विजयनगर साम्राज्य | 1336 ई. – 1485 ई.

विजयनगर, जिसका का शाब्दिक अर्थ है- ‘जीत का शहर’। प्रायः इस नगर को मध्ययुग का प्रथम हिन्दू साम्राज्य माना जाता है। चौदहवी शताब्दी में उत्पन्न विजयनगर साम्राज्य को मध्ययुग और आधुनिक औपनिवेशिक काल के बीच का संक्रान्ति-काल कहा जाता है। इस साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में दक्षिण भारत में तुग़लक़ सत्ता के विरुद्ध होने वाले राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप संगम पुत्र हरिहर एवं बुक्का नमक दो भाइयों द्वारा तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित अनेगुंडी दुर्ग के सम्मुख की गयी।

अपने इस साहसिक कार्य में उन्हें ब्राह्मण विद्वान माधव विद्यारण्य तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार ‘सायण’ से प्रेरणा मिली। तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित उसकी राजधानी के नाम पर ही इस साम्राज्य का नाम विजयनगर पड़ा। विजयनगर की राजधानी विपुल शक्ति एवं सम्पदा की प्रतीक थी। विजयनगर के विषय में फ़ारसी यात्री ‘अब्दुल रज्जाक’ ने लिखा है कि, “विजयनगर दुनिया के सबसे भव्य शहरों में से एक लगा, जो उसने देखे या सुने थे।”

विजयनगर का इतिहास

शासकशासनकाल
हरिहर प्रथम(1336-1356 ई.)
बुक्का प्रथम(1356-1377 ई.)
हरिहर द्वितीय(1377-1404 ई.)
विरुपाक्ष प्रथम(1404 ई.)
बुक्का द्वितीय(1404-1406 ई.)
देवराय प्रथम(1406-1422 ई.)
देवराय द्वितीय(1422-1446 ई.)
विजयराय द्वितीय(1446-1447 ई.)
मल्लिकार्जुन(1447-1465 ई.)
विरुपाक्ष द्वितीय(1465-1485 ई.)

विंध्याचल के दक्षिण का भारत 200 वर्षों से अधिक समय तक विजयनगर और बहमनी राज्यों के प्रभुत्व में था। इन राज्यों ने न केवल क़ानून और व्यवस्था बनाये रखी, अपितु व्यापार तथा हस्तशिल्प का विकास भी किया।इन साम्राज्यों ने कला और साहित्य को प्रोत्साहन दिया तथा अपनी राजधानियों को भव्य एवं सुन्दर बनाया। जबकि उस समय उत्तर भारत में विघटनकारी शक्तियाँ धीरे-धीरे विजयी हुईं,  ऐसे समय में भी दक्षिण भारत में लम्बे समय तक इन साम्राज्यों के स्थिर शासन रहे।

इस स्थिरता का अन्त पंद्रहवीं शताब्दी के आखिर में बहमनी साम्राज्य के टूटने से और उसके 50 वर्षों के बाद 1565 ई. की राक्षस-टंगड़ी की लड़ाई में विजयनगर के पराजय के बाद, विजयनगर साम्राज्य के टूटने से हुआ। इस बीच भारत की परिस्थितियों में पूर्णतः परिवर्तन हो चुका था । यह परिवर्तन सर्वप्रथम समुद्री मार्ग से यूरोपीयों (पुर्तग़ाल) के आगमन के कारण तत्पश्चात उत्तर भारत में मुग़लों के आक्रमण और विजय के कारण हुआ। मुग़लों के आगमन से उत्तर भारत में एकता के सूत्र एक बार फिर पनपे परन्तु इसके साथ ही भूमि आधारित एशियाई शक्तियों और समुद्र पर प्रभुत्व रखने वाली यूरोपीय शक्तियों के बीच एक लम्बे संघर्ष के युग का भी सूत्रपात हुआ।

विजयनगर की स्थापना

वियजनगर साम्राज्य की स्थापना पाँच भाईयों वाले परिवार के दो सदस्यों हरिहर और बुक्का ने की थी। किवदंतियों के अनुसार वे वारंगल क ककातीयों के सामंत थे और बाद में आधुनिक कर्नाटक में काम्पिली राज्य में मंत्री बन गए थे। जब एक मुस्लमान विद्रोही को शरण देने पर मुहम्मद तुग़लक़ ने काम्पिली को रौद डाला, और इन दोनों भाईयों को भी बंदी बना लिया गया था।

