शृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण है, जिसे काव्यशास्त्र रति स्थायी भाव कहते है। श्रृंगार रस को रसराज की उपाधि प्रदान की गयी है।
जब विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रति स्थायी भाव आस्वाद्य हो जाता है, तो उसे शृंगार रस कहते है। इसमें सुखद व दुखद दोनों प्रकार की अनुभूतियां होती है। जैसे:-
राम को रूप निहारत जानकी,
कंगन के नग की परछाई।
याते सवै सुध भूल गई,
कर टेक रही पल टारत नाही।।
श्रृंगार रस के प्रकार
श्रृंगार रस मुख्य रूप से 2 प्रकार के होते है, जो कि निम्न प्रकार है:-
- संयोग श्रृंगार (संभोग श्रृंगार) रस
- वियोग श्रृंगार (विप्रलम्भ श्रृंगार) रस
संयोग श्रृंगार (संभोग श्रृंगार) रस
जब कविता में नायक-नायिका के मिलान का वर्णन किया जाता है, तो वह संयोग शृंगार कहलाता है। इसमें प्रेमियों के मिलान, वार्तालाप, आलिंगन एवं दर्शन का वर्णन किया जाता है। जैसे-
एक पल मेरे प्रिया के दूग पलक,
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था ॥
– सुमित्रानन्दन पन्त
(ii). वियोग श्रृंगार (विप्रलम्भ श्रृंगार) रस
जब प्रेमी-प्रेमिका के बिछड़ने के वियोग की अवस्था में उनके प्रेम का वर्णन होता है, तो वह वियोग शृंगार कहलाता है। यह दुःख का कारण बन जाता है। जैसे-
अँखियाँ हरि दरसन की भूखीं।
कैसे रहें रूप-रस राँची ये बतियाँ सुन रूखीं।
अवधि गनत इकटक मग जोवत, तन ऐसी नहि भूखीं।
-सूरदास
वियोग श्रृंगार के मुख्यतः चार भेद होते हैं:
- पूर्वराग वियोग
- मानजनित वियोग
- प्रवास जनित वियोग
- अभिशाप जनित वियोग
2. हास्य रस किसे कहते हैं?
किसी भी भिन्न वस्तु, व्यक्ति, वेशभूषा, असंगत क्रियाओं, व्यापारों, व्यवहारों, विचारों व आकृति को देखकर जिस विनोद भाव का संचार होता है, उसे हास्य रस कहते है। अथवा
किसी व्यक्ति की अनोखी विचित्र वेशभूषा, रूप, हाव-भाव को देखकर अथवा सुनकर जो हास्यभाव जाग्रत होता है, वही हास्य रस कहलाता है।
जब नायक व नायिका के बीच में कुछ अनौचित्य आभास होता है, तो यह भाव जाग्रत हो जाते है। हास्य रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
कारीगर कोऊ करामात कै बनाइ लायो;
लीन्हों दाम थोरो जानि नई सुघरई है।
रायजू ने रामजू रजाई दीन्हीं राजी ढके,
सहर में ठौर – ठौर सोहरत भई है।।
बेनी कवि पाइकै, अघाई रहे घरी वैके,
कहत न बने कछू ऐसी मति ठई है।
सांस लेत उडिगो उपल्ला औ भितल्ला सबै,
दिन वैके बाती हेत रुई रहि गई है।
इसमें हास स्थाई भाव है। ‘रजाई’ आलम्बन है और साँस लेने से उसका उपल्ला और भितल्ला उड़ जाना उद्दीपन है।
हास्य रस का एक अन्य उदहारण
सखि! बात सुनो इक मोहन की,
निकसी मटुकी सिर रीती ले कै।
पुनि बाँधि लयो सु नये नतना,
रु कहूँ-कहूँ बुन्द करी छल कै।
निकसी उहि गैल हुते जहाँ मोहन,
लीनी उतारि तबै चल कै।
पतुकी धरि स्याम सिखाय रहे,
उत ग्वारि हँसी मुख आँचल दै ॥
3. करुण रस किसे कहते हैं?
