आधुनिक आर्थिक प्रणाली में ‘मुद्रा’ (Money) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह केवल विनिमय का साधन नहीं, बल्कि मूल्य का मापक, क्रय शक्ति का संचय और भविष्य के भुगतानों की इकाई के रूप में भी कार्य करती है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मुद्रा की परिभाषा को लेकर कई विचारधाराएँ प्रस्तुत की गई हैं। कुछ विद्वान मुद्रा की संकीर्ण परिभाषा को उचित मानते हैं, जबकि कुछ व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हैं। वहीं, कुछ विद्वान मुद्रा की किसी निश्चित परिभाषा को ही स्वीकार नहीं करते।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडविन कैनन (Edwin Cannan) और उनके समर्थकों का मानना है कि मुद्रा की कोई निश्चित परिभाषा देना व्यर्थ है। उनके अनुसार, मुद्रा एक ऐसी सामाजिक अवधारणा है जो समय और परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। परंतु यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से तर्कसंगत नहीं माना जा सकता, क्योंकि किसी भी विषय की समुचित समझ के लिए उसकी स्पष्ट परिभाषा आवश्यक होती है।
इस लेख में हम मुद्रा की विभिन्न परिभाषाओं और उनसे जुड़ी विचारधाराओं का गहन अध्ययन करेंगे। साथ ही, यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि विभिन्न विद्वानों ने मुद्रा की परिभाषा में क्या तत्व सम्मिलित किए और उनका औचित्य क्या है।
मुद्रा की अवधारणा
मुद्रा की अवधारणा स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील है। यह अमूर्त (मूल्य-मापक) और मूर्त (भुगतान माध्यम) दोनों रूपों में विद्यमान है। जहाँ क्रॉथर और कैसल जैसे विद्वानों ने इसके मूल कार्यों पर प्रकाश डाला, वहीं फ्राइडमैन और गुरले-शॉ ने इसे व्यापक संदर्भ में परिभाषित किया।
आधुनिक युग में, ब्लॉकचेन और क्रिप्टोकरेंसी जैसी तकनीकों ने मुद्रा के स्वरूप को और परिवर्तित कर दिया है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए, मुद्रा का संकुचित और व्यापक दोनों दृष्टिकोण समान रूप से प्रासंगिक हैं—एक ओर नकदी की उपलब्धता, तो दूसरी ओर डिजिटल भुगतानों का विस्तार। अंततः, मुद्रा की परिभाषा उसके कार्यों और समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ही निर्धारित होती है।
मुद्रा की परिभाषा से सम्बंधित विभिन्न दृष्टिकोण
कुछ विद्वान, जैसे कि एडविन कैनन (Edwin Cannan), मुद्रा की कोई परिभाषा देने के पक्ष में नहीं हैं। उनका तर्क है कि मुद्रा की प्रकृति इतनी व्यापक और जटिल है कि उसे किसी एक परिभाषा में सीमित करना उचित नहीं। किन्तु यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक अध्ययन के दृष्टिकोण से उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि किसी भी विषय का व्यवस्थित और वैज्ञानिक विश्लेषण तभी संभव होता है जब उसकी एक स्पष्ट और सर्वमान्य परिभाषा हो।
मुद्रा की विभिन्न परिभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने या तो संकुचित दृष्टिकोण (narrow approach) अपनाया है या फिर व्यापक दृष्टिकोण (broad approach)। संकुचित दृष्टिकोण के अन्तर्गत मुद्रा के दो प्रमुख पक्षों पर बल दिया गया है—
