सातवाहन वंश | SATVAHAN DYNASTY | 60 ईसा पूर्व – 240 ईस्वी

सातवाहन वंश (60 ई.पू. से 240 ई.)  प्राचीन राजवंश में से एक राजवंश था, जिसने केन्द्रीय दक्षिण भारत पर शासन किया था। भारतीय इतिहास में यह राजवंश ‘आन्ध्र वंश’ के नाम से भी विख्यात है। इसलिए आंध्र सातवाहन वंश भी कहा जाता है। सातवाहन वंश का संस्थापक राजा सिमुक था।सातवाहन काल में सबसे अधिक सिक्के सीसा धातु के बने होते थे। सातवाहन वंश के शासकों ने आन्ध्र प्रदेश से अपना शासन प्रारम्भ किया था। इस वंश के समय विदेशी आक्रान्ताओं खूब आक्रमण किया। इस वंश के राजाओं का अधिकांश समय विदेशी आक्रमणकारियों से संघर्ष करने में ही बीता था। इन राजाओं ने शक आक्रांताओं को सहजता से भारत में पैर नहीं जमाने दिये।

Table of Contents

सातवाहन वंश का संक्षिप्त परिचय

  • सातवाहन वंश की स्थापना – 60 ई.पू. से 240 ई.
  • सातवाहन वंश का संस्थापक – सिमुक
  • सातवाहन वंश का अंतिम शासक – विजय

सातवाहन वंश की उत्पत्ति से सम्बंधित अनेक मत है। अलग अलग विद्वानों ने सातवाहन शब्द की अलग अलग व्याख्या की है।

सातवाहन वंश की उत्पत्ति

सातवाहन’ शब्द का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इन ग्रंथों में इस शब्द की अनेक व्याख्याएँ प्राप्त होती हैं। इनमे से एक ग्रन्थ कथा सरित्सागर में ‘सात’ यक्ष पर चढ़ने वाले को सातवाहन कहा गया है।

परन्तु कुछ विद्वानों द्वारा इस व्याख्या को मनगढ़न्त बताया जाता है। चौदहवीं शताब्दी ई० में प्रभसूरि नामक जैन साधु द्वारा सातवाहन शब्द की व्याख्या के आधार पर कहा जाता है कि सातवाहन उसे कहते हैं जिनके द्वारा वाहनों का दान दिया जाये। आधुनिक विद्वान डा० जायसवाल ने सात या स्वाति का अर्थ ‘तलवार’ बताया है। इस प्रकार उनके विचारानुसार सातवाहन का अर्थ है वे लोग जो तलवार धारण करने वाले थे। जबकि डा० राय चौधरी ने सातवाहनों को नागों से सम्बन्धित ब्राह्मण माना है।

सातवाहन का अर्थ चाहे जो भी हो, परन्तु यह निश्चित है कि दककन और मध्य भारत में मौर्यों के सबसे महत्त्वपूर्ण उत्तराधिकारी सातवाहन थे। अभिलेखों में वर्णित सातवाहनों और पुराणों में वर्णित आन्ध्रों को एक ही समझा जाता है। पुराण केवल आन्ध्र शासन का उल्लेख करते हैं, सातवाहन शासन का नहीं । दूसरी ओर सातवाहन अभिलेखों में आंध्र का नाम तक नहीं मिलता।कुछ पुराणों के अनुसार आन्ध्रों ने कुल मिलाकर 300 वर्षों तक शासन किया और यह वही समय है जिसे सातवाहन शासन का युग माना जाता है।

अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि आन्ध्र प्रदेश और वहाँ के लोग सातवाहन वंश के अधीन थे। सम्भवतः अशोक के अयोग्य उत्तराधिकारियों के काल में उन्होंने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया होगा । कहा जाता है कि उनका मूल स्थान आन्ध्र था जहाँ से वे गोदावरी नदी के तट के साथ-साथ पश्चिम की ओर बढ़े। उन्होंने मौर्य साम्राज्य के पतन एवं दुर्बलता का लाभ उठाते हुए स्वयं को शक्तिशाली बना लिया।

कुछ आधुनिक विद्वानों की राय है कि सातवाहन वंश के राजा मूलतः महाराष्ट्र के रहने वाले थे। पठान या प्रतिष्ठान नामक स्थान उनकी राजधानी थी। उन्होंने शीघ्र ही आंध्र को भी जीत लिया और अपने साम्राज्य का अंग बना लिया। लेकिन शकों ने उनसे महाराष्ट्र का अधिकांश भाग छीन लिया और वे धीरे-धीरे आन्ध्र तक ही सीमित रह गये। जिसके कारण कालान्तर में सातवाहन वंश को  आंध्र कहा जाने लगा।

लेकिन इतिहासकार जोगलेकर के अनुसार सातवाहनों का नाम आन्ध्र इसलिए नहीं पड़ा कि वे आधुनिक आन्ध्र के निवासी थे, बल्कि इसलिए पड़ा क्योंकि वे आंध्र नदी (पूना जिला, महाराष्ट्र) की घाटी में रहते थे। लेकिन प्रोफेसर घोष का कहना है कि जिन दिनों में पुराणों की रचना हुई सातवाहन अपना उत्तरी पश्चिमी प्रदेश खो बैठे थे।

सातवाहन वंश केवल आंध्र प्रदेश में ही सीमित हो चुका था। इसीलिए पुराणों में सातवाहनों को आंध्र कहा गया है। इसके विपरीत कुछ विद्वानों की राय है कि सातवाहन मूलतः पश्चिम-दक्षिण के रहने वाले थे। सातवाहन वंश का प्राचीनतम अभिलेख दक्षिण-पश्चिम से प्राप्त हुआ, अतः यह मत भी ठीक हो सकता है कि वे प्रारम्भ में दक्षिण-पश्चिम में रहते हों और बाद में पूर्व की ओर बढ़ गये हों।इस कारण से कालानतर में उन्हें आन्ध्र कहा जाने लगा।

सातवाहन वंश का इतिहास

सातवाहन वंश

सातवाहन भारत का एक राजवंश था, जिसने केन्द्रीय दक्षिण भारत पर राज किया। भारतीय परिवार, जो पुराणों (प्राचीन धार्मिक तथा किंवदंतियों का साहित्य) पर आधारित कुछ व्याख्याओं के अनुसार, आंध्र जाति (जनजाति) का था और दक्षिणापथ अर्थात दक्षिणी क्षेत्र में साम्राज्य की स्थापना करने वाला यह पहला दक्कनी वंश था।

सातवाहन वंश के संस्थापक सिमुक ने 60 ई.पू. से 37 ई.पू. तक राज्य किया। उसके पश्चात उसका भाई कृष्ण और फिर कृष्ण का पुत्र सातकर्णी प्रथम सिंहासन पर बैठा। सातकर्णी प्रथम के शासनकाल में सातवाहन वंश को सबसे अधिक प्रतिष्ठा मिली।

