शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को ध्यान में रखने वाले तत्त्व को शब्द की शक्ति कहते हैं। अर्थात किसी शब्द में छिपे अर्थ का बोध करने वाली शक्ति को शब्द शक्ति कहते हैं। “अभिधा, लक्षणा और व्यंजना” शब्द की तीन शक्तियाँ हैं। शब्द तीन प्रकार के होते हैं – वाचक, लक्षक और व्यंजक, और प्रत्येक शब्द में तीन प्रकार के अर्थ प्रकट होते हैं – वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ।
शब्द शक्ति किसे कहते हैं? (परिभाषा)
किसी शब्द या शब्द समूह के गूढ़ अर्थ को प्रकट करने की शक्ति को शब्द शक्ति कहा जाता है। किसी भी शब्द से ही उसके अर्थ का बोध होता है, इसलिए शब्द को “बोधक” अर्थात बोध करने वाला कहा जाता है। इसी प्रकार उस शब्द के अर्थ को “बोध्य” अर्थात जिसका बोध कराया जाये, कहा जाता है। शब्दों से जो अर्थ निकलता है, उसका बोध कराने वाली शक्ति शब्द शक्ति कहलाती है।
शब्द तीन प्रकार के होते हैं – वाचक, लक्षक एवं व्यंजक। इन्हीं शब्दों के अनुरूप ही इनके तीन प्रकार के अर्थ होते हैं – वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ। इन अर्थों का बोध शब्द शक्तियों द्वारा होता है, अर्थात हम कह सकते हैं कि प्रत्येक शब्द से जो अर्थ निकलता है, उसका बोध कराने वाली शक्ति शब्द शक्ति कहलाती है।
वाच्यार्थ
वाच्यार्थ का अर्थ है – अभिधेयार्थ, मुख्यार्थ अथवा मूल शब्दार्थ। अर्थात वह अभिप्राय जो शब्दों के मूल अर्थ या वास्तविक अर्थ को प्रकट करता हो, वाच्यार्थ कहलाता है। जिस शक्ति के द्वारा यह अर्थ ज्ञात होता है, उसे अमिधा शब्द शक्ति कहते हैं। वाच्यार्थ में सांकेतिक रूप से स्थिर शब्दों का नियत अर्थ प्रकट होता है। जैसे- ‘बैल’ कहने से पशु विशेष का बोध होता है, तथा आम कहने से फल विशेष का बोध होता है। इस प्रकार से मूल अर्थ वाच्यार्थ कहलाता है।
संक्षेप में कह सकते हैं – “जब कोई शब्द अपने साक्षात् संकेतित अर्थ का (सीधे रूप में ही प्रचलित अर्थ का) बोध कराता है तो वहाँ उस अर्थ की प्रतीति में शब्द का व्यापार करने वाली शक्ति को ‘अभिधा शक्ति’ कहते हैं और उससे बोध्य अर्थ को ‘वाच्यार्थ’ अथवा ‘अभिधेयार्थ’ कहते हैं।”
“साक्षात्सङ्केतितं योऽर्थमभिधत्ते स वाचक:।”
“स मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते।”
लक्ष्यार्थ
लक्ष्यार्थ किसी शब्द या वाक्य से निकलने वाले शब्दार्थ से भिन्न होता है किन्तु उससे सम्बद्ध अर्थ को ही प्रकट करता है। अर्थात जिसको लक्ष्य बनाकर कोई वाक्य कहा जाता है, वह अर्थ बताने वाले शब्द को लक्ष्यार्थ कहते है।जिस शक्ति के द्वारा यह अर्थ ज्ञात होता है, उसे लक्षणा शब्द शक्ति कहते हैं। लक्षणा शब्द शक्ति के प्रयोग से अभीष्ट अर्थ, लक्षितार्थ होता है।
वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग – इन तीन प्रकार के शब्दों की लक्षण शक्ति को ‘लक्ष्यार्थ’ कहा जाता है। जैसे – “श्याम की बात कर रहे हो, अरे वह तो ‘गाय’ है।” अब इस वाक्य में श्याम के लिये ‘गाय’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह नहीं हुआ कि श्याम ‘गाय’ है। बल्कि ‘गाय’ का लक्षितार्थ ‘सीधा’, ‘सरल’, ‘भोला’ है।
इसको दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं– “वाच्यार्थ में संकेतित अर्थ का बोध जब न हो और उससे सम्बद्ध किसी अन्य अर्थ को बोध जिस शब्द की शक्ति द्वारा होता है, उसे ‘लक्षणा-शक्ति’ और उस अर्थ को ‘लक्ष्यार्थ’ कहते हैं।”
“मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथप्रयोजनात्। अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत् सा लक्षणारोपिता क्रिया॥”
