महान सम्राट समुद्रगुप्त | 335 ईस्वी-380 ईस्वी

सदियों से हिंदुस्तान की पवित्र मिट्टी पर कई राजवंशों ने शासन किया है। कभी बाहर से आए राजवंशों ने भारत में अपना अधिपत्य जमाया, तो कई यहां के मूल राजवंशों ने अपना राज्य विस्तार करके समय-समय पर कई परिवर्तन लाए।

सबसे मजबूत राजवंशों में से एक गुप्त वंश के सबसे तेजस्वी राजा समुद्रगुप्त ने हिंदुस्तान में स्वर्ण युग का आगमन किया था। समुद्रगुप्त को भारतीय इतिहास का दूसरा सबसे शक्तिशाली सम्राट कहा जाता है। वे भारत के महानतम राजाओं में से एक थे जिन्होंने भारत को एकता के सूत्र में बांधा।

सम्राट अशोक के पश्चात समुद्रगुप्त ही एकमात्र ऐसे शासक थे, जिन्होंने अखंड भारत का पुनः निर्माण किया था। समुद्रगुप्त को भारतीय नेपोलियन के रूप में भी जाना जाता है। वी.ए. स्मिथ ने सर्वप्रथम समुद्रगुप्त को नेपोलियन का दर्जा दिया, क्योंकि उन्होंने विशाल साम्राज्य स्थापित किया था। सम्राट समुद्रगुप्त  प्राचीन भारत के गुप्त वंश के चौथे राजा थे। उन्होंने 350 ईस्वी से लेकर 380 ईस्वी तक शासन किया।

समुद्रगुप्त भारतीय इतिहास में सबसे बड़े और सफल सेनानायक में से एक माने जाते है। उनका शासनकाल भारत के लिये स्वर्णयुग की शुरूआत कही जाती है। समुद्रगुप्त को गुप्त राजवंश का महानतम राजा माना जाता है। वे एक उदार शासक, वीर योद्धा और कला के संरक्षक थे। उनका नाम जावा पाठ में तनत्रीकमन्दका के नाम से प्रकट है। समुद्रगुप्त के कई अग्रज (बड़े) भाई होने के बावजूद उनके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा के देख कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

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समुद्रगुप्त का संक्षिप्त परिचय

सम्राट समुद्रगुप्त का जन्म 318 ईस्वी में प्राचीन भारत के शहर इंद्रप्रस्थ में हुआ था। उनके पिता का नाम चंद्रगुप्त प्रथम तथा माता का नाम कुमार देवी था। एक मत के अनुसार, समुद्रगुप्त का पुराना नाम “कचा” था। परंतु, अपने राज्य को समुद्र तक फैलाने के बाद उसने अपना नाम “समुद्र” रखा।

समुद्रगुप्त के पिता चंद्रगुप्त प्रथम जब वह वृद्ध हो गये थे तो उन्होने गुप्त राज्य को अपने पुत्र समुद्रगुप्त को सौंप दिया और उसे सम्राट घोषित कर दिया।

पूरा नामसम्राट समुद्रगुप्त
उपनामकवियों का राजा, राजाओं का उन्मूलक
जन्म318 ईस्वी, इंद्रप्रस्थ (प्राचीन भारत)
शासन अवधि335 ईस्वी-380 ईस्वी
माताकुमार देवी
पिताचंद्रगुप्त प्रथम
पत्नीदत्ता देवी
पुत्रचंद्रगुप्त द्वितीय, रामगुप्त
पोतेकुमारगुप्त प्रथम, पुरुगुप्त
धर्महिंदू
साम्राज्यगुप्त साम्राज्य
प्रसिद्धि का कारणगुप्त वंश का द्वितीय और महान शासक
पूर्ववर्ती राजाचंद्रगुप्त प्रथम
उत्तराधिकारी राजाचंद्रगुप्त द्वितीय
मृत्युपाटलिपुत्र (वर्तमान पटना, बिहार)

समुद्रगुप्त का जीवन परिचय

गुप्त वंश के दूसरे शासक चंद्रगुप्त प्रथम ने लिक्षवी राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया था, जिसके पश्चात उनको 318 ईस्वी में एक तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ समुद्रगुप्त के नाम से जाना गया। चंद्रगुप्त प्रथम भारत के उत्तर-मध्य में लगभग पंद्रह वर्षों तक शासन किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र, समुद्रगुप्त ने राज्य पर शासन करना शुरू किया और जब तक पूरे भारत को जीत नहीं लिया तब तक उन्होंने आराम नहीं किया।

समुद्रगुप्त के शासनकाल को एक विशाल सैन्य अभियान के रूप में वर्णित किया जाता है। शुरूआत में उन्होंने शिच्छत्र (रोहिलखंड) और पद्मावती (मध्य भारत ) के पड़ोसी राज्यों पर हमला किया। उन्होंने विभाजन के बाद पूरे पश्चिम बंगाल पर कब्जा कर लिया, नेपाल के कुछ राज्यों और असम में उनका स्वागत किया गया। उन्होंने कुछ  आदिवासी राज्यों जैसे मलवास, यौधेयस, अर्जुनायन्स, अभ्रस और मदुरस को जीत लिया। बाद में कुशना और सैक ने उनका स्वागत किया।

