हिन्दी साहित्य भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है। इसकी उत्पत्ति लोकभाषा में निहित सहज अभिव्यक्ति से हुई और यह समय के साथ-साथ विविध रूपों में विकसित होता गया। हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत समृद्ध, व्यापक और विविधता से परिपूर्ण है, जिसमें धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, नैतिक और भावनात्मक विषयों का विस्तृत चित्रण देखने को मिलता है।
हिन्दी साहित्य ने पद्य (काव्य) के रूप में अपनी यात्रा प्रारंभ की और गद्य का विकास अपेक्षाकृत बाद में हुआ। इस यात्रा के दौरान हिन्दी साहित्य ने कई उतार-चढ़ाव, सामाजिक परिवर्तन, राजनैतिक परिवेश और भाषाई प्रयोगों के दौर देखे। यह लेख हिन्दी साहित्य के इतिहास, काल विभाजन, वर्गीकरण और नामकरण पर एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास
हिन्दी साहित्य का इतिहास एक समृद्ध और बहुआयामी यात्रा है, जो लोकभाषा में रची गई कविताओं से प्रारंभ होकर आधुनिक युग के परिष्कृत गद्य साहित्य तक विस्तृत है। यह साहित्यिक यात्रा भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनैतिक परिस्थितियों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई रही है।
हिन्दी साहित्य की उत्पत्ति और प्रारंभिक स्वरूप
हिन्दी साहित्य का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। इस काल में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंट चुका था। इन राज्यों में परस्पर संघर्ष और बाहरी आक्रमण की स्थितियाँ थीं, जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में भी परिलक्षित होती हैं।
हिन्दी का प्रारंभिक साहित्य मुख्यतः अपभ्रंश भाषा में लिखा गया, जो संस्कृत से उत्पन्न होकर जनभाषा के रूप में विकसित हुई थी। अपभ्रंश की कई उपभाषाएँ जैसे – अवधी, मागधी, अर्धमागधी, राजस्थानी, मारवाड़ी आदि – समय के साथ हिंदी साहित्य के विकास की आधारशिलाएँ बनीं।
हिन्दी साहित्य के प्रकार
हिन्दी साहित्य में तीन प्रमुख विधाएँ देखने को मिलती हैं:
- पद्य – जिसमें भावों की अभिव्यक्ति छंदबद्ध शैली में होती है।
- चम्पू – यह एक मिश्रित शैली है जिसमें गद्य और पद्य दोनों का समावेश होता है।
- गद्य – जिसमें विचार और भावों को सीधे और स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
हिंदी पद्य का परिचय
हिंदी साहित्य में पद्य का अर्थ है छंदबद्ध रचना, जिसमें तुक, लय, और भाव का समन्वय होता है। यह साहित्य का वह रूप है जिसमें भावनाओं, कल्पनाओं और अनुभवों को सौंदर्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। हिंदी साहित्य की प्रारंभिक अभिव्यक्ति पद्य के माध्यम से ही हुई थी, इसलिए पद्य को हिंदी साहित्य का मूल आधार माना जाता है।
पद्य रचनाएँ प्राचीन काल से ही समाज, धर्म, राजनीति और संस्कृति का प्रतिबिंब रही हैं। वीरगाथाओं से लेकर भक्ति, शृंगार, प्रकृति, राष्ट्रप्रेम और सामाजिक चेतना तक—हर विषय को पद्य ने प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है।
हिंदी पद्य साहित्य ने भाषा, भाव और छंद की समृद्ध परंपरा को विकसित किया है और समय के साथ यह लगातार बदलती सामाजिक चेतना को स्वर देता रहा है।
चम्पू साहित्य का परिचय
चम्पू साहित्य एक विशेष विधा है, जिसमें गद्य और पद्य दोनों का संयोजन होता है।
संस्कृत साहित्य में चम्पू का एक सुव्यवस्थित रूप पहले से ही विद्यमान था, जहाँ कथा या विषय को एक क्रम में कभी गद्य तो कभी पद्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता था। यह परंपरा हिंदी साहित्य में भी प्राचीन काल से देखी जाती है। चम्पू विधा का उद्देश्य भावों की विविधता को दोनों शैलियों (गद्य और पद्य) के माध्यम से और भी प्रभावी बनाना होता है।
संस्कृत में चम्पू को परिभाषित करते हुए कहा गया है:
“गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते”
अर्थात्, वह काव्य जिसमें गद्य और पद्य दोनों सम्मिलित हों, उसे चम्पू कहा जाता है।
हिंदी में चम्पू शैली का प्रयोग प्रारंभिक रचनाओं में देखने को मिलता है, विशेष रूप से पुरानी कहानियों, आख्यानों और धार्मिक ग्रंथों में। यद्यपि आधुनिक साहित्य में इसका प्रयोग बहुत सीमित रह गया है, फिर भी यह विधा साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि यह भाषा और भावों की अभिव्यक्ति की विविधता को एक साथ प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है।
हिन्दी गद्य का विकास