जहाँ अनिष्ट की प्राप्ति, इष्ट वस्तु एवं वैभव का नाश, प्रेम पात्र का चिर वियोग, प्रियजन की पीड़ा अथवा मृत्यु होना पाया जाता है, वहाँ करुण रस होता है।
प्रिय वस्तु या व्यक्ति के समाप्त अथवा नाश कर देने वाला भाव होने पर हृदय में उत्पन्न शोक स्थायी भाव करुण रस के रूप में व्यक्त होता है।
करुणा रस जीवन में सहानुभूति की भावना का विस्तार करता है। करुण रस का स्थायी भाव ‘शोक’ है। करुणा में हमदर्दी, आत्मीयता, और प्रेम उत्पन्न होता है। करुण रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
मात को मोह, ना द्रोह’ विमात को सोच न तात’ के गात दहे’को,
प्रान को छोभ न बंधु बिछोभ न राज को लोभ न मोद रहे’ को।
एते पै नेक न मानत ‘श्रीपति’ एते मैं सीय वियोग सहे को।।
तारन – भूमि” मैं राम कह्यो, मोहि सोच विभीषन भूप कहे को।।
जब लक्ष्मण के शक्ति बाण लगा तो राम का विलाप हुआ। राम के विलाप करने में ‘शोक’ स्थाई भाव है। लक्ष्मण आलम्बन है। राम लक्ष्मण के लिए विलाप करते है। इसमें राम का विलाप अनुभाव है।
करुण रस का एक अन्य उदहारण
अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।
हाय! रुक गया यहीं संसार,
बना सिन्दूर अनल अंगार ।
– सुमित्रानन्दन पन्त
4. वीर रस किसे कहते है?
युद्ध अथवा किसी भी कठिन कार्य को करने के लिए ह्रदय में निहित उत्साह स्थायी भाव के जागृत होने के प्रभाव स्वरूप जो भाव उत्पन्न होते है, उसे वीर रस कहते है।
युद्ध अथवा शौर्य पराक्रम वाले कार्यों में हृदय में जो उत्साह उत्पन्न होता है, उस रस को उत्साह रस कहते है।
उत्साह के चार क्षेत्र पाए गए है, जो कि युद्ध, धर्म, दया और दान है। वीर रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे।।
हे सारथे! हैं द्रोण क्या? आवें स्वयं देवेन्द्र भी।
वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे कभी।।
दल पराजय का उत्साह स्थाई भाव है। अभिमन्यु आश्र है और कोरब आलम्बन है। अभेद्य चक्रव्यूह उद्दीपन है।
वीररस के चार भेद बताये गये है:
- युद्ध वीर
- दान वीर
- धर्म वीर
- दया वीर।
वीर रस का एक अन्य उदहारण
हे सारथे ! हैं द्रोण क्या, देवेन्द्र भी आकर अड़े,
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह भेदन कर लड़े।
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे।
5. अद्भुत रस किसे कहते है?
अद्भुत रस का स्थाई भाव विस्मय है। किसी भी आसाधारण वस्तु, व्यक्ति एवं घटना को देखकर जो आश्चर्य का भाव उत्पन्न होता है, वह अद्भुत रस कहलाता है।
जब हमें कोई अद्भुत वस्तु, व्यक्ति अथवा कार्य को देखकर आश्चर्य होता है, तब उस रस को अद्भुत रस कहा जाता है। जैसे-
गोपी ग्वाल माली’ जरे आपुस में कहैं आली।
कोऊ जसुदा के अवतर्यो इन्द्रजाली है।
कहै पद्माकर करै को यौं उताली जापै,
रहन न पाबै कहूँ एकौ फन’ खाली है।
देखै देवताली भई विधि’ कै खुसाली कूदि,
किलकति काली” हेरि हंसत कपाली है।
जनम को चाली’ परी अद्भुत है ख्याली’ आजु,
काली’ की फनाली” पै नाचत बनमाली है।।
कृष्ण कालिया नाग पर प्रकट हुआ। उसकी इस अद्भुत लीला को देखकर ब्रजवासी उसके बारे में वार्तालाप कर रहे है। इसमें आश्चर्य स्थाई भाव है। कृष्ण का कालिया नाग पर नृत्य करना और बाँसुरी बजाना उद्दीपन है।
अद्भुत रस का एक अन्य उदहारण
एक अचम्भा देख्यौ रे भाई। ठाढ़ा सिंह चरावै गाई ॥
जल की मछली तरुबर ब्याई। पकड़ि बिलाई मुरगै खाई।।
– कबीर
6. भयानक रस किसे कहते हैं?