सातकर्णी प्रथम खारवेल का समकालीन था। उसने गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठान नगर को अपनी राजधानी बनाया। सातवाहन वंश में 27 शासक हुए थे । ये हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। साथ ही इन्होंने बौद्ध और जैन धर्मं को भी सहायता प्रदान की। सातवाहन वंश  मौर्य वंश के पतन के बाद शक्तिशाली हुआ, 8वीं सदी ईसा पूर्व में इनका उल्लेख मिलता है। अशोक की मृत्यु (सन् 232 ईसा पूर्व) के बाद सातवाहनों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।

सातवाहन वंश का साम्राज्य विस्तार

पुराणों के अनुसार आंध्र कण्वों के भृत्य (नौकर) थे। साथ ही साथ वे मगध के सम्राट कण्वों के सामन्‍त और अमात्य भी थे। संभवतः यही कारण रहा होगा जिससे , जिन शासकों का अभिलेखों में सातवाहन नाम से उल्लेख है, पुराणों में उन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है।

सातवाहन वंश | SATVAHAN DYNASTY | 60 ईसा पूर्व - 240 ईस्वी

कुछ विद्वानों की राय है कि सातवाहन वंश के शासक पहले आन्ध्रवंशीय राजाओं के भृत्य थे। यही विद्वान मेगस्थनीज के विवरण का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि आन्ध्रों को मोर्यात्तर काल का नहीं बल्कि मूलत: मौर्यों से पूर्व या समकालीन मानना उचित होगा।

जबकि यूनानी यात्री मेगस्थनीज के अनुसार (जो स्वयं चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा) भारत में मौर्यों के बाद उस समय सबसे बड़ी सेना आन्ध्रों की ही थी और उनके राज्य में तीस बड़े-बड़े नगर थे।

इस समय आंध्रों की राजधानी श्रीकाकुलम थी। सम्भवत: चन्द्रगुप्त मौर्य या बिन्दुसार ने उन्हें पराजित किया होगा क्‍योंकि बिन्दुसार के समय आंध्र, मगध का अंग बन चुका था। किन्तु अशोक के अयोग्य उत्तराधिकारियों के काल में वह फिर स्वतन्त्र हो गया। इस प्रकार सातवाहन वंश पूर्व से पश्चिम की ओर आंध्र तक बढ़ते चले गये तथा महाराष्ट्र तक का क्षेत्र उनके अधिकार में आ गया। सातवाहन वंश ने अपनी दूसरी राजधानी पैठान या प्रतिष्ठान (गोदारी के किनारे पैठन) बनाया । और यहाँ आने के बाद ही ये सातवाहन (शात वाहन, सिंह है वाहन जिनका) कहलाने लगे। इसीलिए इतिहास ने इन्हें सुविधा के लिए आंध्र-सातवाहन भी कहा है।

सातवाहन वंश के शासक

सातवाहन वंश ने जब यहाँ शासन करना शुरू किया उस समय इस वंश के प्रथम शासक रजा सिमुक थे। जिनको इस वंश का संस्थापक भी कहा गया। इनके बाद इनको लेकर सातवाहन वंश में कुल 10 राजा ही हुए, जिनके नाम निम्नलिखित हैं:-

  1. सिमुक
  2. कृष्ण
  3. सातकर्णि
  4. नागनिका
  5. गौतमीपुत्र सातकर्णि
  6. वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी
  7. वशिष्ठिपुत्र सातकर्णि
  8. शिवस्कंद सातकर्णि
  9. यज्ञश्री शातकर्णी
  10. विजय

सातवाहन वंश के शासकों का संक्षिप्त परिचय

सिमुक

पुराणों के प्रमाण के अनुसार 28 ई०पू० सिमुक (या शिमुक या सिन्धुक) नामक आन्ध्र ने (जो सम्भवतः कण्व शक्ति का नायक या सेनापति था) ने कण्व वंश के अन्तिम राजा सुशर्मन की हत्या करके सत्ता हासिल की थी । सम्भवतः उसने शुंगो (कण्वों के पूर्व शासकवंश) के कुछ वंशजों को भी मारा जो मध्य भारत और दक्षिण बिहार में रह रहे थे। सिमुक  23 वर्ष तक शासन किया।

कृष्ण (कन्ह)

पुराणों के अनुसार सिमुक का उत्तराधिकारी उसका भाई कृष्ण (कन्ह) था जिसने 18 वर्ष तक राज किया। नासिक में मिले एक शिलाले में उसका नाम मिलता है। इसी आधार पर विद्वानों की राय है कि कृष्ण के काल में सातवाहन राज्य पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच फैला हुआ था तथा महाराष्ट्र निश्चित रूप से सातवाहन वंश के राजाओं के अधिकार में था।

शातकर्णी

कृष्ण के बाद सिमुक का पुत्र शातकर्णी सिहांसन पर बैठा। वह एक महान विजेता और अपने वंश का प्रतापी शासक था। अनेक स्रोतों से उसके बारे में हमें पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। वीर चरित नाम के बौद्ध ग्रन्थ में उसका वर्णन प्रतिष्ठान के शासक के रूप में किया गया है। उसने महाराष्ट्र के महारथी त्रणकयिरों की कन्या नागनिका से विवाह कर अपना प्रभाव बढ़ाया। उसके दक्षिणपाथ के अनेक प्रदेशों को आन्ध्रों के अधीन किया और दो बार अश्वमेध यज्ञ कराये।

नागनिका

शतकर्णी की मृत्यु के समय उसके दो पुत्र वेदन्थी और शक्तिश्री नाबालिग थे, इसलिए उनकी माँ नागनिका ने उनकी संरक्षिका बनकर राज्यकार्य का संचालन किया। सातवाहन वंश का इसके आगे का इतिहास अन्धकारमय है। हालाँकि इस 100 वर्ष के शासकों के नामों में हकुश्री, सातिश्री, स्कंद स्तम्भि, शातकर्णी द्वितीय, अपीलक, हाल आदि के नाम प्राप्त होते हैं।

इसी काल में लगभग 78 ई० में शकों का दूसरा आक्रमण भारत पर हुआ और शकों ने महाराष्ट्र पर अधिकार कर लिया। महाराष्ट्र में शकों का जो राजवंश स्थापित हुआ था उसका नाम क्षहरात था। शक क्षत्रप नहपान के जो सिक्‍के एवं अभिलेख नासिक प्रदेश के आस-पास से प्राप्त हुए हैं वे भी इस बात के प्रमाण हैं कि प्रथम शताब्दी के अन्त अथवा दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में इस क्षेत्र पर शक अधिकार कर चुके थे।

गौतमीपुत्र शातकर्णी

लगभग 100 वर्षों के पराभव काल के व्यतीत हो जाने बाद गौतमीपुत्र शातकर्णी नामक सातवाहन के राजा ने (पुराणों के अनुसार वह सातवाहन वंश का 23वाँ राजा था) अपने वंश की खोयी हुई प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य को पुनः प्राप्त कर लिया। उसने सन्‌ 106 ई० से 130 ई० तक राज किया। उसने स्वयं को ब्राह्मण बताया। उसने शकों, यवनों, पार्थियनों, आदि का नाश किया। इतिहासकार गौतमी पुत्र शातकर्णी को इस बात का श्रेय देते हैं कि उसने विदेशियों को अपने राज्य से भगा दिया तथा सातवाहन शासन को दक्षिण में सुदृढ़ किया।

