मानव सभ्यता के इतिहास में मुद्रा (Money) की उत्पत्ति एक महत्वपूर्ण आर्थिक क्रांति के रूप में देखी जाती है। मुद्रा ने विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों को दूर किया और एक सुव्यवस्थित आर्थिक व्यवस्था को जन्म दिया। यह न केवल पूँजीवादी व्यवस्था की रीढ़ बन गई, बल्कि समाजवादी और मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं में भी इसकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण बनी रही। आधुनिक अर्थव्यवस्था में मुद्रा को ‘संचार माध्यम’, ‘मूल्य का मापक’, ‘भंडारण का साधन’ और ‘विनिमय का माध्यम’ जैसे अनेक रूपों में देखा जाता है।
किन्तु जितनी महत्ता और उपयोगिता मुद्रा की है, उतने ही गंभीर दोष और खामियाँ भी इसमें निहित हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मुद्रा एक ‘अमिश्रित वरदान’ नहीं है। इसके लाभों के समानांतर इसके दुष्परिणाम भी समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालते हैं। जहाँ एक ओर मुद्रा आर्थिक प्रगति की वाहक है, वहीं दूसरी ओर यह सामाजिक, नैतिक और आर्थिक पतन का कारण भी बनती है।
इस लेख में हम विस्तार से मुद्रा के विभिन्न दोषों पर विचार करेंगे जिन्हें मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है — आर्थिक दोष और सामाजिक दोष।
आर्थिक दोष
(1) मुद्रा की मूल्य-अस्थिरता: एक विश्वासघातिनी संरक्षिका
मुद्रा का एक प्रमुख दोष इसकी मूल्य अस्थिरता है। समय के साथ मुद्रा की क्रय-शक्ति में लगातार गिरावट आती है, जिससे यह एक भरोसेमंद भंडारण साधन नहीं रह जाती। इसे ‘धन की विश्वासघातिनी संरक्षिका’ (A faithless steward of wealth) कहा जाता है क्योंकि लोग इसे संचित धन के रूप में रखते हैं, परंतु मुद्रास्फीति के कारण उस धन का मूल्य धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है।
भारत का ही उदाहरण लें—1947 की तुलना में 1974 में रुपये की क्रय शक्ति मात्र 24.6% रह गई थी। 1960 के मुकाबले 1985 में यह घटकर 15.87 पैसे पर आ गई। यह मूल्यह्रास न केवल भारत की समस्या है, बल्कि एक वैश्विक प्रवृत्ति बन चुकी है। उदाहरण के लिए, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी में मुद्रा का इतना अवमूल्यन हुआ कि लोग रुपये को टोकरियों में भरकर ले जाते थे जबकि वस्तुएँ जेब में आ जाती थीं।
इस प्रकार मुद्रा, जो एक स्थिर मूल्य संरक्षक होनी चाहिए, अपने मूल उद्देश्य में विफल होती दिखाई देती है।
(2) आर्थिक जीवन में अनिश्चितता: व्यापार चक्रों का निर्माण
मुद्रा की अस्थिरता ही व्यापार-चक्रों (Trade Cycles) की उत्पत्ति में भी सहायक बनती है। व्यापार-चक्र आर्थिक उतार-चढ़ाव को दर्शाते हैं — मंदी, स्थायित्व, समृद्धि और अवसाद जैसे चरणों का दोहराव। ये चक्र आर्थिक जीवन में अनिश्चितता और अस्थिरता को जन्म देते हैं।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स के अनुसार, व्यापार-चक्र बचत और विनियोग (investment) के मध्य असमानता का परिणाम हैं। दोनों ही कारक मुद्रा पर आधारित होते हैं, अतः इन चक्रों को मौद्रिक घटनाएँ (Monetary Phenomena) माना जा सकता है। जब मुद्रा की मात्रा अनियंत्रित हो जाती है, तो इससे अतिउत्पादन, अति-पूंजीकरण और आर्थिक मंदी जैसे संकट उत्पन्न होते हैं।
