भारतीय संविधान ने अपने अस्तित्व में आने के बाद से कई महत्वपूर्ण संशोधनों का सामना किया है। ये संविधान संशोधन न केवल कानूनी और प्रशासनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि देश की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों को भी परिलक्षित करते हैं। भारतीय संविधान ने अपने संशोधनों के माध्यम से समाज और राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव लाए हैं। इन संशोधनों ने न केवल प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारने का कार्य किया है, बल्कि सामाजिक न्याय, समता, और विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ये संविधान संशोधन भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और उसके विकास की दिशा में मील के पत्थर साबित हुए हैं।
भारतीय संविधान संशोधन की प्रक्रिया एक संतुलित और विस्तृत प्रक्रिया है जो यह सुनिश्चित करती है कि संविधान में कोई भी बदलाव सोच-समझकर और गंभीरता से किया जाए। यह प्रक्रिया संविधान की स्थिरता और उसके मूल सिद्धांतों की रक्षा करने में मदद करती है, साथ ही समय के साथ समाज की बदलती आवश्यकताओं को भी संबोधित करती है। अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद के पास संविधान संशोधन का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का प्रयोग संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट करने के लिए नहीं किया जा सकता।
भारतीय संविधान के संशोधनों का इतिहास और महत्व
भारतीय संविधान को एक जीवित दस्तावेज माना जाता है, जो समय-समय पर देश की बदलती आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार संशोधित होता रहा है। संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “बदलती आवश्यकताओं के अनुसार भविष्य में संविधान में संशोधन की जरूरत हो सकती है, क्योंकि कोई भी संविधान आने वाली पीढ़ियों को बांध नहीं सकता।” यह विचार संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत दिए गए संशोधन प्रावधानों की नींव रखता है।
अब तक भारतीय संविधान में 103 संशोधन हो चुके हैं, जिनमें से 124 संविधान संशोधन विधेयक पारित हुए हैं। इस संदर्भ में कई बार यह भ्रांति हो जाती है कि संविधान में 124 संशोधन हो चुके हैं, जबकि वास्तव में यह संख्या 103 है। भारतीय संविधान को विश्व के सबसे अधिक संशोधित संविधानों में से एक माना जाता है। हालांकि, इनमें से अधिकांश संशोधन छोटे-मोटे स्पष्टीकरण वाले ही हैं, जैसे राज्य का नाम बदलना, भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना, या आरक्षण की समय अवधि बढ़ाना।
भारतीय संविधान संशोधन की प्रक्रिया
भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है और समय के साथ इसे बदलने और सुधारने की आवश्यकता महसूस की गई। इसके लिए संविधान के भाग-20 के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन से संबंधित प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। यह अनुच्छेद संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार देता है। संविधान में संशोधन की तीन प्रमुख पद्धतियाँ हैं –
- साधारण बहुमत से संशोधन
- विशेष बहुमत से संशोधन
- विशेष बहुमत और राज्यों का अनुसमर्थन
1. साधारण बहुमत से संशोधन
संविधान के कुछ उपबंधों को संसद साधारण बहुमत से ही संशोधित कर सकती है। साधारण बहुमत का अर्थ है कि संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का आधे से अधिक संख्या का समर्थन प्राप्त हो। यह पद्धति उन उपबंधों पर लागू होती है जिनका संविधान की मूल संरचना पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे उपबंध निम्नलिखित हैं:
- अनुच्छेद 2, 3 और 4: संसद को नए राज्यों के निर्माण, सीमा परिवर्तन और राज्य के नाम बदलने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 73(2): संघ की कार्यपालिका शक्ति की सीमा।
- अनुच्छेद 100(3): संसद की गणपूर्ति का प्रावधान।
- अनुच्छेद 75, 97, 125, 148, 165(5) और 221(2): द्वितीय अनुसूची में परिवर्तन की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 105(3): संसद द्वारा परिभाषित किए जाने पर संसदीय विशेषाधिकारों की व्यवस्था।