डरावने दृश्यों को देखकर मन में भय उत्पन्न होता है। जब भय नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव व संचारी भाव से होता है, तो भयानक रस उत्पन्न होता है।
जब हमें भयावह वस्तु, दृश्य, जीव या व्यक्ति को देखने, सुनने या उसके स्मरण होने से भय नामक भाव प्रकट होता है तो उसे भयानक रस कहा जाता है। जैसे:-
पंचभूत का वैभव मिश्रण झंझाओं का सकल निपातु,
उल्का लेकर सकल शक्तियाँ, खोज रही थीं खोया प्रात।
धंसती धरा धधकती ज्वाला, ज्वालामुखियों के नि:श्वास;
और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था ह्रास।
भयानक रस का एक अन्य उदाहरण
नभ ते झपटत बाज लखि, भूल्यो सकल प्रपंच।
कंपित तन व्याकुल नयन, लावक हिल्यौ न रंच ॥
7. रौद्र रस किसे कहते है?
रौद्र रस का स्थाई भाव ‘क्रोध’ है। किसी भी विरोधी द्वारा किसी धर्म, व्यक्ति व देश का अपमान करने से उसकी प्रतिक्रिया से जो क्रोध उत्पन्न होता है, वही रौद्र रस कहलाता है।
जिस स्थान पर अपने आचार्य की निन्दा, देश भक्ति का अपमान होता है, वहाँ पर शत्रु से प्रतिशोध की भावना ‘क्रोध’ स्थायी भाव के साथ उत्पन्न होकर रौद्र रस के रूप में व्यक्त होता है। जैसे:-
माखे लखन कुटिल भयीं भौंहें।
रद-पट फरकत नयन रिसौहैं।।
कहि न सकत रघुबीर डर, लगे वचन जनु बान।
नाइ राम-पद-कमल-जुग, बोले गिरा प्रमान।।
रौद्र रस का एक अन्य उदाहरण
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे ।
सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे ॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए घोषणा वे हो गये उठकर खड़े ॥
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा ॥
मुख बाल-रवि सम लाल होकर ज्वाल-सा बोधित हुआ।
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ॥
-मैथिलीशरण गुप्त
8. वीभत्स रस किसे कहते है ?
वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा या घृणा है। गंदी और घृणित वस्तुओं के वर्णन से जब घृणा भाव पुष्ट होता है, तो वीभत्स रस उत्पन्न होता है।
घृणित दृश्य को देखने-सुनने से मन में उठा नफरत का भाव विभाव-अनुभाव से तृप्त होकर वीभत्स रस की व्यञ्जना करता है। जैसे:-
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत।।
गीध जाँघ को खोदि खोदि के मांस उपारत।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।।
यहाँ राजा हरिश्चंद श्मशान घाट के दृश्य को देख रहे है। उनके मन में उत्पन्न जुगुप्सा या घृणा स्थाई भाव, दर्शक आश्रय, मुद्दे, मास व श्मशान का दृश्य ‘आलंबन’, राजा हरिश्चंद्र का इसके बारे में सोचना ‘अनुभाव’ व मोह, ग्लानि, आवेग, व्याधि, आदि ‘संचारी भाव’ है। जिससे इसके वीभत्स रस होने का पता चलता है।
वीभत्स रस का एक अन्य उदाहरण
रक्त-मांस के सड़े पंक से उमड़ रही है,
महाघोर दुर्गन्ध, रुद्ध हो उठती श्वासा।
तैर रहे गल अस्थि-खण्डशत, रुण्डमुण्डहत,
कुत्सित कृमि संकुल कर्दम में महानाश के॥
9. शांत रस किसे कहते है?