(3) शोषण का माध्यम: पूँजी का केंद्रीकरण
मुद्रा के विकास ने पूँजीवाद को जन्म दिया और इससे सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा मिला। कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में पूँजी का केंद्रीकरण हुआ, जबकि बहुसंख्यक समाज आर्थिक रूप से हाशिए पर चला गया। समाज ‘हव्स’ (Haves) और ‘हैव-नॉट्स’ (Have-nots) — अर्थात् अमीर और गरीब वर्गों में बँट गया।
मजदूर वर्ग पूँजीपतियों पर आश्रित हो गया। कम मजदूरी देकर अधिक उत्पादन लेने की प्रवृत्ति ने श्रमिकों के शोषण को बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप धन का वितरण असमान हो गया। धनी, और अधिक धनी होता गया जबकि निर्धन की स्थिति और भी दयनीय होती गई।
यह असमानता केवल राष्ट्रीय स्तर तक सीमित नहीं रही, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी देखी गई। विकसित देशों ने विकासशील देशों का आर्थिक और राजनीतिक शोषण करना शुरू कर दिया।
(4) अपव्ययिता एवं सट्टेबाजी में वृद्धि
मुद्रा ने उपभोग की प्रवृत्ति को अत्यधिक बढ़ावा दिया है। मनुष्य अब आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि विलासिता और दिखावे के लिए व्यय करने लगा है। यह अपव्ययिता आर्थिक अस्थिरता को जन्म देती है। अतिउत्पादन (Overproduction) और अति-पूँजीकरण (Over-capitalisation) जैसे संकट इसी अपव्यय के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं।
मुद्रा के कारण सट्टेबाजी, जुआ, अनावश्यक ऋण लेना, और क्रेडिट पर जीवन जीने की प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं। ये सभी आर्थिक जोखिमों को जन्म देती हैं और व्यक्ति तथा समाज को ऋणजाल में फँसा देती हैं।
(5) सेवक नहीं, स्वामी बन गई मुद्रा
मूल रूप से मुद्रा का कार्य मानव की सेवा करना था—यह जीवन को सरल और सुगम बनाने का माध्यम थी। परंतु आज की स्थिति यह हो गई है कि मानव स्वयं मुद्रा का दास बन गया है। उसकी समस्त क्रियाएँ और निर्णय अब मुद्रा की प्राप्ति के इर्द-गिर्द घूमने लगे हैं। यह अधीनता इतनी गहरी हो चुकी है कि लोग नैतिकता, संबंध और यहाँ तक कि मानवता तक को तिलांजलि देने को तैयार हो जाते हैं।
यदि मुद्रा का प्रयोग जनसेवक के रूप में किया जाए, तो यह उपयोगी सिद्ध होती है। परंतु जब यह ‘स्वामी’ बन जाती है, तब सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है।
सामाजिक दोष
मुद्रा केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी अनेक दोषों की जननी है। इसकी शक्ति ने मानव मूल्यों और नैतिकता को पीछे धकेल दिया है।
(1) भौतिकवाद को बढ़ावा
मुद्रा ने समाज को भौतिकतावादी बना दिया है। आज जीवन के मूल्यों को नापने का पैमाना धन और संपत्ति बन चुका है। नैतिक गुण, सदाचार, सेवा भावना आदि का स्थान अब धन-संपत्ति और भौतिक सुख-सुविधाओं ने ले लिया है। यह प्रवृत्ति समाज में मानवीय संवेदनाओं को समाप्त कर रही है।
प्रसिद्ध विचारक लुडविग वॉन मीसेज़ (L.V. Mises) के अनुसार — “मुद्रा को चोरी, हत्या, छल तथा प्रतिज्ञा-भंग का कारण माना गया है। जब वेश्या अपना शरीर और न्यायाधीश अपना न्याय बेचता है, तब मुद्रा की निन्दा होती है।”
Ludvig Von Mises : The Theory of Money and Credit, Page 93