समुद्रगुप्त के सिक्कों में उन्हे लंबा और मजबूत पेशियों वाला दिखाया गया है। अभिलेख के अनुसार, उसने गरीब, कमजोर और मध्यम वर्ग के लोगों की हर तरह से मदद की। यहां तक कि उसने अमीर लोगों को भी उनका राज्य वापस दे दिया जो युद्ध में हार गए थे।

सम्राट समुद्रगुप्त

इसके साथ ही वह एक महान कवि और संगीतकार भी थे। पढ़े-लिखे लोगों में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। कवियों और साहित्यकारों में भी रचनात्मक क्षमता से एक मजबूत पहचान बनाई और बहुत सारी कविताओं का भी सृजन किया। इस कारण उसे “कवियों का राजा” भी कहा जाने लगा। उसके संगीत के प्रेम को सिक्कों में भी देखा जा सकता है जहां वह वीणा को धारण करके सिंहासन पर बैठे हुए हैं।

समुद्रगुप्त की माता लिक्षवी राज्य की राजकुमारी थी, इसीलिए समुद्रगुप्त को भी लिक्षवी दौहित्र कहा गया है। बाल्यकाल से ही उनके अंदर एक प्रतिभावान और दूर दृष्टिता वाले योद्धा की छवि दिखाई पड़ने लगी थी।

वह अपने सभी जेष्ठो से सबसे ज्यादा बुद्धिमान थे, इसी कारण माता पिता के भी बहुत लाडले संतान थे। उनकी प्रतिभा को देखते हुए चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने अगले उत्तराधिकारी के रूप में उन्हें चुना।

एक कुशल योद्धा के सारे गुण बाल्यावस्था से ही समुद्रगुप्त के अंदर समाहित थे। युद्धाभ्यास के अलावा वे कला में भी बचपन से रुचि रखते थे।

आगे चलकर जब समुद्रगुप्त को राज सिंहासन पर बैठाया गया था, तब उनका राज्य बहुत छोटे स्तर तक ही फैला था। भूमि के एक टुकड़े से लेकर चारों दिशाओं को जीतने का सपना समुद्रगुप्त तो बचपन से ही देखते थे, जो बाद में सत्य हुआ।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य विस्तार

प्राचीन काल में जितने भी राजा महाराज हुए हैं, उन्होंने अपने महत्वपूर्ण फैसलों और युद्ध में प्राप्त किए गए विजयों को शिलालेख, स्तंभलेख, गुफालेख इत्यादि पर दर्शाकर दीर्घकालीन समय के लिए लोगों को इसकी जानकारी दिया करते थे।

समुद्रगुप्त जैसे महान सम्राटों द्वारा किए गए युद्ध और परियोजना इत्यादि के सबूत भी इन्हीं लेखों से प्राप्त होते हैं। समुद्रगुप्त को जब राजगद्दी सौंपी गई, तब इससे बहुत से लोग नाखुश थे, जिनमें मुख्य उनके जेष्ठ भाई थे। चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा लिए गए इस निर्णय को लोगों ने पक्षपात के रूप में देखना शुरू कर दिया।

लेकिन जब समुद्रगुप्त सत्ता में आए तो उन्होंने सभी का मुंह बंद कर दिया। पारिवारिक विवादों को भी सुलझा कर उन्होंने शांति कायम की। हालांकि इस गृह कलह को सुलझाने में कई सालों का समय लग गया।

सर्वप्रथम दिग्विजय यात्रा करने के पश्चात समुद्रगुप्त ने आर्यव्रत के तीन शासकों से युद्ध कर उनके राज्य को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसके पश्चात उन्होंने दुसरे राज्यों को अपने अधीन करना प्रारंभ किया।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य विस्तार

समुद्रगुप्त एक महान शासक, कूटनीतिज्ञ और विद्वान था। उसने गंगा, यमुना दोआब पर सैन्य मार्च किया जिसमें 9 राजाओं रुद्रदेव, चंद्रवर्मन, नाग, नागसेन, मतिल, नागदंत, गणपति, अच्युत, नंदी एवं बलवर्मा को हरा दिया और उनको अपने राज्य में मिला लिया।

विशालकाय समुद्र के खतरनाक लहरों की भांति समुद्रगुप्त हवा के तीव्रता से आगे बढ़ रहे थे। उन्होंने अपने राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र को बनाया, जो कि वर्तमान समय में बिहार की राजधानी पटना के नाम से जानी जाती है।

देवराष्ट्र, कौट्टूर, वेंगी, ऐरंडपल्ल, कोशल, महेंद्रगिरि,  कांची, अवमुक्त, पाल्लक, कोस्थलपुर, महाकांतर, इत्यादि जैसे कई शक्तिशाली राज्यों पर अपना आधिपत्य कायम किया।

