मुद्रा का महत्व | Significance of Money

मुद्रा किसी भी अर्थव्यवस्था की धुरी है। इसके बिना न केवल व्यापार और विनिमय की क्रियाएँ असंभव हो जाती हैं, बल्कि आर्थिक संरचना भी चरमरा जाती है। आर्थिक गतिविधियों को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए मुद्रा की आवश्यकता अत्यंत अनिवार्य है। यह केवल एक विनिमय का माध्यम नहीं है, बल्कि मूल्य मापन, संचय, ऋण-निपटान और भविष्य की योजना बनाने का आधार भी है। परंतु, अर्थशास्त्रियों में मुद्रा की भूमिका को लेकर समय-समय पर विभिन्न दृष्टिकोण उभरकर सामने आए हैं। कुछ ने इसे निष्क्रिय तत्व माना है जबकि अन्य ने इसे अर्थव्यवस्था का एक सक्रिय और गतिशील तत्व माना है।

“Money is the pivot around which economic science clusters.”
— Marshall

Table of Contents

मुद्रा की द्वैध प्रकृति | निष्क्रिय बनाम सक्रिय तत्व

मुद्रा को लेकर दो प्रमुख विचारधाराएँ हैं:

  1. निष्क्रिय तत्व (Passive Element): इस विचारधारा के अनुसार, मुद्रा केवल एक सुविधा है। यह स्वयं उत्पादन या आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित नहीं करती। यह केवल विनिमय की प्रक्रिया को सरल बनाती है।
  2. सक्रिय तत्व (Active Element): आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, मुद्रा अर्थव्यवस्था में एक सक्रिय तत्व है जो उत्पादन, रोजगार, आय और निवेश पर सीधा प्रभाव डालती है। इससे अर्थव्यवस्था की दिशा और दशा तय होती है।

उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों जैसे कार्ल मार्क्स ने मुद्रा को केवल अनुत्पादक ही नहीं, बल्कि समाज की तमाम बुराइयों की जड़ भी माना। इसके विपरीत आधुनिक विचारकों ने मुद्रा के क्रियात्मक पक्ष को समझा और इसे एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक साधन के रूप में स्थापित किया।

मुद्रा के महत्व से सम्बन्धित विभिन्न दृष्टिकोण

1. प्रतिष्ठित दृष्टिकोण (Classical Approach)

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों जैसे एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो, और जॉन स्टुअर्ट मिल ने मुद्रा को केवल विनिमय का एक साधन माना। उनका मानना था कि:

  • मुद्रा स्वयं कोई उत्पादन नहीं करती।
  • आर्थिक प्रणाली वस्तु-विनिमय (barter system) पर भी कार्य कर सकती है।
  • पूर्ति स्वयं अपनी माँग उत्पन्न कर लेती है (Say’s Law)।

एडम स्मिथ ने मुद्रा की तुलना एक ऐसी सड़क से की थी जिस पर से सभी माल और सेवाएँ गुजरती हैं, लेकिन वह स्वयं कोई उत्पादन नहीं करती। उन्होंने श्रम-विभाजन और विशिष्टीकरण को उत्पादन-वृद्धि का मूल स्रोत माना।

जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा:
“मुद्रा से वस्तुओं का विनिमय एक नया तरीका है, इससे सौदों की प्रकृति नहीं बदलती। समाज के लिए शायद ही कोई चीज मुद्रा से अधिक महत्वहीन हो सकती है।”

2. आधुनिक दृष्टिकोण (Modern Approach)

जॉन मेनार्ड केन्स (J.M. Keynes) के नेतृत्व में आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने यह सिद्ध किया कि मुद्रा अर्थव्यवस्था में निष्क्रिय नहीं बल्कि अत्यंत प्रभावशाली तत्व है। वे मानते हैं कि:

  • मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन से कीमतें, ब्याज दरें, निवेश, और रोजगार प्रभावित होते हैं।
  • मुद्रा की भूमिका केवल विनिमय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समग्र मांग (Aggregate Demand) को प्रभावित करती है।
  • आर्थिक अस्थिरता का प्रमुख कारण मुद्रा की अनियंत्रित आपूर्ति और वितरण है।

केन्स ने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की दीर्घकालीन स्थिरता की अवधारणा की आलोचना करते हुए कहा था:
“In the long run, we are all dead.”

