वास्कोडिगामा का जन्म 1469 ई. में पुर्तगाल के साइनस शहर में हुआ था। हलाकि इसके जन्म के बारे में कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिल पाता है। कई इतिहासकारों के मध्य इसके जन्म के समय को लेकर मतभेद है। बहुत से इतिहासकार वास्कोडिगामा का जन्म 1460 से 1469 ई. के मध्य मानते है । उसके पिता शाही किले के कमांडर थे और मां भी कुलीन वर्ग से आती थी।
इसके चलते वास्को डी गामा को पुर्तगाली नौसेना में शामिल होने का मौका मिला। इस दौरान उसने बहुत नाम भी कमाया। नौसेना में वक्त गुजारने के दौरान वास्को डी गामा की मुलाकात तब के नामी जहाजियों से हुई, जिसके चलते उसने समुद्री यात्रा के बारे में अच्छा ख़ासा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
किंग मैनुएल के आदेश पर 8 जुलाई 1497 को वास्को डी गामा ने अपनी यात्रा शुरू की। वो अपने साथ चार छोटे जहाज, 171 आदमी, और 3 साल का राशन लेकर निकला। भारत तक पहुंचने और वहां से वापस लौटने की यात्रा की लम्बाई लगभग इक्वेटर का एक चक्कर लगाने के बराबर थी। इसलिए इस यात्रा में उसने पुर्तगाल के सबसे माहिर जहाजियों को अपने साथ रखा था। वास्को खुद साओ गेब्रियल नाम के जहाज का कमांडर था। इसके अलावा एक दूसरे जहाज, साओ राफ़ाएल को उसका भाई पाओलो कमांड कर रहा था।
वास्कोडिगामा को यात्रा के पहले पड़ाव में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई क्योंकि ये रास्ता जाना पहचाना था। दक्षिण पश्चिम अफ्रीका के देश सिएरा लिओन में उसने यात्रा का पहला चरण पूरा किया।
इसके बाद इक्वेटर को पार करते हुए उसने लगभग 9000 किलोमीटर की दूरी 6 महीने में पूरी की। और इस प्रकार 16 दिसंबर 1497 को वास्कोडिगामा अफ्रीका के दक्षिणी छोर तक जा पहुंचा।
वास्कोडिगामा से पहले एक समुद्री यात्री बार्थोलोम्यू डियाज़ भी यहीं तक पहुंचा था। परन्तु वास्कोडिगामा ने अब इस दूरी को पार कर दिया। और इसके आगे की यात्रा पर पहली बार कोई यूरोपियन जहाज निकल रहा था।
क्रिसमस डे के दिन उसने इस इलाके को पार करते हुए नाम दिया, नताल। नताल शब्द पुर्तगाली भाषा का एक शब्द है, इस शब्द का संबंध ईसा मसीह के जन्म से है।
महान खोजकर्ता वास्को डी गामा के शुरुआती जीवन और जन्म के बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। हालांकि कुछ इतिहासकार उनका जन्म 1460 में मानते हैं,
जबकि कुछ इतिहासकार उनका जन्म 1469 में पुर्तगाल के अलेंटेजो प्रांत के समुद्री तट पर स्थित साइनेस के किले में बताते हैं। वास्को डी गामा के पिता एस्तेवाओ द गामा भी एक महान खोजी नाविक थे,
उनके पिता को नाइट की उपाधि भी मिली थी। वहीं बाद में वास्को डी गामा ने अपने पिता के व्यापार में रुचि ली और वे भी समुद्री यात्रा लिए जा रहे जहाजों की कमान संभालने लगे। वास्कोडिगामा को वास्को दा गामा और वास्को डी गामा दोनों नाम से ही जाना जाता है।
वास्कोडिगामा का संक्षिप्त परिचय
पूरा नाम | डॉम वास्को डी गामा |
जन्म | 1460 से 1469 ई. |
जन्म स्थान | साइनस, पुर्तगाल |
माता का नाम | इसाबेल सोर्ड़े |
पिता का नाम | एस्तेवाओ द गामा |
पत्नी का नाम | कैटरीना द अतायदे |
मृत्यु | 24 मई 1524 |
मृत्यु स्थान | कोची |