आचार्य मम्मट के अनुसार– “मुख्यार्थ बाध अर्थात् अन्वयानुपपत्ति अथवा तात्पर्यानुपपत्ति का होना उस मुख्यार्थ के साथ लक्ष्यार्थ का सम्बन्ध होना तथा रूढि का प्रयोजन में से किसी एक का होना – इन तीनों से युक्त होकर जिस शब्द-शक्ति द्वारा किसी अन्य अर्थ का लक्षित होना सम्भव होता है, उसे ‘लक्षणा-शक्ति’ कहते हैं।”
व्यंग्यार्थ
अभिधा और लक्षणा के विराम लेने पर जो एक विशेष अर्थ निकालता है, उसे व्यंग्यार्थ कहते हैं। जिस शक्ति के द्वारा यह अर्थ ज्ञात होता है, उसे व्यंजना शब्द शक्ति कहते हैं।
साहित्यशास्त्रियों ने ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों के गौण हो जाने पर ‘प्रतीयमान अर्थ’ की ‘प्रतीति’ शब्द के जिस व्यापार द्वारा होती है, उसी को ‘व्यञ्जना’ माना है। अर्थात् इस शक्ति (व्यञ्जना) द्वारा मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में ही छिपे (विद्यमान) गूढार्थ का ज्ञान प्रतिभावान् श्रोता वा पाठक को होता है।
वाच्यार्थ कथित होता है और लक्ष्यार्थ लक्षित होता है, तथा व्यंग्यार्थ व्यंजित, ध्वनित, सूचित या प्रतीत होता है। काव्यशास्त्र ने अभिधा के लिए व्याकरण-शास्त्र का सहारा लिया, और लक्षणा के लिए मीमांसा का सहारा लिया। परन्तु व्यंजना के लिए उसने अपना अलग रास्ता चुना।
शब्द शक्ति के प्रकार
शब्द शक्ति के तीन प्रकार (भेद) हैं –
(1) वाच्यार्थ पर आधारित शब्द शक्ति- अभिधा
(2) लक्ष्यार्थ पर आधारित शब्द शक्ति- लक्षणा
(3) व्यंग्यार्थ पर आधारित शब्द शक्ति- व्यंजना
ध्यान रखने योग्य बात यह है कि- वाच्यार्थ कथित होता है, लक्ष्यार्थ लक्षित होता है और व्यंग्यार्थ व्यंजित, ध्वनित, सूचित या प्रतीत होता है। काव्यशास्त्र ने अभिधा के लिए व्याकरण-शास्त्र का सहारा लिया, लक्षणा के लिए मीमांसा का, लेकिन व्यंजना के लिए उसने अपना अलग रास्ता बनाया।
1. अभिधा शब्द शक्ति
शब्द को सुनते ही अथवा पढ़ते ही श्रोता या पाठक उसके सबसे सरल, प्रचलित अर्थ को बिना अवरोध के ग्रहण करता है, वह अभिधा शब्द शक्ति, कहलाती है। दूसरे शब्दों में शब्द की जिस शक्ति से उसके संकेतिक (प्रसिद्ध) अर्थ का बोध हो, उसे अभिधा कहते हैं।
अभिधा शब्द का पहला व्यापार है। शब्दोच्चार के साथ ही जिस अर्थ का बोध होता है, वह उस शब्द का मुख्य अथवा वाच्य अर्थ है। शब्द और उसके मुख्य अर्थ में जो संवंध होता है उसे वाचक-वाच्य संवंध कहते हैं-शब्द वाचक होता है और उसका मुख्यार्थ वाच्य।
अभिधा शब्द शक्ति के उदाहरण
- आदित्य पुस्तक पढ़ रहा है।
- दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अब राजती, कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।।
- निज गौरव का नित ज्ञान रहे, हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे, मरणोत्तर गुंजित गान रहे।।
उपर्युक्त पंक्तियों में के अर्थ को समझने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं है। परंपरा, कोश, व्याकरण आदि से यह अर्थ पूर्व विदित है। अतः यहाँ अभिधा शब्द-शक्ति है।
अभिधा शब्द शक्ति के प्रकार
‘अभिधा’ शब्द शक्ति द्वारा तीन प्रकार के शब्दों का अर्थ बोध होता है –
(i) रूढ़- ये शब्द जातिवाचक होते हैं, जैसे- मेज, बालिका, हाथी, बंदर, पर्वत आदि।
(ii) यौगिक- इन शब्दों का अर्थ बोध अवयवों (प्रकृति और प्रत्ययों) की शक्ति के द्वारा होता हैं, जैसे-दिवाकर, हिमांशु, हिमालय आदि।
(iii) योगरूढ़- इनका अर्थ-बोध समुदाय और अवयवों की शक्ति से होता हैं, ये शब्द यौगिक होते हुए भी रूढ़ होते हैं, जैसे- जलज, वारिज आदि। इनका यौगिक अर्थ जल में उत्पत्र वस्तु हैं, परंतु योगरूढ़ अर्थ केवल ‘कमल’ हैं।