जब समुद्रगुप्त पश्चिम में विजय यात्रा पर गए थे, उसी दरमियान उत्तर में जीते गए लगभग राज्यों के राजाओं ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करके विद्रोह कर दिया। इस प्रकार विद्रोह के कारण समुद्रगुप्त ने अपना रौद्र रूप दिखाया और पुनः लौट कर उन राज्यों को पुनः सम्मिलित कर विद्रोही विपक्ष को सजा दी। 

उसे पता था कि दूर देश के राज्यों पर खुद का शासन चलाना संभव नहीं है तो उसने उन राज्यों को जीतने के बाद अपने शत्रु को ही सौंप कर अपना आधिपत्य बनाये रखा।

समुद्रगुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय तक, दक्षिण में नर्मदा नदी तक, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक और पश्चिम में यमुना नदी तक फैला हुआ हैं। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि को भारत या आर्यावर्त के अधिकतर राजनीतिक एकीकरण में एक भयंकर शक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है। उन्हें महाराजाधिराज (राजाओं का राजा) की उपाधि से सम्मानित किया गया। समुद्रगुप्त ने अपने राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र को बनाया, जो कि वर्तमान समय में बिहार की राजधानी पटना के नाम से जानी जाती है।

देवराष्ट्र, कौट्टूर, वेंगी, ऐरंडपल्ल, कोशल, महेंद्रगिरि,  कांची, अवमुक्त, पाल्लक, कोस्थलपुर, महाकांतर, इत्यादि जैसे कई शक्तिशाली राज्यों पर अपना आधिपत्य कायम किया।

जब समुद्रगुप्त पश्चिम में विजय यात्रा पर गए थे, उसी समय उत्तर में जीते कुछ राज्यों के राजाओं ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करके विद्रोह कर दिया। इस प्रकार विद्रोह के कारण समुद्रगुप्त ने अपना रौद्र रूप दिखाया और पुनः लौट कर उन राज्यों को पुनः सम्मिलित कर विद्रोही विपक्ष को सजा दी।

इस घटना के कारण आसपास के सभी राजा महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के डर से कांप उठे और कभी भी उसके सामने सिर उठाने की हिमत नहीं किये। आने वाले सालों में ही समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर दी। पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में असम तक तथा उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद से दक्षिण के सिंहल तक समुद्रगुप्त के साम्राज्य का ध्वज फहरा रहा था।

समुद्रगुप्त की राजनीतिक उपलब्धियां 

समुद्रगुप्त ने अपने विशालकाय साम्राज्य को बहुत कम समय में ही फैला दिया था। कई साक्ष्य के मुताबिक कहा जाता है कि समुद्रगुप्त ने अपने जीवन काल में लगभग 100 से भी अधिक युद्ध किए थे, जिनमें उन्होंने सदा ही जीत हासिल किया। और एक भी युद्ध नहीं हारा ।

जब एक योद्धा रणभूमि में अपने पूरे जीवन में एक भी बार हार का सामना ना किया हो , तो उसकी शक्ति और बुद्धि का अंदाजा लगा पाना सामान्य लोगों के कल्पना से भी परे हो जाता है।

एक योद्धा से अलग समुद्रगुप्त एक सच्चे कला प्रेमी भी थे। भारतीय स्वर्णकाल के सबसे प्रसिद्ध कवियों में से एक हरिषेण जो समुद्रगुप्त के दरबारी कवि थे, उन्होंने ‘प्रयाग प्रशस्ति’ नामक अपनी रचना में समुद्रगुप्त का वर्णन किया है। प्रयाग प्रशस्ति में यह बताया गया है कि समुद्रगुप्त युद्ध करने के अलावा वीणा बजाने में भी माहिर थे।

वे संगीत को गहराई से समझने की कला रखते थे। इस बात के सबूत उनके शासनकाल में बनवाए गए मुद्राओं से मिलती है, जिन पर समुद्रगुप्त वीणा बजाते हुए अंकित किए गए हैं।

समुद्रगुप्त के शासनकाल की विभिन्न प्रकार की उपलब्धियाँ हैं जिनमें से कुछ प्रमुख निम्न प्रकार से हैं:-

समुद्रगुप्त की विजय

समुद्रगुप्त की विजय

समुद्रगुप्त अपनी शरण में आए लोगों के लिए दया भाव रखते थे। उनके शासनकाल में ब्राह्मणों, अनाथों और सभी कुशल कलाकारों को उनके योग्यता के अनुसार दान दक्षिणा और मान सम्मान दिया जाता था।

सिंहासन पर बैठने के पश्चात समुद्रगुप्त ने दिग्विजय होने की योजना बनाई और एक विशाल सेना लेकर कई राज्यों के साथ युद्ध किया और उन्हें जीतता चला गया समुद्रगुप्त की प्रमुख विजय निम्न प्रकार से है:-

