स्वतः संज्ञान: सुप्रीम कोर्ट के स्ट्रीट डॉग्स मामले से समझें संवैधानिक शक्ति और सामाजिक संतुलन

भारत का न्यायपालिका तंत्र केवल विवादों का निपटारा करने वाला संस्थान ही नहीं, बल्कि समाज में न्याय, सुरक्षा और मौलिक अधिकारों की रक्षा करने वाला एक सक्रिय प्रहरी भी है। कई बार यह प्रहरी तब भी सक्रिय हो जाता है, जब उसके दरवाजे पर कोई याचिकाकर्ता दस्तक नहीं देता। अदालतें स्वयं पहल करके किसी मामले में कार्यवाही शुरू कर सकती हैं—इसे स्वतः संज्ञान या स्वप्रेरणा से संज्ञान (Suo Moto Cognizance) कहते हैं।

2025 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली-एनसीआर में आवारा कुत्तों की समस्या पर उठाया गया कदम इस अवधारणा का ताज़ा और जीवंत उदाहरण है। इस लेख में हम न केवल इस मामले की विस्तृत पड़ताल करेंगे, बल्कि स्वतः संज्ञान की अवधारणा, इसके संवैधानिक प्रावधान, ऐतिहासिक उदाहरण और इसके सामाजिक-नैतिक पहलुओं पर भी चर्चा करेंगे।

स्वतः संज्ञान (Suo Moto Cognizance) क्या है?

Suo Moto एक लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है—“अपने ही बल पर” या “स्वप्रेरणा से”। भारतीय न्याय व्यवस्था में इसका प्रयोग उस स्थिति में किया जाता है जब अदालत बिना किसी औपचारिक याचिका या शिकायत के, खुद किसी मुद्दे पर कार्यवाही शुरू करती है।

यह शक्ति तब अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है जब—

  • मामला जनहित, मानवाधिकार, पर्यावरण या जीवन-जीविका से जुड़ा हो,
  • प्रभावित व्यक्ति या वर्ग इतना कमजोर या असहाय हो कि अदालत तक पहुंचने की स्थिति में न हो,
  • तत्काल हस्तक्षेप न करने पर गंभीर नुकसान या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो सकता हो।

संवैधानिक और विधिक आधार

भारतीय संविधान और कानूनों में स्वतः संज्ञान की शक्ति स्पष्ट रूप से निहित है—

  1. अनुच्छेद 32 – यह सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु प्रत्यक्ष रूप से आवेदन करने का अधिकार देता है, और इसके तहत अदालत स्वयं भी कार्यवाही कर सकती है।
  2. अनुच्छेद 226 – यह उच्च न्यायालयों को समान शक्ति प्रदान करता है, जिसके तहत वे मौलिक और कानूनी अधिकारों की रक्षा हेतु स्वतः संज्ञान ले सकते हैं।
  3. न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियाँ – न्यायपालिका को संविधान और विधि के तहत अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए अंतर्निहित (inherent) शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिसमें स्वतः संज्ञान भी शामिल है।
  4. जनहित याचिका (PIL) का विस्तार – स्वतः संज्ञान को कई बार PIL की विस्तारित अवधारणा के रूप में देखा जाता है, हालांकि यह उससे भी अधिक व्यापक है क्योंकि इसमें कोई याचिकाकर्ता आवश्यक नहीं होता।

अदालतें स्वतः संज्ञान कब लेती हैं?