वस्तुतः वह अपने वंश का सबसे प्रतापी शासक था. उसने सम्पूर्ण दक्षिण भारत तथा मध्य भारत को अपने अधीन किया। वह वीर होने के साथ-साथ एक सफल शासक भी था। वह अपनी प्रजा के सुख के लिए सदैव चिन्ता किया करता था। इसने अपनी प्रजा पर अधिक कर नहीं लगाये तथा वैदिक धर्म के प्रसार में योगदान दिया।

वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलभावि

गौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र पुलभावि (130-154 ई०) राजा बना। शक राजा रुद्रदामा के साथ इसका दो बार संघर्ष हुआ तथा दोनों बार उसे पराजित किया परन्तु बाद में सन्धि के द्वारा शक राजा ने अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया। पुलभावि के सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि उसके शासनकाल में आंध्र प्रदेश सातवाहन राज्य के अधीन था।

उसने औरंगाबाद को अपनी राजधानी बनाया. उसके समय में सातवाहन वंश का विस्तार हुआ। उसने पूर्व तथा दक्षिण में चोल शासकों को पराजित किया। उसके सिक्‍के सुदूर दक्षिण में भी अनेक बार स्थानों पर उपलब्ध हुए हैं। उसके सिक्‍कों से दो जानकारियाँ मिलती हैं –प्रथम, उसका साम्राज्य सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था। दूसरा, सिक्कों पर बने मजबूत मस्तूल वाले जहाजों से हमें पता चलता है कि उसकी समुद्री शक्ति अत्यधिक बढ़ी हुई थी। सम्भवत: इसके काल में भारत के लोग समुद्र को पार करके अपने उपनिवेश बसाने के लिए विदेशों में गये. उसने पूर्वी एशिया में भी अपने कई उपनिवेश बसाये।

वशिष्ठिपुत्र सातकर्णि

वशिष्ठिपुत्र सातकर्णि सातवाहन वंश के राजा थे जिन्होंने द्वितीय शताब्दी में दख्खन क्षेत्र पर शासन किया। वे वशिष्ठिपुत्र श्री पुलमावी के भाई थे जो महान सातवाहन विजेता गौतमीपुत्र सतकामी के पुत्र थे। वशिष्ठिपुत्र सातकर्णि का राज्यकाल अलग-अलग अनुमानित किये जाते हैं। कुछ शोध उनके शासनकाल को जैसे 38-145 ई के बीच पाते हैं, तथा अन्य के अनुसार यह काल 158-165 ई तक था।

यज्ञ श्री शातकर्णी

पुलभावि के उत्तराधिकारी कमजोर थे। इस वंश का अन्तिम महान तथा उल्लेखनीय शासक यज्ञ श्री शातकर्णी (165-194 ) था। सम्भवत: इसी के काल में सातवाहनों ने करीस नगर तथा वारंगल के लौह अयस्कों का प्रयोग किया होगा। इन दोनों जिलों में लोहे की खदानों के महापाषाण काल में होने के संकेत प्राप्त हुए हैं। वह नौ परिवहन का बहुत प्रेमी था। उसके प्राप्त सिक्कों पर जहाज के चित्र इस बात की पुष्टि करते हैं।

उसने उत्तर कोंकण और मालवा शक राजाओं से वापस प्राप्त किये। यज्ञ श्री शातकर्णी के उत्तराधिकारी निकम्मे और अयोग्य थे । धीरे-धीरे सातवाहन वंश कम- जोर होता चला गया। करीब 225 ई० में इस वंश का शासन पूरी तरह समाप्त हो गया। सातवाहनों के स्थान पर कई सामंत मुखियों ने स्वतन्त्र रूप से अपने-अपने वंशों को राजवंशो के रूप में शुरू किया।

हाल

हाल सातवाहनों का अगला महत्पूर्ण शासक था। यद्यपि उसने केवल चार वर्ष ही शासन किया तथापि कुछ विषयों उसका शासन काल बहुत महत्वपूर्ण रहा। ऐसा माना जाता है कि यदि आरम्भिक सातवाहन शासकों में शातकर्णी प्रथम योद्धा के रूप में सबसे महान था तो हाल शांतिदूत के रूप में अग्रणी था। हाल साहित्यिक अभिरूचि भी रखता था तथा एक कवि सम्राट के रूप में प्रख्यात हुआ। उसके नाम का उल्लेख पुराण, लीलावती, सप्तशती, अभिधान चिन्तामणि आदि ग्रन्थों में हुआ है।

यह माना जाता है कि प्राकृत भाषा में लिखी गाथा सप्तशती अथवा सतसई (सात सौ श्लोकों से पूर्ण) का रचियता हाल ही था। बृहदकथा के लेखक गुणाढ्य भी हाल का समकालीन था तथा कदाचित पैशाची भाषा में लिखी इस पुस्तक की रचना उसने हाल ही के संरक्षण में की थी। कालानतर में बुद्धस्वामी की बृहदकथा ‘यलोक-संग्रह, क्षेमेन्द्र की बृहदकथा-मंजरी तथा सोमदेव की कथासरितसागर नामक तीन ग्रन्थों की उत्पति गुणाढ्य की बृहदकथा से ही हुई।

महेन्द्र सातकर्णि

राजा हाल के बाद क्रमशः पत्तलक, पुरिकसेन, स्वाति और स्कंदस्याति सातवाहन साम्राज्य के राजा हुए। इन चारों का शासन काल कुल 51 वर्ष था। राजा हाल ने 16 ई. से शुरू कर 21 ई. तक पाँच साल राज्य किया था। स्कंदस्याति के शासन का अन्त 72 ई. में हुआ। पर इतना निश्चित है, कि इनके समय में सातवाहन साम्राज्य अक्षुण्ण रूप में बना रहा। स्कंदस्याति के बाद महेन्द्र सातकर्णि राजा बना। ’परिप्लस आफ़ एरिथियन सी’ के ग्रीक लेखक ने भी इसी महेन्द्र को ‘मंबर’ के नाम से सूचित किया है। प्राचीन पाश्चात्य संसार के इस भौगोलिक यात्रा-ग्रंथ में भरुकच्छ के बन्दरगाह से शुरू करके ‘मंबर’ द्वारा शासित ‘आर्यदेश’ का उल्लेख मिलता है।

सातवाहन वंश की अर्थव्यस्था

सातवाहन वंश की अर्थवयवस्था को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है –

