हिंदी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास

प्राचीन हिंदी गद्य साहित्य काव्य जितना समृद्ध, विस्तृत एवं विविधतापूर्ण नहीं है। मूल गद्य के अलावा, टिप्पणियों और अनुवादों के रूप में भी प्रचुर मात्रा में गद्य सामग्री उपलब्ध है। हिंदी गद्य का प्रामाणिक रूप 13वीं शताब्दी में राजस्थानी, 14वीं शताब्दी में मैथिली, 16वीं शताब्दी में ब्रजभाषा और दखिनी, 17वीं शताब्दी में खड़ीबोली और अन्य हिंदी बोलियों में, मुख्य रूप से 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मिलता है। हालाँकि, प्राचीन गद्य अवधी, भोजपुरी, बघेली और छत्तीसगढ़ी में बहुत कम मात्रा में मिलता है। इन भाषाओं में गद्य प्रायः अक्षरों, शिलालेखों और टिप्पणियों के रूप में देखने को मिलता है।

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल भारत के बदलते इतिहास से प्रभावित रहा है। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रवाद की भावना ने साहित्य को भी प्रभावित किया। भारत में औद्योगीकरण प्रारम्भ हुआ। परिवहन सुविधाओं का विकास किया गया है। अंग्रेजी और पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव बढ़ा और जीवन में बदलाव आने लगा। भावनाओं के अतिरिक्त विचारों को भी पर्याप्त महत्व मिला। कविता के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और मुद्रण के आगमन से साहित्य की दुनिया में एक नई क्रांति आई।

प्रारम्भिक विद्वान हिन्दी गद्य के संबंध में असहमत थे। कुछ का मानना ​​है कि शुरुआत 10वीं सदी में हुई, कुछ का मानना है कि 11वीं सदी में, और कुछ का मानना है कि हिंदी गद्य की शुरुआत 13वीं सदी में हुई। गद्य का प्राचीनतम प्रयोग हमें राजस्थानी और ब्रज भाषा में मिलता है। राजस्थान गद्य का काल 11-14 शताब्दी तथा व्रज गद्य का काल 14-16 शताब्दी माना जाता है। माना जाता है कि हिंदी गद्य की उत्पत्ति 10वीं और 13वीं शताब्दी के बीच हुई थी। खड़ी बोली का प्रथम आविर्भाव अकबर के दरबारी कवि गंग द्वारा रचित ‘चंद चंद बरनन’ के वैभव में मिलता है।

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हिन्दी गद्य का विकास

शैलीगत दृष्टि से साहित्य के दो भेद होते है- गद्य और पद्य। गद्य एक वाक्यात्मक, विचारात्मक रचना है और कविता एक छंदबद्ध और लयबद्ध भावनात्मक रचना है। गद्य में बौद्धिक प्रयासों और मन की चिंतनशील स्थितियों को व्यक्त करना अपेक्षाकृत आसान है, जबकि पद्य में मन की भावनात्मक स्थितियों को व्यक्त करना आसान है। काव्य में संवेदनशीलता और कल्पना की प्रधानता होती है और गद्य में विवेक की। इसी कारण पद्य को हृदय की भाषा और गद्य को मन (मष्तिष्क) की भाषा कहा जाता है।

“गद्य” शब्द का निर्माण “गद्” धातु में “यत्” प्रत्यय जोड़ने से हुआ है। “‘गद्” का अर्थ है बोलना, बताना या बातचीत करना। विषय एवं परिस्थिति के अनुसार शब्दों की सही व्यवस्था तथा वाक्यों की सही रचना ही गद्य की सर्वोत्तम कसौटी है। इसलिए, गद्य में कई विधाएँ शामिल हैं। गद्य की प्रमुख विधाओं में शामिल हैं: निबंध, नाटक, लघुकथा, संस्मरण, एकांकी, निबंध, रिपोर्ताज, यात्रा वृतांत, जीवनी, डायरी, पत्र, साक्षात्कार (भेट वार्ता) आदि। प्रारंभ में इसमें लघुकथाओं, निबंधों आदि के अतिरिक्त भी कई विधाएँ सम्मिलित की गईं। परन्तु 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से इनका स्वतंत्र अस्तित्व सामने आया।

राष्ट्रभाषा के रूप में मानक हिन्दी, खड़ी बोली का एक रूप है। खड़ी बोली के गद्य की प्रामाणिक रचनाएँ 17वीं शताब्दी से प्राप्त होनी शुरू हो जाती हैं। इसका प्रमाण जटमल द्वारा लिखित कहानी “गोरा बादल” है। प्रारंभिक गद्य खड़ी बोली ब्रजभाषा से प्रभावित था। ब्रजभाषा के प्रभाव से मुक्त खड़ी बोली गद्य का आरम्भ 19वीं सदी में शुरू हुआ।

मुस्लिम शासन काल के दौरान, विशेषकर मुहम्मद तुगलक के समय में, कई मुसलमान उत्तर से दक्षिण की ओर चले गए। वे उत्तरी खड़ी बोली को दक्षिण में ले आये। इससे वहां “दक्खिनी हिन्दी” का विकास हुआ। अतः खड़ी बोली गद्य का एक रूप “दक्खिनी गद्य” का है। दक्खिनी खड़ी बोली गद्य का प्रामाणिक रूप 1580 ई. से देखा जा सकता है।

गद्य के प्रारंभिक स्वरूप (खड़ी बोली) का उन्नयन

खड़ी बोली गद्य के प्रारंभिक स्वरूप के उन्नयन में चार लेखकों का योगदान महत्त्वपूर्ण है- 

1. पंडित लल्लू लाल (सन् 1763-1825 ई.)

पंडित लल्लू लाल जी का जन्म सन् 1763 ई० में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में हुआ था। इनके पूर्वज गुजरात से आकर आगरा में बस गये थे।  पंडित लल्लू लाल फोर्ट विलियम कॉलेज में भाखा मुंशी के पद पर नियुक्त थे। इन्होंने ‘भागवत’ के ‘दशम स्कंध’ की कथा के आधार पर ‘प्रेमसागर’ की रचना की। इसकी भाषा पर ब्रज का प्रभाव था।

द्विवेदी जी के शब्दों में- “इस ब्रजरंजित खड़ी बोली में भी वह सहज प्रभाव नहीं है जो सदासुखलाल की भाषा में है।” शुक्ल जी के दृष्टि में इनकी भाषा “नित्य व्यवहार के अनुकूल नहीं है। ये ‘उर्दू’ भाषा को ‘यामिनी’ भाषा कहते थे। और उससे दूर रहने की सलाह देते थे। ग्रियर्सन के अनुसार ‘प्रेमसागर’ की भाषा हिंदी गद्य की स्टैंडर्ड बनी।

‘लालचंद्रिका’ की भूमिका में लल्लूलाल ने अपने ग्रंथ की भाषा के तीन भेद बताएँ हैं- ब्रज, खड़ीबोली और रेख्ते की बोली।

2. पंडित सदल मिश्र (सन् 1767-1848 ई.)

 पंडित सदल मिश्र जी बिहार के रहनेवाले थे। लल्लूलाल की तरह ये भी भाखा मुंशी पद पर थे। इन्होंने  ‘नासिकेतोपाख्यान’ की रचना की। ‘नासिकेतोपाख्यान’ पर ब्रज और भोजपुरी का प्रभाव है। किन्तु यह सीधे संस्कृत होने के कारण हिंदी के प्रकृति के अनुरूप है। शुक्ल जी ने इनकी भाषा को साफ़ सुथरी और व्यवहारोपयोगी कहा है। इनकी भाषा में पूर्वीपन और पंडिताऊपन है। आधुनिक हिंदी गद्य का जो आभास ‘सदासुखलाल’ और ‘सदल मिश्र’ की भाषा में दिखाई देता है उसी का आगे विकास हुआ।     

3. मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’ (सन् 1746-1824 ई.)

