हिंदी भाषा का इतिहास

हिंदी भाषा एक भारतीय आर्य भाषा है, जो मुख्य रूप से उत्तर भारत में बोली जाती है। हिंदी भाषा का विकास विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और इतिहासों से हुआ है। वास्तव में, हिंदी भाषा का उत्पत्ति देवनागरी लिपि की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। देवनागरी लिपि के विकास से पहले, हिंदी भाषा विभिन्न लिपियों में लिखी जाती थी, जैसे ब्राह्मी लिपि, कौटकी लिपि, शारदा लिपि आदि।

हिंदी भाषा के विकास में मुख्य भूमिका संस्कृत भाषा की रही है। विभिन्न वेद, उपनिषद, पुराण और अन्य संस्कृत ग्रंथों को हिंदी में अनुवाद किया जाता रहा है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और मुगल शासकों के समय में हिंदी भाषा का विकास जारी रहा। हिंदी भाषा नाटकों, कहानियों और कविताओं के रूप में विकसित हुई।

हिंदी भाषा का विकास

आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले महान साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी भाषा के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है इनका अपनी भाषा हिंदी से बहुत लगाव था इनका हिंदी से यह लगाव इनकी निम्न दो पंक्तियों से समझा जा सकता है :-

“निज भाषा उन्नति रहे, सब उन्नति के मूल।                                      
 बिनु निज भाषा ज्ञान के, रहत मूढ़-के-मूढ़।।

– भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

इस दोहे से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि आधुनिक हिंदी के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को अपनी भाषा हिंदी से कितना लगाव था। यदि हम हिंदी भाषा के विकास की बात करें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले सौ सालों में हिंदी का बहुत विकास हुआ है और दिन-प्रतिदिन इसमें और तेजी आ रही है। हिंदी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है।

संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है, जिसे आर्य भाषा या देवभाषा भी कहा जाता है। हिंदी इसी आर्य भाषा संस्कृत की उत्तराधिकारिणी मानी जाती है, साथ ही ऐसा भी कहा जाता है कि हिंदी का जन्म संस्कृत की ही कोख से हुआ है।

हिंदी भाषा का इतिहास

भारत में संस्कृत 1500 ई. पू, से 1000 ई. पूर्व तक रही, ये भाषा दो भागों में विभाजित हुई- वैदिक और लौकिक। मूल रूप से वेदों की रचना जिस भाषा में हुई उसे वैदिक संस्कृत कहा जाता है, जिसमें वेद और उपनिषद का जिक्र आता है, जबकि लौकिक संस्कृत में दर्शन ग्रंथों का जिक्र आता है। इस भाषा में रामायण, महाभारत, नाटक, व्याकरण आदि ग्रंथ लिखे गए हैं। संस्कृत के बाद जो भाषा आती है वह है पालि। पालि भाषा 500 ई. पू. से पहली शताब्दी तक रही और इस भाषा में बाैद्ध ग्रंथों की रचना हुई।

बौद्ध ग्रन्थों में बोलचाल की भाषा का शिष्ट और मानक रूप प्राप्त होता है। पालि के बाद प्राकृत भाषा का उद्भव हुआ। यह पहली ईस्वी से लेकर 500 ई. तक रही। इस भाषा में जैन साहित्य काफी मात्रा में लिखे गए थे। पहली ई. तक आते-आते यह बोलचाल की भाषा और परिवर्तित हुई तथा इसको प्राकृत की संज्ञा दी गई। उस दौर में जो बोलचाल की आम भाषा थी वह सहज ही बोली व समझी जाती थी, वह प्राकृत भाषा कहलाई।

दरअसल, उस समय इस भाषा में क्षेत्रीय बोलियों की संख्या बहुत सारी थी, जिनमें शौरसेनी, पैशाची, ब्राचड़, मराठी, मागधी और अर्धमागधी आदि प्रमुख हैं। प्राकृत भाषा के अंतिम चरण से अपभ्रंश का विकास हुआ ऐसा माना जाता है। यह भाषा 500 ई. से 1000 ई. तक रही। अपभ्रंश के ही जो सरल और देशी भाषा शब्द थे उसे अवहट्ट कहा गया और इसी अवहट्ट से ही हिंदी का उद्भव हुआ।

हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी है। देवनागरी भाषा का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ, ब्राह्मी लिपि के बाद गुप्त लिपि, उसके पश्चात नागरी लिपि और फिर देवनागरी लिपि। देवनागरी भाषा के विकास का क्रम निम्न है:-

ब्राह्मी लिपि → गुप्त लिपि → नागरी लिपि → देवनागरी लिपि

इसी प्रकार हिंदी भाषा के विकास का क्रम इस प्रकार है-

संस्कृत → पाली → प्राकृत → अपभ्रंश → अवहट → हिंदी

ऐसा कहा जाता है कि हिंदी का जो विकास हुआ है वह अपभ्रंश से हुआ है और इस भाषा से कई आधुनिक भारतीय भाषाओं और उपभाषाओं का जन्म हुआ है, जिसमें शौरसेनी (पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती), पैशाची (लंहदा, पंजाबी), ब्राचड़  (सिन्धी), खस (पहाड़ी), महाराष्ट्री (मराठी), मागधी (बिहारी, बांग्ला, उड़िया और असमिया), और अर्ध मागधी (पूर्वी हिन्दी) शामिल है।