हिन्दी साहित्य में गद्य का व्यवस्थित विकास अपेक्षाकृत देर से हुआ। प्रारंभिक काल में साहित्य पद्य रूप में ही अधिक प्रचलित था। खड़ी बोली में लिखी गई पहली गद्य रचना को लेकर विद्वानों में मतभेद है, लेकिन अधिकांश साहित्यकार लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखित उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ (1882) को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं। यह उपन्यास उस समय के सामाजिक जीवन और शिक्षित वर्ग के संघर्ष को चित्रित करता है।
हिंदी साहित्य में गद्य, पद्य और चम्पू के विकास का सही क्रम
हिंदी साहित्य में गद्य, पद्य और चम्पू के विकास का सही क्रम इस प्रकार माना जाता है:
1. पद्य (छंदबद्ध काव्य) – सबसे पहले विकसित हुआ
- हिंदी साहित्य की शुरुआत पद्य से मानी जाती है।
- आदिकाल (1000 ई. से) में वीरगाथा कवियों ने छंदबद्ध रचनाएँ कीं।
- भक्ति काल में तुलसीदास, सूरदास, कबीर, मीरा जैसे कवियों ने पद्य को नई ऊँचाई दी।
- उस समय साहित्य का उद्देश्य भावप्रदर्शन और गायन था, इसलिए पद्य सबसे अधिक लोकप्रिय था।
2. चम्पू साहित्य (गद्य+पद्य का मिश्रण) – पद्य के बाद विकसित
- संस्कृत साहित्य से आयातित यह विधा हिंदी में प्रारंभिक काल में दिखाई देती है।
- यह विधा पद्य और गद्य को एक साथ मिलाकर कथा या संदेश प्रस्तुत करती थी।
- हालांकि यह मुख्य धारा नहीं बन सकी, फिर भी प्राचीन साहित्य में इसका प्रयोग हुआ।
3. गद्य – सबसे अंत में विकसित
- हिंदी गद्य का व्यवस्थित विकास 19वीं शताब्दी में हुआ।
- पहले खड़ी बोली गद्य दुर्लभ था और साहित्य में प्रयोग नहीं के बराबर था।
- लाला श्रीनिवासदास का उपन्यास “परीक्षा गुरु” (1882) को हिंदी की पहली गद्य रचना माना जाता है।
- इसके बाद भारतेंदु युग और द्विवेदी युग में गद्य लेखन का प्रचलन बढ़ा।
यह क्रम दर्शाता है कि हिंदी साहित्य ने भावनाओं और काव्यात्मकता से शुरू होकर धीरे-धीरे तर्क, वर्णन और गद्यात्मक अभिव्यक्ति की ओर विकास किया।
हिन्दी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा में सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक प्रयास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है। उन्होंने गहन अध्ययन और शोध के आधार पर हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालों, प्रवृत्तियों और कवियों का विश्लेषण किया।
उनकी प्रसिद्ध कृति ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ मूलतः ‘हिन्दी शब्दसागर’ की भूमिका के रूप में लिखी गई थी, जिसे बाद में स्वतंत्र रूप में 1929 ई. में प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक आज भी हिन्दी साहित्य के इतिहास की सबसे व्यवस्थित, तार्किक और प्रमाणिक कृति मानी जाती है।
आचार्य शुक्ल ने इस पुस्तक में लगभग 1000 कवियों के जीवन और साहित्यिक योगदान का वर्णन किया है, लेकिन मात्र संख्या पर ध्यान न देकर उन्होंने साहित्यिक गुणवत्ता और ऐतिहासिक महत्त्व को प्राथमिकता दी। इस दृष्टिकोण से उन्होंने केवल उन्हीं साहित्यकारों को प्रमुखता दी, जिन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास में मौलिक योगदान दिया।
हिन्दी साहित्य और उसकी जड़ें
हिन्दी की भाषायी जड़ें प्राचीन संस्कृत तक जाती हैं, जिसे ‘भारतीय भाषाओं की जननी’ कहा जाता है। संस्कृत से विकसित होकर अपभ्रंश और फिर जनपदीय भाषाएँ सामने आईं, जो हिन्दी साहित्य की नींव बनीं।
हिन्दी न केवल भारत में, बल्कि विश्व के अनेक देशों में बोली और समझी जाने वाली एक प्रमुख भाषा है। इसकी लोकभाषाएँ – अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, मारवाड़ी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी आदि – भी साहित्यिक रूप से अत्यंत समृद्ध रही हैं और उन्होंने हिन्दी साहित्य को विविधता और गहराई प्रदान की है।
हिन्दी साहित्य की यात्रा एक समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है, जो लोक से लेकर साहित्यिक परिष्कार तक फैली हुई है। यह न केवल भाषा का विकास है, बल्कि समाज, संस्कृति, राजनीति और मानवीय मूल्यों का भी दस्तावेज़ है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ऐतिहासिक लेखन ने हिन्दी साहित्य के व्यवस्थित अध्ययन की आधारशिला रखी और इस साहित्यिक परंपरा को ऐतिहासिक और आलोचनात्मक दृष्टि से समझने का मार्ग प्रशस्त किया।
इसके बाद हिन्दी गद्य ने समाचार पत्रों, कहानियों, निबंधों, उपन्यासों और आत्मकथाओं के रूप में तेजी से विकास किया।