- अनुच्छेद 106: संसद सदस्यों के वेतन और भत्तों की व्यवस्था।
- अनुच्छेद 118(2): संसद के दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत किए जाने पर प्रक्रिया से संबंधित विधि की व्यवस्था।
- अनुच्छेद 120(3): संसद द्वारा किसी नई व्यवस्था के न किए जाने पर 15 वर्षों के उपरांत अंग्रेजी को संसदीय भाषा के रूप में छोड़ने की व्यवस्था।
- अनुच्छेद 124(1): संसद द्वारा किसी व्यवस्था के न होने तक उच्चतम न्यायालय में सात न्यायाधीश होंगे।
- अनुच्छेद 133(3): संसद द्वारा नई व्यवस्था न किए जाने तक उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के द्वारा उच्चतम न्यायालय को भेजी गई अपील को रोकता है।
- अनुच्छेद 135: संसद द्वारा किसी अन्य व्यवस्था को न किए जाने तक उच्चतम न्यायालय के लिए एक सुनिश्चित अधिकार क्षेत्र नियत करता है।
- अनुच्छेद 169(1): कुछ शर्तों के साथ विधान परिषदों को भंग करने की व्यवस्था करता है।
2. विशेष बहुमत से संशोधन
संविधान के अधिकांश उपबंधों को संशोधित करने के लिए संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। विशेष बहुमत से तात्पर्य है कि सदन की कुल सदस्य संख्या का साधारण बहुमत और उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत।
यह पद्धति संविधान के उन प्रावधानों पर लागू होती है जो संविधान की संरचना और उसकी आत्मा से जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिए:
- मूल अधिकारों में संशोधन।
- संसद और राज्य विधानसभाओं की शक्तियों और कार्यक्षेत्र का निर्धारण।
- न्यायपालिका से संबंधित प्रावधानों में परिवर्तन।
3. विशेष बहुमत और राज्यों का अनुसमर्थन
संविधान के कुछ उपबंध ऐसे हैं जिनमें संशोधन करने के लिए संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं की स्वीकृति आवश्यक होती है। ये उपबंध संघीय ढांचे से जुड़े होते हैं और इनमें संशोधन करने से संघीय संतुलन पर प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे उपबंध निम्नलिखित हैं:
- अनुच्छेद 54: राष्ट्रपति का निर्वाचन।
- अनुच्छेद 55: राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली।
- अनुच्छेद 72: संघ की कार्यपालिका शक्ति की सीमा।
- अनुच्छेद 162: संघ और राज्यों की कार्यपालिका शक्ति की सीमा।
- अनुच्छेद 241: केंद्रशासित क्षेत्रों के लिए उच्च न्यायालय।
- भाग 5 का अध्याय 4: संघ की न्यायपालिका।
- भाग 6 का अध्याय 5: राज्यों की उच्च न्यायपालिका।
- भाग 11 का अध्याय 1: संघ और राज्यों के विधायी संबंध।
- अनुच्छेद 368: संविधान संशोधन प्रक्रिया।
संयुक्त बैठक का प्रावधान नहीं
अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन विधेयक उसी प्रक्रिया से पारित किए जाते हैं। किंतु यदि संविधान संशोधन विधेयक पर दोनों सदनों में विरोध होता है तो गतिरोध दूर करने हेतु संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं है।
राष्ट्रपति का हस्ताक्षर
संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है। अनुच्छेद 111 के अनुसार, जब साधारण विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजे जाते हैं तो वह अनुमति न देकर उसे सदनों को पुनर्विचार करने के लिए लौटा सकते हैं। किंतु अनुच्छेद 368 के अंतर्गत राष्ट्रपति संविधान संशोधन विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य हैं तथा विधेयक प्रस्तुत करने से पूर्व राष्ट्रपति की पूर्वानुमति की आवश्यकता नहीं है।
केशवानंद भारती मामला
संविधान संशोधन की सीमा पर उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक मामले में यह स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद को जो संशोधन की शक्ति प्राप्त है, वह असीमित नहीं है। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद संविधान संशोधन शक्ति के प्रयोग द्वारा संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती। आधारभूत ढांचे का निर्धारण न्यायालय आवश्यकता अनुरूप करेगा।