व्यवसाय | अन्वेषक सैन्य नौसेना कमांडर |
जीवनसाथी | कैटरीना द अतायदे |
वास्को डी गामा की पहली समुद्री जहाज यात्रा
भारत में व्यापारिक मार्गों की खोज के लिए पहली बार 8 जुलाई1497 को वास्को डी गामा अपने 4 जहाजों के एक बेड़े के साथ साउथ अफ्रीका के लिस्बन पहुंचे। इस दौरान उनके पास दो मध्यम साइज के तीन मस्तूलों वाले जहाज थे। इसमें हर जहाज का वजन लगभग 120 टन था, एवं उनका नाम सॉओ रैफल और सॉओ ग्रैब्रिअल था।
करीब 10 हजार किलोमीटर का लंबा सफर तय करने में उन्हें लगभग 3 महीने का लंबा वक्त लगा था। 4 जहाज के अलावा उनके बेडे़ के साथ इस यात्रा के दौरान 3 दुभाषिए भी थे जिनको अलग अलग भाषाओं का ज्ञान था। वास्को डी गामा अपने बेड़े पर अपनी खोज और जीते गए जमीनों को चिन्हित करने के लिए अपने साथ पेड्राओ यानी कि पाषाण स्तंभ भी भी ले गया था।
अपनी पहली समुद्री यात्रा के दौरान वास्को डी गामा 15 जुलाई को केनेरी द्धीप पहुंचे। 26 जुलाई को उनका बेड़ा केप वर्डे द्धीप के सॉओ टियागो पर पहुंचा। यहां करीब 8 दिन रुकने के बाद वास्को डी गामा ने गुयाना की खाड़ी की तेज जलधाराओं से बचने के लिए केप ऑप गुड होप के दक्षिणी अटलांटिक से होते हुए एक घुमावदार रास्ता अपनाया और इस तरह वे अपने विशाल बेड़े के साथ 7 नवंबर को सांता हैलेना खाड़ी जो कि वर्तमान में दक्षिण अफ्रीका में आता है, वहां पर पहुंचे।
वास्को डी गामा इसके बाद 16 नवंबर को अपनी टीम के साथ वहां से निकले लेकिन मौसम में खराबी और तूफान के चलते वास्को डी गामा ने यात्रा को नवंबर तक रोक दिया। इसके बाद वास्को डी गामा ने मोस्सेल की खाड़ी की तरफ अपना रुख किया। यहां उन्होंने एक द्धीप पर सामान रखने वाले जहाज एवं पेड्राओ गाड़ा को अलग-अलग होने के लिए कहा।
इसके बाद वे 25 दिसंबर को नटाल के तट पर पहुंचे। फिर अपने इस अभियान को आगे बढ़ाते हुए वे 11 जनवरी, 1498 को नटाल के तट पर पहुंचे। इसके बाद वास्को डी गामा अपने इस बेड़े के साथ नटाल और मोजांबिक के बीच एक छोटी सी नदी के पास पहुचे, जिसे उन्होंने ”रियो द कोबर नाम दिया”।
फिर अपने इस अभियान को आगे बढ़ाते हुए वे आधुनिक मोजांबिक में क्लीमेन नदी पर पहुंचे, जिसे उन्होंने ”रियो डोस बोन्स सिनाइस” नाम दिया। इस अभियान के दौरान जहाज दल के कई मेंबर विटामिन सी की कमी से होने वाले रोग स्कर्वी रोग से पीड़ित हो गए, जिसके चलते करीब 1 महीने तक यह अभियान रोक दिया गया। फिर इसके बाद 2 मार्च को बेड़ा मोजांबिक द्धीप पहुंचा।
इस द्धीप में वास्को डी गामा को अरब के व्यापारियों के साथ उनके व्यापार के बारे में जानकारी हासिल हुई। वहां पर सोने, चांदी और मसालों से भरे चार अरब के जहाज भी खड़े हुए थे। इसके अलावा उन्हें मोजांबिक के शासक प्रेस्टर जॉन के कई तटीय शहरों पर कब्जा होने का भी पता चला।
हालांकि, प्रेस्टर जॉन ने वास्को डी गामा को दो पोत चालक उपलब्ध करवाए, जिसमें एक उस दौरान भाग गया जब उसे पुर्तगालियों के ईसाई होने के बारे में पता चला। इस तरह अभियान दल 14 अप्रैल को मालिंदी में पहुंचा, जहां पर भारत के दक्षिण-पश्चिम किनारे पर स्थित कालीकट का रास्ता जानने वाले एक चालक को अपने साथ ले लिया।