नोट के तौर पर यह भी कहा जाता है हिंदी के कई अधिकांश विद्वान हिंदी का विकास अपभ्रंश से ही मानते हैं। वहीं कई विद्वानों का मानना है कि हिंदी का उद्भव अवहट्ट से हुआ।

अवहट्ट नाम का जिक्र मैथिल महान कवि कोकिल विद्यापति की ‘कीर्तिलता’ में आता है। पूरे देश के भक्त कवियों ने अपनी वाणी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए हिंदी का सहारा लिया। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में हिंदी और हिंदी पत्रकारिता की बहुत अहम भूमिका रही। महात्मा गांधी सहित अनेक राष्ट्रीय नेता हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने लगे थे। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित कर दिया गया। जिसके फलस्वरूप 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। यह तो था हिंदी के विकास का सफरनामा।

हिंदी भाषा दक्षिण एशिया में विकसित हुई भारतीय आर्य समुदाय की भाषा है। हिंदी भाषा का विकास काफी विस्तृत है और उसके पीछे कई कारण हैं।

हिंदी भाषा का विकास वैदिक संस्कृति से शुरू हुआ। संस्कृत भाषा का उपयोग शिक्षा, धर्म, विज्ञान, आयुर्वेद, वास्तु और कला में होता था। संस्कृत के अलावा प्राचीन भाषाओं जैसे पालि, प्राकृत, मागधी और अपभ्रंश ने भी हिंदी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

आधुनिक हिंदी भाषा का विकास 19वीं सदी के दौरान हुआ। इस दौरान ब्रिटिश शासन की वजह से अंग्रेजी भाषा और संस्कृत भाषा के बीच में हिंदी भाषा एक नई पहचान बनाने की कोशिश की गई। हिंदी भाषा को एक मुख्य भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए अनेकों समितियां बनाई गईं और अंततः 1949 में भारत की संविधान सभा ने हिंदी भाषा को भारत की राजभाषा के रूप में अंतिम रूप दिया।

  • हिंदी विश्व की लगभग 3000 भाषाओँ में से एक है।
  • आकृति या रूप के आधार पर हिंदी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
  • भाषा – परिवार के आधार पर हिंदी भारोपीय परिवार की भाषा है।
  • भारत में चार भाषा परिवार मिलते है:-
    • भारोपीय
    • द्रविड़
    • अस्त्रिक
    • चीनी-तिब्बती
  • हिंदी, भारोपीय (भारत-यूरोपीय) के भारतीय ईरानी शाखा के भारतीय – आर्य उप शाखा की एक भाषा है।
  • भारतीय आर्य भाषा को तीन कालों में विभक्त किया गया है-
नाम प्रयोग कालउदहारणअन्य नाम
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (प्रा. भा.आ.)1500 ई.पू. से 500 ई.पू.वैदिक संस्कृत (1500-1000ई.पू.) व
लौकिक संस्कृत (1000-500ई.पू.)
वैदिक संस्कृत-छान्दस, यास्क ( यास्क पाणिनि द्वारा प्रयुक्त नाम)
लौकिक संस्कृत- संस्कृत , भाषा
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा (म. भा.आ.)500 ई.पू. से 1000 ई.पालि (500 ई.पू.-1ई.)
प्राकृत (1 ई.-500ई.)व अपभ्रंश (500ई.-1000ई.)
अवहट्ट (900ई. -1100 ई.)
प्रथम प्राकृत काल- पालि
द्वितीय प्राकृत काल- प्राकृत
तृतीय प्राकृत काल- अपभ्रंश
आधुनिक भारतीय आर्य भाषा (आ. भा.आ.)
(इसको हिंदी कहते है)
1000 ई. से अब तकप्राचीन हिंदी (1100ई.-1400ई.)
मध्य कालीन हिंदी (1400ई.-1850ई.)
आधुनिक हिंदी (1850ई. – अब तक)
हिंदी और हिंदीतर भाषाएँ- बंगला, उड़िया,असमिया, मराठी, गुजरती, पंजाबी, सिन्धी आदि
  • हिंदी का विकास क्रम
    • संस्कृत → पाली → प्राकृत → अपभ्रंश → अवहट → हिंदी

अपभ्रंश

अपभ्रंश भाषा का विकास 500ई. से लेकर 1000ई. के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरम्भ आठवीं सदी (स्वयंभू कवि) से हुआ जो तेरहवीं सदी तक जारी रहा।

अपभ्रंश एक भाषा विज्ञान की शाखा है जो कम शक्ति वाली व्यक्ति द्वारा उच्चारित शब्दों की अनुमति देती है। अपभ्रंश के माध्यम से, अस्पष्ट उच्चारण वाले शब्दों को स्पष्ट बनाया जा सकता है ताकि वे सही ढंग से समझे जा सकें। यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए उपयोगी होता है जो किसी भाषा को न सिखने के कारण अधिक चुनौतीपूर्ण होते हैं।

