भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक एकता और राजनीतिक विमर्श का एक सशक्त उपकरण होती है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जहां सैकड़ों भाषाएं और बोलियाँ विद्यमान हैं, वहाँ भाषा नीति का निर्धारण एक अत्यंत संवेदनशील और जटिल कार्य होता है। इसी परिप्रेक्ष्य में, महाराष्ट्र सरकार द्वारा हाल ही में कक्षा 1 से 5 तक त्रिभाषा नीति को रद्द करना न केवल शैक्षिक दृष्टिकोण से, बल्कि भाषाई राजनीति, सांस्कृतिक समावेशिता और संघीय संरचना के संदर्भ में भी एक महत्वपूर्ण निर्णय है।
इस लेख में हम त्रिभाषा सूत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, इसके उद्देश्यों, आलोचनाओं, और महाराष्ट्र सरकार के हालिया फैसले के निहितार्थों का गहराई से विश्लेषण करेंगे।
त्रिभाषा सूत्र की पृष्ठभूमि
1. कोठारी आयोग की संस्तुति (1964–66)
त्रिभाषा सूत्र की नींव कोठारी आयोग की रिपोर्ट से पड़ी, जिसे शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी दस्तावेज माना जाता है। आयोग ने भाषा को राष्ट्रीय एकता के संवर्धन और सांस्कृतिक समरसता के सशक्त उपकरण के रूप में देखा। आयोग की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार ने इसे 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 1968) में औपचारिक रूप से स्वीकार किया।
2. त्रिभाषा सूत्र की पारंपरिक संरचना
- हिंदी भाषी राज्यों में: हिंदी + अंग्रेज़ी + एक आधुनिक भारतीय भाषा (प्रायः दक्षिण भारतीय भाषा)
- गैर–हिंदी भाषी राज्यों में: क्षेत्रीय भाषा + हिंदी + अंग्रेज़ी
इस ढांचे का उद्देश्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों के छात्रों को भाषाई विविधता से परिचित कराना, एकता को प्रोत्साहन देना और राष्ट्रीय संवाद की क्षमता का विकास करना था।
नई शिक्षा नीति (NEP 2020) और त्रिभाषा सूत्र
1. लचीलापन और भाषा–चयन की स्वतंत्रता
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने त्रिभाषा सूत्र को बरकरार रखा, परंतु इसे अधिक लचीला बना दिया। इसमें स्पष्ट प्रावधान किया गया कि:
- किसी भी भाषा को किसी राज्य पर थोपा नहीं जाएगा।
- शिक्षार्थियों और अभिभावकों को भाषा–चयन की स्वतंत्रता दी जाएगी।
- कम से कम दो भाषाएं भारतीय मूल की होनी चाहिए।
इस परिवर्तन ने राज्यों को स्थानीय संदर्भों के अनुसार शिक्षा नीतियों को अनुकूलित करने की संवैधानिक स्वतंत्रता दी।
2. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF) की भूमिका
NCF ने त्रिभाषा सूत्र को न केवल शैक्षणिक नीति के रूप में देखा, बल्कि राष्ट्र निर्माण और सांस्कृतिक समावेशिता के औजार के रूप में भी प्रस्तुत किया। NCF मानता है कि बहुभाषिकता से बच्चों में संज्ञानात्मक क्षमता, सांस्कृतिक समझ और सामाजिक सहिष्णुता का विकास होता है।
महाराष्ट्र सरकार का निर्णय: क्या बदला?
1. नीति का रद्द होना
लगातार दो महीने तक चले जनविरोध के बाद, महाराष्ट्र सरकार ने कक्षा 1 से 5 तक के लिए प्रस्तावित त्रिभाषा नीति को रद्द कर दिया। यह निर्णय 2024 के अंत में घोषित किया गया और जून 2025 में इसे औपचारिक रूप से लागू न करने का निर्णय लिया गया।
2. विरोध के स्वर
- शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और NCP जैसे सत्तारूढ़ गठबंधन के दलों ने इस नीति को “थोपे गए परिवर्तन” के रूप में देखा।
- भाषाई समुदायों को डर था कि यह निर्णय उनके बच्चों पर हिंदी थोपने का प्रयास है।
- शिक्षकों ने भी शिक्षण संसाधनों और प्रशिक्षण की कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया।
त्रिभाषा सूत्र के उद्देश्य और सकारात्मक पहलू
1. राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा
त्रिभाषा सूत्र को इस दृष्टिकोण से विकसित किया गया था कि छात्र विभिन्न भाषाओं के संपर्क में आकर भारत की विविधता में एकता को अनुभव करें। हिंदी–गैर–हिंदी भाषी छात्रों के बीच संवाद की बाधाएं समाप्त हों और देशभर में एक भावनात्मक एकता विकसित हो।
2. बहुभाषावाद को प्रोत्साहन
बचपन में अनेक भाषाएं सीखना न केवल व्यावहारिक लाभ देता है, बल्कि यह संज्ञानात्मक विकास में भी मदद करता है। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि बहुभाषिक बच्चे अधिक स्मृति, ध्यान और समस्या–समाधान क्षमता से युक्त होते हैं।
3. सांस्कृतिक संरक्षण