- मुद्रा का अमूर्त रूप (Abstract Side of Money)
- मुद्रा का मूर्त रूप (Concrete Side of Money)
अमूर्त रूप वह होता है जिसमें मुद्रा को केवल मूल्य-मापक (measure of value) या लेखे की इकाई (unit of account) के रूप में देखा जाता है। स्वीडन के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गुस्ताव कैसल (Gustav Cassel) के अनुसार—
“मुद्रा वह वस्तु है जो अन्य वस्तुओं का मूल्य मापने के लिए सामान्य मापक के रूप में कार्य करती है। इसका मूलभूत कार्य एक ऐसे आधार के रूप में कार्य करना है जिसके द्वारा विनिमय योग्य वस्तुओं के मूल्य निर्धारित किये जा सकें।”
वहीं, मूर्त रूप के अन्तर्गत वे सभी साधन आते हैं जो प्रत्यक्ष रूप में लेन-देन के कार्य में प्रयुक्त होते हैं, जैसे सिक्के, नोट, आदि। परंपरागत रूप से मुद्रा के इसी मूर्त पक्ष को अधिक महत्व दिया गया है। परन्तु यदि हम मुद्रा की वास्तविक प्रकृति को समझना चाहें, तो दोनों ही पक्षों—अमूर्त और मूर्त—को समान रूप से महत्व देना आवश्यक है।
संकुचित दृष्टिकोण के अनुसार केवल सिक्के और कागजी नोट ही मुद्रा माने जाते हैं, जबकि बैंक ड्राफ्ट, विनिमय पत्र (bills of exchange), चेक, आदि साख-पत्र (credit instruments) को मुद्रा के रूप में नहीं स्वीकारा जाता। यह दृष्टिकोण विशुद्धतः वैधानिक (legalistic) है, जो मुद्रा की वास्तविक कार्यात्मक प्रकृति को प्रतिबिंबित नहीं करता।
मुद्रा की पहचान का सबसे महत्वपूर्ण आधार उसकी सर्वमान्यता (general acceptability) है। यदि कोई वस्तु लेन-देन के सभी पक्षों द्वारा स्वीकार की जाती है, तो वह मुद्रा की श्रेणी में आती है, चाहे उसे राज्य की वैधानिक मान्यता प्राप्त हो या नहीं।
इस आधार पर हम मुद्रा को दो भागों में बाँट सकते हैं—
- विधिसम्मत मुद्रा (Legal Tender) — जिसे राज्य की वैधानिक मान्यता प्राप्त हो और जिसे सभी व्यक्ति भुगतानों में स्वीकार करने के लिए बाध्य हों।
- साख-मुद्रा (Credit Money) — जिसे सभी लोग अपने विश्वास के आधार पर स्वीकार करते हैं, भले ही उसे वैधानिक स्वीकृति प्राप्त न हो।
यहाँ यह कथन प्रासंगिक है कि—
“सभी चलार्थ (currency) मुद्रा होती है, लेकिन सभी मुद्रा चलार्थ नहीं होती”
(All currency is money, but all money is not currency.)
संकीर्ण (संकुचित) दृष्टिकोण (Narrow Approach) और उसके अंतर्गत परिभाषाएँ
मुद्रा आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यह केवल विनिमय का माध्यम ही नहीं, बल्कि मूल्य का मापक, संचय का साधन, और आर्थिक नीतियों का केंद्रबिंदु भी है। मुद्रा की अवधारणा को समझने के लिए इसके दो पहलुओं—अमूर्त (Abstract) और मूर्त (Concrete) पर विचार करना आवश्यक है। साथ ही, विभिन्न अर्थशास्त्रियों के दृष्टिकोण, मुद्रा के विस्तारित रूप (जैसे साख-मुद्रा), और भुगतान प्रणालियों के आधुनिकीकरण को भी समझना महत्वपूर्ण है।
संकुचित दृष्टिकोण (संकीर्ण दृष्टिकोण) पर आधारित परिभाषायें मुद्रा के दो रूप स्पष्ट करती हैं –
- (क) मुद्रा का अमूर्त रूप (Abstract Side of Money) – मूल्य-मापक और लेखा इकाई
- (ख) मुद्रा का मूर्त रूप (Concrete Side of Money) – सिक्के, नोट, और भौतिक माध्यम
