चीन द्वारा गैर-परमाणु हाइड्रोजन बम का सफल परीक्षण | वैश्विक सुरक्षा पर गहराता संकट

हाल ही में चीन ने एक ऐसी सैन्य तकनीक का परीक्षण किया है, जिसने वैश्विक सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय कानून और हथियार नियंत्रण की वर्तमान संरचना को गंभीर चुनौती दी है। चीन ने पारंपरिक विखंडनीय (fissionable) पदार्थों जैसे यूरेनियम या प्लूटोनियम के बिना काम करने वाला एक गैर-परमाणु हाइड्रोजन बम (Non-fission Hydrogen Bomb) विकसित कर उसका सफल परीक्षण किया है। इस बम के निर्माण में मैग्नीशियम हाइड्राइड आधारित संलयन तकनीक (fusion technology) का प्रयोग किया गया है, जो अब तक की सैन्य इतिहास में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रतीक है।

इस घटनाक्रम ने न केवल सैन्य रणनीतियों को नए सिरे से परिभाषित किया है, बल्कि वैश्विक शक्ति संतुलन, परमाणु अप्रसार संधियों और सुरक्षा उपायों पर भी गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। आइए इस पूरे परिदृश्य को विस्तार से समझें।

हाइड्रोजन बम | मूल अवधारणा

हाइड्रोजन बम, जिसे थर्मोन्यूक्लियर बम भी कहा जाता है, पारंपरिक परमाणु बमों की तुलना में कई गुना अधिक शक्तिशाली होता है। इसका संचालन दो चरणों में होता है:

  1. प्राथमिक चरण (विखंडन – Fission):
    इस चरण में यूरेनियम-235 या प्लूटोनियम-239 जैसे भारी तत्वों के विखंडन से अत्यधिक ऊष्मा और दबाव उत्पन्न किया जाता है। यह प्रारंभिक विस्फोट सेकेंडरी चरण को आरंभ करने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है।
  2. द्वितीयक चरण (संलयन – Fusion):
    उत्पन्न ताप और दाब की वजह से हाइड्रोजन समस्थानिकों (ड्यूटेरियम और ट्रिटियम) का संलयन होता है, जिससे अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा निकलती है। यह संलयन प्रक्रिया सूरज और अन्य तारों में होने वाली प्रक्रियाओं के समान है।

परमाणु बमों में जहां केवल विखंडन होता है, वहीं हाइड्रोजन बम में संलयन के कारण ऊर्जा का स्तर हजारों गुना अधिक होता है।

चीन का नवीन प्रयोग | गैर-विखंडनीय हाइड्रोजन बम

चीन द्वारा किए गए इस हालिया परीक्षण में, परंपरागत विखंडनीय पदार्थों का बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया गया। इसके स्थान पर, उन्नत संलयन तकनीकों का सहारा लिया गया, जिनमें मुख्यतः निम्नलिखित प्रणालियाँ सम्मिलित हैं:

  • जड़त्वीय संपीड़न संलयन (Inertial Confinement Fusion – ICF):
    इस प्रक्रिया में अत्यधिक शक्तिशाली लेज़रों का प्रयोग कर संलयन ईंधन (जैसे ड्यूटेरियम-ट्रिटियम मिश्रण) को अत्यधिक दाब और तापमान के अधीन संपीड़ित किया जाता है, जिससे संलयन प्रतिक्रिया प्रारंभ होती है।
  • चुंबकीय संपीड़न (जैसे Z-पिंच प्लाज़्मा प्रणाली):
    इस तकनीक में संलयन ईंधन को शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्रों के माध्यम से संपीड़ित किया जाता है, ताकि उसमें संलयन प्रतिक्रियाएँ शुरू की जा सकें।

इस तकनीक का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें रेडियोधर्मी विखंडनीय तत्वों का प्रयोग नहीं होता, जिसके चलते यह बम पारंपरिक परमाणु हथियारों की परिभाषा से बाहर आ जाता है।

वैश्विक चिंता का विषय क्यों?

चीन के इस परीक्षण ने कई गंभीर चिंताएँ खड़ी कर दी हैं, जिनमें प्रमुख हैं:

1. कानूनी अस्पष्टता (Legal Ambiguity)

आज तक एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) और सीटीबीटी (परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि) जैसी अंतरराष्ट्रीय संधियाँ परमाणु हथियारों को विखंडनीय पदार्थों के आधार पर परिभाषित करती हैं।

चीन द्वारा विकसित यह नया हथियार इन परिभाषाओं को दरकिनार करता है, जिससे एक नया कानूनी शून्य (Legal Vacuum) उत्पन्न हो गया है। यह अनिश्चितता आने वाले समय में अन्य राष्ट्रों को भी इस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर सकती है।

2. विकास में सहजता

ड्यूटेरियम और ट्रिटियम जैसे संलयन ईंधनों की उपलब्धता और नियंत्रण पारंपरिक परमाणु सामग्री की तुलना में अपेक्षाकृत सरल है। इसके अतिरिक्त, संलयन तकनीकों का उपयोग ऊर्जा उत्पादन जैसे नागरिक कार्यों में भी होता है, जिससे इन्हें द्वैध-उपयोगी तकनीक (Dual-Use Technology) माना जाता है।