(2) भ्रष्टाचार और अनैतिक आचरण को प्रोत्साहन
राजनीतिक भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, बेईमानी, कालाबाजारी, टैक्स चोरी आदि की जड़ें भी मुद्रा की अत्यधिक महत्ता में निहित हैं। आज लोग सत्ता और शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत लाभ और धन संग्रह के लिए करते हैं।
रस्किन ने कहा था — “मुद्रा के शैतान ने आत्माओं को दबा दिया है। ऐसा लगता है कि इसे बहिष्कृत करने की शक्ति किसी भी धर्म या दर्शन में नहीं है।”
इसका अर्थ है कि धन के मोह ने मनुष्य की आत्मा और चेतना को पराजित कर दिया है।
(3) सामाजिक रिश्तों में दरार
मुद्रा के प्रभाव ने पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों को भी कमजोर किया है। धन के कारण आज भाई-भाई, माता-पिता और संतान में भी विवाद उत्पन्न हो रहे हैं। विवाह जैसे पवित्र संस्थानों में दहेज का प्रचलन, रिश्तों का व्यापार, और प्रेम का सौदा जैसे कुप्रचलन मुद्रा के ही कारण हैं।
मुद्रा ने सामाजिक रिश्तों को आत्मीयता की बजाय व्यावसायिकता में बदल दिया है। अब रिश्ते भी ‘देव-देन’ के आधार पर निभाए जाने लगे हैं।
(4) अपराधों में वृद्धि
धन की लिप्सा ने लोगों को अपराध की ओर धकेला है। चोरी, डकैती, अपहरण, हत्या जैसे गंभीर अपराधों का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक धन प्राप्त करना होता है। गरीब युवक असामाजिक कार्यों में शामिल हो जाते हैं और अमीर लोग भी धन को बचाने या बढ़ाने के लिए अवैध साधनों का सहारा लेते हैं।
इस प्रकार मुद्रा अपराधों के पीछे एक प्रमुख प्रेरक शक्ति बन जाती है।
मुद्रा एक महान मानव आविष्कार है, जिसने आर्थिक क्रांति को जन्म दिया है। किन्तु जब इसका प्रयोग विवेक और मर्यादा के साथ नहीं किया जाता, तब यह समाज और अर्थव्यवस्था के लिए अभिशाप बन जाती है।
मुद्रा अपने आप में दोषयुक्त नहीं है, बल्कि उसका अविवेकी, असंयमित और अत्यधिक उपयोग ही समस्याओं का कारण बनता है। हमें इसे ‘साध्य’ नहीं बल्कि ‘साधन’ के रूप में उपयोग करना चाहिए। जब तक मुद्रा मानव की सेवक बनी रहेगी, तब तक वह उपयोगी रहेगी। परंतु जैसे ही वह स्वामी बनती है, वह नैतिक पतन, सामाजिक असंतुलन और आर्थिक विनाश का कारण बनती है।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि मुद्रा के दोषों को समझकर उसका संतुलित और विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए, ताकि समाज और मानवता दोनों को इससे अधिकतम लाभ मिल सके और न्यूनतम हानि।
Economics – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें –
- मुद्रा: प्रकृति, परिभाषाएँ, कार्य, और विकास | Money: Nature, Definitions, Functions, and Evolution
- मुद्रा एवं सन्निकट मुद्रा | Money and Near Money
- मुद्रा एवं मुद्रा मूल्य | Money and Value of Money
- मुद्रा के प्रकार | Kinds of Money
- मुद्रा की तटस्थता | Neutrality of Money
- मुद्रा की तटस्थता की आलोचना | एक समालोचनात्मक अध्ययन
- मुद्रा भ्रम (Money Illusion) | एक मनोवैज्ञानिक स्थिति का आर्थिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण
- मुक्त अर्थव्यवस्था में मुद्रा | Money in a Free Economy
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