अपभ्रंश तकनीक आमतौर पर आवाज को दो भागों में विभाजित करता है। एक भाग उच्च और स्पष्ट उच्चारण के लिए होता है, जबकि दूसरा भाग कम शक्ति वाले व्यक्ति के लिए होता है। अपभ्रंश का उपयोग शिक्षण, संचार, व्यावसायिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में किया जाता है।

अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास-

अपभ्रंश के भेदआधुनिक भारतीय आर्यभाषा
शौरसेनीपश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, गुजरती
अर्धमागधीपूर्वी हिंदी
मागधीबिहारी, उड़िया, बांग्ला, असमिया
खसपहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित)
ब्राचड़पंजाबी (शौरसेनी से प्रभावित), सिन्धी
महाराष्ट्रीमराठी

हिंदी भाषा को पांच उपभाषाओं में बाँटा गया है :-

  • राजस्थानी – शौरसेनी अपभ्रंश
    • मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी)
    • मेवाती (उत्तरी राजस्थानी)
    • मालवी (दक्षिणी राजस्थानी)
    • जयपुरी अथवा ढूढारी (पूर्वी राजस्थानी)
  • पश्चिमी हिंदी – शौरसेनी अपभ्रंश
    • खड़ी बोली अथवा कौरवी
    • ब्रज भाषा
    • बुन्देली
    • कन्नौजी
  • पूर्वी हिंदी – अर्धमागधी अपभ्रंश
    • अवधी
    • बघेली
    • छत्तीसगढ़ी
  • बिहारी – मागधी अपभ्रंश
    • मैथिली
    • मागधी
    • भोजपुरी
  • पहाड़ी – कुमाउनी और गढ़वाली अपभ्रंश
    • कुमाउनी (कुमाउनी अपभ्रंश)
    • गढ़वाली ( गढ़वाली अपभ्रंश)

हिंदी शब्द कहाँ से आया?

हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति भारत के उत्तर-पश्चिम में बहने वाली सिंधु नदी से संबंधित है हमें पता है कि भारत में अधिकांश यात्री उत्तर-पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत में आए थे। उस समय भारत एक विशाल देश था और ना ही भारत का विभाजन हुआ था सिंधु नदी अब पाकिस्तान में है। और उसी नदी से होकर बहुत से विदेशी भारत में व्यापार करने के लिए आते थे और वे जिस देश का दर्शन करते थे वह सिंधु का देश था। 

ईरान के साथ भारत का बहुत प्राचीन संबंध रहा है वे इसी नदी से होकर भारत आया करते थे। ईरानी सिंधु का उच्चारण न कर पाने के कारण इसे ‘हिन्दु’ कहते थे क्योंकि ईरानियों का ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ में और ‘ध’ उच्चारण ‘द’ में सुनाई देता था। ‘हिन्दु’ से हिन्द बना और फिर ‘हिन्द’ में ईरानी का ‘ई’ प्रत्यय लगने से हिन्द + ई = हिन्दी बन गया। 

हिन्दी शब्द के दो अर्थ हैं हिन्द देश के निवासी और हिन्द के भाषा। अर्थात् हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुआ फिर आगे चलकर यही हिन्द की भाषा के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। हां अब यह बात अलग है कि अब यह शब्द इन दो अर्थों से बिल्कुल अलग हो गया है अब यहां के निवासियों को कोई भी हिन्दी के नाम से नहीं पुकारता है और न ही जानते होंगे बल्कि अब इसे भारतवासी या हिन्दुस्तान के के नाम से जानते हैं।

अगर देखा जाए तो भारत में अनेक भाषाएं प्रचलित हैं और सभी भाषाओं के लिए हिन्दी शब्द का प्रयोग नहीं होता। बेशक यह सभी हिंद की भाषाएं हैं लेकिन केवल हिंदी नहीं है। उन सभी भाषाओं के अपने-अपने नाम हैं और उन्हीं नामों से हम उन्हें जानते हैं जैसे असमिया, बांग्ला, पंजाबी, सिंधी, बिहारी, गुजराती, राजस्थानी इत्यादि। यही कारण है कि इन सभी भाषाओं के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है।

प्राचीन हिंदी या प्रारंभिक हिंदी अथवा आदिकालीन हिंदी

हिंदी भाषा के इस काल को प्राचीन हिंदी, पुरानी हिंदी प्रारंभिक हिंदी, आरंभिक हिंदी, आदिकालीन हिंदी आदि नामों से भी जाना जाता है। प्राचीन हिंदी से अभिप्राय है अपभ्रंश-अवहट के बाद की भाषा। हिंदी का आदिकाल हिंदी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था जब अपभ्रंश-अवहट का प्रभाव हिंदी भाषा पर मौजूद था। इस समय हिंदी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरुप विकसित नहीं हुए थे।

हिंदी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय हिंदी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।