स्थानीय भाषाओं और शास्त्रीय भाषाओं का संरक्षण भारतीय संस्कृति और साहित्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत क्षेत्रीय और शास्त्रीय भाषाओं को शिक्षा में शामिल करना भाषा के प्रति सम्मान और संरक्षण की भावना उत्पन्न करता है।
त्रिभाषा सूत्र की आलोचनाएं
1. हिंदी थोपने का आरोप
गैर–हिंदी भाषी राज्यों, विशेषकर दक्षिण भारत में, यह आरोप लगाया गया कि त्रिभाषा सूत्र के माध्यम से हिंदी को अप्रत्यक्ष रूप से थोपा जा रहा है। यह भाषाई संघवाद के विरुद्ध माना गया, जिसमें सभी भाषाओं को समान दर्जा और सम्मान मिलना चाहिए।
2. तमिलनाडु का स्थायी विरोध
तमिलनाडु राज्य त्रिभाषा सूत्र का लगातार विरोध करता रहा है और दो–भाषा नीति (तमिल + अंग्रेज़ी) को अपनाए हुए है। यह राज्य मानता है कि हिंदी को अनिवार्य बनाने का प्रयास संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन है।
3. व्यावहारिक कठिनाइयाँ
- प्रशिक्षित भाषा–शिक्षकों की कमी।
- उच्च गुणवत्ता वाली पठन सामग्री का अभाव।
- ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में तीन भाषाओं में शिक्षण एक अव्यवहारिक लक्ष्य।
महाराष्ट्र के जनविरोध की जड़ें
1. मराठी अस्मिता और भाषाई पहचान
महाराष्ट्र में मराठी भाषा को केवल एक संप्रेषण भाषा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता और पहचान का प्रतीक माना जाता है। किसी भी नीति जो इसे कमजोर करती हो, उसका जबरदस्त विरोध स्वाभाविक है।
2. राजनीतिक समीकरण
राज्य सरकार में शामिल कुछ दलों को डर था कि त्रिभाषा सूत्र से उनकी राजनीतिक वैधता को नुकसान पहुंच सकता है, खासकर तब जब यह निर्णय जनता के समर्थन के बिना लिया गया हो।
3. शैक्षिक प्रशासन की तैयारी में कमी
प्रस्तावित नीति को लागू करने के लिए आवश्यक शिक्षक प्रशिक्षण, पाठ्यपुस्तक विकास, स्कूल–इन्फ्रास्ट्रक्चर, इत्यादि पर न तो कोई ठोस योजना थी और न ही संसाधन आवंटित किए गए थे।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में महाराष्ट्र का निर्णय
महाराष्ट्र का निर्णय एक राज्य विशेष की नीति अवश्य है, परंतु इसके राष्ट्रीय निहितार्थ गहरे हैं:
- क्या भारत की बहुभाषिक नीति में हिंदी का वर्चस्व बढ़ रहा है?
- क्या त्रिभाषा सूत्र आज के तकनीकी–प्रेरित और कौशल–केंद्रित शिक्षा में प्रासंगिक है?
- क्या राज्य सरकारें स्थानीय जरूरतों के अनुसार शिक्षा नीति में संशोधन कर सकती हैं, या केंद्र सरकार की नीतियाँ बाध्यकारी हैं?
इन सवालों के उत्तर भारत के शिक्षा संघवाद, भाषाई समानता, और राष्ट्रीय समरसता को परिभाषित करेंगे।
आगे की दिशा और सुझाव
1. नीति में लचीलापन
NEP 2020 की मूल भावना के अनुसार, भाषा नीति में लचीलापन आवश्यक है। हर राज्य को अपने सांस्कृतिक और भाषाई संदर्भों के अनुसार नीति को अपनाने की छूट दी जानी चाहिए।
2. समावेशी नीति–निर्माण
भाषा नीति बनाते समय स्थानिक भाषाई समुदायों, शिक्षाविदों, अभिभावकों और छात्रों की राय अवश्य ली जानी चाहिए। टॉप–डाउन दृष्टिकोण से नीति लागू करना टकराव को जन्म देता है।
3. शिक्षक प्रशिक्षण और संसाधन विकास
तीन भाषाओं में शिक्षा देने की योजना तभी सफल हो सकती है जब:
- पर्याप्त प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध हों।
- गुणवत्तापूर्ण पाठ्य–सामग्री सभी भाषाओं में विकसित की जाए।
- स्कूलों में भाषाई समावेशिता को बढ़ावा दिया जाए।
4. भाषाई विविधता का उत्सव
भारत की ताकत उसकी बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता है। भाषा नीति ऐसी होनी चाहिए जो हर भाषा को सम्मान, सुरक्षा, और अवसर प्रदान करे – न कि उसे प्रतिस्पर्धा या वर्चस्व की दौड़ में झोंके।
निष्कर्ष
महाराष्ट्र द्वारा त्रिभाषा नीति को रद्द करना एक शिक्षानीति से अधिक राजनीतिक और सामाजिक विमर्श का विषय बन गया है। यह निर्णय हमें एक बार फिर सोचने पर मजबूर करता है कि भारत जैसे देश में शिक्षा और भाषा नीति का निर्माण केवल प्रशासनिक आदेशों से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संवाद और संघीय संतुलन से होना चाहिए।
भविष्य की नीतियों में यह आवश्यक होगा कि शिक्षा और भाषा को राजनीतिक उपकरण नहीं, बल्कि समावेशिता, विकास और राष्ट्रीय एकता के सेतु के रूप में देखा जाए। तभी भारत अपनी भाषाई विरासत के साथ–साथ वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भी सशक्त बन सकेगा।
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