मुद्रा की उत्पत्ति को लेकर अर्थशास्त्रियों में मतभेद रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मुद्रा का जन्म मूलतः लेखे अथवा हिसाब की इकाई (Unit of Account) या सामान्य मूल्य-मापक (Measure of Value) के रूप में हुआ। इस विचारधारा का समर्थन प्रसिद्ध अर्थशास्त्री केन्स ने भी किया है। केन्स के अनुसार, मुद्रा सिद्धांत का प्राथमिक विचार “लेखा मुद्रा (Money of Account)” है। इसी प्रकार मोल्टन का मत है कि मुद्रा का विकास पहले मूल्य-मापक के रूप में और बाद में विनिमय-माध्यम के रूप में हुआ।
दूसरी ओर, एक अन्य विद्वत वर्ग यह मानता है कि मुद्रा की उत्पत्ति विनिमय के माध्यम (Medium of Exchange) के रूप में हुई थी। उनके अनुसार, विनिमय की प्रक्रिया को सरल और सुविधाजनक बनाने के लिए मुद्रा का विकास हुआ।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री क्राउथर ने मुद्रा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि— “मुद्रा के आविष्कार के द्वारा मूल्य के क्षेत्र में उसी विचार को कार्यान्वित किया गया, जिस विचार से प्रेरित होकर लम्बाई की माप के लिए फुट या मीटर, भार की माप के लिए पाउण्ड या ग्राम तथा तापमान की माप के लिए डिग्री का आविष्कार किया गया।”
वास्तविकता यह है कि यह निश्चित कर पाना अत्यंत कठिन है कि मुद्रा का प्रारंभ मूल्य-मापक के रूप में हुआ या विनिमय-माध्यम के रूप में। इस विषय पर चल रहे विवाद को कॉलबोर्न ने यह कहकर निरर्थक सिद्ध किया है कि— किसी स्थान पर मुद्रा का उदय मूल्य-मापक के रूप में हुआ, तो किसी अन्य स्थान पर वह विनिमय-माध्यम के रूप में विकसित हुई। संभवतः यही सत्य है कि मुद्रा का विकास इन दोनों रूपों में एक साथ हुआ।
मुद्रा के कार्य: एक गहन अध्ययन
मुद्रा (Money) किसी भी आधुनिक अर्थव्यवस्था की धुरी है, जो केवल लेन-देन का माध्यम ही नहीं, बल्कि समग्र आर्थिक संरचना का एक अनिवार्य आधार भी है। मनुष्य की आर्थिक प्रगति का इतिहास वस्तु-विनिमय प्रणाली से लेकर आधुनिक मुद्रा व्यवस्था तक फैला हुआ है। आज की जटिल और परिष्कृत अर्थव्यवस्था में मुद्रा की भूमिका एक केंद्रीय स्तंभ के रूप में उभरकर सामने आई है। मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि सम्पूर्ण आर्थिक तंत्र का प्राणतत्त्व है। वर्तमान युग में चाहे कोई भी आर्थिक लेन-देन हो, उसका आधार मुद्रा ही है। यह न केवल वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को अभिव्यक्त करती है, बल्कि सम्पूर्ण आर्थिक क्रियाओं का संचालन करने में सहायक होती है।
हालांकि पारंपरिक दृष्टिकोण से मुद्रा के चार मुख्य कार्य – विनिमय का माध्यम, मूल्य मापक, मूल्य-संचय, और स्थगित भुगतानों का आधार माने जाते रहे हैं, परन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री जैसे किनले (Kinley) ने मुद्रा के कार्यों का अधिक व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने मुद्रा के कार्यों को तीन वर्गों में विभाजित किया –
- प्राथमिक (Essential/Primary)
- सहायक (Subsidiary)
- आकस्मिक (Contingent)।
इसके अलावा कुछ अन्य कार्य भी हैं, जो विशेष परिस्थितियों में मुद्रा के महत्त्व को दर्शाते हैं। इस लेख में हम मुद्रा के इन सभी कार्यों का विस्तार से अध्ययन करेंगे।
(क) प्राथमिक कार्य (Primary or Essential Functions)