हिन्दी साहित्य का काल विभाजन (वर्गीकरण) और नामकरण
हिन्दी साहित्य के विकास को समझने और अध्ययन की सुविधा के लिए विभिन्न विद्वानों ने समयानुसार इसे अलग-अलग कालों में विभाजित किया है। इस काल-विभाजन और नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद भी रहे हैं, लेकिन कुछ प्रमुख वर्गीकरण सार्वभौमिक रूप से मान्य हो गए हैं।
आरंभिक प्रयास – जॉर्ज ग्रियर्सन
हिन्दी साहित्य का पहला संगठित काल-विभाजन जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया था, लेकिन हिन्दी के विद्वानों ने इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टिकोण से मेल नहीं खाता था।
जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा हिंदी साहित्य का काल विभाजन (वर्गीकरण)
हिंदी साहित्य का काल विभाजन सर्वप्रथम जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया। उन्होंने अपनी पुस्तक “The Modern Vernacular Literature of Hindustan” में हिंदी साहित्य का वर्गीकरण प्रस्तुत किया।
👉 यह पुस्तक “द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान” 1888 ई. में रचित है।
ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य का विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों के बजाय राजनीतिक और ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाकर किया। इसमें साहित्यिक प्रवृत्तियों या शैलियों को स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं किया गया। इसी कारण यह हिंदी साहित्य की दृष्टि से उपयोगी नहीं माना गया और हिंदी साहित्यकारों द्वारा इस काल विभाजन को अस्वीकार कर दिया गया।
👉 मुग़ल दरबार, अट्ठारहवीं शताब्दी, कंपनी के शासन में हिंदुस्तान आदि के आधार पर किए गए इस काल विभाजन से किसी साहित्यिक परिवर्तन का संकेत नहीं मिलता है।
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक “द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान” में साहित्यिक प्रवृत्तियों के बजाय राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं को आधार बनाकर हिंदी साहित्य को 11 भागों में विभाजित किया, जो निम्न हैं –
1️⃣ चारण काल (700 – 1300 ई.)
2️⃣ पंद्रहवीं सदी का धार्मिक पुनर्जागरण
3️⃣ जायसी की प्रेम कविता
4️⃣ ब्रज का कृष्ण संप्रदाय (1500 – 1600 ई.)
5️⃣ मुग़ल दरबार
6️⃣ तुलसी दास
7️⃣ रीति काव्य (1580 – 1692 ई.)
8️⃣ तुलसी के अन्य परवर्ती (1600 – 1700 ई.)
9️⃣ अट्ठारहवीं शताब्दी
🔟 कंपनी के शासन में हिंदुस्तान (1800 – 1857 ई.)
1️⃣1️⃣ महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान एवं विविध
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा हिंदी साहित्य के 11 कालखंड – संक्षिप्त तालिका
क्रम संख्या | कालखंड | अवधि (ईस्वी सन्) |
---|---|---|
1️⃣ | चारण काल | 700 – 1300 ई. |
2️⃣ | पंद्रहवीं सदी का धार्मिक पुनर्जागरण | — |
3️⃣ | जायसी की प्रेम कविता | — |
4️⃣ | ब्रज का कृष्ण संप्रदाय | 1500 – 1600 ई. |
5️⃣ | मुग़ल दरबार | — |
6️⃣ | तुलसी दास | — |
7️⃣ | रीति काव्य | 1580 – 1692 ई. |
8️⃣ | तुलसी के अन्य परवर्ती | 1600 – 1700 ई. |
9️⃣ | अट्ठारहवीं शताब्दी | — |
🔟 | कंपनी के शासन में हिंदुस्तान | 1800 – 1857 ई. |
1️⃣1️⃣ | महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान एवं विविध | — |
प्रमुख विद्वानों द्वारा हिन्दी साहित्य का काल विभाजन
हिन्दी साहित्य के काल विभाजन और नामकरण का प्रयास निम्नलिखित विद्वानों ने किया है:
- मिश्र बंधु
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- हजारी प्रसाद द्विवेदी
- रामकुमार वर्मा
- डॉ. नगेन्द्र
- डॉ. बच्चन
- रामस्वरूप चतुर्वेदी
- गणपति चंद्र गुप्त
- रामखेलावन
इनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी का काल-विभाजन सर्वाधिक स्वीकृत और लोकप्रिय माना जाता है।
मिश्र बंधुओं द्वारा हिंदी साहित्य का काल विभाजन (वर्गीकरण)
मिश्र बंधुओं ने अपनी पुस्तक “मिश्र बंधु विनोद” (लेखन: 1913 ई.) में हिंदी साहित्य का एक विस्तृत और क्रमबद्ध काल विभाजन प्रस्तुत किया। उन्होंने हिंदी साहित्य को विषयवस्तु, शैली और प्रवृत्तियों के आधार पर पाँच प्रमुख कालों में बाँटा और उनके भीतर उपकाल भी निर्धारित किए। यह वर्गीकरण हिंदी साहित्य के ऐतिहासिक विकास को विस्तार से दर्शाता है।
1️⃣ प्रारंभिक काल
👉 पूर्वारंभिक काल: 643 – 1286 ई.