मुंशी सदासुखलाल जी ने ‘विष्णु पुराण’ का अंश लेकर उसे खड़ी बोली में प्रस्तुत किया। इनकी भाषा शैली में पंडिताऊपन देखने को मिलता है। जबकि इनकी वाक्य रचना पर फारसी शैली का प्रभाव था। ये फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर के लेखक थे। ये उर्दू और फ़ारसी के अच्छे लेखक और कवि थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “इनकी भाषा कुछ निखरी हुई और सुव्यवस्थित है, पर तत्कालीन प्रचलित पंडिताऊ प्रयोग भी इनमे मिल जाते हैं।” ‘सुखसागर’ के अतिरिक्त विष्णुपुराण के प्रसंगों के आधार पर मुंशी सदासुखलाल ने एक अपूर्ण ग्रंथ की भी रचना की थी। इनकी भाषा में ‘सहजता’ और ‘स्वाभाविकता’ विद्यमान है।

4. मुंशी इंशा अल्ला खाँ (सन् 1735- 1818 ई.)

इंशा अल्ला खाँ ‘इंशा’ हिन्दी साहित्यकार और उर्दू कवि थे। वे लखनऊ तथा दिल्ली के दरबारों में कविता करते थे। उन्होने दरया-ए-लतफत नाम से उर्दू का प्रथम व्याकरण की रचना की थी। मुंशी इंशाअल्ला खाँ ने चटपटी हास्य प्रधान शैली में ‘रानी केतकी की कहानी’ नामक कथा ग्रन्थ की रचना की। यह उर्दू लिपि में लिखी गयी थी। बाबू श्यामसुन्दर दास इसे हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं।

मुंशी इंशा अल्ला खाँ का जन्म मुर्शिदाबाद हुआ था। अपने चातुर्य और मसखरेपन की वजह से मुंशी इंशा अल्ला खाँ दिल्ली में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के दरबार में अपना स्थान बना लिए। परन्तु दरबारी और बाहरी शायरों से इनकी नोक झोंक होती रहती थी। शाहआलम की आर्थिक स्थिति ख़राब होने पर मुंशी इंशा अल्ला खाँ लखनऊ आ गए जहाँ आसिफुद्दौला का शासन था।

यहाँ भी शाह आलम के पुत्र मिर्ज़ा सुलेमान शिकोह के दरबार में प्रभुत्व जमा लिया। यहाँ मुसहफ़ी जैसे विद्वान पहले से मौजूद थे, परन्तु इन्होने उनको नीचा दिखाकर अपना स्थान हासिल कर लिया। इसके पश्चात यह धीरे-धीरे सआदत अली खान के दरबार में आ गए। लेकिन बाद में नवाब से इनका सम्बन्ध अच्छा नहीं रहा, जिस कारण इनका अन्त निर्धनता में बीता।

5. राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-ए-हिन्द’ (1823- 1895 ई.)

राजा शिवप्रसाद ‘सितारे’ हिंदी विभाग में निरीक्षक के पद पर थे। ये हिंदी के प्रबल पक्षधर थे। इसलिए इसे ये पाठ्यक्रम की भाषा बनाना चाहते थे। चूकी उस समय साहित्य के पाठ्यक्रम के लिए कोई भी पुस्तक नहीं थी इसलिये उन्होंने स्वयं कोर्स की पुस्तकें लिखी और उसे हिंदी पाठ्यक्रमों में स्थान दिलवाया। इन्हीं के प्रयत्नों का ही परिणाम है कि शिक्षा जगत में हिंदी कोर्स की भाषा बनी। इसके बाद उन्होंने बनारस से ‘बनारस अखबार’ निकाला। इसी अखबार के द्वारा राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। ये हिंदी में विशुद्ध लेख लिखते थे।

इन्होंने हिंदी कोर्स की पुस्तकों के लिए पंडित श्रीलाल और पंडित बंशीधर को भी प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘वीरसिंह का वृतांत’ एवं आलसियों का कोड़ा जैसी रचनाओं का सृजन किया। इनकी गद्य भाषा प्रभावशाली और सरल थी। इसका उदहारण “राजा भोज का सपना” में इस प्रकार है- “वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी राजा भोज का नाम न सुना हो। उनकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत में व्याप्त रही है। बड़े-बड़े महिपाल उनका नाम सुनते ही काँप उठते और बड़े-बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते।”  राजा जी उर्दू के पक्षपाती थे। उन्होंने 1864 ई. में “इतिहास तिमिर नाशक” ग्रंथ लिखा।

6. राजा लक्षमण सिंह (1887-1956 ई.)

राजा लक्षमणसिंह आगरा के निवासी थे। इन्होंने हिंदी और उर्दू को दो भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूप में स्वीकार किया था। ये हिंदी एवं उर्दू शब्दावली प्रधान गद्य भाषा का प्रयोग करते थे। राजा लक्षमणसिंह ने कालिदास के मेघदूतम, अभिज्ञान शाकुन्तलम् और रघुवंश का हिंदी अनुवाद किया। इन्होंने हिंदी गद्य विकास के लिए 1841 ई. में ‘प्रजा हितैसी’ पत्र भी संपादित और प्रकाशित किया। इनकी गद्य भाषा काफी उत्कृष्ट थी।

उदाहरण के लिए ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का अनुदित गद्य है- “अनसूया (हौले प्रियबंदा से) सखी मैं तो इसी सोच विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछूँगी। (प्रकट) महात्मा तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकार मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की पूजा को विरह में व्याकुल छोड़कर यहाँ पधारे हो? क्या कारण है?

राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्षमण सिंह के अलावा और अनेक प्रतिभाशाली लेखकों ने हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनेक गद्य लेखकों ने अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किए और पाठ्य पुस्तकें लिखी। उनमे श्री मथुराप्रसाद मिश्र, श्री ब्रजवासी दास, श्री रामप्रसाद त्रिपाठी, श्री शिवशंकर, श्री बिहारीलाल चौबे, श्री काशीनाथ खत्री, श्री रामप्रसाद दूबे आदि प्रमुख थे।

इसी समय स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसे ग्रंथ की हिंदी गद्य में रचना कर हिन्दू धर्म की कुरीतियों को समाप्त किया। बाबू नवीन  चंद्रराय ने 1863-1880 ई. के मध्य हिंदी के विभन्न विषयों की पुस्तकें लिखी और लिखवाई। इसी तरह श्रद्धानंद फुल्लौरी ने सत्यमृत प्रवाह, आत्म चिकत्सा, तत्वदीपक, धर्मरक्षा, उपदेश संग्रह, आदि पुस्तकें लिखकर हिंदी गद्य के विकास में नयी दिशा प्रदान की।                

इन लेखकों के कुछ समय पहले रामप्रसाद निरंजनी ने ‘भाषा योगवशिष्ठ’ में तथा मध्यप्रदेश के पं. दौलतराय साधु थे। उनहोंने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली गद्य का प्रयोग किया था। इन्हीं दिनों ईसाई मिशनरी ने भी बाइवल का हिन्दी खड़ी बोली गद्य में अनुवाद कराकर हिन्दी गद्य के विकास में अपना योगदान दिया। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक हिन्दी गद्य का स्वरूप पूर्णतः परियोजित नहीं हो पाया था। उन्नीसवीं शताब्दी का द्वितीय एवं तृतीय चरण भारतीय सामाजिक एवं राष्ट्रीयता के जागरण का काल था।

इस नवीन चेतना का अभ्युदय बंगाल से हुआ। यहीं से समाचार पत्रों के प्रकाशन का प्रारंभ हुआ। यह प्रदेश ब्रजभाषा से दूर था इसलिए नवीन चेतना को अभिव्यक्त करने का भार खड़ी बोली पद्य को वहन करना पड़ा। नवीन चेतना के इस जागरण काल में अनेक संस्थाओं का योगदान था। इनमें प्रमुख थीं- ब्रह्मसमाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज, आर्यसमाज, थियोसाफिकल सोसायटी इत्यादि। इन संस्थाओं में विशेषकर आर्यसमाज ने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का माध्यम हिन्दी गद्य को बनाया।

अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हिंदी गद्य के विकास को तीन भागों में विभाजित किया गया है-

  1. आरंभिक (प्राचीन) हिंदी गद्य का विकास
  2. प्रारंभिक हिंदी गद्य का विकास
  3. आधुनिक हिंदी गद्य का विकास

1. आरंभिक (प्राचीन) हिंदी गद्य का विकास

हिंदी गद्य का आरंभिक रूप नवीं से चौदहवीं सदी की रचनाओं में मिलने लगता है। जिसमें उद्योतनसूरि की कुवलयमाला कथा (नवीं सदी), रोड कवि की राउलवेल (ग्यारहवीं सदी), दामोदर शर्मा की उक्ति व्यक्ति प्रकरण (बारहवीं सदी), ठाकुर ज्योतिश्वर की वर्णरत्नाकर (चौदहवीं सदी) तथा विद्यापति की कीर्तिलता (चौदहवीं सदी) आदि का नाम लिया जा सकता है। इन ग्रंथों में कहीं-कहीं या बीच-बीच में तत्कालीन बोलचाल की भाषा में सुंदर गद्य का प्रयोग हुआ है। उपर्युक्त गद्य कृतियों के अतिरिक्त जैन लेखकों द्वारा लिखी गयी अनेक धार्मिक एवं कथात्मक गद्य रचनाएँ भी मिलती हैं। इनको 19वीं सदी से पहले का हिन्दी गद्य भी कहा जाता है।

19वीं सदी से पहले का हिन्दी गद्य

हिन्दी गद्य के उद्भव को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान हिन्दी गद्य की शुरुआत 19वीं सदी से ही मानते हैं जबकि कुछ अन्य हिन्दी गद्य की परम्परा को 19वीं सदी से पहले का मानते हैं। अपभ्रंश (अवहट्ट) या पुरानी हिंदी के बाद और 19वीं शदी से पहले हिंदी गद्य का विकास मुख्यतः राजस्थानी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली आदि में दिखाई देता है। इनमें राजस्थानी गद्य सबसे प्राचीन है। 19वीं सदी से पूर्व हिन्दी गद्य की निम्न परम्पराएं मिलती हैं-

  • राजस्थानी में हिन्दी गद्य
  • मैथिली में हिन्दी गद्य
  • ब्रजभाषा में हिन्दी गद्य
  • दक्खिनी में हिन्दी गद्य
  • खड़ी बोली में हिन्दी गद्य (उत्तर भारत)
  • गुरुमुखी लिपि में हिन्दी गद्य

(i) राजस्थानी गद्य

राजस्थानी गद्य की परम्परा काफी पुरानी है। कुछ विद्वान् दसवीं शताब्दी से और कुछ बारहवीं शती से राजस्थानी गद्य की परम्परा स्वीकार करते हैं। वहीं पं. मोतीलाल मेनारिया राजस्थानी गद्य का प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी के मध्य से मानते हैं। इसे ही हिंदी गद्य का प्राचीन स्वरूप माना जाता है। वातों, वार्ता, ख्यातों, वचनिका (गद्य-पद्य में कथा और वर्णन), सलोका, दान पत्रों, वंशावली, पट्टावली, जैन ग्रंथों आदि के रूप में हिंदी गद्य प्राप्त होता है। इसमें इतिहास, अध्यात्म, ज्योतिष, धर्म, नीति, गणित आदि विषय उपलब्ध होते हैं।

गुलाब राय के अनुसार, “आरंभ में राजस्थानी गद्य पर संस्कृत की समास शैली और अपभ्रंश का प्रभाव था, बाद में ब्रजभाषा का प्रभाव उस पर पड़ा और खड़ी बोली क्षेत्र की निकटता के कारण वह खड़ी बोली के प्रभाव से भी न बच सका।” वहीं रामचंद्र तिवारी के अनुसार “स्वतंत्र रूप से लिखे गए ग्रंथों में गद्य का रूप अधिक प्रौढ़ और परिमार्जित है।” वैसे तो अधिकांश राजस्थानी गद्य समय के प्रभाव में नष्ट हो चुका है किंतु जो बचा है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ब्रजभाषा की तुलना में राजस्थानी गद्य में विषय-वैविध्य और समृद्ध रहा है।

(ii) मैथिली भाषा का गद्य

कालक्रम की दृष्टि से राजस्थानी के बाद मैथिली में हिन्दी गद्य के प्रयोग दृष्टिगत होते हैं। मैथिली में प्राचीन हिन्दी गद्य ग्रन्थ ज्योतिरिश्वर की रचना वर्ण रत्नाकर है। इसका रचना काल 1324 ई. है।

(iii) ब्रज भाषा का गद्य

राजस्थानी गद्य परम्परा की तरह ब्रजभाषा गद्य परम्परा भी काफी पुरानी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग संवत् 1400 (1343 ई.) के आस-पास से माना है। किंतु प्रमाणिक रूप से सीमा निर्धारण नहीं किया जा सकता। ब्रजभाषा गद्य का प्राचीनतम रूप गोरखपंथी योगियों के धार्मिक-ग्रंथों में मिलता है। इन धार्मिक ग्रंथों का संबंध हठयोग और ब्रम्हज्ञान से है। गोरखपंथी रचनाओं में राजस्थानी और खड़ी बोली मिश्रित ब्रजभाषा गद्य का रूप मिलता है।

इसके बाद भक्तिकाल में आकर कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत ब्रजभाषा का दिखाई देता है। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं बिट्ठलनाथ कृत ‘शृंगारस मंडन’ ब्रजभाषा गद्य में मिलता है जिसकी भाषा न ही परिमार्जित है और न ही व्यवस्थित। इसके अलावा गोसाईं बिट्ठलनाथ के पुत्र गोसाईं गोकुलनाथ कृत ‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ तथा ‘दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता’ ब्रजभाषा गद्य में मिलती हैं।

गुलाब राय के शब्दों में “इन वार्ताओं में गद्य का अपेक्षाकृत सुथरा रूप देखने को मिलता है।” इनकी भाषा बोलचाल की चलती ब्रजभाषा है, कहीं-कहीं आम-फहम अरबी-फारसी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इनके बाद नाभादास कृत ‘अष्टयाम’ (संवत् 1660), वैकुंठ मणि शुक्ल कृत ‘अगहन माहात्म’ (संवत् 1680) तथा ‘वैशाख माहात्म’, सूरति मिश्र कृत ‘बैताल पचीसी’ (संवत् 1767) और लाला हीरालाल ने ‘आईने अकबरी की भाषा वचनिका’ (संवत् 1852) आदि रचनाएँ ब्रजभाषा गद्य में मिलती हैं।

धार्मिक, ललित गद्य के साथ टीकाएं भी पर्याप्त मात्रा में ब्रजभाषा गद्य में लिखा गया। जिनमें हरिचरण दास कृत ‘बिहारी सतसई की टीका’ (1777 ई.) तथा ‘कविप्रिया की टीका’, जानकी प्रसाद कृत ‘रामचंद्रिका की टीका’ (1815 ई.), प्रतापसाहि कृत ‘रसराज की टीका’ (1839 ई.) आदि प्रमुख हैं।

क्रमबद्ध परम्परा का भाव और गद्य लिखने की परिपाटी के सम्यक प्रचार न होने के कारण ब्रजभाषा गद्य अविकसित रह गया। वैष्णव वार्ताओं की तरह बाद की रचनाओं की भाषा न ही व्यवस्थित थी और न ही परिमार्जित। नवीन युगीन परिस्थितिओं में नवीन विषयों के प्रतिपादन, नये विचारों का वहन करने तथा नवीन विचारों की अभिव्यक्त का माध्यम वह नहीं बन सकी। जिसकी वजह से वह आगे चल कर अनगढ़ और शिथिल होता गया। फिर भी रीतकालीन ब्रजभाषा का गद्य उस समय के खड़ी बोली गद्य की अपेक्षा अधिक विकसित और समृद्व था।