शौरसेनीपश्चिमी हिंदी
राजस्थानी
गुजराती
अर्द्धमागधीपूर्वी हिंदी
मागधीबिहारी
उड़िया
बांग्ला
असमिया
खसपहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित)
ब्राचड़पंजाबी(शौरसेनी से प्रभावित)
सिंधी
महाराष्ट्रीमराठी
  • मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिंदी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
  • प्राचीन हिंदी से अभिप्राय है— अपभ्रंश– अवहट्ट के बाद की भाषा।
  • हिंदी का आदिकाल हिंदी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंश–अवहट्ट का प्रभाव हिंदी भाषा पर मौजूद था और हिंदी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।

हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति

हिंदी शब्द मूलतः फारसी का है न कि हिंदी का। हिंदी शब्दों की व्युत्पत्ति संबंधित भाषाओं से होती है। हिंदी भाषा उत्तर भारत में बोली जाती है और उसकी मूल भाषा संस्कृत है। हिंदी शब्दों के निर्माण में संस्कृत, पारसी, अरबी, फारसी, उर्दू, तुर्की, पोर्तुगी, अंग्रेज़ी और गुजराती आदि के शब्दों का उपयोग होता है।

जब भारतीय भाषाएं और विदेशी भाषाएं मिलती हैं, तो नए शब्द बनते हैं। उदाहरण के लिए, हिंदी में “कम्प्यूटर” शब्द अंग्रेजी शब्द “computer” से लिया गया है। इसी तरह से, हिंदी में “अभिभावक” शब्द पर्सियन शब्द “ابوابا” से लिया गया है।

इस तरह, हिंदी शब्दों की व्युत्पत्ति कई भाषाओं से होती है और यह भारतीय जनता के व्यापक भाषाई और सांस्कृतिक संपदा को दर्शाती है।

हिंदी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवाहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह ‘सिंधु’ का देश था ईरान (फ़ारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे । और ईरानी ‘सिंधु’ को ‘हिन्दु’ कहते थे।

(सिंधु – हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन – पहलवी भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। हिन्दू शब्द संस्कृत से प्रचलित है परंतु यह संस्कृत के ‘सिन्धु’ शब्द से विकसित है। हिन्दू से ‘हिन्द’ बना और फिर ‘हिन्द’ में फ़ारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय ‘ई’ लगने से ‘हिंदी’ बन गया। ‘हिंदी’ का अर्थ है—’हिन्द का’। इस प्रकार हिंदी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द ‘हिंदी की भाषा’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। उपर्युक्त बातों से निम्न बातें सामने आती हैं—

‘हिंदी’ शब्द का विकास कई चरणों में हुआ- सिंधु→ हिन्दु→ हिन्द+ई→ हिंदी। प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने “हिन्दी-उर्दू का अद्वैत” शीर्षक आलेख में विस्तार से स्पष्ट किया है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में “स्” ध्वनि नहीं बोली जाती थी। अवेस्ता में “स्” का उच्चारण “ह्” किया जाता था। उदाहरण के लिए संस्कृत के असुर शब्द का उच्चारण अहुर किया जाता था। अफ़ग़ानिस्तान के बाद की सिन्धु नदी के पार के हिन्दुस्तान के इलाके को प्राचीन फारसी साहित्य में “हिन्द” एवं “हिन्दुश” के नामों से पुकारा गया है।

“हिन्द” के भूभाग की किसी भी वस्तु, भाषा तथा विचार के लिए विशेषण के रूप में “हिन्दीक” का प्रयोग होता था। हिन्दीक माने हिन्द का या हिन्द की। यही हिन्दीक शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में “इंदिका” तथा “इंदिके” हो गया। ग्रीक से लैटिन में यह “इंदिया” तथा लैटिन से अंग्रेज़ी में “इंडिया” शब्द रूप बन गए। यही कारण है कि अरबी एवं फ़ारसी साहित्य में “हिन्द” में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए “ज़बान-ए-हिन्द” लफ्ज़ मिलता है। 

भारत में आने के बाद मुसलमानों ने “ज़बान-ए-हिन्दी” का प्रयोग आगरा-दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा के लिए किया। “ज़बान-ए-हिन्दी” माने हिन्द में बोली जाने वाली जबान। इस इलाक़े के गैर-मुस्लिम लोग बोले जाने वाले भाषा-रूप को “भाखा” कहते थे, हिन्दी नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध पंक्ति है – संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।

‘हिंदी’ शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि ‘हिंदी’ भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिंदी प्रेमी ‘हिंदी’ शब्द की व्युत्पत्ति हिंदी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे – हिन (हनन करने वाला) + दु (दुष्ट)= हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा ‘हिंदी’; हीन (हीनों)+दु (दलन)= हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा ‘हिंदी’। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।

‘हिंदी’ शब्द के दो अर्थ हैं— ‘हिन्द देश के निवासी’ (यथा— हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा— इक़बाल) और ‘हिंदी की भाषा’। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक् हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिंदी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब ‘हिंदी’ शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब ‘हिंदी’ नहीं कहलाती हैं।

