दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध का विरोध | लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951

भारतीय लोकतंत्र में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित करने के लिए चुनावी प्रक्रिया को व्यवस्थित करने वाले कानूनों का विशेष महत्व है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) भारत में चुनावों को संचालित करने के लिए एक प्रमुख विधिक आधार प्रदान करता है।

भारतीय लोकतंत्र में राजनीति और अपराध के संबंध को लेकर वर्षों से बहस चल रही है। हाल ही में अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिका में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 में संशोधन की मांग की गई है। इस याचिका में अनुरोध किया गया है कि किसी भी अपराध में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को आजीवन चुनाव लड़ने, राजनीतिक दल बनाने या किसी राजनीतिक दल का पदाधिकारी बनने से रोका जाए। इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई जारी है और यह मामला भारतीय राजनीति और न्यायिक प्रणाली के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया है। केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में इस मांग का विरोध किया और कहा कि ऐसा करना अनुचित, असंगत और अत्यधिक कठोर होगा।

याचिका का सारांश

अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिका में निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं को उठाया गया है –

  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 में संशोधन की आवश्यकता: वर्तमान में इस अधिनियम के तहत दोषी ठहराए गए नेताओं को छह वर्षों के लिए अयोग्य ठहराया जाता है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि यह अवधि अपर्याप्त है और इसे आजीवन किया जाना चाहिए।
  • दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध: याचिका में यह मांग की गई है कि किसी भी अपराध में दोषी पाए गए व्यक्ति को चुनाव लड़ने, राजनीतिक दल बनाने या किसी राजनीतिक दल का पदाधिकारी बनने से जीवनभर के लिए रोका जाए।
  • लोकतंत्र की शुद्धता बनाए रखने की आवश्यकता: तर्क दिया गया है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं का राजनीति में बने रहना लोकतंत्र के आदर्शों के विपरीत है और इससे जनता का शासन प्रणाली पर विश्वास कमजोर होता है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 | कानूनी पृष्ठभूमि

लोकतंत्र में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित करने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 भारत में एक महत्वपूर्ण विधिक आधार प्रदान करता है। यह अधिनियम चुनाव प्रक्रिया के संचालन, योग्यता-अयोग्यता के मानकों, भ्रष्ट आचरण की परिभाषा, चुनावी अपराधों और चुनावी विवादों के समाधान से संबंधित विस्तृत प्रावधान करता है।

भारत में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 के तहत किसी भी अपराध में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को उसकी सजा की अवधि और इसके बाद छह वर्षों तक चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया जाता है। सरकार का तर्क है कि यह सजा पर्याप्त है और दोषी व्यक्ति को सामाजिक पुनर्वास का अवसर मिलना चाहिए। दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘हितों का टकराव’ बताया है और सवाल उठाया कि अपराधी साबित होने के बावजूद कोई व्यक्ति फिर से संसद या विधानसभा में कैसे लौट सकता है?

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 भारतीय चुनावी प्रणाली की आधारशिला है। यह अधिनियम चुनावी प्रक्रिया, अयोग्यता के मानक और भ्रष्ट आचरण को परिभाषित करता है। वर्तमान में, इसकी धारा 8(3) के अनुसार:

  • यदि किसी व्यक्ति को दो वर्ष या अधिक की सजा होती है, तो वह सजा की अवधि के दौरान तथा रिहाई के बाद छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य होगा।
  • जघन्य अपराधों (जैसे बलात्कार, भ्रष्टाचार, आतंकवाद) में दोषी ठहराए गए व्यक्ति पर अधिक कठोर प्रतिबंध लग सकते हैं।
  • निर्वाचन आयोग को कुछ मामलों में अयोग्यता की अवधि कम करने का अधिकार प्राप्त है।

अधिनियम की पृष्ठभूमि

संविधान सभा द्वारा संविधान को 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किए जाने के बाद, अनुच्छेद 327 के तहत संसद को चुनावों से संबंधित कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई। इसके परिणामस्वरूप, भारत की अस्थायी संसद ने 1951 में इस अधिनियम को पारित किया। यह अधिनियम 1952 के पहले आम चुनाव से पहले लागू किया गया ताकि लोकतांत्रिक प्रणाली को प्रभावी रूप से क्रियान्वित किया जा सके।

प्रमुख प्रावधान

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का मुख्य उद्देश्य भारत में संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराना है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:

  • चुनाव प्रक्रिया का निर्धारण: चुनाव कार्यक्रम की घोषणा, नामांकन प्रक्रिया, मतदान प्रक्रिया और मतगणना के नियम इस अधिनियम के अंतर्गत परिभाषित किए गए हैं।
  • निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ: स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचन आयोग को आवश्यक अधिकार प्रदान किए गए हैं।
  • योग्यता और अयोग्यता के मानदंड: इसमें चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक आयु, मतदाता सूची में नाम दर्ज होना, और अन्य संवैधानिक मानकों को परिभाषित किया गया है।
  • चुनावी अपराधों की परिभाषा: इसमें मतदान प्रक्रिया में गड़बड़ी, रिश्वतखोरी, मतदाता को प्रभावित करना, जबरदस्ती करना, आचार संहिता का उल्लंघन और अन्य चुनावी अपराधों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
  • चुनाव विवादों का निवारण: इस अधिनियम के तहत चुनाव संबंधी विवादों को हल करने के लिए संबंधित उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या

एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में लोकसभा के 42% सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया और अधिवक्ता स्नेहा कलिता द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया कि देशभर में सांसदों और विधायकों के खिलाफ लगभग 5,000 आपराधिक मामले लंबित हैं। इनमें से कई मामले 30 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।

इस स्थिति को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि राजनीति में अपराधियों की मौजूदगी लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। न्यायमूर्ति मनमोहन ने कहा कि इस मुद्दे को केवल सतही रूप से देखने के बजाय हर कोण से गहराई से विश्लेषण करने की आवश्यकता है।

दोषी नेताओं पर प्रतिबंध लगाने की माँग | तर्क एवं आवश्यकताएँ

  1. राजनीति का अपराधीकरण रोकना
    • ADR की रिपोर्ट (2024) के अनुसार, 46% सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 31% पर गंभीर आरोप हैं।
    • चुनाव में बाहुबल और धनबल की बढ़ती भूमिका लोकतंत्र को कमजोर करती है।
  2. चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखना
    • आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के सत्ता में आने से कानून व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
    • भ्रष्टाचार और सत्ता का दुरुपयोग बढ़ता है।
  3. लोकतंत्र में नैतिकता और विश्वास की पुनर्स्थापना
    • स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को बढ़ावा मिलने से जनता का लोकतंत्र में विश्वास मजबूत होगा।

क्या आजीवन प्रतिबंध उचित है?

राजनीति में अपराधियों की बढ़ती भूमिका लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती है। हालांकि, दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने से पूर्व इसके कानूनी और व्यावहारिक पक्षों पर गहन मंथन आवश्यक है। संसद और न्यायपालिका को संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए ऐसे कानूनी सुधार करने चाहिए, जो राजनीति की शुचिता बनाए रखते हुए निष्पक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करें।

आज यह बहस प्रासंगिक हो गई है कि क्या दोषी राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाना लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप होगा। इसके पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं –

अजीवन प्रतिबंध के पक्ष में तर्क

  1. लोकतंत्र की शुचिता: एक दोषी व्यक्ति को जनप्रतिनिधि बनने की अनुमति देना जनता के विश्वास के साथ विश्वासघात होगा।
  2. भ्रष्टाचार में कमी: यदि अपराधी नेताओं को सत्ता से बाहर रखा जाता है, तो भ्रष्टाचार और अपराधीकरण की प्रवृत्ति पर लगाम लग सकती है।
  3. लोकतंत्र की शुद्धता सुनिश्चित होगी: यदि अपराधी प्रवृत्ति के लोग चुनावी राजनीति से बाहर किए जाते हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र के आदर्शों के अनुरूप होगा।
  4. राजनीतिक अपराधीकरण पर रोक लगेगी: यह एक बड़ी समस्या है कि कई गंभीर अपराधों में दोषी पाए गए लोग चुनाव लड़ते हैं और सत्ता में आते हैं। आजीवन प्रतिबंध इस प्रवृत्ति को रोक सकता है।
  5. नैतिकता का संदेश: एक कठोर सजा से समाज में यह संदेश जाएगा कि अपराधियों के लिए राजनीति में कोई स्थान नहीं है।
  6. नागरिकों का विश्वास बढ़ेगा: जनता का अपने जनप्रतिनिधियों पर विश्वास तभी मजबूत होगा जब वे स्वच्छ छवि वाले होंगे।

अजीवन प्रतिबंध के विरोध में तर्क

  1. पुनर्वास का अधिकार: किसी व्यक्ति ने यदि अपनी सजा पूरी कर ली है, तो उसे दोबारा समाज में शामिल होने का अवसर मिलना चाहिए।
  2. लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन: भारत के संविधान में सभी नागरिकों को समान अवसर और अधिकार दिए गए हैं। किसी को आजीवन प्रतिबंधित करना इस मूल अधिकार के खिलाफ होगा।
  3. संसद का अधिकार क्षेत्र: सरकार का कहना है कि इस तरह का कोई भी संशोधन केवल संसद द्वारा किया जा सकता है, न कि न्यायपालिका द्वारा।
  4. दंडात्मक न्याय का सिद्धांत: एक दोषी व्यक्ति को दंड पूरा करने के बाद पुनः समाज में बसने का अधिकार होना चाहिए। आजीवन प्रतिबंध उसे पूरी तरह राजनीति से अलग कर देगा।

दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध का मुद्दा भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में संतुलन बनाए रखने की एक जटिल चुनौती है। सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई भारतीय राजनीति के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। हालांकि, इस पर निर्णय लेते समय यह सुनिश्चित करना आवश्यक होगा कि यह कानून नागरिक अधिकारों, लोकतांत्रिक मूल्यों और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को समान रूप से संरक्षित करे।