इस स्थिति में, कोई भी देश या संगठन वैज्ञानिक अनुसंधान की आड़ में ऐसे घातक हथियार विकसित कर सकता है।

3. प्रसार का बढ़ता खतरा

गैर-रेडियोधर्मी और छोटे आकार के होने के कारण, इन हथियारों को ट्रैक करना या उनकी पहचान करना अत्यंत कठिन है। इससे इनके आतंकी समूहों या दुष्ट राष्ट्रों के हाथों में जाने की संभावना बढ़ जाती है।

यह खतरा वैश्विक सुरक्षा के लिए अभूतपूर्व चुनौती बन सकता है।

4. असामान्य युद्ध (Asymmetric Warfare)

गुप्त हमलों, ग्रे-ज़ोन युद्धों (जहां युद्ध और शांति के बीच की रेखाएँ धुंधली होती हैं), औद्योगिक क्षेत्र में हमला या तस्करी जैसे परिदृश्यों में इन हथियारों का प्रयोग संभावित है।

इससे पारंपरिक सैन्य संतुलन बिगड़ सकता है और छोटे राष्ट्रों को भी बड़े सैन्य प्रभाव के साधन प्राप्त हो सकते हैं।

अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया और आवश्यक कदम

इस अभूतपूर्व संकट से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर त्वरित और ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है:

1. संधियों का अद्यतन

  • सीटीबीटी जैसी संधियों को अद्यतन कर उनमें विखंडन रहित संलयन परीक्षणों को भी प्रतिबंधित करना चाहिए।
  • परमाणु हथियारों की परिभाषा को केवल विखंडनीय पदार्थों तक सीमित न रखकर, उनकी ऊर्जा उत्पादन क्षमता और विनाशकारी प्रभाव के आधार पर पुनर्परिभाषित करना चाहिए।

2. सत्यापन तंत्र का निर्माण

  • एक नया अंतरराष्ट्रीय निकाय, संलयन हथियार सत्यापन निकाय (Fusion Weapons Verification Body – FWVB), की स्थापना करनी चाहिए।
  • यह निकाय अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) या रासायनिक हथियार नियंत्रण संगठन (OPCW) की तर्ज पर कार्य करे।
  • संलयन तकनीक से बने हथियारों का पता लगाने, विकास पर निगरानी रखने और उल्लंघन पर कार्रवाई करने के लिए विशेष प्रोटोकॉल विकसित किए जाएं।

3. वैश्विक सहयोग

  • प्रमुख शक्तियों – अमेरिका, रूस, भारत, यूरोपीय संघ, जापान आदि को मिलकर एक साझा रणनीति तैयार करनी चाहिए।
  • संलयन तकनीक के सैन्य दुरुपयोग को रोकने के लिए एक वैश्विक फ्रेमवर्क बनाना चाहिए।

भारत की रणनीति | समय की मांग

चीन के इस विकास के बाद, भारत के लिए भी अपनी सुरक्षा रणनीति में आवश्यक परिवर्तन करना अपरिहार्य हो गया है। भारत को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए:

1. “विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोध” नीति का उन्नयन

भारत की “Credible Minimum Deterrence” नीति को न केवल परमाणु हथियारों के खिलाफ, बल्कि गैर-परमाणु संलयन हथियारों के संदर्भ में भी अद्यतन करना चाहिए।

भारत को चाहिए कि वह न्यूनतम संख्या में लेकिन अत्याधुनिक तकनीकों से सुसज्जित हथियार प्रणाली विकसित करे।

2. तकनीकी निवेश

  • भारत को गैर-विकिरणीय विस्फोटों और संलयन आधारित खतरों का पता लगाने के लिए नए सेंसर, डिटेक्टर और विश्लेषण प्रणालियाँ विकसित करनी चाहिए।
  • रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) जैसी संस्थाओं को इस दिशा में अनुसंधान को प्राथमिकता देनी चाहिए।

3. कूटनीतिक सक्रियता

  • भारत को संयुक्त राष्ट्र और अन्य बहुपक्षीय मंचों पर इस नए खतरे के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए।
  • नई वैश्विक संधियों के निर्माण और पुराने संधियों के अद्यतन में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

चीन द्वारा बिना विखंडनीय पदार्थों के हाइड्रोजन बम के सफल परीक्षण ने वैश्विक सुरक्षा ढांचे को गहरे संकट में डाल दिया है। यह न केवल परमाणु हथियारों की धारणा को पुनर्परिभाषित करता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की प्रभावशीलता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।

आने वाले समय में यह अत्यंत आवश्यक होगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस नए खतरे को गंभीरता से ले और त्वरित तथा ठोस कदम उठाए। भारत के लिए भी यह अवसर है कि वह अपनी नीति और रक्षा ढांचे को इस नई तकनीकी वास्तविकता के अनुसार ढाले, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके।

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