मुद्रा के वे कार्य जिन्हें हर काल, हर देश और हर व्यवस्था में अनिवार्य रूप से स्वीकार किया गया है, उन्हें प्राथमिक या मूलभूत कार्य कहा जाता है। ये कार्य मुद्रा के अस्तित्व को परिभाषित करते हैं।
1. विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)
सबसे प्रमुख और बुनियादी कार्य यह है कि मुद्रा वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान का माध्यम बनती है। वस्तु-विनिमय प्रणाली में दो व्यक्तियों के बीच उस वस्तु की आवश्यकता का संयोग होना आवश्यक होता था, जो एक दूसरे के पास हो – जिसे “दोहरा संयोग” कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि एक किसान के पास गेहूं है और वह जूते चाहता है, तो उसे ऐसा मोची ढूंढना होगा जो गेहूं चाहता हो और जूते दे सकता हो। यह स्थिति काफी जटिल और असुविधाजनक थी।
मुद्रा ने इस समस्या को जड़ से समाप्त कर दिया। अब किसान गेहूं बेचकर मुद्रा प्राप्त कर सकता है और फिर उस मुद्रा से अपने लिए जूते खरीद सकता है, चाहे वह मोची गेहूं चाहता हो या नहीं। इस प्रकार मुद्रा ने विनिमय को सरल, लचीला और सार्वभौमिक बना दिया।
इस कार्य से जुड़ी कुछ विशेषताएँ:
- व्यापार में सुविधा: मुद्रा ने लेन-देन को तीव्र, सरल और सुरक्षित बना दिया है।
- उत्पत्ति के साधनों को स्वतंत्रता: अब श्रमिक, पूँजीपति, भूमि स्वामी आदि अपने योगदान के बदले मुद्रा प्राप्त करते हैं, जिसे वे अपनी आवश्यकतानुसार खर्च कर सकते हैं।
- विशेषीकरण और श्रम विभाजन का विस्तार: विनिमय की सरलता ने उत्पादन के क्षेत्र में विशेषज्ञता को बढ़ावा दिया, जिससे अधिक उत्पादन और विविधता सम्भव हुई।
2. मूल्य-मापक (Measure of Value)
मुद्रा का दूसरा प्रमुख कार्य वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को व्यक्त करना है। जब हम कहते हैं कि एक किलो चावल की कीमत ₹50 है, तो हम उसका मूल्य मुद्रा में व्यक्त कर रहे हैं। यह मूल्य अभिव्यक्ति वस्तुओं की आपस में तुलना और विनिमय को संभव बनाती है।
क्राउथर के अनुसार, “मुद्रा लेखे की इकाई (Unit of Account) के रूप में कार्य करती है।” यह वह मापक है जिससे अन्य वस्तुओं की तुलना की जा सकती है।
मुख्य विशेषताएँ
- कीमत निर्धारण में सहूलियत: मुद्रा के कारण मूल्य तय करना सरल हुआ है, जिससे बाजार व्यवस्था को सुव्यवस्थित किया जा सका है।
- अर्थशास्त्रीय लेखांकन में सहायक: बिना मूल्य-मापक के आर्थिक गणनाएं और लेखांकन असम्भव होता।
- अस्थिरता की सीमा: यह अवश्य ध्यान देना चाहिए कि मुद्रा स्वयं स्थायी मूल्य की वस्तु नहीं है। मुद्रास्फीति, अवमूल्यन या पुनर्मूल्यांकन जैसे कारक मुद्रा के मूल्य को प्रभावित करते हैं।
विशेष उदाहरण
- द्वितीय विश्वयुद्ध के समय चीन में चीनी डॉलर विनिमय का माध्यम था, लेकिन मूल्य-मापक के रूप में अमेरिकी डॉलर का प्रयोग किया गया।
- प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी में भी विनिमय मार्क में और मूल्य निर्धारण स्विस फ्रैंक या अमेरिकी डॉलर में किया जाता था।
(ख) सहायक कार्य (Subsidiary or Secondary Functions)
ये वे कार्य हैं जो मुद्रा के प्रमुख कार्यों का विस्तार हैं और आर्थिक विकास के साथ इनका महत्व बढ़ता गया है।
1. स्थगित भुगतानों का आधार (Standard of Deferred Payments)
आज के युग में बहुत से लेन-देन तत्काल नहीं होते, बल्कि भविष्य में किए जाने वाले भुगतान (Deferred Payments) के रूप में होते हैं। उदाहरणतः – बैंक ऋण, सरकारी बॉन्ड, व्यापारिक उधार आदि।
मुद्रा क्यों उपयुक्त है?