बंदी बना लिए जाने के बाद इन दोनों भाइयों ने इन्होंने इस्लाम कुबूल कर लिया।दोनों भाइयों के द्वारा इस्लाम स्वीकारने के बाद तुग़लक ने इन्हें वहीं विद्रोहियों को दबाने के लिए विमुक्त कर दिया। उस समय मदुरई के एक मुसलमान गवर्नर ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। और मैसूर के होइसल और वारगंल के शासक भी स्वतंत्र होने की कोशिश कर रहे थे। हरिहर और बुक्का भी वहा पहुचे परन्तु कुछ समय बाद ही हरिहर और बुक्का ने अपने नये स्वामी और धर्म (इस्लाम) को छोड़ दिया।

वहा पर उनके गुरु विद्यारण के प्रयत्न से उनकी शुद्धि हुई और उन्होंने विजयनगर में अपनी राजधानी स्थापित की। हरिहर के राज्यारोहण का समय 1336 ई. निर्धारित किया गया। शुरू में, इस नये राज्य को मैसूर के होयसल राजा और मदुरई के सुल्तान का मुक़ाबला करना पड़ा। मदुरई का सुल्तान महत्वाकांक्षी था। एक लड़ाई में उसने होयसल राजा को हरा दिया और उसे बर्बर तरीक़े से मार डाला। होइसल राज्य की पराजय के बाद हरिहर और बुक्का को अपनी छोटी-सी रियासत के विस्तार का मौक़ा मिला। और उन्होने इस मौके का फायदा उठाते हुए होयसल का सारा प्रदेश 1346 ई. तक विजयनगर के अधिकार में ले लिया।

विजयनगर साम्राज्य | 1336 ई. - 1485 ई.

इस लड़ाई में हरिहर और बुक्का के भाईयों ने उनकी मदद की थी।हरिहर और बुक्का तथा उनके भाइयों ने अपने सम्बन्धियों के साथ मिलकर जीते हुए प्रदेश का प्रशासन सम्भाल लिया। इस प्रकार, प्रारम्भ में विजयनगर साम्राज्य एक प्रकार का सहकारी शासन था। बुक्का ने अपने भाई हरिहर को शासन की बागडोर सँभालने दी जिसने 1336 ई. से 1356 ई. तक इसके बाद बुक्का ने 1356 ई. से 1377 ई. तक राज्य किया।

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति के बारे में मतभेद

विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों की उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट जानकारी न होने के कारण में इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ विद्वान ‘तेलुगु आन्ध्र’ अथवा काकतीय उत्पत्ति मानते हैं, तो कुछ ‘कर्नाटा’ (कर्नाटक) या होयसल तथा कुछ ‘काम्पिली’ उत्पत्ति मानते हैं। हरिहर और बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर संगम राजवंश की स्थापना की। विजयनगर साम्राज्य की राजधानियाँ क्रमश: अनेगुंडी या अनेगोण्डी, विजयनगर, पेनुगोण्डा तथा चन्द्रगिरी थीं। हम्पी (हस्तिनावती) विजयनगर की पुरानी राजधानी का प्रतिनिधित्व करता है। विजयनगर का वर्तमान नाम ‘हम्पी’ (हस्तिनावती) है।

विजयनगर साम्राज्य का विस्तार

विजयनगर की सैन्य शक्ति क्रमशः बढती जा रही थी और इसी विस्तार के कारण उसे दक्षिण और उत्तर दोनों ओर संघर्ष करना पड़ा। दक्षिण में उनके प्रमुख शत्रु मदुरई के सुल्तान थे। मदुरई और विजयनगर के बीच लगभग चार दशकों तक युद्ध की स्थिति बनी रही। मदुरई सुल्तान को 1377 ई. तक मिटा दिया गया। उसके बाद विजयनगर साम्राज्य में तमिल प्रदेश और चेरों (केरल) के प्रदेश सहित रामेश्वरम तक सारा दक्षिण भारत समाहित रहा। 