वहीं हिन्द महासागर में कई दिनों की यात्रा के बाद उनका बेड़ा 20 मई, 1498 को भारत के दक्षिण-पश्चिम के तट पर स्थित कालीकट पहुंचा जहां पर वास्को डी गामा ने अपने भारत पहुंचने के प्रमाण के रुप में स्थापित किया। आपको बता दें कि उस दौरान कालीकट भारत के सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्रों में से एक था, हालांकि इस दौरान वास्को डी गामा ने कालीकट के शासक से कारोबार के लिए हामी भरवा ली।
इसके बाद करीब 3 महीने तक यहां रहने के बाद कालीकट के शासक के साथ कुछ मतभेदों के चलते वास्को डी गामा को अगस्त में कालीकट को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। वहीं इस दौरान वास्को डी गामा द्वारा भारत की खोज की खबर फैलने लगी। दरअसल वास्को डी गामा ने यूरोप के व्यापारियों, सुल्तानों और लुटेरों के लिए एक समुद्री रास्ते की खोज की।
जिसके बाद भारत पर कब्जा जमाने की मंशा से यूरोप के कई राजा और व्यापारी आए और अपना अधिकार जमाने की कोशिश की। यही नहीं पुर्तगालियों की वजह से ही ब्रिटिश लोग भी भारत आने लगे। हालांकि, इसके बाद वास्को डी गामा मालिंदी के लिए निकले, इस यात्रा के दौरान 8 जनवरी, 1499 को वे अजिंदीव द्धीप पहुंचे।
इस दौरान प्रतिकूल हवाओं और समुद्री तूफान के कारण अरब सागर को क्रॉस करने में उन्हें लगभग 3 महीने का लंबा वक्त लग गया। इसके साथ ही इस दौरान उनके अभियान दल के कई सदस्य गंभीर बीमारी की चपेट में आ गए और उनकी मृत्यु हो गई।
मालिंदी पहुंचने पर इस तरह उनकी अभियान दल की संख्या बेहद कम रह गई थी, जिसकी वजह से सॉओ रैफल जहाज को जला देने के आदेश दे दिए गए थे। इस तरह वास्को डी गामा ने वहां पर भी अपने एक पेड्राओ को गाड़ा। और इस प्रकार 1 फरवरी को वास्को डी गामा मोजांबिक पहुंचे जहां पर उन्होंने अपना आखिरी पेड्राओ स्थापित किया।
फिर इसके बाद समुद्री तूफान की वजह से सॉओ ग्रैब्रिएल और बेरिओ दोनों अलग-अलग हो गए। बेरिओ करीब 10 जुलाई को पुर्तगाल की ट्रैगॉस नदी पर पहुंचा जबिक सॉओ ग्रेबिएल ने एजोर्स के दर्सीरा द्धीप के लिए अपनी यात्रा जारी रखी और 9 सितंबर को लिस्बन पहुंचा।
वास्को डी गामा की दूसरी समुद्री यात्रा
वास्को डी गामा ने 1502 में एडमिरल के रुप में करीब 10 जहाजों का नेतृत्व किया था । जिसमें ने हर जहाज की मद्द के लिए करीब 9 बेड़े थे। अपनी दूसरी समुद्री यात्रा को आगे बढ़ाते हुए वास्को डी गामा का यह बेड़ा 14 जून, 1502 को पूर्वी अफ्रीका के सोफला पोर्ट पर पहुंचा। वास्को डी गामा इसके बाद दक्षिणी अरब तट का चक्कर लगते हुए गोवा पहुंचे।
वहीं दक्षिण-पश्चिम भारत के कालीकट के उत्तर में स्थित कन्त्रागोर पोर्ट में वे अरबी जहाजों को लूटने के इंतजार में रुके। इस दौरान उन्होंने माल से लदे अरबी जहाज का माल जब्त करने के बाद उसमें आग लगा दी। इस अरबी जहाज पर माल के साथ-साथ महिलाएं, बच्चे समेत तमाम यात्री मौजूद थे, जो कि इस जहाज के साथ जलकर मर गए थे।
यह वास्को डी गामा के व्यवसायिक जीवन का सबसे भयावह और दिल दहलाने वाला कुकृत्य था। कालीकट के हिन्दू शासक जमेरिन के दुश्मन कन्त्रानोर के शासक के साथ एक संधि के बाद वास्को डी गामा अपने अभियान के लिए कालीकट के लिए रवाना हो गया।