आर्यावर्त का प्रथम अभियान

समुद्रगुप्त के राजकवि हरिषेण द्वारा उत्कीर्ण प्रयाग प्रशस्ति की 13वीं और 14वीं पंक्ति से इस बात की पुष्टि होती है, कि समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त का प्रथम अभियान उत्तरी भारत के राजाओं पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से चलाया था। जिसमें समुद्रगुप्त ने बरेली के शासक अच्युत, नागसेन वंश, कोटकुलज वंश के साथ ही अन्य छोटे राजवंशों को पराजित करके अपने अधीन किया।

आर्यावर्त का द्वितीय अभियान

आर्यावर्त के प्रथम अभियान में समुद्रगुप्त ने जिन राजाओं को पराजित किया था। उनको समुद्रगुप्त ने बंदी बनाने के पश्चात पुनः मुक्त कर दिया था।कुछ समय के पश्चात उन राजाओं ने एक संघ का निर्माण किया और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस संघ में उत्तर भारत के 9 राज्य शामिल थे।

इन सभी राजाओं ने समुद्रगुप्त के विरोध में सिर उठाना शुरू कर दिया इसलिए इन राजाओं के विरोध का दमन करने के लिए समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त का द्वितीय अभियान शुरू कियाऔर एक विशाल सेना लेकर 9 राजाओं के संघ से युद्ध किया जिसमें समुद्रगुप्त पुनः विजय हुआ।

प्रयाग प्रशस्ति की 21 वीं पंक्ति में आर्यावर्त के 9 राजाओं का उल्लेख हुआ है, जो निम्न है –

  1. रुद्रदेव
  2. मत्तिल
  3. नागदत्त
  4. चंद्रवर्मा
  5. गणपतिनाग
  6. नागसेन
  7. अच्युत
  8. नंदि
  9. बलवर्मा

दक्षिणापथ का विजय अभियान

आर्यावर्त के प्रथम अभियान का पूरी तरह से सफल होने के पश्चात समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर अभियान विजय अभियान शुरू कर दिया। इस अभियान में समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के लगभग 12 राजाओं पर विजय प्राप्त की जिनमें कौशल का राजा महेंद्र, महाकालांतर का राजा व्याघ्रराज, कोराल का शासक मंटराज, पिष्टपुर का शासक महेन्द्रगिरी, कोट्टूर का शासक स्वामीदत्त, एरंडपल्ल का राजा दमन, कांची का राजा विष्णुगोप, अवमुक्त का राजा नीलराजवेंगी का राजा हस्तिवर्मन, पालक्क का शासक उग्रसेन, देवराष्ट्र का शासक कुबेर तथा कुस्थलपुर का शासक धनंजय शामिल था।

यह दक्षिण के 12 राजाओं का एक संघ था, जिसका नेता कांची का राजा विष्णुगोप था। अतः समुद्रगुप्त ने इस संघ को पराजित किया। समुद्रगुप्त ने उन राजाओं को बंदी बनाया फिर अपनी अधीनता में उन्हें राज्य वापस लौटा दिया।

दक्षिणापथ के 12 राजाओं के नाम इस प्रकार हैं –

  1. कोशल का राजा महेन्द्र (दक्षिण कोसल)
  2. महाकान्तर का व्याघ्रराज
  3. कौराल का राजा मण्टराज
  4. कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त
  5. एण्डपल्ल का राजा दमन
  6. कांची का राजा विष्णु गोप
  7. अवमुक्त का नीलराज
  8. बेगी का हस्तीवर्मा
  9. पालम्क का उग्रसेन
  10. देवराष्ट्र का कुबेर
  11. कुस्थलपुर का धनंजय
  12. पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरी।

आटविक राज्यों पर विजय

अपनी लगातार विजयों से उत्साहित होने के बाद समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों पर आक्रमण कर दिया और विजयी हुआ।प्रयाग प्रशस्ति से यह पुष्टि होती है, कि समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों के राजाओं को अपना दास बना लिया था। तथा आटविक राज्यों को अपने शासन में मिला लिया था। फ्लीट कहते हैं, कि आटविक राज्य उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे। किन्तु कुछ विद्वानों का मानना है, कि आटविक राज्यों की सीमा आर्यावर्त और पूर्वी सीमान्त प्रदेशो के बीच थी।

सीमावर्ती राज्यों पर विजय

समुद्रगुप्त ने अपने दिग्विजय का अभियान लगातार जारी रखा और सीमावर्ती राज्यों पर भी विजय प्राप्त की। समुद्रगुप्त ने पूर्वी सीमांत प्रदेश के पांच राज्यों जिनमें समतट,जिसकी राजधानी कर्मान्त, डबाक, ढाका के पास, कामरुप (असम ), नेपाल का लिच्छवी वंश, तथा कार्तुपूर ( कुमाऊं, गढ़वाल, रुहेलखण्ड ) शामिल थे से युद्ध किया और उन्हें पराजित किया।

इसके साथ पश्चिमी सीमांत प्रदेश जहाँ पर समुद्रगुप्त ने नौ गढ़राज्यों पर विजय प्राप्त की जिनमें मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक,