बहमनी राज्य की स्थापना 1347 ई. में हुई थी। जिसका संस्थापक एक महत्वाकांक्षी अफ़ग़ान ‘अलाउद्दीन हसन’ (अलाउद्दीन बहमन शाह प्रथम) था। जिसने एक ब्राह्मण गंगू की सेवा में रहकर अपनी शक्ति बढ़ाई थी। इसलिए उसे ‘हसन गंगू’ कहा जाता है। राज्यारोहण के बाद उसने ‘अलाउद्दीन हसन बहमन शाह’ की उपाधि धारण की। ऐसा कहा जाता है कि वह अपने को अर्द्ध-पौराणिक ईरानी योद्धा का वंशज मानता था, जिसका नाम था ‘बहमनशाह’। परन्तु लोकश्रुतियों के अनुसार बहमनशाह उसके ब्राह्मण आश्रयदाता के प्रति आदर का प्रतीक था। उसके पीछे तथ्य चाहे जो भी हो, परन्तु यह निश्चित है कि इस उपाधि के कारण राज्य को बहमनी साम्राज्य कहा गया।

विजयनगर साम्राज्य | 1336 ई. - 1485 ई.

विजयनगर साम्राज्य के राजवंश

विजयनगर साम्राज्य पर जिन राजवंशों ने शासन किया, वे निम्नलिखित हैं-

  1. संगम वंश – 1336-1485 ई. संस्थापक हरिहर’ और ‘बुक्का
    • हरिहर प्रथम – (1336-1356 ई.)
    • बुक्का प्रथम – (1356-1377 ई.)
    • हरिहर द्वितीय – (1377-1404 ई.)
    • विरुपाक्ष प्रथम – (1404 ई.)
    • बुक्का द्वितीय – (1404-1406 ई.)
    • देवराय प्रथम – (1406-1422 ई.)
    • देवराय द्वितीय – (1422-1446 ई.)
    • विजयराय द्वितीय – (1446-1447 ई.)
    • मल्लिकार्जुन – (1447-1465 ई.)
    • विरुपाक्ष द्वितीय – (1465-1485 ई.)
  2. सालुव वंश – 1485-1505 ई. संस्थापक सालुव नरसिंह
    • सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.)
    • इम्माडि नरसिंह (1491-1505 ई.)
  3. तुलुव वंश – 1505-1570 ई. संस्थापक वीर नरसिंह
    • वीर नरसिंह (1505-1509 ई.)
    • कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.)
    • अच्युतदेव राय (1529-1542 ई.)
    • सदाशिव राय (1542-1570 ई.)
  4. अरविडु वंश – 1570-1650 ई.संस्थापक आलिया राम राय
    • आलिया राम राय (1542-1565 ई.)
    • तिरुमल देव राय (1565-1572 ई.)
    • श्रीरंग प्रथम (1572-1586 ई.)
    • वेंकट द्वितीय (1586-1614 ई.)
    • श्रीरंग द्वितीय (1614-1614 ई.)
    • रामदेव अरविदु (1617-1632 ई.)
    • वेंकट तृतीय (1632-1642 ई.)
    • श्रीरंग तृतीय (1642-1664 ई.)

विजयनगर और बहमनी राज्य का संघर्ष

विजयनगर के शासकों और बहमनी सुल्तानों के बीच अक्सर आये दिन संघर्ष होते रहते थे। इन सुल्तानों के ये स्वार्थ तीन अलग-अलग क्षेत्रों- तुंगभद्रा के दोआब, कृष्णा-कावेरी घाटी और मराठवाड़ा में टकराये। तुंगभद्रा दोआब, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का प्रदेश था।

पहले भी यह प्रदेश अपनी आर्थिक समृद्धि के कारण पश्चिमी चालुक्यों और चोलों के बीच और बाद में होयसलों और यादवों के बीच संघर्ष का कारण रहा। कृष्णा-गोदावरी घाटी में अनेक बंदरगाहें थीं, जहाँ से इस क्षेत्र का समुद्री व्यापार सुगमता से होता था। तुंगभद्रा दोआब कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के बीच का क्षेत्र था।

अपनी आर्थिक सम्पदाओं के कारण यह क्षेत्र पूर्वकाल में पश्चिमी चालुक्यों और चोलाओं के बीच तथा बाद के समय में यादवों और होइसलों के बीच संघर्ष का क्षेत्र बना रहा। कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र जो बहुत ही उपजाऊ क्षेत्र था और जो अपने क्षेत्र में फैले असंख्य बंदरगाहों के कारण विदेश-व्यापार का नियंत्रण रख पाने में सक्षम था, अक्सर तुंगभद्रा दोआब पर अधिकार की लड़ाई में जुड़ जाता था।