अर्थात् अल्पकाल में भी मुद्रा की भूमिका महत्वपूर्ण है और इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।

मुद्रा के प्रमुख कार्य | Functions of Money

मुद्रा के महत्व को समझने के लिए इसके विभिन्न कार्यों का विश्लेषण आवश्यक है:

1. विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)

मुद्रा का सबसे प्रमुख कार्य है वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान को सुगम बनाना। बिना मुद्रा के वस्तु-विनिमय प्रणाली में समानता और संतुलन प्राप्त करना अत्यंत कठिन होता।

2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Account)

मुद्रा वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य की गणना का आधार प्रदान करती है। इससे मूल्य-निर्धारण पारदर्शी और तुलनीय बनता है।

3. संचय का साधन (Store of Value)

मुद्रा को संग्रहीत किया जा सकता है और भविष्य में भी उसी मूल्य पर उपयोग किया जा सकता है। यह संचय और भविष्य की योजना का एक आधार है।

4. भविष्य की देनदारियों का निपटान (Standard of Deferred Payment)

ऋण और उधारी की व्यवस्था को संभव बनाने में मुद्रा की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह भविष्य में देनदारी के भुगतान की मानक इकाई बनती है।

मुद्रा का उत्पादन एवं आय पर प्रभाव

मुद्रा की मात्रा में वृद्धि या कमी सीधे तौर पर:

  • उपभोग और निवेश को प्रभावित करती है।
  • ब्याज दरों में परिवर्तन के माध्यम से पूँजीगत वस्तुओं की माँग को बढ़ाती या घटाती है।
  • रोजगार और आय के स्तर को प्रभावित करती है।

इस प्रकार, यदि मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित किया जाए, तो इसे एक शक्तिशाली आर्थिक नीति उपकरण (Policy Tool) के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

मुद्रा और आर्थिक अस्थिरता

वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक चक्र (Business Cycle) — जैसे मंदी, महंगाई, उत्थान — मुख्य रूप से मुद्रा और उसकी गतिशीलता पर निर्भर करते हैं। जब मुद्रा की मात्रा अनियंत्रित हो जाती है, तब:

  • महँगाई (Inflation) बढ़ती है।
  • क्रय शक्ति (Purchasing Power) घटती है।
  • वित्तीय असंतुलन उत्पन्न होता है।

इसलिए, मुद्रा का नियमन और उसकी स्थिरता को बनाए रखना आर्थिक नीति का अनिवार्य अंग बन चुका है।

कार्ल मार्क्स और मुद्रा की आलोचना

कार्ल मार्क्स ने मुद्रा को सामाजिक और आर्थिक शोषण का माध्यम बताया। उनके अनुसार:

  • मुद्रा वर्ग संघर्ष को जन्म देती है।
  • यह पूंजीपतियों को श्रमिकों के श्रम का शोषण करने का उपकरण प्रदान करती है।
  • यह सामाजिक असमानता और अन्याय को बढ़ावा देती है।

हालाँकि मार्क्स की आलोचना अपने युग के आर्थिक ढाँचे पर आधारित थी, परंतु आधुनिक समाज में मुद्रा को एक सकारात्मक और रचनात्मक साधन के रूप में देखा जाता है, बशर्ते इसका उपयोग विवेकपूर्वक किया जाए।

एक आवरण के रूप में मुद्रा (Money as a Veil)

मुद्रा की भूमिका को लेकर अर्थशास्त्र में लंबे समय से बहस होती रही है। कुछ अर्थशास्त्री इसे केवल एक माध्यम मानते हैं जबकि अन्य इसे आर्थिक गतिविधियों का सक्रिय चालक मानते हैं। “मुद्रा एक आवरण है” — यह विचार दर्शाता है कि मुद्रा केवल एक ढकाव है, जिसके पीछे वास्तविक आर्थिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं। यह दृष्टिकोण विशेष रूप से शास्त्रीय एवं कुछ नवशास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के मतों में परिलक्षित होता है। परंतु आज की जटिल आर्थिक संरचना में क्या यह दृष्टिकोण अब भी प्रासंगिक है? यह लेख इसी प्रश्न का विश्लेषण करता है।

मुद्रा को एक आवरण मानने की संकल्पना

शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के विचार में मुद्रा का वास्तविक उत्पादन से कोई सीधा संबंध नहीं है। उनका कहना था कि आर्थिक प्रणाली की कार्यशीलता वस्तु-से-वस्तु के विनिमय से भी संभव हो सकती है, मुद्रा केवल उस प्रक्रिया को सरल बनाती है।

प्रो. ए.सी. पीगू, जो केम्ब्रिज स्कूल के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थे, ने अपनी पुस्तक The Veil of Money में मुद्रा को “एक आवरण” के रूप में निरूपित किया है। उन्होंने इंग्लैंड में प्रचलित कुछ कहावतों का उल्लेख करते हुए कहा:

  • “मुद्रा एक आवरण है जिसके पीछे आधिक शक्तियों का कार्य छिपा हुआ है।”
  • “मुद्रा एक आवेष्ठन है जिसमें सामान बँधकर आपके पास आता है।”
  • “मुद्रा एक वस्त्र है जो आर्थिक जीवन रूपी शरीर ने पहना हुआ है।”

