भारत का ऑटोमोबाइल उद्योग देश की आर्थिक प्रगति का एक प्रमुख स्तंभ रहा है। यह क्षेत्र न केवल विनिर्माण और तकनीकी नवाचार का स्रोत है, बल्कि निर्यात, रोजगार सृजन और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत की भागीदारी को भी परिभाषित करता है। हाल ही में नीति आयोग द्वारा जारी की गई रिपोर्ट “Automotive Industry: Powering India’s Participation in Global Value Chains” भारत के ऑटोमोटिव सेक्टर की वर्तमान स्थिति, वैश्विक संदर्भ, चुनौतियाँ और भविष्य की दिशा पर एक विस्तृत मूल्यांकन प्रस्तुत करती है।
वैश्विक संदर्भ और तकनीकी प्रवृत्तियाँ
21वीं सदी की दूसरी तिमाही में ऑटोमोबाइल उद्योग एक बड़े संक्रमण से गुजर रहा है। जहां एक ओर वैश्विक मांग में निरंतर वृद्धि देखी जा रही है, वहीं दूसरी ओर तकनीकी नवाचारों के चलते पूरी आपूर्ति श्रृंखला का पुनर्गठन हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार:
- बैटरी निर्माण केंद्रों का उदय: यूरोप, अमेरिका और एशिया के कुछ क्षेत्रों में बैटरी निर्माण केंद्रों की बढ़ती संख्या पारंपरिक आपूर्ति श्रंखलाओं को बदल रही है। इससे भारत जैसे देशों के लिए नये सहयोग और साझेदारी के अवसर खुल रहे हैं।
- इंडस्ट्री 4.0 और डिजिटल क्रांति: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), मशीन लर्निंग (ML), इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT), और रोबोटिक्स जैसी तकनीकों ने उत्पादन की प्रक्रिया को स्मार्ट और स्वचालित बना दिया है। ये स्मार्ट फैक्ट्रियाँ न केवल दक्षता बढ़ाती हैं, बल्कि कनेक्टेड वाहनों के रूप में नए व्यापार मॉडल भी सामने ला रही हैं।
- सेमीकंडक्टर की बढ़ती मांग: अनुमान है कि 2030 तक एक वाहन में सेमीकंडक्टर चिप्स की लागत $600 से बढ़कर $1,200 तक पहुँच जाएगी। इसका सीधा असर उत्पादन लागत, डिज़ाइन और गुणवत्ता पर पड़ेगा।
वैश्विक ऑटो कंपोनेंट और वाहन बाजार
रिपोर्ट में बताया गया है कि 2022 में वैश्विक ऑटो कंपोनेंट बाजार का मूल्य लगभग $2 ट्रिलियन था, जिसमें $700 बिलियन का व्यापार हुआ। वहीं वैश्विक स्तर पर 94 मिलियन यूनिट वाहनों का उत्पादन हुआ और इस क्षेत्र की सालाना विकास दर 4-6% रही। यह दर्शाता है कि आने वाले वर्षों में ऑटोमोबाइल सेक्टर वैश्विक अर्थव्यवस्था के सबसे गतिशील क्षेत्रों में से एक बना रहेगा।
भारत की वर्तमान स्थिति
भारत अब दुनिया का चौथा सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल उत्पादक बन चुका है — चीन, अमेरिका और जापान के बाद। इसकी वार्षिक उत्पादन क्षमता 6 मिलियन यूनिट से अधिक है, जो घरेलू और वैश्विक दोनों बाजारों में भारत की बढ़ती उपस्थिति को दर्शाता है।
- छोटे वाहन और यूटिलिटी सेगमेंट में मजबूती: भारत का प्रमुख योगदान छोटे कार और यूटिलिटी व्हीकल सेक्टर में देखा गया है, जो घरेलू बाजार के साथ-साथ निर्यात में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
- ‘मेक इन इंडिया’ की भूमिका: ‘मेक इन इंडिया’ पहल ने भारत को निर्माण और निर्यात के लिए एक उभरते हुए वैश्विक केंद्र के रूप में प्रस्तुत किया है। यह पहल निवेश, बुनियादी ढांचे और उत्पादन क्षमताओं के विकास में सहायक रही है।
इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में नीति पहलें
इलेक्ट्रॉनिक्स आज के युग में एक ऐसा क्षेत्र है जो न केवल तकनीकी प्रगति का वाहक है, बल्कि किसी भी देश की आर्थिक समृद्धि और रणनीतिक संप्रभुता का भी आधार बन चुका है। स्मार्टफोन, कंप्यूटर, चिकित्सा उपकरण, ऑटोमोबाइल्स, और औद्योगिक स्वचालन जैसे अनेक क्षेत्रों की रीढ़ बन चुकी इलेक्ट्रॉनिक्स इंडस्ट्री भारत के लिए एक विशाल अवसर लेकर आई है।
भारत सरकार ने वर्ष 2030 तक इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन को USD 500 बिलियन तक पहुंचाने और USD 200-225 बिलियन के निर्यात लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नीति निर्माताओं ने दो प्रमुख स्तंभों पर कार्य किया है: एक, राजकोषीय (Fiscal) पहलें और दूसरा, गैर-राजकोषीय (Non-Fiscal) पहलें।
भारत का इलेक्ट्रॉनिक्स दृष्टिकोण: लक्ष्य और रणनीति
भारत को एक वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक्स हब के रूप में स्थापित करने हेतु सरकार ने यह रणनीति बनाई है कि कुल $500 बिलियन के उत्पादन लक्ष्य में से $350 बिलियन तैयार माल (Finished Goods) से आएं और $150 बिलियन घटक पुर्जों (Components) से। इसके लिए केवल उत्पादन को प्रोत्साहन देना पर्याप्त नहीं है, बल्कि R&D, टेक्नोलॉजी, इंफ्रास्ट्रक्चर, ट्रेड पॉलिसी, और टैक्स सुधारों को भी समान रूप से सशक्त बनाना होगा।
नीति पहलों को दो प्रमुख श्रेणियों में बांटा गया है:
- राजकोषीय हस्तक्षेप (Fiscal Interventions) – जिसमें कंपोनेंट निर्माण, R&D, और औद्योगिक इंफ्रास्ट्रक्चर को प्रत्यक्ष वित्तीय समर्थन दिया जाता है।
- गैर-राजकोषीय हस्तक्षेप (Non-Fiscal Interventions) – जिसमें नीति, कर, मानव संसाधन, और संचालन में सुधार जैसे सुधार शामिल हैं।
I. राजकोषीय हस्तक्षेप (Fiscal Interventions)
राजकोषीय नीति पहलें सीधे वित्तीय सहायता के माध्यम से उद्योगों को सशक्त बनाने का प्रयास करती हैं। इसे तीन उप-वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
1. कंपोनेंट निर्माण के लिए प्रोत्साहन
A. Opex Support (ऑपरेशनल एक्सपेंडिचर)
कम जटिलता (Low-Complexity) वाले कंपोनेंट्स जैसे रजिस्टर, कैपेसिटर, वायर हार्नेस आदि के निर्माण को बढ़ावा देने के लिए ऑपरेशनल लागतों में सहयोग प्रदान किया जाएगा। इसका उद्देश्य MSME स्तर पर उत्पादन को सक्षम बनाना है।
B. Capex Support (कैपिटल एक्सपेंडिचर)
उच्च जटिलता (High-Complexity) वाले कंपोनेंट्स जैसे सेमीकंडक्टर, डिस्प्ले यूनिट्स आदि के लिए पूंजीगत निवेश (Capex) पर सब्सिडी दी जाएगी। इससे बड़े निवेशकों को आकर्षित करने में मदद मिलेगी।
C. Hybrid Support
कुछ उच्च जटिलता वाले कंपोनेंट्स के लिए हाइब्रिड समर्थन मॉडल विकसित किया गया है जिसमें Opex और Capex दोनों प्रकार के सहयोग दिए जाएंगे। यह नीति विदेशी और घरेलू निवेशकों दोनों के लिए अनुकूल है।
2. उत्पाद/प्रणाली डिज़ाइन पारिस्थितिकी तंत्र (Product/System Design Ecosystem)
A. नवाचार योजना (Innovation Scheme)
MSMEs और स्वतंत्र R&D संस्थानों को डिज़ाइन इनोवेशन हेतु फंडिंग, मेंटरशिप, और पेटेंट सहायता दी जाएगी। इससे ‘Design in India’ पहल को मजबूती मिलेगी।