मराठा क्षेत्र की लड़ाई हमेशा कोंकण क्षेत्र और उससे जुड़ने वाले रास्तों पर अधिकार को लेकर होती रहती थी। कोंकण पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच की पतली भू-पट्टी थी। यह बहुत ही उपजाऊ क्षेत्र मन जाता था और प्रदेश में बनने वाली वस्तुओं के निर्यात और इराकी तथा ईरानी घोड़ों के आयात के लिए एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह गोआ भी इसी में आता था। उस समय अच्छी नस्लों के घोड़े भारत में नहीं मिलते थे। अतः दक्षिण राज्यों के लिए गोआ के रास्ते घोड़ों का आयात उस समय बहुत महत्त्वपूर्ण था।

विजयनगर साम्राज्य | 1336 ई. - 1485 ई.

बहमनी सुल्तान की प्रतिज्ञा

विजयनगर और बहमनी साम्राज्यों के बीच सैनिक संघर्ष एक दैनिक कार्य हो चुका था। यह संघर्ष तब तक चलता रहा, जब तक की ये दोनों राज्य अस्तित्व में रहे। और ये सैनिक संघर्ष उन क्षेत्रों और आस पास के क्षेत्रों के लिय भयंकर विनाश का कारण बनते थे। इससे जान-माल का भी भारी नुक़सान होता था। दोनों पक्ष शहरों और गाँवों को रौंद डालते थे, उन्हें जला देते थे, पुरुषों-स्त्रियों और बच्चों को पकड़कर ग़ुलामों के रूप में बेच देते थे तथा और भी कई तरह की बर्बरताओं का काम करते थे।

इसी प्रकार 1367 ई. में तुंगभद्रा-दोआब के मुद्दे को लेकर बुक्का प्रथम ने मुदकल के क़िले पर चढ़ाई की तो उसने एक आदमी को छोड़कर सभी को मौत के घाट उतार डाला। जब यह समाचार बहमनी सुल्तान के पास पहुँचा तो उसे बहुत क्रोध आया और उसने तुरन्त वहा से कूच कर दिया। रास्ते में उसने प्रतीज्ञा की कि जब तक बदले में एक लाख हिन्दुओं का ख़ून नहीं कर लूँगा, तलवार को मयान में नहीं रखूंगा।

बहमनी सुल्तान की विजय

वर्षा का मौसम और विजयनगर की सेना के कड़े मुक़ाबले के बावजूद बहमनी सुल्तान कृष्णा नदी पार करने में सफल हुआ और उसने मुदकल पर पुनः अधिकार कर लिया। फिर उसने तुंगभद्रा नदी पार की। यह पहला मौक़ा था जब किसी बहमनी सुल्तान ने स्वयं विजयनगर की सीमा में पैर रखा था।

कुछ इतिहासकारों द्वारा कहा जाता है कि विजयनगर का राजा इस लड़ाई में हार गया और जंगलों में जाकर छिप गया। कहा जाता है कि इसी लड़ाई में सबसे पहले दोनों ही पक्षों द्वारा तोपखाने का प्रयोग हुआ था। बहमनी सुल्तान की जीत इसलिए हुई थी, क्योंकि उसके पास बेहतर किस्म का तोपखाना और घुड़सेना थी।

परन्तु कुछ इतिहासकार कहते है कि यह लड़ाई कई महीनों तक चलती रही, लेकिन बहमनी सुल्तान न तो राजा को पकड़ सका और न ही उसकी राजधानी को जीत सका। इस युद्ध के दौरान पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का क़त्ले-आम चलता रहा। आख़िर में जब दोनों पक्ष थक गए तब उन्होंने संधि का फैसला किया। इस संधि के अंतर्गत दोनों पक्ष अपनी पुरानी सीमाओं पर लौट गए। दोआब का प्रदेश दोनों के बीच बंट गया।

इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि दोनों पक्षों ने निर्णय किया कि चूँकि दोनों राज्यों को लम्बे समय तक एक-दूसरे का पड़ोसी रहना है, इसलिए सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि बर्बरता को त्याग दिया जाए। साथ ही यह फैसला भी किया गया कि युद्धों में असहाय और निहत्थों का वध नहीं किया जाएगा। हालाँकि इस संधि का उल्लंघन कई बार किया गया, परन्तु इससे दक्षिण भारत में युद्धों को अधिक मानवीय बनाने में सहायता अवश्य मिली।