सातवाहन वंश में कृषि व्यवस्था

सातवाहन वंश के अधीन राज्य के अधिकांश लोग कृषि कार्य जानते थे। परन्तु कृषि में चावल की उपज ही उनकी प्रधान पैदावार थी। वे धान की रोपनी करना जानते थे। चावल के साथ-साथ वे कपास की खेती भी करते थे। कृष्णा और गोदावरी नदियों के डेल्टाओं पर चावल की खेती की जाती थी। दककन के लोग बढ़िया किस्म का कपास पैदा करते थे, क्योंकि विदेशी विवरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि आन्ध्र को अपनी कपास की वस्तुओं के लिए अनेक देशों में ख्याति प्राप्त थी। इस प्रकार दक्कन के एक बड़े भाग में एक अत्यन्त उन्नत ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास हुआ था।

रोमन इतिहासकार प्लिनी के अनुसार आंध्र राज्य के पास 1,00,000 पंदल सैनिकों, 2000 घुड़सवार ओर 1,000 हाथियों की सेना थीं। और इतनी विशाल सेना को बनाये रखने के लिए किसान पर्याप्त उत्पादन करते थे।

सातवाहन युग के साहित्य में कृषि में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियों का विस्तृत विवरण तो नहीं प्राप्त होता है, किन्तु कृषि में उत्तर वैदिक युग से चली आ रही पुरातन प्रक्रिया में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ। अतः यह अनुमान लगाना अत्यन्त आसान है कि इस युग में इन्हीं औजारों का प्रयोग होता रहा होगा और आज भी इनमें कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुआ।

यह कहा जा सकता है कि वे मूठ वाले लोहे के फावड़े, हल की फाल, हंसिया, कुल्हाड़िया, बसोले, उस्तरे इत्यादि के प्रयोग से सुपरिचित थे। क्योंकि ये सभी वस्तुएं सातवाहन उत्खनन स्तरों में पाये गये हैं। लगभग 200 ई० पू० के पहले हम लोहे के बने कुछ फावड़े पाते हैं।

ईसा की प्रथम दो और तीन शताब्दियों में ऐसे उपकरणों की संख्या अत्यधिक बढ़ गई। उत्खनन में करीमनगर जिले में एक स्थान पर लुहार की एक दुकान भी मिली है। जिससे अनुमान लगता है कि सातवाहनों ने करीम नगर तथा वारंगल के लौह अयस्कों का प्रयोग किया होगा। इन दोनों जिलों में लोहे की खदानों के महापाषाण काल में होने के संकेत प्राप्त हुए हैं। सातवाहन वंश के नरेशों ने सिंचाई की ओर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने सिंचाई के लिए कुएँ, तालाब, आदि के निर्माण के भी कराये ।

सातवाहन वंश में व्यापार की स्थिति

सातवाहन राज्य में व्यापार ने भी खूब प्रगति की। कुछ मिले हुए विवरण के आधार पर कहा जाता है कि पूर्वी दक्कन स्थित आन्ध्र राज्य में असंख्य गांवों के अतिरिक्त तीस परकोटे वाले नगर थे। इस तथ्य की पुष्टि अनेक अभिलेखों तथा उत्खननों में प्राप्त सामग्री से भी होती है कि आन्ध्र राज्य में अनेक नगर द्वितीय तथा तीसरी ईसवी शताब्दी में थे। नगर सड़कों तथा मार्गों से जुड़े थे। दक्षिण भारत में पैठन, नासिक, जुन्तार, कर्नाटक आदि नगर व्यापारिक गतिविधियों के लिए बहुत प्रसिद्ध थे।

व्यापार के लिए अनेक प्रकार के सिक्‍कों का प्रयोग क्रिया जाता था। हालाँकि उन्होंने प्रोटीन, तांबे, और कांसे के सिक्के चलाये लेकिन उनके ज्यादातर सिक्के सीसे के होते थे। उन्होंने सोने को केवल बहुमूल्य धातु समझकर आभूषणों के लिए ही प्रयोग क्रिया तथा इस धातु के सिक्के नहीं चलाये। इस राज्य में आन्तरिक तथा विदेशी दोनों प्रकार का व्यापार कई कारणों से उन्‍नत दशा पर था। वंशधारा, गोदावरी, कृष्णा पिनाकिना आदि नदियों के कारण माल के ले आने तथा ले जाने में सुविधा होती थी।

टॉलेमी तथा पेरिप्लस के अनुसार कृष्णा तथा गोदावरी नदियों मुहानों से पूर्व की ओर जहाज व्यापार का माल लेकर जाते थे। प्लिनी के अनुसार पूर्व की ओर से आने वाले जहाज गोदावरी के मुहाने पर एकत्र होते थे। और फिर गंगा के तट पर उसे नगरों की ओर ले जाते थे। विदेशी व्यापार भी पर्याप्त उन्नति पर था। अनगिनत रोमन तथा सातवाहनों के सिक्‍कों से उनके परस्पर बढ़ते व्यापार के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। रोम के अतिरिक्त भारत का व्यापार मिश्र तथा यूनान से भी होता था। पश्चिमी एवं दक्षिणी भारत के व्यापारी मार्ग दक्षिण अरब, लाल सागर तथा ऐलेक्जेन्डिया के क्षेत्रों से जुड़े हुए थे।

रोमन साम्राज्य से होने वाले व्यापार का बहुत बड़ा भाग इन क्षेत्रों से होकर भी होता था। रोम में भारत की विलासता की वस्तुएं जैसे मोती, हाथीदाँत आदि की पर्याप्त मांग थी। इसके अतिरिक्त चीनी रेशम से विभिन्‍न वस्तुएं तैयार कर, गर्म मसाले, छोटी तथा बड़ी इलायची, काली मिर्च, लौंग, इत्र, मलमल, औषधियां मिश्र, रोम, बर्मा, जावा, चम्पा आदि देशों को भेजी जाती थीं।

भड़ोच, सोपरा, कल्याण, मालाबार आदि इस समय के प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। अपने निर्यात के बदले रोम से भारत को अन्य सामान के अतिरिक्त (जैसे शराब) बहुत बड़ी मात्रा में सोने-चांदी के सिक्के आते थे। प्लिनी ने प्रतिवर्ष भारत से चली जाने वाली सोने की भारी मात्रा के लिए दुःख प्रकट किया है। भारत पश्चिमी देशों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए दक्षिण-पूर्व देशों से गर्म मसाले का आयात करके भी भेजता था जिससे व्यापारियों को बहुत लाभ मिलता था।

सातवाहन वंश में उद्योग-धन्धे

सातवाहन राज्य के लोग कई प्रकार के उद्योग-धन्धों से अपनी जीविका चलाते थे। कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त अनेक प्रकार के औद्योगिक व्यवसाय उन्नत हुए। वे अनेक प्रकार की धातुओं से विभिन्‍न वस्तुएं एवं उपकरण बनाते थे लोहे से कृषि उपकरणों के साथ-साथ घरेलू सामान बनाया जाता था। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों के दौरान कोलार के स्वर्ण क्षेत्र में सोने की प्राचीन खदानों के प्रमाण मिले हैं।