- स्थायित्व: मुद्रा का मूल्य अपेक्षाकृत स्थिर होता है।
- स्वीकृति: मुद्रा को समाज द्वारा व्यापक स्वीकृति प्राप्त है।
- सुविधा: ऋण का निर्धारण, किस्तें, ब्याज आदि सबकुछ मुद्रा में सुगम रूप से किया जा सकता है।
यद्यपि मुद्रास्फीति जैसी परिस्थितियों में मुद्रा की क्रय-शक्ति घटती है, जिससे ऋणदाता को हानि हो सकती है, फिर भी अन्य किसी वस्तु की तुलना में यह कार्य के लिए अधिक उपयुक्त है।
2. मूल्य-संचय (Store of Value)
वस्तु-विनिमय प्रणाली में वस्तुओं का संग्रहण कठिन होता था – जैसे अनाज सड़ सकता है, पशु मर सकते हैं आदि। मुद्रा ने इस समस्या को हल किया। अब व्यक्ति अपनी आय को मुद्रा के रूप में सुरक्षित रख सकता है और जब आवश्यकता हो, तब उसका उपयोग कर सकता है।
महत्वपूर्ण पहलू
- संग्रहण में सुविधा: मुद्रा को बैंक में, तिजोरी में, या इलेक्ट्रॉनिक रूप में आसानी से संजोया जा सकता है।
- ब्याज की सम्भावना: बैंकिंग प्रणाली के कारण मुद्रा पर ब्याज प्राप्त किया जा सकता है।
- बचत की प्रवृत्ति: यह कार्य व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय बचत को प्रोत्साहित करता है।
हालांकि मुद्रास्फीति मूल्य-संचय की क्रय-शक्ति को प्रभावित कर सकती है, फिर भी यह मुद्रा का अत्यंत उपयोगी कार्य है।
3. मूल्य-हस्तान्तरण (Transfer of Value)
मुद्रा की वहनीयता और सार्वभौमिक स्वीकृति इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक क्रय-शक्ति के हस्तांतरण का माध्यम बनाती है। इसके बिना अंतरराष्ट्रीय व्यापार, निवेश, प्रेषण आदि असम्भव होते।
व्यावहारिक लाभ
- आर्थिक गतिशीलता में वृद्धि: अब पूँजी, श्रमिक और संसाधन एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से प्रवाहित हो सकते हैं।
- निवेश में सुविधा: व्यक्ति किसी भी स्थान पर मुद्रा भेजकर वहाँ निवेश कर सकता है।
- प्रवासी धन प्रेषण: विदेशों में कार्य करने वाले लोग अपने देश में मुद्रा भेज सकते हैं।
(ग) आकस्मिक कार्य (Contingent Functions)
किनले के अनुसार, कुछ कार्य ऐसे हैं जो परिस्थिति विशेष में महत्वपूर्ण बन जाते हैं, परंतु मुद्रा के प्रभाव को व्यापक रूप से दर्शाते हैं।
1. सामाजिक आय का वितरण (Distribution of Social Income)
आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया सामूहिक होती है – जहाँ भूमि, श्रम, पूँजी और उद्यम सभी की भागीदारी होती है। उत्पन्न वस्तुओं और सेवाओं से प्राप्त आय का वितरण इन कारकों में उनके योगदान के आधार पर मुद्रा के द्वारा किया जाता है।
उदाहरण:
- श्रमिक को वेतन
- पूँजीपति को ब्याज
- उद्यमी को लाभ
- भूमि स्वामी को किराया
इस प्रकार, मुद्रा ने बड़े पैमाने पर उत्पादन और श्रम विभाजन को व्यवहारिक बनाया है।
2. सीमांत उपयोगिता में समानता (Equalization of Marginal Utility)
उपभोक्ता सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति अपने खर्च को इस प्रकार विभाजित करता है कि सभी वस्तुओं से प्राप्त सीमांत उपयोगिता बराबर हो जाए और उसे अधिकतम संतोष मिले। यह तभी सम्भव है जब सभी वस्तुएं मुद्रा में मूल्यांकित हों।
उत्पादन के क्षेत्र में भी: सीमांत उत्पादकता के सिद्धांत के अनुसार, प्रत्येक संसाधन का उपयोग इस प्रकार किया जाता है कि उनका सीमांत उत्पाद बराबर हो जाए। यह कार्य भी मुद्रा के बिना सम्भव नहीं।
3. साख का आधार (Basis of Credit)
आज की अर्थव्यवस्था साख पर आधारित है – जैसे बैंकों द्वारा दिए गए ऋण, क्रेडिट कार्ड, व्यापारिक बिल, चेक आदि। यह साख मुद्रा की उपस्थिति पर निर्भर है। यदि मुद्रा न हो, तो साख का निर्माण और उपयोग सम्भव नहीं होता।