(iv) दक्खिनी का गद्य

उत्तर भारत से पूर्व दक्खिनी खड़ीबोली का विकास हो चुका था, जिसमें गद्य और पद्य दोनों की रचनाएँ हो रही थीं। “खड़ी बोली का जैसा व्यापक और व्यावहारिक रूप अमीर खुसरो की रचनाओं में मिलता है वैसा उनसे पहले नहीं। इनका समय चौदहवीं शताब्दी के आस-पास का है, इन्होने ब्रजभाषा के साथ ‘खलिस खड़ी बोली’ में साहित्य सृजन किया। खुसरो की रचनाओं में खड़ी बोली का साफ-सुथरा रूप दिखाई देता है और वर्तमान खड़ीबोली के एक दम निकट है। जगन्नाथ शर्मा के अनुसार खुसरो ने, ‘आधुनिक खड़ीबोली की जड़ जमाई।’

अमीर खुसरो के बाद दक्षिण राज्यों के रचनाकारों ने खड़ीबोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ख़्वाजा बंदा नवाज़ गैसूदराज, शाह मीराँ जी, बुरहानुद्दीन जानम और मुल्ला वजही जैसे लेखकों ने काव्य के साथ गद्य भी लिखा। ख़्वाजा बंदा नवाज़ गैसूदराज की ‘मेराजुल आशकीन’ को दक्खिनी गद्य की पहली पुस्तक मानी जाती है। ‘शिकारनामा’ और ‘तिलवातुल-वजूद’ इनकी अन्य गद्य रचनाएँ हैं। मुल्ला वजही का ‘सबरस’ (1635 ई.) गद्य रचना काफी प्रसिद्ध है जिसे उर्दू साहित्य की प्रथम गद्य रचना माना जाता है। दक्खिनी में अनेक रचनाओं का अनुवाद भी हुआ जिसमें सैयद हुसैन का ‘चार दरवेश’ (1775 ई.) काफी प्रसिद्ध है।

(v) खड़ी बोली का गद्य (उत्तर भारत)

खड़ी बोली का प्रयोग यत्र-तत्र थोड़ा-बहुत वीरगाथा काल और निर्गुण शाखा के संत कवियों (कबीर, दादू, नानक आदि) में मिलता है। परंतु ब्रजभाषा के बरक्स वह काव्यभाषा के रूप में उभर नहीं पाई। काव्य रचना में ब्रजभाषा की ही प्रभुता रही परंतु गद्य रचना में खड़ी बोली का व्यवहार ब्रजभाषा की अपेक्षा बढ़ने लगा। अकबर के समय तक खड़ी बोली का गद्य किसी न किसी रूप में व्यवहृत होते दिखाई देने लगा।

खड़ी बोली गद्य के उद्भव के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। एक वर्ग जार्ज ग्रियर्सन, आर.डब्लू. फ्रेजर, नलिनीमोहन सान्याल का है जो आधुनिक साहित्यिक खड़ी बोली का उद्भव गिलक्राईस्ट की अध्यक्षता में लल्लूलाल तथा सदल मिश्र से मानते हैं।

दूसरा मत आचार्य रामचंद्र शुक्ल, गुलाब राय और डॉ. वार्ष्णेय का है जो खड़ी बोली गद्य का प्रारंभ अकबर के दरबारी कवि गंगकवि कृत ‘चंद-छंद बरनन की महिमा’ (1570 ई.) से मानते हैं। बच्चन सिंह ने इसे जाली ग्रंथ माना है। उनके अनुसार यह ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए लिखा गया है। डॉ. कवड़े के अनुसार भी इसकी प्रामाणिकता, रचनाकाल और रचयिता सब कुछ संदिग्ध है।

आगे चलकर जहाँगीर के शासनकाल में जटमल की ‘गोरा-बादल की कथा’ खड़ी बोली गद्य में मिलती है। जिसमें शुद्ध तत्सम शब्दों का रूप हमें दिखाई देता है, जैसे- ‘गुरु व सरस्वती को नमस्कार करता हूँ।’, ‘उस गाँव के लोग भी बहुत सुखी हैं घर-घर में आनंद होता है।’

(vi) गुरुमुखी लिपि का गद्य

“रामप्रसाद निरंजनी के ‘भाषायोगवसिष्ठ’ की रचना से पूर्व पंजाब में सोढ़ी मिहरिवानु, हरिजी, दयाल अनेमी आदि लेखक अपनी रचनाएँ” हिंदी गद्य में दे चुके थे। सोढ़ी मिहरिवानु ने ‘सचुषंड पोथी’ में गुरूवाणी की व्याख्या प्रस्तुत किया है। सोढ़ी मिहरिवानु के पुत्र हरिजी की तीन रचनाएँ- ‘सुषमनी सहंसरनामा / परमारथ’, ‘गोसट गुरुमिहरिवानु’ तथा ‘पोथी हरिजी’ मिलती हैं। वहीं दयालु अनेमी की ‘अवगतउल्लास’, ‘असटावक्रभाषा’ और ‘गीता भाषा’ प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

इनके अलावा रामप्रसाद निरंजनी की ‘भाषायोगवशिष्ठ’ रचना मिलती है जिसे रामचंद्र शुक्ल ने 1741 ई. का गद्य स्वीकार किया है। इसकी भाषा अत्यंत व्यवस्थित, साफ-सुथरी और आधुनिक गद्य के निकट है। परंतु नवीन अनुसंधान यह बताते हैं कि यह रचना 1741 ई. की नहीं है और न ही इसका पंजाबी भाषा और साहित्य के इतिहास में कोई अस्तित्व है।

2. प्रारंभिक हिंदी गद्य का विकास

अकबर और जहाँगीर के समय तक आते-आते खड़ी बोली गद्य की परम्परा का विकास होने लगा था। मुगल साम्राज्य के विघटन के बाद दिल्ली की केंद्रीय सत्ता समाप्त हो गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि व्यापारी वर्ग दिल्ली और आगरे से निकल कर देश के कोने-कोने में फैलने लगा। यह वर्ग जहाँ भी गया अपने साथ बोलचाल की खड़ीबोली भी लेते गया। अंग्रेजी सत्ता स्थापित होने के बाद उन्होंने संपर्क और वैचारिक आदान-प्रदान के लिए खड़ीबोली का सहारा लिया। फोर्ट विलियम कॉलेज के द्वारा पाठ्य पुस्तके तैयार करने के लिए भाखा मुंशियों को रखा गया। साथ में कई गैर सांस्थानिक विद्वानों और विभिन्न धार्मिक-राजनीतिक संस्थाओं ने भी हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(i) फोर्ट विलियम कॉलेज का गद्य

हिंदी खड़ी बोली गद्य के विकास में फोर्ट विलियम कॉलेज का महत्वपूर्ण योगदान है। इसकी स्थापना कलकत्ता (1800 ई.) में मार्कि्वस वेलेजली ने किया था। सिविल कर्मचारियों को अन्य विषयों के साथ भाषा की शिक्षा देने के लिए राजनीतिक उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी। हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं की शिक्षा यहाँ दी जाती थी। 1800 ई. में यहाँ पर हिंदी और उर्दू के अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट को हिंदुस्तानी भाषा का प्रोफेसर बनाया गया। इन्होंने ही भाषा मुंशियों के रूप में लल्लू लाल, सदल मिश्र आदि को नियुक्ति किया था।

लल्लू लाल की कुल 11 रचनाएँ मिलती हैं। सिंहासन बत्तीसी (1801 ई.), बैताल पच्चीसी (1801 ई.), शाकुंतल नाटक (1810 ई.), प्रेम सागर (1810 ई.), लतायफ-इ-हिंदी (1810 ई.), ब्रजभाषा व्याकरण (1811 ई.), लाल चंद्रिका (1818 ई.) आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।