👉 उत्तरारंभिक काल: 1286 – 1387 ई.
2️⃣ माध्यमिक काल
👉 पूर्व माध्यमिक काल: 1388 – 1503 ई.
👉 प्रौढ़ माध्यमिक काल: 1504 – 1623 ई.
3️⃣ अलंकृत काल
👉 पूर्व अलंकृत काल: 1624 – 1733 ई.
👉 उत्तर अलंकृत काल: 1734 – 1832 ई.
4️⃣ परिवर्तन काल
👉 1833 – 1868 ई.
5️⃣ वर्तमान काल
👉 1869 ई. – अब तक
मिश्र बंधुओं द्वारा हिंदी साहित्य के कालखंड – संक्षिप्त तालिका (ईस्वी सन् में)
कालखंड | उपकाल | ईस्वी सन् (AD) |
---|---|---|
प्रारंभिक काल | पूर्वारंभिक काल | 643 – 1286 ई. |
उत्तरारंभिक काल | 1286 – 1387 ई. | |
माध्यमिक काल | पूर्व माध्यमिक काल | 1388 – 1503 ई. |
प्रौढ़ माध्यमिक काल | 1504 – 1623 ई. | |
अलंकृत काल | पूर्व अलंकृत काल | 1624 – 1733 ई. |
उत्तर अलंकृत काल | 1734 – 1832 ई. | |
परिवर्तन काल | — | 1833 – 1868 ई. |
वर्तमान काल | — | 1869 ई. – अब तक |
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल द्वारा हिंदी साहित्य का काल विभाजन (वर्गीकरण)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी प्रसिद्ध कृति “हिंदी साहित्य का इतिहास” (रचना: 1927 ई., प्रकाशन: 1929 ई.) में पहली बार हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक और तर्कसंगत काल विभाजन प्रस्तुत किया। उन्होंने हिंदी साहित्य के विकास को चार प्रमुख कालखंडों में वर्गीकृत किया, जो ऐतिहासिक दृष्टि से हिंदी साहित्य के स्वरूप, प्रवृत्ति और विषयवस्तु को स्पष्ट करते हैं।
1️⃣ आदिकाल (वीरगाथाकाल)
👉 विक्रम संवत: 1050 – 1375
👉 ईस्वी सन्: 993 – 1318 ई.
👉 विशेषता: वीर गाथाओं और आदिम काव्य परंपराओं का काल।
2️⃣ पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)
👉 विक्रम संवत: 1375 – 1700
👉 ईस्वी सन्: 1318 – 1643 ई.
👉 विशेषता: भक्ति आंदोलन और संत काव्य का उत्कर्ष।
3️⃣ उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल)
👉 विक्रम संवत: 1700 – 1900
👉 ईस्वी सन्: 1643 – 1843 ई.
👉 विशेषता: रीति-बद्ध काव्य, शृंगार रस की प्रधानता, दरबारी संस्कृति।
4️⃣ आधुनिक काल (गद्यकाल)
👉 विक्रम संवत: 1900 – 1984
👉 ईस्वी सन्: 1843 – 1927 ई.