मुख्य बिंदु
- बैंक तभी साख दे सकते हैं जब उनके पास नकद मुद्रा का पर्याप्त भंडार हो।
- चेक, ड्राफ्ट आदि सभी मुद्रात्मक वादों पर आधारित होते हैं।
- मुद्रा स्वयं भुगतान का माध्यम है, परंतु यह साख द्वारा भुगतान के साधनों के निर्माण का आधार भी है।
4. पूँजी को सामान्य रूप देना (General Form to Capital)
विभिन्न परिसंपत्तियों – जैसे भूमि, भवन, आभूषण, पशु, आदि – का मूल्य अलग-अलग तरीकों से आंका जाता है। मुद्रा इन सभी को एक सामान्य मापदंड प्रदान करती है, जिससे उनकी तुलना और विनिमय सम्भव होता है।
महत्व
- इससे पूँजी की तरलता बढ़ती है।
- पूँजी के गतिशील प्रयोग को प्रोत्साहन मिलता है।
- निवेशक विभिन्न परिसंपत्तियों में आसानी से निवेश या विनिवेश कर सकता है।
इनके अतिरिक्त मुद्रा के कुछ ऐसे कार्य भी हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं:
(घ) मुद्रा के अन्य कार्य (Other Functions)
मुद्रा आधुनिक आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ है। इसके अभाव में विनिमय, उत्पादन, वितरण तथा उपभोग जैसी प्रक्रियाएँ सुचारु रूप से नहीं चल सकतीं। प्रारंभ में मुद्रा का उपयोग केवल विनिमय के माध्यम के रूप में होता था, परंतु जैसे-जैसे आर्थिक जीवन जटिल होता गया, मुद्रा के कार्यों में भी विविधता और विस्तार आता गया। वर्तमान समय में मुद्रा न केवल स्थैतिक कार्यों को पूरा करती है, बल्कि आर्थिक जीवन में गति लाकर प्रावैगिक कार्यों का भी निर्वहन करती है।
मुद्रा के पारंपरिक कार्यों (जैसे – विनिमय का माध्यम, मूल्य मापन, मूल्य संचय आदि) के अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण कार्य भी हैं, जिनका वर्णन प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने किया है। इस लेख में हम मुद्रा के स्थैतिक और प्रावैगिक कार्यों का विस्तृत विश्लेषण किया गया है तथा उन अन्य महत्वपूर्ण कार्यों पर भी चर्चा किया गया है जो मुद्रा को एक बहुआयामी उपकरण बनाते हैं।
(क) तरलता-दायक (Money as Liquid Asset)
जॉन मेनार्ड केन्स के अनुसार, मुद्रा का एक प्रमुख कार्य पूंजी को तरलतम रूप प्रदान करना है। उनका मानना था कि व्यक्ति मुद्रा को निम्न तीन उद्देश्यों से अपने पास रखता है:
- लेन-देन उद्देश्य (Transactions Motive) – दैनिक खर्चों के लिए।
- सुरक्षा उद्देश्य (Precautionary Motive) – आकस्मिक आवश्यकताओं के लिए।
- सट्टा उद्देश्य (Speculative Motive) – लाभ कमाने हेतु, विशेषकर निवेश में।
मुद्रा की तरलता इसे अन्य सभी सम्पत्तियों की तुलना में अधिक उपयोगी बनाती है, क्योंकि इसे तुरंत और बिना मूल्य हानि के उपयोग किया जा सकता है।
(ख) निर्णय-वाहक (Bearer of Option)
ग्रहैम (Graham) के अनुसार, मुद्रा के रूप में बचाई गई पूंजी को भविष्य में किसी भी उद्देश्य के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। मनुष्य के उद्देश्य समय के साथ बदलते रहते हैं और केवल मुद्रा ही ऐसी वस्तु है जो विभिन्न संभावित निर्णयों के अधीन लचीले रूप में कार्य कर सकती है।
(ग) शोधनक्षमता सूचक (Guarantor of Solvency)
आर. पी. केण्ट (R. P. Kent) ने कहा है कि मुद्रा, विशेष रूप से तरल मुद्रा, किसी व्यक्ति या संस्था की शोधनक्षमता (Solvency) की गारंटी होती है। यदि किसी संस्था के पास पर्याप्त तरल निधि नहीं होती है तो उसे दिवालिया घोषित किया जा सकता है। अतः तरल मुद्रा एक प्रकार से आर्थिक स्थिरता और भरोसे का प्रतीक होती है।