बेशक ये सभी ‘हिन्द’ की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल ‘हिंदी’ नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए ‘हिंदी’ की इन सब भाषाओं के लिए ‘हिंदी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता। हिंदी’ शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिंदी जिस भाषा समूह का नाम है, उसमें आज के हिंदी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।

  • ब्रजभाषा– प्राचीन हिंदी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश–अवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंश–अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का ‘प्रद्युम्न चरित’ (1354 ई.) है।
  • अवधी– अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की ‘चंद्रायन’ या ‘लोरकहा’ (1370 ई.) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
  • खड़ी बोली– प्राचीन हिंदी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर ख़ुसरो जैसे सूफ़ियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश–अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।

मध्यकालीन हिंदी

हिंदी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय हिंदी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।

मध्यकाल में हिंदी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गईं। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए—

  • ब्रजभाषा
  • अवधी
  • खड़ी बोली

ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ पर इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली।

ब्रजभाषा

हिंदी के मध्यकाल में मध्य देश की महान् भाषा परम्परा के उत्तरादायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिंदी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात् भक्तिकाल) में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया।

पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय के सूरदास (सूरसागर), नंददास, निम्बार्क संप्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य सम्प्रदाय के गदाधर भट्ट, राधावल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश (श्रीकृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं सम्प्रदाय–निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया।

इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है, जिन्हें ‘अष्टछाप का जहाज़’ कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात् रीतिकाल) में अनेक आचार्यों एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं।

अवधी

अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफ़ी/प्रेममार्गी कवियों को है कुतबन (‘मृगावती’), जायसी (‘पद्मावत’), मंझन (‘मधुमालती’), आलम (‘माधवानल कामकंदला’), उसमान (‘चित्रावली’), नूर मुहम्मद (‘इन्द्रावती’), कासिमशाह (‘हंस जवाहिर’), शेख निसार (‘यूसुफ़ जुलेखा’), अलीशाह (‘प्रेम चिंगारी’) आदि सूफ़ी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना बैसवाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया, वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है, जायसी और तुलसीदास। जायसी के यहाँ जहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप मिलता है, वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप है।

खड़ी बोली

मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र जो कि पहले उत्तर था वह उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए –

  • उत्तरी हिंदी
  • दक्कनी हिंदी।

खड़ी बोली मध्यकाल रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की ‘चन्द छन्द वर्णन की महिमा’, रहीम के ‘मदनाष्टक’, आलम के ‘सुदामा चरित’, जटमल की ‘गोरा बादल की कथा’, वली, सौदा, इन्शा, नज़ीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, ‘कुतुबशतम’ (17वीं सदी), ‘भोगलू पुराण’ (18वीं सदी), संत प्राणनाथ के ‘कुलजमस्वरूप’ आदि में मिलता है।

आधुनिक हिंदी

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल ‘भारतीय इतिहास’ के बदलते हुए स्वरूप से काफ़ी प्रभावित था। ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव भी साहित्य में आ गया था। भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का भी तेज़ी से विकास हुआ। 

अंग्रेज़ी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ा और जीवन में बदलाव आने लगा। ईश्वर के साथ-साथ मानव को महत्त्व दिया जाने लगा था। भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ ही गद्य का भी पर्याप्त विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नयी क्रांति का बीजारोपण हुआ।

आधुनिक हिन्दी साहित्य में गद्य का विकास

आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रह गया था। पूरे देश में और हर प्रदेश में हिन्दी की लोकप्रियता व्याप्त होने लगी थी और अनेक अन्य भाषी लेखकों ने भी हिन्दी में साहित्य की रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी गद्य के विकास को निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया जा सकता है-

  • भारतेन्दु पूर्व युग – (1800 ई. से 1850 ई. तक)
  • भारतेन्दु युग – (1850 ई. से 1900 ई. तक)
  • द्विवेदी युग – (1900 ई. से 1920 ई. तक)
  • रामचन्द्र शुक्ल तथा प्रेमचन्द युग – (1920 ई. से 1936 ई. तक)
  • अद्यतन युग – (1936 ई. से आज तक)

भारतेन्दु पूर्व युग

हिन्दी में गद्य का विकास 19वीं शताब्दी के आसपास हुआ। इस विकास में कलकत्ता (आधुनिक कोलकाता) के ‘फ़ोर्ट विलियम कॉलेज’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। इस कॉलेज के दो विद्वानों लल्लूलाल तथा सदल मिश्र ने गिल क्राइस्ट के निर्देशन में क्रमश: ‘प्रेमसागर’ तथा ‘नासिकेतोपाख्यान’ नामक पुस्तकें तैयार कीं।

इसी समय सदासुखलाल ने ‘सुखसागर’ तथा मुंशी इंशा अल्ला ख़ाँ ने ‘रानी केतकी की कहानी’ की रचना की। इन सभी ग्रंथों की भाषा में उस समय प्रयोग में आने वाली खड़ी बोली को स्थान मिला। आधुनिक खड़ी बोली के गद्य के विकास में विभिन्न धर्मों की परिचयात्मक पुस्तकों का खूब सहयोग रहा, जिसमें ईसाई धर्म का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। 