👉 विशेषता: नवजागरण, गद्य का विकास, सामाजिक चेतना और राष्ट्रीयता।
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल द्वारा हिंदी साहित्य के कालखंड – संक्षिप्त तालिका (विक्रम संवत एवं ईस्वी सन् में)
कालखंड | विक्रम संवत (VS) | ईस्वी सन् (AD) | विशेषता |
---|---|---|---|
आदिकाल (वीरगाथाकाल) | 1050 – 1375 | 993 – 1318 ई. | वीरगाथाएँ, आदिम काव्य |
पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) | 1375 – 1700 | 1318 – 1643 ई. | भक्ति काव्य, संत परंपरा |
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) | 1700 – 1900 | 1643 – 1843 ई. | रीति-बद्धता, शृंगार प्रधान |
आधुनिक काल (गद्यकाल) | 1900 – 1984 | 1843 – 1927 ई. | गद्य लेखन, नवजागरण, समाज सुधार |
हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा हिंदी साहित्य का काल विभाजन (वर्गीकरण)
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के काल विभाजन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के वर्गीकरण को स्वीकार किया, लेकिन उसमें कुछ परिवर्तन किए। उन्होंने कालखंडों की शताब्दियों को थोड़ा भिन्न रूप में रखा। उनका विभाजन मुख्यतः साहित्यिक प्रवृत्तियों पर आधारित था।
1️⃣ आदिकाल (10वीं से 14वीं शताब्दी तक)
2️⃣ भक्ति काल (14वीं से 16वीं शताब्दी तक)
3️⃣ रीति काल (16वीं से 19वीं शताब्दी तक)
4️⃣ आधुनिक काल (19वीं शताब्दी से अब तक)
हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा हिंदी साहित्य के कालखंड – संक्षिप्त तालिका
क्रम संख्या | कालखंड | अवधि |
---|---|---|
1️⃣ | आदिकाल | 10वीं – 14वीं शताब्दी |
2️⃣ | भक्ति काल | 14वीं – 16वीं शताब्दी |
3️⃣ | रीति काल | 16वीं – 19वीं शताब्दी |
4️⃣ | आधुनिक काल | 19वीं शताब्दी – अब तक |
रामकुमार वर्मा द्वारा हिंदी साहित्य का काल विभाजन (वर्गीकरण)
हिंदी साहित्य के काल विभाजन में रामकुमार वर्मा ने विक्रम संवत को आधार बनाकर साहित्यिक विकास की ऐतिहासिक यात्रा को पाँच प्रमुख कालखंडों में विभाजित किया। यह काल विभाजन हिंदी भाषा और साहित्य के रूप, विषयवस्तु, प्रवृत्ति तथा शैलीगत विशेषताओं पर आधारित है। नीचे प्रत्येक काल की सीमा विक्रम संवत और ईस्वी सन् दोनों में दी गई है।
1️⃣ संधिकाल
👉 विक्रम संवत: 750 – 1000
👉 ईस्वी सन्: 693 – 943 ई.
👉 विशेषता: प्राचीन और मध्यकालीन हिंदी का संक्रमणकाल।
2️⃣ चारणकाल
👉 विक्रम संवत: 1000 – 1375
👉 ईस्वी सन्: 943 – 1318 ई.
👉 विशेषता: वीर रस प्रधान साहित्य, चारण कवियों का उत्कर्ष।
3️⃣ भक्तिकाल
👉 विक्रम संवत: 1375 – 1700
👉 ईस्वी सन्: 1318 – 1643 ई.
👉 विशेषता: भक्ति भावनाओं से ओतप्रोत साहित्य, संत काव्य की प्रमुखता।
4️⃣ रीतिकाल
👉 विक्रम संवत: 1700 – 1900
👉 ईस्वी सन्: 1643 – 1843 ई.
👉 विशेषता: शृंगार रस, रीति-बद्धता और दरबारी काव्य की प्रधानता।
5️⃣ आधुनिक काल
👉 विक्रम संवत: 1900 – अब तक
👉 ईस्वी सन्: 1843 – अब तक
👉 विशेषता: राष्ट्रीय चेतना, समाज सुधार, विविध विधाओं का विकास।
रामकुमार वर्मा द्वारा हिंदी साहित्य के कालखंड – संक्षिप्त तालिका (विक्रम संवत एवं ईस्वी सन् में)
काल | विक्रम संवत (VS) | ईस्वी सन् (AD) |
---|---|---|
संधिकाल | 750 – 1000 | 693 – 943 ई. |
चारणकाल | 1000 – 1375 | 943 – 1318 ई. |
भक्तिकाल | 1375 – 1700 | 1318 – 1643 ई. |
रीतिकाल | 1700 – 1900 | 1643 – 1843 ई. |
आधुनिक काल | 1900 – अब तक | 1843 – अब तक |
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का योगदान
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की दृष्टि से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का नाम सर्वोपरि माना जाता है। उन्होंने 1929 ई. में अपनी प्रसिद्ध कृति “हिंदी साहित्य का इतिहास” की रचना की, जो आज भी हिंदी साहित्य का सर्वाधिक प्रामाणिक, शोधपरक और मानक इतिहास ग्रंथ माना जाता है।
शुक्ल जी ने यह ग्रंथ मूल रूप से “हिंदी शब्दसागर” के लिए भूमिका के रूप में तैयार किया था। किंतु इसकी गहराई, शोधमूलकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को देखते हुए इसे एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।
इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें लगभग 1000 कवियों के जीवन और उनके काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। शुक्ल जी ने मात्र संख्यात्मक विवरण देने तक ही सीमित न रहकर साहित्यिक प्रवृत्तियों, काव्यगत विशेषताओं और साहित्यिक मूल्यों का वस्तुपरक और तर्कपूर्ण मूल्यांकन किया। उन्होंने साहित्य को समाज और युगीन परिस्थितियों से जोड़कर देखा और साहित्यिक इतिहास को एक वैज्ञानिक रूप प्रदान किया।
हिंदी साहित्य का आदर्श वर्गीकरण एवं काल विभाजन
हिंदी साहित्य के अध्ययन को सरल और व्यवस्थित बनाने के लिए इसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण और साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर विभिन्न कालखंडों में विभाजित किया गया है। यह विभाजन मुख्यतः साहित्य की विषयवस्तु, भाषा शैली, तथा उस समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार किया गया है।
परंपरागत रूप से हिंदी साहित्य को तीन प्रमुख कालखंडों में बाँटा गया है:
- आदिकाल
- मध्यकाल (जिसमें भक्ति काल और रीति काल दो उपकाल शामिल हैं)
- आधुनिक काल
हालाँकि, यदि भक्ति काल और रीति काल को स्वतंत्र साहित्यिक प्रवृत्तियों के रूप में देखा जाए, तो हिंदी साहित्य को चार कालखंडों में विभाजित किया जा सकता है:
यह वर्गीकरण न केवल साहित्यिक विकास की दृष्टि से उपयोगी है, बल्कि विभिन्न कालों की विशेषताओं को समझने और उनके प्रमुख कवियों व काव्य प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने में भी सहायक सिद्ध होता है।
हिंदी साहित्य का आदर्श वर्गीकरण एवं कालखंड
1️⃣ आदिकाल (वीरगाथा काल) – 1000 ई. से 1350 ई. तक
2️⃣ मध्यकाल – 1350 ई. से 1850 ई. तक
(a) भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल) – 1350 ई. से 1650 ई. तक
(b) रीति काल (उत्तर मध्य काल) – 1650 ई. से 1850 ई. तक
3️⃣ आधुनिक काल (गद्यकाल) – 1850 ई. से अब तक
(a) पुनर्जागरण काल (भारतेंदु युग) – 1850 ई. से 1900 ई. तक
(b) जागरण सुधार काल (द्विवेदी युग) – 1900 ई. से 1920 ई. तक
(c) छायावाद काल – 1920 ई. से 1936 ई. तक
(d) छायावादोत्तर काल – 1937 ई. से 1947 ई. तक
(e) प्रगतिवाद काल – 1936 ई. से 1943 ई. तक
(f) प्रयोगवाद काल – 1943 ई. से 1953 ई. तक
(g) नव लेखन काल – 1951 ई. से अब तक
हिंदी साहित्य का आदर्श वर्गीकरण एवं कालखंड – संक्षिप्त तालिका
क्रम संख्या | कालखंड | अवधि |
---|---|---|
1️⃣ | आदिकाल (वीरगाथा काल) | 1000 – 1350 ई. |
2️⃣ | मध्यकाल | 1350 – 1850 ई. |
2️⃣ (a) | भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल) | 1350 – 1650 ई. |
2️⃣ (b) | रीति काल (उत्तर मध्य काल) | 1650 – 1850 ई. |
3️⃣ | आधुनिक काल (गद्यकाल) | 1850 – अब तक |
3️⃣ (a) | पुनर्जागरण काल (भारतेंदु युग) | 1850 – 1900 ई. |
3️⃣ (b) | जागरण सुधार काल (द्विवेदी युग) | 1900 – 1920 ई. |
3️⃣ (c) | छायावाद काल | 1920 – 1936 ई. |
3️⃣ (d) | छायावादोत्तर काल | 1936 – 1947 ई. |
3️⃣ (e) | प्रगतिवाद काल | 1936 – 1943 ई. |
3️⃣ (f) | प्रयोगवाद काल | 1943 – 1953 ई. |
3️⃣ (g) | नव लेखन काल* | 1951 – अब तक |
*कुछ साहित्यकारों के अनुसार, 1954 में “नई कविता” पत्रिका के प्रकाशन से नव लेखन काल (नई कविता युग) का आरंभ माना जाता है।
हिन्दी साहित्य के चार प्रमुख काल
हिन्दी साहित्य को चार प्रमुख कालों में विभाजित किया जाता है। यह काल-विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों, भाषायी प्रयोगों और सामाजिक-राजनैतिक परिवेश के आधार पर किया गया है:
1. आदिकाल (वीरगाथा काल) – 1000 ई. से 1350 ई. तक
प्रमुख विशेषताएँ:
- इस काल को वीरगाथा काल भी कहा जाता है।
- इसमें मुख्यतः वीर रस से परिपूर्ण रचनाएँ हुईं।
- अधिकांश रचनाएँ चारणों और भाटों द्वारा रची गईं जिनका उद्देश्य अपने राजा या वंश की वीरता का गुणगान करना था।
- रचनाएँ अपभ्रंश, प्रारंभिक अवधी और ब्रजभाषा में लिखी गईं।
प्रमुख रचनाकार:
- चंदबरदाई – “पृथ्वीराज रासो”
- नरपति नाल्ह – “बीसलदेव रास”
- जयचंद्र – “हमीर रासो”
2. भक्ति काल (1350 ई. से 1650 ई. तक)
प्रमुख विशेषताएँ:
- इसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है।
- इस काल में धार्मिक चेतना, भक्ति भावना और सामाजिक समरसता को प्रमुख स्थान मिला।
- इस काल में दो प्रमुख धाराएँ थीं – निर्गुण भक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा।