इन कथनों के पीछे भाव यह है कि उत्पादन श्रम, कच्चे माल, पूँजी और तकनीक जैसे वास्तविक साधनों से होता है, परंतु चूँकि विनिमय में मुद्रा सामने आती है, अतः लगता है कि वही मूल तत्व है। इसी कारण शास्त्रीय अर्थशास्त्री मुद्रा को निष्क्रिय मानते रहे हैं।

रॉबर्टसन का दृष्टिकोण

केम्ब्रिज अर्थशास्त्री रॉबर्टसन ने भी मुद्रा को एक आवरण मानते हुए कुछ तर्क प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं जहाँ—

  • उद्योग धंधे सक्रिय हों,
  • मजदूरी दरें ऊँची हों,
  • परंतु आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता न हो।

ऐसी दशाओं में, भले ही लोगों के पास मुद्रा हो, उनकी क्रय शक्ति निरर्थक हो जाती है क्योंकि बाज़ार में वस्तुएँ ही अनुपलब्ध होती हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मुद्रा अकेले ही आर्थिक समृद्धि की गारंटी नहीं है। रॉबर्टसन के अनुसार, मुद्रा को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया गया है।

“Supply Creates Its Own Demand” का सिद्धांत

मुद्रा को एक आवरण मानने वाले अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विश्लेषण में मौद्रिक आधार को तिरस्कृत करते हुए वास्तविक आधार को प्राथमिकता दी। उनका मत था कि—

“Supply creates its own demand.”

अर्थात् जब कोई उत्पादक उत्पादन करता है, तो वह स्वचालित रूप से अन्य वस्तुओं की माँग उत्पन्न करता है क्योंकि वह अपनी उपार्जित वस्तु के बदले अन्य वस्तुएँ खरीदना चाहेगा। इस प्रक्रिया में मुद्रा की भूमिका केवल विनिमय के साधन तक सीमित मानी गई।

मुद्रा का वास्तविक महत्व

हालाँकि, आधुनिक अर्थव्यवस्था की दृष्टि से यह दृष्टिकोण अत्यंत संकीर्ण माना जाता है। आज मुद्रा को केवल एक निष्क्रिय माध्यम मान लेना न केवल अनुचित है, बल्कि यह आर्थिक व्यवहार की वास्तविकता से भी परे है।

1. मुद्रा और पूँजी की प्राप्ति

आधुनिक उत्पादन प्रणाली पूँजी पर आधारित है। किसी भी उत्पादक को उत्पादन प्रक्रिया के लिए—

  • कच्चा माल,
  • श्रम,
  • मशीनरी,
  • परिवहन सेवाएँ,
  • और अन्य संसाधनों की आवश्यकता होती है।

इन सभी के लिए मुद्रा की आवश्यकता होती है। बिना मुद्रा के उत्पादन की प्रक्रिया ठप हो सकती है। इस प्रकार मुद्रा न केवल विनिमय बल्कि उत्पादन को भी संचालित करती है।

2. मुद्रा और पूँजी संचय

मुद्रा के माध्यम से पूँजी का संचय संभव होता है। बचत को यदि उचित माध्यम में बदला जाए (जैसे बैंकिंग प्रणाली), तो वह भविष्य के निवेश में प्रयुक्त हो सकती है। इससे आर्थिक विकास को बल मिलता है।

3. मुद्रा और पूँजी की गतिशीलता

मुद्रा के अभाव में पूँजी अचल बनी रहती है। मुद्रा की उपस्थिति पूँजी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक ले जाने की सुविधा प्रदान करती है। इससे पूँजी का अधिकतम एवं कुशलतम उपयोग संभव होता है।

4. श्रम-विभाजन का प्रोत्साहन

श्रम-विभाजन तब ही संभव होता है जब विनिमय सरल हो। यदि किसी कुम्हार को बर्तन बनाकर कपड़े वाले से कपड़े लेने हों, और उन्हें उपयुक्त विनिमय वस्तु न मिले, तो व्यवस्था अस्थिर हो जाएगी। मुद्रा इस असुविधा को समाप्त करती है और विशेषज्ञता को प्रोत्साहन देती है।

मुद्रा का वितरण में योगदान

मुद्रा के माध्यम से ही—

  • श्रमिकों को मजदूरी,
  • उत्पादकों को लाभ,
  • निवेशकों को ब्याज,
  • तथा भूमि स्वामियों को किराया

प्राप्त होता है। इससे राष्ट्रीय आय का वितरण संभव होता है। यह वितरण ही निर्धारण करता है कि कौन-सा वर्ग समाज में कितना संसाधन उपभोग कर सकता है। इस प्रकार मुद्रा सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में भी सहायक बनती है।