मुद्रा के स्थैतिक एवं प्रावैगिक कार्य (Static and Dynamic Functions of Money)
पॉल ऐनजिग (Paul Einzig) ने मुद्रा के कार्यों को दो प्रमुख वर्गों में बाँटा है – स्थैतिक कार्य और प्रावैगिक कार्य। यह वर्गीकरण मुद्रा के प्रभाव क्षेत्र और आर्थिक जीवन में उसकी भूमिका को बेहतर समझने में सहायक होता है।
(क) स्थैतिक कार्य (Static Functions of Money)
ये वे कार्य हैं जिनसे आर्थिक क्रियाओं का संचालन होता है, लेकिन इनसे अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष गति उत्पन्न नहीं होती। इन्हें निष्क्रिय (Passive), परम्परागत (Traditional), स्थिर (Fixed) तथा तकनीकी (Technical) कार्य भी कहा जाता है। इन कार्यों में शामिल हैं:
- विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)
- मूल्य मापक (Measure of Value)
- मूल्य संचय (Store of Value)
- स्थगित भुगतान का साधन (Standard of Deferred Payment)
- क्रय शक्ति का हस्तांतरण (Transfer of Purchasing Power)
इन कार्यों के माध्यम से एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था में मूल्य-प्रणाली का संचालन होता है और लागत, विक्रय मूल्य, माँग-आपूर्ति, उत्पादन-उपभोग जैसे तत्वों में संतुलन स्थापित होता है।
(ख) प्रावैगिक कार्य (Dynamic Functions of Money)
ये वे कार्य हैं जिनके माध्यम से मुद्रा आर्थिक गतिविधियों को सक्रिय रूप से प्रभावित करती है। वर्तमान समय में यह कार्य अत्यधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं क्योंकि इनसे आर्थिक जीवन की गति और दिशा निर्धारित होती है। इन कार्यों में शामिल हैं:
- मूल्य स्तर को प्रभावित करना (Influencing Price Level)
मुद्रा की माँग और पूर्ति में परिवर्तन से मूल्य स्तर में बदलाव आता है, जिससे उत्पादन, रोजगार, आय इत्यादि प्रभावित होते हैं। - मुद्रास्फीति और मंदी को नियंत्रित करना
मुद्रा की अधिक आपूर्ति से मुद्रास्फीति की स्थिति बनती है, जबकि कम आपूर्ति से आर्थिक मंदी उत्पन्न हो सकती है। - ब्याज दर, बचत, निवेश और सरकारी व्यय को प्रभावित करना
मौद्रिक नीति के माध्यम से सरकार तथा केंद्रीय बैंक ब्याज दरों और निवेश गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं। - उत्पादन और आय में वृद्धि
मुद्रा के संचालन से उत्पादन को बढ़ावा मिलता है, जिससे आय और रोजगार के अवसर बढ़ते हैं। - वित्तीय नियोजन में सहायता
मुद्रा के माध्यम से सरकार घाटे का बजट बना सकती है और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए योजनाएँ संचालित कर सकती है। - संपत्ति के वितरण में समानता
सही मौद्रिक नीतियों के माध्यम से समाज में धन के वितरण में असमानता को कम किया जा सकता है।
स्थैतिक और प्रावैगिक कार्यों में संतुलन की आवश्यकता
कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि मुद्रा की मात्रा अथवा उसका मूल्य अत्यधिक बदलता है, तो स्थैतिक कार्यों में व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। विशेष रूप से मूल्य-मापन और स्थगित भुगतान जैसे कार्य प्रभावित हो सकते हैं। पॉल ऐनजिग का मानना है कि स्थैतिक कार्यों के लिए मुद्रा के मूल्य में स्थिरता (Stability) अत्यंत आवश्यक है। यद्यपि थोड़े-मोठे मूल्य परिवर्तन से मुद्रा के कार्यों पर विशेष असर नहीं पड़ता, परंतु अत्यधिक अस्थिरता मुद्रा की कार्यशीलता को बाधित कर सकती है।