भाषा की दृष्टि से इनकी सबसे महत्वपूर्ण रचना ‘लतायफ-इ-हिंदी’ है, इसकी भाषा हिंदुस्तानी है। इसमें अरबी-फरासी के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। लल्लू लाल की सबसे प्रसिद्ध रचना ‘प्रेमसागर’ है जो कथावार्ता के अनुरूप है, इसमें श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्द की छाया है। इसकी शैली पंडिताऊँ, शब्द रूप अनिश्चित और आगरा निवासी होने के कारण ब्रज रंजित भाषा है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में, ‘इस ब्रजरंजित खड़ी बोली में वह सहज प्रवाह नहीं है जो सदासुखलाल की भाषा में है।’ शुक्ल जी भी इसकी भाषा को नित्य व्यवाहर के अनुकूल नहीं मानते। इसकी भाषा के संदर्भ में उन्होंने लिखा है, ‘भाषा की सजावट भी प्रेमसागर में पूरी है। विरामों पर तुकबंदी के अतिरिक्त वर्णनों में वाक्य भी बड़े-बड़े आए हैं, और अनुप्रास भी यत्र-तत्र हैं। मुहावरों का प्रयोग कम है।’

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने आगे लिखा है कि, “अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी” जार्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ की भूमिका में लिखा है कि ‘हिंदी अंग्रेजों द्वारा आविष्कृत है। लल्लू लाल ने प्रेमसागर में इसी का प्रयोग किया है।’

फोर्ट विलियम कॉलेज के दूसरे भाषा मुंशी सदल मिश्र थे, हिंदी गद्य के उन्नायकों में इनका नाम महत्वपूर्ण है। ‘नासिकेतोपाख्यान’ (1803 ई.), ‘रमचरित’ (1806 ई.) तथा ‘हिंदी पर्शियन वॉकेबुलरी’ (1809 ई.) आदि इनकी रचनाएँ हैं। नासिकेतोपख्यान चंद्रावती (संस्कृत) का अनुवाद है। आरा, बिहार के निवासी होने के कारण इनके गद्य पर ‘बिहारी’ भाषा का प्रभाव है, थोड़ा बहुत ‘बँगला’ और ब्रजभाषा का भी प्रभाव है। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्य भाषा की पदावली का स्थान-स्थान पर समावेश।” इनके गद्य में पूर्वीपन के साथ लल्लू लाल की तरह पंडिताऊपन भी दिखाई देता है।

(ii) फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर का गद्य

फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर भी बिना किसी आश्रय के खड़ी बोली में गद्य रचना होती रही, जिनमें दो लेखकों का नाम प्रसिद्ध है- मुंशी सदासुख लाल और इंशाअल्ला खाँ। जिसमें सदासुख लाल कॉलेज के मुंशियों से पहले ही गद्य रचना कर रहे थे और इंशाअल्ला खाँ कॉलेज के मुंशियों के समकालीन थे।

सदासुख लाल दिल्ली के रहने वाले थे। लक्ष्मी सागर वाष्णेय के अनुसार इनकी रचना ‘सुखसागर’ है। परंतु बच्चन सिंह के अनुसार उनकी इस नाम से कोई रचना नहीं है। बल्कि यह उनका उपनाम है और वे उर्दू में ‘निसार’ उपनाम से लिखते थे। रामचंद्र शुक्ल ने जिस विष्णुपुराण के अनुवाद को इनकी भाषा माना है वह भी देखने को नहीं मिलता। लेकिन लाला भगवानदीन और रामदास गौड़ ने एक पुस्तक ‘हिंदी भाषा सार’ संपादित की है जिसमें सदासुख लाल का एक निबंध ‘सुरासुर निर्णय’ संगृहीत है।

सदासुख लाल की भाषा कथावाचकों की भाषा से मिलती-जुलती है। रामचंद्र शुक्ल ने इनकी भाषा के संदर्भ में लिखा है कि, “मुंशीजी ने यह गद्य न तो किसी अंग्रेज अधिकारी की प्रेरणा से और न किसी दिए हुए नमूने पर लिखा है।” उन्होंने हिंदुओं की बोलचाल की जो शिष्ट भाषा प्रचलित थी, का प्रयोग अपने गद्य में किया। बीच-बीच में शुद्ध तत्सम संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है।

इसी संस्कृत मिश्रित हिंदी को उर्दू वाले ‘भाषा’ कहते थे, जिसका चलन उर्दू के कारण कम होने से मुंशी सदासुख ने दुःख व्यक्त करते हुए लिखा कि- ‘रस्मोरिवाज भाखा का दुनिया से उठ गया।’ इंशा अल्ला खाँ का जन्म मुर्शिदाबाद, बंगाल में हुआ था लेकिन उन्होंने कुछ समय दिल्ली में रहने के बाद लखनऊ चले गए। इंशा उर्दू और फारसी भाषा के भी विद्वान थे। ‘रानी केतकी की कहानी’ (उदयभान चरित) उनकी खड़ी बोली में रचित महत्वपूर्ण रचना है।

इस कहानी की भाषा के बारे में उन्होंने लिखा है कि, “एक दिन बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदी की छुट और किसी बोली का पुट न मिले ……. बाहरी की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। ……….. हिंदवीपन भी न निकले और भाषापन भी न हो।” “इंशा की भाषा हिंदी और शैली उर्दू की है।” आरंभ के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती है। इनकी भाषा में घरेलूपन अधिक है।

कहना अतिश्योक्ति न होगा कि हिंदी गद्य के आरंभिक विकास में इन चारों लेखकों (सदल मिश्र, लल्लू लाल, सदासुख लाल और इंशा अल्ला खाँ) का महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा की दृष्टि से श्यामसुंदर दास ने इंशा को सबसे महत्वपूर्ण लेखक माना है। वहीं रामचंद्र शुक्ल ने पहले स्थान पर सदासुख राय को तथा दूसरे स्थान पर सदल मिश्र स्थान दिया है।

(iii) विभिन्न संस्थाओं का गद्य

हिंदी गद्य के विकास में विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिनमें से प्रमुख संस्थाएं हैं-

ईसाई धर्म प्रचारक और उनका हिंदी गद्य

भारत में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित होने के बाद ईसाई धर्म प्रचारकों ने ईसाई धर्म का प्रचार तेज कर दिया। 19वीं शती के पूर्वार्द्ध में ही देश के कोने-कोने में केंद्र बनाकर अनेक मिशन की स्थापना हुई। इन धर्म प्रचारकों ने सामान्य जनता की बोली में ही अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इन मिशनरियों ने ‘बाइबिल’ का अनुवाद भी खड़ी बोली के साथ अनेक भाषाओं में कराया।

इस क्रम में हेनरी मार्टिन का ‘बाइबिल’ (1809) अनुवाद काफी महत्वपूर्ण है। इन ईसाई अनुवादकों ने सदासुख लाल और लल्लू लाल की विशुद्ध भाषा को ही आदर्श माना, उर्दूपन को बिल्कुल दूर रखा। परंतु इन धर्म प्रचारकों की भाषा में साहित्यिकता का अभाव था। इनकी भाषा बोल-चाल की भाषा के अधिक नजदीक थी।

आर्यसमाज आंदोलन और हिंदी गद्य

हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला दूसरा धार्मिक आंदोलन आर्यसमाज का था। स्वामी ‘दयानंद सरस्वती’ गुजराती भाषी और संस्कृत के विद्वान होते हुए भी अपने विचारों को ‘सत्यार्थ प्रकाश’ द्वारा आर्यभाषा (परिमार्जित हिंदी-गद्य) में अभिव्यक्त किया। आर्यसमाज से जुड़े लोगों को हिंदी भाषा का प्रयोग करना अनिवार्य किया। उन्होंने हिंदी भाषा में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करवाया। स्वामी दयानंद सरस्वती की भाषा गद्य शैली का विकास हुआ।

(iv) राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिंद’ और राजा लक्ष्मण सिंह का गद्य