अभीर, प्रार्जुन, संकानिक, काक, तथा खरपरिक शामिल थे। जिसका उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति की 22 वी और 23 वीं पंक्ति से प्राप्त होता है। 

विदेशी राज्यों पर विजय

समुद्रगुप्त प्रयाग प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है, कि कुछ विदेशी राजाओं ने भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की थी।विदेशी राजाओं ने समुद्रगुप्त के दरबार में कन्याओं को उपहार स्वरूप,गरुड़ मुद्रा तथा अन्य कई उपहार भेजे थे। विदेशी राज्य भी समुद्रगुप्त के शासन के नियमों को अपने शासनकाल में अपनाते थे।

जबकि कुछ विदेशी राज्य ऐसे है, जिनसे समुद्रगुप्त के मैत्रीपूर्ण संबंध थे, जिनमें प्रमुख रूप से देवपुत्र-षाहि-षाहानुषाहि जो उत्तर पश्चिम भारत में शासन कर रहे थे, शक, उत्तर भारत के थे, मुरुण्ड अफगानिस्तान में शासन कर रहे थे, सैडल इनका शासन लंका के कुछ क्षेत्रों में था, सर्वद्वीपवाशी पूर्वी एशिया के द्वीपो में शासन कर रहे थे, इन सभी से समुद्रगुप्त के अच्छे संबंध थे। 

समुद्रगुप्त की विजयों और सैनिक शक्ति से भयभीत होकर पङोस के विदेशी राज्यों ने समुद्रगुप्त से अधीन मैत्री कर ली। इन विदेशी राज्यों को निम्नलिखित शर्तें स्वीकार करनी पङती थीं –

  1. आत्म निवेदन
  2. कन्योपायन (अपनी राजकुमारियों को विवाह हेतु समुद्रगुप्त को अर्पित करना)
  3. कन्योपायन (अपनी राजकुमारियों को विवाह हेतु समुद्रगुप्त को अर्पित करना)
  4. दान (समुद्रगुप्त को उपहार आदि भेंट करना)
  5. सिंहल द्वीपवासी (लंका का राजा मेघवर्ण)
  6. सर्व द्वीपवासी (दक्षिण-पूर्व एशिया के हिन्दू उपनिवेश)

हरिषेण की ’प्रयाग प्रशस्ति’ में यह भी उल्लेखित है कि कुछ विदेशी राजाओं ने भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

इन विदेशी राज्यों का उल्लेख इस प्रकार है –

  • देवपुत्र-शाही-शाहानुशाही – उत्तर-पश्चिम भारत में शासन करने वाले कुषाण थे। इसने समुद्रगुप्त से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये थे।
  • शक – उत्तर-पश्चिमी तथा पश्चिमी भारत में स्थापित थे।
  • मुरुण्ड – अफगानिस्तान में विद्यमान।
  • सैडल – लंका में स्थापित। इनसेे भी समुद्रगुप्त के अच्छे संबंध स्थापित थे।

समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेघ यज्ञ

पहले के समय में बड़े राजा महाराजा किसी महान कार्य अथवा बड़े युद्ध को करने के बाद अपने प्रभुत्व को आसपास के सभी विस्तार में स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करवाते थे। अश्वमेध यज्ञ यह पुरातन संस्कृति की देन है, जिसे रघुवंशी भगवान श्री रामचंद्र ने भी करवाया था।

समुद्रगुप्त ने जब सभी छोटे बड़े राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया, उसके पश्चात उन्होंने अपने साम्राज्य में भी यज्ञ करवाया, तत्पश्चात इसे कई महत्वपूर्ण अभिलेखों में भी अंकित करवाया गया था। 

समुद्रगुप्त की लगातार विजय होती गई तथा उसने अपने पिता से प्राप्त पर छोटे साम्राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। दिग्विजय होने के कुछ समय बाद ही समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। इस यज्ञ के दौरान उसने स्वर्ण मुद्राएँ चलायी। उन स्वर्ण मुद्राओं पर एक और घोड़े की आकृति और उसकी नीचे अश्वमेध पराक्रम शब्द लिखे हुए थे, जिसका अर्थ था “अश्वमेध के योग्य पराक्रम वाला” मुद्रा की दूसरी तरफ राजाधिराज: पृथ्वीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्य: लिखा था। जिसका अर्थ “राजाधिराज पृथ्वी को जीत कर अब स्वर्ग की जय कर रहा है उसकी शक्ति और तेज अप्रीतम है” था।

कुछ हितिहस्कारो का कहना है की इलाहाबाद अभिलेख में समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ करवाने के साक्ष्य थे, लेकिन सदियों बीत जाने के पश्चात यह सब धुंधले पड़ने लगे, जिसके कारण अभिलेख से कुछ पंक्तियां मिट चुकी हैं। समुद्रगुप्त द्वारा उस समय अश्वमेध यज्ञकरवाए जाने के विषय पर इतिहासकारों के अपने-अपने तथ्य है। कुछ लोग मानते हैं कि अश्वमेध यज्ञ करवाया गया था, वहीं दूसरे लोग इस बात से इनकार करते हैं।