B. स्केल-अप योजना
जो कंपनियां भारतीय डिजाइन आधारित उत्पाद बना रही हैं, उन्हें स्केल-अप करने के लिए सरकारी सहायता, वित्तपोषण, और बाज़ार तक पहुंच प्रदान की जाएगी।
3. औद्योगिक बुनियादी ढांचे का विकास (Scale Up Industrial Infrastructure)
A. बड़े पैमाने पर क्लस्टर का निर्माण
स्पेशल इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग ज़ोन (EMZs) और इंडस्ट्रियल क्लस्टर्स का विकास किया जाएगा ताकि कंपनियों को ज़मीन, लॉजिस्टिक्स, और श्रम जैसी बुनियादी आवश्यकताएं सुलभ हो सकें।
B. स्थानीय नियम और क्लस्टर प्रशासन
राज्यों के साथ समन्वय कर स्थानीय स्तर पर स्पष्ट और तेज़ निर्णय प्रणाली विकसित की जाएगी।
C. साझा सुविधाएं
क्लस्टर में अपशिष्ट प्रबंधन, जल आपूर्ति, बिजली, कनेक्टिविटी आदि के लिए साझा इंफ्रास्ट्रक्चर स्थापित किया जाएगा।
D. शुल्क मुक्त आयात
फ़्री ट्रेड ज़ोन (FTZ) जैसी सुविधाओं के तहत कच्चे माल और पूंजीगत सामानों के आयात को शुल्क मुक्त किया जाएगा।
E. श्रमिकों के लिए आवास
क्लस्टर क्षेत्र में श्रमिकों के लिए किफायती और गुणवत्ता युक्त आवास सुविधाएं सुनिश्चित की जाएंगी।
II. गैर-राजकोषीय हस्तक्षेप (Non-Fiscal Interventions)
गैर-राजकोषीय पहलें नीति, शासन, कर सुधार, और मानव संसाधन विकास पर केंद्रित हैं जो दीर्घकालीन प्रभाव डालती हैं।
1. टैरिफ सरलीकरण और कर सुधार
A. इनपुट पर करों का युक्तिकरण
घटक पुर्जों के लिए इनपुट ड्यूटी को तर्कसंगत बनाया जाएगा ताकि देश में असेंबली की बजाय विनिर्माण को प्रोत्साहन मिले।
B. GST और आयकर का सुधार
इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों को GST रिफंड, इनपुट टैक्स क्रेडिट और आयकर में सरलीकरण जैसी सुविधाएं दी जाएंगी जिससे नकदी प्रवाह बेहतर हो और व्यापारिक वातावरण सुलभ हो।
2. सॉफ्ट इन्फ्रास्ट्रक्चर और कौशल विकास
A. वैश्विक प्रतिभा को आकर्षित करना
भारत में विश्व स्तरीय विशेषज्ञों को कार्य हेतु आकर्षित करने के लिए वीज़ा प्रक्रिया को तेज़ और सहज बनाया जाएगा।
B. ट्रेनिंग के लिए वीज़ा स्वीकृति
फॉरेन कंपनियों के विशेषज्ञों को प्रशिक्षण देने हेतु भारत आने के लिए वीज़ा प्राप्त करने की प्रक्रिया सरल और शीघ्र होगी।
C. अकादमी-उद्योग सहयोग
विश्वविद्यालयों और उद्योगों के बीच सहयोग बढ़ाया जाएगा जिससे कोर्सेज को उद्योग की मांग के अनुसार अनुकूल बनाया जा सके।
D. उद्योग द्वारा संचालित कौशल केंद्र
निजी कंपनियों को प्रेरित किया जाएगा कि वे अपने स्तर पर ट्रेनिंग हब स्थापित करें जहां कार्यबल को व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जा सके।
3. तकनीकी हस्तांतरण और ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस’ सुधार
A. तकनीकी हस्तांतरण को सरल बनाना
वैज्ञानिक अनुसंधान से निकली तकनीकों का निजी क्षेत्र में हस्तांतरण तेज़ और सहज होगा। इसके लिए प्रक्रियाओं को न्यूनतम किया जाएगा।
B. ज़मीनी संचालन हेतु परमिट
राज्यों और केंद्र के स्तर पर आवश्यक परमिट की प्रक्रिया को युक्तिसंगत बनाया जाएगा ताकि कंपनियों को संचालन में अनावश्यक बाधाएं न झेलनी पड़ें।
C. अनुपालन लागत में कमी