भक्ति काल की उपधाराएँ:
- निर्गुण धारा – संत काव्य परंपरा
- प्रमुख कवि: कबीर, रैदास, दादू, सैना
- सगुण धारा – कृष्ण भक्ति शाखा और राम भक्ति शाखा
- कृष्ण भक्ति शाखा – सूरदास, मीराबाई, नंददास
- राम भक्ति शाखा – तुलसीदास, केशवदास
3. रीति काल (1650 ई. से 1850 ई. तक)
प्रमुख विशेषताएँ:
- इसे श्रृंगारिक काव्य काल या आलंकारिक काव्य काल भी कहा जाता है।
- काव्य में श्रृंगार रस, नायिका-भेद, रस, छंद, अलंकार आदि की प्रधानता रही।
- दरबारी संस्कृति और काव्यशास्त्र के प्रभाव से साहित्य शास्त्रनिष्ठ हुआ।
प्रमुख रचनाकार:
- बिहारी – “सतसई”
- देव – “भवानी विलास”
- भूषण – वीर रस प्रधान रचनाएँ, जैसे – शिवराज भूषण
- पद्माकर – जमुना वर्णन
4. आधुनिक काल (1850 ई. से वर्तमान तक)
प्रमुख विशेषताएँ:
- यह काल हिंदी गद्य और समकालीन काव्य का व्यापक विकासकाल है।
- इसमें यथार्थवाद, राष्ट्रवाद, सामाजिक चेतना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, प्रगतिवाद, नव्य यथार्थवाद, उत्तर-आधुनिकता और अस्तित्ववाद की प्रवृत्तियाँ प्रमुख रूप से उभरती हैं।
- आधुनिक काल को अध्ययन की सुविधा हेतु विभिन्न उपयुगों (उपकालों) में विभाजित किया गया है:
(क) भारतेंदु युग (1850–1900)
- हिंदी गद्य साहित्य और नाटक की नींव पड़ी।
- पत्रकारिता और सामाजिक चेतना का प्रारंभ।
- प्रतिनिधि लेखक: भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र
(ख) द्विवेदी युग (1900–1920)
- गद्य को तर्कशील, विवेचनात्मक एवं राष्ट्रीय चेतना से युक्त रूप मिला।
- भाषा, व्याकरण और शैली में अनुशासन।
- प्रमुख लेखक: महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्यासिंह ‘हरिऔध’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल
(ग) छायावाद युग (1920–1935)
- काव्य में कल्पनाशीलता, प्रकृति-सौंदर्य, आत्मचेतना और रहस्यवाद की प्रधानता।
- यह युग हिंदी कविता का रोमांटिक युग कहा जाता है।
- प्रमुख कवि: जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
(घ) छायावादोत्तर युग (1936–1947)
- छायावाद की सीमाओं से बाहर निकलते हुए साहित्य में राष्ट्रवाद, जनचेतना और यथार्थ का प्रभाव दिखाई देता है।
- कविता में सामाजिक सरोकार, स्वतंत्रता आंदोलन और जनभावना का चित्रण प्रमुख।
- प्रमुख लेखक: रामधारी सिंह ‘दिनकर’, हरिवंश राय बच्चन, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान
(ङ) प्रगतिवाद युग (1936–1943)
- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण, शोषण-विरोध, वर्ग-संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्तियाँ उभरीं।
- कविता और कथा साहित्य में यथार्थ का तीव्र चित्रण।
- प्रमुख लेखक: नागार्जुन, यशपाल, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध
(च) प्रयोगवाद युग (1943–1953)
- साहित्य में नवाचार, भाषाई प्रयोग, अस्तित्वबोध और आत्मसंघर्ष को लेकर नवीन शैली का प्रयोग हुआ।
- यह प्रवृत्ति ‘तार सप्तक’ (1943) से आरंभ हुई और नई कविता की आधारभूमि बनी।
- प्रमुख लेखक: अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर
(छ) नई कविता युग (1951 से आगे)
- आधुनिक मनुष्य के अस्तित्व संकट, एकाकीपन, विखंडन, और शहरी जीवन की जटिलता का चित्रण।
- छंदमुक्त कविता, प्रतीकात्मकता और मनोवैज्ञानिक गहराई इसकी विशेषता बनी।
- प्रमुख कवि: धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, नरेश मेहता, भवानी प्रसाद मिश्र
📝 नोट: नई कविता युग का सामान्य समय 1951 से आगे माना जाता है, किंतु कुछ साहित्यकारों के अनुसार 1954 में प्रकाशित “नई कविता” पत्रिका से ही इस युग की संगठित शुरुआत मानी जाती है। इसे नव लेखन काल का आरंभ भी कहा जाता है।
(ज) समकालीन युग / उत्तर-आधुनिक युग (1965 से अब तक)
- हिंदी साहित्य में विविध विमर्श केंद्रित लेखन उभर कर सामने आया — नारी विमर्श, दलित साहित्य, आदिवासी चेतना, तथा उत्तर-आधुनिक बौद्धिक दृष्टिकोण प्रमुख रहे।
- रचनाओं में सामाजिक विघटन, असमानता, सत्ता-विरोध और वैयक्तिकता की पड़ताल हुई।
- प्रमुख लेखक/कवि: धूमिल, ज्ञानरंजन, उदय प्रकाश, कुमार विकल, मंगलेश डबराल, अनामिका
क्या छायावादोत्तर युग के अंतर्गत आते हैं प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता?