हिंदी गद्य के विकास में छापाखानों (प्रेस) की महत्वपूर्ण भूमिका है। क्योंकि इसके बिना इतनी बड़ी संख्या में पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित नहीं हो सकती थीं। इसके अलावा अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के साथ हिंदी, उर्दू की पढ़ाई की व्यवस्था भी सरकार ने की। आगरा कॉलेज (1817 ई.), बरेली कॉलेज, दिल्ली कॉलेज आदि की स्थापना हुई। इसके लिए पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था हुई और हिंदी गद्य का प्रयोग हुआ। पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन में राजा शिव प्रसाद सिंह का महत्वपूर्ण भूमिका है।

राजा शिव प्रसाद सिंह शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त थे। वे देवनागरी और ‘आम फहम और खास पसंद’ भाषा के पक्षधर थे। उन्होंने हमेशा भद्रजन समुदाय को ध्यान में रखा। सरकारी हलकों में उर्दू को शिष्ट भाषा और हिंदी को गंवारू भाषा माना जाता था। ऐसी स्थिति में राजा शिव प्रसाद सिंह ने उर्दू मिश्रित हिंदी को अपने गद्य की भाषा बनाया। अरबी, फारसी के शब्दों को ग्रहण करने में उन्होंने संकोच नहीं किया। लेकिन उनकी प्रारंभिक कृतियों में उर्दूपन अपेक्षाकृत कम है जो परवर्ती रचनाओं में बढ़ता जाता है। सरकारी पद पर होने के कारण सरकारी नीति का खुलकर विरोध भी नहीं कर सकते थे।

उस समय पाठ्यपुस्तकें नहीं थीं। उन्होंने पाठ्यक्रम के लिए हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में गद्य में पाठ्यपुस्तकें तैयार की। उन्होंने साहित्य, भूगोल और इतिहास आदि विषयों पर कुल 35 पुस्तकों की रचना की। जिसमें गुटका, हिंदी व्याकरण, कथासार, भूगोल हस्तामलक, इतिहास तिमिरनाशक, राजा भोज का सपना, मानवधर्मसार, वैताल पच्चीसी, आलसियों का कोड़ा आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘बनारस अखबार’ (1845 ई.) में हिंदी पत्र निकाला, जिसके माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। राजा शिव प्रसाद सिंह जी ने इतिहास, भूगोल, गणित आदि के लिए नये शब्दों का निर्माण किया, जो आज भी प्रमुखता के साथ प्रचलित हैं।

इनकी भाषा के संदर्भ में शुक्ल जी ने लिखा है कि, ‘प्रारंभकाल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिंदी के पक्षपाती थे जिसमें सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों का भी स्वच्छंद प्रयोग हो। यद्यपि अपने गुटका में जो साहित्य की पाठ्यपुस्तक थी उन्होंने थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाये रखा।’ दरअसल उन्होंने पाठ्यपुस्तकों की भाषा को एक समान रखा लेकिन लिपि को अलग-अलग। “शिवप्रसाद के गद्य का ऐतिहासिक महत्त्व था कि उन्होंने हिंदी गद्य लेखन को उर्दू के टक्कर का बनाया और शिक्षित समाज में प्रतिष्ठित किया।”

जिस प्रकार राजा शिव प्रसाद सिंह उर्दू मिश्रित हिंदी के पक्षपाती थे उसी तरह राजा लक्ष्मण सिंह संस्कृतनिष्ठ हिंदी के। इनकी भाषा नीति राजा शिव प्रसाद के सर्वथा विपरीत था। इनकी भाषा में ब्रजी का प्रभाव भी पर्याप्त मात्रा में है। शुक्ल जी के शब्दों में, ‘असली हिंदी का नमूना लेकर उस समय राजा लक्ष्मण सिंह ही आगे बढ़े।’ शकुंतला (1861 ई.), रघुवंश (1878 ई.), मेघदूत (1882 ई.) आदि इनके अनुदित ग्रंथ हैं।

भाषा के संदर्भ में उनका मत था कि, “हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिंदी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी-फारसी के; परंतु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाए और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं, जिसमें अरबी-फारसी के शब्द भरे हों।”

जो शब्द जनता में अधिक प्रचलित थे (जैसे- गवाह, अदालत, कलेक्टर आदि), केवल विदेशी होने के कारण, राजा लक्ष्मण सिंह ने उन्हें भी हिंदी के अंतर्गत स्वीकार नहीं किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा के संदर्भ में लिखा है कि, “यह भाषा ठेठ और सरल होते हुए भी साहित्य में चिरकाल से व्यवहृत संस्कृत के कुछ रससिद्ध शब्द लिए हुए हैं।”

राजा शिव प्रसाद सिंह और राजा लक्ष्मण सिंह के भाषा नीतियों का परिणाम यह हुआ कि भाषा को लेकर लोग दो विरोधी गुटों में विभाजित हो गए। एक उर्दू का और दूसरा हिंदी का पक्षपाती था, एक और गुट था जिसने मध्यम मार्ग को चुना। उर्दू के सबसे प्रबल दावेदारों में सर सैयद अहमद खां का नाम है। उनका मत था कि, “हिंदी हिंदुओं की जबान है जो बुतपरस्त है और उर्दू मुसलमानों की।” वहीं हिंदी का जोरदार समर्थन आर्य और ब्रह्म समाजियों ने किया।

3. आधुनिक हिंदी गद्य का विकास

आधुनिक काल में हिंदी गद्य की अनेक विधाओं का विकास होता है। गद्य आधुनिक युग की जरूरत भी थी क्योंकि विचारों को संप्रेषित करने के लिए पद्य की अपेक्षा गद्य में अधिक समर्थ होता है। इससे पूर्ववर्ती कालों में साहित्य केवल पद्य में उपलब्ध था, गद्य लेखकों का साहित्यिक महत्व न के बराबर है। इस काल में गद्य की प्रचुरता और महत्त्व को देखते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘गद्य काल’ कहा है। आधुनिक काल में गद्य के विकास को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • भारतेंदु पूर्व युग | भारतेंदु पूर्व हिंदी गद्य | प्राचीन युग (1800-1850 ई.)
  • भारतेंदु युग | भारतेंदु युगीन हिंदी गद्य | नवजागरण काल (1850-1900 ई.)
  • द्विवेदी युग | द्विवेदी युगीन हिंदी गद्य (1900-1920 ई.)
  • शुक्ल युग | छायावादी हिंदी गद्य (1920-1936 ई.)
  • अद्यतन युग | आधुनिक काल | छायावादोत्तर हिंदी गद्य (1936 ई. से आजतक)

भारतेन्दु पूर्व युग | प्राचीन युग (1800 -1850 ई.)

 हिंदी गद्य का विकास 19वीं शताब्दी के आसपास से माना जाता है विकास के इस काल में कलकाता फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही इस कॉलेज के दो विद्वान लल्लूलाल तथा सदल मिश्र ने गिलक्रिस्ट के निर्देशन में प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक दो पुस्तके तैयार की। इसी समय सदासुख लाल ने सुखसागर तथा मुंशी इंशाअल्लाह ने रानी केतकी की कहाणी की रचना की। इन सभी ग्रंथों की भाषा में उस समय के प्रयोग में आने वाली खड़ी बोली को स्थान मिला।

आधुनिक खड़ी बोली गद्य के विकास में विभिन्न धर्मों की पुस्तकों का खूब सहयोग रहा जिसमे ईसाई धर्म का भी सहयोग था। बंगाल के राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में वेदांतसूत्र का हिंदी अनुवाद कर प्रकाशित करवाया इसके बाद उन्होंने 1829 ई. में बंगदूत नाम का पत्र हिंदी में निकाला। इसके पहले 1826 ई. में कानपुर के पंडित जुगलकिशोर हिंदी पहला समाचार पत्र उदंतमार्तंड कलकाता से निकाला। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा।  

भारतेन्दु युग | भारतेंदु युगीन हिंदी गद्य | नवजागरण काल (1850 -1900 ई.)