मुद्रा के इन दो स्वरूपों में देखा गया है:
(क) मुद्रा का अमूर्त रूप (Abstract Side of Money) | मूल्य-मापक और लेखा इकाई
इसमें मुद्रा को मूल्य-मापन की इकाई के रूप में देखा जाता है। इसका कार्य मुख्यतः “लेखे की इकाई” (unit of account) का होता है।
स्वीडन के अर्थशास्त्री गस्टव कैसल के अनुसार,
“मुद्रा वह वस्तु है जो अन्य वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने हेतु सामान्य मापक का कार्य करती है।”
मुद्रा का अमूर्त पक्ष उसकी मूल्य-मापक (Measure of Value) और लेखा इकाई (Unit of Account) के रूप में भूमिका से जुड़ा है। उदाहरण के लिए, भारत में “रुपया” मूल्य की इकाई है जिसके आधार पर वस्तुओं की कीमतें (जैसे 100 रुपये/किलो चावल) तय होती हैं। यह पक्ष मुद्रा को एक सैद्धांतिक संरचना प्रदान करता है, जो आर्थिक लेन-देन को सुव्यवस्थित करता है।
(ख) मुद्रा का मूर्त रूप (Concrete Side of Money) | सिक्के, नोट, और भौतिक माध्यम
इसमें मुद्रा के भौतिक स्वरूप जैसे सिक्के, नोट, पत्र-मुद्राएँ आदि सम्मिलित होते हैं जो प्रतिदिन के विनिमय में उपयोग होते हैं।
मुद्रा का मूर्त रूप वह है जिसे हम स्पर्श कर सकते हैं—सिक्के, नोट, चेक, ड्राफ्ट आदि। ये भौतिक या डिजिटल स्वरूप में हो सकते हैं और दैनिक लेन-देन में प्रयुक्त होते हैं। हालाँकि, संकुचित दृष्टिकोण रखने वाले विद्वान केवल सिक्कों और नोटों को ही “मुद्रा” मानते हैं, जबकि व्यापक दृष्टिकोण में बैंक जमा, क्रेडिट कार्ड, और डिजिटल भुगतान साधन भी शामिल हैं।
संकुचित परिभाषा: क्रॉथर का दृष्टिकोण
अंग्रेजी अर्थशास्त्री क्रॉथर के अनुसार:
“Money can be defined as anything that is generally accepatable as a means of exchange (i.e. as a means of settling debts) and at the same time acts as a measure and as a store of value.”
“मुद्रा की परिभाषा किसी ऐसे वस्तु के रूप में की जा सकती है जो विनिमय के माध्यम (अर्थात ऋणों के निपटाने के माध्यम) के रूप में सामान्यता स्वीकार की जाती है और साथ ही मूल्य मापक तथा मूल्य संचय का कार्य करती है।”
इस परिभाषा में मुद्रा के तीन कार्य—विनिमय, मापन, और संचय पर बल दिया गया है। हालाँकि, यह केवल भौतिक मुद्रा (नोट-सिक्के) और माँग जमाराशियों (Demand Deposits) तक सीमित है।
मुद्रा की सर्वमान्यता एवं वैधानिक स्वीकृति | Universal recognition and legality of currency
मुद्रा का प्रमुख आधार सर्वमान्यता (General Acceptability) है। इसके लिए वैधानिक स्वीकृति (Legal Tender) अनिवार्य नहीं है।
- विधिमान्य मुद्रा (Legal Tender): वह मुद्रा जिसे कानूनन भुगतान के लिए स्वीकार करना अनिवार्य है। इसके अंतर्गत सरकार द्वारा घोषित नोट-सिक्के, जिन्हें ऋण चुकाने के लिए स्वीकार करना अनिवार्य है।
- साख मुद्रा (Credit Money): ऐसी मुद्रा जो वैधानिक न होते हुए भी व्यवहार में सामान्यतः स्वीकार्य होती है। बैंक जमा, चेक आदि, जिनकी स्वीकार्यता सरकारी आदेश पर नहीं, बल्कि जनविश्वास पर निर्भर है।
अतः सभी करेंसी मुद्रा होती है, परंतु सभी मुद्राएँ करेन्सी नहीं होतीं — “All currency is money, but all money is not currency.”