इसको देखते हुए जमेरिन ने वास्को डी गामा ने दोस्ती के हाथ आगे बढ़ाए, लेकिन वास्को डी गामा ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और फिर वास्को डी गामा ने पहली पोर्ट से सभी मुस्लिमों को निकालने की धमकी दी और फिर पोर्ट पर जमकर बमबारी भी की। इसके साथ ही साथ वास्को डी गामा ने जहाज पर अपना सामान बेचने आए करीब 38 हिन्दू मछुआरों की भी जान ले ली।
इसके बाद पुर्तगाली अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए कोचीन के पोर्ट पहुंचे और यहां के शासक जो कि जमेरिन के दुश्मन थे, उनसे संधि कर ली। इसके बाद पुर्तगालियों का कालीकट के पास एक युद्द हुआ, जिसके बाद उन्हें यहां से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। और वे 1503 में पुर्तगाल वापस लौट गए और फिर वहां करीब 20 साल रहने के बाद फिर से भारत आए।
इसके बाद किंग जॉन तृतीय ने 1524 में उन्हें भारत का पुर्तगाली वाइसरॉय नियुक्त किया फिर सितंबर में गोवा पहुंचने के बाद वास्को डी गामा ने यहां कई प्रशासनिक कुप्रथाओं को सुधारा।
वास्कोडिगामा की समुद्री यात्रा का वर्णन
वास्कोडिगामा को अपनी समुद्री यात्रा के दौरान कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। साथ ही साथ वास्कोडिगामा को अपने यात्रा के दौरान आने वाली दिक्कतों के कारण उसने कई महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए। उस समय भारत में मुगलों का आधिपत्य था। और लगभग पुरा भारत अरब साम्राज्य के अधीन था।
इन परिस्थियों में भारत में अपना व्यापार कर पाना आसान नहीं था तथा भारत तक की समुद्री यात्रा भी बहुत कठिन थी। और तब, जब की इस समुद्री यात्रा के लिए कोई मार्ग भी पता नहीं था।
बस इतना पता था की इस विशाल समुद्र के उस पर एक ऐसा देश है जो की व्यापार के लिए बहुत ही उत्तम है एक ऐसा देश है जिसको सोने की चिड़िया कहा जाता है जहाँ का मौसम बहुत ही लुभावना है जो समुद्र से तीन तरफ से घिरा है। इस लिए उसने भारत तक की यात्रा करने का मन बना लिया। आगे उसकी यात्रा का विस्तृत वर्णन है:
मोजम्बीक और मोम्बासा तथा मालिंदी में पड़ाव
वास्को डी गामा अपनी समुद्री यात्रा करते हुए 2 मार्च 1498 को मोज़म्बीक द्वीप पर पहुंचा। ये द्वीप अरब साम्राज्यों के अधिकार में था। और ये इलाका भारतीय महासागर में उनके ट्रेड रुट का महत्वपूर्व हिस्सा था।
मोजम्बीक द्वीप पर रहने वाले अधिकतर मुसलमान थे। ये लोग ईसाई बेड़े को देखकर हमला न कर दें, इसलिए वास्को डी गामा यहां भेष बदलकर रहा। इस दौरान उसने मोज़ाम्बीक के सुल्तान से मुलाक़ात की। ताकि पुर्तगाल और मोजम्बीक के बीच एक ट्रेड समझौता कर सके।
लम्बे सफर पर जाते हुए उसने ये ध्यान नहीं रखा कि यहां के सुल्तान उससे तोहफे की अपेक्षा करेंगे। वास्को जब जब कोई कीमती चीज पेश न कर सका तो सुलतान ने उसे कोई तरजीह न दी। जल्द ही स्थानीय लोगों से उसे खतरा महसूस होने लगा था, इसलिए उसने जल्द से जल्द आगे बढ़ने में भलाई समझी। परन्तु जाते-जाते उसने अपने जहाज से द्वीप पर गुस्से में तोपों से गोले भी दाग डाले।