सम्भवतः सातवाहनों ने सोने का उपयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया होगा। क्योंकि उन्होंने कुषाणों की भांति सोने के सिक्के नहीं चलाए। ये मिट्टी के बर्तन, इत्र बनाना, खानों से घातुएं निकालना, हाथी-दांत का काम, कपास तथा रेशम से वस्त्र तैयार करना, चमड़ा तैयार करना तथा इससे विभिन्‍न “वस्तुएं बनाना, औषधियां बनाना, रंग तैयार करना, सोना, तांबा, मोती तथा मणियों से आभूषण बनाना आदि उद्योग-धन्धों में लगे हुए थे।

इस राज्य में विभिन्‍न व्यवसायियों ने अपनी-अपनी सामूहिक संस्थाएं अथवा श्रेणियां बना ली थीं जैसे कुम्हार, कोलिक (बुनकर), तिलपिषक (तेली), कांसाकार (कांसे के बर्तन बनाने वाले), गाँधिक (सुगन्धित पदार्थ बनाने तथा बेचने वाले), लौहार, बढ़ई आदि श्रेणियाँ केवल शिल्पियों का निकाय ही नहीं थीं बल्कि ये कुछ-कुछ आधुनिक बैंकों का भी काम करती थीं.

ये श्रेणियां ब्याज पर दूसरों की निधियां रखती थी तथा अपना धन ब्याज पर दूसरों को उधार देती थीं। ये श्रेणियां शिल्पकारों को समाज में प्रतिष्ठा का स्थान एवं सुरक्षा भी प्रदान करती थीं। प्रत्येक श्रेणी का अपना चिन्ह , तगमा, पताका तथा मुहर होती थी। ये संस्था दानप्रिय होती थी तथा सभी धर्मानुयायियों को बिना भेदभाव दान देती थीं।

सातवाहन वंश का सामाजिक जीवन

वर्ण

विद्वानों की राय है कि सातवाहन मूलतः दक्कन के रहने वाले एक कबीला के लोग थे। मगर कालान्तर में वैदिक धर्म में दीक्षित हो गये। वर्ण से ब्राह्मण तथा सम्प्रदाय से वे वैदिक धर्मानुयायी थे। उनके सबसे प्रसिद्ध शासक गोतमीपुत्र शातकर्णी ने स्वयं को ब्राह्मण कहा है। अगर उसी के दावे को सत्य मान लिया जाये तो यह मानना पड़ेगा कि उसने सातवाहन समाज में पुनः चार वर्णों की व्यवस्था को स्थापित किया।

इसी काल में लिखी हुई याज्ञवल्क्य स्मृति में चारों वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा चारों आश्रमों – ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास के आचार और कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऐसा लगता है कि इस काल में राजा का पद तो ब्राह्मणों के पास था लेकिन क्षत्रियों का सम्मान उनसे कम नहीं था। क्योंकि आन्ध्रों और उनकी समकालीन शक्तियों के अभिलेखों के आधार पर चार वर्णों के अतिरिक्त और भी वर्णों भी उल्लेख मिलता है, जो सरकारी नौकरियों तथा व्यवसायों के आधार पर बने हुए थे।

महाभोज, मरहठी और महासेनापति का सबसे ऊंचा वर्ग माना जाता था। उनका स्थान सामंत राजाओं के समान था। अमात्य, महात्मा, और भाण्डागारिक आदि सरकारी नौकरों, व्यापारीगण आदि दूसरे वर्ग में आते थे। तीसरे वर्ग में वैद्य, लेखक, सुवर्णकार, गान्धिक, कृषक आदि आते थे। चौथे वर्ग में मालाकार, बढ़ई, मछुए, लोहार आदि आते थे।

इस काल में शिल्प, वाणिज्य तथा व्यापार बढ़ने के फलस्वरूप अनेक शिल्पकार, सौदागर तथा व्यापारी सामने आये. उन्होंने अपने नाम के साथ शहरों का नाम अपनाना शुरू कर दिया। तथा वे इस प्रकार के उपनाम लिखने में गर्व अनुभव करते थे। उदाहरण के लिए इत्र बनाने तथा बेचने वाले अपने को गंधिको कहने लगे। कहा जाता है कि आधुनिक “गाँधी” शब्द इसी प्राचीन शब्द से निकला है।

परिवार

समाज की इकाई कुटुम्ब था। इसके प्रधान को कुटुम्बियन कहते थे। सभी परिवार के सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते थे। परिवार संयुक्त तथा पितृसत्तात्मक दोनों ही थे।

स्त्रियों की स्थिति

सातवाहन वंश के परिवार में उत्तर भारत के विपरीत स्त्रियों को बहुत सम्मान प्राप्त है। कुछ विद्वान सातवाहन परिवार को मातृसत्तात्मक परिवार तक बताते हुए लिखते हैं कि “उत्तर भारत में आर्यों के समाज में पिता का महत्त्व माता से अधिक था, परन्तु सातवाहन लोगों में ऐसे सामाजिक ढाँचे के चिन्ह दिखते हैं, जिनके अंतर्गत वंश परम्परा में मां को प्रधानता थी। अपने राजा का नाम उसकी मां के नाम पर रखने की प्रथा थी। उनके अनुसार गौमतीपुत्र और वासिष्ठीपुत्र जैसे नाम इस बात के संकेत हैं।

परन्तु कुछ इतिहासकार इन विचार से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि नि:सन्देह सातवाहन समाज में स्त्रियों को उत्तर भारत या आर्य समाज की तुलना में बहुत अधिक सम्मान प्राप्त था लेकिन वहाँ का समाज पितृसत्तात्मक था क्योंकि राज- सिंहासन का उत्तराधिकारी पुरुष सदस्यों में से ही होता था।

केवल शातकर्णी की विधवा (जिसने अपने पुत्रों की सरक्षिका के रूप में राज्य किया) को हम अपवाद के रूप में पाते हैं। नि:सन्देह वे अपनी पत्नियों के साथ सामाजिक एवं धार्मिक उत्सवों में भाग लेते थे। क्योकि एक अभिलेख से यह भी पता चलता है कि पत्नी अपने पति के साथ यज्ञों में भाग लेती थी। अवसर आने पर वह परिवार की संरक्षिका बन जाती थी तथा विधवा होने पर उसे कष्ट नहीं उठाने पड़ते थे। अनेक रानियों ने स्वेच्छा से महत्त्वपूर्ण धार्मिक उपहार दिये।

विवाह

इस राज्य में अन्तर्जातीय विवाह के अनेक उदाहरण मिलते हैं। जैसे कि उल्लेख किया जा चुका है सातवाहन शासक ब्राह्मण थे, उनमें से प्रथम शातकर्णी ने क्षत्रिय वर्ण के अंगकुलीय महारानी की कन्या नामनिका तथा वासिष्ठीपुत्र पुलभावि ने शक महाक्षत्रप रुद्रदामा (रुद्रदमन) की लड़की से विवाह किया।