व्यापक दृष्टिकोण (Comprehensive approach) और उसके अंतर्गत परिभाषाएँ
व्यापक दृष्टिकोण अपनाने वाले अर्थशास्त्री मुद्रा की परिभाषा में वे सभी वस्तुएँ एवं संस्थाएँ सम्मिलित करते हैं जो मुद्रा का कार्य करती हैं।
- अर्थशास्त्री फ्रांसिस वॉकर (Francis Walker) मानते हैं कि “मुद्रा वह है जो मुद्रा का कार्य करे।”
- हार्टले विदर्स (Hartley Withers) का मानना है कि “मुद्रा वह सामग्री है जिसके द्वारा हम वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हैं।”
- कार्ल हैलफरिक के अनुसार, “मुद्रा से हमारा आशय उन सब वस्तुओं एवं संस्थाओं से है जो एक दिए हुए क्षेत्र तथा एक दी हुई प्रणाली में व्यक्तियों के बिच आर्थिक सहयोग (अर्थात मूल्य के अन्तरण) में सुविधा पहुचती है।”
ये परिभाषाएं इतनी व्यापक हैं की इन्हें परिभाषा कहना ही गलत है। इनके आधार पर मुद्रा का सीमाकरण करना बहुत कठिन हो जाता है।
कोल्बोर्न (Coulborn) ने इन परिभाषाओं को ‘सामान्य स्वीकृति की व्यावसायिक विचारधारा (Commercial View of General Acceptability)’ के नाम से संबोधित किया है। उन्होंने इसे मुद्रा की परिभाषा का आवश्यक अंग माना है।
गुस्ताव कैसल मुद्रा को “सामाजिक आर्थिक सहयोग का साधन” मानते हैं, जबकि हॉल्किन ने इसे और व्यापक बनाते हुए कहा:
“मुद्रा उन सभी संस्थाओं और वस्तुओं को समेटती है जो आर्थिक लेन-देन को सुगम बनाती हैं।”
इस दृष्टिकोण में बैंक ड्राफ्ट, विनिमय-बिल, यहाँ तक कि क्रिप्टोकरेंसी भी शामिल हो जाती है।
मुद्रा के प्रकार और आधुनिक भुगतान प्रणालियाँ | व्यावहारिक पक्ष
करेंसी और साख-मुद्रा का संतुलन | भारत में मुद्रा प्रणाली
भारत जैसे देश में, जहाँ बैंकिंग प्रणाली का विकास धीरे-धीरे हुआ है, वहाँ शुरुआत में करेंसी का ही अधिक उपयोग हुआ।
- भारत का उदाहरण: 1950 के दशक में देश की मुद्रा पूर्ति का 85% करेंसी (नोट-सिक्के) था, क्योंकि बैंकिंग प्रणाली अविकसित थी। 2020 तक यह अनुपात घटकर 20% रह गया, क्योंकि डिजिटल भुगतान और बैंक जमा बढ़े।
- पश्चिमी देश: यहाँ करेंसी का हिस्सा केवल 5-10% है, क्योंकि क्रेडिट कार्ड, ऑनलाइन ट्रांजैक्शन, और बैंकिंग संस्थाओं का प्रभुत्व है।
भुगतान प्रणाली का आधुनिकीकरण
- MICR (चुंबकीय स्याही पहचान): चेक समाशोधन को तीव्र और सुरक्षित बनाने की तकनीक।
- इलेक्ट्रॉनिक समाशोधन सेवा (ECS): बिजली बिल, वेतन जमा आदि के स्वचालित लेन-देन।
- EFT (इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण): रियल-टाइम बड़ी राशि के हस्तांतरण की सुविधा।