विजयनगर साम्राज्य के उत्तराधिकारी

बाद के समय में विजयनगर साम्राज्य के उत्तराधिकारी मदुरई के सुल्तान को मिटाकर दक्षिण में अपनी स्थिति मज़बूत करने के बाद हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.) के नेतृत्व में विजयनगर साम्राज्य ने पूर्व में विस्तार की नीति अपनायी। इस क्षेत्र में कई छोटी-छोटी स्वतंत्र हिन्दू रियासतें सामिल थीं। इन रियासतों में सबसे महत्त्वपूर्ण डेल्टा के ऊपरी भागों में बसी रेड्डियों की रियासत, और कृष्णा-गोदावरी डेल्टा के निचले हिस्से में बसा वारंगल राज्य थे। उत्तर में उड़ीसा के राजा तथा पूर्व में बहमनी सुल्तानों की रुचि भी इस क्षेत्र में थी।

हालाँकि वारंगल के शासक ने दिल्ली सुल्तान के ख़िलाफ़ ‘हसन गंगू’ (अलाउद्दीन बहमन शाह प्रथम) की मदद की थी, लेकिन उसके उत्तराधिकारी ने वारंगल पर आक्रमण करके कौलास तथा गोलकुण्डा के पहाड़ी क़िले पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। फिर उसने गोलकुण्डा को अपनी सीमा निर्धारित करके यह वचन दिया था कि उसके उत्तराधिकारी कोई भी वारंगल पर भविष्य में कभी आक्रमण नहीं करेंगे।

इस संधि को पक्का करने के लिए वारंगल के शासक ने बहमनी सुल्तान को बहूमूल्य रत्नों से जड़ी एक गद्दी भेंट में दी थी। ऐसा कहा जाता है कि इसका निर्माण मुहम्मद तुग़लक को भेंट करने के लिए करवाया गया था। वारंगल और बहमनी राज्य के बीच यह संधि पचास वर्षों तक रही। यही सबसे बड़ा कारण था कि विजयनगर न तो तुंगभद्रा दोआब पर ही कभी अधिकार कर सका और न ही उस क्षेत्र में बहमनी आक्रमणों को रोक पाया था।

मध्ययुगीन लेखकों ने विजयनगर व बहमनी के बीच हुई लड़ाइयों का वर्णन विस्तार से किया है। परन्तु वह सब ऐतिहासिक महत्व की बात नहीं है। दोनों पक्षों की स्थिति लगभग एक सी ही रही, केवल लड़ाई में पलड़ा कभी एक पक्ष की ओर झुक जाता तो कभी दूसरे पक्ष की और झुक जाता था। हरिहर द्वितीय भी बहमनी और वारंगल की संयुक्त शक्ति के मुक़ाबले अपनी स्थिति बनाये रखने में सफल रहा। उसकी सबसे बड़ी सफलता पश्चिम में बहमनी राज्य से बेलगाँव और गोआ का अधिकार छीनना रहा। उसने उत्तरी श्रीलंका पर भी आक्रमण किया था।

देवराय प्रथम और फ़िरोजशाह

कुछ समय तक अव्यवस्था के बाद देवराय प्रथम (1406-1422 ई.) हरिहर द्वितीय का उत्तराधिकारी बना। उसके राज्य के प्रारम्भिक चरण में तुंगभद्रा दोआब की लड़ाई फिर से छिड़ी। बहमनी शासक फ़िरोजशाह के हाथों उसकी हार हुई और उसे हूवो, मोतियों और हाथियों के रूप में दस लाख के हर्जाने देने पड़ें। उसे सुल्तान के साथ अपनी लड़की की शादी करनी पड़ी और दहेज के रूप में दोआब क्षेत्र में स्थित बांकापुर भी सुल्तान को देना पड़ा ताकि भविष्य में लड़ाई की गुंजाइश न रहे।

यह विवाह बड़ी शानो-शौकत के साथ किया गया। जब फ़िरोजशाह बहमनी शादी के लिए विजयनगर पहुँचा तो, राजा देवराय ने नगर से बाहर आकर बड़ी शान से उसका स्वागत किया। नगर द्वार से लेकर महल तक दस किलोमीटर लम्बे मार्ग को सोने, मखमल और रेशम के कपड़ों और अन्य बहूमूल्यों रत्नों से सजाया गया था। दोनों राजा नगर चौक के केन्द्र से घोड़ों पर सवार होकर गुजरे। देवराय के सम्बन्धी इस जुलूस के साथ मार्ग में मिले और दोनो शासकों के आगे-आगे पैदल चले। उत्सव तीन दिन तक चलता रहा।