बंगाल के राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में ‘वेदांतसूत्र’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवाया। इसके बाद उन्होंने 1829 में ‘बंगदूत’ नामक पत्र हिन्दी में निकाला। इसके पहले ही 1826 में कानपुर के पं. जुगल किशोर ने हिन्दी का पहला समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ कलकत्ता से निकाला था। इसी समय गुजराती भाषी ‘आर्य समाज’ के संस्थापक स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ हिन्दीमें लिखा।

भारतेन्दु युग

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (1855-1885) को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्र मैगज़ीन’ और ‘हरिश्चंद्र पत्रिका’ भी निकाली थीं। इसके साथ ही अनेक नाटकों आदि की रचना भी की। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रसिद्ध नाटक हैं- ‘चंद्रावली’, ‘भारत दुर्दशा’ और ‘अंधेर नगरी’ आदि। ये नाटक रंगमंच पर भी बहुत लोकप्रिय हुए।

इस काल में निबंध, नाटक, उपन्यास तथा कहानियों की रचना हुई। इस काल के लेखकों में बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधा चरण गोस्वामी, उपाध्याय बदरीनाथ चौधरी ‘प्रेमघन’, लाला श्रीनिवास दास, देवकीनन्दन खत्री और किशोरी लाल गोस्वामी आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें से अधिकांश लेखक होने के साथ-साथ पत्रकार भी थे।

श्रीनिवासदास के उपन्यास ‘परीक्षागुरू’ को हिन्दी का पहला उपन्यास कहा जाता है। कुछ विद्वान् श्रद्धाराम फुल्लौरी के उपन्यास ‘भाग्यवती’ को भी हिन्दी का पहला उपन्यास स्वीकार करते हैं। देवकीनंदन खत्री का ‘चंद्रकांता’ तथा ‘चंद्रकांता संतति’ आदि इस युग के प्रमुख उपन्यास हैं। ये उपन्यास इतने अधिक लोकप्रिय हुए थे कि इनको पढ़ने के लिये ऐसे अहिन्दी लोग, जो हिन्दी पढ़ना-लिखना आदि नहीं जानते थे, उन्होंने हिन्दी भाषा सीखनी शुरू कर दी थी। इस युग की कहानियों में शिवप्रसाद सितारे हिन्द की ‘राजा भोज का सपना’ महत्त्वपूर्ण है।

द्विवेदी युग

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस युग का नाम ‘द्विवेदी युग’ रखा गया था। सन 1903 में द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ नामक पत्रिका के संपादन का भार संभाला। उन्होंने खड़ी बोली गद्य के स्वरूप को स्थिर किया और पत्रिका के माध्यम से रचनाकारों के एक बड़े समुदाय को खड़ी बोली में लिखने को प्रेरित किया। इ

स काल में निबंध, उपन्यास, कहानी, नाटक एवं समालोचना का अच्छा विकास हुआ। द्विवेदी युग के निबंधकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव प्रसाद मिश्र, श्यामसुंदर दास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाल मुकंद गुप्त और अध्यापक पूर्ण सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। इनके निबंध गंभीर, ललित एवं विचारात्मक हैं, किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू गोपाल राम गहमरी के उपन्यासों में मनोरंजन और घटनाओं की रोचकता है।

हिन्दी कहानी का वास्तविक विकास ‘द्विवेदी युग’ से ही शुरू हुआ। किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इंदुमती कहानी’ को कुछ विद्वान् हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं। अन्य कहानियों में ‘बंग महिला की दुलाई वाली’, रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’, जयशंकर प्रसाद की ‘ग्राम’ और चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ महत्त्वपूर्ण हैं। समालोचना के क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा उल्लेखनीय हैं। अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, शिवनंदन सहाय तथा राय देवीप्रसाद पूर्ण द्वारा कुछ नाटक आदि भी लिखे गए थे।

रामचन्द्र शुक्ल एवं प्रेमचंद युग

गद्य के विकास में इस युग का विशेष महत्त्व है। रामचंद्र शुक्ल ने निबंध, हिन्दी साहित्य के इतिहास और समालोचना के क्षेत्र में गंभीर लेखन किया। उन्होंने मनोविकारों पर हिन्दी में पहली बार निबंध लेखन किया। साहित्य समीक्षा से संबंधित निबंधों की भी रचना की। उनके निबंधों में भाव और विचार अर्थात् बुद्धि और हृदय दोनों का समन्वय है।

हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा गया उनका इतिहास आज भी अपनी सार्थकता बनाए हुए है। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसीदास और सूरदास पर लिखी गयी उनकी आलोचनाओं ने भावी आलोचकों का मार्गदर्शन किया। इस काल के अन्य निबंधकारों में जैनेन्द्र कुमार जैन, सियारामशरण गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और जयशंकर प्रसाद आदि उल्लेखनीय हैं। कथा साहित्य के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त प्रेमचंद ने क्रांति ही कर डाली।