भारतेंदु युग में हिंदी गद्य का बहुमुखी विकास हुआ। इन्होंने न केवल अनेक विधाओं को समृद्ध किया अपितु कई गद्य विधाओं का प्रवर्तन भी किया। इसीलिए उन्हें हिंदी साहित्य में आधुनिक युग का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने हिंदी गद्य के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ‘हिंदी भाषा’ नामक एक छोटी सी पुस्तिका प्रकाशित किया। वे निज भाषा के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने लिखा-

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल॥”

उन्होंने हरिश्चंद्र मैगजीन में लिखा कि ‘हिंदी नए चाल में ढली।’ उन्होंने भाषा के आदर्श रूप को स्थापित करने का प्रयास किया परंतु उसका परिमार्जन नहीं कर सके। वे भी पंडिताऊपन से अपना पीछा नहीं छुड़ा सके। ब्रज भाषा का प्रभाव बना रहा। पूरबी प्रयोग होते रहे। भारतेंदु जी के गद्य में तद्भव, देशज शब्दों और मुहावरों की भरमार है, विदेशी शब्दों से भी कोई परहेज नहीं किया है।

भारतेन्दु जी के पूर्व हिन्दी गद्य में दो शैलियाँ प्रचलित थीं। प्रथम राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की 1823 से 1895 गद्य शैली थी। वे हिन्दी को नफीस बनाकर उसे उर्दू जैसा रूप प्रदान करने के पक्षधर थे। दूसरी शैली के प्रवर्तक राजा लक्ष्मणसिंह थे जो हिंदी को अधिकाधिक संस्कृतनिष्ठ करने के पक्षधर थे। भारतेंदु ने इन दोनों के बीच का मार्ग ग्रहण कर उसे हिंदी भाषा प्रदेशों की जनता के मनोनुकूल बनाया। लोक प्रचलित शब्दावली के प्रयोग के कारण भारतेन्दु जी का गद्य व्यावहारिक, सजीव, और प्रवाहपूर्ण है।

भारतेंदु जी ने अपने युग के लेखकों को भी लिखने के लिए प्रेरित किया। उनके प्रभाव और प्रयास से लेखकों की एक मंडली तैयार हुई जिसने भारतेंदु की परम्परा को आगे बढ़ाया। भारतेंदु जी को व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था कहा जा सकता है। इस संस्था रूपी व्यक्ति के समकालीन एवं सहयोगी लेखकों में बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, बदरी नारायण चौधरी “प्रेमधन”, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाकृष्ण दास एवं किशोरी लाल गोस्वामी अदि थे। इन्हें भारतेंदु मंडली के लेखक कहा जाता है।

पं. बालकृष्ण भट्ट इलाहाबाद से “हिन्दी प्रदीप” नामक मासिक पत्र निकालते थे। उनकी शैली विनोदपूर्ण और चुटीली थी तथा इसमें व्यंग्य में सरसता के साथ मार्मिकता भी है। उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत तथा लोक भाषा के शब्द लिए। उनके निबंधों के विषय में विविधता थी। पंडित प्रतापनारायण मिश्र ने “ब्राम्हण” पत्रिका के माध्यम से हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास किया।

उन्होंने समाज सुधार एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दृष्टि से निबंध लिखे। चुलबुलापन, हास-परिहास, आत्मीयता और सहजता उनकी भाषा शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। बदरी नारायण चौधरी “प्रेंमधन” “आनंद कादम्बिनी” पत्रिका का संपादन करते थे। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा शैली काव्यात्मक है। श्री राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह ने सामयिक समस्याओं पर निबंध लिखे।

प्रताप नारायण मिश्र जी भारतेंदु मंडली के एक महत्वपूर्ण लेखक थे। प्रताप नारायण जी की गद्य भाषा चलती हुई है, उनमें मनोरंजन की प्रवृत्ति के साथ स्वच्छंद दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है। इनके यहाँ भी अरबी-फारसी और अंग्रेजी के शब्दों तथा मुहावरों और लोकोक्तियों का खूब प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा बोलचाल की भाषा के सबसे निकट है।

भारतेंदु मंडल के दूसरे महत्वपूर्ण लेखक बालकृष्ण भट्ट हैं। इनकी भाषा मिश्र जी की अपेक्षा अधिक शिष्ट है। भाषा विस्तार के संदर्भ में उनका मत था कि, किसी भी देश के शब्दों को हम अपनी भाषा में मिलाते जाएँ और उसे अपना करते रहें।”

इस युग के सभी लेखक कोई न कोई पत्रिका संपादित कर रहे थे- भारतेंदु (हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालबोधनी), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप), प्रताप नारायण मिश्र (ब्राह्मण), बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ (आनंद कादंबिनी), जिससे हिंदी गद्य के विकास को बल मिला।

“हिंदी-गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य-साहित्य की विविध विधाओं के विकास का ऐतिहासिक कार्य भारतेंदु युग में हुआ।” इस युग में सर्वाधिक विकास नाटकों का हुआ। अनेक भाषाओं की महत्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद हुआ, जिससे गद्य के विकास को बल मिला। इस युग के गद्य में अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है, ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूर्वी बोलियों का भी प्रभाव है। इस युग का गद्य बोलचाल और भाषण शैली से अधिक प्रभावित है।

द्विवेदी युग | द्विवेदी युगीन हिंदी गद्य (1900-1920 ई.)

भारतेंदु युग के लेखकों ने हिंदी गद्य को समृद्ध तो किया परन्तु उसका मानक रूप स्थिर नहीं हो पाया था। भारतेंदु युग के लेखकों की गद्य भाषा में एकरूपता नहीं होने के साथ भाषागत दोष भी थे। भारतेंदु युग में काव्य भाषा के रूप में ब्रज भाषा का ही प्रयोग हो रहा था। अर्थात भारतेन्दु युग में हिंदी गद्य का स्वरूप काफी हद तक निखरा किंतु अभी भी उसमें परिष्कार परिमार्जन की आवश्यकता थी। यह कार्य द्विवेदी युग में पूरा हुआ, जब महावीर प्रसाद द्विवेदी का आगमन हुआ।

इस काल का नामकरण पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर किया गया। 1903 ई. में सरस्वती पत्रिका के संपादक बनने के बाद उन्होंने हिंदी भाषा को स्थिर करने और भाषाई दोषों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने “सरस्वती” पत्रिका में प्रकाशन के लिए आने वाली रचनाओं की भाषा को सुधार कर परिमार्जित और एकरूपता लाने का काम किया। द्विवेदी जी ने प्रांतीय शब्दों के स्थान पर व्यापक स्वीकृति वाले शब्दों के प्रयोग पर बल दिया। काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली को प्रतिष्टित करने का काम किया।

उन्होंने पद्य (काव्य) की भाषा के लिए भी खड़ी बोली को सुनिश्चित किया। उन्होंने काव्य भाषा के रूप में ब्रज भाषा का ही विरोध नहीं किया बल्कि हिंदी काव्य को रीतिवाद से भी मुक्ति दिलाई। द्विवेदी जी ने “सरस्वती” के माध्यम से व्याकरणनिष्ठ, स्पष्ट एवं विचारपूर्ण गद्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने तत्कालीन भाषा का परिमार्जन कर उसे व्याकरण-सम्मत रूप प्रदान किया और साहित्यकारों को विविध विषयों पर लेखन के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया।

द्विवेदी युग हिंदी गद्य का विकास करने वाले अन्य लेखकों में चंद्रधर शर्मा गुलेरी, अध्यापक पूर्ण सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, शिवपूजन सहाय, श्यामसुंदर दास आदि की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। इन लेखकों में हिंदी गद्य-शैली के अनेक रूप देखने को मिलते हैं।

द्विवेदी युग के प्रमुख गद्यकारों में श्री माधव मिश्र, गोविंद नारायण मिश्र, ‘पद्मसिंह शर्मा, सरदारपूर्ण सिंह, बाबू श्यामसुंदर दास, मिश्र बंधु, बाबा भगवानदीन, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि हैं। इस काल में अनेक गंभीर निबंध, विवेचनापूर्ण आलोचनाएँ, कहानियाँ, उपन्यास तथा नाटक लिखे गये और इस प्रकार गद्य साहित्य के विविध रूपों का विकास हुआ।

