मुद्रा पर नियंत्रण की आवश्यकता | Need for Monetary Control

मानव सभ्यता के विकास में मुद्रा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह केवल वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुकी है। मुद्रा के बिना आज का आर्थिक ढांचा अधूरा है। परन्तु जिस प्रकार हर शक्ति का सदुपयोग और दुरुपयोग सम्भव होता है, उसी प्रकार मुद्रा भी एक वरदान या अभिशाप बन सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज और सरकार इसका उपयोग किस प्रकार करते हैं। अतः मुद्रा के प्रभाव को नियंत्रित करने की आवश्यकता निरंतर बनी रहती है।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डी. एच. रॉबर्टसन का यह कथन उल्लेखनीय है— “Money, which is a source of many blessings to mankind, becomes also, unless we can control it, a source of peril and confusion.” अर्थात् यदि हम मुद्रा को नियंत्रित नहीं कर सके, तो यह आशीर्वाद से अभिशाप बन सकती है। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए यह लेख मुद्रा नियंत्रण की आवश्यकता, उसके पक्ष-विपक्ष, प्रभाव और नीति-निर्माण की विवेचना करता है।

मुद्रा का महत्त्व और कार्य

मुद्रा का मुख्य कार्य विनिमय का माध्यम बनना है। इसके अतिरिक्त यह मूल्य मापन, भविष्य के भुगतान का मानक, संचित मूल्य (store of value) और आर्थिक लेन-देन में सुविधा का कार्य करती है। इन गुणों के कारण ही मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली (Barter System) को अप्रासंगिक बना दिया और आधुनिक आर्थिक प्रणाली को गति दी।

मुद्रा उत्पादन, निवेश, उपभोग तथा वितरण के निर्णयों को भी प्रभावित करती है। इसके प्रवाह और मात्रा में परिवर्तन से महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक असंतुलन आदि समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इसीलिए मुद्रा के नियमन (regulation) की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता।

मुद्रा के दुरुपयोग के दोष

मुद्रा की उपयोगिता निर्विवाद है, परंतु इसके अनियंत्रित उपयोग के परिणाम अत्यंत घातक हो सकते हैं। मुद्रास्फीति (inflation), अवस्फीति (deflation), आर्थिक अस्थिरता, मूल्य असमानता और सामाजिक विषमता जैसी समस्याएँ अनियंत्रित मुद्रा नीति का परिणाम होती हैं।

यहाँ यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि उपर्युक्त दोष स्वयं मुद्रा के दोष नहीं हैं। वस्तुतः ये दोष मुद्रा के अनुचित, अव्यवस्थित और असंतुलित उपयोग के हैं, जिसके लिए मनुष्य ही उत्तरदायी है। जब तक मुद्रा का उपयोग संतुलित, उद्देश्यपूर्ण और नियंत्रित ढंग से किया जाता है, यह समाज के लिए एक वरदान सिद्ध होती है। परंतु जब इसका दुरुपयोग होने लगता है, यह संकट और अव्यवस्था का कारण बन जाती है।

मुद्रा पर नियंत्रण की आवश्यकता क्यों?

1. मुद्रास्फीति और अवस्फीति से बचाव

यदि मुद्रा की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है, तो वह मांग को अत्यधिक बढ़ा देती है, जिससे वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बढ़ जाती हैं— जिसे हम मुद्रास्फीति कहते हैं। दूसरी ओर यदि मुद्रा की मात्रा घटा दी जाती है तो माँग घटती है, जिससे कीमतें गिरती हैं और अर्थव्यवस्था में अवस्फीति की स्थिति उत्पन्न होती है।

दोनों ही परिस्थितियाँ आर्थिक अस्थिरता का कारण बनती हैं। अतः मुद्रा की मात्रा को उपयुक्त स्तर पर बनाए रखना आवश्यक है, जिससे कीमतें स्थिर रहें और अर्थव्यवस्था संतुलित गति से आगे बढ़े।

2. आर्थिक असमानता को कम करना

मुद्रा के अनियंत्रित प्रवाह से धन कुछ विशेष वर्गों में केन्द्रित होने लगता है। इससे आर्थिक असमानता बढ़ती है और समाज में सामाजिक तनाव उत्पन्न होते हैं। मुद्रा नियंत्रण के माध्यम से कर नीति, सार्वजनिक व्यय और ब्याज दरों के समायोजन द्वारा सरकार इस विषमता को कम कर सकती है।

3. उत्पादन और निवेश में संतुलन बनाए रखना

उचित मात्रा में मुद्रा की उपलब्धता से निवेश को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे उत्पादन और रोजगार सृजन होता है। यदि मुद्रा की अधिकता या कमी हो जाए, तो निवेश या तो अधिक महंगा हो जाता है या अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ती है। अतः मुद्रा का संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।

मौद्रिक नीति: मुद्रा नियंत्रण का प्रमुख उपकरण

मुद्रा नियंत्रण का मुख्य माध्यम है— मौद्रिक नीति। इसे केंद्रीय बैंक, जैसे भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI), द्वारा संचालित किया जाता है। मौद्रिक नीति के दो प्रकार होते हैं:

1. विस्तारवादी मौद्रिक नीति (Expansionary Monetary Policy)