लाइसेंसिंग, निरीक्षण, पर्यावरण अनुमति जैसी प्रक्रियाओं को डिजिटल और पारदर्शी बनाया जाएगा जिससे अनुपालन लागत कम हो और समय की बचत हो।
भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में नीति पहलें न केवल निवेश और उत्पादन को प्रोत्साहित करती हैं, बल्कि एक समग्र तकनीकी और औद्योगिक पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण की दिशा में भी काम करती हैं। यदि इन पहलों को सुसंगठित और समयबद्ध तरीके से लागू किया जाए, तो भारत न केवल घरेलू आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है, बल्कि एक विश्वसनीय वैश्विक निर्यातक के रूप में भी उभर सकता है।
यह रणनीति आत्मनिर्भर भारत (Aatmanirbhar Bharat) के दृष्टिकोण को भी मूर्त रूप देती है, जिसमें भारत डिज़ाइन से लेकर विनिर्माण तक में नेतृत्व करता है। अब ज़रूरत है एक सतत, एकीकृत और परिणामोन्मुख नीति क्रियान्वयन की।
2030 तक का विज़न: महत्त्वाकांक्षी लेकिन व्यवहारिक लक्ष्य
नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत 2030 का विज़न भारत के ऑटोमोटिव क्षेत्र को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में एक स्पष्ट रोडमैप प्रस्तुत करता है। इस विज़न के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
- कंपोनेंट उत्पादन: 2030 तक भारत का ऑटोमोटिव कंपोनेंट उत्पादन $145 बिलियन तक पहुँचने की संभावना है।
- निर्यात में वृद्धि: वर्तमान में $20 बिलियन के निर्यात को तीन गुना बढ़ाकर $60 बिलियन तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है।
- व्यापार अधिशेष: इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भारत को लगभग $25 बिलियन का व्यापार अधिशेष प्राप्त हो सकता है।
- वैश्विक हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी: भारत की वैश्विक ऑटोमोटिव वैल्यू चेन (GVC) में हिस्सेदारी 3% से बढ़कर 8% तक पहुँच सकती है।
- रोज़गार सृजन: इस क्षेत्र में 20 से 25 लाख नई नौकरियाँ उत्पन्न होने की संभावना है, जिससे कुल प्रत्यक्ष रोज़गार 30 से 40 लाख तक पहुँच सकता है।
मुख्य चुनौतियाँ: भारत को क्या बाधित कर रहा है?
यद्यपि भारत ने ऑटोमोबाइल उत्पादन में प्रभावशाली प्रगति की है, फिर भी वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भारत की हिस्सेदारी सीमित रही है। रिपोर्ट में कुछ प्रमुख चुनौतियाँ उजागर की गई हैं:
1. वैश्विक ऑटो कंपोनेंट व्यापार में सीमित हिस्सेदारी
भारत का वैश्विक ऑटोमोटिव कंपोनेंट व्यापार में केवल 3% हिस्सा है, जो लगभग $20 बिलियन के बराबर है। इसके विपरीत, इस व्यापार में चीन, जर्मनी, जापान और अमेरिका जैसे देश 10-20% से अधिक की हिस्सेदारी रखते हैं।
2. उच्च-परिशुद्धता क्षेत्रों में कमजोर उपस्थिति
इंजन कंपोनेंट्स, ड्राइव ट्रांसमिशन और स्टीयरिंग सिस्टम्स जैसे क्षेत्रों में भारत की हिस्सेदारी मात्र 2-4% है। ये क्षेत्र उच्च गुणवत्ता, परिशुद्धता और तकनीकी दक्षता की माँग करते हैं — जिनमें भारत को अभी काफी सुधार की आवश्यकता है।
3. संरचनात्मक और परिचालन लागत संबंधी समस्याएँ
भारत में उत्पादन की लॉजिस्टिक्स लागत अभी भी वैश्विक औसत से अधिक है। इसके साथ ही बिजली, परिवहन, श्रम कानूनों और भूमि अधिग्रहण जैसे क्षेत्रों में संरचनात्मक सुधार की आवश्यकता है।