- क्रेडिट कार्ड और एटीएम: “प्लास्टिक मुद्रा” के रूप में पहचान, जो भौतिक नकदी की निर्भरता घटाती है।
- VSAT नेटवर्क: उपग्रह आधारित त्वरित अंतर्राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली।
जॉनसन (Johnson) के अनुसार मुद्रा की परिभाषा से सम्बंधित दृष्टिकोण
जॉनसन (Johnson) ने मुद्रा की परिभाषा से सम्बन्धित चार विभिन्न दृष्टिकोणों का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है–
1. परम्परागत दृष्टिकोण (The Conventional Approach)
- सूत्र: M=C+DDM=C+DD
- विशेषताएँ:
- मुद्रा = करेंसी (C) + बैंकों की माँग जमाराशियाँ (DD)।
- यह संकुचित परिभाषा है, जो केवल तरल संपत्तियों को शामिल करती है।
- सीमा: मियादी जमाराशियाँ (FD), बॉन्ड, शेयर आदि इसमें नहीं आते।
यह दृष्टिकोण मुद्रा को मुख्यतः विनिमय के माध्यम (Medium of Exchange) के रूप में देखता है। इसके अनुसार, मुद्रा की परिभाषा में केवल निम्नलिखित तत्व आते हैं:
- चलन (Currency – C): नकद मुद्रा जैसे सिक्के एवं नोट
- माँग निक्षेप (Demand Deposits – DD): बैंक खातों में जमा राशि जिसे कभी भी निकाला जा सकता है
अतः मुद्रा की मात्रा = M = C + DD
यह एक संकीर्ण परिभाषा है जो यह मानती है कि केवल वह परिसम्पत्ति मुद्रा है जो तत्काल विनिमय में प्रयोग की जा सकती है। इस दृष्टिकोण में मियादी जमाराशियाँ या गैर-बैंकिंग संस्थाओं की जमा राशियों को मुद्रा नहीं माना गया है।
2. शिकागो दृष्टिकोण (Chicago Approach)
- प्रतिपादक: मिल्टन फ्राइडमैन (Milton Friedman University of Chicago)।
- सूत्र: M=C+DD+TDM=C+DD+TD
- विशेषताएँ:
- मियादी जमाराशियाँ (TD) और बचत खाते (SB) भी मुद्रा में शामिल।
- तर्क: ये संपत्तियाँ “क्रय शक्ति के अस्थायी निवास” का काम करती हैं।
- महत्व: राष्ट्रीय आय और मुद्रास्फीति के विश्लेषण में उपयोगी।
यह दृष्टिकोण प्रो. मिल्टन फ्रिडमैन तथा शिकागो विश्वविद्यालय के अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। इनके अनुसार, परम्परागत दृष्टिकोण अधूरा है क्योंकि वह केवल तात्कालिक विनिमय योग्य परिसम्पत्तियों तक सीमित है।
शिकागो दृष्टिकोण में मुद्रा की परिभाषा में निम्नलिखित तत्व सम्मिलित होते हैं:
- Currency (C)
- Demand Deposits (DD)
- Time Deposits (TD)
इस प्रकार, मुद्रा की परिभाषा हो जाती है:
M = C + DD + TD
मिल्टन फ्रिडमैन की परिभाषा
“Any asset capable of serving as a temporary abode of purchasing power.”