केंद्र सरकार का पक्ष

केंद्र सरकार ने 24 फरवरी को दाखिल अपने हलफनामे में कहा कि कोई भी दंडात्मक प्रावधान केवल एक सीमित अवधि के लिए लागू किया जाता है। जब एक व्यक्ति अपनी सजा पूरी कर चुका होता है, तो उसे उसके मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।

सरकार ने यह भी कहा कि यदि आजीवन प्रतिबंध लगाया जाता है, तो यह धारा 8 के प्रावधानों को पुनर्लिखने जैसा होगा। किसी भी कानून में ऐसा संशोधन केवल संसद द्वारा किया जा सकता है, न कि न्यायपालिका द्वारा।

सरकार ने यह भी तर्क दिया कि सजा का उद्देश्य न केवल अपराध को दंडित करना है, बल्कि दोषी व्यक्ति के पुनर्वास और सामाजिक पुनः एकीकरण को भी सुनिश्चित करना है। किसी को जीवनभर के लिए अयोग्य घोषित करना न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध होगा।

सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) और 191(1)(e) का हवाला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में तर्क प्रस्तुत किया कि चुनावी अयोग्यता से संबंधित प्रावधान संसद द्वारा बनाए जाने चाहिए, न कि न्यायपालिका द्वारा। सरकार का मत है कि:

  • छह वर्ष की अयोग्यता पर्याप्त दंड है: सरकार का मानना है कि वर्तमान में दोषसिद्धि के बाद छह वर्षों की अयोग्यता पर्याप्त सजा है और इसे आजीवन प्रतिबंध में बदलना अनुचित होगा।
  • अन्य अयोग्यता मामलों में भी समय-सीमा तय है: उदाहरण के लिए, लाभ के पद पर होना, मानसिक असंतुलन, दिवालियापन, और विदेशी नागरिकता जैसी स्थितियों में भी अयोग्यता अस्थायी होती है। इसी प्रकार, दोषी नेताओं के लिए भी अयोग्यता को स्थायी नहीं किया जा सकता।
  • संवैधानिक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता: सरकार का यह भी कहना है कि किसी भी व्यक्ति को जीवनभर चुनाव लड़ने से रोकना उसके संवैधानिक अधिकारों का हनन हो सकता है।

सरकार का विरोध – प्रमुख चुनौतियाँ

  1. राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना
    • विरोधी दल झूठे मुकदमों के आधार पर नेताओं को चुनाव से बाहर करने की कोशिश कर सकते हैं।
  2. प्रत्येक अपराध समान नहीं होता
    • किसी छोटे अपराध के लिए आजीवन प्रतिबंध अनुचित हो सकता है।
  3. न्यायिक प्रक्रिया की देरी
    • दोषसिद्धि में वर्षों लग सकते हैं, जिससे कई दोषी नेता चुनाव लड़कर सत्ता में आ सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट की चिंता

सुप्रीम कोर्ट ने 10 फरवरी को इस विषय पर सुनवाई करते हुए कहा कि दोषी नेताओं के दोबारा चुनाव लड़ने से नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, “एक बार दोषी ठहराए जाने के बाद, वे फिर से संसद या विधानसभाओं में कैसे लौट सकते हैं? यह स्पष्ट रूप से हितों का टकराव है।”

इसके अलावा, अदालत ने यह भी चिंता व्यक्त की कि दोषी राजनेता सत्ता में बने रहने के लिए ‘प्रॉक्सी’ (छद्म प्रतिनिधियों) का सहारा ले सकते हैं। इससे लोकतंत्र की नींव कमजोर होती है और राजनीति का अपराधीकरण बढ़ता है।

सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के महत्वपूर्ण निर्णय

  • CEC बनाम जन चौकीदार (2013): जेल में बंद व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते।
  • ADR मामला (2002): प्रत्याशियों के लिए आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक करना अनिवार्य किया गया।
  • लिली थॉमस केस (2013): लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) असंवैधानिक घोषित हुई।

संभावित समाधान

इस मुद्दे का कोई स्पष्ट समाधान नहीं है, लेकिन कुछ संभावित सुझाव दिए जा सकते हैं:

  1. तेजी से मुकदमों का निपटारा: नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामलों का तेजी से निपटारा किया जाए ताकि दोषी को जल्द से जल्द सजा मिले और निर्दोष को न्याय।
  2. चुनावी सुधार: चुनाव आयोग और संसद मिलकर ऐसे कानून बनाए जो अपराधी पृष्ठभूमि वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने में सक्षम हों।
  3. आचरण संहिता: सभी राजनीतिक दलों को एक आचार संहिता अपनानी चाहिए जिसमें अपराधियों को टिकट न देने का प्रावधान हो।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों का प्रवेश गंभीर चिंता का विषय है। हालांकि, इस पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध (आजीवन प्रतिबंध) लगाने से पहले सभी पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है। न्यायपालिका और संसद को मिलकर ऐसा समाधान निकालना चाहिए जिससे लोकतंत्र की पवित्रता बनी रहे और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन न हो।

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