4. वैश्विक मूल्य श्रृंखला में सीमित एकीकरण
हालांकि भारत तेजी से विकास कर रहा है, परंतु अभी भी वह पूरी तरह से वैश्विक मूल्य श्रृंखला (Global Value Chains) में एकीकृत नहीं हो पाया है। यह स्थिति भारत को उच्च मूल्य वाले उत्पादों और तकनीकी रूप से उन्नत सेगमेंट्स में पीछे कर देती है।
समाधान और सिफारिशें
नीति आयोग की रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि यदि भारत इन चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपट सके, तो वह वैश्विक ऑटोमोटिव उद्योग में एक अग्रणी भागीदार बन सकता है। इसके लिए निम्नलिखित रणनीतियाँ सुझाई गई हैं:
1. उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादन को बढ़ावा
उद्योगों को उच्च-परिशुद्धता उत्पादों के निर्माण में निवेश बढ़ाना चाहिए, विशेष रूप से सेमीकंडक्टर, ईवी बैटरी, और इंजन पार्ट्स जैसे क्षेत्रों में। इसके लिए अनुसंधान और विकास (R&D) में निवेश अनिवार्य है।
2. निर्यात-उन्मुख नीति ढांचा
सरकार को निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए टैक्स छूट, सब्सिडी, और बेहतर लॉजिस्टिक्स इंफ्रास्ट्रक्चर की दिशा में काम करना चाहिए। बंदरगाह, हवाई अड्डे और कोल्ड चेन की गुणवत्ता को बढ़ाना आवश्यक है।
3. कौशल विकास और प्रशिक्षण
20 से 25 लाख नौकरियाँ उत्पन्न करने के लिए कुशल श्रमिकों की आवश्यकता होगी। इसके लिए आईटीआई, पॉलिटेक्निक और उच्च तकनीकी संस्थानों के माध्यम से व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
4. वैश्विक साझेदारियों को प्रोत्साहन
भारत को जापान, जर्मनी, कोरिया और अमेरिका जैसे देशों के साथ तकनीकी साझेदारी बढ़ानी चाहिए, ताकि नई तकनीकें और निवेश भारत आ सकें। इसके माध्यम से वैश्विक मूल्य श्रृंखला में गहराई से एकीकृत हुआ जा सकता है।
5. ग्रीन मोबिलिटी और EV क्षेत्र में नेतृत्व
इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) की ओर वैश्विक झुकाव को देखते हुए भारत को इस क्षेत्र में अग्रणी बनने के लिए ठोस नीति और प्रोत्साहन योजनाएँ बनानी चाहिए। भारत के पास सस्ते श्रम और विशाल घरेलू बाजार जैसी प्राकृतिक ताकतें हैं, जिनका उपयोग कर EV मैन्युफैक्चरिंग में वैश्विक नेतृत्व हासिल किया जा सकता है।
नीति आयोग की रिपोर्ट “Automotive Industry: Powering India’s Participation in Global Value Chains” भारत के ऑटोमोटिव क्षेत्र के लिए एक दृष्टिपत्र के रूप में उभरती है। इसमें स्पष्ट रूप से बताया गया है कि भारत के पास वह सामर्थ्य और क्षमता है जिससे वह वैश्विक ऑटोमोटिव आपूर्ति श्रृंखला में एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी बन सकता है। इसके लिए तकनीकी नवाचार, निर्यातोन्मुख रणनीति, कौशल विकास, और मजबूत नीतिगत सहयोग आवश्यक है।
भारत यदि इन पहलुओं पर तीव्र गति से कार्य करता है, तो वह न केवल वैश्विक ऑटो उद्योग का एक प्रमुख स्तंभ बन सकता है, बल्कि लाखों लोगों के लिए रोजगार, आर्थिक समृद्धि और तकनीकी आत्मनिर्भरता का स्रोत भी बन सकता है।
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