संक्षेप में सातवाहन समाज कई दृष्टियों से प्रगतिशील था। उन्होंने स्त्रियों को अधिक सम्मान तथा प्रतिष्ठा प्रदान की। उन्होंने विदेशियों से विवाह करके उनका हिन्दू समाज में क्षत्रियों के रूप में समावेश सरल कर दिया। उन्होंने नगरों तथा व्यवसायों को नाम के साथ जोड़कर प्राचीन वर्ण व्यवस्था की जटिलता को समाप्त करने की दिशा में जाने-अनजाने में कई सारे कदम उठाये। इस राज्य में सामुद्रिक यात्रा पर भी कोई रोक नहीं थी। साथ ही साथ उन्होंने अन्तर्जातीय विवाहों को भी प्रोत्साहित किया।

सातवाहन वंश की शासन प्रणाली

राजा

नि:सन्देह सातवाहनों की शासन प्रणाली एकतांत्रिक थी। उसे यद्यपि राज्य का स्वामी न मान करके अंग माना जाता था लेकिन उसका स्थान प्रमुख और सर्वोच्च था। उसी के हाथ में राज्य की अन्तिम शक्ति थी। लेकिन वह निरंकुश नहीं था। उस पर धर्मशास्त्र का नियंत्रण था। सातवाहन शासकों ने धर्मशास्त्रों में उल्लिखित आदेशों को प्राप्त करने का प्रयास किया। इन शास्त्रों में उसे धर्म का प्रतिपालक दैवीगुण तथा अलौकिक शक्तियां रखने वाला बताया गया है। प्रत्यक्षतः इसका उद्देश्य सातवाहन राजा में देवत्व आरोपित करना था।

कहा जाता है कि ऐसा राज्य में विकेन्द्रीयकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने के लिए किया गया। नि:सन्देह सातवाहनों ने मौर्य काल की कुछ प्रशासनिक विशेषताओं को बनाये रखा जैसे कि मौर्य काल की तरह उनके काल में भी जिले को आहार कहा जाता था। अनेक अधिकारियों को मौर्यकाल की तरह अमात्य और महामात्य कहा जाता था। प्रान्तों का शासन अब भी प्राय: राजकुमारों को ही दिया जाता था।

मौर्यों की तरह, उन्होंने विशाल स्थायी सेना बनायी। पहले उल्लेख किया जा चुका है कि रोमन इतिहासकार प्लिनी के अनुसार उनके पास एक लाख पैदल सैनिक, दो हजार घुड़सवर, एक हजार हाथियों की सेना थी। लेकिन सातवाहनों के शासकों ने कुछ नई प्रशासनिक विशेषताओं को भी अपनाया।

पहला, उन्होंने मौर्यों की तरह प्रशासन में पूर्ण केन्द्रीयकरण को नहीं अपनाया। उनके राज्य में कई छोटे-छोटे राजाओं ने अर्धस्वतंत्रता सामंती शासकों के रूप में राज किया। उदाहरणार्थ इक्ष्वाकु वंश के राजा, जिन्होंने सातवाहन के पतन के बाद अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए।

दूसरा, सातवाहनों ने अपने राजाओं को देवताओं से अधिक महत्त्वपूर्ण माना तथा अपने पूर्ववर्ती भारतीय शासकों की तरह राजाओं से देवताओं की तुलना न करके (विपरीत दिशा में चलते हुए) देवताओं की तुलना ही राजाओं से करनी शुरू की।  उदाहरणार्थ इतिहास लेखों में देवताओं की तुलना गौतमीपुत्र शातकर्णी से की गयी है।

तीसरा, सातवाहनों के प्रशासन में हम सैनिक और सामंती तत्वों की भूमिका भी पाते हैं। उन्होंने कई सेनापतियों तथा सामन्‍तों को प्रान्तीय शासन दिए या ऐसे व्यक्ति को दिया गया जो नौ रथ, नौ हाथी, पच्चीस घोड़े और पैंतालीस पैदल सैनिक रखता था।

चौथा, सातवाहन राजाओं ने ब्राह्मण को तथा श्रमणों को राजस्व तथा प्रशासनिक करों से मुक्त भूमि प्रदान करने , की प्रथा शुरू की जिससे अन्ततः केन्द्रीय सत्ता क्षीण हो गई।

मंत्रिपरिषद

सातवाहन युग में मंत्रिपरिषद की व्यवस्था थी। इस बात की जानकारी हमें रुद्रदामा के अभिलेख से मिलती है। इसके अभिलेख में पति सचिवों तथा कम सचिवों का उल्लेख है जो मंत्रिपरिषद के अस्तित्व को सिद्ध करता है। मंत्रियों की सहायता से राजा अलंघ की प्राप्ति, की रक्षा, की वृद्धि का योग्य पात्रों में वितरण करता था।

प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन

सातवाहन राजाओं ने मौर्य सम्राट अशोककालीन कुछ प्रशासनिक इकाइयों को बनाए रखा। उनके समय में जिला को अशोक के काल की तरह आहार ही कहा जाता था। प्रत्येक जनपद का शासन एक अमात्य, सैनिक राज्यपाल अथवा स्थानीय सरदारों के पास होता था जो महाभोज या अमात्य और महामात्य कहलाते थे। डा० भाण्डारकर, तथा डा. सुमित सरकार ने उन्हें सामंत ही माना है। यह विचार ठीक जान पड़ता है क्योंकि सातवाहनों के प्रशासन में हम सैनिक और सामंती तत्व भी पाते हैं।

यह महत्त्वपूर्ण बात है कि सेनापति को प्रान्त शासक नियुक्त किया जाता था। इस सम्बन्ध में एक इतिहासकार का कहना है “चूंकि दक्कन के कबीलाई लोगों का पूरी तरह न तो हिन्दूकरण हुआ था और न ही वे अपने को नए शासन के अनुकूल बना पाए थे इसलिए उन्हें सैनिक शासन के अधीन रखना आवश्यक था।

गांवों का शासन राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारी के पास होता था। उसे गौल्मिक कहा जाता था. वह एक ऐसे सैनिक का प्रधान होता था जिसमें नौ रथ, हाथी, पच्चीस घोड़े और पैतालीस पैदल सैनिक होते थे। उसका कर्त्तव्य था कि वह कर एकत्र करे तथा शान्ति बनाये रखे। सातवाहन राज्य में नगरों की भी कमी नहीं थी। वहीँ नगर की शासन व्यवस्था नगर व्यवहारिक चलाता था जो शान्ति बनाये रखने के साथ-साथ शिल्प कार्यों की देखभाल तथा शिल्पियों एवं व्यापारियों से कर वसूल करता था।

दंड विधान

भूमि-कर, व्यापारियों तथा शिल्पियों पर लगने वाले कर तथा जुर्माने राज्य की आय के प्रमुख साधन थे. दण्ड विधान प्राय: कठोर था लेकिन वासिष्टीपुत्र श्रीपुलभावि ने अपराधियों के प्रति नर्मी का व्यवहार किया. कुछ उल्लेखों के आधार पर कहा जाता है कि ब्राह्मणों को अपराधी होने पर कम दण्ड तथा उनके विरूद्ध अपराध करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था।