प्रयाग प्रशस्ति

प्रयाग प्रशस्ति इलाहाबाद के किले में स्थित स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित है। हरिषेण ने समुद्रगुप्त की प्रेरणा से इस प्रयाग प्रशस्ति की रचना की थी। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजयों का विस्तृत उल्लेख किया गया है तथा इसमें समुद्रगुप्त के व्यक्तित्व की भी जानकारी मिलती है।

समुद्रगुप्त की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

समुद्रगुप्त साहित्य और कला का संरक्षक के साथ साथ धार्मिक क्षेत्र में समुद्रगुप्त प्राचीन हिन्दू धर्म की मर्यादा को स्थापित करने वाला भी था । समुद्रगुप्त की उपलब्धियां इस प्रकार हैं :-

साहित्य और कला का संरक्षक

समुद्रगुप्त साहित्य और कला का संरक्षक भी था। वह स्वयं एक उच्च कोटि का विद्वान् था और विद्वानों, कवियों तथा साहित्यकारों का संरक्षक था। अपनी काव्यात्मक रचनाओं के कारण समुद्रगुप्त ने ’कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी। डाॅ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है कि ’समुद्रगुप्त न केवल युद्ध-नीति तथा रण-कौशल में अद्वितीय था, वरन् शास्त्रो में भी उसकी बुद्धि तीव्र थी। वह स्वयं बङा सुसंस्कृत व्यक्ति था और उसे विद्वानों की संगीत बहुत प्रिय थी।’’

समुद्रगुप्त का दरबार उच्च कोटि के विद्वानों से सुशोभित था। ’प्रयाग-प्रशस्ति’ का रचयिता हरिषेण उसके दरबार का सबसे प्रसिद्ध कविराज था। डाॅ. मजूमदार के अनुसार समुद्रगुप्त प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु का आश्रयदाता था। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, ’’समुद्रगुप्त ने अपने शास्त्र-ज्ञान से देवताओं के गुरु बृहस्पति तथा संगीत एवं ललित कलाओं के ज्ञान से नारद तथा तुम्बरु को भी लज्जित कर दिया था।’’

समुद्रगुप्त कला-प्रेमी भी था। संगीत से उसे विशेष प्रेम था। वह स्वयं एक अच्छा संगीतज्ञ था और उसे वीणा बजाने का बङा शौक था। उसके कुछ सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है जिससे सिद्ध होता है कि वह संगीत-प्रेमी था।

धर्म-सहिष्णु

 धार्मिक क्षेत्र में समुद्रगुप्त प्राचीन हिन्दू धर्म की मर्यादा को स्थापित करने वाला था। वह हिन्दू शास्त्रों द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलना अपना कर्तव्य समझता था। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था। हिन्दू धर्म का प्रबल समर्थक होते हुए भी उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार और व्यापक था। वह अन्य धर्मों के प्रति अत्यन्त सहिष्णु एवं उदार था। वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु को आश्रय प्रदान किया था। इसी प्रकार उसने लंका के राजा मेघवर्ण को बौद्ध गया में भिक्षुओं के लिए विहार बनवाने की अनुमति देकर अपनी धार्मिक-सहिष्णुता का परिचय दिया था।

समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन किसने और क्यों कहा था?

समुद्रगुप्त ने राज्य विस्तार के लिए लगभग जितने भी प्रयास किए थे, उनमें सब के सब पूरी तरह से सफल हुए। उन्होंने अपने जीवन में एक भी बार युद्ध में हार का सामना नहीं किया। एक ब्रिटिश इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने सर्वप्रथम समुद्रगुप्त को भारतीय नेपोलियन कह कर संबोधित किया था।

स्मिथ ने कहा था कि समुद्रगुप्त नेपोलियन की भांति ही एक महान योद्धा थे।अपने अद्वितीय रणनीति एवं बाहुबल से जिस प्रकार समुद्रगुप्त ने अपने रास्ते में आने वाले सभी राजाओं को मिट्टी में मिला दिया था और एक अखंड भारत का निर्माण किया था, यह हमें नेपोलियन की याद दिलाता है, जो एक महान सेनापति और योद्धा थे।

समुद्रगुप्त के शासन काल की मुद्रायें

समुद्रगुप्त के इतिहास की जानकारी अधिकतर ऐतिहासिक शिलालेखों और मुद्राओं के जरिए ही प्राप्त हुई है। समुद्रगुप्त पूरे गुप्त वंश के पहले ऐसे राजा थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में सोने के सिक्के बनवाए थे। मुद्रा पर अंकित की गई उनकी चित्र इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती है।कुछ इतिहासकारों के मुताबिक़ समुद्रगुप्त मुद्रा निर्माण के लिए कुषाण साम्राज्य के राजा वासुदेव द्वितीय द्वारा बनवाए गए मुद्रा की नकल करके नई सोने की मुद्राएं बनवाई थी।