अर्थात्, “कोई भी परिसम्पत्ति जो क्रय शक्ति का अस्थायी निवास बन सके, वह मुद्रा है।”
इस परिभाषा का अर्थ है कि यदि कोई परिसम्पत्ति इस योग्य है कि भविष्य में उसे व्यय या निवेश के रूप में प्रयोग किया जा सके, तो वह भी मुद्रा है।
शिकागो दृष्टिकोण व्यापक है और इसे आधुनिक मौद्रिक नीतियों में महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह मुद्रा की माँग, आय स्तर और कीमतों पर प्रभाव डालने वाले कारकों को समाहित करता है।
3. गुरले एवं शॉ दृष्टिकोण (Gurley and Shaw Approach)
- सूत्र: M=C+DD+TD+SB+NBFIM=C+DD+TD+SB+NBFI
- विशेषताएँ:
- गैर-बैंक वित्तीय संस्थाओं (NBFI) की जमाराशियाँ और प्रतिस्थापन योग्य संपत्तियाँ शामिल।
- आंतरिक vs बाह्य मुद्रा:
- आंतरिक मुद्रा: बैंकों द्वारा निर्मित (जैसे ऋण आधारित जमाराशियाँ)।
- बाह्य मुद्रा: सरकारी मुद्रा (नोट-सिक्के) और रिज़र्व बैंक की संपत्तियाँ।
गुरले और शॉ ने मुद्रा को और अधिक व्यापक रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार, केवल बैंकिंग संस्थाएँ ही नहीं बल्कि गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ (Non-Banking Financial Institutions – NBFI) भी मुद्रा निर्माण में भाग लेती हैं।
गुरले एवं शॉ दृष्टिकोण में दृष्टिकोण में सम्मिलित तत्व
- C (Currency)
- DD (Demand Deposits)
- TD (Time Deposits)
- NBFI से प्राप्त दावे
- प्रतिस्थापन परिसम्पत्तियाँ (Substitute Assets) जैसे बॉण्ड, बीमा, ऋण-पत्र आदि
गुरले एवं शॉ का महत्त्वपूर्ण योगदान
- उन्होंने परिसम्पत्तियों को उनके तरलता स्तर (liquidity level) के आधार पर भार (weights) प्रदान करने का सुझाव दिया।
- उन्होंने मुद्रा की कुल मात्रा को आन्तरिक मुद्रा (Inside Money) और बाह्य मुद्रा (Outside Money) में विभाजित किया।
आन्तरिक मुद्रा
- वह मुद्रा जो निजी क्षेत्र द्वारा, जैसे बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं द्वारा निर्मित होती है
- यह निजी ऋण पर आधारित होती है
बाह्य मुद्रा
- सरकार द्वारा निर्गत मुद्रा
- यह सार्वजनिक ऋण पर आधारित होती है
इस दृष्टिकोण में मुद्रा केवल क्रय-विक्रय का माध्यम नहीं, बल्कि समस्त अर्थव्यवस्था में साख सृजन की प्रक्रिया का हिस्सा मानी जाती है।
4. केन्द्रीय बैंक दृष्टिकोण (Central Bank Approach)
- सूत्र: M=C+DD+TD+NBFI+CLAM=C+DD+TD+NBFI+CLA
- विशेषताएँ:
- सभी स्रोतों से उपलब्ध साख (CLA = असंगठित ऋण) को सम्मिलित करना।
- उद्देश्य: मौद्रिक नीति निर्धारण के लिए समग्र साख आपूर्ति को मापना।
यह दृष्टिकोण मुख्यतः मौद्रिक नीति निर्माण के लिए अपनाया जाता है। इसके अनुसार, मुद्रा की परिभाषा में वे सभी तत्व आते हैं जो देश की कुल साख (Total Credit) में योगदान करते हैं।
केन्द्रीय बैंक दृष्टिकोण में शामिल तत्व
- Currency (C)
- Demand Deposits (DD)
- Time Deposits (TD)
- NBFI द्वारा दिए गए ऋण
- असंगठित स्रोतों से प्राप्त साख (CLA)
मुद्रा की कुल मात्रा = M = C + DD + TD + NBFI + CLA
केन्द्रीय बैंक का ध्यान विशेष रूप से साख की मात्रा, ब्याज दर, और तरलता प्रबन्धन पर होता है। यह दृष्टिकोण आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में सहायक होता है।