द्विवेदी युग में नाट्य साहित्य का अधिक विकास नहीं हुआ, वहीं रहस्यात्मक, रोमांचकारी और कौतूहलवर्द्धक उपन्यासों की रचना अधिक हुई। दूसरी बात द्विवेदी जी के गद्य में भी अनेक त्रुटियाँ मिलती हैं, जैसे लिंग प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार न करके संस्कृत व्याकरण के अनुरूप क्या है।

 हिन्दी निबंध और आलोचना के क्षेत्र में बाबू श्यामसुंदर दास का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने “नागरी प्रचारिणी” सभा की स्थापना की तथा साहित्यिक, सांस्कृतिक भाषा एवं वैज्ञानिक विषयों पर निबंध लिखे। चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने अपनी पांडित्यपूर्ण व्यंग्य प्रधान शैली में निबंध और कहानियाँ लिखकर हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध किया। सरस्वती के अतिरिक्त “प्रभा”, “मर्यादा”, “माधुरी”, “इन्दु”, “सुदर्शन”, “समालोचक”, आदि अन्य पत्रिकाओं में भी गद्य साहित्य के प्रचार एवं प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस युग के उत्तरार्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू गुलाबराय के आविर्भाव से हिंदी गद्य की विकासधारा को एक नई दिशा मिली।

शुक्ल युग | छायावादी हिंदी गद्य (1920 ई. – 1936 ई.)

 द्विवेदी युग नैतिक मूल्यों के आग्रह का युग था। जबकि शुक्ल युग में द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्य में भाव-तरलता, कल्पना-प्रधानता और स्वच्छंद चेतना आदि भावनाओं का समावेश हुआ। परिणाम यह हुआ कि इस युग में रचित गद्य साहित्य अधिक कलात्मक, लाक्षणिक, कवित्वपूर्ण और अंतर्मुखी हो गया। इस युग के प्रमुख गद्यकारों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रामकृष्ण दास, वियोगी हरि, डॉ. रघुवीर सिंह, शिवपूजन सहाय, वर्मा, पंत, निराला, नंददुलारे बाजपेयी, बेचन शर्मा ‘उग्र’ के नाम मुख्य हैं। आचार्य राम चन्द्र शुक्ल जी के नाम पर इस युग का नाम शुक्ल युग पड़ा। शुक्ल युग को छायावादी युग के नाम से भी जाना जाता है।

छायावाद की समय सीमा सन् 1920 से 1936 ई. तक माना जाता है। इस युग में हिंदी का साहित्यिक रूप अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच चुका था। “द्विवेदी-युग के परिमार्जन एवं प्रौढ़ता के पश्चात हिंदी-गद्य कलात्मक एवं काव्यात्मकता की ओर झुकने लगा था।” छ्यावादी युग में कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध के क्षेत्र में काफी विकास हुआ। छायावादी युग में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, नंददुलारे वाजपेयी, पांडेय वेचन शर्मा ‘उग्र’ शिवपूजन सहाय आदि गद्य-लेखकों ने छायावादी गद्य साहित्य को समृद्ध किया। द्विवेदी युग के उत्तरार्द्ध के लेखक इस युग में भी गद्य लेखन कर रहे थे, जिनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू गुलाब राय तथा पदुमलाल पुन्नालाल बक्सी प्रमुख हैं।

हिंदी गद्य लेखकों की भाषा पर काव्य भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है। जयशंकर प्रसाद मर्मस्पर्शी कल्पनाचित्र के लिए, सुमित्रानंदन पंत सुकुमार कल्पना प्रधान के लिए, निराला व्यंग्यात्मकता के लिए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीयता और स्वछंद अलंकारिक शैली के लिए जाने जाते हैं। वहीं पर प्रेमचंद की गद्य भाषा में सहजता और सरलता विद्यमान है, उर्दू शब्दों का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दो प्रकार के निबंध लिखे – ‘साहित्यिक’ एवं ‘मनोविकार’ संबंधी। उनके साहित्यिक निबंध भी दो वर्ग के हैं – ‘सैद्धांतिक’ तथा ‘व्यावहारिक’ समीक्षा से संबंधित। शुक्ल जी को युगांतकारी निबंधकार कहा जाता है। इसका श्रेय उनके मनोविकार संबंधी निबंधों को जाता है। गुलाबराय जी के कुछ निबंध साहित्यिक विषयों पर तथा कुछ सामान्य विषयों पर लिखे गए हैं। बख्शी जी के निबंध विचारात्मक, समीक्षात्मक तथा विवरणात्मक हैं।

अद्यतन युग | आधुनिक काल | छायावादोत्तर हिंदी गद्य (1936 से आजतक )

वर्ष 1936 ई. बाद के समय को हिंदी गद्य में छायावादोत्तर काल के नाम से जाना जाता है। इस युग हिंदी गद्य का सर्वंगीण विकास हुआ है। इस काल में अनेक गद्य विधाओं का बहुमुखी प्रगति देखने को मिलता है। इस युग के लेखकों ने कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि क्षेत्रों में नये आयामों को स्थापित करने के साथ-साथ अपने मनोभाओं की अभिव्यक्ति के लिए रिपोर्ताज, इंटरव्यू (साक्षात्कार) जैसे सर्वथा नवीन विषयों का आश्रय लिया।

छायावादोत्तर युग में स्वतंत्रता पूर्व से लिख रहे लेखकों में हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, अमृतलाल नागर, जैनेद्र कुमार, रामवृक्ष बेनीपुरी, अज्ञेय आदि प्रमुख हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत गद्य लेखन में प्रवृत्ति हुए लेखकों में विद्यानिवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’, धर्मवीर भारती, भुवनेश्वर, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि प्रमुख हैं।

छायावादोत्तर काल के गद्य लेखकों ने हिंदी गद्य को न केवल पर्याप्त सशक्त बनाया अपितु उसकी शब्द संपदा में वृद्धि भी किया। इन लेखकों ने गद्य को जीवन की वाह्य परिस्थितिओं, सामाजिक संबंधों, विसंगतियों, द्वंदों और तनावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम बनाया। इस काल में गद्य का चहुंमुखी विकास हुआ इस युग में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर लेखकों ने यथार्थवादी जीवन दर्शन को महत्व देना आरंभ किया। इस युग में साहित्यकारों की दो पीढ़ियाँ परिलक्षित की जा सकती हैं।

छायावादोत्तर काल की प्रथम पीढ़ी उन साहित्यकारों की है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से लिखते आ रहे थे। इस पीढ़ी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिप्रिय द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, जैनेंद्र, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, वासुदेव शरण अग्रवाल तथा भगवत शरण उपाध्याय आदि प्रमुख हैं।

छायावादोत्तर काल की दूसरी पीढ़ी उन लेखकों की है जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद साहित्य सृजन में प्रवृत्त हुए हैं। इनमें श्री विद्या निवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, कुबेरनाथ राय, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस युग में हिन्दी गद्य साहित्य में नवीन कलात्मक गद्य विधाओं का विकास हुआ तथा उसे राष्ट्रीय गरिमा प्राप्त हुई। आज हिन्दी की यह स्थिति है कि उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित मान्यता मिलने लगी है।

हिंदी गद्य के विकास में भारतेंदु हरिश्चंद्र का विशेष योगदान है लेकिन भारतेंदु युग के पहले से ही हिंदी गद्य का आरंभ हो चुका था। आधुनिक काल हिंदी गद्य का सर्वांगीण विकास का काल है। इस युग में नवीन गद्य विधाओं का उद्भव हुआ तथा सभी प्राचीन गद्य विधाओं का यथेष्ट विकास भी हुआ। जिसका परिणाम यह हुआ की आज हिंदी भाषा विश्व की प्रमुख भाषाओं में गिनी जाती है। आधुनिक काल हिंदी गद्य का सर्वांगीण उन्नति का काल है।


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