समुद्रगुप्त के शासन काल की मुद्रायें

सर्वप्रथम कुषाण वंश के राजा वासुदेव प्रथम ने अपने शासनकाल में बनाए गए सिक्कों पर अपना चित्र बनवाया था। उसी का प्रमाण लेकर समुद्रगुप्त ने भी सोने के सिक्कों पर अपने चित्र को अंकित करवाया ऐसा कहा जाता है।समुद्रगुप्त द्वारा बनवाए गए सिक्कों को कई अलग-अलग प्रकार में बांटा गया था, जिनमें बाघ कातिल, अश्वमेघ, तीरंदाज, संगीतकार, मानक और युद्ध कुल्हाड़ी का समावेश होता है।

समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी

समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी उसका बड़ा बेटा रामगुप्त था। किंतु रामगुप्त एक दुर्बल शासक था, इसलिए वह शकों से युद्ध में हार गया। रामगुप्त की मृत्यु होने के पश्चात समुद्रगुप्त का दूसरा बेटा जिसको चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से जाना जाता है, गुप्त वंश का सम्राट बना। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने कई राज्यों से वैवाहिक संबंध स्थापित करके शकों पर विजय प्राप्त की। तथा रामगुप्त की हार का बदला लिया।

समुद्रगुप्त का राजकवि

हरिषेण समुद्रगुप्त का दरबारी संस्कृत कवि और मंत्री था। समुद्रगुप्त की राजसभा में उन्हें सर्वाधिक आदर सम्मान प्राप्त था।समुद्रगुप्त के राजकवि हरिषेण की मुख्य उपलब्धि 345 ई. में रचित प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति है। इसमें समुद्रगुप्त के द्वारा जीते गए राज्यों और विजयों की जानकारी है।

इसके साथ ही समुद्रगुप्त के जीवन की कई घटनाओं का उल्लेख इसमें मिलता है। प्रयाग प्रशस्ति में हरिषेण ने 24 पक्तियाँ उत्कीर्ण की है, जो भिन्न-भिन्न घटनाओं से सम्बंधित है।

समुद्रगुप्त द्वारा अपनाई गई नीतियांँ

1. ग्रहण मोक्षानुग्रह – समुद्रगुप्त ने इस नीति के तहत राज्यों को पहले तो जीता था तथा बाद में उन राज्यों को शासकों को वापस लौटा दिया था। यह नीति उसने दक्षिणापथ के राज्यों के प्रति अपनाई थी।

2. प्रसभोद्धरण – समुद्रगुप्त ने इस नीति के तहत नये राज्यों को बलपूर्वक अपने राज्य में मिलाया था। यह नीति उसने आर्यावर्त के राज्यों के प्रति अपनायी थी।

3. आत्मनिवेदन कन्योपायान गरुत्मदण्डस्व विषय भुक्ति शासन याचना – इस नीति का तात्पर्य है कि बहुत से शासकों ने समुद्रगुप्त के समक्ष समर्पण किया था। कुछ राजाओं ने अपनी कन्याओं का विवाह भी किया था। उन्होंने अपने विषय व भुक्ति में गुप्तों की गरुङ मुद्रा से अंकित आज्ञा-पत्र की याचना की। समुद्रगुप्त ने इस नीति का पालन विदेशी राजाओं के साथ किया।

4. करदानाज्ञाकरण प्रणामागमन – इसका अर्थ है कर एवं दान देना, आज्ञा का पालन करना। राज्यों के शासकों को समुद्रगुप्त के पास अभिवादन हेतु आना पङता था। समुद्रगुप्त ने यह नीति सीमा स्थित राजाओं व गणराज्यों के प्रति अपनायी थी।

5. परचारकीकरण – समुद्रगुप्त ने इस नीति के अन्तर्गत मध्य भारत के आटविक राज्यों के शासकों को अपना सेवक बनाया था।

समुद्रगुप्त का चरित्र एवं व्यक्तित्व

समुद्रगुप्त एक महान् व्यक्तित्व का धनी था। उसके चरित्र की निम्न विशेषताएँ है –

(1) वीर योद्धा तथा महान् विजेता – समुद्रगुप्त एक वीर योद्धा, कुशल सेनानायक तथा महान् विजेता था। उसके सिक्कों पर अंकित ’पराक्रमांक’ (पराक्रम है पहचान जिसकी), ’व्याघ्रपराक्रमः’ (व्याघ्र के समान पराक्रमी) तथा ’अप्रतिरथ’ (जिसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है) जैसी उपाधियाँ उसके अद्वितीय पराक्रम एवं शूरवीरता की परिचायक हैं।

प्रयाग-प्रशस्ति’ के अनुसार – ’’समुद्रगुप्त सैकङों युद्ध लङने में निपुण था। उसका एकमात्र सहायक उसकी भुजाओं का पराक्रम था।’’
समुद्रगुप्त की गिनती भारत के महान् विजेताओं में की जाती है। उसने अपने पराक्रम एवं सैन्य-शक्ति के बल पर अनेक विजयें प्राप्त कीं तथा एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। वह नेपोलियन बोनापार्ट की भांति साहसी, पराक्रमी, कुशल सेनानायक और युद्ध-संचालन में निपुण था। डाॅ. वी. ए. स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ’भारतीय नेपोलियन’ की संज्ञा दी है, जो सर्वथा उचित है।