न्यायालय ने आधारभूत ढांचे के सिद्धांत को अनेक मामलों में लागू किया, जैसे कि इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण (1975), मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) और वामन राव बनाम भारत संघ (1981)। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि संसद के पास संविधान संशोधन का अधिकार तो है, लेकिन वह संविधान की मूल आत्मा और आधारभूत ढांचे को नहीं बदल सकती।
भारतीय संविधान के प्रमुख संशोधन
प्रमुख संविधान संशोधनों का विस्तृत विवरण नीचे प्रस्तुत किया गया हैं –
प्रथम संविधान संशोधन (1951)
जून 1951 में हुआ पहला संविधान संशोधन बहुत महत्वपूर्ण था। इस संशोधन के तहत राज्यों के भूमि सुधार कानूनों को नवीं अनुसूची में रखा गया, जिससे इन्हें न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया। यह संशोधन भारतीय कृषि व्यवस्था में सुधार और भूमि सुधार कानूनों को प्रभावी बनाने के उद्देश्य से किया गया था।
सातवां संविधान संशोधन (1956) राज्यों का पुनर्गठन
1956 में हुए सातवें संशोधन के माध्यम से भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया। इस संशोधन के द्वारा राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 को प्रभावी बनाया गया, जिसके तहत भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सीमाएं और संरचनाएं बदली गईं। यह संशोधन राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर किया गया, जिससे राज्यों की वर्तमान संरचना बनी।
बाहरवां और चौदहवां संविधान संशोधन (1962)
बाहरवां संशोधन पुर्तगाली अधिपत्य वाले गोआ, दमन और दीव को भारत का अंग बनाने के लिए किया गया। इसके बाद, चौदहवां संशोधन फ्रांसीसी अधिपत्य वाले पांडिचेरी को भारत का अंग बनाने के लिए किया गया। इन संशोधनों ने भारत की क्षेत्रीय अखंडता को मजबूत किया।
छब्बीसवां संविधान संशोधन (1971)
छब्बीसवें संशोधन द्वारा राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए। यह कदम भारतीय समाज में समता और न्याय की भावना को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण था।
सताइसवां संविधान संशोधन (1971)
इस संशोधन के माध्यम से पूर्वोत्तर राज्यों का पुनर्गठन किया गया, जिससे इस क्षेत्र की सामाजिक और राजनीतिक संरचना में महत्वपूर्ण बदलाव आया।
पैंतीसवां और छतीसवां संविधान संशोधन (1974-1975)
पैंतीसवें संशोधन द्वारा सिक्किम को सह-राज्य के रूप में भारत में सम्मिलित किया गया, और छतीसवें संशोधन द्वारा सिक्किम को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। इस कदम ने भारत की क्षेत्रीय अखंडता को और मजबूत किया।
बयालिसवां संविधान संशोधन (1976) आपातकाल और न्यायपालिका
बयालिसवें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष, समाजवादी और अखंडता शब्द जोड़े गए। इसके साथ ही, राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सलाह मानने के लिए बाध्य किया गया। इस संशोधन में मौलिक कर्तव्यों का भी समावेश किया गया।
1976 का 42वां संशोधन आपातकाल के दौरान किया गया, जिसमें सरकार ने कई अधिकार अपने हाथ में ले लिए और न्यायपालिका के अधिकारों में कटौती कर दी। यह संशोधन लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध माना गया, लेकिन इसके बावजूद संविधान में नागरिकों के मूल कर्तव्यों का समावेश किया गया, जो आज भी कायम है। इस संशोधन ने राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह से कार्य करने के लिए बाध्य किया।
चैबालीसवां संविधान संशोधन (1978) संपत्ति का अधिकार
1978 में हुए 44वें संशोधन के माध्यम से संपत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया। यह संशोधन जमींदारी उन्मूलन और संपत्ति के अधिकार को लेकर न्यायपालिका और विधायिका के बीच चल रही रस्साकशी को समाप्त करने के लिए किया गया। इसके अतिरिक्त, सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में और मंत्रिमंडल की लिखित सलाह पर आपात की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा करने का प्रावधान किया गया।
बावनवां संविधान संशोधन (1985) दल-बदल विरोधी कानून