सातवाहन वंश का धार्मिक जीवन

उदार धार्मिक दृष्टिकोण

यद्यपि सातवाहनकालीन ऐतिहासिक स्रोतों से पता चलता है कि सातवाहन वंश के शासक स्वयं को ब्राह्मण अथवा वैदिक धर्म के अनुयायी कहते थे। लेकिन वे धर्मान्ध नहीं थे। नि:सन्देह उन्होंने कई अश्वमेध और वाजपेय यज्ञ जैसे वैदिक यज्ञ कराये और उन्होंने विजयी ब्राह्मणवाद के अभियान का प्रतिनिधित्व किया लेकिन उन्होंने बौद्धों या अन्य धर्मावलम्बियों के साथ न तो भेदभाव किया और न ही किसी पर ब्राह्मणवाद को लादा। इसके विपरीत उनका प्रश्रय और दान सबके लिये खुला था। उन्होंने भिक्षुओं को भूमि का अनुदान देकर बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन दिया।

बौद्ध धर्म

सातवाहन साम्राज्य के पश्चिमी भाग में बौद्ध धर्म का प्रचार और बोद्ध भिक्षुओं का बहुत आदर था। बौद्धों के प्रति शासक ही नहीं बल्कि सर्वसाधारण वैदिक धर्मावलम्बियों का भी धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा ही सहिष्णु तथा उदार था। कहा जाता है कि हिन्दू जनता भी बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए दोनों प्रकार की गुहाएं बनवाती थी तथा उनके भोजन-वस्त्र की व्यवस्था के लिए स्थायी निधि दान करती थी, जो उस समय के गिल्डों या बैंकों में रखी जाती थी। इस धन पर मिलने वाले ब्याज से ही उनका खर्चा चलता था। भाजा, कार्ले, अमरावती, नागार्जुन कोंडा और नासिक में अनेक विहार और चेत्य बनवाये गये. बौद्ध धर्म के दोनों समुदाय हीनयान एवं महायान लोकप्रिय थे।

जैन धर्म

सातवाहन राज्य के पूर्वी भागों में जैन धर्म का प्रचार था. भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि और खण्डगिरि की पहाड़ियों में इस काल में जैन मन्दिर तथा मूर्तियां पायी जाती हैं, जो सम्भवत: इसी राज्य काल में बनवाई गयीं।

ब्राह्मण धर्म

नि:सम्देह सातवाहन युग में ब्राह्मण धर्म ने राज्याश्रय के कारण सर्वाधिक प्रगति की। राज्य की तरफ से इस धर्म को आदिवासियों, कबीलाई तथा विदेशियों में प्रचार के लिए ब्राह्मणों को प्रोत्साहित किया गया। ब्राह्मणों को इस कार्य के लिए भूमि अनुदानों द्वारा प्रेरित किया गया जिससे वे आदिवासियों के बीच बस सके। 

सातवाहन लोग पहले शासक थे, जिन्होंने ब्राह्मणों को इस प्रकार के अनुदान दिये। गौतमीपुत्र शातकर्णी स्वयं को सच्चा ब्राह्मण कहता था। उसने तथा उसकी राजमहिषी ने अनेक यज्ञ कराए। ब्राह्मणों को राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों में दक्षिणा के रूप में अनेक गांव, गायें, हाथी, घोड़े, रथ, सोने-चांदी के आभूषण तथा कीमती वस्त्र दिये जाते थे। बलि प्रथा फिर से प्रारम्भ हो गई थी।

वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के साथ पौराणिक वैष्णव और शैव मत का भी उदय हुआ। इस राज्य के अनेक वैदिक काल के देवताओं जैसे वरुण, इन्द्र, वासुदेव, कृष्ण आदि की पूजा शुरू हुई। धार्मिक कर्मकाण्डों के साथ-साथ इस काल में मनुष्य के नैतिक आचरण पर अधिक बल दिया जाने लगा। वैदिक धर्म इतना उदार था कि वह यवन और शकों को बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार कर लेता था। कार्ले के गुहा लेखों में दो यवनों के नाम धर्म और सिंहध्वज पाये गये हैं।

शक शासक उषवदात (ऋषभदत्त) का नाम संस्कृत भाषा का है। न केवल उसने बल्कि अनेक शकों ने वैदिक धर्म इसलिए ग्रहण किया होगा क्योंकि शक शासक रुद्रदामा तथा सातवाहन शासक वासिष्टपुत्र पुलभावि के काल से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हुए।शकों और सातवाहनों के बीच शादी-ब्याह से शकों का हिन्दू समाज में समावेश आसान हो गया।

संक्षेप में सातवाहन युग में न केवल वैदिक तथा बौद्ध बल्कि जैन धर्म के अनुयायी साथ-साथ शान्ति से रहते थे। सातवाहन शासक वैदिक धर्म के अनुयायी समर्थक होते हुए भी उदार थे। सर्वसाधारण जनता का धार्मिक दृष्टिकोण उदार एवं मानववादी था। वैष्णव, बौद्ध एवं सभी धर्मों ने अपने द्वार विदेशियों के लिए भी खोल दिए। जिस तरह मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण करके भी अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति अपनी उदार नीति नहीं छोड़ी थी उसी प्रकार सातवाहन राजाओं ने वैदिक धर्मावलम्बी होने पर भी अन्य सम्प्रदायों के साथ अन्याय एवं कठोरता को नहीं अपनाया।

सातवाहन वंश में कला का स्थान

वास्तुकला

सातवाहन काल में लौकिक तथा धार्मिक दोनों प्रकार की वास्तुकला को प्रोत्साहन मिला. इनके राज्य काल में अनेक पुराने नगरों का विस्तार हुआ. सम्भवतः धान्यकटक अमरावती,  नासिक आदि के चारों ओर दीवारें तथा नगर-द्वार और बुर्ज बनाये गये। इन नगरों के प्रायः मकान पकी ईंटों के बने होते थे लेकिन लकड़ी का उपयोग भी संभवतः पर्याप्त रूप से होता था। इन शासकों ने आदिवासी क्षेत्रों में ब्राह्मणों को निवास के लिए प्रोत्साहन देकर नये गांवों के निर्माण को भी प्रोत्साहन दिया।

सातवाहन शासकों ने धर्मपरक वास्तुकला में विशेष रुचि दिखाई। उन्होंने उत्तर-पश्चिमी दक्‍कन अथवा महाराष्ट्र में अत्यन्त दक्षता और धैर्य से ठोस शिलाखण्ड काट करक अनेक मन्दिर और मठ बनवाए. नासिक, कार्ले, भाजा में गुहा-विहार और गुहा-चैत्य के अत्यन्त सुन्दर भवन इसी समय के बने हुए हैं। इनकी यंत्रकला, भवन-निर्माण शैली और सजावट अद्भुत है।