छायावादोत्तर युग का अर्थ मात्र “छायावाद के बाद का समय” नहीं है, बल्कि यह एक संक्रमणकाल है, जिसमें साहित्य छायावादी कल्पना और रहस्यवाद से निकलकर यथार्थ, समाज और विचारधारा की ओर उन्मुख होता है। इस कारण यह प्रश्न उठता है कि क्या छायावाद के बाद आने वाले प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता जैसे प्रमुख युग, छायावादोत्तर युग की सीमा में आते हैं या वे स्वतंत्र साहित्यिक प्रवृत्तियाँ माने जाते हैं?
छायावादोत्तर युग – एक संक्रमणकाल
छायावादोत्तर युग को सामान्यतः 1936 ई. से 1947 ई. तक माना जाता है। यह वह समय है जब हिंदी कविता में राष्ट्रवाद, जनचेतना, सामाजिक यथार्थ, और स्वाधीनता आंदोलन का स्वर मुखर हुआ। माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, बच्चन जैसे रचनाकारों ने इस युग में साहित्य को छायावाद की सीमाओं से बाहर निकालकर जनसरोकारों से जोड़ा।
प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता – छायावादोत्तर की धारा से जन्मी प्रवृत्तियाँ
इन तीनों साहित्यिक आंदोलनों की वैचारिक जड़ें छायावादोत्तर युग में देखी जा सकती हैं, किंतु समय, विषय और शैली की विशिष्टता के कारण इन्हें स्वतंत्र युगों के रूप में मान्यता प्राप्त है:
- प्रगतिवाद (1936–1943): 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ इसकी औपचारिक शुरुआत हुई। इसमें मार्क्सवादी दृष्टिकोण से समाज, शोषण, संघर्ष और क्रांति को चित्रित किया गया।
- प्रयोगवाद (1943–1953): ‘तार सप्तक’ (1943) से अज्ञेय ने इस प्रवृत्ति की शुरुआत की, जिसमें व्यक्तिगत अनुभव, भाषाई प्रयोग और आत्मसंघर्ष को प्रमुखता मिली।
- नई कविता (1951 से आगे): यह प्रयोगवाद की अगली कड़ी है, जो अस्तित्ववाद, आधुनिक शहरों की विडंबनाएँ, और व्यक्तिगत अकेलापन जैसे विषयों पर केंद्रित रही।
छायावादोत्तर युग को एक सांस्कृतिक और वैचारिक सेतु के रूप में देखा जा सकता है, जिसने आगे चलकर हिंदी साहित्य को विविध दिशाओं में प्रवाहित किया। यद्यपि प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता की उत्पत्ति छायावादोत्तर युग की पृष्ठभूमि में हुई, फिर भी उनकी कालवधि, विशेषताएँ और सौंदर्यशास्त्र उन्हें स्वतंत्र साहित्यिक युग बनाते हैं।
इसलिए यह कहना उचित होगा कि —
“प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता — छायावादोत्तर युग से प्रभावित अवश्य हैं, परंतु वे स्वयं में स्वतंत्र साहित्यिक युग हैं।“
निष्कर्ष
हिन्दी साहित्य का इतिहास एक जीवंत सांस्कृतिक दस्तावेज है, जिसमें समय, समाज और संस्कृति के परिवर्तनों का गहरा प्रतिबिंब देखा जा सकता है। इसके काल विभाजन से हम साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझ सकते हैं और यह जान सकते हैं कि कैसे एक लोकभाषा धीरे-धीरे राष्ट्रभाषा के रूप में उभरी और आज विश्व की प्रमुख भाषाओं में गिनी जाती है।
हिन्दी साहित्य केवल लेखन की परंपरा नहीं है, बल्कि यह एक आंदोलन, संवेदना, और चेतना है जो समाज को दिशा देने में आज भी सक्षम है।
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