(2) गुणसम्पन्न व्यक्ति – समुद्रगुप्त एक गुणसम्पन्न व्यक्ति था। वह उदार और दयालु व्यक्ति था। वह एक दानशील व्यक्ति था तथा दीन-दुःखियों, अनाथों, असहायों आदि को उदारतापूर्वक दान दिया करता था। उसका हृदय बङा कोमल था। भक्ति तथा विनीत भाव से उसका हृदय जीता जा सकता था। वह साधु के लिए कुबेरर परन्तु असाधु का विनाशक था।

(3) योग्य शासक – समुद्रगुप्त एक योग्य शासक भी था। उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की तथा उसमें शक्ति एवं व्यवस्था बनाए रखी। उसका प्रशासन अत्यन्त सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित था। वह एक प्रजावत्सल शासक था तथा अपनी प्रजा की नैतिक एवं भौतिक उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था। वह दीन-दुःखियों, अनाथों, असहायों, निर्धनों आदि को उदारतापूर्वक दान दिया करता था। वह अनावश्यक रक्तपात करने में रुचि नहीं रखता था।

(4) कुशल राजनीतिज्ञ – समुद्रगुप्त एक कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने देश-काल के अनुकूल भिन्न-भिन्न नीतियों का अनुसरण किया। जहाँ उसने आर्यावर्त के राज्यों को जीतकर उन्हें अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया, वहाँ उसने दक्षिणापथ के राजाओं के प्रति ’ग्रहणमोक्षानुग्रह’ की नीति अपनाई। उसने दक्षिणापथ के राजाओं को पराजित कर उन्हें उनके राज्य वापस लौटा दिए तथा उनसे केवल कर लेना ही उचित समझा।

यह उसकी दूरदर्शिता तथा राजनीतिक सूझबूझ का परिचायक था। वह जानता था कि पाटलिपुत्र में रहते हुए दक्षिणापथ के राज्यों पर सीधा शासन करना और उनको नियन्त्रण में रखना अत्यन्त कठिन था। इसी प्रकार समुद्रगुप्त ने सीमान्त राज्यों से भी अपनी अधीनता स्वीकार करवाई और उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किया। विदेशी राज्यों के साथ उसने मैत्रीपूर्ण घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किये और अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया।

समुद्रगुप्त की मृत्यु

समुद्रगुप्त ने 380 ईस्वी से अपनी मृत्यु तक गुप्त राजवंश पर शासन किया। परन्तु समुद्रगुप्त की मृत्यु को लेकर कोई ज्ञात जानकारी मिलती नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता हे की उनकी शासनावधि 335 ईस्वी-380 ईस्वी तक थी। समुद्रगुप्त की मृत्यु 380 ईस्वी में पाटलिपुत्र शहर (वर्तमान पटना, बिहार) में हुई थी।

समुद्रगुप्त से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य

  • चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना। वह लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी से उत्पन्न हुआ। वह स्वयं को लिच्छवी दौहित्र कहने पर गर्व का अनुभव करता था ।
  • समुद्रगुप्त का शासन काल राजनितिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से गुपत साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है।
  • समुद्रगुप्त गुप्त वंश का चौथा शासक था, जिसका शासनकाल 335 ईसवी से 380 ईसवी माना जाता है।
  • समुद्रगुप्त की माता का नाम लिच्छवी कुमार देवी था, जो लिच्छवी वंश की राजकुमारी थी।
  • समुद्रगुप्त का राजकवि हरिषेण था जिसकी मुख्य कृति प्रयाग प्रशस्ति थी जिसमें समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख मिलता है।
  • समुद्रगुप्त एक उदार शासक तथा विष्णु का उपासक था उसके शासनकाल में हिंदू धर्म अधिक विकसित हुआ।
  • समुद्रगुप्त ने दिग्विजय की योजना बनाई थी, और अपने शासनकाल में लगभग 100 से अधिक युद्ध जीते थे।
  • समुद्रगुप्त की विजयों के फलस्वरूप विंसेट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन की संज्ञा दी है।
  • समुद्रगुप्त एक उच्च कोटि का कवि था जिसने कई प्रकार की कविताएं भी लिखी है, समुद्रगुप्त को एक बीणा बजाते हुए सिक्के पर भी दर्शाया गया है।
  • समुद्रगुप्त ने अपने शासनकाल में बौद्ध भिक्षु वसुबंधु को संरक्षण प्रदान किया था।
  • समुद्रगुप्त के शासनकाल में श्रीलंका के शासक मेघबर्मन ने बोधगया में एक बौद्ध विहार के निर्माण की अनुमति लेने के लिए अपने राजदूत को समुद्रगुप्त के पास भेजा था।

 इन्हें भी देखें –

 

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