दूसरी ओर, प्रावैगिक कार्यों को प्रभावी रूप से संपादित करने के लिए कभी-कभी मूल्य-स्थिरता को आंशिक रूप से त्यागना आवश्यक हो जाता है। अतः मुद्रा की मात्रा तथा मूल्य पर उचित नियंत्रण रखकर ही स्थैतिक और प्रावैगिक कार्यों में संतुलन बनाना सम्भव है।
मुद्रा का आधारभूत कार्य
आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में मुद्रा एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है, जो न केवल व्यापार और विनिमय की प्रक्रिया को सरल बनाती है, बल्कि आर्थिक विकास की दिशा और गति को भी प्रभावित करती है। मुद्रा की भूमिका को समझने के लिए उसके मूल कार्यों को जानना आवश्यक है। प्रो. चैण्डलर का मत है कि मुद्रा ‘चलन का चक्का’ (The great wheel of circulation) तथा ‘व्यापार का यंत्र’ (The great instrument of commerce) है, जो सम्पूर्ण आर्थिक गतिविधियों का आधार है। इसका यह अर्थ है कि मुद्रा के बिना आधुनिक अर्थव्यवस्था की कल्पना करना असम्भव है।
मुद्रा का मूल या आधारभूत कार्य: विनिमय का माध्यम
अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मुद्रा का विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange) होना उसका सबसे मूलभूत एवं प्राथमिक कार्य है। यह कार्य अन्य सभी मौद्रिक कार्यों की जड़ मानी जाती है, क्योंकि वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान की प्रक्रिया को सरल, सहज एवं त्वरित बनाने का कार्य मुद्रा ही करती है।
पुरातन समय में जब वस्तु-विनिमय प्रणाली (Barter System) प्रचलित थी, तब लेन-देन की प्रक्रिया अत्यंत जटिल और सीमित थी। परंतु मुद्रा के आगमन के साथ ही लेन-देन की प्रक्रिया न केवल सरल हुई, बल्कि व्यापक भी हो गई। यह विनिमय-माध्यम के रूप में मुद्रा की अद्वितीय विशेषता है, जिसने संपूर्ण आर्थिक ढांचे को गति दी।
अन्य परंपरागत कार्य एवं उनका संबंध
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैन्सन के अनुसार, मुद्रा के सभी पारंपरिक अथवा स्थैतिक कार्य, जैसे कि मूल्य का मापदण्ड (Measure of Value), मूल्य का भंडारण (Store of Value), भविष्य की देनदारियों का भुगतान (Standard of Deferred Payment) आदि, वास्तव में मुद्रा के विनिमय-माध्यम कार्य की ही शाखाएँ हैं। इन सभी कार्यों का मूलाधार यह है कि मुद्रा को लोग वस्तुओं और सेवाओं के बदले स्वीकार करते हैं और उसे भविष्य में भी स्वीकार किया जाएगा — इस विश्वास के कारण ही मुद्रा इन कार्यों को निभा पाती है।
यद्यपि विनिमय का माध्यम कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, परन्तु यह कहना गलत होगा कि अन्य कार्य गौण हैं। प्रत्येक कार्य का अपना स्थान और महत्व है। उदाहरण के लिए, मूल्य मापन का कार्य व्यापारियों को वस्तुओं की तुलना करने में सहायक होता है, जबकि मूल्य भंडारण का कार्य लोगों को भविष्य के लिए बचत करने की सुविधा देता है।
वर्तमान युग में मुद्रा की भूमिका
वर्तमान समय में मुद्रा का कार्य केवल परंपरागत सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। आज की जटिल आर्थिक प्रणाली में मुद्रा एक नीतिगत उपकरण (Policy Instrument) बन चुकी है, जिसके माध्यम से सरकारें देश की आर्थिक गति, मुद्रा स्फीति (Inflation), निवेश और उत्पादन को नियंत्रित करती हैं। मौद्रिक नीति (Monetary Policy) के माध्यम से केंद्रीय बैंक मुद्रा की आपूर्ति, ब्याज दर, ऋण सुविधा आदि को प्रभावित करता है, जो सीधे-सीधे आर्थिक विकास और स्थिरता से जुड़ी होती हैं।