दक्षिण भारत में यह इस प्रकार पहला राजनीतिक विवाह नहीं था। इससे पहले ख़ेरला का राजा शान्ति स्थापित करने के लिए फ़िरोजशाह बहमनी के साथ अपनी लड़की की शादी कर चुका था। कहा जाता है कि वह सुल्तान की सबसे पहली बेगम थी। किन्तु यह विवाह अपने आप में शान्ति स्थापित नहीं कर सका। कृष्ण-गोदावरी के बीच के क्षेत्र को लेकर विजयनगर, बहमनी राज्य और उड़ीसा में फिर संघर्ष छिड़ गया। रेड्डियों के राज्य में अस्त-व्यस्तता देखकर देवराय ने वारंगल के साथ उसे आपस में बांट लेने की संधि कर ली।

बहमनियों से वारंगल के अलगाव ने दक्षिण में शक्ति संतुलन को बदल दिया। देवराय को फ़िरोजशाह बहमनी को बुरी तरह पराजित करने में सफलता मिली और उसने कृष्णा नदी के मुहाने तक का सारा प्रदेश हड़प लिया। देवराय प्रथम ने शान्ति की कलाओं की भी अवहेलना नहीं की। उसने तुंगभद्रा पर एक बांध बनवाया ताकि वहाँ से शहर में नहर लाकर पानी की कमी को दूर कर सके। इससे आस-पास के खेतों की सिंचाई भी होती थी। यह जानकारी भी मिलती है कि इससे उसके राजस्व में 350,000 पेरदाओं की भी वृद्धि हुई। सिंचाई के लिए उसने हरिद्रा नदी पर भी बांध बनवाया।

देवराय द्वितीय का प्रशासन

कुछ अव्यवस्था के बाद देवराय द्वितीय (1422-1446) विजयनगर की गद्दी पर बैठा। वह इस वंश का महानतम शासक माना जाता है। अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए देवराय द्वितीय ने अपनी सेना में मुसलमानों को भर्ती किया। तथा अपनी सेना में मजबूत घोड़े और अच्छे तीर- अंदाज भर्ती किये। फ़रिश्ता के अनुसार देवराय द्वितीय का विचार था कि बहमनी सेना सिर्फ इसलिए बेहतर थी कि उसके पास ज्यादा मज़बूत घोड़े और ज्यादा संख्या में अच्छे तीर-अंदाज़ मौजूद थे।

अतः देवराय ने 2000 मुसलमानों को सेना में नौकरी और जागीरें दी और सब हिन्दू सैनिकों और सैनिक अधिकारियो को उनसे तीर-अंदाजी सीखने का आदेश दिया। विजयनगर की सेना में मुसलमानों की भर्ती कोई नयी बात नहीं थी। देवराय प्रथम की सेना में भी 10,000 मुसलमान सैनिक थे। और तीर-अंदाजी भी नयी कला नहीं थी।

सम्भवतः फ़रिश्ता यह कहना चाहता है कि विजयनगर की सेना में घोड़ों पर चढ़कर तीर-अंदाजी के प्रशिक्षण का अभाव था। फ़रिश्ता कहता है कि इस प्रकार देवराय द्वितीय ने तीर-अंदाजी में कुशल 60,000 हिन्दू, 80,000 घुड़ सवार और 200,000 पैदल सैनिक एकत्र कर लिए। हो सकता है कि यह संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बतायी गई हो।

फिर भी यह निश्चित है कि इतनी बड़ी घुड़सेना के निर्माण से राज्य के स्रोतों पर काफ़ी दबाव पड़ा होगा, क्योंकि अच्छे घोड़े आयात करने पड़ते थे और इस व्यापार पर एकाधिकार रखने वाले अरब उनके लिए ऊँची क़ीमत वसूल करते थे।

अपनी नयी सेना को लेकर देवराय द्वितीय ने 1443 ई. में तुंगभद्रा नदी को पार किया और मुदकल, बांकापुर आदि को फिर से जीतने की कोशिश की। ये नगर कृष्णा नदी के दक्षिण में थे और पुरानी लड़ाइयों में बहमनी राज्य के अधिकार में आ गए थे। तीन कड़ी लड़ाइयाँ लड़ी गईं, लेकिन अन्ततः दोनों पक्षों को पुरानी सीमाओं को ही स्वीकार करना पड़ा।