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट स्वतः संज्ञान मुख्यतः निम्न परिस्थितियों में लेते हैं—

  • गंभीर जनहित के मामले — जैसे प्रदूषण, सार्वजनिक स्वास्थ्य, प्राकृतिक आपदा में राहत कार्य।
  • मानवाधिकार उल्लंघन — पुलिस हिरासत में मौत, भीड़ हिंसा, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार आदि।
  • सरकारी विफलता या लापरवाही — जब सरकारी तंत्र किसी समस्या को हल करने में असफल हो।
  • मीडिया रिपोर्ट या पत्र — अखबार, टीवी या सोशल मीडिया पर आई गंभीर खबरों के आधार पर।

ऐतिहासिक उदाहरण

भारत में स्वतः संज्ञान लेने की परंपरा 1980 के दशक से प्रमुखता से विकसित हुई, जब न्यायपालिका ने आम जनता के अधिकारों के संरक्षण के लिए सक्रिय रुख अपनाया।
कुछ उल्लेखनीय उदाहरण—

  • प्रवासी मजदूर मामला (2020) – कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया।
  • दिल्ली प्रदूषण मामला – वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु न्यायालय ने समय-समय पर स्वतः संज्ञान लेकर आदेश दिए।
  • पुलिस हिरासत में मौत के मामले – कई बार मानवाधिकार उल्लंघन पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः हस्तक्षेप किया।

2025 का स्ट्रीट डॉग्स मामला — पृष्ठभूमि

28 जुलाई 2025 को The Times of India में एक प्रमुख खबर छपी—“City hounded by strays, kids pay price” (शहर आवारा कुत्तों से परेशान, बच्चे चुकाते हैं कीमत)। इस रिपोर्ट में दिल्ली-एनसीआर में आवारा कुत्तों के हमलों की बढ़ती घटनाओं, खासकर बच्चों के घायल होने और मौत तक की घटनाओं का विस्तार से उल्लेख था।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक—

  • पिछले एक वर्ष में कुत्ता काटने के मामलों में तेज़ वृद्धि हुई।
  • कई स्कूली बच्चे गंभीर रूप से घायल हुए।
  • अस्पतालों में एंटी-रेबीज इंजेक्शन की मांग बढ़ी।
  • कई क्षेत्रों में लोग बच्चों को बाहर खेलने से रोकने लगे।

मामले की गंभीरता को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए एक याचिका के रूप में मामला दर्ज किया।

सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही और आदेश

11 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में विस्तृत आदेश जारी किए, जिनमें निम्न प्रमुख निर्देश शामिल थे—

  1. आवारा कुत्तों को पकड़कर हटाना — 8 सप्ताह के भीतर दिल्ली-एनसीआर से सभी आवारा कुत्तों को हटाकर आश्रयों में रखा जाए।
  2. टीकाकरण और नसबंदी — सभी पकड़े गए कुत्तों का अनिवार्य टीकाकरण और नसबंदी की जाए।
  3. सड़क पर न छोड़ा जाए — कुत्तों को पुनः सड़कों पर न छोड़ा जाए, बल्कि उन्हें स्थायी या अर्ध-स्थायी आश्रयों में रखा जाए।
  4. हेल्पलाइन शुरू करना — 1 सप्ताह में कुत्ता काटने और हमलों की शिकायतों के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी हो।
  5. सीसीटीवी कैमरे — सभी आश्रयों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं ताकि पारदर्शिता और उचित देखभाल सुनिश्चित हो।
  6. कानूनी कार्रवाई — इस अभियान में बाधा डालने वाले व्यक्तियों या संगठनों के खिलाफ कानून के तहत कार्रवाई हो।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि लोगों की सुरक्षा, विशेषकर बच्चों की, संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के अंतर्गत आती है, और राज्य का यह दायित्व है कि वह नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे।

प्रतिक्रियाएँ और विवाद

नागरिक पक्ष

कई अभिभावकों और स्थानीय निवासियों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्वागत किया। उनका मानना था कि इससे बच्चों पर होने वाले हमलों में कमी आएगी और लोग बिना डर के सड़कों पर आ-जा सकेंगे।

पशु कल्याण संगठनों का पक्ष

पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने इस आदेश को अवैज्ञानिक और अमानवीय बताया। उनके तर्क—