सातवाहन काल में बने चैत्यों में कार्ले का चैत्य (एक विशाल हॉल जिसमें अनेक खम्भे होते थे तथा सामूहिक पूजा पाठ के काम आता था) है। वह 124 फीट लम्बा तथा 46-1/2 फीट चौड़ा तथा 45 फीट ऊंचा है। दोनों ओर 15-15 खम्भे की पंक्तियां हैं। हर खम्भा एक वर्गाकार सीढ़ीदार कुर्सी पर खड़ा हुआ है। हर खम्भे में एक अठपहलू पूर्णतया अलंकृत शीर्ष है, जिन पर दो हाथी घुटने टेककर बैठे हुए दिखाए गये हैं। इसकी छत एवं शीर्षों पर सुन्दर चित्रकारी की गई है। अजन्ता तथा एलोरा की कुछ गुफाओं को भी सम्भवतः सातवाहनों ने ही बनवाया।

गुम्मदिगुरु, घण्टशाल तथा गोलि आदि के स्तूप इसी काल में बनवाए गये थे। चैत्यों के साथ-साथ इस काल में विहार भी बनवाये गये। विहार में भिक्षुओं के रहने की व्यवस्था होती थी। केवल नासिक में ही इस काल के बने बौद्ध विहार प्राप्त हुए हैं। चूंकि उनमें मदपान और गौतमी पुत्र के अभिलेख हैं, इसलिए विद्वानों की राय है कि इनका निर्माण ईसा की पहली-दूसरी शताब्दियों में हुआ। यह विहार कृष्ण-गोदावरी नदी के मध्य आन्श्र प्रदेश में आने वाले क्षेत्रों में बनवाये गये।

सातवाहन युग में अनेक स्तूप भी बनवाये गये. स्तूप एक स्मारक होता था। इसकी छत एवं आकार प्राय: गोल होती थी। इसे बुद्ध के किसी अवशेष पर खड़ा किया जाता था। इस काल में बनवाये गये स्तूपों में नागार्जुनकोंडा का स्तूप सबसे प्रसिद्ध है। उसका गुम्बद आधार के आर-पार 162 फीट था और ऊंचाई 100 फीट थी। इसी काल में कई हिन्दू मन्दिर बने जो प्रायः इंटों के होते थे।

मूर्तिकला

सातवाहन युग में उनके देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाई गयी। अमरावती स्थित स्तूप मूर्तियों से भरा पड़ा है। इसमें अधिकांश मूर्तियों द्वारा बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित दृश्यों को प्रदर्शित किया गया है। नागार्जुनकोंडा में भी कुछ अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनसे मूर्तिकला की प्रगति के प्रमाण मिलते हैं। 

नानाघाट में उत्कीर्ण मूर्तियाँ एक ही श्रेणी की हैं, जो यद्यपि भग्न हैं, किन्तु वे इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उनमें शातकर्णी के वंश के सदस्यों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इनके नाम भी उत्कीर्ण हैं. कोण्ठानी में एक मूर्ति प्राप्त होती है, जिस पर लघु अभिलेख भी प्राप्त होता है। इस काल की कुछ ऐसी मूर्तियाँ नागार्जुनकोंडा के विजयपुरी नामक स्थान से मिलती हैं जिन पर गांधार कला शैली का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

भाषा और साहित्य

सातवाहन काल में प्राकृत भाषा और साहित्य में भी प्रगति हुई। इस काल में राजकीय भाषा प्राकृत थी और प्रचलित लिपि ब्राह्मी। उन्होंने अपने सभी अभिलेख, प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि में ही लिखवाये। हाल नामक सातवाहन राजा, प्राकृत भाषा का प्रसिद्ध कवि था। सम्भवतः उसी ने श्रृंगार रस की गाथा सप्तशती की रचना की थी। इसमें 700 पद्य थे जो प्राकृत में रचे गये थे। सम्भवतः गुणाढ्य की वृहतकथा भी सातवाहन के काल में लिखी गयी। तमिल साहित्य में भी कुछ रचनाएं इसी युग में शुरू की थी। इसी काल में संस्कृत व्याकरण की पुस्तक “कातंत्र” संघवर्मन नामक विद्वान ने लिखा।

सातवाहन वंश का पतन

भारतवर्ष में सूर्यवंश से लेकर सातवाहन वंश तक कई बड़े-बड़े राजवंशों ने राज किया और पूरे देश में उनका नाम चलता था लेकिन समय के साथ साथ उनका पतन भी हुआ। सबके पतन की वजह अलग अलग रही, ठीक उसी प्रकार  सातवाहन साम्राज्य के पतन का भी कुछ कारण था जिसकी विस्तृत चर्चा निचे की गयी है। यज्ञश्री शातकर्णी ने 170 ईस्वी से 200 ईस्वी तक शासन किया लेकिन इनके समय ही सातवाहन वंश का पतन शुरु हो गया था।

पौराणिक तथ्यों के आधार पर यज्ञश्री शातकर्णी के बाद विजय, चंद्रश्री तथा पुलोमा ने शासन किया लेकिन इनमें से कोई भी इतना ताकतवर नहीं था कि सातवाहन वंश के पतन को रोक सके। जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा सातवाहन वंश बहुत बड़ा और विशाल था। इस वंश ने लगभग 300 वर्षों तक विभिन्न उतार चढ़ाव और कठिन परिस्थितियों के बिच राज किया लेकिन पीछे के राजा इस विशाल साम्राज्य को संभाल नहीं सकें और सातवाहन वंश का अंत हो गया।

सातवाहन वंश के पतन के निम्नलिखित कारण हैं –

  • सातवाहन वंश के पतन का मुख्य कारण छोटे छोटे राज्यों ने स्वतंत्र सत्ता हासिल कर ली, जिनमें आभीर, इक्ष्वाकु और चूटू शातकर्णी आदि।
  • सातवाहन वंश में जन्में अयोग्य शासक विशाल साम्राज्य को संभाल नहीं सकें, यह सातवाहन वंश के पतन का दूसरा सबसे बड़ा कारण रहा।
  • इक्ष्वाकु वंश के लोग कभी सातवाहन वंश के सामंत हुआ करते थे लेकिन कमज़ोर शासन के चलते इन्होंने स्वतंत्र सत्ता हासिल कर ली।
  • सातवाहन वंश में बाद में जन्में राजाओं की नीतियां धीरे धीरे जनता विरोधी होती गई।
  • सातवाहन वंश के शासक विशाल साम्राज्य को संभाल नहीं पाए और पकड़ कमज़ोर होने से स्वतंत्र सत्ता का उदय हुआ।
  • सातवाहन वंश ने लगभग 300 वर्षों तक शासन किया था ऐसे में कई दुश्मन हो जाते हैं और जनता का भी विश्वास उठ जाता हैं यह भी सातवाहन वंश के पतन का कारण हो सकता हैं।
  • सातवाहन वंश के राजा धीरे-धीरे दुराचारी बन गए।
  • सामंतो और मंत्रियों में सत्ता का लालच पैदा हो गया था जिसके चलते वो विद्रोह कर बैठे।

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सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.