चरमोत्कर्ष तथा विघटन

देवराय द्वितीय की मृत्यु के बाद विजयनगर साम्राजय में पुनः अव्यवस्था आ गई थी। क्योंकि वंशधर के ही उत्तराधिकारी होने का सिद्धांत निश्चित नहीं हो सका। इसलिए गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों के बीच कई युद्ध हुए। इसमें कई राज्य स्वतंत्र हो गए। राज्य के मंत्री शक्तिशाली हो गए, और उन्होंने जनता से कई उपहार और भारी कर वसूलना प्रारंभ कर दिया। इससे जनता में असंतोष पैदा होने लगा। राज्य का शासन कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के कुछ भाग तक ही सीमित रह गया।

राजा ऐश्वर्य में डूब गये। वे कार्यों की अवहेलना करने लगे। कुछ समय के बाद राजा के मंत्री सालुव नरसिंह ने गद्दी पर अधिकार कर लिया। प्राचीन संगम वंश के राज्य का अंत हो गया। सालुव ने आंतरिक क़ानून और व्यवस्था को फिर से स्थापित किया और नये वंश का सूत्रपात किया। यह वंश भी जल्दी ही समाप्त हो गया। अन्ततः कृष्णदेव राय द्वारा एक नये वंश तुलुव वंश की स्थापना हुई।

कृष्णदेव राय और उड़ीसा व पुर्तग़ालियों से संघर्ष

कृष्णदेव राय (1509-1530) इस वंश का महानतम व्यक्ति था। कतिपय इतिहासकार उसे विजयनगर साम्राज्य का महानतम शासक मानते हैं। कृष्णदेव को आंतरिक क़ानून और व्यवस्था की पुनःस्थापना ही नहीं करनी पड़ी, बल्कि उसे विजयनगर के पुराने शत्रु बहमनी राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों और उड़ीसा का भी मुक़ाबला करना पड़ा।

उड़ीसा ने विजयनगर साम्राज्य के बहुत से हिस्सों पर अधिकार कर लिया था। इसके अतिरिक्त उसे पुर्तग़ालियों का भी सामना करना पड़ा, जो उस समय धीरे-धीरे शक्तिशाली हो रहे थे। वे समुद्र पर अधिकार का प्रयोग तटवर्ती क्षेत्रों में उपस्थित विजयनगर की छोटी नावों को घुड़कने में कर रहे थे, ताकि वे आर्थिक और राजनीतिक सुविधाएँ प्राप्त कर सकें। उन्होंने कृष्णदेव राय को तटस्थ बने रहने के लिए रिश्वत देने का प्रस्ताव भी किया। यह रिश्वत बीजापुर से गोआ का अधिकार पुनः छीनने के लिए सहायता और घोड़ों के आयात में एकाधिकार के प्रस्ताव के रूप में थी।

विजयनगर साम्राज्य | 1336 ई. - 1485 ई.

सात साल तक लड़ाइयाँ लड़कर कृष्णदेव ने पहले उड़ीसा को, कृष्णा नदी तक के क्षेत्र के सब जीते हुए प्रदेशों को विजयनगर को लौटाने को विवश किया। इस प्रकार अपनी स्थिति मज़बूत करके कृष्णदेव ने तुंगभद्र दोआब के लिए पुरानी लड़ाई शुरू की। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके दो शत्रुओं, उड़ीसा और बीजापुर ने, आपस में संधि कर ली।

कृष्णदेव राय ने युद्ध के लिए काफ़ी तैयारियाँ कीं। उसने रायपुर और मुदकल पर आक्रमण करके युद्ध शुरू कर दिया। बीजापुर की युद्ध में 1520 ई. में पूर्ण पराजय हुई। और इस पराजय के बाद उसे कृष्णा नदी के पार खदेड़ दिया गया। उसकी जान मुश्किल से बच पाई। विजयनगर की सेना बेलगाँव पहुँची, फिर उसने बीजापुर पर अधिकार किया और कई दिन तक लूटपाट होती रही। उसके बाद उन्होंने गुलबर्गा को नष्ट कर दिया। और उन्होंने कोई संधि नहीं की। इस प्रकार विजयनगर के अंतर्गत तुलुव वंश एक मजबूत और सम्रिध्शाकी वंश के रूप में उभर कर आया जिसका पूरा श्रेया कृष्णदेव राय को जाता है।


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