1985 में किए गए इस बावनवें संशोधन के माध्यम से संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसे दल-बदल विरोधी कानून कहा जाता है। इसमें दल बदलने वालों की सदस्यता समाप्त करने का प्रावधान किया गया। जिससे राजनीतिक स्थिरता को बढ़ावा मिला।
अट्ठावनवां संविधान संशोधन (1987)
इस संशोधन के तहत भारतीय संविधान का हिन्दी में प्राधिकृत रूप जारी करने का प्रावधान किया गया, जिससे भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान बढ़ा।
इकसठवां संविधान संशोधन (1989) मताधिकार की आयु
1989 में इस इकसठवें संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई, जिससे अधिक युवाओं को चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर मिला।
पैंसठवां संविधान संशोधन (1990)
इस संशोधन के माध्यम से अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
उन्हतरवां संविधान संशोधन (1991)
उन्हतरवें संशोधन द्वारा दिल्ली का नाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र रखा गया और विधान सभा की स्थापना की गई।
तिहतरवां और चौहतरवां संविधान संशोधन (1992)
1992 में हुए इन संशोधनों के माध्यम से पंचायती राज व्यवस्था और नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया। इन संशोधनों के तहत प्रावधान किया गया कि पंचायती राज और नगर निकायों को 6 महीने से अधिक समय के लिए निलंबित नहीं रखा जा सकता। तिहतरवें संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था (ग्यारहवीं अनुसूची) को संवैधानिक मान्यता दी गई और चौहतरवें संशोधन द्वारा नगर निकायों (बारहवीं अनुसूची) को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
उन्नासीवां संविधान संशोधन (1999)
इस संशोधन के माध्यम से अनुसूचित जाति/जनजाति और एंग्लो-इंडियन के लिए लोक सभा और विधान सभाओं में सीटों का आरक्षण 2010 तक बढ़ाया गया।
छियासीवां संविधान संशोधन (2002) शिक्षा का अधिकार
2002 में हुए इस संशोधन के माध्यम से 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार लाया गया। इस संशोधन के तहत राज्य द्वारा 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया। संविधान आयोग ने सिफारिश की थी कि शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार माना जाए, लेकिन संशोधन में इसे सिर्फ 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए लागू किया गया।
नवासीवां संविधान संशोधन (2003)
इस संशोधन के माध्यम से अनुसूचित जातियों के लिए पृथक राष्ट्रीय आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।
इक्यानवेवां संविधान संशोधन (2003) मंत्रियों की संख्या पर अंकुश
इस संशोधन में दल-बदल विरोधी प्रावधानों को और सख्त किया गया। इसमें केवल सम्पूर्ण दल के विलय को मान्यता दी गई और केंद्र में लोक सभा तथा राज्य विधान सभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक मंत्री नहीं हो सकते। 2003 में हुए इस संशोधन के माध्यम से केंद्र और राज्यों में मंत्रियों की संख्या पर अंकुश लगाया गया।
बानवेवां संविधान संशोधन (2003)
इस संशोधन के तहत आठवीं अनुसूची में डोगरी, मैथिली, बोडो और संथाली भाषाओं को शामिल किया गया, जिससे कुल भाषाओं की संख्या 22 हो गई।
तिरानवें संविधान संशोधन (2005)
इस संशोधन के माध्यम से निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
चौरानवेवां संविधान संशोधन (2006) शिक्षण संस्थानों में आरक्षण
2006 में हुए इस संशोधन के तहत जनजातियों के लिए पृथक मंत्रालय (मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, उड़ीसा व झारखंड) का गठन किया गया। तथा इस संशोधन के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 15 में बदलाव करके सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था की गई। पहले यह प्रावधान सिर्फ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और एंग्लो-इंडियंस के लिए था, लेकिन इस संशोधन के जरिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को भी यह सुविधा दी गई।
पिच्यानवेवां संविधान संशोधन (2009)
इस संशोधन के माध्यम से लोक सभा और विधान सभाओं में अनुसूचित जाति और जनजाति तथा आंग्ल भारतीयों के लिए आरक्षण 2020 तक बढ़ाया गया।