भारतीय संदर्भ में प्रासंगिकता
बैंकिंग प्रणाली का विकास
- 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद भारत में बैंक शाखाओं, एटीएम, और डिजिटल लेन-देन में विस्फोटक वृद्धि हुई।
- जन धन योजना: 2014 में शुरू इस योजना ने 40 करोड़ से अधिक खाते खोले, जिससे वित्तीय समावेशन बढ़ा।
डिजिटल भुगतान क्रांति
- UPI (यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस): 2016 में लॉन्च, जिसने P2P लेन-देन को क्रांतिकारी बनाया।
- रुपे कार्ड: भारत का स्वदेशी कार्ड नेटवर्क, जो VISA/MasterCard पर निर्भरता घटाता है।
चुनौतियाँ
- नकदी पर निर्भरता: छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी 60% लेन-देन नकद में।
- साइबर सुरक्षा: डिजिटल भुगतानों में धोखाधड़ी की घटनाएँ चिंता का कारण।
तरलता आधारित परिभाषा (Liquidity-Based Definition)
मुद्रा की सबसे व्यापक परिभाषा तरलता की अवधारणा पर आधारित है। आधुनिक मौद्रिक सिद्धांतों में यह मान्यता है कि:
“हर वह परिसम्पत्ति जिसमें अधिक तरलता हो, वह मुद्रा के रूप में कार्य कर सकती है।”
तरलता (Liquidity) क्या है?
तरलता का अर्थ है —
“किसी परिसम्पत्ति को बिना मूल्य-हानि, कठिनाई या विलम्ब के नकद मुद्रा में रूपांतरित करने की क्षमता।”
तरल परिसम्पत्तियों के उदाहरण:
- नकद मुद्रा (सर्वाधिक तरल)
- चालू एवं बचत खाते
- अल्पकालीन सरकारी प्रतिभूतियाँ
- शेयर, ऋण-पत्र, बॉण्ड
- बीमा एवं पेंशन फंड
- निश्चितकालीन जमाराशियाँ (Fixed Deposits)
रैडक्लिफ समिति (1957) ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया कि मुद्रा की व्याख्या करते समय तरलता की अवधारणा को मुख्य भूमिका देनी चाहिए।
तरलता की अवधारणा पर विशेषज्ञों के मत
तरलता की परिभाषा को लेकर विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए:
- कुछ के अनुसार, तरलता का प्रमुख गुण अल्पकालिक देयता (short maturity) है।
- कुछ अन्य के अनुसार, विपण्यता (marketability) या बेचनीयता (negotiability) इसका मुख्य आधार है।
- सरल भाषा में, तरलता उस गुण को कहते हैं जो किसी परिसम्पत्ति को शीघ्र नकद में परिवर्तित कर सके।
कौन-सा दृष्टिकोण उचित है?
सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रत्येक परिभाषा की अपनी उपयोगिता है। परंतु व्यवहारिक दृष्टि से —
- परम्परागत दृष्टिकोण मुद्रा की माप और प्रबंधन के लिए सरल और उपयुक्त है।
- जबकि व्यापक दृष्टिकोण (शिकागो, गुरले-शॉ, केन्द्रीय बैंक) मुद्रा के प्रभाव को बेहतर समझने में सहायक होते हैं।
आज के युग में डिजिटल भुगतान, क्रिप्टो करेंसी, नॉन-बैंकिंग फाइनेंस संस्थान आदि के कारण मुद्रा की परिभाषा लगातार विस्तृत होती जा रही है। इसलिए तरलता आधारित परिभाषा आधुनिक अर्थव्यवस्था में अधिक प्रासंगिक मानी जाती है।
मुद्रा के स्वरूप में निरंतर परिवर्तन होते रहे हैं और होते रहेंगे। परंतु उसका मूल उद्देश्य — विनिमय, मूल्य निर्धारण और क्रय शक्ति का संचय सदैव बना रहेगा। अतः मुद्रा को केवल एक संकुचित ढाँचे में सीमित करना उपयुक्त नहीं है। हमें इसे एक लचीली, व्यवहारिक एवं तरल अवधारणा के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
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