7 अप्रैल को पुर्तगाली बेड़ा मोम्बासा द्वीप पहुंचा। यहां भी उनके साथ वैसा ही सुलूक हुआ जैसा मोजम्बीक में हुआ था। इसलिए वहां से निकलने में ही उसने अपनी भलाई समझी । और आगे उत्तर की ओर बढ़ते हुए 14 अप्रैल को वास्कोडिगामा मालिंदी के तट पर पहुंचा। यहां के सुलतान की मोम्बासा से दुश्मनी थी। इसलिए जब उसे वास्को के साथ हुए व्यवहार का पता चला तो उन्होंने पुर्तगालियों का स्वागत किया।
अब तक वास्कोडिगामा को भारतीय व्यापारियों की कुछ कुछ ख़बरें मिलने लग गई थी। जिससे उसे पता चला कि वो सही रास्ते में है। मालिन्दी से आगे की यात्रा के लिए उसने कुछ स्थानीय लोगों को अपने साथ रखा। ये लोग मानसून की हवाओं का रुख जानते थे। इसलिए आगे की यात्रा में मददगार साबित हुए।
वास्को डी गामा मालाबार तट पहुंचा
24 अप्रैल को पुर्तगाली बेड़ा मालिन्दी से आगे बढ़ा। और उन्होंने 20 मई, 1948 को खोझिकोड (कालीकट) के कप्पुडु तट पर डेरा डाला। कालीकट में जब पुर्तगाली पहली बार उतरे तो उन्हें लगा कि वहां रहने वाले लोग ईसाई है। पुर्तगालियों ने अपनी यात्रा डायरी में तब के कालीकट निवासियों का वर्णन कुछ इस तरह किया है:
“सांवले रंग के इन लोगों में से कुछ की बड़ी दाढ़ी और लंबे बाल हैं, जबकि अन्य अपने बालों को छोटा करते हैं या सिर मुंडवाते हैं। बालों का एक सिर्फ एक गुच्छा ताज पर रहता है, जिससे पता चलता है कि ये लोग ईसाई हैं। ये लोग कान भी छिदवाते हैं और उसमें बहुत सा सोना पहनकर रखते हैं।
ये लोग कमर तक नंगे होकर चलते हैं। और कमर से नीचे एक महीन सा सूती कपड़ा पहनते हैं। लेकिन ऐसा सिर्फ सम्मानित लोगों के साथ हैं। इस देश की महिलाएं, बदसूरत और छोटे कद की हैं। वे गले में सोने के बहुत से गहने, बाहों में कई कंगन, और अपने पैर की उंगलियों पर कीमती पत्थरों से सजी अंगूठियां पहनती हैं। यहां सभी लोग अच्छे स्वभाव के हैं और पहली नज़र में वे लोभी और अज्ञानी जान पड़ते हैं।”
वास्कोडिगामा जब कालीकट पंहुचा, उस समय कालीकट का राजा जमोरिन था। और राजा जमोरिन तब अपनी दूसरी राजधानी में था। जब उसे खबर मिली कि कोई विदेशी बेड़ा उसके राज्य में पहुंचा है, वो तुरंत कालीकट आया और उसने वास्को डी गामा से मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात के साथ ही वास्को डी गामा भारत तक समुंद्री रास्ते की खोज में सफल हो गया था, लेकिन वो कालीकट और पुर्तगाल के बीच व्यापार समझौता कराने में नाकाम रहा।
कालीकट के अरब व्यापारियों को डर था कि पुर्तगाली न सिर्फ मसालों के व्यापार पर कब्ज़ा कर लेंगे बल्कि वो यहां ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार में भी कसर न छोड़ेंगे. इसलिए उन्होंने जामोरिन के कान भरने शुरू कर दिए. वास्को डी गामा जब जामोरिन के लिए कोई तोहफा नहीं पेश कर पाया, तो जामोरिन ने उन्हें नज़र बंद कर दिया।इसके बाद पुर्तगाली बेड़े से कहा गया कि वो तब तक नहीं निकल सकते जब तक वो अपना सारा सामान उतारकर उसे बेच न दें। और उससे राजा को टैक्स न चुका दें।
वास्को डी गामा दोबारा भारत आया
इसके बाद मजबूरी में वास्को डी गामा को खाली हाथ लौटना पड़ा। आते हुए मानसूनी हवाएं उसका साथ दे रहीं थी। लेकिन जाते हुए उसके जहाजों को हवाओं के विपरीत तैरना पड़ा। नतीज़तन वापस पुर्तगाल पहुंचते में उसे आने से 100 दिन ज्यादा लगे। इस पूरे सफर में उसके 120 लोगों की जान चली गई और सिर्फ 51 ही सही सलामत वापस लौट पाए।