अभिधा शब्द शक्ति का महत्त्व
कई विद्वान अभिधा की तुलना में लक्षणा और व्यंजना को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, परंतु लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ को बिना अभिधा को जाने नहीं समझा जा सकता है।
हिन्दी के रीतिकालीन आचार्य देव ने लिखा है कि-
”अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षना लीन।
अधम व्यंजना रस कुटिल, उलटी कहत कवीन।।”
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का भी मत है कि, ‘वास्तव में व्यंग्यार्थ या लक्ष्यार्थ के कारण चमत्कार आता है, परन्तु वह चमत्कार होता है वाच्यार्थ में ही। अतः इस वाच्यार्थ को देने वाली अभिधा शक्ति का अपना महत्त्व है।‘
2. लक्षणा शब्द शक्ति
मुख्यार्थ की बाधा होने पर, रूढ़ि (लोक प्रसिद्ध) या प्रयोजन (उद्देश्य) के कारण, जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से सम्बद्ध अन्य अर्थ की प्राप्ति हो, उस शब्द शक्ति को लक्षणा कहा जाता है। अर्थात जहाँ शब्दों के मुख्य अर्थ को बाधित कर परम्परा या लक्षणों के आधार पर अन्य अर्थ को ग्रहण किया जाता है, उसे ‘लक्षणा’ कहते हैं। शब्द और लक्षणा का सीधा सम्बन्ध नहीं है। इनके वीच वाच्यार्थ स्थिति है।
लक्षणा शब्द शक्ति के तीन कारण हैं-
- मुख्यार्थबाध
- मुख्यार्थयोग
- रूढ़ि अथवा प्रयोजन
उदाहरण- यदि हम कहें कि ‘लड़का शेर है।’ तो इसका लक्ष्यार्थ है ‘लड़का निडर है।’ यहाँ पर शेर का सामान्य अर्थ अभीष्ट नहीं है। लड़के को निडर बताने के उद्देश्य से उसके लिए शेर शब्द का प्रयोग किया गया है।
लक्षणा शब्द शक्ति के भेद-
भारतीय काव्यशास्त्र में लक्षणा शब्द शक्ति के अनेक भेदों की चर्चा की गई है। परंतु मुख्य रूप से लक्षणा के दो भेद हैं-
(i) रूढ़ि लक्षणा
(ii) प्रयोजनवती लक्षणा
(i) रूढ़ि लक्षणा
जब किसी शब्द के नियत संकेतिक अर्थ को त्यागकर उससे भिन्न अन्य अर्थ या लक्ष्यार्थ लिया जाता है, जो बहुत दिनों से रूढ़ि या परम्परा से नियत हो गया हो तो वहाँ रूढ़ि लक्षणा होती है। जैसे –
“आगि बड़वाग्नि ते बड़ी है आगि पेट की” ___________ (तुलसीदास)
उपरोक्त छंद में ‘बड़वाग्नि’ का मुख्य अर्थ ‘समुद्र में लगने वाली आग’ है परंतु पेट में आग नहीं, भूख लगती है इसलिए मुख्यार्थ की बाधा है। यहाँ पर लक्ष्यार्थ है- ‘तीव्र भूख’। तीव्र भूख के लिए ‘पेट में आग लगना’ कहना रूढ़ि है।
(ii) प्रयोजनवती लक्षणा
जब मुख्य अर्थ के बाधित होने पर किसी प्रयोजन (उद्देश्य) के लिए- किसी विशेष अभिप्राय से-मुख्य अर्थ से सम्बन्ध रखने वाले किसी भिन्न (लक्ष्यार्थ) अर्थ को ग्रहण किया जाता है, तो उसे प्रयोजनवती लक्षणा कहा जाता है। अर्थात जहाँ किसी शब्द का नियत अर्थ न लेकर उससे भिन्न अर्थ या लक्ष्यार्थ किसी विशेष प्रयोजन से लिया जाय, तो वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा होती है। जैसे –
“उषा सुनहले तीर बरसाती। जय लक्ष्मी सी उदित हुई।।
उधर पराजित काल रात्रि भी । जल में अंतर्निहित हुई ।।” __________ (जय शंकर प्रसाद- कामायनी)
उपरोक्त छंद में प्रलय के समाप्त हो जाने की स्थितियों का वर्णन किया गया है। यहाँ पर ‘तीर’ का मुख्य अर्थ ‘बाण’ है, पर लक्ष्यार्थ ‘सूर्य की किरण’ है, जो प्रयोजनवती लक्षणा से ही सिद्ध हुआ है।
3. व्यंजना शब्द शक्ति
शब्द के जिस व्यापार से मुख्य और लक्ष्य अर्थ से भिन्न अर्थ की प्रतीति हो उसे ‘व्यंजना’ कहते हैं। व्यंजना शब्द शक्ति से अन्यार्थ या विशेषार्थ का ज्ञान कराने वाला शब्द व्यंजक कहलाता है, जबकि उस व्यंजक शब्द से प्राप्त अर्थ को व्यंग्यार्थ या धन्यार्थ कहते हैं।