मुद्रा के महत्व को कम आंकना इतिहास की एक गंभीर त्रुटि रही है। यह केवल समय और श्रम की बचत का साधन नहीं, बल्कि सम्पूर्ण आर्थिक प्रणाली का आधार है। चाहे वह विनिमय हो, निवेश हो, उत्पादन हो या फिर रोजगार — हर क्षेत्र में मुद्रा की महत्वपूर्ण भूमिका है। आधुनिक आर्थिक ढाँचों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मुद्रा अर्थव्यवस्था की धड़कन है। इसके माध्यम से न केवल वर्तमान की जरूरतें पूरी होती हैं बल्कि भविष्य की संभावनाओं की भी योजना बनाई जाती है।

इसलिए, यह कहना गलत नहीं होगा कि — “मुद्रा केवल एक साधन नहीं, बल्कि आर्थिक जीवन का मेरुदण्ड है।”

पीगू का विरोधाभास

पीगू द्वारा मुद्रा को केवल एक आवरण कहे जाने के बावजूद, उन्होंने यह स्वीकार किया कि मुद्रा की मात्रा यदि आवश्यकता से अधिक हो जाए, तो कीमतों का स्तर बढ़ता है, और यदि कम हो जाए तो मंदी आ सकती है। यह स्वयं सिद्ध करता है कि मुद्रा अर्थव्यवस्था को गहराई से प्रभावित करती है।

यदि मुद्रा मात्र एक आवरण होती, तो उसकी मात्रा में परिवर्तन से कीमतें प्रभावित नहीं होतीं। इस तर्क से स्पष्ट है कि पीगू का “मात्र आवरण” वाला मत वस्तुतः उनके ही कथनों से खंडित होता है।

रॉबर्टसन का मत और उसकी सीमाएँ

रॉबर्टसन ने जिन परिस्थितियों का उल्लेख किया था — जैसे कि वस्तुओं की कमी के बावजूद पर्याप्त मात्रा में मुद्रा का होना — ये विशेषतः युद्ध, प्राकृतिक आपदा या आपूर्ति श्रृंखला के ध्वस्त हो जाने जैसे असामान्य परिदृश्यों में ही उत्पन्न होती हैं।

साधारण आर्थिक परिस्थितियों में यदि मुद्रा की मात्रा पर्याप्त हो और आपूर्ति तंत्र सुचारू रूप से कार्य कर रहा हो, तो यह स्थिति नहीं उत्पन्न होती। इस प्रकार उनके द्वारा दिया गया तर्क असामान्य परिस्थितियों पर आधारित है और सामान्य सिद्धांत के रूप में मान्य नहीं हो सकता।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में मुद्रा की भूमिका

आज की वैश्विक एवं डिजिटल अर्थव्यवस्था में मुद्रा की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है। डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन बैंकिंग, स्टॉक मार्केट, क्रिप्टोकरेंसी—सभी में मुद्रा न केवल विनिमय बल्कि मूल्य संग्रह, मूल्य मापन और भविष्य के भुगतान का साधन बन चुकी है।

मुद्रा: एक आवरण नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था का इंजन

  • मुद्रा के माध्यम से सरकारें मौद्रिक नीति बनाकर महँगाई, ब्याज दर, रोजगार आदि को नियंत्रित करती हैं।
  • केंद्रीय बैंक (जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक) मुद्रा की आपूर्ति और साख नियंत्रण के ज़रिए पूरे वित्तीय ढाँचे को संचालित करते हैं।
  • वित्तीय समावेशन, सूक्ष्म वित्त (microfinance), और मुद्रा योजनाएँ ग्रामीण विकास एवं सामाजिक न्याय के लिए अत्यंत आवश्यक साधन बन चुके हैं।

“मुद्रा एक आवरण है” — यह कथन अर्थशास्त्र के विकास के एक विशेष चरण में उपयुक्त हो सकता है, परंतु आज की बहुआयामी आर्थिक संरचना में यह दृष्टिकोण न केवल पुराना है, बल्कि वास्तविकता से परे भी है। मुद्रा न केवल उत्पादन, वितरण और विनिमय में सक्रिय भूमिका निभाती है, बल्कि यह आर्थिक स्थिरता, सामाजिक समरसता और विकास के लिए अनिवार्य तत्व है।

इस प्रकार यह निष्कर्ष निकालना पूर्णतः उचित है कि—

मुद्रा केवल एक आवरण नहीं, बल्कि आधुनिक अर्थव्यवस्था की आत्मा है।

Economics – KnowledgeSthali


इन्हें भी देखें –

Leave a Comment

Table of Contents

Contents
सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.