यह नीति तब अपनाई जाती है जब अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में हो। इसमें ब्याज दरें घटाई जाती हैं, नकद आरक्षित अनुपात (CRR) में कमी की जाती है, और ओपन मार्केट ऑपरेशन्स (OMOs) द्वारा बांड खरीदे जाते हैं ताकि बैंकों के पास अधिक नकदी हो और वे अधिक ऋण दे सकें।

2. संकुचनात्मक मौद्रिक नीति (Contractionary Monetary Policy)

यह तब लागू की जाती है जब मुद्रा की अधिकता के कारण मुद्रास्फीति बढ़ रही हो। इसमें ब्याज दरें बढ़ाई जाती हैं, CRR में वृद्धि की जाती है, और बांड बेचे जाते हैं ताकि नकदी की मात्रा घटे और माँग को कम किया जा सके।

इन दोनों नीतियों का समुचित उपयोग करके मुद्रा पर प्रभावी नियंत्रण रखा जा सकता है।

मुद्रा की सीमाएँ और नीतिगत समन्वय

यद्यपि मुद्रा एक शक्तिशाली उपकरण है, परन्तु इसकी सीमाएँ भी हैं। केवल मुद्रा की पूर्ति बढ़ा कर राष्ट्र गरीबी या बेरोजगारी को दूर नहीं कर सकता। उत्पादन की क्षमता बढ़ाने के लिए केवल मौद्रिक नीति पर्याप्त नहीं है।

1. उत्पादन पर सीमित प्रभाव

यदि किसी देश में प्राकृतिक संसाधनों, पूँजीगत उपकरणों की कमी, अकुशल श्रम और पिछड़ी तकनीक की समस्याएँ विद्यमान हैं, तो मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाने से उत्पादन में वृद्धि नहीं हो सकती। इन बाधाओं को दूर करने के लिए औद्योगिक नीति, तकनीकी विकास, शिक्षा नीति आदि की भी आवश्यकता होती है।

2. नीति समन्वय की आवश्यकता

मौद्रिक नीति को वित्तीय नीति (fiscal policy), औद्योगिक नीति, श्रम नीति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार नीति के साथ समन्वय करके ही अधिकतम प्रभावी बनाया जा सकता है। एकांगी दृष्टिकोण से आर्थिक विकास नहीं हो सकता।

सरकार की भूमिका और उत्तरदायित्व

प्रसिद्ध विचारक बेजहॉट (Bagchot) ने कहा था— “Money will not manage itself” अर्थात् “मुद्रा स्वयं अपना प्रबन्ध नहीं करेगी।” अतः यह सरकार का कर्तव्य बनता है कि वह एक उपयुक्त मौद्रिक नीति बनाए और उसे क्रियान्वित करे।

सरकार को दो कार्य करने चाहिए:

  1. मुद्रा की मात्रा को इस प्रकार नियन्त्रित करना चाहिए कि यह व्यय में अवांछनीय परिवर्तनों का प्रमुख कारण न बने।
  2. मुद्रा की आपूर्ति को इस प्रकार नियंत्रित करना चाहिए कि कुल निजी व्यय (Total Private Spending) में असामान्य परिवर्तन न हों।

यह संतुलन बनाए रखना कठिन अवश्य है, परंतु एक सशक्त और सतर्क शासन व्यवस्था के अंतर्गत यह सम्भव है।

सामाजिक दृष्टिकोण और नैतिकता

मुद्रा का महत्व व्यक्तिगत स्तर पर जितना है, सामाजिक स्तर पर उससे अधिक गहरा है। एक व्यक्ति के लिए तो यह सच है कि जितनी अधिक मुद्रा होगी, वह उतनी अधिक वस्तुएँ और सेवाएँ प्राप्त कर सकेगा। परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रा की अधिकता गरीबी दूर नहीं कर सकती।

यह समझना आवश्यक है कि मुद्रा स्वयं एक साधन है, साध्य नहीं। इसका उद्देश्य जीवन को सरल बनाना होना चाहिए, न कि इसे जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना देना। जब समाज मुद्रा को ‘स्वामी’ मानने लगता है, तो वह अपनी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों से विमुख हो जाता है। इसीलिए कहा गया है:

“मुद्रा एक उपयोगी सेविका है, परन्तु खतरनाक स्वामिनी।”

मुद्रा पर नियंत्रण की आवश्यकता केवल आर्थिक स्थिरता के लिए ही नहीं, अपितु सामाजिक समरसता और राष्ट्र की समग्र प्रगति के लिए भी अत्यावश्यक है। बिना नियंत्रण के मुद्रा एक उन्मत्त शक्ति की भांति कार्य करती है, जो समाज के ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर सकती है। अतः सरकारों को चाहिए कि वे एक सुदृढ़ मौद्रिक नीति बनाएँ, जो लचीलापन, स्थिरता और समावेशी विकास को प्राथमिकता दे।

मुद्रा का सार्थक उपयोग तभी संभव है जब उसे केवल साधन समझा जाए, और उसके प्रभाव को संतुलित और नियंत्रित किया जाए। इस दिशा में नीति-निर्माताओं, अर्थशास्त्रियों, बैंकिंग संस्थाओं और सामान्य नागरिकों की संयुक्त भूमिका आवश्यक है।

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