व्यंजना शब्द शक्ति द्वारा अर्थ की प्रतीति कराने के लिए, ध्वन्यार्थ, सुच्यार्थ, प्रतीयमानार्थ, आक्षेपार्थ आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं।
जहाँ अभिधा तथा लक्षणा शब्द शक्ति केवल अर्थ पर आधारित होते हैं वहीं व्यंजना शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित होता है। जब तक अभिधा-लक्षणा अपना काम करके विरत नहीं हो जाते, व्यंजना का काम आरंभ ही नहीं होता। जैसे –
सुबह के 8 बज गये।
यह वाक्य साधारण है लेकिन इसका प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न अर्थ है। जैसे एक ऐसा व्यक्ति जो जिसका कार्य रात के समय पहरेदारी करना है तो वह इसका अर्थ लेगा कि उसकी अब छुट्टी हो गयी है। एक साधारण कार्यालय जाने वाला व्यक्ति इसका अर्थ लेगा कि उसे कार्यालय जाना है। एक गृहणी महिला इसका अर्थ अपने घर के कार्यों से जोड़कर देखेगी। बच्चे इसका अर्थ अपने विद्यालय जाने के समय के रूप में लेंगे। पुजारी इसका अर्थ अपने सुबह के पूजा-पाठ से जोड़कर देखेगा। अर्थात वाक्य एक है लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए भावार्थ अलग-अलग हैं।
व्यंजना शब्द शक्ति के भेद
व्यंजना शब्द शक्ति के दो भेद हैं-
(अ) शाब्दी व्यंजना
(ब) आर्थी व्यंजना
(अ) शाब्दी व्यंजना
जहाँ व्यंग्यार्थ किसी विशेष शब्द के प्रयोग पर ही निर्भय रहता है, वहाँ शाब्दी व्यंजना होती है। इसके भी दो भाग हैं-
I. अभिधामूला शाब्दी व्यंजना
II. लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना
I. अभिधामूला शाब्दी व्यंजना-
अभिधात्मक शब्द पर आश्रित (निर्भर) शाब्दी व्यंजना ‘अभिधामूला शाब्दी व्यंजना’ कहलाती है। जैसे –
चिरजिवो जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घटिए, वृष भानुजा, वे हलधर के वीर।। __________ (बिहारी)
दिए गए छंद में- ‘वृष भानुजा’ और ‘हलधर के वीर’ के 3-3 अर्थ हैं।
- वृष भानुजा का अर्थ
- वृष भानु + जा = वृष भानु की पुत्री
- वृषभ + अनुजा = बैल की बहन गाय
- वृष + भानु + जा = वृष राशि के सूर्य की पुत्री
- हलधर के वीर का अर्थ
- हल को धारण करने वाले कृष्ण के भाई बलराम
- बैल के भाई
- शेषनाग के अवतार
II. लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना
लाक्षणिक शब्द पर आश्रित व्यंजना को ‘लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना’ कहते हैं। जैसे –
“फली सकल मनकामना, लूट्यौ अगनित चैन।
आजु अंचै हरि रूप सखि, भये प्रफुल्लित नैन।।
दिए गए छंद में ‘फली’ का अर्थ है- पूर्ण हुई, ‘लूटयौ’ का अर्थ है- प्राप्त किया और ‘अँचै’ का अर्थ है- देखा। किन्तु व्यंजना से संपूर्ण पद का व्यंग्यार्थ है- प्रियतम के दर्शन से अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।
(ब) आर्थी व्यंजना
जहाँ पर व्यंजना का आधार अर्थ विशेष हो वहाँ पर आर्थी व्यंजना होती है। जैसे –
“सागर तीर मीन तरफत है, हुलसी होत जल पीन।
दिए गए पंक्ति में आर्थी व्यंजना है- कृष्ण के पास होते हुए भी गोपियाँ प्रेम से वंचित हैं।
इन्हें भी देखें –
- हिंदी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास
- छायावादी युग के कवि और उनकी रचनाएँ
- भाषा एवं उसके विभिन्न रूप
- शब्द किसे कहते हैं? तत्सम, तद्भव, देशज एवं विदेशी शब्द
- अलंकार- परिभाषा, भेद और 100 + उदाहरण
- समास – परिभाषा, भेद और 100 + उदहारण
- हिंदी वर्णमाला- स्वर और व्यंजन (Hindi Alphabet)
- संधि – परिभाषा एवं उसके भेद (Joining)