कथा साहित्य केवल मनोरंजन, कौतूहल और नीति का विषय ही नहीं रहा था, बल्कि सीधे जीवन की समस्याओं से जुड़ गया। मुंशी प्रेमचन्द ने ‘सेवा सदन’, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’, ‘गबन’ एवं ‘गोदान’ आदि उपन्यासों की रचना की। उनकी तीन सौ से अधिक कहानियाँ ‘मानसरोवर’ के आठ भागों में तथा ‘गुप्तधन’ के दो भागों में संग्रहित हैं। ‘पूस की रात’, ‘कफ़न’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘नमक का दरोगा’ तथा ‘ईदगाह’ आदि उनकी कहानियाँ खूब लोकप्रिय हुयीं।

इस काल के अन्य कथाकारों में विश्वंभर शर्मा ‘कौशिक’, वृंदावनलाल वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, उपेन्द्रनाथ अश्क, जयशंकर प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का विशेष स्थान है। इनके ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसे ऐतिहासिक नाटकों में इतिहास और कल्पना तथा भारतीय और पाश्चात्य नाट्य पद्यतियों का समन्वय हुआ है। लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण प्रेमी, जगदीशचंद्र माथुर आदि इस काल के उल्लेखनीय नाटककार हैं।

अद्यतन काल

इस काल में गद्य का चहुँमुखी विकास हुआ। हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, नंददुलारे वाजपेयी, नगेंद्र, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा रामविलास शर्मा आदि ने विचारात्मक निबंधों की रचना की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विवेकी राय और कुबेरनाथ राय ने ललित निबंधों की रचना की है। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवींन्द्रनाथ त्यागी तथा के. पी. सक्सेना, के व्यंग्य आज के जीवन की विद्रूपताओं के उद्घाटन में सफल हुए हैं।

जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव और भगवती चरण वर्मा ने उल्लेखनीय उपन्यासों की रचना की। नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, अमृतराय तथा राही मासूम रज़ा ने लोकप्रिय आंचलिक उपन्यास लिखे हैं। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, भैरव प्रसाद गुप्त आदि ने आधुनिक भाव बोध वाले अनेक उपन्यासों और कहानियों की रचना की है। अमरकांत, निर्मल वर्मा तथा ज्ञानरंजन आदि भी नए कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं।

प्रसादोत्तर नाटकों के क्षेत्र में लक्ष्मीनारायण लाल, लक्ष्मीकांत वर्मा तथा मोहन राकेश के नाम उल्लेखनीय हैं। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा बनारसीदास चतुर्वेदी आदि ने संस्मरण, रेखाचित्र व जीवनी आदि की रचना की है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, नंद दुलारे वाजपेयी, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा तथा नामवर सिंह ने हिन्दी समालोचना को समृद्ध किया। आज गद्य की अनेक नयी विधाओं, जैसे- यात्रा वृत्तांत, रिपोर्ताज, रेडियो रूपक, आलेख आदि में विपुल साहित्य की रचना हो रही है और गद्य की विधाएँ एक दूसरे से मिल रही हैं।

आधुनिक हिन्दी साहित्य में पद्य का विकास

आधुनिक काल में लिखी जाने वाली कविता को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • नवजागरण काल (भारतेन्दु युग) – 1850 ई. से 1900 ई. तक
  • सुधार काल (द्विवेदी युग) – 1900 ई. से 1920 ई. तक
  • छायावादी युग – 1920 ई. से 1936 ई. तक
  • प्रगतिवाद-प्रयोगवाद – 1936 ई. से 1953 ई. तक
  • नई कविता व समकालीन कविता – 1953 ई. से अब तक

नवजागरण काल (भारतेन्दु युग)

इस काल की कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पहली बार जन-जीवन की समस्याओं से सीधे जुड़ती है। इसमें भक्ति और श्रंगार के साथ साथ समाज सुधार की भावना भी अभिव्यक्त हुई। पारंपरिक विषयों की कविता का माध्यम ब्रजभाषा ही रही, लेकिन जहाँ ये कविताएँ नवजागरण के स्वर की अभिव्यक्ति करती हैं, वहाँ इनकी भाषा हिन्दी हो जाती है। कवियों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का व्यक्तित्व प्रधान रहा। उन्हें नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है। प्रताप नारायण मिश्र ने हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान की वकालत की। अन्य कवियों में उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘पेमघन’ के नाम उल्लेखनीय हैं।

सुधार काल (द्विवेदी युग)

हिन्दी कविता को नया रंगरूप देने में श्रीधर पाठक का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्हें ‘प्रथम स्वच्छंदतावादी कवि’ कहा जाता है। उनकी ‘एकांत योगी’ और ‘कश्मीर सुषमा’ खड़ी बोली की सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं। रामनरेश द्विवेदी ने अपने ‘पथिक मिलन’ और ‘स्वप्न’ महाकाव्यों में इस धारा का विकास किया। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के ‘प्रिय प्रवास’ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य माना गया है। 

महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली में अनेक काव्यों की रचना की। इन काव्यों में ‘भारत भारती’, ‘साकेत’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’ और ‘जयभारत’ आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी ‘भारत भारती’ में स्वाधीनता आंदोलन की ललकार है। राष्ट्रीय प्रेम उनकी कविताओं का प्रमुख स्वर है। इस काल के अन्य कवियों में सियाराम शरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, नाथूराम शंकर शर्मा तथा गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

छायावादी युग

कविता की दृष्टि से इस काल में एक दूसरी धारा भी थी, जो सीधे-सीधे स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थी। इसमें माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, नरेन्द्र शर्मा, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, श्रीकृष्ण सरल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस युग की प्रमुख कृतियों में जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ और ‘आँसू’, सुमित्रानंदन पंत का ‘पल्लव’, ‘गुंजन’ और ‘वीणा’, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘गीतिका’ और ‘अनामिका’, तथा महादेवी वर्मा की ‘यामा’, ‘दीपशिखा’ और ‘सांध्यगीत’ आदि कृतियाँ महत्वपूर्ण हैं।

‘कामयनी’ को आधुनिक काल का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य कहा जाता है। छायावादोत्तर काल में हरिवंशराय बच्चन का नाम उल्लेखनीय है। छायावादी काव्य में आत्मपरकता, प्रकृति के अनेक रूपों का सजीव चित्रण, विश्व मानवता के प्रति प्रेम आदि की अभिव्यक्ति हुई है। इसी काल में मानव मन सूक्ष्म भावों को प्रकट करने की क्षमता हिन्दी भाषा में विकसित हुई।

प्रगतिवाद

वर्ष 1936 के आस-पास से कविता के क्षेत्र में बड़ा परिवर्तन दिखाई पड़ा। प्रगतिवाद ने कविता को जीवन के यथार्थ से जोड़ा। प्रगतिवादी कवि कार्ल मार्क्स की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हैं। युग की मांग के अनुरूप छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी बाद की रचनाओं में प्रगतिवाद का साथ दिया। 

नरेंद्र शर्मा और दिनकरजी ने भी अनेक प्रगतिवादी रचनाएँ कीं। प्रगतिवाद के प्रति समर्पित कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, रामविलास शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री और गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ के नाम उल्लेखनीय हैं। इस धारा में समाज के शोषित वर्ग मज़दूर और किसानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गयी। धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक विषमता पर चोट की गयी और हिन्दी कविता एक बार फिर खेतों और खलिहानों से जुड़ी गई।

प्रगतिवाद के समानांतर प्रयोगवाद की धारा भी प्रवाहित हुई। अज्ञेय को इस धारा का प्रवर्तक स्वीकर किया गया। सन 1943 में अज्ञेय ने ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन किया। इसके सात कवियों में प्रगतिवादी कवि अधिक थे। रामविलास शर्मा, प्रभाकर माचवे, नेमिचंद जैन, गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’, गिरिजाकुमार माथुर और भारतभूषण अग्रवाल ये सभी कवि प्रगतिवादी हैं। इन कवियों ने कथ्य और अभिव्यक्ति की दृष्टि से अनेक नवीन प्रयोग किये। अत: ‘तार सप्तक’ को प्रयोगवाद का आधार ग्रंथ माना गया। अज्ञेय द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ में इन कवियों की अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं।

नई कविता और समकालीन कविता

सन 1953 ई. में इलाहाबाद से ‘नई कविता’ पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में नई कविता को प्रयोगवाद से भिन्न रूप में प्रतिष्ठित किया गया। दूसरा सप्तक (1951), तीसरा सप्तक (1951) तथा चौथे सप्तक के कवियों को भी नए कवि कहा गया। वस्तुत: नई कविता को प्रयोगवाद का ही भिन्न रूप माना जाता है। इसमें भी दो धराएँ परिलक्षित होती हैं-

  • वैयक्तिकता को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करने वाली धारा – इसमें अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त प्रमुख हैं।
  • प्रगतिशील धारा – जिसमें गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह तथा सुदामा पांडेय धूमिल आदि उल्लेखनीय हैं।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना में इन दोनों धराओं का मेल दिखाई पड़ता है। इन दोनों ही धाराओं में अनुभव की प्रामाणिकता, लघुमानव की प्रतिष्ठा तथा बौधिकता का आग्रह आदि प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं। साधारण बोलचाल की शब्दावली में असाधारण अर्थ भर देना इनकी भाषा की विशेषता है।

समकालीन कविता में गीत, नवगीत और ग़ज़ल की ओर रुझान बढ़ा है। आज हिन्दी की निरंतर गतिशील और व्यापक होती हुई काव्य धारा में संपूर्ण भारत के सभी प्रदेशों के साथ ही साथ संपूर्ण विश्व में लोकिप्रिय हो रही है। इसमें आज देश विदेश में रहने वाले अनेक नागरिकताओं के असंख्य विद्वानों और प्रवासी भारतीयों का योगदान निरंतर जारी है।


इन्हें भी देखें-

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