शम व निर्वेद स्थाई भाव इसका आधार है। ईश्वर प्राप्ति से प्राप्त होने वाले परम आनंद की स्थिति में सभी मनोविकार शांत हो जाते है। और एक अनुपम शांति का अनुभव होने लगता है।
वैराग्य भावना के उत्पन्न होने अथवा संसार से असंतोष होने पर शान्त रस की क्रिया उत्पन्न होती है। जैसे:-
सुत वनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबही ते।
अन्तहिं तोहि तजेंगे पामर! तू न तजै अबही ते।
अब नाथहिं अनुराग जाग जड़, त्यागु दुरदसा जीते।
बुझै न काम अगिनि ‘तुलसी’ कहुँ विषय भोग बहु घी ते।।
शांत रस का एक अन्य उदाहरण
बुद्ध का संसार-त्याग-
क्या भाग रहा हूँ भार देख?
तू मेरी ओर निहार देख-
मैं त्याग चला निस्सार देख।
अटकेगा मेरा कौन काम।
ओ क्षणभंगुर भव ! राम-राम !
रूपाश्रय तेरा तरुण गात्र,
कह, कब तक है वह प्राण- मात्र,
बाहर-बाहर है टीमटाम।
ओ क्षणभंगुर भव! राम-राम !
10. वात्सल्य रस किसे कहते हैं?
वात्सल्य का संबंध छोटे बच्चों के प्रति उनके माता-पिता तथा सगे-संबंधियों के प्रेम एवं ममता के भाव से है। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वात्सल्यता एवं प्रेम है।
अधिकतर आचार्यों ने वात्सल्य रस को श्रृंगार रस के अन्तर्गत मान्यता प्रदान की है, परन्तु साहित्य में अब वात्सल्य रस को स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी है।
सूरदास ने वात्सल्य रस को पूर्ण प्रतिष्ठा प्रदान की है। तुलसीदास की विभिन्न कृतियों के बालकाण्ड में वात्सल्य रस की सुन्दर व्यंजना द्रष्टव्य है। जैसे:-
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत।
कबहुँ निरखि हरि आप छाँह को कर सो पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ पुनि पुनि तिहि अवगाहत।।
यहाँ पर स्थाई भाव वात्सल्य, प्रेम आलंबन कृष्ण की बल सुलभ चेष्टाएँ, उद्दीपन किलकना, हर्ष, गर्व, उत्सुकता, आदि है। अतः यहाँ पर वात्सल्य रस है।
वात्सल्य रस का एक अन्य उदाहरण
यसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावैं दुलरावैं, जोइ-सोई कछु गावैं ।
जसुमति मन अभिलाष करैं।
कब मेरो लाल घुटुरुवन रेंगैं,
कब धरनी पग द्वैक घरै।
11. भक्ति रस किसे कहते है?
भक्ति रस शांत रस से अलग होता है। इसमें भी प्रेम का परिपाक होता है। लेकिन, यहाँ रति भाव अपने इष्ट के प्रति होता है।
जब आराध्य देव के प्रति अथवा भगवान् के प्रति हम अनुराग, रति करने लगते हैं अर्थात् उनके भजन-कीर्तन में लीन हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में भक्ति रस उत्पन्न होता है।
जब विषयादि के संयोग से आराध्य विषयक प्रेम का संचार होता है, तो वहाँ पर भक्ति रस होता है। भक्ति रस के कुल 5 भेद है:- शांत, प्रीति, प्रेम, वत्सल व मधु। जैसे:-
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
साधुन संग बैठि – बैठि, लोक लाज खोई।
अब तो बात फैल गई, जानत सब कोई।।
असुअन जल सींचि – सींचि प्रेम बेलि बोई।।
मारां को लगन लागी होनी होइ सो होई।
इसमें कृष्ण आलंबन, साथे संग उद्दीपन, ‘प्रेम बेलि बोई’ अनुभाव, हर्ष, अश्रु, आदि संचारी भाव है। इस प्रकार स्थायी भाव ‘इष्टदेव विषयक रति’ से पुष्ट होकर भक्ति रस में परिणिति हो जाता है।
भक्ति रस का एक अन्य उदाहरण
जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो।
सोइ सुसील, पुनीत, वेद विद विद्या-गुननि भर्यो।
उतपति पांडु सुतन की करनी सुनि सतपंथ उर्यो ।
ते त्रैलोक्य पूज्य, पावन जस सुनि-सुन लोक तर्यो।
जो निज धरम बेद बोधित सो करत न कछु बिसर्यो ।
बिनु अवगुन कृकलासकूप मज्जित कर गहि उधर्यो।