इसलिए, आज मुद्रा केवल ‘माध्यम’ नहीं, बल्कि आर्थिक नियोजन का एक सशक्त उपकरण बन चुकी है।
मुद्रा की गतिशील प्रकृति
मुद्रा की प्रकृति परिवर्तनशील है। “मुद्रा वह है जो मुद्रा का कार्य करे” — यह वाक्य इस बात की पुष्टि करता है कि मुद्रा की परिभाषा उसके कार्यों के साथ जुड़ी हुई है और जैसे-जैसे आर्थिक प्रणाली विकसित होती है, मुद्रा के कार्यों में भी परिवर्तन आता है।
टेस्कॉट ने मुद्रा की तुलना एक रासायनिक उत्प्रेरक से की है, जो रासायनिक क्रिया को संभव तो बनाता है, किंतु स्वयं उस अंतिम यौगिक का भाग नहीं बनता। उसी प्रकार मुद्रा आर्थिक क्रियाओं को सुगम बनाती है, पर स्वयं उपभोग की वस्तु नहीं होती।
डच अर्थशास्त्री पियर्सन ने इसे रेलवे स्टेशन के शंटिंग इंजन से तुलना करते हुए बताया कि यह इंजन विभिन्न डिब्बों को सही पटरियों पर लाकर उन्हें गंतव्य तक पहुँचने में मदद करता है, किंतु स्वयं स्टेशन नहीं छोड़ता। इसी तरह, मुद्रा लोगों और संस्थाओं के बीच संसाधनों के प्रवाह को दिशा देती है, परन्तु उसका उद्देश्य स्वयं उपयोग में आना नहीं, बल्कि उपयोग को संभव बनाना है।
मुद्रा के कार्यों का विकास मानव आर्थिक इतिहास के क्रमिक विकास के साथ-साथ हुआ है। समय के साथ इसमें परिवर्तन, परिष्कार और विस्तार देखने को मिला है। आज मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि आर्थिक प्रवाह का आधार बन चुकी है। यह एक साधन (Means) है, साध्य (End) नहीं। आर्थिक गतिविधियों को संतुलित रखने, संसाधनों के वितरण को नियंत्रित करने, और आर्थिक विकास को दिशा देने में मुद्रा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि मुद्रा का आधारभूत कार्य — विनिमय का माध्यम ही वह मूल स्तम्भ है, जिस पर संपूर्ण आर्थिक प्रणाली टिकी हुई है, किंतु अन्य कार्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि वे सभी इस मूल कार्य के ही विस्तार हैं। मुद्रा की सफलता इसी में है कि वह समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार अपने कार्यों को नए रूप में ढालती रही है — और यही इसकी गतिशीलता और महत्ता का प्रमाण है।
मुद्रा का महत्त्व केवल आर्थिक क्रियाओं तक सीमित नहीं है; यह समाज, संस्कृति, राजनीति और वैश्विक सम्बन्धों को भी प्रभावित करती है। मुद्रा के कार्य केवल विनिमय तक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे मूल्य निर्धारण, बचत, निवेश, उत्पादन, वितरण और साख निर्माण जैसे क्षेत्रों में गहराई से अंतर्निहित हैं। “मुद्रा एक साधन (means) है, साध्य (end) नहीं।”
किनले द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण – प्राथमिक, सहायक और आकस्मिक कार्य – मुद्रा की व्यापकता को समझने का सशक्त माध्यम है। मुद्रा एक शक्तिशाली सामाजिक-संस्था है, जिसकी अनुपस्थिति में आधुनिक समाज और अर्थव्यवस्था की कल्पना करना असम्भव है। अतः कहा जा सकता है कि मुद्रा केवल धातु या कागज का टुकड़ा नहीं, बल्कि आधुनिक सभ्यता का आधार स्तंभ है।
Economics – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें –
- मुद्रा एवं मुद्रा मूल्य | Money and Value of Money
- मुद्रा: प्रकृति, परिभाषाएँ, कार्य, और विकास | Money: Nature, Definitions, Functions, and Evolution
- मुद्रा की परिभाषा एवं सम्बन्धित विभिन्न दृष्टिकोण
- क्लोनिंग, जीन एडिटिंग और विलुप्ति-उन्मूलन
- विलुप्त डायर वुल्फ का पुनर्जन्म | विज्ञान की अद्भुत उपलब्धि
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