कालीकट से वास्को डी गामा कुछ थोड़े से ही मसाले लेकर पुर्तगाल पहुंचा था। उन्हें बेचने उसे 300 गुना मुनाफा हुआ। पुर्तगाल के लिए वो हीरो बन चुका था।
वास्को डी गामा की यात्रा के दो साल बाद यानी साल 1501 में राजा मैनुएल ने जंगी जहाजों के दो बेड़े, भारत के लिए रवाना किए। लेकिन यहां पहुंचने तक उनकी हालत खस्ता हो चुकी थी. कालीकट के जामोरिन अब भी उनसे संधि के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए इस बेड़े को भी खाली हाथ लौटना पड़ा. लेकिन इसी दौरान वो कोचिन में एक पुर्तगाली फैक्ट्री लगाने में सफल हो गए।
इसके बाद साल 1502 में चौथे पुर्तगाली अर्माडा को भारत केलिए रवाना किया गया। जिसकी कमान वास्को डी गामा के हाथ में थी।लेकिन इस बार वास्को डी गामा को डिप्लोमेटिक नहीं, बल्कि एक मिलिट्री मिशन के लिए भेजा गया था।
अक्टूबर 29, 1502 को वास्को डी गामा दोबारा कालीकट पहुंचा और दो दिन तक उसने तोपों के जरिए कालीकट पर गोलाबारी की। कई कोशिशों के बाद भी जब जामोरिन झुकने को तैयार नहीं हुआ तो वास्को डी गामा को वापस लौटना पड़ा. इस दौरे का एक हासिल ये रहा कि पुर्तगाली कन्नूर में एक दूसरी फैक्ट्री लगाने में सफल हो गए।
अगली एक सदी तक भारत से समुंद्री व्यापार पर पुर्तगालियों ने एकाधिकार बनाए रखा. 1600 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उनके एकाधिकार को तोड़ा और धीरे-धीरे डच और फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी भी इस इलाके में व्यापार करने लगी। जहां तक वास्को डी गामा की बात है, 1524 में वह तीसरी बार भारत आया।
इस बार उसे भारत में पुर्तगाली वायसराय के रूप में नामित किया गया था. भारत पहुंचते ही उसने पुर्तगाली अधिकारियों के बीच बढ़ते भ्रष्टाचार को निपटाने की कोशिश की. हालांकि, कोचीन पहुंचने पर उसे मलेरिया ने पकड़ लिया और 24 दिसंबर 1524 को उसकी मृत्यु हो गई। कोची के किले में उसे दफनाया गया और 1539 में उसकी अस्थियां वापस पुर्तगाल भेज दी गई।
वास्को डी गामा की मृत्यु
वास्को डी गामा अपनी तीसरी भारत यात्रा के दौरान मलेरिया रोग से ग्रसित हो गए, जिसके चलते 24 मई 1524 उनकी मौत हो गई। इसके बाद वास्को डी गामा के शव को पुर्तगाल लाया गया। लिस्बन मे वास्को डी गामा का एक स्मारक भी बनाया गया है जहां से उसने अपनी भारत यात्रा की शुरुआत की थी।
इस तरह वास्को डी गामा की भारत में समुद्री मार्गों की खोज ने दुनिया में व्यापार के लिए कई नए अवसर खोले और आज उनकी खोज की वजह से ही सामुद्रिक मार्गों से व्यापार इतना आसान है। वास्को डी गामा की उनकी महान खोज के लिए हमेशा याद किया जाएगा।
इन्हें भी देखें –
- भारत के स्वतंत्रता सेनानी: वीरता और समर्पण
- बहलोल लोदी (1451-1489 ई.)
- गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई.)
- टीपू सुल्तान (1750-1799 ई.)
- सैयद वंश (1414-1451 ई.)
- भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस (1885-1947)
- मुस्लिम लीग (1906-1947)
- Direct and Indirect Speech: Rules, Charts, and 100+ Examples
- Voice: Active, Passive Voice, etc | Difference, Rules of Usage & Examples
- Adjective: Definition, Types, 100+ Example
Very nice