  • आवारा कुत्तों को पूरी तरह सड़कों से हटाना पारिस्थितिक संतुलन के लिए हानिकारक हो सकता है।
  • भारतीय पशु क्रूरता निवारण अधिनियम (Prevention of Cruelty to Animals Act) और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व आदेशों के अनुसार, नसबंदी के बाद कुत्तों को उनके क्षेत्र में वापस छोड़ना होता है।
  • आश्रयों में कुत्तों की उचित देखभाल की गारंटी नहीं है, और यह भीड़भाड़ और बीमारियों का कारण बन सकता है।

प्रदर्शन और टकराव

दिल्ली के कई इलाकों में पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने कुत्तों को पकड़ने की कार्रवाई के खिलाफ प्रदर्शन किया। कुछ कार्यकर्ताओं को हिरासत में भी लिया गया।

मुख्य न्यायाधीश ने संकेत दिया कि यदि आदेश के क्रियान्वयन में व्यावहारिक कठिनाइयाँ सामने आती हैं या यह पशु अधिकार कानूनों से टकराता है, तो इसकी समीक्षा की जा सकती है।

विधिक और सामाजिक महत्व

यह मामला कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है—

  1. स्वतः संज्ञान का समकालीन उदाहरण — UPSC, राज्य सेवा और न्यायिक परीक्षाओं में प्रासंगिक।
  2. मानव बनाम पशु अधिकार संतुलन — अदालत को यह तय करना होता है कि मानव सुरक्षा और पशु संरक्षण के बीच कैसे संतुलन स्थापित किया जाए।
  3. संवैधानिक प्रावधानों का अनुप्रयोग — अनुच्छेद 32 और 21 का प्रत्यक्ष उपयोग।
  4. जननीति और प्रशासनिक जवाबदेही — स्थानीय निकायों को सक्रिय करने और जवाबदेह बनाने का प्रयास।
  5. मीडिया की भूमिका — यह मामला पूरी तरह एक अखबार की रिपोर्ट के आधार पर शुरू हुआ, जो मीडिया के प्रभाव को दर्शाता है।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण

  • मानव-केंद्रित बनाम पशु-केंद्रित दृष्टि — आदेश मानव सुरक्षा पर केंद्रित है, लेकिन पशु अधिकारों के संवैधानिक और नैतिक पहलुओं को भी संतुलित करना जरूरी है।
  • कार्यान्वयन की चुनौतियाँ — दिल्ली-एनसीआर जैसे विशाल क्षेत्र से हजारों कुत्तों को पकड़ना, उनका टीकाकरण और आश्रयों में रखना, वित्तीय और प्रशासनिक दृष्टि से कठिन कार्य है।
  • दीर्घकालिक समाधान — समस्या का स्थायी समाधान केवल पकड़ने और हटाने में नहीं, बल्कि नसबंदी, कचरा प्रबंधन, जन-जागरूकता और पशु जन्म दर नियंत्रण में निहित है।

निष्कर्ष

स्वतः संज्ञान भारतीय न्यायपालिका की एक शक्तिशाली और जिम्मेदार पहल है, जो यह दर्शाती है कि अदालतें केवल विवाद सुलझाने के लिए नहीं, बल्कि समाज की सुरक्षा और कल्याण के लिए भी सक्रिय रूप से हस्तक्षेप कर सकती हैं।

2025 का स्ट्रीट डॉग्स मामला यह बताता है कि न्यायपालिका कैसे एक मीडिया रिपोर्ट से प्रेरित होकर व्यापक सामाजिक और कानूनी प्रभाव वाला आदेश जारी कर सकती है। हालांकि, यह भी सच है कि ऐसे मामलों में मानव और पशु दोनों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाना चुनौतीपूर्ण कार्य है।

आगे की राह इस दिशा में होनी चाहिए कि—

  • समस्या की वैज्ञानिक और मानवीय दृष्टिकोण से जांच हो,
  • कानूनी प्रावधानों और संवैधानिक मूल्यों का पालन हो,
  • और सामाजिक जागरूकता और प्रशासनिक दक्षता के माध्यम से दीर्घकालिक समाधान खोजे जाएं।

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