99वां संविधान संशोधन (2014) नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन
2014 में किए गए इस संशोधन के माध्यम से नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन का प्रावधान किया गया। हालांकि, यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया गया।
101वां संविधान संशोधन (2017) वस्तु एवं सेवा कर (GST)
2017 में हुए इस संशोधन के माध्यम से गुड्स एंड सर्विसेस टैक्स (जीएसटी) को लागू किया गया, जो एक महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार था।
103वां संविधान संशोधन (2019) आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण
2019 में संपन्न संसद के शीतकालीन सत्र में किए गए इस संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया।
108वां संविधान संशोधन विधेयक (2008)
इस विधेयक के तहत लोक सभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया।
110वां संविधान संशोधन विधेयक (2010)
इस विधेयक में स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया।
111वां संविधान संशोधन विधेयक (2011)
इस विधेयक के तहत सहकारी संस्थाओं के नियमित चुनाव और उनमें आरक्षण का प्रावधान किया गया।
112वां संविधान संशोधन विधेयक (2012)
इस विधेयक में नगर निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत के स्थान पर 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया।
113वां संविधान संशोधन विधेयक (2013)
इस विधेयक के तहत आठवीं अनुसूची में उड़ीया भाषा के स्थान पर ओडिया किया गया।
114वां संविधान संशोधन विधेयक (2013)
इस विधेयक में उच्च न्यायालयों में जजों की सेवानिवृत्ति आयु 62 वर्ष से बढ़ाकर 65 वर्ष करने का प्रावधान किया गया।
115वां संविधान संशोधन विधेयक (2014)
इस विधेयक के तहत वस्तु एवं सेवा कर (GST) के लिए परिषद और विवाद निस्तारण प्राधिकरण की स्थापना का प्रावधान किया गया।
116वां संविधान संशोधन विधेयक (2015)
इस विधेयक में लोकपाल बिल को लोक सभा में पारित किया गया और राज्य सभा में विचाराधीन है।
117वां संविधान संशोधन विधेयक (2016)
इस विधेयक में अनुसूचित जाति और जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान किया गया।
भारतीय संविधान की मूल प्रति की सुरक्षा
भारतीय संविधान की मूल प्रति को बहुत ही विशेष तरीके से सुरक्षित रखा गया है। यह हस्तलिखित संविधान हाथ से बने कागज पर लिखा गया है, जिसमें सोने की पत्तियों वाली फ्रेम और कलाकृतियाँ शामिल हैं। इसे पहले फलालेन के कपड़े में लपेटकर नेफ्थलीन बॉल्स के साथ रखा गया था। 1994 में इसे संसद भवन के पुस्तकालय में वैज्ञानिक विधि से तैयार चेम्बर में सुरक्षित कर दिया गया।
भारतीय संविधान को सुरक्षित रखने के लिए नाइट्रोजन गैस का चेम्बर बनाया गया, जिसमें ह्युमिडिटी मेन्टेन रखने के लिए मॉनिटर लगाए गए। संविधान की सेहत की जांच हर साल की जाती है और चेम्बर की चेकिंग हर दो महीने में की जाती है। सीसीटीवी कैमरे से इस पर लगातार निगरानी रहती है।
भारतीय संविधान के विभिन्न संशोधन न केवल कानूनी और प्रशासनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये देश की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों को भी परिलक्षित करते हैं। इन संशोधनों ने भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और उसके विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जो समय के साथ बदलता और विकासशील होता रहा है, ताकि देश की जनता के हितों की रक्षा की जा सके और उन्हें उचित न्याय, समानता और स्वतंत्रता मिल सके।
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इन्हें भी देखें –
- भारतीय संविधान के प्रमुख संविधान संशोधन
- संघ और उसके क्षेत्र एवं नागरिकता | अनुच्छेद 1 से 11
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना | स्त्रोत, विकास और महत्व
- भारतीय संविधान में शपथ ग्रहण और त्यागपत्र की प्रक्रियाएं
- भारत में स्थानीय नगरीय प्रशासन | संरचना, विकास और विशेषताएं
- भारत में पंचायती राज व्यवस्था प्रणाली | संरचना एवं विशेषताएं
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